नामुमकिन है खुद से आँखें चुराना

मुझे, चाँदनी चौक में, एक व्यापारी मित्र को भुगतान करना थ। मेरे कस्बे का प्रख्यात सराफा बाजार, चाँदनी चौक में ही है। दोपहर एक बजे का समय था। ग्राहक एक भी नहीं था। आसपास के चार-पाँच, सराफा व्यापारी, अपनी-अपनी दुकान छोड़कर बैठे हुए थे। छोटी-मोटी गोष्ठी जमी हुई थी। भरपूर आत्मीयता और ऊष्मा से मेरी अगवानी हुई। मुझे बैठाया बाद में, चाय मँगवाने के निर्देश पहले दिए गए। मैंने भुगतान की बात की। व्यापारी ने हाथ पकड़ लिया - ‘आप अच्छे आए। सुबह से बोहनी नहीं हुई है। लेकिन आप तो बैठो। भुगतान होता रहेगा। आपके पैसे कहीं नहीं जाते।’ मैं बिना कुछ कहे, समझदार बच्चे की तरह बैठ गया। 

जैसी कि मुझे उम्मीद थी, ‘मोदी और मोदी की नोटबन्दी’ के आसपास ही सारी बातें हो रही थीं। मेरा कस्बा, प्रादेशिक स्तर पर, बरसों से भाजपा की जागीर बना हुआ है। याद करने में तनिक मेहनत करनी पड़ती है कि गैर भाजपाई निर्वाचित जनप्रतिनिधि कब और कौन था। इसलिए, समवेत स्वरों में ‘राग भाजपा’ में ‘मोदी गान’ चल रहा था। फर्क यही था कि इस ‘मोदी गान’ में हर्षोल्लास या जीत की किलकारियों की जगह ‘आत्म प्रताड़ना’ और ‘किससे करें शिकायत, किससे फरियाद करें’ के ‘वेदना के स्वर’ प्रमुख थे। कुछ इस तरह मानो सबके सब अपनी फजीहत के मजे ले रहे हों।

शरारतन इरादे से किए गए मेरे ‘और सुनाइये सेठ! क्या हाल हैं?’ के जवाब में सब ‘हो! हो!!’ कर हँस पड़े। कुछ इस तरह कि मैं झेंप गया। एक ने मानो मुझे रंगे हाथों पकड़ने की घोषणा की - ‘क्यों अनजान बनने का नाटक कर रहे हो बैरागीजी? हमसे क्या पूछते हो? आप हमारी हालत राई-रत्ती जानते हो। हमारे जितने मजे लेने हो! सीधे-सीधे ले लो यार! आप कितना भी, कुछ भी कर लो, भोलेपन की नोटंकी करने में हमारे मोदीजी की बराबरी नहीं कर पाओगे। इसलिए घुमा-फिरा कर बात मत करो।’ मैंने खिसियाये स्वरों में सफाई दी - ‘नहीं! नहीं! ऐसा मत कहिए। मैं आपके मजे क्यों लूँगा? मुझे सच्ची में कुछ पता नहीं।’ दूसरे ने तड़ाक् से कहा - ‘चलो! आपके झूठ को सच मान लेते हैं। हमारे मुँह से ही सुनना है तो सुनो! बुरे हाल हैं। बहुत बुरे। न रोते बन रहा है न हँसते। न मर पा रहे हैं न जी पा रहे हैं। अब तो आप खुश?’ कह कर जोर से हँस पड़े। निश्चय ही मैं रूँआसा हो आया होऊँगा। मेरी शकल देख कर बोले - ‘अरे! रे! रे! आप तो दिल पर ले बैठे! सीरीयस हो गए! मैं आपकी मजाक नहीं उड़ा रहा। इन दिनों हम सब यही कर रहे हैं। काम-धाम तो सब बन्द पड़ा है! मोदीजी ने सबको फुरसतिया बना रखा है। इसलिए इकट्ठे हो कर एक-दूसरे के बहाने अपनी ही मजाक उड़ाते रहते हैं।’

तीसरे ने तनिक संजीदा हो कहा - ‘आप बुरा मत मानो। आपने तो हमसे पूछ भी लिया। हम किससे पूछें? क्या पूछें? हम पर तो ठप्पा लगा हुआ है। हमें भी अपने भाजपाईपन पर खूब भरोसा रहा है। भरोसा क्या, घमण्ड रहा है कि भाजपा हम व्यापारियों की पार्टी है। हम जो कहेंगे, जो चाहेंगे, मनवा लेंगे। पार्टी चाहे जो कर ले, व्यापारी का नुकसान कभी नहीं करेगी। लेकिन हमारा यह घमण्ड तो मार्च में ही टूट गया। आपने तो सब कुछ अपनी आँखों देखा। सरकार ने जेवरों पर टैक्स लगा दिया। हमने विरोध किया। भरोसा था कि हमारी बात पहले ही झटके में मान ली जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमें लगा, हमारी माँग फौरन ही मानने में सरकार को शरम आ रही होगी। कुछ दिनों के विरोध की नूरा-कुश्ती के बाद मान लेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हमने दबाव बनाया। कोई दो सौ परिवारों ने भाजपा से सपरिवार त्याग-पत्र देने की चेतावनी दी। किसी ने ध्यान नहीं दिया। हम त्याग-पत्र लेकर, जुलूस बनाकर भाजपा पदाधिकारियों के दरवाजे खटखटाते रहे। कोई हमारे त्याग-पत्र हाथ में लेने को तैयार नहीं हुआ। हमने डाक से भेज दिए। लेकिन पूछताछ करना तो दूर, किसी ने पावती भी नहीं भेजी। पार्टी ने हमारी औकात बता दी। हमारा घमण्ड धरा का धरा रह गया। यह सब हम किससे कहें? कहें तो भी किस मुँह से? हम कहीं और जा भी नहीं सकते। कोई हमारा विश्वास नहीं करेगा। हम व्यापारी हैं। इतनी समझ तो हममें हैं कि अब सब-कुछ चुपचाप सहन करते रहें। आपने ही एक बार अंग्रेजी की वो भद्दी कहावत सुनाई थी कि जब बलात्कार टाला न जा सके तो उसका आनन्द लेना चाहिए! तो समझ लो! हम वही आनन्द ले रहे हैं।’ वातावरण अत्यधिक गम्भीर हो गया। गुस्सा इस तरह भी जाहिर किया जा सकता है? समूचा परिहास और उपहास, मानो करुणा की नदी बन कर बहने लगा। 

वह व्यापारी मित्र निश्चय ही अत्यधिक भावाकुल हो गया था। ग्राहकों की मौजूगी तलाश रहे बाजार की वह दोपहर मानो सन्नाटेभरे  जंगल  में बदल गई। पता नहीं वह अपराध-बोध था या अपनों के अत्याचार से उपजी पीड़ा का प्रभाव कि मानो सबके सब गूँगे हो गए। मुझे अपनी धड़कन और साँसों की आवाज सुनाई पड़ रही थी। मुझे घबराहट होने लगी। लगा, घुटी-घुटी साँसों के कारण मेरी छाती फट जाएगी और मेरा प्राणान्त हो जाएगा। मैंने उबरने की कोशिश करते हुए कहा - ‘अब तो आप दिल पर ले बैठे। मैं माफी माँगता हूँ। आप तो व्यापारी हैं। इसे भी व्यापार का हिस्सा ही समझिए। ऐसी ऊँच-नीच तो चलती रहती है।’ लम्बी साँस लेकर वह व्यापारी मित्र बोला - ‘आप ठीक कह रहे हैं। हम सब भी यही कह-कह कर एक-दूसरे को समझा रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि हम सब अपने आप से झूठ बोल रहे हैं। संगठन के प्रति निष्ठा बरतने के नाम पर हम उन सारी बातों पर चुप हैं जिनके विरोध में हम लोग झण्डे-डण्डे उठा कर सड़कों पर उतर कर आसमान-फाड़ नारेबाजी करते रहे हैं। हम काले धन और भ्रष्टाचार के विरोध में सबसे ज्यादा बोलते हैं लेकिन हमारा एक प्रभाग प्रमुख (उन्होंने बैरागढ़ के किसी व्यक्ति का नाम लिया)  करोड़ों के काले धन के साथ पकड़ा गया तो चुप हैं। चुप ही नहीं हैं, उसे निर्दोष और ईमानदार भी कह रहे हैं। यह सब हम किससे कहें? यही हमारी तकलीफ है बैरागीजी! हमारी दशा तो उस लड़के जैसी हो गई है जिसकी माँ ने अपने पति की हत्या कर दी। लड़के का संकट यह कि बोले तो माँ को फाँसी हो जाए और चुप रहे तो बाप की लाश सड़ जाए। यह सब किससे कहें बैरागीजी? कौन अपनी माँ को डायन कहे? कौन अपनी ही जाँघ उघाड़कर अपनी हँसी उड़वाए?’

मेरी बोलती बन्द हो चुकी थी। मैं मानो ‘संज्ञा शून्य’, जड़वत् हो गया। क्या कहूँ? क्या करूँ? मुझे कुछ भी सूझ नहीं  रहा था। मेरी दशा देख, वह व्यापारी मित्र ‘हो! हो!’ कर हँस पड़ा। बोला - ‘सब लोग कहते हैं कि अपनी बातों से आप सबकी बोलती बन्द कर देते हो। लेकिन यहाँ तो उल्टा हो गया। आपकी बोलती बन्द हो गई! होता है बैरागीजी! ऐसा भी होता है। कहते हैं कि हर सेर को सवा सेर मिलता है। हर ऊँट पहाड़ के नीचे आता है। लेकिन यह शायद ही कोई जानता होगा कि यह सवा सेर और यह पहाड़ ईमानदारी और सच की शकल में होता है। हो न हो, इसीलिए हमारे मोदीजी ने नोट बन्दी के मामले में संसद में मतदान कराने की बात नहीं मानी कि कहीं हमारे लोगों की आत्माओं को झकझोर रहा यही सवा सेर और पहाड़ उनकी बोलती बन्द न कर दे।’
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एके साधे सब सधे

(भारतीय जीवन बीमा निगम के अधिकारियों, कर्मचारियों और अभिकर्ताओं को समृद्ध करने के लिए ‘निगम’ अपनी मासिक गृह-पत्रिका ‘योगक्षेम’  प्रकाशित करता है। उसी में प्रकाशनार्थ मैंने दिनांक 13 दिसम्बर 2013 को यह आलेख भेजा था। उसके बाद एक बार याद भी दिलाया था किन्तु अब तक कोई जवाब नहीं मिला। निश्चय ही इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया होगा। मेरे मतानुसार यह आलेख मुझ जैसे छोटे, कस्बाई अभिकर्ताओं के लिए तनिक सहयोगी और उपयोगी हो सकता है। इसी भावना से इसे अब अपने ब्लॉग पर दे रहा हूँ। इसके अतिरिक्त इसका न तो कोई सन्दर्भ है, न उपयोगिता और न ही प्रसंग।)




एक लोकोक्ति है कि लोग अपनी गलतियों से सीखते हैं। किन्तु समझदार वे होते हैं जो दूसरों की गलतियों से सीखते हैं। मैं, भारतीय जीवन बीमा निगम के मुझ जैसे तमाम अभिकर्ताओं को न्यौता दे रहा हूँ - मेरी गलतियों से सीखकर समझदार होने के लिए। 

महानगरों की स्थिति तो मुझे नहीं पता किन्तु कस्बाई स्तर पर हमारे अभिकर्ता साथी एकाधिक संस्थाओं की एजेन्सियाँ लिए होते हैं। ‘निगम’ का अभिकर्ता बनने के शुरुआती कुछ बरसों तक मैं भी यही करता था। किन्तु मैंने, एक के बाद एक बाकी सारे काम छोड़ दिए और केवल ‘एलआईसी एजेण्ट’ ही बन कर रह गया। 

मैंने पाया कि ऐसा करने के बाद न केवल मेरी आय बढ़ी बल्कि मेरी सार्वजनिक पहचान और प्रतिष्ठा (वह जैसी भी है) में मेरी अपेक्षा से अधिक बढ़ोतरी हुई। 
मेरे पास भारतीय यूनिट ट्रस्ट, डाक घर और साधारण बीमा (जनरल इंश्योंरेंस) कम्पनी की भी एजेन्सी थी। मेरी बात को किसी संस्था की आलोचना न समझी जाए किन्तु मेरा अनुभव रहा है कि ग्राहक सेवाओं के मामले में ‘निगम’ से बेहतर कोई संस्था नहीं। हर कोई जानना चाहेगा कि मैंने शेष तीनों एजेन्सियाँ क्यों छोड़ीं। मैं भी बताने को उतावला बैठा हुआ हूँ।

मैंने काम शुरु किया उस समय मेरे कस्बे में भारतीय यूनिट ट्रस्ट का कार्यालय नहीं था। तब यह इन्दौर में था - मेरे कस्बे से सवा सौ किलोमीटर दूर। एक निवेशक के नाम की वर्तनी (स्पेलिंग) दुरुस्त कराने में मुझे सात महीनों से अधिक का समय लग गया और इस दौरान मैंने  प्रति माह कम से कम चार-चार पत्र लिखे। याने प्रति सप्ताह एक पत्र। ग्राहक का नाम तो आखिरकार दुरुस्त हो गया किन्तु ग्राहक की नजरों में मेरे लिए विश्वास भाव में बड़ी कमी आई। वह जब भी मिलता, कहता - ‘क्या! बैरागी सा’ब! मेरा नाम दुरुस्त कराने में यह हालत है तो अपना भुगतान लेने में तो मुझे पुनर्जन्म लेना पड़ जाएगा! ऐसे में आपसे बीमा कैसे लें?’ ऐसे प्रत्येक मौके पर मुझे  चुप रह जाना पड़ता था। अन्ततः नाम ही दुरुस्त नहीं हुआ, मैं भी दुरुस्त हो गया।  मैंने वह एजेन्सी छोड़ दी।

डाक घर के साथ मेरा अनुभव तनिक विचित्र रहा। डाक घर के बचत बैंक पोस्ट मास्टर मेरे पड़ौसी थे। हम दोनों रोज सुबह, अपना-अपना अखबार बदल कर पढ़ते थे। कभी मेरे यहाँ नल में पानी नहीं आता तो मैं उनके नल का उपयोग करता और कभी उनके नल में पानी नहीं आता तो वे मेरे नल से पानी लेते। किन्तु मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा जब मेरे सगे भतीजे के एक निवेश की परिपक्वता राशि का भुगतान मुझे करने से उन्होंने इंकार कर दिया - वह भी तब जबकि मेरे पास मेरे भतीजे द्वारा मेरे पक्ष में दिया गया आवश्यक, औपचारिक अधिकार-पत्र था। कुछ देर तो मुझे लगा कि वे मुझसे परिहास कर रहे हैं। किन्तु वे तो गम्भीर थे! स्थिति यह हो गई कि मुझे लिहाज छोड़ कर, शिकायत करने की धमकी देनी पड़ी। मुझे भुगतान तो मिल गया किन्तु इस घटना के बाद से हम दोनों के बीच की अनौपचारिकता, सहजता समाप्त हो गई और हम अपने-अपने अखबार से ही काम चलाने को मजबूर हो गए। मेरे मन में विचार आया कि जो साहब मुझे और मेरे बारे में व्यक्तिगत रूप से भली प्रकार जानते हैं, जब वे भी मुझे, मेरे भतीजे का भुगतान करने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं तो किसी सामान्य ग्राहक का भुगतान कराने में, एक अभिकर्ता के रूप में मेरी दशा क्या होगी? ऐसी घटनाओं का प्रभाव मेरे दूसरे कामकाज पर अच्छा नहीं पड़ेगा। मुझे ग्राहकों से हाथ धोना पड़ जाएगा। मेरा मोह भंग हो गया और मैंने उस एजेन्सी को नमस्कार कर लिया।

साधारण बीमा (जनरल इंश्योरेंस) कम्पनी से मेरा ऐसा कोई अप्रिय अनुभव तो नहीं रहा किन्तु दावा भुगतान को लेकर वहाँ की कार्यप्रणाली ने मुझे निरुत्साहित कर दिया। मैंने देखा कि अपने दावों का भुगतान प्राप्त करने के लिए ग्राहकों को बार-बार चक्कर काटने पड़ते हैं। कुछ मामलों में मैंने पाया कि ग्राहक जब भी अपना भुगतान लेने आता तब उसे कोई न कोई कागज लाने के लिए कह दिया जाता। इसके सर्वथा विपरीत, ‘निगम’ ने मेरी आदत खराब कर रखी थी। मेरी इस बात से तमाम अभिकर्ता और अन्य लोग भी सहमत होंगे कि दावा भुगतान को ‘निगम; सर्वाेच्च प्राथमिकता देता है और स्थिति यह है कि हम ग्राहकों को ढूँढ-ढूँढ कर भुगतान करते हैं। कई बार तो ग्राहक को पता ही नहीं होता कि उसे कोई बड़ी रकम मिलनेवाली है। ऐसे पचासों भुगतान का माध्यम तो मैं खुद बना हूँ जो पालिसियाँ मैंने नहीं बेचीं और जिनका अता-पता मेरे शाखा कार्यालय ने मुझे दिया, मैंने सारी औपचारिकताएँ पूरी करवाईं और ग्राहक को भुगतान कराया। ऐसे प्रत्येक मामले में ग्राहक ने मुझे बार-बार धन्यवाद दिया तो दिया ही, दुआएँ भी दीं। मुझे लगा कि एक ओर कहाँ तो हम भुगतान करने के लिए उतावले रहते हैं और कहाँ दूसरी ओर ग्राहक चक्कर लगाता रहता है! मुझे लगा कि कभी मेरा कोई ग्राहक नाराज हो गया तो उसका प्रतिकूल प्रभाव मेरी, जीवन बीमा एजेन्सी पर पड़ सकता है और मुझे व्यावसायिक नुकसान हो सकता है। यह ऐसा नुकसान होगा जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। यह विचार आते ही मैंने चुपचाप वह एजेन्सी भी छोड़ दी।

अब मैं केवल एलआईसी का काम कर रहा हूँ। शुरु में तो मुझे लगा था कि मुझे नुकसान हुआ है किन्तु मेरी आय के आँकड़े मेरी इस धारणा पर मेरा मुँह चिढ़ाते हैं। मेरी आय प्रति वर्ष बढ़ी। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि ग्राहक सेवाओं को लेकर मेरे ग्राहक मुझसे असन्तुष्ट नहीं हैं।

सारे काम छोड़कर एक ही काम करने के दो प्रभाव मैंने सीधे-सीधे अनुभव किए। पहला तो यह कि मैं अपने काम में अधिक दक्ष हुआ और दूसरा यह कि मेरे परिचय क्षेत्र में मुझे अतिरिक्त सम्मान से देखा जाने लगा। ग्राहकों से मेरा जीवन्त सम्पर्क बढ़ा और आज स्थिति यह है कि प्रति वर्ष मेरे ग्राहक बुला कर मुझे बीमा देते हैं। अपना परिचय देते हुए जब मैं कहता हूँ ‘‘मैं एलआईसी एजेण्ट हूँ और यही काम करता हूँ। इसके सिवाय और कोई काम नहीं करता।’ तो सामनेवाले पर इसका जो अनुकूल प्रभाव होता है उसे शब्दों में बयान कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो रहा।

यह सब देखकर और अनुभव कर मुझे अनायास ही कवि रहीम का दोहा याद आ गया -

         एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
         जो तू सींचौ मूल को, फूले, फले, अघाय।।

अर्थात् थोड़े-थोड़े पाँच-सात काम करने की कोशिश में एक भी काम पूरा नहीं हो पाता। इसके विपरीत यदि कोई एक ही काम हाथ में लिया जाए तो वह पूरा होता है उसके समस्त लाभ भी मिलते हैं और इस सीमा तक मिलते हैं कि हमारी सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। 

इसी क्रम में मुझे कवि गिरधर की एक कुण्डली याद आ रही है जो हमारी मातृसंस्था ‘एलआईसी’ पर पूरी तरह लागू होती है। कुण्डली इस प्रकार है -

         रहिये लटपट काटि दिन, अरु घामे मा सोय।
         छाँह न वाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय।।
         जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा दैहे।
         जा दिन बहे बयारी, टूटी तब जर से जैहे।
         कह गिरधर कविराय, छाँह मोटे की गहिये।
         पाता सब झरि जाय, तऊ छाया में रहिये।।

अर्थात्, ‘चाहे तकलीफ में दिन काट लीजिए, चाहे धूप में सोना पड़े लेकिन किसी कमजोर-पतले वृक्ष की छाया में मत बैठिए। पता नहीं कब धोखा दे दे! किसी दिन आँधी में जड़ से उखड़ जाएगा। इसलिए किसी विशाल, मोटे, घनी वृक्ष की छाया में बैठिए। ऐसे वृक्ष के सारे पत्ते भी झड़ जाएँगे तो भी सर पर छाया बनी रहेगी।’ मुझे लगता है कि ‘आर्थिक सुरक्षा और संरक्षा’ के सन्दर्भों में कवि गिरधर एलआईसी की ओर ही इशारा कर रहे हैं।

पूर्णकालिक (फुल टाइमर) अभिकर्ता के रूप में काम करने का सुख और सन्तोष अवर्णनीय है। इससे क्षमता और दक्षता में वृद्धि होती है जिसका अन्तिम परिणाम होता है - आय में वृद्धि। लेकिन इससे आगे बढ़कर एक और महत्वपूर्ण काम होता है - अधिकाधिक लोगों तक पहुँचकर उन्हें बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराने का। 

यही तो ‘निगम’ का लक्ष्य है!
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(सर्वाधिकार लेखकाधीन।)


नोटबन्‍दी के खलनायक : सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक

तय कर पाना कठिन हो रहा है कि इस सब को क्या मानूँ - आश्चर्यजनक, निराशाजनक या हताशाजनक? क्या यह मात्र संयोग है कि अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग घरों में बैठे लोग किसी विषय पर अलग-अलग समय पर बात करते हुए लगभग एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते अनुभव हों? क्या सबको पूर्वाग्रही या सन्देही मान लिया जाए? क्या परस्‍पर विरोधी राजनीतिक विचारधाराओं के लोग एक ही मुद्दे पर, समान-पूर्वाग्रही या समान-संशयी हो सकते हैं?

एक पारिवारिक प्रसंग में इस बार पूरे सात दिन ससुराल में रहना पड़ा। बहुत बड़ा कस्बा नहीं है। ऐसा कि घर पर नियमित रूप से आ रहे अखबार के अतिरिक्त कोई और अखबार नहीं मिल सकता। सब अखबारों की गिनती की ग्राहक-प्रतियाँ ही आती हैं। अतिरिक्त प्रति उपलब्ध नहीं। सो पूरे सात दिन एक ही अखबार पर आश्रित रहना पड़ा। काम-धाम कुछ नहीं। पूरी फुरसत। ऐसा कोई व्यक्तिगत सम्पर्क भी नहीं जहाँ जाकर दस-बीस मिनिट बैठ सकूँ। मैं आराम कर-कर थक गया। अखबार में, नए नोटों की थोक में बरामदगी की खबरों ने विचार दिया-अपने परिचय क्षेत्र के अधिकाधिक बैंककर्मियों से बात की जाए। मेरे सम्पर्क क्षेत्र में यूँ तो सभी विचारधारााओं के लोग हैं किन्तु संघी-भाजपाई अधिसंख्य हैं जबकि बैंक कर्मचारी संगठनों में वामपंथी अधिसंख्य हैं। किन्तु अनेक बैंककर्मी ऐसे हैं जो सुबह शाखा में जाते हैं और दिन में, प्रबन्धन के विरुद्ध प्रदर्शनों में ‘लाल सलाम! लाल सलाम!’ और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हैं। सुबह वैचारिक निष्ठा और दिन में रोटी बचाने की जुगत। कुछ कर्मचारी ऐसे हैं जो लिपिक के रूप में नियुक्त हुए थे और पदोन्नत होते-होते शाखा प्रबन्धक बन गए हैं। मैंने  यथासम्भव अधिकाधिक परिचितों से बात की। अपनी फुरसत और पिपासा शान्ति की भरपूर कीमत चुकानी पड़ मुझे। कुल मिलाकर कम से कम पाँच घण्टे तो बात की ही होगी मैंने। 

दो बातें समान अनुभव हुईं - लिपिक वर्ग के कर्मचारियों ने सामान्यतः आक्रामक हो कर बात की तो अधिकारी बन चुके कर्मचाािरयों ने मुद्दों पर, गम्भीरता से, लगभग तटस्थ भाव से बात की। किन्तु निष्कर्ष सबका एक ही था - ‘यह सब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विरुद्ध, इन्हें बदनाम कर ध्वस्त करने का, कार्पोरेट घरानों और सरकार में बैठे पूँजीवादियों का सुनियोजित, गम्भीर षड़यन्त्र है जिसमें पूरा मीडिया तीव्र उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहा है।’ मैंने अधिकारी बन चुके मित्रों की बातों को तनिक अधिक महत्व दिया।

अधिकारी बन चुके मित्रों का कहना रहा कि सरकारी बैंकों के कर्मचारियों में न तो सबके सब ‘पवित्र गायें’ हैं न ही सबके सब ‘काली भेड़ें’ हैं। सब तरह के लोग सब जगह हैं। भले, ईमानदार, कर्तव्य निष्ठ लोग अधिक हैं और बेईमान, कामचोर बहुत कम। किन्तु जैसा कि होता है, जिक्र बेईमानों का ही होता है, ईमानदारों का नहीं। ऐसे लोग निजी बैंकों में भी हैं। किन्तु सरकारी और निजी बैंकों में बहुत बड़ा अन्तर यह है कि सरकारी बैंकों में यह बेईमानी व्यक्तिगत स्तर पर है जबकि निजी बैंकों में संस्थागत रूप से है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सारे के सारे निजी बैंक संस्थागत रूप से बेईमान हैं। इन मित्रों ने कहा - ‘किन्तु तनिक ध्यान से देखिए! थोक में नए नोट सामान्यतः निजी बैंकों से ही बरामद हो रहे हैं। किसी बैंक से इतनी बड़ी मात्रा में नए नोट कोई अकेला कर्मचारी, ‘प्रबन्धन’ की सहायता और सुरक्षा के बिना, व्यक्तिगत स्तर पर उपलब्ध नहीं करा सकता।’ इन्होंने याद दिलाया कि कम से कम दो निजी बैंक अतीत में एण्टी मनी लाण्डरिंग अधिनियम के गम्भीर उल्लंघनकर्ता के रूप में चिह्नित और चर्चित हो चुके हैं। एक साथी ने याद दिलाया तो मुझे याद आया कि गत वर्ष ही भोपाल में एक बीमा एजेण्ट ने एक निजी बैंक की सहायता से, एण्टी मनी लाण्डरिंग एक्ट का उल्लंघन करते हुए, बिना पान कार्ड और बिना ग्राहक-पहचान-पत्रों के, अपने ग्राहकों के लाखों रुपये एक निजी बैंक में जमा करवा दिए थे। चूँकि देश में सरकारी बैंकों की उपस्थिति सर्वाधिक है इसलिए जनसामान्य का साबका इन्हीं से पड़ता है। यही इनका दोष है। जबकि सरकारी बैंकों के कर्मचारी अधिक मानवीय, अधिक सम्वेदनशील होकर काम करते हैं। 

इन इधिकारी मित्रों ने बड़ी पीड़ा से कहा - ‘हमारी कठिनाई यह है कि हमारी स्थिति कोई समझने को तैयार नहीं। समझे तो तब जब सुने!  सरकार ने 85 प्रतिशत मुद्रा वापस ले ली। इसके एवज में दस प्रतिशत मुद्रा ही बैंकों को उपलब्ध कराई है। यह सामान्य बात कोई सुनने-समझने को तैयार नहीं कि 85 प्रतिशत की पूर्ति दस प्रतिशत से होगी तो हल्ला तो मचेगा ही! यह तो सब कहते हैं कि सरकार ने 24 हजार रुपये निकालने का अधिकार दिया है। लेकिन लाइन में लगे प्रत्येक व्यक्ति को इतनी रकम देने जितनी रकम कितने बैंकों को उपलब्ध कराई जा रही है? ऐसे में, बैंकों की कोशिश यह है कि अधिकाधिक लोगों को रकम दी जाए। इसके लिए बैंक मेनेजर लोग अपनी सोच-समझ के अनुसार कहीं दस हजार तो कहीं पाँच हजार प्रति व्यक्ति दे रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी कतार में खड़े तमाम लोगों को रकम दे पाना सम्भव नहीं है। आखिकार बैंक उतनी ही रकम तो देगा जितनी उसे मिली है! ऐसे में सरकारी बैंक अपना उत्कृष्ट देने के बाद भी लोगों की घृणा झेलने को अभिशप्त हैं। कुछ निजी बैंकों के किए की सजा तमाम सरकारी बैंकों को केवल इसलिए मिल रही है वे देश में सर्वाधिक नजर आ रहे हैं। सरकारी बैंकों की सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, कर्मचारियों के साथ मारपीट हो रही है। 

अधिकांश कर्मचारियों ने कहा-‘कोई रिजर्व बैंक से पूछताछ क्यों नहीं करता? उनके पास तो पूरी सूची है कि उन्होंने किस जगह, किस बैंक को, कितनी रकम उपलब्ध कराई है! यह सूची जगजाहिर हो जाए तो दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। थोक में नए नोट उपलब्ध कराने के मामले में अब तो रिजर्व बैंक के कर्मचारी भी पकड़े जा रहे हैं।’ इन लोगों ने बहुत बारीक बात कही-‘आप ध्यान से देखिए। तमाम चैनलों पर बहस के लिए, वर्तमान/भूतपूर्व अधिकारी हों या कर्मचारी संगठनों के लोग, केवल सरकारी बैंकों से जुड़े लोगों को ही बुलाकर सवाल पूछे जा रहे हैं। सवाल भी ऐसी भाषा और अन्दाज में मानो किसी अपराधी से सफाई माँगी जा रही हो। रिजर्व बैंक या निजी बैंक के एक भी अधिकारी, कर्मचारी को कभी, किसी चेनल ने बुलाकर अब  तक पूछताछ नहीं की। पूरी दुनिया जानती है कि अधिकांश चेनलें कार्पोरेट घरानों की मिल्कियत हैं। ये सब सरकारी बैंकों को बदनाम कर अपने मालिकों की स्वार्थ-पूर्ति कर रही हैं।’

अपने राजनीतिक रुझान छुपाने में असमर्थ मित्रों ने खुल कर कहा कि नोटबन्दी के समस्त चार लक्ष्य (नकली नोटों से मुक्ति, काला धन उजागर करना, भ्रष्टाचार दूर करना और आतंकियों की फण्डिंग) विफल हो चुके हैं। सरकार अपनी विफलता सरकारी बैंकों पर थोप कर गंगा स्नान करना चाह रही हैं। दो कर्मचारियों ने आकर्षक शब्दावली प्रयुक्त की - ‘खलनायक बन चुका विफल नायक, एक निर्दोष को खलनायक साबित करने हेतु प्रयत्नरत है।’ और ‘मलिन हो चुकी अपनी सूरत को उजली साबित करने के लिए बैंकों की सूरत पर कालिख पोती जा रही है।’

मैं इन सारी बातों पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं कर रहा। सब कुछ एक पक्षी है। किन्तु इनमें वे लोग भी शरीक हैं जो ‘अपनी सरकार’ का लिहाज पाल पाने में असुविधा महसूस कर रहे हैं। ऐसे में इन सारी बातों को खारिज भी नहीं कर पा रहा। न सबकी सब सच और न ही सबकी सब झूठ। इन दोनों के बीच में आपको क्या नजर आता है?
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घटती ब्याज दरों की दहशत

आदमी खुद से अधिक किसी को प्यार नहीं करता। निश्चय ही इसीलिए, नोट बन्दी के तुमुल कोलाहल के बीच अपने कल की चिन्ता मेरी धड़कन बढ़ा रही है। तसल्ली है तो केवल यही कि मेरा भय, मुझ अकेले का नहीं, अधिसंख्य बूढ़ों का है।

सरकार का सारा ध्यान और सारी कोशिशें विकास दर बढ़ाने की हैं। उद्योगों को बढ़ावा देने और व्यापार को अधिकाधिक आसान बनाकर ही यह किया जा सकता है। इसके लिए अधिकाधिक पूँजी, कम से कम कठिनाई से इन क्षेत्रों को उपलब्ध कराना पहली शर्त है। सो, सरकार यही कर रही है। उर्जित पटेल के, भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बनने के बाद सबसे पहला काम इसी दिशा में हुआ। फलस्वरूप बैंकों ने अपनी ब्याज दरें घटा दीं। तमाम अखबार और चैनलों पर मकान और कारों की ईएमआई कम होने की शहनाइयाँ बजीं। अब सुन रहे हैं कि नोट बन्दी के के कारण तमाम बैंकों के पास अतिरिक्त पूँजी आ जाएगी और वे एक बार फिर अपनी ब्याज दरें घटा देंगे। 

लेकिन ये घटती ब्याज दरें मुझ जैसे बूढ़ों के दिल बैठा रही है। हम बूढ़े विचित्र से नैतिक संकट में हैं। अपने बच्चों को कम दर पर पूँजी मिलने की खुशी मनाएँ या बुढ़ापे में कम होती अपनी आमदनी पर दुःखी हों? आँकड़े और तथ्य तो ऐसा ही कहते लग रहे हैं।
केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय की महानिदेशक सुश्री अमरजीत कौर ने 22 अप्रेल 2016 को रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि 2001 से 2011 के बीच देश में 60 वर्ष से अधिक आयुवाले नागरिकों की  वृद्धि दर अभूतपूर्व रही है। वर्ष 2001 में देश की सकल जनसंख्या में वृद्धों की संख्या 7.6 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 8.6 प्रतिशत (कुल 10.39 करोड़) हो गई। यह वृद्धि दर 35.5 प्रतिशत है जो न केवल अब तक की सर्वाधिक है बल्कि राष्ट्रीय जनसंख्या वृध्दि दर से दुगुनी भी है। तब से अब तक के पाँच वर्षों में इस संख्या में निश्चय ही वृद्धि हुई ही होगी। 

छोटे होते परिवार, बच्चों का घर से दूर रहकर नौकरी करना और छिन्न-भिन्न हो रहा हमारा सामाजिक ताना-बाना। इस सबके चलते बूढ़े लोग अकेले होते जा रहे हैं। पूँजीवाद हमें लालची बना रहा है। हमारी सम्वेदनाएँ भोथरी होती जा रही हैं। बच्चों द्वारा अपने माता-पिता की जिम्मेदारी से पल्ला झटकने के समाचार अब आम होने लगे हैं। अपने भरण-पोषण के लिए और अपने ही बनाए मकान में जगह पाने के लिए बूढ़े लोग अदालतों के दरवाजे खटखटाते मिल रहे हैं। वृद्धाश्रमों की और उनमें रहनेवालों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है। पूर्णतः निराश्रितों के बारे में सोेचने की हिम्मत नहीं होती। लेकिन सेवानिवृत्त बूढ़े भी अब अपनी आय में होती कमी से भयभीत हैं।

बैंकों द्वारा ब्याज में कमी करने का सीधा असर इन बूढ़ों पर पड़ने लगा है। अगस्त 2016 के आँकड़ों के मुताबिक रेल, रक्षा, अर्द्ध सैनिक बलों, सार्वजनिक उपक्रमों, परिवार पेंशनधारियों और केन्द्र सरकार के पेंशनरों की कुल संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी। राज्य सरकारों के और निजी क्षेत्र के पेंशनर इनमें शामिल नहीं हैं। ये तमाम लोग बैंक एफडी और डाक घर की विभिन्न लघु बचत योजनाओं से मिलनेवाले ब्याज की रकम पर आश्रित हैं। कम हुई (और निरन्तर कम हो रही) ब्याज दरों का सीधा प्रभाव इन सब पर पड़ेगा ही। आय में कमी और मँहगाई में वृद्धि इन बूढ़ों की रातों की नींद और दिन का चैन छीन लेगी। म्युचअल फण्डों में बेहतर आय मिल सकती है किन्तु वहाँ, बैंकों और डाकघर जैसी पूँजी की सुरक्षा और निश्चिन्तता नहीं। उम्र भी ऐसी नहीं कि अपनी रकम खुले बाजार में ब्याज पर लगाने की जोखिम ले सकें। ऐसे में ये बूढ़े अपने चौथे काल में राम-नाम भूल कर जीने के अधिक ठोस आधार की तलाश में लग जाएँगे। लेकिन सुरक्षित निवेश की विकल्पहीनता इन्हें निराश ही करेगी। मैं भी इन्हीं में से एक हूँ। अपने बेटों की संस्कारशीलता पर भरोसा होते हुए भी मुझे भी घबराहट हो रही है। लेकिन करूँ क्या? इस यक्ष प्रश्न का सामना करने में पसीने छूट रहे हैं।

किन्तु कम होती ब्याज दरों का यह असर केवल बूढ़ों पर ही नहीं होगा। मुझे एक खतरा और नजर आ रहा है। जैसा कि मैं बार-बार कहता हूँ, मैं अर्थ शास्त्र का विद्यार्थी नहीं हूँ किन्तु बीमा व्यवसाय के कारण फौरी तौर पर कुछ बातें समझ में आने लगी हैं। मुझे लग रहा है कि कम होती ब्याज दरों का सीधा असर हमारी अल्प बचत पर पड़े बिना नहीं रहेगा। हमारी लघु बचतों में सबसे बड़ा हिस्सा घरेलू बचत का है। जो लोग जोखिम लेने की उम्र और दशा में हैं वे तमाम लोग बैंक एफडी और डाकघर की लघु बचत योजनाओं से पीठ फेर कर म्युचअल फण्डों की ओर मुड़ जाएँगे। हम सब जानते हैं कि बैंकों और डाक घर में जमा रकम का सीधा लाभ सरकार को मिलता है। लोक कल्याणकारी योजनाओं में यह रकम बड़ी सहायता करती हैं। किन्तु म्युचअल फण्डों की रकम पर सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता। वर्ष 2008 में हमारा बचत का राष्ट्रीय औसत 38.1 प्रतिशत था जो 2014 में घटकर 31.1 रह गया। आज यह और भी घटकर 30.1 प्रतिशत रह गया है।  गए तीस वर्षों में यह सबसे कम प्रतिशत है। हम भारतीय भूलने में विशेषज्ञ हैं इसलिए शायद ही किसी को याद होगा कि 2007 और 2008 के वर्षों में जब दुनिया मन्दी के चपेट में आ गई थी, दुनिया की सबसे ताकतवर अमरीकी अर्थ व्यवस्था अस्त-व्यस्त-ध्वस्त हो गई थी, लोगों की नौकरियाँ चली गई थीं तब भी हमारी अर्थ व्यवस्था जस की तस बनी रही। तनिक भी नहीं लड़खड़ाई। यह हमारी, अल्प बचतों में जमा पूँजी के दम पर ही सम्भव हुआ था। आज वे ही लघु बचतें मौत की ओर धकेली जा रही हैं। मैं डर रहा हूँ। लेकिन यह डर क्या मुझ अकेले का है?

मैं भारतीय जीवन बीमा निगम का अभिकर्ता हूँ। इसी कारण देश की प्रगति और विकास में इसके योगदान की और इसके महत्व की जानकारी हो पाई है। अपनी शाखाओं के जरिए यह ‘निगम’ प्रतिदिन तीन सौ करोड़ रुपये संग्रहित करता है। 1956 में इसकी स्थापना के समय भारत सरकार ने इसे पाँच करोड़ रुपये दिए थे। यह ‘निगम’ प्रति वर्ष अपने मुनाफे की पाँच प्रतिशत रकम भारत सरकार को देता है। अपनी स्थापना से लेकर अब तक यह संस्थान इस तरह अब तक भारत सरकार को एक पंचवर्षीय योजना के आकार की रकम भुगतान कर चुका है। अपने कोष का 75 प्रशित भाग इसे भारत सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं के लिए अनिवार्यतः देना पड़ता है। यह वस्तुतः भारत सरकार का कुबेर है। घटती ब्याज दर का असर इसकी पालिसियों के बोनस पर भी पर पड़ेगा। 1991 में बीस वर्षीय मनी बेक पालिसी की बोनस दर 67 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष और बन्दोबस्ती पालिसी की बोनस दर 72 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष थी। 1997 के आसपास ब्याज दरों में कमी शुरु हुई। आज यह बोनस दर 42 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष रह गई है। जाहिर है यह दर और कम होगी। केवल निवेश के लिए बीमा पालिसियाँ लेनेवाले तमाम लोग इससे दूर जाएँगे। जाहिर है, सरकार का कुबेर दुबला होगा ही। बढ़ते पूँजीवाद के समय में, इसकी इस भावी दशा को सरकार की ‘निजीकरण प्रियता’ से भी जोड़ा जा सकता है।

बात बूढ़ों से शुरु हुई थी और दूर तलक, अगली पीढ़ियों तलक चली गई। मेरा डर आपको वाजिब लगता है? और क्या यह डर मुझ अकेले का है?
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इन्दिरा काल की ऋण मुक्ति की वापसी

नोट बन्दी लागू होने के बाद मची अफरा-तफरी के बार से, अपनी योजना को लेकर सरकार द्वारा लगभग रोज ही कोई न कोई बदलाव करने या स्पष्टीकरण देने के बावजूद मैं मानकर चल रहा था कि सरकार ने सब कुछ सुविचारित-सुनियोजित किया है। किन्तु शनिवार तीन दिसम्बर को मुरादाबाद में हुई भाजपा रैली में प्रधान मन्त्री मोदी के भाषण में जन-धन खातों में जमा धन को लेकर खताधारकों को दी गई लोक-लुभावन सलाह और उसके बाद कही बात ने मुझे अपनी धारणा पर सन्देह होने लगा है। जन-धन खाताधारकों को जमा रकम (उसके वास्तविक स्वामियों को) वापस न करने की सलाह देने के बाद मोदी ने कहा कि वे अपना दिमाग खपा रहे हैं कि जन-धन खातों में जमा धन कैसे गरीबों का हो जाए। यह बात पढ़ कर मैं चौंक गया। अपने पढ़े पर विश्वास नहीं हुआ। विश्वास नहीं हुआ कि देश में उथल-पुथल मचा देनेवाले निर्णय को लेकर कोई प्रधान मन्त्री ऐसा कह सकता है।

मुझे सयानों की वह बात याद आ गई जिसके अनुसार दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं। श्रेष्ठ श्रेणी के लोग सोच कर बोलते हैं। मध्यम श्रेणी के लोग बोल कर सोचते हैं और निकृष्ट श्रेणी के लोग न तो सोच कर बोलते हैं न ही बोलने के बाद सोचते हैं। इसके समानान्तर ही मुझे एक श्लोक याद आने लगा जो मैंने भानपुरा पीठ के शंकराचार्यजी से सुना था जिसमेें कहा गया था कि राजा के चित्त का अनुमान देवता भी नहीं कर पाते।  किन्तु श्लोक मुझे याद नहीं रहा। मैंने जलजजी, भगवानलालजी पुरोहित और मन्दसौर में रह रहे मेरे कक्षा पाठी रामप्रसाद शर्मा को टटोला। रामप्रसाद पुरोहिती-पण्डिताई करता है। पहली बार में सबने हाथ खड़े कर दिए। लेकिन कोई दो घण्टों बाद जलजजी ने और अगली सुबह रामप्रसाद ने मेरा मनोरथ पूरा कर दिया। मनुस्मृति का यह श्लोक इस प्रकार है -

नृपस्य चित्तम्, कृपणस्य वित्तम्, मनोरथ दुर्जन मानुषानाम्।
त्रिया चरित्रम्, पुरुषस्य भाग्यम्, दैवो न जानाती, कुतो मनुष्यः।।

अर्थात् राजा के मन की बात, कंजूस व्यक्ति के धन, दुर्जन व्यक्ति की मनोकामना, स्त्री के स्वभाव-व्यवहार और पुरुष के भाग्य के बारे में देवता भी नहीं जान पाते तो साधारण मनुष्य की क्या बिसात कि यह सब जान ले। मोदी देश के प्रधान मन्त्री, देश के राजा हैं। वे वैसे भी इस गुण के कारण अलग से पहचाने जाते हैं कि उनके मन की बात का अनुमान कोई नहीं कर पाता। यहाँ तक कि उनके सहयोगी मन्त्री भी चौबीसों घण्टे ‘मोदी सरप्राइज’ के लिए तैयार रहते हैं। किन्तु मुरादाबाद में कही बात से तो साफ लगता है कि खुद उन्हें ही पता नहीं कि वे क्या चाहते हैं। परोक्षतः उन्होंने देश को सूचित किया है कि वे निर्णय पहले लेते हैं और योजना (और उसके क्रियान्वयन) पर बाद में सोचते हैं। उनकी यह बात, नोटबन्दी लागू होने के बाद आए, योजना में रोज-रोज किए गए बदलावों और दिए गए स्पष्टीकरणों से अपने आप जुड़ जाती है और लोगों को इस निष्कर्ष पर पहुँचने की छूट देती है कि यह योजना सुविचारित-सुनियोजित नहीं है। योजना लागू होने के बाद से आज तक एक दिन भी सामान्य नहीं बीता है। योजना के प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभावों से प्राण गँवानेवालों की संख्या सौ के आँकड़े की ओर सरकती नजर आ रही है। अब तो लगता है मानो ‘तब की तब देखी जाएगी’ वाली मनःस्थित में योजना लागू कर दी गई हो। निश्चय ही यह सब न तो सरकार के लिए अच्छा है न ही ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा ‘वर्ष का नायक’ (मेन ऑफ द ईयर) जैसे अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्रतीक से नवाजे जानेवाले मोदी के लिए। 

जन-धन खातों में जमा रकम उसके मूल स्वामियों को न लौटाने की सलाह देते समय मोदी यदि इन्दिरा गाँधी की ’ऋण-मुक्ति’ योजना और उसके परिणामों को याद कर लेते तो सबके लिए अच्छा होता। इन्दिरा गाँधी की इस महत्वाकांक्षी योजना के अन्तर्गत गाँवों के लोगों को साहूकारों के कर्ज से तो मुक्ति मिल गई थी किन्तु उसके बाद ऋण-मुक्त लोगों की सुध किसी ने नहीं ली और वे अनाथों से भी बदतर दुर्दशा में आ गए थे। हमारी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था आज भी कर्ज पर ही आश्रित है। इन्दिरा गाँधी के काल में किसानों को बैंकों से इतनी आसानी से और इतना सुविधाजनक कर्ज नहीं मिलता था। किसान मँहगी दर पर ब्याज देनेवाले साहूकारों पर ही निर्भर थे। इन्दिरा गाँधी की योजना से साहूकारों ने ब्याज ही नहीं अपना मूल धन भी खो दिया था। इससे नाराज हो  साहूकारों ने किसानों को कर्ज देना ही बन्द कर दिया। दूसरी ओर बैंकों से कर्ज मिलना शुरु नहीं हुआ। हालत यह हो गई थी कि किसान अपने खेत तैयार कर खाद-बीज से खाली हाथों अपना माथा टेके खेत की मेड़ पर बैठे मिलते थे। बैंक और सरकार मदद को सामने आए नहीं और दूध के जले साहूकारों ने पीठ फेर ली। परिणामस्वरूप, ‘गरीबी हटाओ’ का लोक-लुभावन नारा देने वाली इन्दिरा के राज में गरीब पूरी तरह भगवान भरोसे हो गए थे। जन-धन खातों में जमा रकम वापस न करने की सलाह देकर मोदी उसी इतिहास को नहीं दोहरा रहे?

काला धन सारे जन-धन खातों में जमा नहीं हुआ है। सामने आए आँकड़ों के मुताबिक ऐसे खाते एक प्रतिशत ही हैं। याने, मोदी यदि इसे गरीबों को नोटबन्दी से होनेवाला लाभ मानते हैं तो लगभग निन्यानबे प्रतिशत गरीब तो इस लाभ से वंचित रह गए। दूसरी बात, जिनके खातों में रकम जमा हुई है, वे सब के सब अपनी रोजी-रोटी के लिए उन्हीं पर निर्भर हैं जिनकी रकम है। अपवादस्वरूप ही किसी खाते में इतनी रकम जमा हुई होगी कि जो जिन्दगी बना दे। आज की तारीख में कोई भी अपनी रकम एक साथ पूरी की पूरी नहीं निकाल सकता। अपना काम-धन्धा शुरु करने के लिए एक मुश्त रकम चाहिए। रकम न लौटानेवाले को रकम का मूल स्वामी हमेशा के लिए नमस्कार कर लेगा। रकम ने यदि जिन्दगी भर साथ न दिया तो रोजगार के लिए कोई नया मालिक तलाश करना पड़ेगा। नए मालिक तक यदि विश्वासघात की कहानी पहुँच गई तो? इन सारी बातों से बढ़कर और सबसे पहले, अन्तरात्मा का भय। लोक अनुभव है कि गरीब आदमी लालची नहीं होता। गरीब की ईमानदारी के अनगिनत किस्से हमारे आसपास ही बिखरे हुए हैं। रोटी के लिए वह भीख माँग लेगा लेकिन चोरी नहीं करेगा। हम देख रहे हैं कि (चोरी करने का) यह काम भरे पेटवाले बड़े लोग ही करते हैं। ऐसे में, रकम का मूल स्वामी न भी कहेगा तो भी लोग यह रकम लौटा देंगे। तब हो सकता है कि कार्पोरेट घरानों की मदद से सिंहासन तक पहुँचने की सफलता हासिल करनेवाले मोदी के इस मनोरथ को देश के गरीब विफल कर दें। मोदी के आह्वान पर यदि लोगों ने अमल करने की हिम्मत कर भी ली तो ‘मालिक-मजदूर’ का रिश्ता संदिग्ध हो जाएगा। यह सर्वथा नया, अकल्पनीय सामाजिक-आर्थिक संकट होगा। गिनती के कुछ गरीब जरूर सम्पन्न हो जाएँगे।  किन्तु गरीब की ईमानदारी संदिग्ध हो जाएगी और लोगों को मजदूरी हासिल करने में मुश्किल होने लगेगी। यह विचित्र स्थिति होगी।

पता नहीं ‘राजा’ के मन में क्या है। कोई कल्पना करे भी तो कैसे? अभी तो राजा खुद ही अपने मन की बात नहीं जानता! यह स्थिति किसी के लिए सुखद नहीं है। यह ठीक समय है जब नोटबन्दी की विस्तृत योजना देश के सामने सुस्पष्ट तरीके से रख दी जाए। योजना संदिग्ध हो, चलेगा। किन्तु अपने अनिश्चय, अस्पष्टता के कारण ‘राजा’ पर सन्देह करने की स्थिति बने, यह किसी के लिए हितकारी नहीं है। न देश के लिए, न ही खुद ‘राजा’ के लिए।
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सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान

कल एक डॉक्टर मित्र के पास बैठा था। एक रोगी हर सवाल का जवाब बड़े ही अटपटे ढंग से दे रहा था। वह शायद शरीरिक नहीं, मनोरोगी था। तनिक विचार कर डॉक्टर मित्र ने अपनी दराज से एक शीशी निकाली और मरीज को कहा कि वह बाहर जाए और शीशी की बाम माथे पर लगा कर दस मिनिट बाद आए। मरीज ने निर्देश पालन तो किया किन्तु दस मिनिट के बजाय दो मिनिट में ही लौट आया। बोला कि उसे ललाट पर असहनीय जलन हो रही है। डॉक्टर ने बड़े ही प्यार से फटकारते हुए कहा कि वह बाहर ही बैठे और दस मिनिट बाद ही आए। मरीज ने कहा कि जलन बर्दाश्त से बाहर है, दस मिनिट तो क्या वह एक पल भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता। डॉक्टर ने अचानक ही पूछा कि वह जो समस्या लेकर आया था, उसका क्या हाल है। मरीज झुंझलाकर बोला कि वह समस्या तो गई भाड़ में, डॉक्टर पहले उसे बाम की जलन की इस नई झंझट से मुक्त कराए। डॉक्टर ने दूसरा लेप देकर उसे कष्ट मुक्त किया। वह सन्तुष्ट और प्रसन्न हो चला गया। मुझे बात समझ नहीं आई। डॉक्टर ने कहा कि उसने रोगी की मौजूदा परेशानी से बड़ी परेशानी पैदा कर दी। रोगी अपनी सारी परेशानियाँ भूल गया और इस नई परेशानी से मुक्ति की कामना करने लगा। अपनी बात स्पष्ट करते हुए डॉक्टर मित्र ने कहा-‘‘मोदीजी बहुत समझदार डॉक्टर हैं। लोग नोटबन्दी में ऐसे व्यस्त हो गए हैं कि अपनी और देश की बाकी सारी समस्याएँ भूल गए हैं। देश के चर्चित सारे मुद्दे भूलकर अब उनकी एक ही चिन्ता है कि सुबह जल्दी से जल्दी बैंक की लाइन में लगें, उनका नम्बर जल्दी आए और वे दो-चार हजार रुपये प्राप्त कर सकें। रुपये मिलने की खुशी के साथ ही साथ वे अगले सप्ताह फिर लाइन में लगने की योजना और चिन्ता में व्यस्त हो जाते हैं। मैंने यही ‘मोदीपैथी’ अपनाई। किया कुछ नहीं और मरीज खुश। मेरी फीस भी वसूल।‘‘

और यह आज सुबह की बात है। एक वामपंथी मित्र मिल गए। भुनभुनाते हुए मोदी माला जप रहे थे। बोले-‘पूरा देश परेशान है। समूचा सर्वहारा वर्ग दाने-दाने को तरस गया है। काम पर जाने के लिए रोटी चाहिए और रोटी के लिए काम। लेकिन रोटी और काम-धाम छोड़ कर, भूखा-प्यासा बैंकों के सामने लाइन में खड़ा है। मध्यम वर्ग अपना ही पैसा पाने के लिए भिखारी बन गया है। ताज्जुब यह कि फिर भी नाराज नहीं है। छù देशभक्ति के नशे में मद-मस्त हैं। मार्क्स आज होते तो खुद की बात को अधूरा अनुभव करते और कहते कि धर्म के साथ-साथ देशभक्ति भी अफीम के नशे की तरह होती है।’

लोगों को बाम लगा दी गई है या देशभक्ति की अफीम पिला दी गई है? पता नहीं सच क्या है। लेकिन मैं ‘जेबी’ की बातों से दहशतमन्द हूँ और ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि ‘जेबी’ की कोई बात सच न हो। छप्पन वर्षीय, इजीनीयरिंग स्नातक ‘जेबी’ मुझ पर अति कृपालु रहा है। उद्यमी भी है और व्यापारी भी। व्यापार ऐसा कि न चाहे तो भी सौ-दो सौ लोगों से रोज मिलना ही पड़ता है।  अर्थशास्त्र और मौद्रिक नीति भले ही न जानता हो लेकिन बाजार की और लोगों के व्यवहार की समझ उसके खून में है। सिद्धान्त और व्यवहार में समन्वय बैठाने में माहिर। कुछ लोग नोटबन्दी से उपजी परेशानियों का रोना रोने लगे तो बोला-‘अब तक जो भोगा-भुगता उसे भूलो और अगले सप्ताह की तैयारी करो। अगला सप्ताह और अधिक भयावह होगा।’ मित्रों की कृपा के कारण नोटबन्दी के कष्ट मुझे शून्यवत ही भुगतने पड़े। दो बार बैंकों की कतार में खड़ा हुआ जरूर लेकिन अनुभव प्राप्त करने के लिए। अनुभव सुखद नहीं रहे। सो, ‘जेबी’ की बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए और दिल अधिक तेजी से धड़कने लगा। ‘जेबी’ के मुताबिक अगले सप्ताह लोगों के हाथों में पैसा होने के बावजूद चिल्ला-चोट मचेगी। पहली तारीख को लोगों को वेतन मिलेगा। वेतन खाते में जमा हो या नगद मिले, मिलेंगे दो-दो हजार के नोट ही। खुद सरकार के मुताबिक, चलन में हजार-पाँच सौ के नोट 86 प्रतिशत थे। याने, सौ, पचास, बीस, दस पाँच और दो रुपये के सारे नोट मिला कर कुल 14 प्रतिशत बाजार में उपलब्ध हैं। बन्द किए गए बड़े नोटों के बराबर नोट बाजार में आए नहीं। छोटे नोटों की उपलब्धता 14 प्रतिशत ही है। यहाँ अर्थशास्त्र का जगजाहिर, ‘माँग और पूर्ति’ का सिद्धान्त लागू होगा। रिजर्व बैंक खुद कह रहा है कि नए नोट समुचित मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। सरकार संसद में कुछ भी कहे लेकिन बाहर सरकार के मन्त्री सार्वजनिक रूप से कबूल कर रहे हैं कि नोटों की कमी है। ऐसे में छोटे नोटों की माँग एकदम बढ़ेगी। लोग अपनी पत्नी के हाथ में वेतन देते हैं और पिछले महीने की छोटी-छोटी उधारियाँ चुकाते हैं। घर-गृहस्थी का रोज का खर्च छोटी-छोटी रकमों में होता है। लेकिन बाजार में 100 के नोट के बाद सीधे 2000 का नोट है। पाँच सौ के नए नोट सरकार ने बाजार में उतारे जरूर हैं लेकिन वे न तो पूरे देश में एक साथ उपलब्ध हैं न ही उनकी संख्या पर्याप्त है। ऐसे में सौ के नोट की माँग एकदम बढ़ेगी और उसकी काला बाजारी शुरु हो जाएगी। नोटबन्दी के पहले दौर में लोग रुपये न मिलने के कारण रोटी हासिल नहीं कर पा रहे थे। लेकिन इस दूसरेे दौर में हो सकता है कि हम, हाथ में रुपये होते हुए लोगों को रोटी के लिए तरसते हुए देखें। 

‘जेबी’ के मुताबिक, निजी क्षेत्र के कर्मचारियों, मजदूरों में से अधिकांश के बैंक खाते नहीं हैं। उन्हें नगद भुगतान होता है। यदि बैंक खातों की बाध्यता हुई तो ऐसे तमाम लोग ‘सम्पन्न भिखारी’ की दशा में आ जाएँगे। ऐसे लोगों के खाते तत्काल ही खोलना आसान नहीं है। बैंक कर्मचारी पहले ही काम के बोझ से दबे हुए हैं। छोटे नोटों की कमी से उपजी इस नई स्थिति में उनकी और अधिक दुर्दशा होना तय है। ऐसे में नए खाते खोलने का काम उनके लिए ‘कोढ़ में खाज’ जैसा होगा। इन नए खातों के लिए छोटे नोट उपलब्ध कराना याने एक और मुश्किल। ‘जेबी’ ताज्जुब करता है कि एक छोटे व्यापारी को नंगी आँखों नजर आ रही इन सारी बातों का पूर्वानुमान सरकार क्यों नहीं कर पाई? ‘जेबी’ इस बात पर भी चकित है कि सरकार को दो हजार के बजाय दो सौ रुपयों का नोट निकालने का विचार क्यों नहीं आया। सरकार यदि दो सौ रुपयों का नोट निकाल देती तो इस अनुमानित संकट की भयावहता दस प्रतिशत ही रह जाती। 
‘जेबी’ की बातें सुन-सुन कर मेरा दिल बैठा जा रहा है। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी कभी नहीं रहा। रुपये-पैसों की समझ अब तक भी नहीं हो पाई है। उत्तमार्द्ध का कुशल प्रबन्धन और मित्रों के अतिशय-कृपापूर्ण और चिन्तापूर्ण सहयोग के कारण मुझे आटे-दाल का भाव कभी-कभीर ही मालूम हो पाता है। लेकिन बैंकों के सामने कतारों में खड़े आकुल-व्याकुल लोग नजर आते हैं, उनके पीड़ाभरे अनुभव व्यथित करते हैं। बाजार की स्थिति यह कि मेरे व्यापारी बीमा ग्राहक भी पुराने बीमों की किश्तें जमा नहीं कर पा रहे हैं। सत्तर से अधिक मौतें चित्त से ओझल नहीं होती। ये और ऐसी तमाम बातें उदास और निराश करती हैं।

उलझन में हूँ। यही सोचकर सन्तुष्ट होने की कोशिश कर रहा हूँ कि पूरे देश की प्रबल अपेक्षा-आकांक्षा बनी हुई नोटबन्दी को हम ‘सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान’ समझ कर सहयोग करें। 
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नोटबन्दी बनाम सत्यनारायण कथा

दुनिया इस अद्भुुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय दृष्य को आँखें मसल-मसल कर देख रही होगी। ऐसी प्रचण्ड जन सद्भावना दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी नेता को मिली होगी। विरोधियों की बोलती बन्द है। उनकी वाजिब बात भी सुनने को कोई तैयार नहीं। दुनिया भर के राष्ट्र/शासन प्रमुख भारतीय प्रधान मन्त्री से ईर्ष्या कर रहे होंगे। भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति पाने को छटपटा रहे भारतीयों ने नोटबन्दी के समर्थन में जो भावना दर्शाई, वह दुनिया में बिरली ही होगी। लोग जान पर खेलकर जिस तरह इसके समर्थन में डटे हुए हैं वह सब अनूठा और अवर्णनीय ही है।

रतलाम जिले के ताल कस्बे के मिस्त्री बाबूलाल प्रजापत के इकलौते बेटे, चौबीस वर्षीय संजय ने मंगलवार, 15 नवम्बर को दम तोड़ दिया। पत्नी कमलाबाई दो बरस पहले साथ छोड़ गई। दो बेटियाँ अपने ससुराल में हैं। घर पर पिता-पुत्र ही एक-दूसरे के संगी-साथी। संजय ही अपने बूढ़े बाप को रोटी पका कर देता था। नोट बन्दी ने बाबूलाल को भूखों मरने की कगार पर खड़ा कर दिया। घर में तीन दिनों से आटा, शकर और चाय पत्ती भी नहीं थी। संजय तीन दिनों से पड़ौस से चाय-शकर माँग कर ला रहा था और बाबूलाल अपने नियोक्ता से आटा। अम्बे माता मन्दिर में हुए अन्नकूट में सोमवार शाम को दोनों बाप-बेटों ने भूख मिटाई। लेकिन मंगलवार से घर पूरी तरह रीत गया। राशन दुकान से राशन नहीं मिला और मीठा तेल भी नहीं बचा। बाबूलाल के पास चार हजार रुपये थे तो सही किन्तु सब बड़े नोटों की शकल में जिन्हें लेने को कोई तैयार नहीं। सोमवार सुबह संजय अपनी सायकिल बेचने निकला लेकिन किसी के पास खुल्ले रुपये नहीं थे। घर में कनस्तर में आटा नहीं और जेब में धेला नहीं। मंगलवार सुबह से दोनों बाप-बेटे के पेट में न तो अन्न का दाना पड़ा न ही चाय की बूँद। नोट बदलवाने के लिए बैंक के सामने लाइन में लगे। नम्बर आने ही वाला था कि मालूम हुआ - मूल आधार कार्ड माँगा जाएगा। आधार कार्ड लेने के लिए संजय घर गया। लेकिन लौट नहीं पाया। अचानक ही उसकी तबीयत बिगड़ी और उसकी साँसों ने साथ छोड़ दिया। डॉक्टर ने मौत की वजह हृदयाघात बताई और कहा कि संजय भूखा था। 

बाबूलाल के आँसू नहीं थम रहे। ‘अब कौन रोटी बना कर देगा?’ लेकिन इस सबके बावजूद उसे नोट बन्दी से कोई शिकायत नहीं है।

यह अकेला किस्सा नहीं है। नोट बन्दी लागू हुए आज सातवाँ दिन है। अखबार देश में कम से कम बीस मौतों की खबरें दे चुके हैं। लेकिन एक भी मौत के कारण कहीं से भी आक्रोश और उत्पात की खबर नहीं है। बैंकों और पोस्ट आफिसों के सामने लगी, ‘हनुमान की पूँछ’ से प्रतियोगिता कर रही कतारें, टीवी के पर्दों से बाहर, हमारे कमरों में उतरती लग रही हैं। अगली सुबह जल्दी नम्बर लग जाने की कोशिश में लोग रात नौ बजे से बैंकों के सामने, खुले आसमान के नीचे अगहन की ठण्ड झेल रहे हैं। धक्के खा रहे हैं, झिड़कियाँ झेल रहे हैं। अपना ही पैसा हासिल करने के लिए मानो भिखारी बन गए हैं। बैंक कर्मचारी खाना-पीना भूल गए हैं। सर उठाने की फुरसत नहीं मिल रही। कब सुबह होती है, कब शाम, जान ही नहीं पा रहे। महिला कर्मचारियों की गृहस्थियाँ अस्त-व्यस्त-त्रस्त हो गई हैं। कर्मचारियों और ग्राहकों को भले ही परस्पर शिकायत हो किन्तु सबके सब सरकार के फैसले के साथ हैं। किन्तु जैसे ही व्यवस्थाओं की बात आती है, कोई भी सन्तुष्ट, सुखी और प्रसन्न नहीं मिलता-ने देनेवाला, न लेनेवाला। जाहिर है, यह ‘बरसों से प्रतीक्षित फैसले का निकृष्ट, हताशाजनक क्रियान्वयन’ है। कुछ ऐसा मानो रात को सुल्तान को सनक आई और सुबह, आगा-पीछा सोचे बिना फैसला लागू कर दिया। उस पर तुर्रा यह कि जिस काले धन से मुक्ति पाने के लिए यह सब किया गया, उसके निर्मूल होने की सम्भावना तो दूर, आशंका भी नहीं। भ्रष्टाचार दूर होने की बात तो छठवें दिन ही चुटकुला बन गई जब कोल्हापुर और भोपाल में सरकारी कर्मचारी नए नोटों से रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़े गए। 

नेताओं ने सदैव की तरह निराश किया। विरोधियों को यह सरकार के खिलाफ मानो अमोघ अस्त्र मिल गया हो। उनके असंगत वक्तव्यों ने उन्हें हास्यास्पद बनाया तो सत्ता पक्ष के नेताओं के, वास्तविकताओं को नकारनेवाले, अमानवीय, क्रूर वक्तव्यों ने जुगुप्सा पैदा की। सामान्य से सहस्त्रगुना अधिक बुद्धियुक्त ये नेता विवेकमुक्त और विनयहीन हो, बैंकों के सामने कतार में हुई मौतों को राशन की दुकान के आगे हुई मौतों के समान इस तरह बता बैठे मानो राशन की दुकान के सामने मरना किसी भी सरकार के लिए अर्थहीन हो।

देश भक्ति में पगे दिहाड़ी मजूदरों, झुग्गी-झोंपड़ी निवासियों, मनरेगा और बीपीएल कार्डधारियों, निम्न मध्यमवर्गियों, मझौले व्यापारियों और कतारों में खड़े ऐसे ही तमाम लोगों को एक कसक साल रही है। जिन धन-पशुओं, कालाबाजारियों, जमाखोरों, दो नम्बरियों, भ्रष्ट अफसरों-नेताओं के कारण सरकार को यह कदम उठाना पड़ा उनमें से कोई भी कतार में कहीं नजर नहीं आया। वे सब अपनी अट्टालिकाओं और प्रासादों में भोेग-विलास में पूर्ववत मद-मस्त हैं। गोया, डाकुओं के दुर्दम्य अपराधों का दण्ड फकीरों को दे दिया गया, सरकार के प्रति जन सöावनाओं की अवमानना, उपहास कर दिया गया। 

समूचा परिदृष्य ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता’ जैसी अनुभूति दे रहा है। ऐसे में मालवा की यह लोक परिहास कथा मानो गूँगे की बात कह रही हो।

उस बरस मौसम ने साथ दिया। बरसात समय पर हुई, अच्छी हुई। फसल भरपूर हुई। किसान की पत्नी ने पति से कहा - ‘इस साल रामजी राजी रहे। जितना माँगा, उससे ज्यादा दिया। दुःख में तो उन्हें याद करते ही हैं। इस बार सुख में याद कर लें। खेत पर सत्यनारायण-कथा करा लें।’ किसान मान गया। एक पण्डितजी से बात करके तिथि-तारीख, समय तय कर लिया। होनी कुछ ऐसी हुई कि ऐन वक्त पर पण्डितजी नहीं आ पाए। उन्होंने बेटे को भेज दिया। बेटा ठीक वक्त पर बखेत पर पहुँचा। लेकिन बेटा ‘प्रशिक्षु’ था। उसने किसान और उसकी पत्नी को बैठाया। गठजोड़ा बाँध, पूजन शुरु कर श्री सत्यनारायण कथा वाचन शुरु किया। कथा समाप्ति पर आरती कराई, प्रसाद बँटवाया। किसान दम्पति ने चरण स्पर्श कर यथा शक्ति दक्षिणा भेंट की। ब्राह्मण पुत्र ने पूजन में चढ़ाई सामग्री, फल समेटे, पोटली बाँधी, आशीर्वाद दिए और विदा ली। वह पाँच कदम ही चला होगा कि अचानक किसान पत्नी को कुछ याद आया। विचारमग्न मुद्रा में पति से बोली - ‘क्यों हो! अपनी कथा में वो लीलवाती-कलावती तो आई ही नहीं!’ किसान को भी याद आया - ‘हाँ। वो दोनों तो नहीं आई।’ पति-पत्नी की बात ब्राह्मण पुत्र ने भी सुनी। सुनते ही भान हुआ कि वह पूरे के पूरे दो अध्याय भूल गया! लेकिन भूल गया तो भूल गया। अब फिर से कथा बाँचने से तो रहा! और अपनी चूक मान लेना याने अपने पाण्डित्य को खुद ही अधूरा कबूल कर लेना! वह तनिक ठिठका। कुछ सोचा। पलट कर पूरे आत्म विश्वास से, दोनों को सम्बोधित कर बोला - ‘अरे मेरे भोले जजमानों! वो दोनों सेठ-साहूकारों की लुगाइयाँ। सेठानियाँ। वो हवेलियों में रहनेवाली! वो यहाँ जंगल में, तुम्हारे खेत में कैसे आ सकती हैं? वो तो हवेलियों में ही रहेंगी ना?’ किसान दम्पति को अपनी नासमझी समझ में आ गई। ब्राह्मण पुत्र से सहमति जताई। अपनी नासमझी पर खेद जताया, दोनों हाथ जोड़, ब्राह्मण पुत्र को, आदरपूर्वक विदा किया। 

बैंकों के सामने पंक्तिबद्ध खड़े, देश के गरीब-गुरबे, मध्यमवर्गीय, मानो किसान दम्पति की तरह अपने खेतों में सत्यनारायण भगवान की कथा आयोजन की तर्ज पर देश भक्ति के यज्ञ में आहुतियाँ दे स्वयम् को धन्यन अनुभव कर रहे हैं। ब्राह्मण-पुत्र आधी-अधूरी कथा बाँच कर पूरी दक्षिणा जेब में डाल, पूजन सामग्री और फलों की पोटलियाँ बाँध रहा है और आराम कर-कर थकान से चकनाचूर लीलावतियाँ-कलवतियाँ हवेलियों में पाँचों पकवान चख-चख कर हलकान हुई जा रही हैं।  
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, में दिनांक 17/11/2016 को प्रकाशित)

फुनगियों की छँटाई

पाँच सौ और एक हजार रुपयों के नोटों को एक झटके से चलन से बाहर कर देने के बाद देश में छाए अतिरेकी उत्साह के तुमुलनाद से भरे इस समय में एक सुनी-सुनाई, घिसी पिटी कहानी सुनिए।
मन्दिर की पवित्रता और स्वच्छता बनाए रखने के लिए तय किया किया कि भक्तगण जूते पहन कर मन्दिर प्रवेश न करें। सबने निर्णय को सामयिक, अपरिहार्य बताया और सराहा किन्तु प्रवेश पूर्व जूते उतारना बन्द नहीं किया। प्रबन्धन ने एक आदमी तैनात कर दिया - ‘किसी को भी जूते पहन कर अन्दर मत जाने देना। जूते बाहर ही उतरवा देना।’ अब भक्तगण जूते बाहर ही उतारने लगे। एक भक्त ने अतिरिक्त सावधानी बरती। वह घर से ही नंगे पैर आया। लेकिन प्रबन्धन द्वारा तैनात आदमी ने उसे मन्दिर प्रवेश से रोक दिया। कहा - ‘घर जाइए, जूते पहन कर आइए, मन्दिर के बाहर जूते उतारिए। फिर मन्दिर प्रवेश कीजिए। यहाँ का कायदा है कि बिना जूते उतारे आप मन्दिर प्रवेश नहीं कर सकते।’
हमारी, भारतीय व्यवस्था लगभग ऐसी ही है। काम करने के लिए प्रक्रिया बनाई जाती है किन्तु काम हो न हो,  प्रक्रिया पूरी करना ही मुख्य काम हो जाता है। उत्कृष्ट निर्णयों/नीतियों का निकृष्ट क्रियान्वयन हमारी व्यवस्था की विशेषता भी है और विशेषज्ञता भी। वह खुद को और खुद के महत्व को बनाए रखने के लिए और बढ़ाते रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। जन्नत की इसी हकीकत से भयग्रस्त होे, अपने सम्पूर्ण आशावाद के बावजूद मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।
देश में कौन ऐसा है जो भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति नहीं चाहता? जिसके पास है, उसे नींद नहीं आती और जिसके पास नहीं है उसे वे लोग सोने नहीं दे रहे जिनके पास काला धन है। गोया, सारा देश भ्रष्टाचार और काले धन का रतजगा कर रहा है। अखण्ड कीर्तन जारी है। लेकिन, जैसा कि बार-बार कहा जाता है, हम एक भ्रष्ट समाज हैं। हममें से प्रत्येक चाहता है कि उसे सारे अवसर मिलते रहें और बाकी सब ईमानदार, राजा हरिश्चन्द्र बन जाएँ। लेकिन जब सबके सब ऐसा ही सोचते और करते हों तो जाहिर है, कोई भी ईमानदार और राजा हरिश्चन्द्र नहीं बन पाता। तब हम अपवादों को तलाश कर उनकी पूजा शुरु कर देते हैं और उसे प्रतीक बना देते हैं। तब प्रतीक की पूजा करते हुए दिखना ही हरिश्चन्द्र होना हो जाता है। तब हरिश्चन्द्र होने के बजाय हरिश्चन्द्र दिखना ही पर्याप्त हो जाता है। हमें यही अनुकूल और सुविधाजनक लगता है। सो, हम सब हरिश्चन्द्र दिखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। यह अलग बात है कि अपनी यह हकीकत हम ही से छुपी नहीं रह पाती। लेकिन खुद की खिल्ली उड़ाने का साहस तो हम में है नहीं! सो हम सामनेवाले के हरिश्चन्द्र के ढोंग की खिल्ली उड़ा कर खुश हो लेते हैं। जानते हैं कि इस तरह परोक्षतः हमने अपनी ही खिल्ली उड़ाने का महान् काम कर लिया है। मैं भी इसी हमाम में शरीक हूँ इसलिए, जैसा कि कह चुका हूँ, अपने सम्पूर्ण आशावाद के बाद भी प्रधान मन्त्री के इस चौंकानेवाले क्रान्तिकारी कदम से खुश नहीं हो पा रहा हूँ।
भ्रष्टाचार और काला धन एक सिक्के के दो पहलू तो हैं ही, वे दूसरे की जरूरत भी हैं और पूरक हैं। यह भी कह सकते हैं कि दोनों ही एक दूसरे के जनक भी हैं। दोनों ही एक दूसरे के बाप हैं। लेकिन यदि सयानों की बात मानें तो इनकी गंगोत्री आपके-हमारे नगरों-कस्बों, गली-मोहल्लों में नहीं, राजनीति, उद्योगों, कार्पोरेट घरानों, अफसरों के शिखरों में है। लेकिन यह धारणा भी मुझे सौ टका सही नहीं लगती। मेरी धारणा में तो हमारे मँहगे चुनाव, भ्रष्टाचार और काले धन सहित हमारी सारी समस्याओं की जड़ है। हमारा नेता चुनाव लड़ने के लिए धन जुटाता है। पार्टी कार्यकर्ता और आम आदमी से चुनाव खर्च की रकम नहीं मिल पाती। वह धनपतियों से मदद लेता है। चुनाव जीत गया तो वह क्रमशः अपना खर्चा निकालता है, फिर उपकारों का भुगतान करता है और अगले चुनावों के लिए रोकड़ा इकट्ठा करना शुरु कर देता है। यह ऐसा चक्र है जिसमें आखिरी बिन्दु नहीं होता है। हर बिन्दु पहला बिन्दु होता है और प्रत्येक बिन्दु, अपने पासवाले दूसरे बिन्दु का मददगार होता है। तब ये सब एक दूसरे की अनिवार्य आवश्यता बन जाते हैं। शायद इसी को क्रोनी केपिटलिजम कहा जाता होगा - ‘तुम मुझे जिताओ। मैं जीत कर तुम्हारे काम-धन्धे के लिए अनुकूल नीतियाँ बनाऊँगा, अनुकूल निर्णय लूँगा, अनुकूल स्थितियाँ-वातावरण बनाऊँगा। तुम खूब कमाना, मैं भी अपना घर भरूँगा, खूब ऐश करूँगा।’ 
इसीलिए मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ। चाहकर, कोशिश करने के बाद भी नहीं हो पा रहा। सारे देश को बिजली के करण्ट की तरह झकझोर देनेवाला यह निर्णय मुझे काले धन और भ्रष्टाचार की जड़ों पर नहीं, फुनगियों पर प्रहार लग रहा है। जड़ों में मट्ठा डालने के बजाय फुनगियों की छँटाई की जा रही है। हाँ, एक बात जरूर मुझे होती नजर आ रही है। देश को नकली नोटों से एक झटके में मुक्ति मिल जाएगी। किन्तु भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति मुझे नजर नहीं आ रही। इन दोनों रोगों की बढ़त पर एक अस्थायी स्थगन जरूर होगा। इससे अधिक कुछ होता मुझे नजर नहीं आ रहा। हम सब जानते (और मानते) हैं कि बड़े खिलाड़ियों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उन्हें कभी, कोई फर्क पड़ता भी नहीं। उनके यहाँ तो सब कुछ राजी-खुशी और लक्ष्मीजी सदा प्रसन्न वाली स्थिति स्थायी रूप से बनी रहती है। जो भी फर्क पड़ेगा, मध्यमवर्गीय गृहस्थों, मझौले कारोबारियों, प्रतिकूल परिस्थितियों में छुट-पुट उठापटक कर अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने में जुटे उत्साही कुटीर उद्यमियों जैसों को पड़ेगा। उन्हें  बैंकों, पोस्ट ऑफिसों में कतारों में खड़े रह कर अपना मूल्यवान समय नष्ट करना पड़ेगा। पूरी योजना के क्रियान्वयन की विस्तृत जानकारी भले ही प्रधानमन्त्रीजी ने खुद दी हो किन्तु हमारे व्यवस्था तन्त्र की विशेषज्ञता के स्थापित आचरण से मुझे भय है कि सरकार ऐसे लोगों की सद्भावनाएँ न खो दे।
मैं आर्थिक विषयों का जानकार बिलकुल ही नहीं हूँ और एक औसत भारतीय की तरह देश को काले धन और भ्रष्टाचार से मुक्त देखना चाहता हूँ। मुझे प्रधानमन्त्रीजी की नियत पर तनिक भी सन्देह नहीं है। काला धन उनका प्रिय विषय रहा है। इस मुद्दे पर मैं उन्हें सर्वाधिक सफल प्रधान मन्त्री के रूप में देखना चाहता हूँ। किन्तु यथेष्ठ आश्वस्त नहीं हो पा रहा। क्योंकि प्रधानमन्त्रीजी का यह फैसला मुझे न तो क्रान्तिकारी लग रहा है न यथेष्ठ परिणामदायी। मँहगे चुनाव इस देश की सबसे बड़ी समस्या हैं। केवल समस्या नहीं, देश की तमाम समस्याओं की खदान हैं। चुनाव सुधारों के बिना हम कभी, कुछ नहीं कर पाएँगे। किन्तु चुनाव सुधारों के लिए देश राजनीतिक दलों और राजनेताओं पर निर्भर है जिनमें हमारे प्रधानमन्त्रीजी भी शरीक हैं। अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी मारने की आत्म-घाती मूर्खता ये लोग भला क्यों करेंगे?
ऐसे में कामना ही की जा सकती है कि प्रधानमन्त्रीजी को अपने मनमाफिक परिणाम मिलें। ऐसा न हो तो निराशा कम से कम मिले। लोगों को इसके यथेष्ठ लाभ मिलें। बड़े नोटों के बदलाव के लिए कुछ ‘किन्तु-परन्तु’ के साथ 31 मार्च 2017 तक का समय लोगों को दिया गया है। एक औसत मध्यमवर्गीय आदमी के लिए यह पर्याप्त समय है। ईश्वर से प्रार्थना करें कि हमारी व्यवस्था अपने अहम् और महत्व-भाव से मुक्त होकर लोगों की मदद करे, उनकी सद्भावनाएँ अर्जित करे। नंगे पाँव आए भक्त को मन्दिर प्रवेश करने दे। सब कुछ वैसा ही हो जैसा बताया, कहा जा रहा है और जैसी लोगों ने अपेक्षा कर ली है।
लेकिन भूलें नहीं कि यह जड़ों पर प्रहार नहीं है, केवल फुनगियों की छँटाई है। यह याद रखेंगे तो निराश होने से बच जाएँगे।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल दिनांक 10 नवम्बर 2016

दीपावली पर तकनीक का दिशा-बोध

इस बरस की दीपावली अपने किसम की अलग ही दीपावली रही। तनिक अनूठी। तकनीक ने इसे अतिरिक्त रंगीन तो बनाया ही, रोचक भी बना दिया। कभी लगा, त्यौहार पर तकनीक भारी पड़ गई है तो कभी लगा, तकनीक ने त्यौहार को विस्तार, प्रगाढ़ता दे दी है। कभी झुंझलाहट दी तो कभी आसमान फाड़ ठहाकों की सौगात दे दी।
दादा से मिले संस्कारों और अपने धन्धे का शिष्टाचार निभाने के नाम पर मैं हर बरस दीपावली पर लगभग आठ सौ अभिनन्दन-पत्र भेजता था। गए दो बरसों से नहीं भेज रहा। कृपालुओं के जवाब आना तो दूर, प्राप्ति सूचना भी नहीं। दो ने तो तनिक झिझक से कह भी दिया - ‘मत भेजिए। अच्छा तो लगता है लेकिन अब  जवाब देते नहीं बनता। आदत ही नहीं रही।’ इन दो की बात को मैंने ‘जहान की बात’ मान ली। हालत यह रही कि चर्चा करना तो दूर, किसी ने न तो बुरा माना और न ही शिकायत की। सब कुछ सहज, सामान्य बना रहा। यह मुझे अब भी अत्यधिक असामान्य लग रहा है और मैं असहज हूँ।
किन्तु इस बरस तो लगा मानो सारी दुनिया को मेरी फिकर हो गई है। वाट्स एप ने दुनिया बदल दी। मेरी तबीयत खुश हो गई। चलो! लोगों में सम्वाद/सम्प्रेषण शुरु तो हुआ! लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं बनी रही। जल्दी ही दूर हो गई। एक ही सन्देश कई-कई महरबानों से मिला तो जन्नत की हकीकत उघड़ने लगी। लेकिन बात खुशी के दूर होने तक ही सीमित नहीं रही। यह तो अचरज, निराशा, झुंझलाहट में बदलने लगी। सब कुछ ‘कॉपी-पेस्ट’ का कमाल था। इस अनुभूति ने मुझे उदास कर दिया। आगे जो कुछ हुआ उसने तो मुझे उलझन में डाल दिया। 
अनेक कृपालुओं ने मुझे अपने जत्थों (ग्रुपों) में शामिल कर रखा है। इन जत्थों में जितनी अच्छाई है कम से कम उतनी ही खराबी भी है। आपको वह सब देखना, झेलना पड़ता है जो आपको बिलकुल नहीं सुहाता। मैं छटपटा कर बाहर होता हूँ तो कृपालु साधिकार वापस शामिल कर लेते हैं - ’वाह! आप कैसे जा सकते हैं?’ ऐसे ही किसी एक जत्थे में शामिल कृपालु ने मेरा धन्यवाद सन्देश अपने ऐसे जत्थे में अग्रेषित (फाारवर्ड) कर दिया जिसमें मैं नहीं हूँ। अगले ही पल एक के बाद एक तीन सन्देश मिले। भाषा सबकी अलग-अलग थी लेकिन मतलब एक ही था - ‘आपसे मेरा कोई परिचय ही नहीं। मैं तो आपको जानता ही नहीं। मैंने आपको बधाई सन्देश भेजा ही नहीं। धन्यवाद किस बात का?’ इन तीन में एक परिहासप्रिय निकला। लिखा - ‘आपने बिना बात के धन्यवाद दिया। अब तो अभिनन्दन और मंगल कामनाएँ बनती ही बनती हैं। स्वीकार कीजिए। लेकिन अब धन्यवाद मत दीजिएगा। वह तो आप पहले ही दे चुके।’
एक स्थिति ने मुझे अपनी ही नजरों में शर्मिन्दा किया। मुझे सन्देश भेजनेवाले तमाम कृपालुओं को मैं पहचान ही नहीं पाय। कुछ ही को पहचान पाया। मुझे उनके अभिनन्दन सन्देश भी बड़ी संख्या में मिले जो मेरी फोन बुक में नहीं है। प्रत्युत्तर में धन्यवाद देते हुए शुभ-कामनाओं सहित उनसे क्षमा-याचना की - ‘कृपया अन्यथा न लें। मैं आपको पहचान नहीं पाया।’ अनेक में से एक ने बहुत बढ़िया बात कह कर ढाढस बँधाया और हौसला बढ़ाया - ‘कोई बात नहीं सरजी! शुभ-कामनाएँ  जान-पहचान की मोहताज नहीं होतीं। चलिए! आज से पहचान कर लेते हैं।’ 
दादा से मिले संस्कारों के अधीन ही मैं प्रत्येक सन्देश का उत्तर देने की कोशिश तो करता ही हूँ, यह कोशिश भी करता हूँ कि प्रत्येक सन्देश सामनेवाले को केवल अपने लिए लगे। लेकिन शुभ-कामना सन्देशों की संख्या ने जहाँ एक ओर अभिभूत किया वहीं दूसरी ओर पसीना भी ला दिया। कितनी भी कंजूसी कर लूँ, सन्देशों की संख्या चार अंकों से कम नहीं कर पा रहा हूँ। इतने सारे महरबानों को व्यक्तिगत रूप से सन्देश देना! मेरे हाथ-पैर फूल गए। शुरु-शुरु में कुछ कोशिश की लेकिन जल्दी ही थक गया और ऊब आ गई। पहले तो सोचा, किसी को जवाब नहीं दिया जाए। लेकिन अगले ही क्षण संस्कारों ने धिक्कारना शुरु कर दिया। ‘कॉपी-पेस्ट’ का विचार मन में आया। बड़ा सहारा मिला और उत्साहपूर्वक जुट गया। लेकिन भूल गया कि नकल में भी अकल लगानी चाहिए और थोक में ऐसा काम करते समय तनिक सावधानी बरतनी चाहिए। जोश में होश नहीं खोना चाहिए। प्रत्युत्तर-यज्ञ में समिधाएँ देने का क्रम चल ही रहा था कि एक का सन्देश आया - ‘दादा! यह क्या? मैंने तो आपसे अपनी पॉलिसी की प्रीमीयम जमा कराने के बारे में पूछा था।’ मुझे ,खुद पर झेंप आई। मानो सन्निपात से सामान्यता में लौटा। फिर सावधानी बरती। जिन्हें पहचान पाया, उन्हें नामजद प्रत्युत्तर दिया। 
लेकिन इस सबके बीच मुझे जलजजी का सुनाया किस्सा याद आ गया। यह उन्होंने एक समारोह में सुनाया था। किसी समारोह में वे, मुख्य अतिथि थे। मंच पर, अपने पास बैठे सज्जन से जलजजी ने कहा - ‘आपकी शुभ-कामनाओं के लिए धन्यवाद। आपने याद किया। अच्छा लगा।’ सज्जन ने अत्यन्त शालीनता और विनम्रतापूर्वक, किन्तु कुछ कसमसाते हुए जलजजी के प्रति आदर व्यक्त किया। वे खुद को ज्यादा देर तक रोक नहीं आए और पूछा - ‘सर! बाय द वे, बताएँगे कि मैंने आपको किस बात की शुभ-कामनाएँ दी थीं?’ मुख्य अतिथि की शालीनता और गरिमा भी जलजी को हँसने से रोक नहीं पाई। हँसते-हँसते ही बोले - ‘आपने मुझे मेरे जन्म दिन की शुभ-कामनाओं का एसएमएस किया था।’ तनिक झेंपते हुए सज्जन ने ससंकोच स्वीकार किया - ‘सर! उस तारीख को एक से अधिक मिलनेवालों की जन्म तारीख रही होगी और मैंने एक ही सन्देश  सबको भेजा होगा। मुझे सच में याद नहीं कि मैंने आपको सन्देश भेजा था।’
यन्त्र और तकनीक की यदि अपनी विशेषताएँ हैं तो दुर्गुण भी कम नहीं। विशेषताएँ आकर्षित तो करती हैं किन्तु पता नहीं चल पाता कि हम उनके दुर्गुणों में कब बँध गए। गाँधीजी ने किसी को कोई काम बताया। वह शायद पहले से ही थका हुआ था। तनिक झुंझलाकर बोला - ‘बापू! मैं कोई मशीन थोड़े ही हूँ?’ गाँधीजी ने हँस कर उत्तर दिया - ‘सच कह रहे हो तुम। आदमी मशीन कैसे हो सकता है? आदमी तो मशीन बनाता है?’ क्या विचित्र स्थिति है कि मनुष्य ने मशीन बनाई और खुद ही उसका दास हो गया! तकनीक तो एक कदम और आगे बढ़ गई। आज हम मशीन के दास और तकनीक के व्यसनी होते नजर आ रहे हैं। 
मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठ कृति कहा जाता है। किन्तु ईश्वर अपनी कृति के अधीन नहीं है। कृति ही अपने निर्माता के अधीन हैं। लेकिन हम ईश्वर के इस सन्देश को या तो समझ नहीं पा रहे या समझना ही नहीं  चाह रहे। हमने अपने लिए मशीन बनाई, अपने लिए तकनीक विकसित की और खुद को इनके हाथों में सौंप दिया। इण्टरनेट के जरिए हम सारी दुनिया से जुड़े हुए हैं लेकिन दुनिया की बात दूर रही, हम तो अपने-अपने घर में ही अकेले हो गए हैं। हो क्या गए हैं, हमने अपने आप को अकेला कर लिया है। हमने अपना-अपना एकान्त बुन लिया है। हमारे सामने रहनेवाले से हम रोज वाट्स एप पर ‘गुड मार्निंग’ करते हैं लेकिन सामने मिलने पर मुस्कुराकर भी नहीं देखते। मजे की बात यह कि अपनी इस दशा के लिए हम अपने सिवाय बाकी सब को जिम्मेदार मानते हैं। 
सो, इस बरस की दीपावली मुझे यही अतिरिक्त रंगीनी, अतिरिक्त उजास दे गई -  यन्त्र और तकनीक मेरे लिए है। मैं इनके लिए नहीं। 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 03 नवम्बर 2016 को प्रकाशित।)

अपने-अपने रुह अफजा

देवेन्द्र दीपावली मिलने आया तो शिकायत की - ‘आपका ब्लॉग ध्यान ये देख रहा हूँ। महीनों बीत गए, आपने मेरावाला लेख नहीं छापा।’ मैं तो भूल ही गया था। देवेन्द्र ने याद दिलाया तो याद आया। मैंने सस्मित कहा-‘लेकिन उसमें तो तुम्हारा मजाक उड़ाया गया है!’ देवेन्द्र ने संजीदा होकर जवाब दिया-‘अव्वल तो मेरा मजाक नहीं है। लेकिन अगर है भी तो बात आपने सही कही थी। उस बात ने मेरी नजर और नजरिया बदल दिया। उसे जरूर छापिए। और भी लोगों पर असर होगा। जरूर होगा।’

देवेन्द्र मेरा हमपेशा है। बीमा एजेण्ट। जन्मना ब्राह्मण तो है ही ‘ब्राह्मण-गर्व’ और ‘ब्राह्मणत्व’ के श्रेष्ठता-बोध का स्वामी भी है। ब्राह्मण संघ की गतिविधियों में अतिरिक्त उत्साह और ऊर्जा से, बढ़-चढ़कर भाग लेता है। ‘दुराग्रह’ की सीमा तक हिन्दुत्व का समर्थक होने के बावजूद, सम्भवतः स्कूल-कॉलेज के दिनों के  ‘शब्द-सम्पर्क’ का प्रभाव अब तक बना होने के कारण ‘कट्टर’ या ‘अन्ध’ नहीं है। कभी-कभार मेरे घर चला आता है तो कभी फोन कर मुझे बुला लेता है। कहता है-‘आपसे मिलना, बतियाना  अच्छा लगता है।’

अभी-अभी उसके साथ जोरदार और मजेदार वाकया हो गया। लेकिन वह वाकया सुनने से पहले यह वाकया जानना-सुनना जरूरी है।

मुझसे मिलने के लिए बाहर से आए दो कृपालुओं को मुझ तक पहुँचाने के लिए वह, वैशाख की चिलचिलाती गर्मी की एक दोपहर मेरे घर आया था। उन्हें बैठाकर, ठण्डा पानी पेश कर पूछा - ‘क्या लेंगे? चाय या शरबत?’ जवाब आया - ‘इस गर्मी में चाय तो रहने ही दें। शरबत पिला दीजिए।’ पर्दे के पीछे खड़ी मेरी उत्तमार्द्ध ने यह सम्वाद सुन ही लिया था। सो, आवाज लगाने या कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। थोड़ी ही देर में, शरबत के चार गिलास वाली ट्रे थमा गई। ग्लास देखकर देवेन्द्र ने मुँह बिगाड़ा। मानो मुँह में कड़वाहट घुल गई हो कुछ इस तरह बोला - ‘ये तो रुह अफजा है!’ मैंने कहा - ’हाँ। यह रुुह अफजा ही है।’ क्षुब्ध स्वरों में, मानो हम सबको हड़का रहा हो कुछ इस तरह  देवेन्द्र बोला - ‘मैं रुुह अफजा नहीं पीता।’ कारण पूछने पर बोला - ‘रुह अफजा बनाने वाला अपनी कम्पनी में हिन्दुओं को नौकरी पर नहीं रखता। इसलिए।’ बिना किसी बहस-मुबाहसा, देवेन्द्र के लिए नींबू का शरबत आ गया।   

न तो मुझे पता था और न ही खुद देवेन्द्र को कि दो ही महीनों बाद, उसका यह तर्क उसकी बोलती बन्द कर देगा। हुआ यूँ कि सावन के महीने में ब्राह्मण संघ ने एक अकादमिक आयोजन का जिम्मा देवेन्द्र को दे दिया। उसने भी खुशी-खुशी, आगे बढ़कर जिम्मा ले लिया।  आयोजन चूँकि अकादमिक था सो उसने व्याख्यान के लिए, बड़े ही सहज भाव से मजहर बक्षीजी को न्यौता दे दिया। उद्भट विद्वान् बक्षीजी मेरे कस्बे के कुशल और प्रभावी वक्ता हैं। अपनी विद्वत्ता और वक्तृत्व के कारण दूर-दूर तक पहचाने और बुलाए जाते हैं। कभी-कभी तो उनके कारण मेरा कस्बा पहचाना जाता है। बक्षीजी ने बड़ी ही सहजता से न्यौता स्वीकार कर लिया। देवेन्द्र ने यह खबर देते हुए मुझे भी आयोजन का निमन्त्रण दिया। मेरा जाना तय था किन्तु ‘मेरे मन कुछ और है, कर्ता के मन कछु और’ वाली उक्ति चरितार्थ हो गई। मैं नहीं जा पाया।

आयोजन की जानकारी मुझे अखबारों से मिली। उम्मीद से अधिक उपस्थिति थी। आयोजकों को तो आनन्द आया ही, बक्षीजी भी परम प्रसन्न हुए। याने, अयोजन उम्मीद से अधिक कामयाब रहा। तीन-चार दिनों बाद देवेन्द्र से मिलना हुआ। वह बहुत खुश था। आशा से अधिक सफल आयोजन के लिए ब्राह्मण समाज ने उसे अतिरिक्त धन्यवाद दिया था। उसका रोम-रोम पुलकित-प्रसन्न था। उसने विस्तार से आयोजन की जानकारी दी। किन्तु ब्यौरों का समापान करते-करते तनिक खिन्न हो गया - ‘कैसे-कैसे लोग हैं सरजी! कुछ लोग केवल इसलिए नहीं आए कि हिन्दू आयोजन में मुसलमान वक्ता क्यों बुला लिया। यह भी कोई बात हुई सरजी? भला ज्ञान और विद्वत्ता का जाति-धर्म से क्या लेना-देना?’ उसकी बात सौ टका ठीक थी। मैं कुछ कहने ही वाला था कि अचानक ही, बिजली की तरह मेरे मानस में ‘रूह अफजा’ कौंध गया। मेरी हँसी चल गई। देवेन्द्र को अच्छा नहीं लगा। असहज हो बोला - ‘क्यों? मैंने तो कायदे की बात कही थी। आप हँसे क्यों? ऐसा क्या कह दिया मैंने?’ अब मैं खुल कर हँसा। बोला - ‘क्या गलत किया उन्होंने? जिस आधार पर तुम रुह अफजा को खारिज करते हो उसी आधार पर उन्होंने बक्षीजी को खारिज किया। यदि तुम अपनी जगह सही हो तो वे भी अपनी जगह सही हैं और यदि वे गलत हैं तो तुम भी गलत हो। यदि ज्ञान और विद्वत्ता की कोई जाति-धर्म नहीं होता है तो शरबत की भी कोई जाति-धर्म नहीं होता। वह भी अपनी मिठास और शीतलता से ही जाना-पहचाना जाता है। तुम भी तो उसे धर्म के आधार पर अस्वीकार किए बैठे हो!’

देवेन्द्र को इस उत्तर की कल्पना नहीं थी। होती भी कैसे? खुद मुझे ही कहाँ थी? दो ही महीनों पहले दिया गया उसका तर्क बूमरेंग बनकर उसे ही आहत कर चुका था। अपने ही तीर का शिकार हो चुका था वह। पैमाने न तो दोहरे होते हैं न ही किसी के सगे। देवेन्द्र कसमसाता, अनुत्तरित बैठा रह गया। मानो मुँह पर लकवा मार गया हो। सब कुछ अकस्मात्, अनायास हो  वातावरण को बोझिल और असहज कर चुका था। मैं रस्मी राम-राम कर उठ आया।

नहीं जानता कि देवेन्द्र ने इस घटना को कैसे लिया होगा। यह भी नहीं जानता कि वह रुह अफजा पीना शुरु करेगा या नहीं। लेकिन मैं अनायास ही इतना भर जान गया कि हम सब भी अपने-अपने रुह अफजा तय किए बैठेे हैं - खुद को भरपूर रंगीनी, अकूत मिठास और गहरी शीतलता से दूर किए।
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अंग्रेजी के सामने हिन्दी: रावण रथी विरथ रघुवीरा

हिन्दी को लेकर तार्किकता, तथ्यात्मकता, वास्तविकता, व्यवहारिकता और भाषा विज्ञान के आयामों को उजागर करते हुए और समेटते हुए, भाषाविद् डॉक्टर जयकुमार जलज का यह विचारोत्तेजक लेख तनिक बड़ा लग सकता है किन्तु एक साँस में पढ़े जाने का चुम्बकीय प्रभाव लिए हुए है। यह लेख अधिकाधिक प्रसारित किए जाने, यथोचित मंचों तक पहुँचाए जाने और क्रियान्वित किए जाने का अधिकारी है। इस पर अपनी राय तो प्रकट करें ही, इसे इसका यह अधिकार दिलाने में सहायक भी बनें।

अंग्रेजी के सामने हिन्दी: रावण रथी विरथ रघुवीरा

                   - डॉ. जयकुमार जलज

यह सच्चाई कितनी ही अपमानजनक और पीड़ादायक क्यों न हो पर अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि स्वतन्त्र भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। यही एक काम है जो हमने अंग्रेजों से कम समय में कर दिखाया। वे इसे 200 साल में नहीं कर सके। हमें 50 साल से भी कम समय लगा। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को नहीं बनाया था। महानगरों के बच्चे भी मातृभाषा में शिक्षा पाते थे। यूनेस्को की मान्यता है कि बच्चा एक अनजान माध्यम की अपेक्षा मातृभाषा के माध्यम से अधिक तेज गति से सीखता है। लेकिन हमारी नीति और सरकार गाँवों की प्राथमिक शालाओं में अंग्रेजी माध्यम लादने की तैयारी में है।

आजादी के बाद, देश में दो बड़ी समस्याओं, कश्मीर और राजभाषा को दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से हल किया जाना था। हमने सकुचाते हुए और डर से हल करना चाहा। पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबाइली हमला किया। हमले को नाकाम करती हमारी सेना पूरा कश्मीर खाली करवा पाती इसके पहले ही हमने संघर्ष विराम कर लिया। संविधान ने हिन्दी को राजभाषा घोषित तो 14 सितम्बर 1949 को कर दिया था, लेकिन प्रावधान करवाया गया कि यह घोषणा 15 साल बाद लागू होगी। तब तक हिन्दी सक्षम हो जाएगी। 1967 में फिर प्रावधान करवाया गया कि अंग्रेजी अनिश्चित काल तक बनी रहेगी। हिन्दी की सक्षमता कौन,  कब और कैसे नापेगा, इस बार मेें कुछ भी नहीं बताया गया। लीपापोती ने कश्मीर व राजभाषा दोनों समस्याओं को नासूर बना दिया। कश्मीर की समस्या सतह पर है। बाह्य है। दिखती है। राजभाषा की समस्या अन्दर की है। दिखती नहीं है। देश की 95 प्रतिशत से अधिक आबादी की मौलिक प्रतिभा अंग्रेजी के कारण ही दीन व गूँगी बनी रहने को अभिशप्त है। नासूर को चीरा लगाना पड़ता है, पर यह काम काँपते हाथों से न हुआ है और न होगा।

14 सितम्बर 1949 को जैसे ही संविधान में हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया गया देश की बहुत बड़ी आबादी जश्न में डूब गई। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रसन्न भाव से टिप्पणी की - ’हमने जो किया है, उससे ज्यादा अक्लमन्दी का फैसला हो ही नहीं सकता था।’ जश्न मनाते लोग यह समझ बैठे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है। राष्ट्रभाषा (नेशनल लैंग्वेज) और राजभाषा (ऑफिशियल लैंग्वेज) के अन्तर पर उनका ध्यान ही नहीं गया।

सम्विधान सभा ने जब यह प्रावधान किया कि अभी 15 साल तक अंग्रेजी ही राजभाषा यानी सरकारी कामकाज की भाषा बनी रहेगी ताकि हिन्दी को समर्थ होने का वक्त मिल जाए तब इसके निहितार्थ और फलितार्थ का अन्दाजा भी सदस्यों को नहीं हुआ। इसे उन्होंने  स्वीकार कर लिया। भाषा उपयोग से समर्थ बनती हैै। पैरों को भी चलाया न जाए तो वे कमजोर हो जाते हैं। वाहन भी चलाने से ही तो वाहन चलाना आता है। लम्बे समय तक उसे चलाएँगे नहीं तो हमारा, चलाने का सामर्थ्य भी कम होता जाएगा और वाहन को भी जंग लग जाएगी। सत्ता के सिंहासन पर बैठा दी गई अंग्रेजी जहाँ ताकतवर होती गई, वहीं हिन्दी को कमजोर होते जाना पड़ा। फिलवक्त, अंग्रेजी के सामने हिन्दी 'रावण रथी विरथ रघुवीरा' की तरह है।

अगर सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग तत्काल बन्द कर दिया जाता तो हिन्दी 10-15 साल तक जरूर लड़खड़ाती हुई चलती लेकिन फिर अपनी सहज, स्वतन्त्र और मौलिक चाल से चलने लगती। उसे अंग्रेजी का पिछलग्गू और अनुवाद की जड़ भाषा बन कर नहीं रहना पड़ता। वह अपने सधे और स्वाभाविक कदमों से चलते हुए एक प्रौढ़/परिपक्व राज भाषा के रूप मे प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेती। उसके पास सिर्फ कागजी प्रमाण-पत्र नहीं, राज भाषा होने का 65 साल का वास्तविक अनुभव होता।

1967 के राजभाषा कानून से तो अंग्रेजी के वास्तविक राजभाषा बनने पर मुहर लग गई। सिद्धान्त और संविधान में हिन्दी भारत की राजभाषा है पर उसकी चलती नहीं। चलती अंग्रेजी की है। जिसे संविधान की आठवीं अनुसूची में भारत की 22 भाषाओं में भी शामिल नहीं किया गया है उस अंग्रेजी में सरकार के मूल दस्तावेज जारी होते हैं। उन्हें प्रामाणिक होने की मान्यता प्राप्त है। उनके साथ उनके हिन्दी अनुवाद नत्थी रहते हैं पर उनकी मान्यता न होने से उन्हें कोई नहीं पढ़ता। हिन्दी अनुवाद लापरवाही और उपेक्षा के शिकार होते हैं। उन्हें बिना पढ़े फाइल कर दिया जाता है। अर्द्ध सरकारी और गैर सरकारी विभागों में भी यही होता है। टेलीफोेन की डायरेक्टरी, रेलवे की समय सारणी आदि पहले अंग्रेजी में आती है, बाद में उनका हिन्दी संस्करण आता है। हिन्दी संस्करण कब आएगा, इसका कोई निश्चय नहीं रहता। लोग अंग्रेजी संस्करण खरीद लेते हैं, बाद में आने वाले हिन्दी संस्करण के लिए भला कौन रुका रहेगा? सरकारी और गैर सरकारी निष्कर्ष निकाल लिया जाता है कि हिन्दी संस्करण की बिक्री नगण्य है।

आजादी के तुरन्त बाद प्रकाशकों को लगने लगा था कि अब तो भविष्य हिन्दी का है। अंग्रेजों ने भी छोटी कक्षाओं में पढ़ाई का माध्यम हिन्दी को ही रहने दिया था। इसलिए प्रकाशकों ने जोर-शोर से हिन्दी किताबें छापना शुरु किया। कुछ अच्छी किताबें बाजार में आने लगीं। ये सहज हिन्दी में थीं। समझ में आती थीं। लेकिन इस बीच सरकारों ने अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान विज्ञान को भले ही अच्छी नीयत से हो, हिन्दी में लाने की योजना बना डाली। राशि आवण्टित हुई। ग्रन्थ अकादमियों ने अनुवाद करवाना शुरु किया। जिन्हें अनुवाद का काम दिया गया, वे अपने विषय के विशेषज्ञ तो थे पर हिन्दी और अनुवाद का अभ्यास उन्हें नहीं था। इस क्षेत्र में उनकी गति प्रायः शून्य थी।

अनुवाद करवाने वाली संस्थाएँ समय सीमा में अनुवाद चाहती थीं। अनुवादकों में से कुछ ने पारिश्रमिक देते हुए या लिहाज में ही दूसरों से भी अनुवाद करवा लिया। यह भी हुआ कि एक किताब का अनुवाद करवाने में एक से अधिक व्यक्तियों को अलग-अलग पृष्ठ बाँट दिए गए। फिर जिसे जितने पृष्ठ मिले उसने भी उन्हें दूसरों में वितरित किया। इस तरह अनुवाद का काम ठेके पर हुआ। सरकारें/अकादमियाँ/संस्थाएँ भूल गईं कि ठेके पर नहरें तो बन सकती हैं, नदियाँ नहीं। यहाँ तो नहरें भी नहीं बन पाईं।

अनुवादों की भाषा-शैली में एकरूपता के अभाव की चर्चा और आलोचना हुई तो विषय विशेषज्ञों के साथ भाषा विशेषज्ञों को संयुक्त किया गया। भाषा विशेषज्ञों ने भी वही रास्ता अपनाया जो अनुवादकों ने अपनाया था। कहीं-कहीं यह नियम भी रहा कि अनुवाद पर अनुवादक और भाषा विशेषज्ञ का नाम नहीं दिया जाएगा। इससे उन्हें लापरवाही बरतने की पुुख्ता छूट मिल गई। जवाबदेही नहीं रही। अपयश का डर नहीं रहा। ऐसे अनुवादों से न विषय की सेवा हुई न हिन्दी की।

पिछले दिनों यूपीएससी के सी-सेट प्रश्न पत्र के विरोध की जड़ में उसका हिन्दी अनुवाद भी था। टेबलेट कम्प्यूटर और स्टील प्लाण्ट का अनुवाद अगर गोली कम्प्यूटर और स्टील पौधा होगा तो  समस्या तो आएगी ही। फिर भी कोई भाषा कठिन शब्दों या पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से उतनी कठिन नहीं होती जितनी गलत वाक्य रचना, परसर्गों के यथास्थान गैर प्रयोग, क्रियाओं के लापरवाह प्रयोग, स्रोत भाषा की प्रकृति को अनुवाद की भाषा पर हावी होने देने से होती है। इन तमाम कारणों ने अनुवाद की जिस हिन्दी को प्रस्तुत किया उससे दुर्भाग्य से यह धारणा बनी कि हिन्दी कठिन भाषा है, कि उसमें ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनने का माद्दा नहीं है।

हिन्दी का रथ रोकने के लिए आजादी के पहले से ही प्रयत्न होने लगे थे, एक दुखद लेकिन ताकतवर प्रयत्न यह हुआ कि संस्कृत और उर्दू को हिन्दी के बरअक्स खड़ा कर दिया गया। कहा गया कि संस्कृत समर्थ भाषा है। देश को जोड़ती है। देश की हर भाषा में बड़ी संख्या में उसके शब्द सम्मिलित हैं। वह हमारी संस्कृति की भाषा है। उसमें हर तरह का ज्ञान विज्ञान है। वह एक बड़ी आबादी के धर्म की भाषा भी है। उसमें कालिदास जैसे कवियों का साहित्य है। वह एक पुुरानी भाषा है। काश! संस्कृत की पैरवी करने वालों ने कालिदास के इस कथन पर ध्यान दिया होता कि ‘किसी वस्तु की अच्छाई उसके नए या पुराने होने पर निर्भर नहीं होती।’ भाषा का बोला जाने वाला रूप ही उसका मूल रूप होता है। वही उसे विकास यानी परिवर्तन की दिशा में आगे ले जाता है। लिखित रूप तो बोले जाने वाले रूप की नकल होता है। वह विकास नहीं करता बल्कि विकास का विरोधी भी होता है। संस्कृत जब बोली जाने वाली भाषा थी तब उसने भी विकास किया था। तब उसके विकास की गति बहुत तेज थी। लगभग 500 साल की अवधि में वह इतनी विकसित अथवा परवर्तित हुई कि उसके नए रूप को एक स्वतन्त्र भाषा प्राकृत नाम दिया गया। फिर प्राकृत को अपभ्रंश और अपभ्रंश को हिन्दी नाम दिया गया। यह परिवर्तन संस्कृत भाषा का क्रमिक विकास ही है। हिन्दी अपभ्रंश की बेटी, प्राकृत की पोती और संस्कृत की पड़पोती है। संस्कृत आदर की पात्र है पर विकास में वह पीछे छूट चुकी है।

भाषा का विकास कठिनता से सरलता की ओर होता है। वह जटिलता का केंचुल उतार कर उसे इतिहास के कूड़ेदान में फेंकती हुई आगे बढ़ती है। संस्कृत को अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए तीन लिंग, तीन वचन और आठ विभक्तियों का सहारा लेना पड़ता है। हिन्दी यह काम दो लिंग, दो वचन, और तीन विभक्तियों से कर लेती है।

आठ कारकों का भाव प्रकट करने के लिए संस्कृत को कुछ शब्दों के 72 रूपों तक का सहारा लेता पड़ता है। हिन्दी सिर्फ छह रूपों से आठों कारकों का भाव प्रकट कर लेती है। हिन्दी में तीन विभक्तियाँ है।  एकवचन और बहुवचन इन दोनों वचनों में उसके रूप हैं - लड़का लड़के, लड़के लड़कों, हे लड़के, हे लड़को। संस्कृत रूपों को रटने का बच्चों का डर अनुचित और अस्वभाविक नहीं है। हिन्दी में परसर्गों का प्रयोग इस समस्या को पैदा ही नहीं होने देता।

संस्कृत के विशेषणों को विशेष्य के लिंग और वचन का अनुसरण करना पड़ता है। हिन्दी के सिर्फ आकारान्त विशेषणों में ऐसा होता है। संस्कृत कृदन्तों से विकसित होने के कारण हिन्दी क्रियाओं में कर्ता के अनुसार लिंग परिवर्तन की समस्या जरूर है पर अब उसे इससे भी निजात मिलने को है। लड़कियों की बातचीत में इसके संकेत एकदम साफ हैं - 'दीदी, कल आप कॉलेज नहीं चले। आज चलोगे। मोहिनी दीदी तो आए थे।' अब यह नहीं कहा जाता कि मोहिनी दीदी आई थीं। हम गए थे, हम आए थे, हम आपका इन्तजार करते रहे, ऐसा कहा जा रहा है। हम आपका इन्तजार करती रहीं, ऐसा नहीं कहा जाता।

संस्कृत द्वारा किया गया हिन्दी का प्रतिरोध अधिक दिन नहीं चला। उसमें आक्रामकता भी नहीं थी लेकिन उर्दू से जो प्रतिरोध करवाया गया वह लम्बे समय तक चला। उसमें आक्रामकता भी थी। इसका कारण यह था कि इसे राजनीतिक शह मिली हुई थी। अंग्रेजों ने हर स्तर पर हर क्षेत्र में देश में फूट डालने की कोशिश की थी। शुरु में जॉन गिलक्राइस्ट और फोर्ट विलियम कॉलेज, कोलकाता के माध्यम से हिन्दी, उर्दू को दो अलग-अलग भाषाएँ माना गया। प्राथमिक शिक्षा के लिए दोनों में अलग-अलग किताबें छापी गईं। उन्हें पढ़ने वाली जातियाँ कौन सी होंगी, यह भी बताया गया। यह एक ऐसा घिनौना खेल था जो अन्ततः इस देश के दो टुकड़े कर गया।

हिन्दी और उर्दू का डीएनए एक ही है। दोनों में संरचनात्मक एकता है। लिपि की भिन्नता और शब्द समूह की थोड़ी बहुत भिन्नता भाषाओं की तुलना करने में निर्णायक नहीं होती। आजादी के पूर्व हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग बताने वालों के उद्देश्य और प्रयत्न ही नहीं, समझ भी भाषा वैज्ञानिक नहीं थी। वे तो सिर्फ अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते थे। उन्हें सफलता भी मिली। पाकिस्तान बना। वहाँ भी उन्होंने भाषा वैज्ञानिक समझ का परिचय नहीं दिया। उर्दू, जो पाकिस्तान में बोली ही नहीं जाती थी, पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बना दी गई। इसका खामियाजा उन्हें पूर्वी पाकिस्तान खो कर उठाना पड़ा।

हिन्दी की सरंचनात्मक एकता जितनी उर्दू के साथ है उतनी उसकी अपनी कई बोलियों के साथ भी नहीं है। यह अकारण नहीं है। हिन्दी के पाठक को मीर, फैज फिराक की भाषा प्रायः जितनी जल्दी समझ में आती है, उतनी मैथिली के विद्यापति, अवधी के जायसी या तुलसी की नहीं। 'साये में धूप' के कवि दुष्यन्त की गजलें जितनी हिन्दी की हैं, क्या उतनी ही उर्दू की नहीं लगतीं?

बीती सदी के मध्य के कुुछ दशकों में हिन्दी उर्दू के बीच जो तलवारें खिंची हुई थीं, वे अब म्यान से भी निकाल कर दूर फेंकी जा चुकी हैं। हिन्दी की एम. ए. कक्षाओं में उर्दू साहित्य और उर्दू की एम. ए. कक्षाओं में हिन्दी साहित्य पढ़ाया जा रहा है। हिन्दी के कवि त्रिलोचन की दृष्टि में तो उर्दू कवि गालिब अपनों से भी ज्यादा अपने हैं - 'गालिब गैर नहीं हैं, अपनों से अपने हैं।'

उर्दू भारत की भाषा है। भारत की भाषाओं की आठवीं अनुसूची में शामिल है, जिसमें अंग्रेजी शामिल नहीं है। उर्दू की नाल भारत में ही गड़ी है। उसके रिसालेे देवनागरी लिपि में प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो रहे हैं। अयोध्याप्रसाद गोयलीय, प्रकाश पण्डित जैसे दूरदर्शी सम्पादकों ने बरसों पहले से हिन्दी पाठकों को उर्दू  से जोड़ रखा है।

संस्कृत, उर्दू और तमिल से करवाया गया हिन्दी विरोध शान्त हुआ तो हिन्दी को लगा होगा कि अब उसके अच्छे दिन आ गए। पर अच्छे दिन इतनी जल्दी कहाँ आते हैं ? हिन्दी के सामने अब अंग्रेजी की शातिर चुनौती है। चालें चुपचाप चली जा रही हैं। उच्च वर्ग और नौकरशाही नहीं चाहती कि जनता को सत्ता में वास्तविक हिस्सेदारी मिले। वह तो चाहती है- जनता मतदान करे और भ्रम में बनी रहे कि वही मालिक है। सत्ता को जनता से भिन्न होना और भिन्न दिखना ही पसन्द होता है। सत्ता की भाषा जनता जैसी हुई तो वह काहे की सत्ता? जनता हिन्दी बोलती थी। बोलती रही। पर सत्ता की भाषा संस्कृत, फिर फारसी, फिर अंग्रेजी हुई। कई छोटे रजवाड़ों में भी राजकाज की अलग भाषा थी। अंग्रेजी को 1967 में ही हमने अभयदान दे दिया था कि वह अनिश्चित काल तक हमारे गणतन्त्र में राज करती रहे। हमारी सरकारें नर्सरी से लेकर बड़ी कक्षाओं तक छात्रों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहती हैं। स्नातक कक्षाओं में हिन्दी को वैकल्पिक बनाने का खेल शुरु हो चुका है। गाँवों में अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलने की तैयारी है।

बच्चों की सारी ऊर्जा अंग्रेजी पढ़ने में खर्च हो रही है। उनके हाथ न अंग्रेजी आएगी और  न अन्य विषय। भाषा ज्ञान नहीं होती, ज्ञान तक पहुँचने का माध्यम होती है। व्यक्ति का अधिकार एक भाषा पर होना चाहिए। थोड़ी-थोड़ी गति सब भाषाओं में होने से तो व्यक्ति दुभाषिया बन सकता है ज्ञानवान नहीं। बिल गेट्स सिर्फ एक भाषा  अंग्रेजी जानते हैं।
अंग्रेजी की गुलामी के हमारे संस्कार आज भी सिर उठाते रहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेजी बोलें। हमारी चमड़ी अंग्रेजों जैसी गोरी हो। अपनी इन दोनों इच्छाओं को पूरा करने पर हमारी गाढ़ी कमाई का पैसा पानी की तरह बह रहा है। हम न अंग्रेजी बोल पा रहे हैं और न हमारी चमड़ी गोरी हो पा रही है।

पंजाब जैसे उन्नत राज्य में दसवीं में अस्सी हजार बच्चे अंग्रेजी में फेल हुए तो वहाँ शिक्षामन्त्री ने शिक्षकों का अंग्रेजी में टेस्ट लिया। सिर्फ एक ही शिक्षक पास हो पाया (दैनिक भास्कर, 26 जून 2015)। हम अनुमान लगा सकते हैं कि राजस्थान, म. प्र., बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ आदि में अंग्रेजी की पढ़ाई की क्या स्थिति होगी ?

यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि अगर देश की भाषा अंग्रेजी हो जाए तो देश में समृद्धि आ जाएगी। ध्यान देने की बात है कि दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में शासन-प्रशासन और शिक्षा वहाँ की मातृभाषा में होती है; जैसे जर्मनी, चीन, फ्रांस आदि। केवल चार देशों की भाषा अंग्रेजी है। वह इसलिए कि अंग्रेजी ही उनकी मातृभाषा है। संसार के सबसे गरीब देशों में से 18 की भाषा उनकी मातृभाषा नहीं ,बल्कि अंग्रेजी है। अफ्रीका के राष्ट्रों की भाषा उनकी मातृभाषा की जगह अंग्रेजी या फ्रांसीसी है। इन राष्ट्रों की बदहाली सारी दुनिया जानती है।

चीन की मन्दारिन के बाद हिन्दी संसार की सबसे अधिक जनसंख्या वाली भाषा है। वह बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, म. प्र., राजस्थान, उ. प्र., हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की राजभाषा है। अण्डमान-निकोबार, चण्डीगढ़, दादर-नागर हवेली, दमन-दीव और दिल्ली में उसकी हैसियत राजभाषा की है। भारत के बाहर फिजी में दो अन्य भाषाओं के साथ वह वहाँ की राजभाषा है। अंग्रेजी भक्तों को भला यह कैसे सुहा सकता है कि संख्या बल में ही सही अंग्रेजी, हिन्दी से नीचे हो। इसलिए अवधी, बुन्देली, ब्रज भोजपुरी आदि को वे हिन्दी में शामिल नहीं करते। वे इन्हें हिन्दी नहीं मानते। दरअसल खड़ी बोली, बुन्देली, भोजपुरी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, ब्रज, अवधी आदि मिल कर ही तो हिन्दी हैं। वे सब हिन्दी के मोहल्ले हैं। इब्राहीमपुरा, एमपी नगर, अरेरा कॉलोनी, निराला नगर आदि मिल कर ही तो भोपाल हैं। इन मोहल्लों के बिना भोपाल कहाँ होगा? शायद ही किसी देश ने अपनी किसी भाषा को राजभाषा के सम्वैधानिक सिंहासन पर बैठा कर उसका निरन्तर ऐसा अपमान किया हो। राम को 14 साल का वनवास मिला था। हिन्दी को अनिश्चितकाल का वनवास दिया गया है। सामाजिक क्षेत्र में अंग्रेजी हमारे पढ़े लिखे होने का सबूत और हैसियत की भाषा है। और हिन्दी? उसे सब बोलते हैं। वह सबकी है। जो सबकी हो वह विशेष कैसे हो सकती है? इधर एक नया मुहावरा प्रचलित हुआ है। काम बिगड़ने, बेइज्जत करने को हिन्दी होना कहा जाने लगा है - 'मेरा तो सारा काम हिन्दी हो गया।', 'उसने सबके सामने मेरी हिन्दी कर दी।'

एक विषय के रूप में अंग्रेजी पढ़ना अच्छी बात है पर देश के कामकाज पर, देश के बोलने पर उसे थोपने से काम बिगड़ता है। सन् 1981 की जनगणना में देश में 2 लाख 2 हजार 400 लोगों की प्रथम भाषा अंग्रेजी थी। 2001 में यह संख्या 2 लाख 26 हजार 449 हो  गई। बीस साल में सिर्फ 24 हजार लोग बढ़े। ऐसे में अंग्रेजी के सहारे 'सबका साथ सबका विकास' कैसे सधेगा ?

अंग्रेजी नियुक्ति, पदांकन, पदोन्नति का अघोषित आधार बनी हुई है। हमारा सिनेमा और हमारी किक्रेट, खाते हिन्दी का हैं और बजाते अंग्रेजी का हैं। हिन्दी के धारा प्रवाह भाषण सारे देश में सुने, समझे, सराहे जाते हैं। चुनावों में जीत दिलाते हैं, फिर भी हमारी रट है कि अंग्रेजी देश को जोड़ती है।

जब तक दीया तले अंधेरा है, संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को मान्यता मिलना मुश्किल है।  विदेशी राजनयिक भारत में अपनी पद स्थापना के पूर्व यथासम्भव हिन्दी सीख कर भारत आते हैं। भारत में उन्हें हिन्दी का माहौल गायब मिलता है तो वे हिन्दी भूल जाते हैं। विदेशियों को शिकायत है कि वे हिन्दी में मेल भेजते हैं, भारत उन्हें अंग्रेजी में उत्तर देेता है।

हिन्दी के साथ उसकी लिपि देवनागरी को भी आलोचना का शिकार होना पड़ा है। भाषा स्वभाविक होती है, लिपि कृत्रिम। बोेलने को बच्चा खुद सीखता है, लिखना उसे हाथ पकड़ कर सिखाया जाता है। इसलिए भाषा में तो प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन नहीं किया जा सकता है, लिपि में किया जा सकता है। नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि के प्रयत्नों के बाद 1953 में उत्तरप्रदेश शासन ने भी देवनागरी सुधार का काम किया। उसके कई सुधार स्थायी साबित हुए। वे आज भी प्रचलन में हैं। जैसे अ, ण को ही मान्य किया गया है। इनके दूसरे रूपों को नहीं। कुछ लिपि चिह्नों की बनावट को बदल कर उन्हें असंदिग्ध बनाया गया है। अब ख, ध, भ ही प्रचलन में हैं। इनके अन्य/पुराने रूप अब भुला दिए गए हैं। 

देवनागरी में  कमियाँ हैं। वह ध्वन्यात्मक नहीं, अक्षरात्मक है। कहीं-कहीं तीन मंजिला इमारत जैसी है। इ की मात्रा कभी-कभी अपने उच्चारण क्रम में जैसे चन्द्रिका में बहुत पहले लगाई जाती है। लेकिन कमियाँ तो संसार की हर लिपि में हैं। रोमन में लिखने के हमारे प्रयत्नों ने हमें कम नुकसान नहीं पहुँचाया है। हमारे शब्दों के न सिर्फ उच्चारण भ्रष्ट हुए हैं, बल्कि अर्थ का अनर्थ भी हुआ है। बुद्ध, कृष्ण, योग, गुप्त, मिश्र शुक्ल जैसे अकारान्त शब्द आकारान्त कर दिए गए हैं। मैथिलीशरण गुप्त, द्वारिकाप्रसाद मिश्र, रामचन्द्र शुक्ल जैसे कुछ व्यक्ति ही गुप्त, मिश्र, शुक्ल बने रह पाए हैं। कृष्णा का अर्थ कृष्ण नहीं, द्रोपदी होता है। उपन्यासकार चेतन भगत का तर्क है कि रोमन को अपनाने से हिन्दी को आधुनिक तकनीक का फायदा मिल जाएगा। यह तो देह को कपड़े के नाप का बनाने का सुझाव है। आधुनिक तकनीक का जन्म पश्चिम में हुआ। स्वभावतः उसकी पहली अभिव्यक्ति रोमन लिपि में हुई। अब इण्टरनेट पर अन्य लिपियों और भाषाओं का प्रयोग भी बढ़ रहा है। सन् 2000 में इण्टरनेट पर 80 प्रतिशत जानकारी अंग्रेजी और रोमन में उपलब्ध होती थी। अब वह प्रतिशत 40 से भी कम है। देवनागरी में टंकण की कई समस्याओं को कम्पनियाँ तेजी से सुलझाती जा रही हैं। देवनागरी फोण्ट्स पर लाखों लोगों के हाथ तेज गति से दौड़ रहे हैं। माइक्रोसोफ्ट कम्पनी ने माना है कि भारतीय व्यापार का 95 प्रतिशत अब भी भारतीय भाषाओं और भारतीय लिपियों में हो रहा है। स्पष्ट है कि अंग्रेजी और रोमन लिपि के वर्चस्व की सम्भावनाएँ सिकु़ड़ रही हैं। हिन्दी के सन्दर्भ में निराशा धीरे-धीरे छँट रही है। हम जानते हैं कि अन्ततः राम की ही विजय हुई थी। 
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(भोपाल से प्रकाशित मासिक 'साक्षात्‍कार' के सितम्‍बर 2016  अंक से साभार।)