केंसर कवर: बीमा भी और पुण्य लाभ भी

‘राष्ट्रीय केंसर रोकथाम एवम् अनुसन्धान संस्थान’ (एनआईसीपीआर) तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी कुछ आँकड़े अत्यधिक भयावह हैं -

- प्रति वर्ष 7,00,000 नए केंसर रोगी सामने आ रहे हैं। 

- केंसर मौतों की संख्या 5,56,400 प्रति वर्ष हो गई है।  

- महिला केंसर रोगियों के मामले में चीन और  अमरीका के बाद भारत तीसरे नम्बर पर है। 

- 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 14,00,000 महिलाएँ केंसरग्रस्त पाई गईं। डॉक्टरों तक नहीं पहुँच पाई महिलाएँ इनमें शरीक नहीं हैं। 

- प्रसव मृत्यु के मुकाबले केंसर मृत्यु लगभग पौने दो गुना अधिक हो रही हैं। 

- स्तन केंसर और सर्वाइकल केंसर मृत्यु के मामले में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है।

- बच्चादानी केंसर के मामले में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है। 

- प्रति दिन 2,000 महिलाएँ केंसर रोगी के रूप में चिह्नित होती हैं। इनमें से 1,200 महिलाएँ ‘लास्ट स्टेज’ पर होती हैं।

- केंसर से मरनेवाले 70 प्रतिशत रोगी, निम्न तथा मध्यम आय वर्ग के होते हैं।

केंसर का ईलाज अत्यधिक मँहगा अपितु लम्बे समय तक चलता है। केवल रोगी ही नहीं, रोगी के समूचे परिवार के धैर्य की परीक्षा हो जाती है और आर्थिक कचूमर निकल जाता है।


ऐसे में, भारतीय जीवन बीमा निगम की ‘केंसर कवर’ पॉलिसी (तालिका 905) औसत मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ‘निर्बल के बल राम’ की तरह सहायक हो सकती है। 

इस पॉलिसी की सामान्य जानकारियाँ निम्नानुसार हैं -

- यह स्वास्थ्य बीमा है।

- यह केवल केंसर की बीमारी के लिए है।

- इसमें मोटे तौर पर त्वचा केंसर के अतिरिक्त समस्त प्रकार के केंसर शरीक हैं।  

- न्यूनतम आयु 20 वर्ष (पूर्ण) तथा अधिकतम आयु 65 वर्ष (निकटतम जन्म दिनांक)।

- पॉलिसी पूर्णता अवधि पर अधिकतक आयु 75 वर्ष।

- पॉलिसी अवधि न्यूनतम 10 वर्ष तथा अधिकतम 30 वर्ष। किन्तु पॉलिसी अवधि ऐसी रहेगी कि पूरी होने पर बीमाधारक की आयु 50 वर्ष या अधिक रहे। अर्थात् 20 वर्ष आयु वाले व्यक्ति को 30 वर्ष से कम अवधि की पॉलिसी नहीं मिल सकेगी।

- न्यूनत बीमा धन रुपये 10,00,000/- (रुपये दस लाख) और अधिकतम बीमा धन रुपये 50,00,000/- (रुपये पचास लाख)। बीमा धन एक लाख रुपयों के गुणक में लिया जा सकेगा। 

- पॉलिसी शुरु होने के बाद, शुरु के 180 दिनों तक ही पॉलिसी के लाभ शुरु होंगे। अर्थात्, पॉलिसी शुरु होने के बाद, 180 दिनों की अवधि में यदि केंसर हो जाता है तो पॉलिसी के लाभ नहीं मिलेंगे और पॉलिसी स्वतः निरस्त/अप्रभावी हो जाएगी।

- यह पॉलिसी पिछली तारीख से शुरु नहीं होगी।

इस पॉलिसी में बीमित राशि के दो विकल्प उपलब्ध हैं -

पहला विकल्प - स्थिर बीमित राशि। अर्थात्, जितने का बीमा लिया गया है, उतनी ही रकम का बीमा पॉलिसी के अन्तिम दिनांक तक चलेगा।

दूसरा विकल्प - बढ़ती हुई बीमित राशि। इस विकल्प में, पॉलिसी का एक वर्ष पूरा होने के बाद, अगले पाँच वर्षों तक, या पहली बार केंसर चिह्नित (डायग्नोसिस) होने तक (जो भी स्थिति पहले आए तब तक) बीमित राशि में, प्रति वर्ष, मूल बीमित राशि की 10 प्रतिशत बढ़ोतरी होगी। अर्थात्, उदाहरणार्थ, यदि किसी ने 10,00,000/- रुपयों का बीमा लिया है और अगले 6 वर्षों तक केंसर चिह्नित नहीं हुआ है तो उसकी बीमित राशि 15,00,000/- रुपये हो जाएगी।

कब-कब, कितना भुगतान और क्या लाभ मिलेंगे?

पहली बार (अर्ली स्टेज) विर्निदिष्ट केंसर चिह्नित होने पर -

- बीमित राशि की 25 प्रतिशत राशि का एक मुश्त भुगतान किया जाएगा।

- अगले तीन वर्षों की प्रीमीयम माफ कर दी जाएगी।

अगली बार (मेजर स्टेज) विर्निदिष्ट केंसर होने पर -

- बीमित राशि की शेष 75 प्रतिशत राशि का भुगतान किया जाएगा।

- शेष वर्षों की प्रीमीयम माफ कर दी जाएगी।

- अगले दस वर्षों तक या पालिसी समाप्त होने तक (जो भी अवधि पहले पूरी हो) बीमित राशि की 01 (एक) प्रतिशत राशि प्रति माह भुगतान की जाएगी।

कृपया ध्यान दें - विर्निदिष्ट केंसर का चिकित्सकीय प्रमाणीकरण सुस्पष्ट, सुनिश्चित और असंदिग्ध रूप से किया जाना चाहिए। केंसर निर्धारण में ‘किन्तु’, ‘परन्तु’, ‘शायद’, ‘सम्भव है’ जैसी शब्दावली स्वीकार नहीं की जाएगी।

कुछ विशेष बातें -

- प्रीमीयम भुगतान के लिए एक माह की अवधि (जो तीस दिन से कम नहीं होगी) की रियायती छूट दी जाएगी। इस अवधि में प्रीमीयम जमा नहीं करने पर पॉलिसी कालातीत (लेप्स हो जाएगी)। बकाया सारी किश्तें जमा कराने पर कालातीत पॉलिसी चालू (पुनर्चलित/रिवाइव) कराई जा सकेगी किन्तु पुनर्चलन/रिवाईवल दिनांक से 180 दिनों का प्रतिबन्ध फिर से लागू हो जाएगा। 

- यह पालिसी लेने के लिए किसी भी प्रकार की कोई डॉक्टरी या खून-पेशाब, ईसीजी, एक्स-रे आदि जाँच आवश्यक नहीं है।

- इस पॉलिसी में दावा भुगतान के लिए दावेदार से चिकित्सा खर्च के बिल, रिपोर्टें आदि की मूल प्रतियाँ नहीं माँगी जाएँगी। अर्थात् यदि आपने दूसरी मेडिक्लेम पॉलिसी ले रखी है तो उसके लाभ भी आप ले सकते हैं। किन्तु, असामान्य स्थिति अनुभव होने पर, समुचित चिकित्सा कराये जाने के प्रमण माँगे जा सकते हैं। 

- किसी भी स्थिति में (अर्ली स्टेज अथवा मेजर स्टेज में), केंसर चिह्नित होने के दिनांक से सात दिनों की अवधि में यदि केंसर रोगी की मृत्यु हो जाती है तो दावा स्वीकार नहीं होगा। 

- इस पॉलिसी में पुरुषों के मुकाबले महिलओं की प्रीमीय अधिक है।

- जैसा कि शुरु में ही कहा गया है, यह स्वास्थ्य बीमा है, इसलिए इसमें केंसर होने पर ही दावा भुगतान किया जाएगा। पॉलिसी पूरी होने पर परिपक्वता भुगतान नहीं मिलेगा। 

- प्रीमीयम की रकम पर, आय-कर अधिनियम की धारा 80 (डी) मे छूट मिलेगी।

मुझे पहली नजर में यह पॉलिसी युवा वर्ग के लिए उपयुक्त और आश्वस्तिदायक लगी है। अपने दोनों बेटों और बहुओं के लिए मैं यह पॉलिसी ले रहा हूँ।

मैंने यथा सम्भव अधिकाधिक जानकारी देने की कोशिश की है। लेकिन चूँकि मूल परिपत्र अंग्रेजी में है और मेरा अंग्रेजी ज्ञान शून्यवत है। इसलिए चूक की और अन्यथा व्याख्यायित किए जाने की आशंका की गुंजाइश है। इसलिए, यदि आपकी कोई जिज्ञासा हो तो अपने एजेण्ट से या आपके यहाँ स्थित एलआईसी कार्यालय से सम्पर्क कर लें। चाहें तो मुझसे भी मोबाइल नम्बर 098270 61799 पर सम्पर्क कर लें। मैं यथासम्भव जिज्ञासा का समाधान करने की कोशिश करूँगा। 

इस पॉलिसी के मूल परिपत्र के पृष्ठ क्रमांक 3 और 4 मुझे महत्वूपर्ण अनुभव हुए हैं। आपकी सुविधा के लिए इनकी स्केन प्रतियाँ  यहाँ दे रहा हूँ। 

‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः’ की कामना सहित एक बात मुझे विशेष रूप से कहनी है। 

ईश्वर आप सबको दीर्घायु प्रदान करे और आजीवन पूर्ण स्वस्थ बनाए रखे। इस पॉलिसी के (आय-कर लाभ के अतिरिक्त) लाभ उठाने की आवश्यकता कभी न पड़े। लेकिन चूँकि इस पॉलिसी के अन्तर्गत केवल केंसर रोगी को ही भुगतान किया जाएगा, इसलिए आप खुद के लिए सुरक्षा जुटाने के साथ-साथ अनजाने में ही, किसी न किसी केंसर रोगी की सहायता करने का पुण्य लाभ भी अर्जित करेंगे ही। न आप जान पाएँगे कि आपने किसकी सहायता की न ही सहायता पानेवाला जान पाएगा कि उसने किससे सहायता ली। ऐसी मूक और अज्ञात सेवा ही वास्तविक ईश्वर सेवा होती है। लिहाजा, यह पॉलिसी, मात्र एक बीमा पॉलिसी नहीं है। इससे कहीं आगे बढ़कर काफी-कुछ और भी है - अनूठा, अवर्णनीय, केवल महसूस होनेवाला आनन्ददायी, आत्म-सन्तोष।
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परिपत्र पेज - 3

परिपत्र पेज - 4

अवतार की प्रतीक्षा में निष्क्रिय सज्जन

‘उस अहसानफ़रामोश और निष्ठुर मीडिया को क्या कहिये जो चौबीसों घण्टे अविश्वास प्रस्ताव पर बहस दिखाता रहा। बार-बार राहुल और मोदी के गले मिलने का रीप्ले और उस पर टाइमपास बहस दिखाई गई। भूल गये कि देश का एक सांस्कृतिक राजदूत अपने आखरी सफर पर जाकर आग की लपटों को समर्पित किया जा रहा है। लम्पट नेताओं की बहस के तमाम शब्द बहुत जल्द इतिहास के कूड़ेदान के हवाले कर दिये जाएँगे। आगे-पीछे भुला भी दिये जायेंगे। पर कविवर का लिखा हर शब्द हमारी संस्कृति की मूल्यवान धरोहर है और रहेगा।

‘यक्ष-प्रश्न इतना भर है कि राजनीतिक घटनाक्रम, कला से भी ऊपर है?’

यह सवाल मेरा नहीं। इन्दौर निवासी, मेरे प्रिय मित्र विजय नागर का है जो उन्होंने फेस बुक के जरिए सार्वजनिक किया। वे इन दिनों अपने बेटे के पास इंग्लैण्ड में हैं। नीरजजी और राहत इन्दौरी उनके ‘महबूब कवि/शायर’ हैं। नीरजजी से उनके साक्षात्कार छपे भी हैं। नीरजजी के निधनोपरान्त मीडिया द्वारा की गई उपेक्षा से आहत नागरजी का क्षोभ और आक्रोश इस सवाल में आसानी से, साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। कुछ लोगों को (खासकर कलाओं/कलमों को व्यर्थ और हानिकारक माननेवाले राजनीतिकर्मियों को) नागरजी का यह गुस्सा और क्षोभ अतिरेकी लग सकता है। लेकिन इससे मूल सवाल निरस्त नहीं हो जाता। नागरजी का सवाल वाजिब भी है और सामयिक भी।

लेकिन, हवा में उछाला गया यह सवाल अन्ततः है किससे? मीडिया से? शायद नहीं। मीडिया तो खुद एक पक्ष है! तो क्या राजनीतिकर्मियों से? निश्चय ही उनसे तो नहीं ही है। राजनीति (और विशेषतः सत्ता की राजनीति) और कला-कलम का सम्बन्ध तो कभी भी ‘मित्रवत’ नहीं रहा। राजनीति के लिए कला-कलम तो सदैव ही ‘भोग्या’ ही रही - कभी अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए तो प्रायः ही अपनी छवि गढ़ने, गाढ़ा करने के लिए। राजनीति ने कला-कलम को सदैव अपनी आश्रित स्थिति, याचक-मुद्र में ही रखना/देखना चाहा। कभी नहीं चाहा कि ये उसके सामने तनकर, प्रश्नाकुल मुद्रा में खड़ी हों। 

तो फिर यह सवाल किससे है? किसी और से नहीं, खुद अपने आप से। ‘अपने आप से’ याने हम सबसे। मीडिया के इस रवैये से आज कौन दुःखी, चकित, हतप्रभ, क्षुब्ध और आक्रोशित नहीं? लिहाजा यह सवाल हममें से प्रत्येक का है और हममें से प्रत्येक से ही है। जवाब हमें ही देना है और जवाब यदि हमारे पास नहीं है तो हमें, खुद में ही खोजना है।
हम ‘आदर्शप्रेमी’ समाज हैं, ‘आदर्शजीवी’ नहीं समाज नहीं। ऐसा समाज अनिवार्यतः और अन्ततः ढोंगी, पाखण्डी और दोहरा जीवन जीनेवाला समाज ही होता है। हम आदर्शों की दुहाइयाँ देते हैं, उनकी पूजा करते हैं। लेकिन उनके आचरण को अपने जीवन में उतारना तो दूर, उनकी चिन्ता, उनकी सुरक्षा-संरक्षा, देखरेख नहीं करते। हाँ, उनका प्रतीकीकरण कर, उनका महिमा मण्डन भरपूर कर खुद को बरी-जिम्मे मान लेते हैं। खुद से झूठ बोलकर सुखपूर्वक आत्म-भ्रम में जीने का यह सबसे आसान और सर्वोत्कृष्ट उपक्रम है। हमें कठिन काम करने की आदत नहीं।

हम आज भी, आजादी के ठीक बादवाले समय के मीडिया की अपेक्षा किए बैठे हैं। लेकिन यह अपेक्षा करते हुए भूल जाना चाहते हैं कि हम खुद कितना बदल गए हैं। आजादी के ठीक बादवाले समय में ‘हम’ जितना भले, ईमानदार, परोपकारी, देशप्रेमी था, उतना आज नहीं रह गया है। हम सब अपने लिए जी रहे हैं और अपने लिए ही जुटे हुए हैं। यह पढ़कर गुस्सा आएगा। हर कोई कहेगा - ‘मैं ऐसा नहीं हूँ।’ लेकिन कड़वी वास्तविकता यही है - “मानें, न मानें, ‘हम’ ऐसे ही हो गए हैं।” 

लेकिन जैसा कि कहा है, हम ‘आदर्शप्रेमी’ समाज हैं, ‘आदर्शजीवी’ नहीं। इसलिए हम ‘आदर्श’ की दुहाइयाँ देते हुए किसी अवतार की प्रतीक्षा करते रहते हैं। हम खुद तो राम नहीं बनते लेकिन अपने लिए एक राम तलाशते रहते हैं।

यह सवाल और कुछ नहीं, इसी तलाश की बेचैनी है।

यह सच है कि आज के हताशाभरे, भयाक्रान्त समय में आज भी हमें तीन संस्थाओं पर पूरा भरोसा है। ये हैं - न्यायपालिका, अध्यापक और पत्रकारिता (या कि मीडिया)। निस्सन्देह, ये सब भी अब ‘चौबीस केरेट, सौ टंच’ शुद्ध नहीं रह गई हैं। लेकिन फिर भी हमें इन पर भरोसा है और इनसे ही अपेक्षा है। और केवल आज ही नहीं, हर समय, हर स्थिति, हर काल में हमें इन पर भरोसा रहा ही है। ये तीनो संस्थाएँ हमारे लिऐ न्यूनाधिक ‘ईश्वर रूप’ ही रही हैं। इसीलिए, जब इनमें से कोई हमारा भरोसा तोड़ता है तो हम आहत होते हैं और तब ही ऐसे सवाल उठते हैं। लेकिन चूँकि हम सही नहीं होते हैं इसलिए हमारी वास्तविक वेदना को प्रकट करनेवाला सवाल वास्तविक नहीं रह जाता और हवा में उड़ा दिया जाता है। हम इसी के शिकार हो गए हैं।

ऐसा कोई संकट नहीं जिसका समाधान न हो। हमारा सबसे बड़ा संकट है - ‘सक्रिय दुर्जन, निष्क्रिय सज्जन।’ तीन गुण्डे, खुली सड़क पर, पचासों लोगों की उपस्थिति में, एक लड़की के साथ दुराचार करते हैं। लड़की चिल्लाती है। बचाव की गुहार लगाती है। लोग देखते रहते हैं। कुछ वीडियो फिल्माने लगते हैं। लड़की जूझती रहती है, लुटती रहती है। एक भी आदमी बचाने के लिए आगे नहीं आता। जो होना होता है, हो जाता है। वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दिया जाता है और पुलिस कटघरे में खड़ी कर दी जाती है। चेनलों को मसाला मिल जाता है। तीन दिन यही समाचार चलता है। डिबेट होने लगती है। दलगत निष्ठाएँ और धर्मिक आग्रह सच पर भारी पड़ने लगते हैं। देखने-सुननेवाले झल्लाने लगते हैं। अन्तिम परिणाम में वही सवाल सामने आता है - ‘मीडिया को कोई और काम नहीं रह गया?’ वे तीन संगठित थे। अपने लक्ष्य के लिए निरन्तर सक्रिय थे। मीडिया भी अघोषित रूप से संगठित है। चौबीस घण्टे की दुकान है इसलिए सक्रिय तो उसे रहना ही है। ‘संगठित और सक्रिय’ अपना काम कर रहे हैं, अपने लक्ष्य हासिल कर रहे हैं। घाटे में है तो केवल ‘हम’, जो न तो संगठित है न ही सक्रिय। बस! अवतार की प्रतीक्षा में बैठा है।

नीरजजी के चाहनेवाले, उन्हें माननेवाले अनगिनत लोग हैं। देश में ही नहीं, दुनिया भर में। मीडिया के इस रवैये पर अधिकांश क्षुब्ध और आक्रोशित होंगे। ये सब एकजुट होकर यदि एक के बाद एक, मीडिया चैनलों को सन्देश भेजते तो ‘रुपया नहीं तो पाई ही सही’, कुछ तो असर होता। चैनलों की अपनी प्राथमिकताएँ, अपना अर्थशास्त्र है। उन्हें तो वह मसाला चाहिए जो उनकी टीआरपी बढ़ाए। उन्हें महसूस होता कि नीरजजी उनकी टीआरपी पर असर डाल रहे हैं तो वे अपनी प्राथमिकताएँ पुनर्निधारित करतीं। इन चैनलों को किसी से मतलब नहीं। उनका ईश्वर तो केवल ‘रोकड़ा’ है। 

नीरजजी तो एक बहाना मात्र हैं। बात वही है - ‘सक्रिय दुर्जन, निष्क्रिय सज्जन।’ अखबार सुधर सकते हैं, मीडिया दुरुस्त हो सकता है, बिगड़ैल नेताओं के मिजाज ठिकाने आ सकते हैं। क्या नहीं हो सकता? सब कुछ हो सकता है। है वही मुश्किल जिसे इंसान मुश्किल मान ले। लेकिन होगा तब, जब कोई करना चाहे। 

और करने की यह चाहत ‘ईमानदार चाहत’ होनी चाहिए। इसमें ‘तेरा-मेरा’ आ गया तो फिर कुछ नहीं होगा। मीडिया इसी तरह मनमानी करता रहेगा, लड़कियाँ भीड़ भरी सडकों पर लुटती रहेंगी, नेता उच्छृंखलता बरतते रहेंगे, ‘पार्टी लाइन’ जीतती रहेगी, ‘हिन्दू-मुसलमान’ की फसल को खाद मिलती रहेगी और ‘हम’ सदैव की तरह आदर्शोंकी दुहाइयाँ देते हुए, हा!हा!कार करते हुए अवतार की प्रतीक्षा करता रहेगा और ऐसे सवाल निरुत्तर बने रहेंगे - प्रलय तक।
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दैनिक 'सुबह सवेरे',भोपाल, 26 जुलाई 2018

भारत लौटने पर

 'बर्लिन से बब्‍बू को' के प्रकाशन की समापन कडी।


।।श्री।।

बालकवि बैरागी फोन 55
मनासा (म.प्र.)
जिला मन्दसौर


जिन दिनों बर्लिन और जी. डी. आर. के अन्य हिस्सों में मैं ये पत्र “बब्बू” को लिख रहा था तब मुझे भी पता नहीं था कि इन पत्रों का उपयोग इस तरह हो जायेगा। सामान्यतया मैंने इन पत्रों को इसी उद्देश्य से लिखा था कि मेरे अपने, स्वजन और परिजन जी. डी. आर. के बारे में मुझसे क्या-क्या प्रश्न कर सकते हैं। वास्तव में ये सारे पत्र “बब्बू” की अमानत थे पर भारत आने पर मैंने पाया कि “बब्बू” ने इन पत्रों को “दशपुर-दर्शन” के माध्यम से सामान्य जनता तक पहुँचा दिया है। सुखद समाचार मेरे लिये यह रहा कि इन पत्रों का सर्वत्र स्वागत हुआ। और भी सुखद समाचार यह रहा कि जब डाक व्यवस्था की गड़बड़ी से मेरे कुछ पत्र मेरी भारत वापसी पर भी यहाँ नहीं मिले और “दशपुर दर्शन” में इस प्रकाशन का क्रम टूटता-सा लगा तो मेरी डाक में इन पत्रों के प्रकाशन की माँग के पत्र बढ़ गये। 

किसी दूर देश के बारे में अपना प्रिय पात्र क्या राय बनाता है इसको जानने के लिये लोग उतावले और आतुर रहते हैं। मैं इसे उनका अधिकार मानता हूँ। इन पत्रों को लिखते समय मेरा उद्देश्य किसी भी तरह से वह नहीं था जो कि सामान्य लोग समझ लेते हैं। पर यदि ये पत्र कुछ प्रश्नों का उत्तर देते हैं और जी. डी. आर. के बारे में सामान्य पाठक की जिज्ञासा को शान्त करते हैं तो बेशक हम दो भाईयों के बीच का यह निजी पत्राचार मेरा लोकप्रिय लेखन मान लिया जाना चाहिये।

इस प्रकाशन का सारा श्रेय जिन मित्रों को जाता है उनके नाम देना मेरी विवशता है। सबसे पहिले तो मैं “बब्बू” याने मेरे सगे छोटे भाई विष्णु बैरागी का आभारी हूँ कि उसने इस निजत्व को भी महत्व में विसर्जित कर दिया। फिर “दशपुर दर्शन” के कर्ताधर्ता भाई सोभाग्यमल जैन “करुण” का आभार मैंने मानना चहिये। प्रकाशन के लिये उनका निर्णय महत्वपूर्ण रहा होगा। सम्पादक मण्डल के सदस्य भाई श्री हेमेन्द्रकुमारजी “त्यागी”, श्री राजा दुबे और भाई विजय बैरागी को मैं धन्यवाद देता हूँ कि इस छोटे से काम को अपने साहित्यिक श्रम से उन्होंने पठनीय बना दिया।

पाठकों का ऋणी तो मैं रहा ही हूँ।

समाप्त मैं इस तरह करूँगा कि जी. डी. आर. मात्र इतना ही और ऐसा ही नहीं है। एक महान् देश के बारे में लिखना पत्र साहित्य के बाहर भी कुछ अर्थ रखता है। 

धन्यवाद


22 अक्टूबर 1976                                     बालकवि बैरागी
दीपावली
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‘पुत्र की विदेश यात्रा पर पिता की मनःस्थिति’ यहाँ पढ़िए

‘बर्लिन से बब्बू को’ सम्पूूर्ण रूप से ‘किण्डल’ पर यहाँ उपलब्ध है। ‘किण्डल’ के अनलिमिटेड ग्राहकों को यह निःशुल्क उपलब्ध है। अन्य पाठकों को लगभग 70 रुपयों में उपलब्ध है। 

अंक ज्योतिषी भी थे नीरजजी

नीरजजी के निधन के बाद उन पर लोगों ने अपेक्षानुरूप ही
बड़ी संख्या में अपने-अपने मन्तव्य और संस्मरण प्रकट किए। नीरजजी इससे कहीं अधिक के अधिकारी थे। सन्तोष की बात यही है कि उन पर लिखना थमा नहीं है। यह क्रम बना रहेगा और नीरजजी के व्यक्तित्व के अनूठे पक्ष हमारे सामने आते रहेंगे। कुछ इस तरह कि हम हर बार एक नए, अनूठे नीरज से मिलने का सुख अनुभव करेंगे।

लेकिन, जितना कुछ मैं पढ़ पाया उसमें मुझे उनके एक पक्ष का जिक्र कहीं देखने-सुनने को नहीं मिला। मुझे ताज्जुब है। मैं यही मानकर चल रहा हूँ कि ऐसे जिक्रवाली किसी भी प्रस्तुति तक में नहीं पहुँच पाया। क्योंकि नीरजजी के व्यक्तित्व का यह ऐसा पक्ष है जो मनोविज्ञान की दृष्टि से प्रायः सबको ही जोड़ता और प्रभावित करता है। नीरजजी के इस पक्ष को मैंने 1965-66 में  जाना था। नीरजजी से मेरा प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क कभी नहीं रहा। सम्भव है, नीरजजी ने कालान्तर में इस रुचि से हाथ खींच लिए हों। किन्तु 1980 तक तो उनकी यह रुचि प्रभावी और आधिकारिक रूप से बराबर बनी हुई थी,  यह मैं अधिकार भाव से कह पा रहा हूँ।

नीरजजी के व्यक्तित्व का यह पक्ष है - अंक ज्योतिष पर उनका प्रभावी अधिकार। 

1965-66 में वे मनासा आए थे। दादा के मित्रों के आग्रह पर मनासा में एक कवि सम्मेलन हुआ था। नीरजजी भी उसमें आए थे। आए क्या थे, सच तो यह था कि नीरजजी को मनासा में बुलाने के लिए कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था। दादा,  नीरजजी से छः बरस छोटे थे और उनके पाँव छूते थे। वे दादा से, ‘तू-तुकारे’ से ही बात करते थे। वे हमारे यहीं रुके थे।

यह कवि सम्मेलन गाँधी चौक में हुआ था। महीना-तारीख तो मुझे याद नहीं किन्तु मौसम गर्मी का था। कवि सम्मेलन लगभग सुबह तक चला था। लोगों ने नीरजजी को ‘पेट-भर’ सुना था। नीरजजी ने भी मानो अपना रचना-कोष चौराहे पर, जाजम पर उँडेल दिया था - जो जितना चाहे, बटोर ले।

बहुत अधिक तो मुझे याद नहीं आ रहा किन्तु चार गीतों के मुखड़े अब तक मन में बने हुए हैं। उन्होंने, ‘हम पत्ते तूफान के/ हम अनजाने, हम दीवाने/बंजारे वीरान के‘ से शुरुआत की थी। बाद में ‘अपनी बानी, प्रेम की बानी, हर कोई इसको ना समझे/या तो इसे नन्दलला समझे या इसे बृज की लली समझे’ सुनाया था। दार्शनिक-पुट वाला एक गीत और सुनाया था जिसके मुखड़े की पहली पंक्ति तो याद नहीं आ रही किन्तु दूसरी पंक्ति थी - ‘तो फिर मेरे श्याम बता दे, रीती गागर का क्या होगा?’ पण्डित नेहरू का निधन हो चुका था। नीरजजी ने पण्डितजी पर लिखी अपनी कविता ‘आज जनम दिन है रे बच्चों, उसी जवाहरलाल का’ चुटकियों पर ताल देते हुए झूम-झूम कर पढ़ी थी। अगली सुबह मनासा के अग्रणी वकील रतनलालजी बम सा’ब नीरजजी से मिलने घर आए थे। बातों ही बातों में उन्होंने नीरजजी से कहा कि उनकी नेहरूजी वाली कविता के सिवाय बाकी सारी कविताएँ बहुत अच्छी थीं। सुनकर नीरजजी ने पूछा था - ‘आप जनसंघी तो नहीं?’ सुनकर बम सा’ब सहम कर चुप रह गए थे। वे मनासा मे जनसंघ के प्रभावी व्यक्ति थे।

तब नीरजजी की अवस्था चालीस बरस की भी नहीं रही होगी। लेकिन वे ‘वात्’ से पीड़ित थे। मेरा छोटा भतीजा गोर्की छः-सात बरस का था। कवि सम्मेलन की अगली सुबह उसने नीरजजी के हाथ-पाँव खूब मस्ती से दबाए थे। गोर्की अपनी पूरी ताकत से उनके हाथ-पाँव दबाता तो ‘पुरुड़-पुरुड़’ आवाज इस तरह आती मानो जहाँ गोर्की दबा रहा है वहाँ से हवा निकल रही हो। यह आवाज सुनकर गोर्की को बड़ा मजा आ रहा था और इस ‘पुरुड़-पुरुड़’ से मिल रहे मजे के लालच में वह और अधिक उत्साह से, और अधिक जोर लगा कर नीरजजी के हाथ-पाँव दबाए जा रहा था।

हम, घर के और कस्बे से आए कुछ और लोग नीरजजी को लगभग घेरे हुए थे। गोर्की की ‘सेवा’ से खुश उन्होंने दादा से उसका पूरा नाम पूछा था। दादा ने बताया - ‘सुशील वन्दन।’ नीरजजी ने पूछा - ‘तो फिर यह गोर्की क्या है?’ दादा ने बताया था कि गोर्की के जनम के समय वे मेक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘माँ’ पढ़ रहे थे। हमारे पिताजी भी जन्म कुण्डलियाँ बनाते थे। उन्होंने जो नामाक्षर सुझाया था उस पर कोई ढंग-ढांग का नाम नहीं सूझ रहा था। तब दादा ने कहा था कि इसका नाम बाद में तय कर लेंगे। तब तक इसे गोर्की के नाम से ही पुकारेंगे। सुनकर नीरजजी ने मन ही मन कुछ गणना की और कहा - ‘यह नन्दन-फन्दन तो नहीं चलेगा। इसका नाम गोर्की ही रहने देना। यही नाम इसे फलीभूत होगा।’ दादा ने पूछा था - ‘क्यों? कैसे?’ नीरजजी ने विस्तार से अंक ज्योतिष की गणना बताई थी। दादा कुछ नहीं बोले थे। गोर्की का आधिकारिक नाम सुशील वन्दन ही बना रहा। लेकिन इस नाम से वह शायद ही कभी, गलती से, पहचाना गया। वह गोर्की ही बना रहा और इसी नाम से पहचाना गया। गए दिनों गोर्की ने बताया कि उसने कानूनी खानापूर्ति कर अपना आधिकारिक नाम गोर्की बैरागी ही कर लिया है। 

अंक ज्योतिष के आधार पर गोर्की के नाम की गणना करते-करते नीरजजी ने खुद के बारे में कहा था - “अपन भी इस ‘नीरज’ नाम की वजह से चल रहे हैं और चलेंगे। अपने हाथ और जेब में कुछ रहे न रहे लेकिन ‘नीरज’ का डंका बजता रहेगा।’ 1965-66 में कही उनकी बात की वास्तविकता आज शब्दशः खरी उतरी हुई है।

लेकिन, अंक ज्योतिष से जुड़ी उनकी अगली बात दादा ने तब भी सुनाई थी और जब-जब प्रसंग आया, हर बार सुनाई थी।

बात 1980 की है। दादा विधायक थे। एक बार किसी सिलसिले में दिल्ली गए हुए थे। वहीं नीरजजी से मुलाकात हो गई। देर तक बात करते रहे। बात करते-करते ही दादा से एक कागज माँगा। दादा ने, जो हाथ में आया वह कागज दे दिया। नीरजजी ने उस पर कुछ लिखा। कागज घड़ी कर, दादा को दिया और बोले - ‘यह बात इन्दिराजी तक पहुँचा देना। नहीं तो ऐसा नुकसान होगा कि जिन्दगी भर भरपाई नहीं हो सकेगी।’ नीरजजी के जाने के बाद दादा ने कागज खोला। इबारत पढ़कर हक्के-बक्के हो गए। दादा बार-बार कहते थे - ‘नीरजजी ने जो लिखा था, उसे इन्दिराजी तक पहुँचाना जितना जरूरी था उससे अधिक मुश्किल था कि ऐसी बात कैसे पहुँचाई जाए?’ नीरजजी ने लिखा था - ‘तेईस जून को संजय को घर से बाहर मत निकलने देना। घर से बाहर चला गया तो जीवित नहीं लौटेगा।’ 

एक तो खबर ऐसी और दूसरे, संजय गाँधी को घर में रोके रखना! गोया कि तूफान को कैद करना! दादा कहते थे - “बड़ी विकट दशा में छोड़ गए थे नीरजजी मुझे। इन्दिराजी एक बार मान ले लेकिन संजय मान ले? सम्भव ही नहीं। कागज मेरे पास ही बना रहा और वह हो गया जो नीरजजी लिख गए थे। बाद में नीरजजी से मुलाकात हुई तो वे चुप ही रहे थे। मुझसे कुछ नहीं पूछा था। मैंने एक बार कुछ कहने की कोशिश की तो बोले थे - ‘तेरी दशा जानता हूँ। काम इतना आसान होता तो मैं खुद ही न जाकर इन्दिराजी को कह आता? संजय की यही नियति थी। मैं और तू भला क्या कर सकते थे?”

मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि नीरजजी के वैश्विक सम्पर्कों में कोई न कोई तो मिल ही जाएगा जो नीरजजी के इस पक्ष से न केवल परिचित हुआ होगा अपितु उसके पास ऐसा ही कोई न कोई संस्मरण भी मिल जाएगा।

‘कविता की वीणा’ और ‘कविता के राजकुमार’ के व्यक्तित्व का यह पक्ष अपने आप में जितना रोचक है, जितना चौंकाता है उतना ही विस्तार की माँग भी करता हैं।
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पुत्र की विदेश यात्रा पर पिता की मनःस्थिति

                                                                                                                                                  

दादा की विदेश यात्रा कितनी आकस्मिक रही, यह पिताजी श्री द्वारकादासजी बैरागी के इस पत्र से स्पष्ट है। पिताजी को भी तब मालूम  हुआ जब “दशपुर दर्शन” में समाचार छपा। अपने पुत्र की विदेश यात्रा का समाचार पढ़कर पिता पर हुई प्रतिक्रिया भी इस पत्र में स्पष्ट है। यह पत्र दादा को पिताजी ने विदा करते समय दिया था और साथ ही यह निर्देश भी दिया था कि वे इस पत्र को नीमच से रेल में बैठने के बाद पढ़ेंं। दादा की स्वदेश वापसी के बाद “दशपुर-दर्शन” को यह पत्र प्राप्त हुआ।







श्री परमात्मने नमः
24.8.76
मनासा

चि. सपूत नन्दरामदास (बालकवि)
आज दिन को दो बजे “दशपुर-दर्शन” आया। मैं श्रीमान मास्टर सा. रामनारायणजी के साथ चौपड़ खेल रहा। पेपर मुखपृष्ठ पर तुम्हारी विदेश यात्रा शीर्षक देखा। चौपड़ की कौड़ियाँ हाथ में रह गईं। कालम पढ़ा, हृदय में प्रेमाश्रु बह निकले। खेलना एकदम बन्द हुआ। एकदम से दस्त भी आ गई। टट्टी में गया। टट्टी भी आई साफ साफ और साथ साथ नेत्रों में आँसू भी बहुत-बहुत बह निकले।

बेटा सुखी रहो सप्रेम विदेश जाओ। अपना एवं भारत देश का गौरव बढ़ाओ ख्याति प्राप्त करो। ईश्वर तुम्हारी यात्रा सफल करे यश दे एवं सुख सन्तोष यश प्राप्त कर फिर मिलो और मैं मेरी इसी जीवनी में गौरवान्वित होऊँ।

अनेकानेक शुभाशीर्वाद।

द्वारकादास बैरागी

कितना कुछ दिया उस देश ने

‘बर्लिन से बब्बू को’ - सातवाँ पत्र

बालकवि बैरागी
नई दिल्ली से
23 सितम्बर 76
दिन के 11.00 बजे

प्रिय बब्बू,

प्रसन्न रहो।

और मैं सकुशल दिल्ली उतर गया हूँ। सारा दल उमंग, उल्लास और एक रोमांचकारी, अभिभूत भावना के साथ अपनी मातृभूमि को लौटकर जितना प्रसन्न हो सकता है, उतनी प्रसन्नता, हवाई अड्डे को हवाई जहाज के टायरों ने ज्यों ही स्पर्श किया त्यों ही, क्लिक के साथ व्यक्त कर बैठा। हम सब एक दूसरे का अभिवादन कर रहे थे और हवाई जहाज को सीढ़ियाँ लगे, उसके पहले ही दूर बालकनी में खड़े लोगों को देखने का यत्न कर रहे थे।

एयर इण्डिया : एक शानदार सेवा

विभिन्न हवाई सेवाओं को अपनी सेवा का अवसर देने के बाद मैं कह सकता हूँ कि हमारी एयर इण्डिया की सेवाएँ संसार की किसी भी सेवा से कम या कमजोर नहीं हैं। इससे पहलेवाले पत्र में, मास्को हवाई अड्डे पर जो कुछ हमारे साथ बीती, उसकी कड़ी-लड़ी में एक विचित्र-सी बात और जोड़ लो। जब “इन्टरफ्लूग” का विमान हमें लेकर मास्को हवाई अड्डे पर उतरा तो पूरे 35 मिनिट से भी अधिक समय तक न तो हवाई जहाज को सीढ़ी लग पाई और न यात्रियों के लिये बस ही आ पाई। बन्द हवाई जहाज जमीन पर खड़ा था और यात्री अपनी-अपनी भाषाओं में मास्को हवाई अड्डे की व्यवस्था को बुरी तरह कोस रहे थे। उसके बाद हम लोगों को जो कि “इन्टरफ्लूग” और “एरोफ्लोट” जैसी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई सेवाओं के मुसाफिर थे, तब भी मास्को हवाई अड्डे पर इन दोनों हवाई सेवाओं में से किसी ने भी हमें पूरे साढ़े चार घण्टे तक पानी के लिये भी नहीं पूछा। वे उनका नाम लेते थे और जब हम उनके पास जाते थे तो वे फिर हमें उधर ही ढकेल देते थे। खैर, मेरा अन्दाज है कि एयर इण्डिया ऐसी गैर जिम्मेदारी का कोई उदाहरण शायद ही कभी पेश करता हो। पालम पर हवाई जहाज पर सीढ़ी एक मिनिट में लग गई। बस तैयार थी। हम लोग कस्टम की क्लीयरन्स के लिये अहाते में पहुँचे और जो ऊपर देखा तो पाया कि मूलचन्दजी गुप्ता के परिजन और स्वजन सैकड़ों की तादाद में स्वागत करने के लिए बावले हो रहे हैं। पारदर्शी शीशे में से श्रीमती गुप्ता की आँखों के आँसू देखकर ही पहचान गया कि वे श्रीमती गुप्ता हैं। वे लोग उधर से बोले रहे थे, पर हम लोग सुन नहीं पाये। शीशा जो बीच में था!

कस्टम की क्लीयरन्स में पूरे दो घण्टे लगे। यद्यपि हमारे दल के किसी भी सदस्य के पास किसी तरह का कस्टम जैसा सामान नहीं था, तो भी भाई दिनेश गोस्वामी एक जिम्मेदार संसद सदस्य के नाते एक-एक सदस्य का सामान खुद चेक करवा रहे थे, पर उस समय हम सब लोग हैरान रह गये, जब हमने पाया कि श्री गुप्ता का सूटकेस मास्को से हवाई जहाज में लदा ही नहीं। तुम उस क्षण की कल्पना करो कि शीशे के उस पार एक व्यक्ति को लेने आये हुए सैकड़ों परिजन आतुरता के साथ देख रहे हों और वह व्यक्ति पूरे दो घण्टे तक अपने सूटकेस के लिये इधर उधर मारा-मारा फिर रहा हो और तरह-तरह के फार्म भर रहा हो। मैंने ये दो घण्टे श्री गुप्ता की सहानुभूति में इधर उधर चीखने चिल्लाने में बिताए। उस सूटकेस में गुप्ता का वह सारा सामान था, जो वे अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिए बर्लिन से खरीदकर लाये थे। मैं उस क्षण की कल्पना में मरा जा रहा था, कि जब श्री गुप्ता बाहर निकलेंगे और उनके छोटे-छोटे बच्चे “पापा हमारे लिये क्या लाय?” जैसा सवाल चुम्बनों के बीच उनसे पूछेंगे। श्री गुप्ता बिलकुल खाली हाथ मेरे साथ बाहर निकले थे। वे बदहवास भी थे, व्याकुल भी थे, व्यग्र भी थे और एक विवशतापूर्ण प्रसन्नता अपने चेहरे पर जबरदस्ती चिपकाये हुए थे।

मेरी आँखों में आँसू
इस भीड़ में दिल्ली के मेरे सैकड़ों परिचित व्यक्ति थे जो काँग्रेस और कवि सम्मेलनों के कारण मेरे निकट के मित्र हैं। वे हमें फूल मालाओं से लाद रहे थे।  जै-जैकार हो रही थी। पर, श्री गुप्ता एक आहत विकलता को छिपा नहीं पा रहे थे। दल के सभी सदस्य बहुत समय पहले ही अपने अपने स्थानों को रवाना हो चुके थे। केवल श्री शर्मा और श्री सेठ, बाहर चिलचिलाती धूप में मेरा तथा गुप्ता का इन्तजार कर रहे थे। तभी भीड़ में मैंने देखा कि मनासा  से श्री गुलाम हुसैन भैया, उनका पुत्र पुन्नी, उनके दामाद और धनराज लाला हार लिये हुए मेरी तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ किन्तु मनासा से चाहे वे किसी भी निमित्त दिल्ली पहुँचे हों पर मेरे लिये वे अपनत्व की भावना के साथ पालम तक आये। यही सन्दर्भ मेरी आँखों में आँसू ले आया।

जब हम गये तब पन्द्रह थे, उतरे तो बारह रह गये। हमारी नेता श्रीमती फूल रेणु गुहा, श्री प्रफुल्ल गढ़ई, श्री गोपालप्रसाद ये तीन सदस्य बर्लिन से 20 तारीख को ही मास्को के लिये रवाना हो चुके थे, क्योंकि उन्हें वर्ल्ड-पीस कौंसिल के अधिवेशन में हेलसिंकी जाना था। मास्को में ये लोग हमें मिले नहीं। इनका समाचार भी हमें नहीं मिला। मैंने चाहा था कि रूस में हमारे राजदूत श्री इन्द्रकुमार गुजराल तक, हमारा मास्को हवाई अड्डे पर साढ़े चार घण्टे रुकने का समाचार पहुँच जाए, पर वह नहीं पहुँच पाया। पहुँचा भी हो तो मैं कुछ कह नहीं सकता। दूतावास से हमें मिलने के लिए मास्को में कोई नहीं आया।

सुरेन्द्र से भेंट हो गई। उसने मुझे जो कार्यक्रम दिया है, उसके अनुसार मैं अभी कोई तीन सप्ताह घर नहीं पहुँच पाऊँगा। भारत में विभिन्न स्थानों पर उसने मेरी उपस्थिति के लिए वचन दे दिए हैं और तुम जानते हो कि दिल्ली में सुरेन्द्र मेरी कमजोरी है। उसे न तो मैं टाल सकता हूँ न उसके दिए हुए वचनों को तोड़ ही सकता हूँ। मैं उसके निर्देश पर घूमता फिरता शायद 16 अक्टूबर तक पहुँच पाऊँगा। बहुत अधिक हो गया तो 12 अक्टूबर तक घर आ सकता हूँ, उसके पहले नहीं। पता नहीं घर के और मित्रों के क्या समाचार हैं।
भारत जर्मन मैत्री संघ की अध्यक्षा श्रीमती सुभद्रा जोशी आज दिल्ली में नहीं है। उनसे मिलना बहुत आवश्यक है। पर अब लगता है कि मुझे उनका धन्यवाद अदा करने के लिए नये सिरे से दिल्ली आना पड़ेगा।

मेरे ही गीत से जी.डी.आर. ने मुझे बिदाई दी

शायद तुम्हें मेरी यह बात अटपटी और उलजलूल लगेगी कि जिस समय मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ, उस समय रेडियो बर्लिन इन्टरनेशनल से जी. डी. आर. में लिखे मेरे ही गीत, मेरी खुद की आवाज में प्रसारित हो रहे हैं। दिन का एक बज रहा है, इस समय वहाँ बर्लिन में सुबह का 8.30 बजा होगा। जो गीत प्रसारित हो रहा है, मैं तुम्हें पहले भेज चुका हूँ। पर मेरी खुद की ये पंक्तियाँ आज मुझे खुद ही विह्वल कर रही हैं। इन पंक्तियों के कई अर्थ नए सिरे से करने का प्रयत्न कर मैं विगलित होता जा रहा हूँ। एक कम्पन, एक फुरहरी, एक रोमाँच और एक टीस मैं दूर कहीं गहरे में महसूस कर रहा हूँ। मैं खुद गा रहा हूँ। मैं खुद सुन रहा हूँ और तुम्हें लिख भी रहा हूँ -

तूने पल भर न समझा पराया मुझे
तूने मितवा से भाई बनाया मुझे
तूने ऐसे गले से लगाया मुझे
कि बिसर गया मुझसे मेरा ही नाम
प्यारे जीडीआर तुझे मेरा सलाम।
एक ऐसी प्रेमल मानसिकता में मैं डूबा हुआ हूँ कि बहुत कुछ लिखने का मन होते हुए भी कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ। कितना प्यार दिया उस देश ने? कितने मित्र दिये उस देश ने? कितनी यादें दी उस देश ने? कितने उपहार दिये उस देश ने? और सबसे ज्यादा, समाजवाद के प्रति कितना स्पष्ट दिशाबोध दिया उस महान देश ने? पता नहीं समाजवादी सिद्धान्तों के लिए मैं एक काँग्रेस कार्यकर्ता के नाते कितना कर पाऊँगा और एक कवि के नाते कितना लिख पाऊँगा? पर मैं सोचता हूँ कि यदि मैं अपने आप में भी उस देश की महान चरित्र गाथा को जी सका तो मेरा बहुत बड़ा वर्तमान कहीं न कहीं सफल माना  जाएगा।
मैं समझता हूँ कि कहीं न खत्म होने वाले इस सिलसिले को पूरी भावुकता के साथ मैं यहीं खत्म कर दूँ।

भाई
बालकवि बैरागी
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पुत्र की विदेश यात्रा पर पिता का पत्र - आगे




रूस की परम्‍परा के विपरीत व्‍यवहार

'बर्लिन से बब्‍बू को' - छठवाँ पत्र


बालकवि बैरागी मास्को हवाई अड्डे से
22 सितम्बर 76
रात्रि के 7.00 बजे

प्रिय बब्बू

प्रसन्न रहो।

आज दोपहर कोई 11.30 बजे बर्लिन में जिस समय हमारा दल होटल उन्तर डेन लिण्डन” को छोड़ रहा था, तब मैं उदास था, रुथ उदास थी, इमी उदास थी। यहाँ तक कि इरीस और डाक्टर गुन्थर तक एक उदासी में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे। इनकी उदासियों पर मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन जब मैंने पाया कि हमारे हँसोड़ दुभाषिये मिस्टर क्लोफर, जिन्हें कि हम अत्यधिक प्यार के कारण मिस्टर लोफर” कहा करते थे, वे तक उदास हैं तो जी. डी. आर. में व्याप्त सम्वेदनाओं के प्रति मेरी धारणा बिलकुल बदल गई। लोग अक्सर कहा करते हैं कि साम्यवादी और समाजवादी व्यवस्था के अन्तर्गत हृदय की कोमल भावनाएँ नष्ट हो जाती हैं। पर हमारे पूरे दल और हमारे मेजबान देश की सभी व्यवस्थापक मनुष्य आकृतियों के चेहरों पर बहते हुए आँसू इस बात का विज्ञापन कर रहे थे कि मनुष्य मूलतः हृदय से शासित होता है। बुद्धि ऐसे क्षणों में पीछे रह जाती है। हृदय की तरलता का नाम ही आँसू है। हम सब रो रहे थे।

इस होटल में हम लोग कोई सात दिन रहकर होटल की व्यवस्था और व्यवस्थापक टुकड़ी से एक तरह से जुड़ से गये थे। सवाल यह नहीं था कि हम अपनी मातृभूमि को लौट रहे थे। सवाल यह था कि हम एक महान् देश से भाईचारा स्थापित करने में सफल होने के बाद अपने देश को लौटने के लिए उस देश को छोड़ रहे थे।

टिप! वह भी 20 प्रतिशत?

व्यवस्था के लिहाज से होटल “उन्तर देन लिण्डन” सबसे लचर और एक ऊब पैदा करने वाला होटल था। मैं तुम्हें लिख चुका हूँ कि पहले हम लोग आधुनिकतम होटल “होटल स्ताद बर्लिन” याने “बर्लिन के हृदय” में रुके। उसके बाद रोस्तोक में होटल “वारनो” में ठहरे और उसके बाद दो रातें बिताई हम लोगों ने यूसाडेल के “मित्रोपा मोटल” में। इन तीन के बाद हमारा साबका पड़ा होटल उन्तर देन लिण्डन” से। मैं ही नहीं हमारे पूरे दल का हर सदस्य “मित्रोपा” का गुलाम हो गया था। उस मोटल से ज्यादा अच्छी व्यवस्था किसी भी होटल में नहीं थी। जर्मन भाषा में “लिन्डन” का मतलब होता है एक तरह के नीबू का वृक्ष। “उन्तर देन लिण्डन” का पूरा मतलब होता है लिन्डन वृक्ष की छाया में। इस होटल में मेरा मन उस समय एकाएक खट्टा हो गया, जब मैंने देखा कि वहाँ के रेस्तराँ में एक बैरे ने टिप भी स्वीकार कर ली। हुआ ऐसा कि हमारे दल के दो-तीन सदस्यों को वहीं रेस्तराँ में बैठे हुए एक अपरिचित मित्र ने चाय-कॉफी और बीयर आदि पिलाई। जब बिल आया तो वह कुल बाईस मार्क का था। बाईस मार्क याने हमारा कोई 88 रुपया। किन्तु हमारे उस अपरिचित मित्र ने बैरे को तीस मार्क के नोट दिये और जब बैरे ने टिपियाना अन्दाज में फर्शी सलाम किया, तो मेरा सिर चकरा गया। यह अनुभव मेरे लिये बिलकुल नया था। आठ मार्क की टिप याने हमारे बत्तीस रुपये हो गए। जब मैंने गहरी छानबीन की तो मुझे पता चला कि पूरे बिल के बीस प्रतिशत से कम यदि यहाँ कोई टिप देता है तो बैरे उसे सलाम नहीं करते। इससे कम टिप को बैरा अपना अपमान मानता है। तुम जानते हो कि भारतीय अर्थों में बीस प्रतिशत एक बहुत बड़ी राशि मानी जाती है। किसी भी व्यवस्था का छिद्रान्वेषण करना मेरा लक्ष्य नहीं है किन्तु इस घटना ने मेरी मान्यता को एक धक्का जरूर दिया है। यह पढ़कर शायद तुम्हें भी न जाने कैसा लग रहा होगा।

'यह' शर्मनाक कमजोरी यहाँ भी

लिखते हुए मैं लज्जा महसूस कर रहा हूँ कि जी. डी. आर. जैसे देश में सिगरेट “रिश्वत” का सबसे बड़ा “प्रकार” है। जिस होटल में तुम्हें कमरा नहीं मिले, उसमें सिगरेट का पैकेट देखते-देखते आलीशान कमरे खुलवा देता है। शर्त यही है कि पैकेट में पूरी बीस सिगरेट होनी चाहिये। चेकोस्लोवाकिया और हंगरी जैसे देशों के बारे में भी मैंने जी. डी. आर. में यही सुना है। पता नहीं सिगरेट इन देशों की इतनी बड़ी कमजोरी क्यों है? ऐसी सूचनाओं से मैं पाता हूँ कि सिगरेट का धुँआ वहाँ केवल सिगरेट का धुँआ नहीं है वरन् साम्यवादी व्यवस्था की कठोरता का धुँआ है। मनुष्य चाहे इस व्यवस्था में हो या उस व्यवस्था में, कहीं न कहीं कमजोर जरूर है और कोई न कोई चीज उसकी कमजोरी को हर जगह अपने-अपने स्तर से उभार ही देती है।

रूस की परम्परा के विपरीत व्यवहार

बर्लिन से मास्को तक उड़ान कुल दो घण्टे की है। हम लोग जी. डी. आर.  की हवाई सेवा “इन्टरफ्लूग” से उड़े। विमान आरामदेह था कर्मचारी चुस्त और परिचारिकाएँ आकर्षक। तुम्हारे लिये यह जानकारी नई होगी कि जब हम बर्लिन से मास्को आते हैं तो उड़ान का समय तो होता है कुल दो घण्टे, पर मास्को आते आते घड़ियाँ चार घन्टे का समय बता देती हैं। बर्लिन और मास्को के समय के बीच में दो घण्टे का फर्क है। इसका दिलचस्प पहलू यह है कि जब हम बर्लिन से दो बजे उड़े तो मास्को छह बजे पहुँचे जबकि आकाश में कुल दो घण्टे हम लोगों को रहना पड़ा। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि अगर, तुम मास्को से बर्लिन की तरफ उड़ोगे तो जितने बजे मास्को से उड़ोगे उतने ही बजे बर्लिन उतरोगे। याने यदि तुम मास्को से 8 बजे चले तो दो घण्टे उड़ने के बाद भी बर्लिन आठ ही बजे पहुँच जाओगे क्योंकि बर्लिन की घड़ियाँ मास्को से दो घण्टे पीछे चलती हैं। सीधा सा नियम यह है कि जब पूरब से पश्चिम को उड़ेंगे तो उस समय, समय कम होगा और जब पश्चिम से पूरब उड़ोगे तो समय ज्यादा। खैर, मास्को हवाई अड्डे पर हमारी जो दुर्दशा हुई है, उसे मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा।

चूँकि हम “इन्टरफ्लूग” का टिकिट लिए हुए थे इसलिये रूस की हवाई सर्विस “एरोफ्लोट” का कहना था कि हवाई अड्डे पर चाय-कॉफी, खाना-पीना आदि की व्यवस्था “इन्टरफ्लूग” को करनी होगी। यह पत्र लिखते-लिखते मैं सोच रहा हूँ कि यहाँ से रात को 10.30 पर हमें उड़ना है। शाम 6 बजे से हम यहाँ बैठे हैं। इन साढ़े चार घण्टों में हमारे पूरे दल का क्या होगा? अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के मुताबिक शहर से मिलने के लिये कोई हम तक आ भी नहीं सकता था। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा याने पौण्ड या डालर हममें से किसी के पास नहीं है। पानी पीने तक की परेशानी है। चाय-कॉफी तो बहुत दूर की बात है। शायद हवाई जहाज में कुछ मिले।

मास्को हवाई अड्डे पर कर्मचारियों का व्यवहार हमारे साथ रूस की परम्परा के बिलकुल विपरीत है। खासकर एक महिला जो कि अन्तर्राष्ट्रीय मुसाफिरों को सूचनाएँ दे रही है, उसका व्यवहार अत्यन्त आपत्तिजनक है। उसने जिस तरह, जिस तेवर से हमारे संसद सदस्य श्री दिनेश गोस्वामी से बात की, उसे भारत में हम लोग “बद्तमीजी” कहा करते हैं। पता नहीं रूस की सरकार को ऐसी उद्दण्ड, अशोभन और अविवेकपूर्ण महिलाओं को हवाई अड्डे जैसे महत्वपूर्ण स्थान पर रखने की क्या आवश्यकता थी। इस महिला के पास न भाषा थी न आचरण।
मास्को हवाई अड्डा इस समय भारतीय यात्रियों की चहल पहल से भरा पड़ा है। कोई सौ डेढ़ सौ भारतीय यात्री संसार के विभिन्न केन्द्रों से यहाँ आकर अपने-अपने गन्तव्यों की ओर जाने के लिये सूचनाओं की प्रतीक्षा कर रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चे बिलकुल भारतीय स्वरों में किलोलें कर रहे हैं और उनके डैडी-मम्मी उन्हें ठीक उसी तरह डाँट फटकार रहे हैं, जैसा कि हम लोग अपने घरों में अपने बच्चों को डाँटा-फटकारा करते हैं। आज बम्बई के लिये एयर इण्डिया की उड़ान भी है। भारतीय यात्रियों की अधिकता का  यह भी एक कारण है।

मास्को हवाई अड्डा संसार का विशालतम हवाई अड्डा है। तुम विश्वास नहीं करोगे कि यहाँ सैकड़ों, हजारों हवाई जहाज इस तरह खड़े हुए हैं कि जैसे मन्दसौर रेलवे स्टेशन पर ताँगे खड़े रहते हैं। फर्क यही है कि ताँगे एक दूसरे से सट कर खड़े रहते हैं और ये हवाई जहाज ठीक अपने मुकामों पर खड़े हैं। जहाँ बैठकर मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ उस लाउन्ज के पारदर्शी शीशे में से जहाँ तक मेरी नजर जाती है, मैं दूर दूर तक केवल हवाई जहाज देख पा रहा हूँ। इधर दूसरी तरफ मुँह करने का मन नहीं करता, क्योंकि उधर फिर वही महिला घूम रही है, जिससे हम लोग परेशान भी हैं, और आतंकित भी।

यदि इस महिला का आवागमन नहीं होता तो मेरी टेबल से कोई सौ कदम दूर हवाई अड्डे की इतनी बड़ी दूकान है कि उसमें घूमते-फिरते हम लोग आसानी से 4 घण्टे बिता देते। यदि दुकान में नहीं भी जाते तो पास ही टेलीविजन पर रोचक और समझ में आने वाली रूसी फिल्में चल रही हैं। पर हमारे दल का हर सदस्य भूखा है, प्यासा है, खिन्न है, क्षुब्ध है और अवसाद से भरा बैठा है। केवल भारत लौटने की ललक में हम इस हवाई अड्डे की सारी वहशत को पी गये हैं। जो हवाई जहाज यहाँ से हमें लेकर चलेगा, वह भारतीय समय के मुताबिक रात 12-30 बजे उड़ेगा, जबकि मास्को में कुल 10 ही बज रहे होंगे। बड़ी सुबह हम लोग दिल्ली पहुँच जाएँगे।

पता नहीं मैं घर कब पहुँचता हूँ? पर मिस्टर सेठ, मिस्टर शर्मा, मिस्टर गुप्ता, ये लोग बड़े खुश हैं कि वे बड़ी सुबह अपने परिवार वालों से मिल लेंगे। मुझे इनसे ईर्ष्या नहीं है। पर इतने लम्बे अन्तराल के बाद वापिस स्वदेश लौटने पर यदि हवाई अड्डे पर कोई अपना नहीं मिलता तो उदासियाँ सौ गुना बढ़ जाती हैं। मैं जानता हूँ कि मुझे लेने पालम पर कोई नहीं आएगा, तो भी मैं भीड़ में, उस अनजानी भीड़ में “पिया” को ढूँढूँगा, गोर्की को तलाश करूँगा, तुझे देखने का असफल प्रयत्न करूँगा और फिर एक लम्बी साँस छोड़कर उस भीड़ में खो जाऊँगा। शायद मेरी यात्राओं का यही एक सनातन समापन होता आया है और यह अब भी होगा।

हर तीसरे मिनिट एक हवाई जहाज हवा में

हवाई अड्डे के सूचना पट पर हमारी उड़ान की सूचना आने को ही है। इस पट पर देखकर मैं कह सकता हूँ कि मास्को हवाई अड्डे से औसतन हर आठवें मिनट एक अन्तर्राष्ट्रीय उड़ान होती है। रूस की घरेलू उड़ानों का सिलसिला अलग है याने यदि बारीकी से हम देखें तो मैं सोचता हूँ कि मास्को हवाई अड्डा हर तीसरे मिनिट एक हवाई जहाज को आकाश में उछाल देता होगा। हवाई अड्डे की सारी व्यवस्था आधुनिकतम है और मशीनें बेहद निर्मम। चेकिंग अत्यन्त सख्त और सब कुछ बिना किसी लिहाज के। कील-कील को मेटल डिटेक्टर और एक्स-रे मशीन के नीचे से गुजरना पड़ता है। किसी किस्म के चकमे की कोई गुंजाइश नहीं। हवाई अड्डे की सारी व्यवस्था प्रत्यक्षरूपेण महिलाओं के हाथ में है। हो सकता है कि बड़े पदों पर वहाँ पुरुष भी होंगे। पर मास्को हवाई अड्डे पर जाते समय भी वहाँ की महिला कर्मचारियों ने मिस्टर शर्मा और मिस्टर सेठ के साथ कोई अच्छा सलूक नहीं किया था।

आशा करता हूँ कि वहाँ सब अच्छे होंगे। मैं सो फीसदी स्वस्थ हूँ। सबको मेरा प्रणाम कहना। अब मैं दिल्ली उतरते ही तुझे एक पत्र और लिखूँगा। बस।

भाई 
बालकवि बैरागी 

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आगे - सातवाँ पत्र 





दादा का दिया नारा, संघ-भाजपा का सहारा

यह नारा, जो पूरे भारत मे प्रसिद्ध हुआ और जिस नारे के सहारे कइयों की कश्तियाँ पार लग गईं, आया कहाँ से? मेरे मनासा से। 

सुना तो काफी पहले था कि यह नारा मेरे शहर मनासा की ही एक हस्ती ने दिया है। लेकिन, एक ही शहर में रहते हुए 39 सालों में उनसे कभी मिला नहीं था। बहुत सुना  था उनके बारे में। जब भी बाहर कहीं जाता तो मनासा का नाम सुनते ही सहयात्री बोलते - ‘अच्छा! वो बालकवि बैरागी वाला मनासा!’ गौरव महसूस होता था अपने आप पर कि मैं भी उसी मनासा का रहनेवाला हूँ जो बैरागी दादा के नाम से पहचाना जाता है। भले ही मैं उनसे मिला नहीं था और न ही वो मुझे पहचानते थे लेकिन फिर भी कुछ डींगें हाँक दिया करता था और दादा की जगह मुन्ना भैया की बहादुरी के किस्से (जो अपने कॉलेज के छात्र जीवन में देखे थे) सुना कर जताता कि हाँ मैं उनके परिवार को बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। हमारे मनासा की पहचान, मालवा की शान, राष्ट्र का गौरव, ख्यातनाम कवि, हिन्दी के माथे की बिन्दी, वरिष्ठ काँग्रेसी एवं पूर्व सांसद श्री बालकवि बैरागी वह हस्ती हैं, जिन्हें हम सभी ‘बैरागी दादा’ के नाम से जानते हैं, और जिन्हें ‘बचपन से लेकर पचपन तक’ का व्यक्ति ‘दादा’ ही कहता है।

पहली बार आज उस हस्ती से मिलने पहुँच गया। बहाना था दिवाली की शुभ-कामना देने का। मन में कई जिज्ञासाएँ थीं। कई प्रश्न थे जिन्हें शान्त करना था। 

दादा से मुलाकात हुई। शुभकामनाओं एवं आशीर्वाद के बाद दादा ने मिठाई खिलाई। और फिर मैं जम गया कुर्सी पर दादा के सामने। मैंने बातों की शुरुआत की - “दादा मैंने परसों यूट्यूब पर कुमार विश्वास के 5 प्रोग्रामों के वीडियो देखे। उनमें से तीन में उन्होंने आपका नाम लेकर आपकी ‘काजल के पर्वत पर चढ़ना’ वाली कविता सुनाई।” 

वे मेरी बात का जवाब देते कि कुछ लोग मिलने आ गए। बातों की कड़ी टूट गई । दादा उनसे बात करने लगे। लोग आते रहे, जाते रहे। मैं लगा हुआ था, दादा को सुनने में। 

उनसे कई विषयों पर बात हुई। एक विषय खत्म होता नहीं कि मैं दूसरा विषय छेड़ देता। इस दरमियान मैंने अनुभव किया कि दादा अपने आप में  एक विश्वविद्यालय हैं और सामने बैठा मैं एक अबोध, अज्ञानी नर्सरी का छात्र। अरे हाँ! एक और बात बता दूँ आपको कि दादा वो शख्सियत हैं जिन पर देश के कई विश्वविद्यालयों के छात्र पी. एच-डी कर चुके हैं।

आखिर में मैंने दादा से कहा - ‘दादा एक जिज्ञासा है। मैंने सुना है कि राम मन्दिर आन्दोलन में आपने कोई नारा दिया था?’ दादा ने बताया कि अस्सी के दशक में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द जी ने सुरेश पचौरीजी से बोला कि राम जन्म-भूमि आन्दोलन को और गति प्रदान करने के लिये बैरागी दादा से कोई अच्छा-सा नारा लिखवा दें। यह बात पचौरीजी ने दादा को बताई। दादा ने स्वरूपानन्द जी को नारा लिख कर दिया - ‘बच्चा-बच्चा राम का। जन्म-भूमि के काम का।।’

स्वरूपानन्दजी ने इस नारे के 25000 बेनर चित्रकूट में लगवाए। इन बेनरों से ही यह नारा, स्वरूपानन्दजी के यहाँ से होता हुआ पूरे देश में फैला। संघ समेत तमाम हिन्दूूवादी संगठनों और बीजेपी ने इसे अपना लिया और देश के बच्चे-बच्चे की जुबाँ पर आ गया। दादा ने बताया - ‘नारा देने के कुछ समय बाद हरिद्वार की आमसभा में स्वरूपानन्दजी ने 10000 लागों की उपस्थिति में बताया कि जिन्होंने यह नारा दिया है वो ये बैठे हैं बैरागीजी।’ 

लेकिन जो ये नारा लगाते हैं उन्हें आज तक पता नहीं है कि ये नारा मेरे मनासा के वरिष्ठ-काँग्रेसी एवं महान कवि दादा बाल कवि बैरागी की कलम से निकला हुआ है और उसी नारे का सहयोग लेकर एक पार्टी राजनीतिक दरिद्रता से निकलकर सत्ता के तरणताल में गोते लगा रही है। शायद ये तो लिखने वाले ने भी नही सोचा होगा कि रामभक्ति मे लीन होकर जो शब्द वो दे रहा है वे ही शब्द किसी पार्टी के लिये राजनीति और सत्ता की मजबूत और पुख्ता सीढ़ियाँ साबित होंगी।

आज देख लिया दादा आपकी कलम से निकले राम-नाम में कितनी ताकत थी।

भैया दीपकजी गेहलोत! दादा से मुलाकात करवाने के लिये आपको बहुत-बहुत धन्यवाद।
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(मनासा निवासी श्री शकील शेख ने यह आलेख 20 अक्टूबर 2017 को, फेस बुक पर अपनी वॉल पर दिया था। वाक्य रचना और वर्तनी में तनिक सुधार के बाद यहाँ साभार प्रस्तुत है।)

हम पास हुए भारतीय मनोबल की परीक्षा में

‘बर्लिन से बब्बू को’
पाँचवाँ पत्र: तीसरा/अन्तिम हिस्सा

समाजवादी और साम्यवादी देशों ने जिस तरह अपने उत्पादन का बँटवारा किया है यह समझने लायक बात है। इन देशों ने वितरण का बँटवारा नहीं किया। बँटवारा किया उत्पादन का। अमूक चीज अमुक देश पैदा करेगा और फलाँ वस्तु फलाँ देश ही। इससे अनावश्यक प्रतिद्वन्द्विता समाप्त हो गई। जी. डी. आर. अपने लिये प्रमुख तौर पर अपार खाद्य सामग्री पैदा करता है। यद्यपि मैं यह नहीं पूछ पाया कि प्रति एकड़ यहाँ उत्पादन कितना होता है पर कमी यहाँ किसी चीज की नहीं है। अभाव हर देश में अपने-अपने तौर पर किसी न किसी वस्तु का होता ही है। यहाँ भी होगा। पर उसका कोई प्रत्यक्ष दर्शन मैं नहीं कर पाया।

भोजन के मामले पर मुझे एक घटना याद आ गई। आज यह इसलिये लिख रहा हूँ कि आते ही पहिले ही, दिन नाश्ते की टेबल पर इस घटना से मेरा रोम-रोम सिहर उठा था। 4 सितम्बर को हम होटल “बर्लिन स्ताद” में नाश्ता करने के लिये बैठे ही थे और शाकाहारी और गैरशाकाहारी की जाँच-पड़ताल कर ही रहे थे कि एक सज्जन ने मुझसे कहा “भरपेट खाईये। हमारे यहाँ खाने की कोई कमी नहीं है।” कोई किसी को नहीं जानता था। हमारा परिचय मात्र श्रीमती रुथ, श्रीमती इमी और डॉ. श्री गुन्थर से हुआ था। मैं नहीं जानता हूँ कि वे सज्जन कौन थे पर जब मैंने बार-बार उनको यह कहते सुना तो मैं इस बात को समझ गया कि यह बात क्यों कही जा रही है। मैंने अपने कमरे से नमकीन सेव का पैकेट मँगवाया और उन सज्जन को देते हुए कहा “श्रीमान! यह लीजिये! मेरी माताजी ने आपके लिये भेजा है। यह भारतीय है और इसमें लगी हुई हर चीज भारत में पैदा हुई है।” डॉ. गुन्थर पूरे प्रसंग को समझ गये। कटुता का तो कोई सवाल ही नहीं था पर डॉ. गुन्थर ने उन महाशय की अपनी भाषा में निपटा दिया।

एक और घटना इसी दिन शाम की है। यह घटना बहुत समझने वाली बात है। हमारे बाहर जाने वाले समस्त शिष्ट मण्डलों को शायद हर जगह इस तरह की किसी न किसी घटना का सामना करना पड़ता होगा। पर पता नहीं वे लोग इन बातों का समुचित नोटिस लेते भी हैं या नहीं। मेरा कवि और सम्वेदनशील मन ऐसी बातों का नोटिस तत्काल ले लेता है। हुआ इस तरह कि हम लोग रोस्तोक पहुँच कर रात का खाना खाने की तैयारी कर रहे थे। तुझे याद रहा होगा कि 4 सितम्बर को ही हम लोग शाम तक रोस्तोक पहुँच गये थे। भोजन के पहिले एक सज्जन ने, शायद वह पहिला ही दिन था और दूसरे दिन से हम लोग अपना भ्रमण शुरु  करने वाले थे इसलिये, हमारा मनोबल टटोलने के लिये एक किस्सा सुनाया। किस्सा बहुत महत्वपूर्ण है। वे बोले-

“सज्जनों! जवाहरलालजी नेहरू के समकालीन एक और प्रधानमन्त्री होते थे। नाम आपने सुना होगा। वे थे डॉ. मिलान और उनका देश था दक्षिणी अफ्रीका। सो, डॉ. मिलान एक बार लन्दन गये। वहाँ उन्होंने अपने सूट के लिये कपड़ा खरीदा। डॉ. मिलान किसी संगोष्ठी या वार्ता के सिलसिले में इंग्लैण्ड घूम रहे थे। जब कपड़ा खरीदा तो कपड़े के स्टोअर के दर्जी ने उनका नाप लिया और कपड़ा दे दिया। डॉ. मिलान ने तय किया कि वे सूट अपने देश दक्षिणी अफ्रीका में ही सिलवायेंगे। जब वे अपने देश पहुँचे और अपने दर्जी को कपड़ा दिया तो दर्जी ने नापने के बाद कपड़ा लौटाते हुए 'कहा श्रीमान! यह कपड़ा कम है। आपका सूट नहीं बन सकेगा।' आश्चर्यचकित डॉ. मिलान ने निर्णय किया कि वे अगली कान्फ्रेन्स के लिये शीघ्र ही लन्दन जाने वाले हैं, सो कुछ कपड़ा उसी स्टोअर से और लेते आयेंगे। खैर, अगली लन्दन यात्रा में डॉ. मिलान वापस उसी स्टोअर पर गये और सारी स्थिति स्टोअर के मालिक के समान रखी। स्टोअर का मालिक चकरा गया। उसने अपने उसी दर्जी को फिर से नाप लेने के लिये कहा। हक्के-बक्के दर्जी ने फिर से नाप लिया और आश्वस्त होकर कहा - ‘महोदय! कपड़ा बराबर है और आप चाहें तो आपका सूट तत्काल सी दिया जा सकता है।’ अब डॉ. मिलान की बारी थी कि वे चक्कर में पड़ें। बड़ी देर सोचने विचारते रहे डॉ. मिलान। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनका सूट उन्हीं का टेलर सिये। पर उन्होंने समाधान के लिये पूछा आखिर यह कपड़ा वहाँ जाकर कम और यहाँ आकर बराबर क्यों हो  जाता है? दुकान का मालिक कुछ बोले उससे पहिले टेलर ने कहा ‘श्रीमान! आपके देश में आपका यह सूट कभी नहीं सिल सकेगा। वहाँ कपड़ा छोटा ही पड़ेगा। यहाँ वैसा नहीं हो सकता है।’ अब डॉ. मिलान चकराये से कुछ सोच रहे थे। तभी दर्जी ने पता लगा लिया था कि डॉ. मिलान दक्षिणी अफ्रीका के प्रधानमन्त्री हैं। दर्जी ने कारण समझाते हुए कहा ‘श्रीमान! आप आपके देश में बहुत बड़े आदमी हैं इसलिये सूट नहीं बनेगा। यहाँ आप एक सामान्य व्यक्ति हैं। आपका सूट बन जायेगा।”

कहानी दिलचस्प है। बात ठहाकों में उड़ गई। पर मुझे कहानी अच्छी लगने के बावजूद अप्रासंगिक और व्यंग्य भरी लगी। मैंने डॉ. गुन्थर से कहा- “भाई साहब! इन सज्जन को समझा दो कि हम एक महान् देश से आये हैं और एक महान् देश के निमन्त्रण पर ही आये हैं। रहा सवाल सूट का सो मेरा निवेदन मात्र यही है कि भारत अपना कपड़ा खुद बनाता है। मेरी यह मान्यता है कि जो सज्जन यह कहानी सुना रहे थे वे दर्जी नहीं होंगे। और यदि वे दर्जी भी हों तो उनसे मेरा विनम्र निवेदन कीजियेगा कि जो टाई वे बाँधे हुए हैं वह शायद भारत में बनी हुई है।” डा. गुन्थर बहुत विनोद के मूड में थे। उन्होंने कहा- “निश्चय ही वे सज्जन टेलर नहीं हैं और वह टाई भारत की भी हो सकती है। पर आप इसे मात्र उनका विनोद मानें, व्यंग्य नहीं। वे सज्जन आस्ट्रिया के निवासी हैं। जर्मन नहीं हैं। आपको इनके साथ 22 सितम्बर तक रहना है। वे हमारे दुभाषिये हैं श्री क्लोफर।” पर मेरी इस पकड़ से फिर डॉ. गुन्थर ने शायद पूरे व्यवस्थापक दल को सचेत कर दिया लगता था। श्री क्लोफर मेरे अभिन्न मित्र बन गये हैं और मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ। डॉ. गुन्थर ने मेरी सम्वेदनशीलता को तत्काल समझ लिया होगा।
उपरोक्त दो घटनाएँ यदि अनुत्तरित रह जातीं तो शायद है आगे कहीं न कहीं, किसी न किसी पक्ष की असावधानी से कोई प्रसंग स्निग्धता शून्य हो जाता। अस्तु।

आस्ट्रिया में ही श्री शर्माजी के सुपुत्र श्री अरुणकुमार शर्मा रहते हैं। वे हमारा समाचार सुनकर बाल बच्चों सहित कोई चार-पाँच दिनों के लिए बर्लिन आ गये थे। वे ठहरे थे अपने किसी मित्र के यहाँ पश्चिमी बर्लिन में। पर दिये हुए समय पर उनकी तीनों बिटियाएँ और उनकी रूपसी पत्नी रोज हमारे पास आ जाते थे। अरुण भाई के कारण हमारी यात्रा एक यादगार बन गई। उन्होंने हमारी हर समस्या को आसान बनाने के रास्ते सुझाये और हमको विदेश में किस तरह व्यवहार करना चाहिए इसका निर्देश दिया। मैं कह सकता हूँ कि अरुण भाई और श्रीमती अरुण अगर हमें वहाँ नहीं मिले होते तो हमारी यह यात्रा किसी न किसी तौर पर अधूरी ही रह जाती। उनका बहुत आभार मानने वाले हम तीन लोग हैं- भाई श्री मूलचन्द गुप्ता, श्री कैलाशनाथजी सेठ और मैं। हम लोगों के लिये उनकी जबान पल पल सूखी जाती थी।

इस यात्रा का खर्च किसने दिया?

बहुत दिनों बाद आज फिर बर्लिन में सूरज उगने के आसार लग रहे हैं। कमरे की खिड़की से मैं देख रहा हूँ कि आकाश साफ है और शायद सूरज अपनी ढेर सारी धूप बर्लिन के आँगन में लीप देगा। मुझे नहाना है, नाश्ते के लिए तैयार होना है और सबेरे 9 बजे से लेकर 11 या साढ़े ग्यारह तक का समय बहुत कठिनाई और ऊब से बिताना है। मेरा सामान बिलकुल तैयार है। मैं अपना बटुआ सम्हाल रहा हूँ। मेरी जेब में जर्मनी याने जी. डी. आर. का एक पैसा भी नहीं है। बिलकुल रीता है मेरा जेब। मनासा से चला था तो जिस समय बस में बैठा मेरा जेब में कुल 106 (एक सौ छह) भारतीय रुपये थे। वापस दिल्ली उतरूँगा तब मेरे पास फिर भी 29 रुपये बचेंगे। याने कुल मिलाकर 77 रुपया मेरा इस यात्रा में खर्च हुआ है। मेरे हिसाब से यह राशि फिर भी अधिक है। यह सारा खर्च भारत में ही हुआ। दिल्ली में टैक्सी और चाय-कॉफी आदि का। भारतीय मुद्रा तो पालम हवाई अड्डे के भीतर घुसते ही अन्दर वाले रेस्तराँ में भी स्वीकार नहीं की जाती है। हम वहीं से पंगु हो जाते हैं। पालम में ही हम लोग विदेशी भूमि पर मान लिये जाते हैं। चाय-कॉफी या कोकाकोला के लिए भी भीतर वाला, डालर या पौण्ड ही लेता है। खैर फिर भी 29 रुपया मुझे दिल्ली में बहुत लग रहा है। मेरा काम चल जायेगा। फिर वहाँ सुरेन्द्र मिल ही जायेगा।

शायद तू भी नहीं जानता है कि मेरी इस जी. डी. आर. और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिये मारीशस वाली इसी अगस्त की विदेश यात्रा का सारा व्यय किसने किया? यह सवाल अवश्य ही उत्तर चाहता है। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि इन दोनों यात्राओं के लिए मैंने भारत सरकार या किसी भी प्रान्त की किसी सरकार से एक पाई का भी खर्च नहीं करवाया है। मैं मारीशस गया तो वहाँ की सरकार के खर्च से और यहाँ आया हंँ तो भी सारा व्यय भारत-जर्मन गणवादी मैत्री संघ तथा जी. डी. आर. के खर्च से ही।

मेरी ये यात्राएँ कितनी उपयोगी होंगी यह तो भारत आकर ही ज्ञात हो सकेगा। बड़ा कठिन होगा इस देश को छोड़ना। एक भावनात्मक रिश्ता जो हो गया है यहाँ से। पर हर यात्रा का अपना एक समापन होता है। यह वापसी भी इस यात्रा की एक आवश्यक शर्त थी। मैं भारत आने के पूर्व एक बार पूर्व में मुँह करके इस देश के लिये अपनी मंगल कामना और सारे दल की यात्रा के लिये शुभकामना हेतु प्रार्थना करने के लिये कलम रख रहा हूँ।

सब को मेरा आदर देना।

भाई
बालकवि बैरागी
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छठवाँ पत्र: पहला हिस्सा निरन्तर




                            

.....अब आप तालियाँ बजा सकते हैं

दादा श्री बालकवि बैरागी को याद करते हुए रमेश भाई (चोपड़ा) ने एक बात में दो बातें कह दीं। बात तो कही थी उन्होंने दादा के स्वभाव की लेकिन उन्हें पता ही नहीं चला कि वे,  लायंस और रोटरी क्‍लबों के समारोहों की लम्‍बी, बोझिल, उबाऊ, नीरसता की दूसरी बात भी बता गए।

गए पाँच दिनों में रमेश भाई से चार दिन लगातार मुलाकातें हुईंं। उनसे इतनी लगातार मुलाकातें तो तब भी नहीं हुईं जब वे रतलाम में रहते थे।  गए कुछ बरसों से वे ‘रतलामी’  से ‘इन्दौरी’ हो गए हैं। लेकिन उनका एक पाँव अब भी रतलाम में और दूसरा इन्दौर में रहता है। रतलाम में थे तब भी और अब इन्दौर में हैं तब भी वे रोटरी में निरन्तर सक्रिय बने हुए हैं। वर्ष 2017-18 में वे झोन 19 के सहायक मण्डलाध्यक्ष थे। रोटरी मण्डल 3040 के मण्डलाध्यक्ष ने अभी-अभी ही उन्हें प्रशंसा-पत्र से सम्मानित किया है। 

जून के अन्तिम सप्ताह मे मैं इन्दौर आया तो था अपने कानों की जाँच कराने। लेकिन कानवाले डॉक्टर सा’ब ने दाँतों का ईलाज तुरन्त कराने की सलाह दे दी। मुझे पहले ही क्षण रमेश भाई याद आ गए। उनके बेटा-बहू अर्पित चोपड़ा और रुचि चोपड़ा इन्दौर की नई पीढ़ी के  अग्रणी दन्त चिकित्सक हैं। यशवन्त निवास मार्ग पर, भारतीय स्टेट बैंक के सामने, रॉयल डायमण्ड बहुमंजिला भवन में, ‘आइकॉनिक डेण्टल केयर’ के नाम से इनका क्लिनिक है। अर्पित और रुचि से मेरी मुलाकात नहीं। सो रमेश भाई से मिला। बोले - ‘मरीज भी घर का और डॉक्टर भी घर का।’ और अर्पित-रुचि ने मेरी राम कहानी सुन कर ईलाज की तारीखें तय कर दीं। तेरह जुलाई से दोनों पति-पत्नी अपने चिकित्सकीय कौशल, परिवार-भाव की चिन्ता और संस्कारशील विनम्रता से मेरा ईलाज कर रहे हैं। रमेश भाई का दफ्तर और दोनों डॉक्टरों का क्लिनिक एक ही जगह है - ‘एक में दो’ की तरह। डाक्टरों के दिए वक्त से पहले पहुँचता हूँ और रमेश भाई से गपियाता हूँ। ईलाज लम्बा है। प्रति दिन चार से पाँच घण्टे लगते हैं। रुचि और अर्पित बीच में छुट्टी देते हैं तो वह वक्त भी रमेश भाई के साथ ही बीतता है।

बातों ही बातों में आज दादा की बात निकल आई। रोटरी के एक आयोजन में रमेश भाई ने उन्हें मुख्य अतिथि बनाकर बुलाया था। दादा से उनका सीधा सम्पर्क नहीं था। किसी माध्यम से वे उन तक पहुँचे थे। निश्चय ही माध्यम ऐसा रहा होगा जिसकी बात मानना दादा के लिए अपरिहार्य रहा होगा। रमेश भाई ने कहा - ‘दादा आ गए और खुश भी थे। लेकिन मुझे साफ लगा कि वे रोटरी-लायंस के निमन्त्रणों को टालने की कोशिश में रहते थे।’ यह बात मेरे लिए नई नहीं थी। पाँच-सात बार तो मैंने भी उन्हें इन सस्थाओं के आयोजनों में जबरन धकेला था। लेकिन मैं रमेश भाई से सुनना चाहता था - दादा ने ऐसा क्या कह दिया, कर दिया कि रमेश भाई को ऐसा लगा?

रमेश भाई ने कहा - “चूँकि मेजबान की भूमिका में मैं ही था सो रतलाम में उनकी देखभाल मेरे जिम्मे थी। रतलाम के रोटरी सदस्यों में से मुझे ही उनके साथ सर्वाधिक समय साथ रहने का मौका मिला। 

“यह आयोजन 25 दिसम्बर 1999 को हुआ था। उन्होंने पूछा - ‘कार्यक्रम क्या है?’ मेरे पास आयोजन का पूरा ब्यौरा लिखित में था। वह उन्हें दे दिया। वे पढ़ रहे थे। मैं भी बीच-बीच में बताता जा रहा था। उनकी आँखें कागज पर और कान मेरी बातों पर थे। ध्यान से देखने-सुनने के बाद उन्होेंने कागज टेबल पर रखा और मुस्कुराते हुए मुझसे बोले - ‘यार चोपड़ाजी! बाकी तो सब ठीक है। लेकिन आपके रोटरी का अनुशासन बड़ा विचित्र है। आपके यहाँ सीधी बात तो होती ही नहीं। ‘भूतपूर्व-अभूतपूर्व’ बोले बिना आपका काम नहीं चलता। आप लोग तो कार्यक्रम संचालक के निर्देश के बिना कुछ भी नहीं कर सकते। और तो और, बेचारे श्रोता भी तालियाँ तब ही बजा पाते हैं जब संचालक कहता है - ‘मुख्य अतिथि महोदय का भाषण समाप्त हो चुका है। अब आप तालियाँ बजा सकते हैं।’ कह कर दादा जोर से हँस दिए। मेरी भी हँसी चल गई।

“लेकिन दादा का यह मूड केवल बन्द कमरे तक ही रहा। अपने भाषण में इस विषय में कुछ भी नहीं कहा। हमारे आयोजन में वे बोले और खूब, खुलकर बोले। दादा ने हमारा आयोजन शानदार तो बनाया ही, जानदार भी बना दिया।”
रोटरी क्लब रतलाम के समारोह मे हुँचते हुए दादा। चित्र में सबसे बाँयी ओर रमेश भाई चोपड़ा

बात करते-करते रमेश भाई अपने एलबम के पन्ने भी पलट रहे थे। एक पन्ने पर रुककर एक चित्र निकाल कर मुझे बताया। यही चित्र मैंने ऊपर दिया है।

दादा को यान्त्रिकता और निर्जीव औपचारिकता पसन्द नहीं थी। वे सहजता और अनौपचारिकता में ही जी पाते थे। लेकिन अपने आत्मीय, प्रियजनों के प्रेम के वशीभूत हो, अपनी मानसिकता के प्रतिकूल आयोजनों में भी पहुँचते थे। 

रमेश भाई का परिवार। बाँये से डॉ. अर्पित चोपड़ा, रमेश भाई, अपनी बिटिया 
आध्या को गोद में लिए डॉक्टर रुचि चोपड़ा और श्रीमती ऊषा रमेश चोपड़ा
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