भगीरथों की प्रतीक्षा में पुरखे

इन दिनों देश में पुरखों लेकर जमकर मारा-मारी मची हुई है। एक के पुरखों पर दूसरा झपट्टे मार रहा हैदूसरा उन्हें बचाने की कोशिशें कर रहा है। दुनिया दोनों की हकीकत जानती है। तमाशा देख-देख हँस रही है।

मुझे वीरेन्द्र सिंहजी भदौरिया  याद आ गए। बात 1997-98 की है। तब, आज के वाणिज्यिक कर विभाग को विक्रय कर विभाग याने सेल्स टैक्स डिपार्टमेण्ट कहा जाता था। सेवानिवृत्ति के बाद भदौरियाजी अभी ग्वालियर में बसे हुए हैं। तब वे इन्दौर में पदस्थ थे। उनके घर जाना हुआ। मैं घर में घुसा, भदौरियाजी ने दरवाजा बन्द किया। अचानक ही मेरी नजर बन्द दरवाजे पर (अन्दर की ओर) लगे एक ‘चिपकू’ (‘स्टीकर’ का यह हिन्दी नाम कैसा लगा आपको?) लगा हुआ था। उस पर लिखा हुआ फौरन नहीं पढ़ पर पाया। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि सुभाषितों वाले ऐसे ‘चिपकू’ तो दरवाजों पर, बाहर की ओर, लोगों को दिखाने/पढ़ाने  के लिए लगाए जाते हैं। भला, बन्द दरवाजे के पीछे ‘चिपकू’ लगाने का क्या मतलब? 

भदौरियाजी मुझे बैठने के लिए आग्रह कर रहे थे लेकिन मैं अनसुनी कर ‘चिपकू’ की ओर बढ़ गया। ‘चिपकू’ पर, अंग्रेजी में लगभग चार पंक्तियों की इबारत थी। उसका हिन्दी भावानुवाद कुछ इस तरह था - ‘यह तो अच्छी बात है कि हम अपने पुरखों पर गर्व करें। लेकिन उससे अधिक अच्छी बात यह होगी कि पुरखे हम पर गर्व करें।’ इबारत का सन्देश मुझे बहुत भाया। तब से लेकर मैं इसका उपयोग करता चला आ रहा हूँ। जब मैं बीमा ग्राहकों के लिए अपने केलेण्डर छपवाता था तब एक बार, एक पन्ने पर यह वाक्य भी छपवाया था। इबारत पढ़कर, बन्द दरवाजे के पास खड़े-खड़े ही मैंने भदौरियाजी से पूछा - ‘इतनी अच्छी बात आपने दरवाजे के पीछे क्यों लगाई? बाहर लगाते तो सब लोग पढ़ते!’ भदौरियाजी बहुत धीमा बोलते हैं। उसी धीमी आवाज में जवाब दिया - ‘यह लोगों को पढ़वाने के लिए नहीं है। यह तो खुद के पढ़ने के लिए है और लगातार पढ़ते रहने के लिए है ताकि अनजाने में भी ध्यान से न उतरे।’ 

’चिपकू’ की वह इबारत तो कभी भूला नहीं। हाँ, पुरखों की लूट-खसोट और उन्हें बचाने की झूमा-झटकी देखते हुए भदौरियाजी का जवाब बेतरह याद आ रहा है।

ऐतिहासिक उपलब्धियों वाली जैसी समृद्ध विरासत काँग्रेस को मिली, वह अनुपम, अप्रतिम, अन्यों के लिए ईर्ष्याकारक ही है। इसके विरासतदाताओं की संख्या अब भी अनगिनत ही है। लेकिन नायक याद रह जाते हैं, योद्धा विस्मृत तो जाते हैं। काँग्रेस में भी ऐसा ही हुआ लेकिन इसमें भी हुआ यह कि नायकों में भी प्रमुख नायक याद रखे गए और अन्य नायक या तो भुला दिए गए या नेपथ्य में धकेल दिए गए। एक बात और हुई। जिस काँग्रेस के नाम पर नायकों और योद्धाओं ने लड़ाई लड़ी, वह काँग्रेस कोई राजनीतिक दल नहीं, मूलतः जनआन्दोलन थी। यह संयोग ही रहा कि आजादी की लड़ाई के इन नायकों ने काँग्रेस को राजनीतिक दल का स्वरूप दिया। दलगत राजनीति की हानियों को भविष्यदृष्टा गाँधी फौरन ही भाँप गए थे। इसीलिए, आजादी के बाद गाँधी ने काँग्रेस को विसर्जित करने की सलाह दी थी। 

गाँधी ने ‘काँग्रेस में भारत’ नहीं, ‘भारत में काँग्रेस’ देखी थी। इसीलिए जब देश के पहले मन्त्रि मण्डल की सदस्य सूची उनके सामने गई तो उन्हें सूची अधूरी लगी और डॉक्टर अम्बेडकर का नाम खुद लिखा दिया था। नेहरू को ताज्जुब हुआ था। उन्होंने कहा था - ‘बापू! आम्बेडकर तो काँग्रेस के और आपके मुखर विरोधी हैं!’ तब गाँधी ने हँसते-हँसते प्रतिप्रश्न किया था - ‘तुम भारत का मन्त्रि मण्डल बना रहे हो या काँग्रेस का?’ यह थी गाँधी की काँग्रेस। काँग्रेसी यदि गाँधी का यह प्रतिप्रश्न याद रखते तो वे आज की अपनी दुर्दशा से बच जाते। 

आजादी के बाद काँग्रेसियों ने अपने पुरखों के पुण्यों का लाभ दोनों हाथों से उठाया लेकिन उनके सन्देश, उनकी भावनाएँ, उनकी कामनाएँ (निश्चय ही जानबूझकर) भूल गए। लेकिन पुरखों की पुण्याई आखिर कब तक असर करती? सत्ता सुन्दरी की बाँहों में लिपटे, मदमस्त काँग्रेसियों ने पुरखों की पूँजी में बढ़ोतरी की कोई कोशिश नहीं की। वे पितरों को भूल गए, केवल सत्ता याद रही। आज उनके हाथ रीते हैं और कूल्हे कुरसियों के लिए मचल रहे हैं। लगता है, उन्हें तो श्राद्ध-पक्ष में भी पितर याद नहीं आए। अतृप्त पितर यदि अपने वंशजों को कोस रहे हों और नाराजी जता रहे हों तो क्या आश्चर्य! आज के काँग्रेसी ऐसे वंशज हैं जिनके पुरखे दुनिया में सराहे जाते हैं लेकिन अपने ही घर में उपेक्षित हैं। 

दूसरी ओर संघ परिवार की दशा इससे अधिक विचित्र है। संघियों के पुरखे परम प्रसन्न हैं। वे अपने वंशजों पर निश्चय ही गर्व कर रहे होंगे। संघियों ने अपने पुरखों की आकांक्षाएँ, मनोकामनाएँ पूरी करने की कोशिशें निरन्तर कीं और आज इस मुकाम पर हैं। किन्तु संघ परिवार का दुर्भाग्य यह कि इनका एक भी पुरखा ऐसा नहीं जो वर्तमान भारत की वैश्विक छवि के अनुरूप, अनुकूल हो। भारत की आजादी में इनमें से किसी का भी, व्यक्तिगत रूप से या सांगठानिक रूप से रंच मात्र भी योगदान नहीं। इसके विपरीत इन सबका इतिहास अंग्रेजों के समर्थन का है। भगतसिंह, चन्द्रशेखर जैसे जिन क्रान्तिारियों के नाम पर संघ परिवार देश में भावोद्वेलन करता रहता है, उन क्रान्तिकारियों को भी संघी नायकों ने, अंग्रेजों का विरोध छोड़कर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में लग जाने की सलाह दी। जिन सावरकर को ‘वीर’ कहते हैं, जिन्हें भारत रत्न देने को अपना अगला कार्यक्रम बताते हैं उन्हीं सावरकर ने, देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने के बजाय अपने प्राण बचाने के लिए छह-छह बार माफी माँगते हुए वादा किया कि यदि उन्हें जीवित रहने दिया गया तो वे आजीवन अंग्रेजों के प्रति वफादार रहेंगे। अंग्रेज सरकार ने उनकी माफियाँ न केवल मंजूर कीं बल्कि वफादारी के लिए पुरुस्कृत करते हुए उन्हें पेंशन भी दी। संघ परिवार का संकट यह है कि उनके पास एक भी ऐसा पुरखा नहीं है जिसका नाम वे छाती ठोक कर, गर्वपूर्वक देश-दुनिया के सामने जा सकें। दुनिया भी जानती है कि इनके पुरखे भारत की आजादी के दीवानों के विरुद्ध अंग्रेजों के मददगार थे। इसे संघ परिवार की विडम्बना कहिए या संकट कि ये ऐसे वंशज हैं जिनके पुरखे तो इन पर गर्व कर रहे होंगे लेकिन दुनिया के सामने अपने पुरखों पर गर्व करना इनके लिए सम्भव नहीं हो रहा। इसीलिए इन्हें काँग्रेसियों के पुरखे हड़पने पड़ रहे हैं।

पुरखों को लेकर काँगेसियों और संघियों का संकट सचमुच में रोचक है। काँग्रेसियों के पुरखे अपने वंशजों से शायद ही सुखी, सन्तुष्ट, प्रसन्न हों। अपने पुरखों के साथ काँग्रेसियों ने जो व्यवहार किया वह उनकी शर्मिन्दगी और दुर्दशा का कारण बना हुआ है। उन्होंने पुरखों की पुण्याई भोगी। खुद कुछ नहीं किया। संघ परिवार ने अपने पुरखों की सार-सम्हाल तो खूब की लेकिन वे जानते हैं कि उनके पुरखे  पुण्यवान नहीं। इसलिए वे काँग्रेसियों के पुण्यवान पुरखों को हड़पने में लगे हैं।

एक कुटुम्ब के पुरखे पुण्यवान हैं तो उनके वंशज निकम्मे हैं। वे अपने पुरखों पर गर्व करते हैं लेकिन उनके पुरखे अपने वंशजों पर गर्व नहीं कर पा रहे। दूसरे कुटुम्ब के पुरखे खुश हैं। अपने वंशजों पर गर्व कर रहे होंगे। लेकिन उनके वंशज जानते हैं कि उनके पुरखे पुण्यवान नहीं हैं। इसलिए उन पर गर्व नहीं कर पा रहे।

आपको नहीं लगता कि दोनों परिवारों के पुरखे अपने उद्धार के लिए अपने-अपने भगीरथ की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
-----


अभी-अभी, आधी रात को मालूम हुआ कि ‘सुबह सवेरे’, 
भोपाल ने इसे गुरुवार 07 नवम्बर 2019 को छापा



यह काम कर सकते हैं राहुल गॉंधी


लगा था कि हरयाणा और महाराष्ट्र के चुनावी परिणामों के बाद राहुल गाँधी समाचारों-समीक्षाओं के केन्द्र में आ जाएँगे। शुरुआती दो-तीन दिनों तक ऐसा हुआ भी लेकिन दोनों राज्यों में सरकारें बनाने को लेकर हुई उठापटक ने राहुल गाँधी को नेपथ्य में धकेल दिया। लेकिन भारतीय राजनीति पर पोलेण्ड की वह कहावत शब्दशः लागू होती है जिसमें कहा गया है कि मेंढक जब भी पैदा होता है, सात औंस वजन का ही होता है। आदमी आज भले ही विस्मृति के अँधेरे गोदाम में फेंक दिया जाए। लेकिन यदि वह सशरीर जीवित है तो कभी भी सम्पूर्ण प्रभावशीलता से मंच पर केन्द्रीय भूमिका में नजर आ सकता है। 

राहुल गाँधी के प्रशंसक बड़ी संख्या में मिल जाएँगे किन्तु उन पर राजनीतिक भरोसा करनेवालों की संख्या उसके मुकाबले बहुत छोटी होगी। वे ऐसे राजनेता हैं जिसमें लोग (काँग्रेस से बाहर के भी) केन्द्रीय सत्ता के शीर्ष-पुरुष होने की सम्भावना देखते हैं। लेकिन खुद राहुल गाँधी इसके लिए तैयार नजर नहीं आते। चूँकि ईश्वर ने यह व्यवस्था नहीं की कि हम किसी के मन की बात जान सकें (अच्छा ही किया वर्ना हम, चौबीसों घण्टे एक-दूसरे को तमाचे मारते ही नजर आते) इसलिए हम सब अपने-अपने अनुमान ही लगा सकते हैं। ये अनुमान भी हम अपनी पसन्द, अपनी सुविधा और अपनी मनोदशा के अनुसार ही लगाते हैं। इस तरह अनुमान लगाते समय मोटे तौर पर हम खुद को सामनेवाले की जगह पर रखकर सोचते हैं। मैं भी कुछ इसी तरह कुछ अनुमान लगा रहा हूँ।

मुझे लगता है, राहुल महत्वाकांक्षी नहीं हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति अवसरों की प्रतीक्षा नहीं करता। वह या मुश्किलों में अवसर खोज लेता है या अवसर झपट लेता है। अपने प्रतिद्वन्द्वी के अवसर हड़पने में न तो देर करता है न ही लोक-लिहाज पालता है। सत्ता की राजनीति में तो इसे ही कौशल माना जाता है। राहुल गाँधी को तो खूब अवसर मिले, बार-बार मिले, लगातार मिले, तश्तरी में रखे गए गुलाबजामुनों की तरह मिले। लेकिन राहुल गाँधी ने अत्यन्त निस्पृहता (इसे ‘अनिच्छा’ कहना अधिक समीचीन लग रहा है मुझे) से अपनी भूमिका निभाई।

आगे मुझे लगता है, राहुल गाँधी में या तो समुचित आत्म विश्वास की कमी है या फिर वे जोखिम लेने में हिचकिचाते हैं। ‘नो रिस्क, नो गेन्स। मोअर रिस्क, मोअर गेन्स’ वाली अंग्रेजी कहावत राजनीति पर ही नहीं, जिन्दगी की हर साँस पर लागू होती है। लगता है, राहुल को सब कुछ रेडीमेड चाहिए। एक राजनेता के रूप में उन्होंने ऐसा कोई उद्वेलन, आन्दोलन नहीं किया जो जन-मन को मथ सके। मैं इसी बात को यूँ कहना चाहूँगा कि उन्हें मिले अवसरों को अनुकूल राजनीति परिणामों में बदलने का कौशल अब भी उनमें विकसित नहीं हो पाया है।

और आगे मुझे लगता है, राहुल गाँधी खुद को लेकर अस्पष्ट या कि हिचकिचाहट से ग्रस्त हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे सादगी, शुचिता से परिपूर्ण लोक-राजनीति करें या सत्ता की राजनीति। मनमोहनसिहं ने उन्हें मन्त्री पद प्रस्तुत किया था किन्तु उन्होंने मना कर दिया। इसके विपरीत, उन्हें जब-जब प्रधान मन्त्री के रूप में उल्लेखित किया तब-तब उन्होंने कभी प्रभावी प्रतिवाद नहीं किया। 

अगली बात मेरा अनुमान नहीं, सुनिश्चित धारणा है। सत्ता की राजनीति करनेवाले नेता में जो लोक रंजक वाक्पटुता, आक्रामकता-चतुराई (जिसे अंग्रेजी में ‘कनिंगनेस’ कहते हैं), अपनी बात से (बेशर्मी से) पलट जाने जैसे ‘गुणों’ का जो न्यूनतम प्रतिशत अनिवार्य होता है, वह राहुल गाँधी में नहीं है। उनकी यह विशेषता, उनकी सबसे बड़ा बाधा है। वे ‘भद्र-लोक’ बनकर साफसुथरी राजनीति करना चाहते हैं जो हमारे गले नहीं उतरती। हम वह विचित्र और पाखण्डी समाज हैं जो राजनीति में ईमानदार और भले लोगों की अनुपस्थिति की मुक्त-कण्ठ आलोचना करते हैं और भले-ईमानदार उम्मीदवार को कभी वोट नहीं देते। जब भला-ईमानदार आदमी वोट माँगने आता है तो हम उसके प्रति दया और सहानुभूति जताते हुए, उसके मुँह पर ही कहते हैं - ‘अरे! आप तो भले आदमी हैं। आप हमारे काम कैसे करवाएँगे?’ (यह बात मैंने अनुमान से नहीं लिखी है। इन्दौर के सुपरिचित साहित्यकार सदाशिव कौतुक एक बार निगम पार्षद का चुनाव लड़े थे। तब उन्हें अपने मतदाताओं से यह बात कई बार सुननी पड़ी थी। कौतुकजी को ‘भला आदमी’ का प्रमाण-पत्र देनेवाले मतदाताओं ने कौतुकजी की जमानत जप्त करवा दी थी।)

तो क्या राहुल गाँधी राजनीति में ‘मिसफिट’ हैं? उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए? इसका निर्णायक जवाब तो राहुल गाँधी ही दे सकते हैं किन्तु मुझे लगता है, राहुल गाँधी चाहें तो भी ऐसा नहीं कर सकेंगे। उनकी हालत ‘बाबाजी तो कम्बल छोड़ना चाहते हैं लेकिन कम्बल बाबाजी को नहीं छोड़ रहा’ वाली है। आत्मविश्वासविहीन हो चुके, सत्ता की गुड़भेली के काँग्रेसी चींटे उन्हें ऐसा नहीं करने देंगे। उनके पास राष्ट्रीय स्तर पर ‘वोट अपील’ वाला कोई चेहरा नहीं है। राहुल गाँधी को काँग्रेस की राजनीति में बनाए रखना उनकी लाचारी है और वहाँ बने रहना राहुल गाँधी की ‘कृतज्ञता भरी विवशता’ है। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी परिणामों ने यह भी साबित कर दिया है कि राहुल की पसन्द के लोग चुनावी सफलताएँ दिलाने में सर्वथा नाकामयाब रहे। दोनों राज्यों के स्थापित क्षत्रपों ने ही काँग्रेस की वापसी कराई है। जाहिर है, सांगठानिक बदलाव की रणनीति के लिहाज से राहुल गाँधी विफल ही रहे हैं।

तो क्या, राहुल अब काँग्रेस के लिए अनुपयोगी हो गए हैं? मुझे लगता है, ऐसा बिलकुल नहीं है। आज की काँग्रेस वह काँग्रेस है ही नहीं जिसने देश को आजादी दिलाई थी। वह काँग्रेस तो कपूर हो गई। आज तो उसकी छाया मात्र है। ऐसे में, परिदृष्य पर राहुल गाँधी की कार्यशैली, व्यवहार और मिजाज को देखते हुए लगता है, राहुल गाँधी काँग्रेस को फिर से काँग्रेस बना सकते हैं। आज के काँग्रेेसियों को पता ही नहीं है कि काँग्रेस क्या है। उन्हें काँग्रेस का इतिहास ही पता नहीं। वे केवल उस काँग्रेस को जानते और मानते हैं जो कुर्सी दिलाती है। आजादी के आन्दोलन में काँग्रेस की भूमिका, भारत विभाजन में काँग्रेस और गाँधी-नेहरू-सरदार की भूमिका, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, अमर शहीद भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों से काँग्रेस के अन्तर्सम्बन्ध जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण विषयों पर सामान्य स्तर के काँग्रेसियों की घिग्घी बँध जाती है। धारा 370 को लेकर काँग्रेसियों की दुविधा जगहँसाई कराती है। काँग्रेस और काँग्रेसियों की वर्तमान दशा कुबेर सम्पदा वाले निर्धन वंशजों जैसी है। राहुल गाँधी, काँग्रेसियों को काँग्रेस से मिलवाने का यही आधारभूत काम कर सकते हैं।

काँग्रेस के शुरुआती समय में सेवादल ने लोगों को काँग्रेस से और वस्तुतः राष्ट्रीय एकता से जोड़ने का काम किया था। राहुल गाँधी उसी सेवादल को पुनर्जीवित कर शुरु से शुरुआत कर सकते हैं। प्रबुद्ध लोगों से कांग्रेस पूरी तरह कट चुकी है। उनसे जुड़ना चाहिए। गाँव-गाँव में चौराहों पर छोटी-छोटी गोष्ठियों के जरिए लोगों तक पहुँचने की शुरुआत दूरगामी और स्थायी नतीजे दे सकती है। 

एक बात और। राहुल गाँधी आज भी भारत की आत्मा से दूर ही लगते हैं। वे यायावर की तरह गाँवों में जाएँ, लोगों के बीच रहें और भारत को जानें-समझें। उन्हें दिल्ली और केमरों का मोह छोड़ कर भूखे-नंगे लोगों की पीड़ा अनुभव करनी चाहिए। देश के हालात कमोबेश 1947 से पहलेवाले बनते जा रहे हैं। राहुल गाँधी अपनी उलझन दूर करें, जोखिम लेने की हिम्मत जुटाएँ, निर्लिप्त भाव से लोक-राजनीति करें। यह काँग्रेस की नहीं, देश की जरूरत है। 

देश और काँग्रेस के राजनीतिक इतिहास में राहुल दर्ज हो चुके हैं। इतिहास में उनकी यह मौजूदगी धूमकेतु की तरह उल्लेखित हो या चिंगारी से ज्वाला बनने की तरह, यही देखनेवाली बात होगी।
----- 

भोपाल के दैनिक 'सुबह सवेरे' ने आज इसे छापा



विभीषण बने बिना न रामराज आएगा न दीपावली

‘दीपावली का पर्व उपलब्ध कराने के लिए किसे धन्यवाद दिया जाना चाहिए?’ सबको प्रभु राम ही याद आएँगे। कुछ लोग रावण को श्रेय दे सकते हैं - उसने सीता हरण नहीं किया होता तो राम किसका वध करते? कैसे सीता सहित अयोध्या लौट पाते? वनवास से राम की सीता सहित वापसी पर ही तो अयोध्यावासियों ने दीपावली मनाई थी! 

लेकिन मेरे मन में बार-बार विभीषण का नाम उभर रहा है। वही विभीषण जिन्हें कभी घर का भेदी तो कभी विश्वासघाती के रूप में उल्लेखित किया जाता है। कहा जाता है कि रावण इसलिए क्योंकि उसका भाई उसके साथ नहीं था। विभीषण को हमारा ‘लोक’ खलनायक के रूप में याद करता है। लेकिन मुझे लगता है कि यदि विभीषण नहीं होता तो राम अपनी भार्या सीता प्राप्त नहीं कर पाते। तब अकेले राम अयोध्या कैसे लौट पाते और कैसे अयोध्यावासी दीपावली मनाते? और इससे भी आगे की, इससे बहुत बड़ी बात - यदि राम अयोध्या नहीं लौटते तो जो रामराज्य आज हमारी चिरन्तन अभीप्सा बना हुआ है, वह रामराज कैसे स्थापित हो पाता? 

चिन्तन की परतें ज्यों-ज्यों उघड़ रही हैं त्यों-त्यों मेरी धारणा मजबूत होती जा रही है - ये विभीषण ही थे जिन्होंने हमें रामराज  और दीपावली का महापर्व दिलवाया। 

विभीषण, लंका के राजा रावण का सगा छोटा भाई था। रावण के बाद लंका का राज उसे ही मिलना था। सुन्दरकाण्ड में खुद रावण ने उसे अपना उत्तराधिकारी माना है। रावण के अनुचर, राम के शिविर से जीवनदान प्राप्त कर लंका लौटे तो रावण ने उनसे विभीषण का हालचाल इस तरह पूछा था - 

पुनि कहु खबरि विभीषन केरी। जाहि मृत्यु अई अति नेरी।।
करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी।।

जब तय था कि रावण के बाद लंका का राज्य विभीषण को ही मिलना था तो विभीषण को रावण की नाराजी मोल लेने की क्या जरूरत थी? विभीषण ने राज गद्दी हासिल करने के लिए षड़यन्त्र करना तो दूर, षड़यन्त्र का विचार भी नहीं किया। करते भी कैसे? किसके दम पर करते? वे तो लंका में खुद को ‘दाँतो के बीच जबान’ मानते थे -

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।

तब फिर क्या बात रही कि विभीषण को ‘घर का भेदी’ बनने के लोकोपवाद का प्रतीक और पर्याय बनना पड़ा?

तुलसीदासजी ने विभीषण को ‘नीति विभूषण’ कहा है। विभीषण ‘नीतिवान’, नीति का पैमाना थे। मानस का सुन्दरकाण्ड केवल हनुमान की रामभक्ति और शौर्य की गाथा नहीं है। वह विभीषण के नीतिमान पुरुष होने का सुन्दर आख्यान भी है। विभीषण ने नीतिगत आचरण करते हुए ही वह सब किया जिसे आज हमारा लोक  अस्वीकार करता है।

विभीषण अपने सम्राट भाई का हित ही चाहते थे। वे चाहते थे कि उनका भाई जीवनपर्यन्त लंकापति बना रहे। इसीलिए उन्होंने लंका की चिन्ता की - लंका रहेगी तब ही तो उनका भाई लंकेश बना रहेगा! उनके चिन्तन-मनन में लंका और लंका का हित ही केन्द्र में रहा। उन्होंने ‘राज-हित’ की अपेक्षा ‘राज्य-हित’ या कहिए कि ‘राष्ट्र-हित’ को वरीयता दी। उन्होंने ‘राजा’ और ‘राज’ की अपेक्षा ‘राज्य’ की चिन्ता की। भाई की नहीं, भाई का राज बना रहे इसलिए राज्य की चिन्ता की। ‘राष्ट्र प्रथम’ की नीति तब ही सार्थक होती है जब ‘राजा प्रथम’ के मोह से मुक्त हुआ जाए।

‘राष्ट्र प्रथम’ की इसी भावना के अधीन विभीषण ने भरी सभा में अपने सगे भाई, लंकापति रावण को समझाने का साहस दिखाया। उन्होंने जब देखा कि उनका भाई नीति और मर्यादा भूल रहा है और पूरी सभा चापलूसी कर उनके भाई को कुमार्ग पर धकेल रही है तब उन्होंने सीधे परामर्श से पहले समझाया -

सुमति-कुमति सबके उर रहहिं। नाथ पुरान निगम अस कहहिं।।
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना।।

और इसके बाद उन्होंने वह साहस दिखाया जो कोई सच्चा राष्ट्र प्रेमी ही दिखा सकता था। चापलूस सभासदों से भरी सभा में उन्होंने रावण को कहा -

तव उर कुमति बसी विपरीता। हित-अनहित मानहु रिपु प्रीता।।

किन्तु चापलूसी और अहम् से ग्रस्त रावण को यह सलाह अनुकूल नहीं लगनी थी। उसने लात मार कर विभीषण को दूर कर दिया। 

विभीषण ने जब देखा कि उनकी सही बातों को सुनने-मानने के बजाय उन्हें प्रताड़ित, अपमानित किया जा रहा है तो वे ‘राम सत्यसंकल्प प्रभु, सभा कालबस तोरि’ की सूचना देकर रामजी की शरण में चले गए। विभीषण के लंका त्याग पर गोस्वामीजी ने लिखा -

अस कहि चला विभीषण जबहिं। आयूहीन भये सब तबहिं।।
रावन जबहिं विभीषन त्यागा। भयउ विभव बिन तबहिं अभागा।।

नीतिवान विभीषण के जाते ही रावण और उसके सारे दरबारियों की आयु पूरी हो गई और रावण वैभवहीन तथा अभागा हो गया। यहाँ नाम अवश्य विभीषण और रावण के हैं किन्तु सन्देश सीधा और साफ है - आयुष्य, वैभव (राज वैभव) और सौभाग्य केवल नीतिगत आचरण से ही पाए जा सकते हैं। अनीति का वरण करने पर इनका नाश सुनिश्चित है।

विभीषण का यह नीतिवान स्वरूप केवल रावण तक ही सीमित नहीं रहा। पूछने पर उन्होंने प्रभु श्रीराम को भी नीति का पालन करने की सलाह दी। लंका पहुँचने के लिए समुद्र पार करना जरूरी था। प्रभु श्रीराम ने विभीषण से पूछा - क्या किया जाए? विभीषण ने कहा -

कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।
जद्यपि तदपि नीति अस गाई। विनय करिअ सागर सन जाई।।

हे! राम, आप करोड़ों सागर सोख सकते हैं। किन्तु नीति तो यही कहती है कि आप सागर से विनयपूर्वक रास्ता माँगें।रामजी ने विभीषण से सहमति जताई। यह बात लक्ष्मण को रास नहीं आई। उन्होंने विनती करने को कायरता और आलस्य बताया तथा सागर को तुरन्त सोखने का आग्रह किया। रामजी ने अपने भाई की बात अनसुनी की और रावण के भाई की सुनी। नीति पर चलने का नतीजा पूरे जगत ने देखा। 

याने विभीषण अर्थात् नीतिगत आचरण। रावण ने नीति मार्ग छोड़ा तो न केवल राजपाट से हाथ धोना पड़े, प्राण भी त्यागने पड़े। नीति पर चलने से राम ने अपनी अपहृत भार्या पाई और पहले अयोध्यापति और बाद में मर्यादा पुरुषोत्तम बने और विश्व को आदर्श रामराज्य दिया।

यह सब सोचते-सोचते मुझे विभीषण, रामराज्य की आधार शिला रखनेवाले नीति पुरुष अनुभव होते हैं। न राम को विभीषण मिलते और न ही रामायण पूरी होती, न दीपावली का शुभारम्भ होता और न ही रामराज मिलता।

आज हम सब रामराज की बाट जोह रहे हैं। प्रत्येक राजनीतिक दल हमें रामराज का सपना दिखाता है। हम हर बार भरोसा करते हैं और हर बार छले जाते हैं। हमारी दीपावली अब आत्माविहीन हो कर एक आयोजन (ईवेण्ट) में बदलती जा रही है। प्रकाश तो खूब हो रहा है लेकिन जिन्दगी के अंधेरे कम नहीं हो रहे। पटाखों का शोर हमारे कान फोड़ रहा है लेकिन आनन्द-उल्लास, सुख-सन्तोष छिटकते जा रहे हैं। न तो रामराज है न ही दीपावली।

विभीषण ही रामराज स्थापित करा सकते हैं और दीपावली मनवा सकते हैं। विभीषण एक व्यक्ति या एक शरीर नहीं है। विभीषण याने अपने राजा (राजा भी कौन? अपना सगा बड़ा भाई) को अनीति पर चलने से, भरी सभा में टोकने-रोकने का साहस। विभीषण याने जगत् नियन्ता को विनय करने की सलाह देने का साहस। विभीषण याने नीति पर चलने के लिए, सामने मिल रहा राज-पाट छोड़ने का साहस। विभीषण याने राजा नहीं, राष्ट्र प्रथम के विचार को सम्पूर्ण नैतिकता से आत्मा में उतारना। 

विभीषण की तलाश बेकार है। अब तो आवश्यकता है, खुद विभीषण बनने की। नीति विभूषण विभीषण बनने की। 
-----

(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ ने आज अपने मुखपृष्ठ पर इसे सम्पादित रूप में छापा।)



खानदानी जमाइयों का ससुर

ये है हमारा लाला। लाला इसका असली नाम नहीं है। यह तो इसका ‘बोलता’, ‘घर का’ नाम है। वास्तविक नाम तो बृजभूषण शर्मा है। मकानों/भवनों की छतों पर ‘जल रोधी लेप’ लगाने (रूफ वाटरप्रूफिंग) का काम करता है। ईश्वर की कृपा से जरूरतें पूरी हो रहीं है। सो, पैसों के लिए जान नहीं झोंकता। सम्बन्धों को पूँजी मानता है इसलिए कभी-कभी घर में घाटा भी खा लेता। हर सीजन में कुछ लोग ‘आप तो अपनेवाले हो’ का वास्ता देकर भुगतान करने से हाथ जोड़ लेते हैं। लाला को घाटे का नहीं, सामनेवाले का, बात से पलट जाने का दुःख होता है। कहता है - ‘पैसा तो आनी-जानी चीज है। जितना तकदीर में होगा, उससे कम-ज्यादा नहीं होगा। नहीं देना था तो कोई बात नहीं। पर पहले ही बता देते! इस तरह झूठ बोलना अच्छी बात नहीं।’

लाला रतलाम रहता था। रतलाम में था तो इसने हमें अपने परिवार में शामिल कर रखा था। हमारा छोटा बेटा तथागत तो मानो इसकी ही गोद में बड़ा हुआ। इधर रात घिरती, उधर तथागत का दिन उगता। मेरी उत्तमार्द्धजी को नींद सताती। तब लाला ही तथागत को गोद में लिए, आधी-आधी रात तक हिलराता-दुलराता था। 

गए कई बरसों से लाला इन्दौरवासी हो गया है। लेकिन रतलाम से नाता नहीं टूटा। रतलाम आना-जाना बना रहता है। फर्क इतना पड़ा कि आने से पहले जाने का कार्यक्रम बना कर आता है। इसलिए हर बार मिलना नहीं हो पाता। जब कभी गुंजाइश होती है, मिलने घर जरूर आता है।

कल हम पति-पत्नी इन्दौर जाने के लिए भिण्ड एक्सप्रेस में बैठे तो लाला डिब्बे में मानो प्रकट हुआ। हम ‘सुखद आश्चर्य’ से उसकी शकल देखने लगे तो हँसते हुए बोला - ‘बैठने की जगह ढूँढ रहा था। आप दोनों पर नजर पड़ी तो तलाश खतम।’ उसने अपना झोला-झण्डा रखा और हम लोग रेल चलने से पहले ही बतियाने लगे।

मुझे लगा था, लाला धन्धे-पानी का कोई काम लेकर आया होगा। पूछने पर बोला - ‘नहीं। धन्धे-पानी का कोई काम नहीं था। आम के पौधे पहुँचाने आया था। हर बार तो सुबहवाली रेल से आ जाता हूँ। आज काम ज्यादा देर का नहीं था। इसलिए देर से आया और पौधे सौंप कर फटाफट स्टेशन आ गया। सुबह जल्दी आता तो मिलने घर पर जरूर आता।’ 

मुझे लगा, लाला ने नर्सरी का नया काम शुरु कर दिया है। घुमा-फिराकर पूछताछ करने लगा तो हँसकर बोला - ‘कोई नया धन्धा-वन्धा शुरु नहीं किया। अब क्या नया धन्धा शुरु करना? अभी जो काम है, उसी से फुरसत नहीं मिल रही।’ और उसके बाद जो कुछ उसने बताया वह सचमुच में तनिक अनूठा और अविश्वसनीय लगा। ‘अविश्वसनीय’ इसलिए कि जो उसने किया है, कर रहा है और इसे भविष्य में जारी रखने का इरादा जताया, उसके लिए हम सब उपदेश तो देते हैं लेकिन जब अपनी बारी आती है तो फौरन पल्ला छुड़ा लेते हैं।

लाला के आँगन में आम का एक पेड़ है। उस पर ‘मुरब्बा-आम’  आते हैं। मुरब्बा-आम याने जो खट्टे नहीं होते। उसके पड़ौसी सज्जन के आँगन में भी आम का एक पेड़ है। उस पर ‘केसर आम’ आते हैं। हर बरस की तरह इस बरस भी आम के मौसम में पक्षियों के खाये आम मिट्टी में गिरे। इस बरस बरसात कुछ अधिक ही हुई तो उनमें से कोई बीस-बाईस गुठलियाँ अंकुरित हो, पौधे बन गईं। ये पौधे आते-जाते लाला की आँखों में खुब गए। रतलाम के पास सैलाना में एक निजी वाटर पार्क की वाटरप्रूफिंग के लिए गया तो वहाँ खूब सारी खुली जमीन देखकर मालिक से पूछ बैठा - ‘मेरे पास आम के कुछ पौधे हैं। आप यहाँ लगाओ तो मैं ला दूँगा।’ मालिक ने कहा - ‘आपने तो मेरे मन की बात कह दी। फरक यही रहा कि मैं दो-चार महीने बाद पौधे लगाता। आपने आज ही कह दिया। आप पहुँचा दीजिएगा।’ उसी वाटर पार्क के लिए, आम के पाँच पौधे पहुँचाने के लिए लाला आज रतलाम आया था - गाँठ का रोकड़ा लगा कर और अपना कीमती समय निकाल कर। लाला ने इसके लिए सामनेवाले से धेला भी नहीं लिया। लाला ने कहा - ‘पौधे देखकर उनके चेहरे पर जो खुशी आई, वह देखकर मुझे तो मानो कुबेर का खजाना मिल गया भाई सा’ब!’

मुझे अच्छा तो लगा किन्तु अचरज भी हुआ। पूछा, ऐसा और भी कहीं किया है? लाला ने बताया कि दो जगह और उसने आम के पाँच-पाँच पौधे पहुँचाए हैं। इन्दौर में ही खण्डवा मार्ग स्थित आईटी पार्क में और हातोद स्थित, औद्योगिक केन्द्र विकास निगम के औद्योगिक परिसर में। ऐसा नही हुआ कि वह अपने किसी काम के लिए जा रहा था और पौधे भी साथ लिए चला गया। दोनों जगह वह केवल पौधे पहुँचाने के लिए अपना समय निकाल कर, भाड़े का वाहन लेकर गया। उसके पास अभी पाँच-सात पौधे और हैं जिनके लिए वह ‘सुपात्र’ देख रहा है। ‘सुपात्र’ याने वे सज्जन जो इन पौधों को लगाकर भूल न जाएँ।

यह सब सुनाते हुए लाला के चेहरे पर मानो होली के सारे रंग बरस रहे थे। उसकी खुशी अवर्णनीय थी। वह इस तरह सुना रहा था जैसे कोई बेटियों का बाप अपनी बेटियों को खानदानी हाथों में सौंपकर अपनी खुशी और निश्चिन्तता बयान कर रहा हो।

हम दोनों उसके चेहरे में देव-दर्शन कर रहे थे। उसे खूब-खूब बधाइयाँ दीं। हमारी हर बधाई पर वह संकुचित हो रहा था - ‘मैंने ऐसा क्या कर दिया कि आप मुझे बधाइयाँ दे रहे हैं। मैंने पौधे ही तो पहुँचाए हैं! और किया ही क्या है?’

लाला से विदा हुए लगभग चौबीस घण्टे होनेवाले हैं। उसके इस विनम्र जवाब का कोई जवाब मुझे अब तक नहीं सूझा है। आपके पास कोई जवाब हो (या आप उससे पौधे लेना चाहते हों) तो आप उससे मोबाइल नम्बर 96858 22767 पर बता दीजिएगा। जवाब या पौधे की जरूरत न भी हो तो एक अच्छा काम करनेवाले भले आदमी को बधाई देकर उसे उत्साहित तो आप कर ही सकते हैं।

पौधे विकसित करने और बाँटने का यह क्रम वह बनाए रखना चाह रहा है। मुमकिन है, अगले बरस वह दुगुने-तिगुने पौधे तैयार करे।
-----


‘मंगते से मिनिस्टर’ की अन्तर्कथा


दादा श्री बालकवि बैरागी के चाहनेवाले, प्रशंसक सचमुच में अनगिनत हैं। देश-विदेश में फैले इन आत्मीयों के पास दादा से जुड़े किस्से भी अनगिनत हैं। सबके अपने-अपने संस्मरण हैं जिनके जरिये वे समय-समय पर दादा के प्रति अपनी भावनाएँ व्यक्त करते रहते हैं। इन संस्मरणों, यादों के माध्यम से दादा के व्यक्तित्व और कृतित्व के  जाने-अनजाने पक्ष सामने आते रहते हैं।


इसी क्रम में दादा की आत्मकथा को लेकर विभिन्न जानकारियाँ सामने आ रही हैं। इनमें से अधिकांश जानकारियाँ या तो आधी-अधूरी हैं या सुनी-सुनाई।

कुछ ऐसी ही स्थिति मुझे श्रीयुत जयप्रकाशजी मानस की, 17 अक्टूबर 2019 की, ‘अपने दिनों को मैं कभी नहीं भूला’ शीर्षक पोस्ट में और पोस्ट पर आई श्री राजशेखरजी व्यास की टिप्पणी में नजर आई।

मानसजी की पोस्ट में उध्दृत ब्यौरों से ध्वनित होता है मानो मेरी माँ (मेरी माँ का नाम पोस्ट में दापू बाई लिखा है जो वास्तव में धापू बाई है) ने दादा को किसी प्रसंग या अवसर पर कटोरा भेंट किया जो दादा के लिए ‘बड़ी चीज’ और उनके जीवन का ‘पहला खिलौना’ था।

बातें तो सच हैं लेकिन ‘कहन’ के अन्तर ने समूचा चित्र बदल दिया। दादा ने विपन्नता के चरम को जीया। अपनी विपन्नता का उल्लेख वे कुछ इस तरह करते थे - ‘मेरी माँ ने मुझे सबसे पहला जो खिलौना दिया, वह था - भीख माँगने का कटोरा जो हमारे परिवार की आजीविका का साधन था।’ मुझे लगता है, मानसजी के पोस्ट के उद्धरण में और दादा की इस बात में यथेष्ट अर्थान्तर है।

इसी तरह इस उद्धरण में कहा गया है - ‘पिताजी द्वारकादासजी अपंग थे। माँ उन्हें लाठी के सहारे भीख माँगने निकलती थी। पिताजी सारंगी बहुत बढ़िया बजाते थे। वो बजाते, मैं और माँ गाते और घर-घर भीख माँगते।’ इस अंश में वर्णित सारे तथ्य सही हैं किन्तु उनकी प्रस्तुति सर्वथा काल्पनिक है। यह विवरण पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने चित्र बनने लगता है जिसमें एक अपंग आदमी, अपनी पत्नी का सहारा लिए, सारंगी बजा रहा है और उसकी पत्नी और बेटा गा-गा कर संगत करते हुए भीख माँग रहे हैं। ऐसा लगता है, किसी ने, विवरण को प्रभावी बनाने की सदाशयता से तथ्यों को अपनी कल्पना से एक सिलसिला दे दिया।

मेरे पिताजी सारंगी सचमुच में बहुत बढ़िया बजाते थे। मेरी माँ घर-घर जाकर रोटियाँ माँगती थी। कभी-कभी दादा भी उनके साथ जाते थे। लेकिन ये सारी बातें अलग-अलग समय पर, अलग-अलग घटती थीं। मनासा के कुछ कृपालु श्रेष्ठि परिवार अपनी धार्मिकता के अधीन मेरी माँ को रोटियाँ देते थे। ये घर गिनती के थे। माँ इन्हीं घरों पर जाकर रोटी माँगती थी। ये परिवार भी मेरी माँ की प्रतीक्षा करते थे और यथासम्भव गरम-गरम रोटी देने की कोशिश करते थे। पिताजी का सारंगी बजाना और मेरी माँ का भीख माँगना सर्वथा भिन्न-भिन्न सन्दर्भों की, भिन्न-भिन्न बातें हैं। पिताजी ने सारंगी वादन कस्बे के संगीत जलसों में और मन्दिरों में किया। मौज में आकर, घर के बाहर चबूतरे पर बैठकर प्रायः ही सारंगी बजाया करते थे। सड़कों पर कभी भी सारंगी वादन नहीं किया। भीख माँगने के निमित्त तो कभी नहीं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि भीख माँगने के लिए ये तीनों कभी एक साथ निकले हों।

नवीं कक्षा की पढ़ाई के लिए दादा, रामपुरा में भर्ती हुए थे। मनासा-रामपुरा की दूरी, जैसाकि मानसजी की पोस्ट में बताया गया है, 20 मील, याने कि 32 किलो मीटर है। दादा के पास बस किराए के पैसे कभी नहीं रहे। वे प्रति सोमवार सुबह रामपुरा के लिए पैदल निकलते और प्रति शनिवार रामपुरा से मनासा के लिए पैदल लौटते। इस पदयात्रा के दौरान भीख माँगने की बात सही नहीं है।

दादा 1967 में विधायक और 1969 में राज्य मन्त्री बने। उससे काफी पहले, दादा ने माँ का रोटियाँ माँगना छुड़वा दिया था। इसके लिए दादा को घर और बाहर, दोनों स्तर पर संघर्ष करना पड़ा। माँ रोटी माँगना छोड़ना चाहती थी लेकिन पिताजी इसे हमारे परिवार का धर्म मानते थे। दादा को सचमुच में धरना देना पड़ा था। लेकिन जिन घरों से माँ रोटियाँ माँग कर लाती थी, उन श्रेष्ठि परिवारों ने भी दादा पर दबाव बनाया। कहा कि दादा उन्हें धर्मपालन करने और पुण्य लाभ अर्जित करने से वंचित कर रहे हैं। तब दादा ने जो जवाब दिया था, उसका कोई उत्तर उन परिवारों के पास नहीं था। दादा ने कहा था कि यदि वे सचमुच में धर्मपालन कर पुण्य अर्जित करना चाहते हैं तो वे सब हमारे घर आकर रोटियाँ दे जाएँ। 

इसके बाद से माँ का रोटी माँगना बन्द हो गया। मुझे खूब अच्छी तरह याद है, उस दिन मेरी माँ बिलख-बिलख कर रोई थी। बड़ी देर तक रोती रही थी। उसके आँसू थम नहीं रहे थे और हिचकियाँ बन्द नहीं हो रही थीं। उस दिन मेरी माँ ने दादा को एक-एक पल में हजारों-हजारों बार असीसा था। बार-बार कह रही थी - ‘नन्दा! तूने मेरा जनम सुधार दिया।’ इस समय जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तब मेरी आँखे बह रही हैं। टाइप करने में मुझे बहुत ज्याद असुविधा और तकलीफ हो रही है।

मानसजी द्वारा उद्धृत आलेख की  यह सूचना भी सही नहीं हैं कि दादा के सांसद बनने के बाद भी मेरी माँ पड़ोसियों के यहाँ अनाज बीनती थी। दादा ने माँ को सारे कामों से मुक्ति दिला दी थी। घर के दैनन्दिन कामों के सिवाय माँ को कोई काम नहीं रह गया था। वस्तुतः विधायक बनने के कुछ बरस पहले से ही दादा ने (कवि सम्मेलनों की आय से) आय-कर चुकाना शुरु कर दिया।

यह बात बिलकुल सच है कि दादा अपने कपड़े नहीं खरीदते थे। मंच हो या निजी चर्चाएँ, दादा इस बात का उल्लेख करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। दादा की इस मनःस्थिति की जानकारी सार्वजनिक हो चुकी थी जिसके चलते उनके चाहनेवाले, दादा के माँगे बिना ही उन्हें खादी खरीद कर देने लगे थे। लेकिन जब भी उन्हें कपड़ों की आवश्यकता होती वे निस्संकोच माँग लेते थे। लोग पूछते थे - ‘आप ऐसा क्यों करते हैं?’ दादा ठहाका लगा कर जवाब देते - ‘इससे मेरा दिमाग दुरुस्त रहता है।’ 

राजशेखरजी की यह जानकारी सही नहीं है कि दादा ने अपनी आत्म-कथा नहीं लिखी। सच तो यह है कि राजशेखरजी की इस टिप्पणी ने मुझे विस्मित किया। राजशेखरजी का जिक्र दादा के मुँह मैंने अनेक बार सुना है। जिस आत्मीयता और प्रेम भाव से वे राजशेखरजी का जिक्र करते थे उससे मेरी यह धारणा इस क्षण भी बनी हुई है कि राजशेखरजी दादा के ‘प्रियात्मन’ रहे हैं।

दादा ने अपनी आत्म-कथा लिखी थी। उसका शीर्षक ‘मंगते से मिनिस्टर’ भी उन्होंने ही दिया था। मैं उनकी आत्म-कथा लेखन का साक्षी रहा हूँ। दादा ने अपनी यह आत्म-कथा बिना किसी कागजी तैयारी के लिखी थी। वे टाइप रायटर पर कागज चढ़ाते और शुरु हो जाते। वे इस तरह टाइप करते मानो सब कुछ उन्हें मुँह जबानी याद हो। इसके लिए उन्होंने कभी ‘रफ वर्क’ नहीं किया, टिप्पणियाँ याकि नोट्स नहीं लिखे। टाइप करने के बाद उसे जाँचते और आवश्यक होने पर हाथ से सुधार करते। लेकिन ऐसे सुधार भी नाम मात्र के ही होते।

यह आत्म-कथा उन्होंने राइस पेपर पर, चार प्रतियों में टाइप की थी। पंचशील प्रिण्टिंग प्रेस के मालिक बापू दादा जैन ने उसकी नीले रंग की क्लाथ बाइण्डिंग कराई थी। ठीक-पृष्ठ संख्या तो मुझे अब याद नहीं किन्तु अच्छी-खासी, मोटी पाण्डुलिपि थी। मैं अनुमान करता हूँ कि ढाई सौ पृष्ठ तो रहे ही होंगे।

उनकी प्रबल इच्छा तो थी कि उनकी आत्म-कथा प्रकाशित हो। किन्तु प्रकाशकों के चक्कर काटना उनकी प्रकृति में नहीं था। उनके मित्रों ने ही इसके लिए कोशिशें की। कम से कम तीन प्रकाशकों से उनकी बात हुई। इन तीनों मुलाकातों का मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ। यह संयोग ही था कि तीनों को ‘मंगते से मिनस्टिर’ के वे अंश असुविधाजनक लगे थे जिनमें दादा ने डी. पी. मिश्रा सरकार गिराने के लिए श्रीमती विजयालक्ष्मी सिन्धिया की भूमिका का ब्यौरा बहुत बारीकी से और बहुत विस्तार से दिया था। प्रकाशकों का कहना था कि ये ब्यौरे मानहानि के दायरे में आ सकते हैं और यदि श्रीमती सिन्धिया ने मुकदमा लगा दिया तो उनकी (प्रकाशकों की) मुश्किल हो जाएगी। वे इस ब्यौरे को निकलवाना चाहते थे। लेकिन दादा ने हर बार इंकार कर दिया और कहा कि किताब यदि छपेगी तो इसी मूल स्वरूप में छपेगी। फलस्वरूप किताब छपी ही नहीं। यह शायद ऐसी बिरली किताब होगी जो छपी तो नहीं लेकिन जिसका जिक्र व्यापक स्तर पर इस तरह हुआ मानो छप गई हो और लोगों ने पढ़ ली हो। बहुत बाद में दादा ने इसी शीर्षक से एक लेख जरूर लिखा था लेकिन मानसजी की पोस्ट में उद्धृत आलेख, दादा के उस लेख का हिस्सा नहीं है।

राजशेखरजी की यह बात सौ टका सही है कि दादा ने इसका दूसरा भाग लिखने से पहले ही इसका नामकरण ‘मन्त्री से मनुष्य’ कर दिया था। यह किताब लिखी ही नहीं गई।

प्रेमी लोग दादा को जिस श्रद्धा और आदर-भाव से याद करते हैं वह देख-देख कर मैं हर बार विगलित होता हूँ और इन सबको प्रणाम करने के लिए मेरे हाथ अपने-आप जुड़ जाते हैं, माथा झुक जाता है। यह सब देख-देख कर मुझे प्रायः ही लगता है हम लोग तो केवल कहने भर को दादा के परिजन हैं। वास्तविक परिजन तो वे ही हैं जो निस्वार्थ भाव से, आदर-श्रद्धा से दादा को अपने अन्तर्मन से याद करते हैं। हमसे पहले वे ही दादा के परिजन हैं और  दादा पर पहला हक उन्हीं का है हमसे बहुत पहले।

-----

शपथपूर्वक खादी न पहननेवाला काँग्रेसी

जहाँ तक मेरी जानकारी है, काँग्रेस सदस्यता दो श्रेणियों की
होती है। पहली, साधारण सदस्यता और दूसरी सक्रिय सदस्यता। इन दिनों का चलन तो मुझे पता नहीं लेकिन पुराने जमाने में सक्रिय सदस्य वही बन सकता था जो कम से कम पचीस साधारण सदस्य बनाए। सक्रिय सदस्य ही पदाधिकारी बन सकता था। सक्रिय सदस्यता की शर्तों में एक शर्त होती थी - अनिवार्यतः खादी ही पहनना।

इस चित्र में मैं जिनके साथ नजर आ रहा हूँ वे हैं श्री कृष्ण कुमार मिश्रा जिन्हें के. के. मिश्रा के नाम से ज्यादा जाना जाता है। ये उन काँग्रेसियों में शरीक हैं जिन्हें आपातकाल में गिरफ्तार कर जेल में रखा गया था। मेरी जानकारी के अनुसार ये इन दिनों मध्य प्रदेश काँग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता हैं। लेकिन इतने बड़े पदाधिकारी होने के बावजूद ये खादी नहीं पहनते। वस्तुतः इन्होंने खादी न पहनने की सौगन्ध ले रखी है। 

खादी न पहनने की सौगन्ध लेने की कहानी खुद मिश्राजी ने ही बताई और वह भी एक सार्वजनिक आयोजन में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए। बा-बापू के 150वें जन्म वर्ष के सन्दर्भ में इन्दौर की सुपरिचित, 60 वर्ष पुरानी प्रतिष्ठित संस्था ‘अभ्यास मण्डल’ ने पाँच अक्टूबर को एक आयोजन किया था। इसमें मैं भी एक वक्ता के रूप में आमन्त्रित था। वहीं मिश्राजी से यह किस्सा सुना।

जेल में मिश्राजी को ‘ए श्रेणी’ मिली हुई थी। इन्दौर का एक कुख्यात अपराधी, ए श्रेणी के इन बन्दियों की सेवा में तैनात किया गया था। परस्पर परिचय तो पहले से ही था लेकिन जेल में यह परिचय तनिक प्रगाढ़ता में बदल गया। वह बदमाश निष्ठा और प्रेम भाव से इन राजनीतिक बन्दियों की सेवा करता था।

सजा पूरी कर मिश्राजी बाहर आए। वे नियमित रूप से एक हनुमान मन्दिर पर दर्शन करने जाया करते थे। एक सुबह मिश्राजी ने हनुमान -प्रार्थना कर आँखें खोलीं तो उस कुख्यात बदमाश को अपने पाँव छूते पाया। मिश्राजी ने उसे आशीर्वाद दिया। जेल में की गई उसकी सेवा और भलमनसाहतभरे व्यवहार से मिश्राजी उससे प्रभावित और खुश थे ही। उसे अच्छा नागरिक बनाने में मदद करने की भावना से मिश्राजी ने कहा - ‘जिला उद्योग केन्द्र के मेनेजर जैन साहब मेरे दोस्त हैं। मेरे साथ चलना। तुम्हें बीस-पचीस हजार का लोन जाएगा। अपना कोई काम-धन्धा शुरु कर लेना और भले आदमी की जिन्दगी जीना।’

सुनकर वह नामी बदमाश खुश हुआ। उसने हाथ जोड़कर और माथा झुकाकर मिश्राजी को धन्यवाद दिया और तसल्ली भरे स्वरों में बोला - ‘आपकी मेहरबानी है दादा। मुझ पर जो मुकदमे चल रहे थे उनमें से एक को छोड़ कर बाकी सब में बाइज्जत बरी हो गया हूँ। एक जो बचा है, उसमें में भी बरी हो ही जाऊँगा क्योंकि मेरे खिलाफ गवाही देने की हिम्मत कोई नहीं करेगा। अब मैंने पोलिटिक्स को ही पेशा बनाने का फैसला कर लिया है। आप देख ही रहे हो, मैंने समाजसेवा की वर्दी पहन ली है। अब मुझे लोन की जरूरत नहीं है।’ 

बदमाश का जवाब सुना तो मिश्राजी का ध्यान उसके कपड़ों पर गया। वह सफेद झक्क खादी का, कलफदार कुर्ता-पायजामा पहने हुए था। मंच से बोलते हुए मिश्राजी ने कहा - “मैं हक्का-बक्का रह गया। मुझसे बोलते नहीं बना। मुझे कुछ नहीं सूझा। वह एक बार फिर मेरे पैर छू कर चला गया। मैं उसे जाते हुए देखता रहा। उसके जाते ही मेरे मन में पहली बात आई - ‘चाहे जो हो जाए, मैं कभी खादी नहीं पहनूँगा।’ और मैंने हनुमान-साक्षी में, कभी खादी न पहनने की सौगन्ध ले ली।”

वह दिन और आज का दिन, मिश्राजी ने खादी की तरफ देखा ही नहीं।
-----

भगवान हे तो कई छाती पर पड़े!

रामलीला का यह किस्सा मेरे गृहनगर मनासा का ही है।

गाँधी चौक में बने छोटे से मंच को, लकड़ी के तख्तों से विस्तारित किया गया था। उस रात लक्ष्मण-मूर्छा और हनुमान द्वारा संजीवनी बूटी लाने का प्रसंग मंचित होना था। मंच के सामने, बाँयी ओर, कोई तीस-पैंतीस फीट दूरी पर स्थित हरिवल्लभजी झँवर की दुकान के बाहर नीम का ऊँचा, घना पेड़ था। (आश करता हूँ कि अब भी हो।) उत्साही कार्यकर्ताओं ने तय किया कि संजीवनी बूटी लेकर हनुमानजी को इस पेड़ से सीधे मंच पर उतारा जाए। 

योजना पर बारीकी से विचार किया गया। कलाकार की सुरक्षा सुनिश्चित की गई। खूब मोटा रस्सा तलाश कर एक छोर नीम की मजबूत डाली से और दूसरा छोर मंच के आगे वाले बड़े तख्ते के पाये से बाँध गया। हनुमान बने कलाकार के सीने पर ट्रक (के पहिये) की ट्यूब दुहरी-तिहरी कर बाँधी गई। कलाकार को एक हाथ में पहाड़ की प्रतिकृति और दूसरे में गदा लेकर,  हवा में तैरते हुए, सीधे मंच पर आना था। इसलिए सन्तुलन और दिशा बनाए रखने के लिए मोटे पटियों पर रस्सी की मोटाई से अधिक गहरी नाली बनाई गई और रस्से से उसकी पकड़ न फिसलने के कड़े उपाय किए गए। कार्यकर्ताओं, कारीगरों और खुद अभिनेता ने सारे इन्तजाम देखे-भाले। छोटे से छोटे सन्देह को निर्मूल किया गया। 

उन दिनों रामलीला में प्रस्तुत किए जानेवाले प्रसंगों का प्रचार करने के लिए मध्य पंक्ति के दो-चार अभिनेता विभिन्न स्वांग धर कर, प्रत्येक शाम पूरे कस्बे में घूम कर मुनादी किया करते थे। उस रात चूँकि अनूठा उपक्रम था, तो उसका विशेष प्रचार किया गया - ‘संजीवनी बूटी लेकर आकाश से उतरते हनुमानजी को देखिए।’ प्रचार ने उत्सुकता बढ़ाई। परिणामस्वरूप उस दिन दर्शकों की संख्या सामान्य दिनों से अधिक ही थी।

मंच के सामने की खुली जगह, रस्सी की सहायता से दो हिस्सों में बाँट दी गई थी - एक ओर पुरुष, दूसरी ओर स्त्रियाँ। स्त्रियोंवाला भाग झँवर सेठ की दुकान की तरफ था। रामलीला के कार्यकर्ता अतिरिक्त उत्साहित थे तो दर्शक अत्यधिक अधीर और जिज्ञासु। सब प्रतीक्षा कर रहे थे - कब लक्ष्मण मूर्छित हों और कब हनुमानजी संजीवनी बूटी लेकर आकाश मार्ग से उतरें।

रामलीला शुरु हुई। एक के बाद एक प्रसंग आने लगे। और लक्ष्मण के मूर्छित होने का क्षण आ गया। लक्ष्मण मूर्छित हुए। वैद्य सुशेन आए और घोषणा की - ‘इन्हें संजीवनी बूटी से जीवन मिल सकता है।’ तयशुदा संवाद हुए और हनुमानजी ‘जय श्रीराम!’ का उद्घोष कर संजीवनी बूटी लेने रवाना हुए।

हनुमानजी के रवाना होते ही भगवान रामजी ने ‘हा! लक्ष्मण! हा!! लक्ष्मण!! विलाप शुरु कर दिया। साजिन्दों और गायकों ने ‘न जाने किसने बिलमाए, पवनसुत अब तक नहीं आए’ गीत शुरु कर दिया। गीत के दौरान,  हनुमान बने कलाकार को झँवर सेठ की दुकान के पतरों पर चढ़ा दिया गया। कलाकार ने नीम के पेड़ पर जाकर सारे इन्तजामों के मुताबिक खुद को तैयार किया कर ‘सिग्नल’ दिया और मंच से इशारा पाकर रस्से के सहारे मंच की ओर, नीचे सरकना शुरु किया। दर्शकों में उत्तेजना भरी प्रसन्नता छा गई। लोग तालियाँ बजाने लगे और जै-जैकार लगाने लगे। 

कलाकार ने लगभग आधी दूरी पार की और रुक गया। रुक कर उसने जोर से ‘जय श्रीराम’ की हुँकार भरी। नीचे बैठे लोग साँसें रोक कर हनुमानजी को देख रहे थे और प्रतीक्षा कर रहे थे कि हनुमानजी ‘सर्र ऽ र ऽ र्र’ से, तेजी से मंच तक आएँ। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा था। कलाकार आधे रास्ते रुक ‘जय श्रीराम’ की हुँकार किए जा रहा था।

हनुमानजी के इस तरह रुकने को लीला का हिस्सा समझा जा रहा था। नीचे लोग जैकारे लगाए जा रहे थे और ऊपर, अधर में ठहरा कलाकार ‘जय श्रीराम’ हुँकार-हुँकार कर नीचे आने की कोशिश कर रहा था। कुछ ही पलों में उसने हुँकारे लगाने बन्द कर दिए और घबराहट में तेजी से हाथ-पाँव मारने लगा। 

कुछ ही क्षणों में सबको समझ में आ गया कि ‘हनुमानजी’ फँस गए हैं। कार्यकर्ताओं को समझने में देर नहीं लगी कि व्यवस्था गड़बड़ा गई है। तीन-चार कार्यकर्ता झँवर सेठ की दुकान की ओर दौड़े। इधर, यह जानकर कि ‘हनुमानजी’ अधर में अटक गए हैं, दर्शक समुदाय ‘जामवन्त’ की तरह ‘हनुमानजी’ को उनकी शक्ति-सामर्थ्य की याद दिलाने के लिए जोर-जोर से ‘बजरंग बली की जय!’, ‘पवन पुत्र हनुमान की जय!’, ‘जय बजरंग बली, तोड़ दे दुश्मन की नली!’ जैसे जैकारे लगा-लगा कर हनुमानजी का उत्साहवर्धन कर रहा था। मंच पर चल रहा रामजी का विलाप और साजिन्दों-गायकों का गीत इस कोलाहल कहीं सुनाई नहीं दे रहा था। वातावरण में रोमांच और उत्तेजना अपने चरम पर थे। नीचे से कानफोड़ू जैकारे और ऊपर, उलझन से बचने के लिए छटपटाता, हाथ-पैर मार रहा कलाकार। उधर, कार्यकर्ता नीम के पेड़ पर चढ़ चुके थे। उन्होंने रस्सा हिला कर ‘हनुमानजी’ को गतिवान बनाने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुए। 

कार्यकर्ताओं को समझ में आ गया कि कलाकार का पूर्व नियोजित तरीके से मंच तक पहुँचना सम्भव नहीं है। उन्होंने अपनी बुद्धि और विवेकानुसार निर्णय लिया और रस्सा काट दिया। रस्सा कटते ही हनुमान बना कलाकार, लगभग बीस फीट की ऊँचाई से,  धड़ाम् से, घुटनों और कोहनियों के बल, महिला दर्शकों वाले हिस्से में गिर पड़़ा। ‘हनुमानजी’ के गिरते ही महिलाओं में चीख-पुकार और भगदड़ मच गई। जो महिलाएँ थोड़ी ही देर पहले हाथ जोड़ कर, श्रद्धा भाव से, हनुमानजी के जैकारे लगा रही थीं वे अब ‘अरे! अरे! हट्! हट्! कई करे हे! दूरो रे!’ (अरे! हट! क्या करता है! दूर रह।) कह-कह कर ‘हनुमानजी’ को धकेल रही थीं। कलाकार गिनती की महिलाओं के बीच गिरा था। जो महिलाएँ अप्रभावित रहीं उनमें से कुछ ने इन महिलाओं को समझाने की कोशिश की - ‘अरे! यूँ कई करो हो दरी! ई तो आपणा हड़ुमानजी हे! आपणा भगवान हे!’ (अरे! ये क्या कर रही हो? ये तो अपने हनुमानजी हैं। अपने भगवान हैं।) समझाइश सुनकर प्रभावित महिलाओं में से एक, चिहुँक कर बोली - ‘भगवान हे तो अणीको मतलब कई छाती पर पड़े? भगवान हे तो भगवान की तरे रे।’ (भगवान है तो इसका मतलब क्या कि छाती पर आ गिरे? अरे! भगवान हैं तो भगवान की तरह रहें।) इधर महिलाएँ हनुमान बने कलाकार को दुरदुरा रही थीं उधर बेचारा कलाकार, कराहता हुआ, सहायता की आशा में अपने आसपास देखता हुआ, अपने लहू-लुहान घुटनों और कोहनियों को सहला रहा था। 

इसके बाद क्या हुआ होगा - हनुमानजी संजीवनी लेकर सीधे मंच पर पहुँचे या नहीं? रामजी ने पवन-पुत्र की अगवानी की या नहीं? लक्ष्मणजी मूर्छा से बाहर आए या नहीं? उस दिन की लीला के शेष  प्रसंग पूरे हुए या नहीं? इन (और ऐसे) सारे सवालों के जवाब आप खुद ही खुद से माँग लीजिए। बस! इस बात से खुश हो जाइए कि हनुमान बने कलाकार को कोई फ्रेक्चर नहीं हुआ। मामूली मरहम-पट्टी से काम चल गया। हाँ, रामलीला की शेष अवधि में वह दर्शक-कलाकार की भूमिका ही निभा सका।
-----

यह पोस्ट लिखी ही थी कि न्यूनाधिक ऐसी ही घटनावाला यह वीडियो नजरों से गुजरा। 

छपे हरफों पर कुदरत की जीत

यह किस्सा रामलीला से जुड़ा हुआ नहीं है। लेकिन यदि
रामलीला  प्रयोजन नहीं होती तो हास-परिहास का यह प्रकरण भी नहीं बनता।

मनासा के पंजाबी समाज द्वारा आयोजित रामलीला का संक्षिप्त ब्यौरा मैं अपनी इस पोस्ट में दे चुका हूँ। हायर सेकेण्डरी पास करने के बाद जब मैंने मनासा छोड़ा, उन अन्तिम वर्षों में एक छोटा सा परिवर्धन रामलीला आयोजन में हुआ था। मनासा के कुछ प्रबुद्ध लोगों के सुझाव पर पंजाबी समाज ने रामलीला अवधि में कोई एक सामाजिक नाटक खेलने की सहमति दे दी थी। ऐसे ही एक नाटक के पूर्वाभ्यास के दौरान हास्य की यह छोटी सी फुलझड़ी छूटी थी।

अब मुझे नाटक का नाम उसकी विषय वस्तु याद नहीं। नाटक के निर्देशक थे श्री रामगोपालजी पांचाल। वे हमारे स्कूल के ग्रन्थपाल (लायब्रेरीयन) थे। वे हम सबके ‘पांचाल सर’ थे। वे सुरुचिसम्पन्न कलाप्रेमी थे। चूँकि ग्रन्थपाल थे तो किताबें तो उनकी अनिवार्य सहचरी थीं ही। यह वह समय था जब विद्यार्थी स्वेच्छा से, उत्साहपूर्वक लायब्रेरी में जाया करते थे। हम बच्चों में किताबें इश्यू कराने की होड़ लगी रहती थीं। मैं और जमनालाल राठौर अपनी कक्षा के ऐसे विद्यार्थियों थे जो अपने पाठ्यक्रम के विषयों से अलग हटकर, साहित्यिक किस्म की किताबें इश्यू कराते थे। इस कारण हम लोगों पर पांचाल सर की नजर बनी रहती थी। लायब्रेरी में मौजूद नाटकों की सारी किताबों की, उनमें संग्रहित नाटकों की और नाटकों की विषय वस्तु की जानकारी उनके जिह्वाग्र पर रहती थी। रामलीला में मेरी भागीदारी की जानकारी उन्हें रहती ही थी। उन्होंने एकाधिक बार मुझे कहा कि मैं पंजाबी समाज के लोगों को सामाजिक नाटक मंचित करने के लिए कहूँ। मैंने हर बार हाँ तो भरी लेकिन पंजाबी समाज के लोगों से कहने की हिम्मत कभी नहीं हुई। मुझसे निराश होकर पांचाल सर ने अपने स्तर पर ही सम्पर्क कर इस दिशा में प्रयास किए और सफलता पाई। पांचाल सर को निर्देशन का ज्ञान तो था ही, वे अच्छे चित्रकार और मेक-अप आर्टिस्ट भी थे। लिहाजा, नाटक चयन, निर्देशन और मेक-अप की जिम्मेदारी उन्हें अपने आप ही मिल गई।

पांचाल सर ने नाटक चुना। उनका चुनाव पहला और अन्तिम था। कलाकार मुख्यतः पंजाबी समाज के लोग ही होने थे। पांचाल सर ने कलाकारों का चुनाव किया। आठ-दस हजार की आबादीवाले कस्बे में नाटक की स्क्रिप्ट टाइप करवाना उन दिनों हिमालय चढ़ाई से कम कठिन नहीं था। सो, तीन-तीन, चार-चार कलाकारों के बीच स्क्रिप्ट की एक-एक प्रति साझा की गई।

कलाकारों में एक कलाकार थे रूपचन्दजी। उनका पूरा नाम तो रूपचन्द ग्रोवर था लेकिन पूरा कस्बा उन्हें रूपचन्दजी पंजाबी ही कहता-पुकारता था। रूपचन्दजी अपने भाई गणेशदासजी के साथ मनिहारी सामान की दुकान चलाते थे। वे परिहास प्रिय, बहुत कम बोलनेवाले आदमी थे। पंजाबी समाज की सीमाएँ लाँघ कर कस्बे की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में खूब सक्रिय थे। रोजमर्रा की छोटी-छोटी, सामान्य बातों में परिहास तलाश लेने की अद्भुत-अनूठी प्रतिभा के धनी थे। उनके पास बैठने का मतलब होता था, हँसते रहना और हँसते-हँसते लौटना। उनकी एक और विशेषता थी - उनके मित्रों में बच्चे से लेकर बूढ़े तक शरीक होते थे। एक ही परिवार की तीन पीढ़ियाँ उनकी समान मित्र होती थीं। उनसे बात करते हुए आयु का अन्तर शून्य हो जाता था। बात करनेवाले को लगता था, वह किसी हम उम्र से ही बात कर रहा है। 

पांचाल सर उत्साह से लबालब थे।  रिहर्सलें शुरु करने से पहले उन्होंने सारे कलाकारों की बैठक ली। अपनी बात, अपनी अपेक्षाएँ, बरती जानेवाली सावधानियाँ, रिहर्सल के दौरान अनुशासन आदि के बारे में  विस्तार से समझाया। 

रिहर्सलें शुरु हुईं। नाटकों के नाम पर मनासा में अब तक स्कूली नाटक ही होते थे। सार्वजनिक स्तर पर बड़े फलकवाला यह पहला नाटक था। शुरुआती, छोटी-छोटी मुश्किलों से उबरते हुए नाटक आकार लेने लगा। लेकिन एक जगह गाड़ी बार-बार अटकने लगी। रूपचन्दजी की पृष्ठभूमि उर्दू की थी और नाटक था शुद्ध हिन्दी का। उर्दू जबान में आधे स, ष (स् , ष्) का उपयोग सामान्यतः नहीं होता। उर्दू भाषी ‘सुस्पष्ट’ को ‘सुसपष्ट’, ‘कृष्ण’ को ‘किशन’ उच्चारते हैं। ऐसे प्रत्येक शब्द पर कठिनाई आने लगी। पांचाल सर ने कुछ शब्द तो बदले लेकिन ‘स्टेशन’ को बदल पाना उनके लिए सम्भव नहीं हुआ। रूपचन्दजी के एक संवाद में ‘स्टेशन’ शब्द आता था। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि उनका संवाद था - ‘तू स्टेशन पहुँच। मैं थोड़ी देर में आता हूँ।’ संवाद तो रूपचन्दजी को याद था लेकिन वे ‘स्टेशन’ नहीं बोल पा रहे थे। हर बार ‘सटेशन’ ही बोल रहे थे।

पांचाल सर ने दो-एक दिन तो ‘रूपचन्दजी! स्टेशन बोलने की प्रेक्टिस करो।’ कहा। लेकिन जैसे-जैसे मंचन का दिन पास आ रहा था, वैसे-वैसे पांचाल सर का ध्यान ‘स्टेशन’ पर ही केन्द्रित होने लगा। एक दिन वे मानो अड़ गए - ‘रूपचन्दजी से स्टेशन बुलवा कर ही मानूँगा।’ अब हालत यह कि रूपचन्दजी ‘सटेशन’ बोलें और पांचाल सर अड़े हुए - ‘स्टेशन बोलो।’ एक बार, दो बार, तीन बार, न जाने कितनी बार यही होता रहा कि रूपचन्दजी ‘सटेशन’ बोलें और पांचाल सर फौरन टोक कर ‘स्टेशन’ बोलने की कहें। रिहर्सल की रेल ‘सटेशन’ और ‘स्टेशन’ के बीच रुक गई। 

बीस-पचीस मिनिट हो गए। कमरे में मौजूद सारे कलाकार, पंजाबी समाज के लोग हैरान-परेशान। सबके चेहरों पर झुंझलाहट, बेचैनी और अधीरता छाई हुई। उधर पांचाल सर और रूपचन्दजी, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के ‘दो बाँके’ बने दम ठोक रहे थे - 

‘बोलो स्टेशन।’ 

‘सटेशन।’ 

‘मैं स्टेशन बुलवा कर रहूँगा।’ 

‘दम हो तो बुलवा कर देख लो।’

‘...................।’

‘...................।’

पांचाल सर झुंझला रहे लेकिन रूपचन्दजी पर कोई असर नहीं। वे शान्त भाव और निर्विकार मुद्रा में ‘सटेशन-सटेशन’ कह रहे। आखिकार पांचाल सर का धीरज छूट गया।  तनिक जोर से बोले - ‘यार रूपचन्दजी! स्टेशन बोलने में क्या तकलीफ है?’   

बच्चों जैसी मासूमियत और मिश्री मिली सौंफ की ठण्डाई जैसी ठण्डी-मीठी आवाज में रूपचन्दजी बोले - ‘देखो पांचाल सा’ब! आपकी बात मैं समझ रहा हूँ लेकिन मेरी बात आप नहीं समझ रहे। आप जैसा सटेशन मुझसे बुलवाना चाह रहे हो वैसा सटेशन मैं बाल नहीं पाऊँगा। जोर लगा कर और ध्यान रखकर यहाँ भले ही मैं वो ही बोल लूँ जो आप कह रहे हो। लेकिन वहाँ, सटेज पर तो मेरे मुँह से सटेशन ही निकलेगा। अब बोलो! क्या करना?’

रूपचन्दजी का यह कहना हुआ कि कमरा ठहाकों से गूँज उठा। पांचाल सर पल भर को तो सकपकाए लेकिन अगले ही वे भी ठहाके लगा रहे थे।

पांचाल सर की उलझन दूर हो चुकी थी। थोड़ी देर में सब सहज हुए तो पांचाल सर बोले - ‘ठीक है रूपचन्दजी! आप जीते, मैं हारा। मैं किताब में छपे हरफों पर जोर दे रहा था और आप कुदरत का कहा मान रहे थे। चलिए! एक रिहर्सल और कर लेते हैं।’

इस बार की रिहर्सल तसल्ली के सटेशन पर पहुँच कर ही थमी।
-----



रूपचन्दजी के ये फोटू उनके बेटे हरभगवान ने उपलब्ध करवाए। मैं और अच्छा फोटू चाहता था। हरभगवान ने अपने स्तर पर भरसक कोशिशें भी कीं। किन्तु हमें इन्हीं फोटुओं से सन्तोष करना पड़ा। हरभगवान और मैं कक्षापाठी हैं।     

आखिरी उम्र में सुधार

सीखने और सुधरने की कोई उम्र नहीं होती। यह बात कल, 02 अक्टूबर 2019 को मुझ पर लागू हो गई।

02 अक्टूबर जलजजी (डॉक्टर जयकुमारजी जलज) की जन्म तारीख है। कल वे 85 वर्ष के हो गए। उनके प्रति अपनी शुभ-कामनाएँ, सद्भावनाएँ प्रकट कर उन्हें बधाइयाँ देने, उनका अभिनन्दन करने के लिए हम कुछ लोग उनके निवास पर पहुँचे। जलजजी का कमरा, उनके मन जैसा बड़ा नहीं है। फलस्वरूप, उनका कमरा छोटा पड़ गया। हम कोई बीस-बाईस लोग थे। मेरे सिवाय बाकी सब, जलजजी के लिए ‘कुछ न कुछ’ लेकर पहुँचे थे। सब पहले जलजजी के पाँव पड़े और फिर टूट पड़े, अपना ‘कुछ न कुछ’ उन्हें अर्पित करने। ‘सबसे पहले मैं’ की होड़ लग गई। लगा, कमरे की दीवारें चार-चार फीट पीछे सरक जाएँगी। मैं बाहर निकल, आँगन में आ खड़ा हुआ। कुछ देर बाद कुछ लोग और बाहर आ गए। इनमें चाँदनीवालाजी, सूबेदारसिंहजी भी थे। बाहर खड़े हम सब फुरसत में थे। बिना बात की बात चल पड़ी। एक आवाज आई - ‘पता नहीं क्यों जलजजी ने ललितपुर की बजाय रतलाम पसन्द किया?’ जलजजी मूलतः ललितपुर (उत्तर प्रदेश) के ही हैं। सवाल मुझे समझ में नहीं आया। मैंने प्रतिप्रश्न किया - ‘क्यों ललितपुर में क्या खास बात है?’ जवाब दिया सूबेदारसिंहजी ने - ‘है ना खास बात! आपने वह कहावत नहीं सुनी?’ ‘कौन सी कहावत?’ मैंने पूछा। सूबेदारसिंहजी ने कहावत सुनाई -

झाँसी गले ही फाँसी,
दतिया गले का हार।
ललितपुर ना छोड़िए,
जब तक मिले उधार।।

सुनते ही मैंने कहा - ‘आप गलत कह रहे हैं। सही कहावत यह है -

झाँसी गले की फाँसी,
दतिया गले का हार।
लश्कर कभी ना छोड़िए,
जब तक मिले उधार।।’

मेरा यह कहना था कि एक के बाद एक कई लोग मुझ पर टूट पड़े। सूबेदारसिंहजी की जड़ें उत्तर प्रदेश में हैं। चाँदनीवालाजी दो बरस ललितपुर रह चुके हैं। कुछ और लोग ऐसे थे जो मूलतः उत्तर प्रदेश से थे। 

जलजजी का जन्मोत्सव तो एक तरफ रह गया और ‘ललितपुर-लश्कर’ की अच्छी खासी बहस छिड़ गई। मैं अकेला लश्कर पर अड़ा हुआ था और वे सब ललितपुर का नगाड़ा बजा रहे थे। किसी ने प्रेम से, किसी ने आदर से, किसी ने झल्लाते हुए तो किसी ने मेरी खिल्ली उड़ाते हुए मुझे समझाने की कोशिश की लेकिन मैं मानने को तैयार नहीं हुआ। नहीं माना सो नहीं ही माना।

इस बीच जलजजी सहित सब लोग आँगन में आ गए। अपनी-अपनी आवश्यकता और इच्छानुसार हम सबने जलजजी के साथ फोटू खिंचवाए। प्रीती भाभीजी ने सबका मुँह मीठा कराया और हम सब, एक बार फिर जलजजी को प्रणाम कर अपने-अपने मुकाम पर लौट आए।

लेकिन मैं अकेला नहीं लौटा। ललितपुर और लश्कर मेरे साथ-साथ चले आए। सब लोगों ने जिस तरह एक स्वर से कहावत में ललितपुर बताया था, उसने मेरे आत्म विश्वास को डगमगा दिया। मैं बरसों तक ग्वालियर, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड जाता रहा हूँ। कभी एक दिन तो कभी दो दिन रुकता रहा हूँ। वहाँ भी यह कहावत कई बार सुनी लेकिन हर बार लश्कर ही सुना। कुछ मराठीभाषी मित्रों/परिचितों से बात हुई तो उन्होंने भी लश्कर की उल्लेखित किया। मैंने अपने जीवन में, इस कहावत में एक बार भी ललितपुर का नाम नहीं सुना। हर बार लश्कर ही सुना।

मैंने सबसे पहले वीरेन्द्रसिंहजी भदौरिया को फोन किया। वे ग्वालियर निवासी हैं। वे व्यस्त थे। बोले कि थोड़ी देर बाद फोन करेंगे। फिर मैंने महेन्द्र भाई कुशवाह को फोन लगाया। वे दो वर्ष तक भास्कर के ग्वालियर संस्करण के स्थानीय सम्पादक रह चुके हैं। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। मैंने बुन्देलखण्ड अंचल के अपने एजेण्ट मित्रों को फोन लगाया। जवाब ने मुझे धरती पर ला पटका। सबका एक ही जवाब था - ललितपुर। फिर मैंने गूगल खंगाला। वहाँ के सारे परिणामों में ललितपुर ही मिला। थोड़ी देर में भदौरियाजी का फोन आया। उन्होंने भी ललितपुर की ही पुष्टि की।

मुझे हैरत हुई। अपने गलत होने पर नहीं, इस बात पर हुई कि इस कहावत को मैंने कई बार, अलग-अलग जगहों पर प्रयुक्त किया और सुना। लेकिन एक बार भी किसी ने ललितपुर का नाम नहीं लिया नहीं। किसी ने मुझे नहीं टोका। क्या वे सब भी मेरी जैसी ही स्थिति में थे/हैं?

शाम को मैंने चाँदनीवालाजी को पत्र लिख कर धन्यवाद दिया कि उन्होंने मुझे सुधार दिया।

सच ही है - सीखने/सुधरने की कोई उम्र नहीं होती। मैं गवाह नहीं, उदाहरण हूँ।
-----
जलजजी और प्रीती भाभी के साथ हम लोग

जलजजी के साथ चाँदनीवालाजी

दोनों चित्र श्री नरेन्द्रसिंह पँवार के सौजन्य से। चित्र उन्हीं ने लिए इसलिए वे नजर नहीं आ रहे। 

हनुमानजी कुइया में समा गए

फुरसतिया बैठकों में राजा ने यह किस्सा हमें कई बार सुनाया। राजा याने राजा दुबे। मूलतः बड़वानी का निवासी राजा, मध्य प्रदेश सरकार के जनसम्पर्क विभाग में बड़े/ऊँचे पद से रिटायर होकर भोपाल में बस गया है। लेकिन वह नौकरी से रिटायर हुआ है, लेखन से नहीं।

पुराने जमाने में (कृपया इसे केवल कहावत के तौर पर ही लें क्योंकि पचास-साठ बरस की अवधि ‘पुराना जमाना’ नहीं होती) उत्तर प्रदेश से रामलीला और रासलीला मण्डलियाँ आया करती थीं। रामचरित और कृष्णचरित की मंचीय प्रस्तुतियाँ ही इनका, जीविकोपार्जन का जरिया हुआ करता था। इन मण्डलियों में बीस-बीस, तीस-तीस सदस्य हुआ करते थे। प्रायः सारे सदस्य सारे काम कर लिया करते थे। याने, अभिनय, गायन-वादन (तबला, ढोलक, पाँवों से बजाया जानेवाला हारमोनियम बजाना), पर्दों की रस्सियाँ खींचना, नृत्य-गीतों के दौर मिलनेवाली न्यौछावर एकत्रित करना आदि-आदि। कुछ सदस्य सपरिवार हुआ करते थे। ये मण्डलियाँ कस्बों/गाँवों में बड़ा अहाता-बाड़ा किराये पर लेकर प्रस्तुतियाँ देती थीं। ऐसे परिसर का एक ही प्रवेश द्वार होता था। दर्शकों को, प्रवेश के समय, दरवाजे पर ही निर्धारित टिकिट दर से नगद भुगतान करना पड़ता था। दर्शकों के लिए, पुरुषों-स्त्रियों के लिए बैठने की समुचित व्यवस्था होती थी। लेकिन लोग अपनी-अपनी सुविधा से अपनी जगह लेते। कोई अहाते के किसी पेड़ के सहारे टिक जाता तो कोई अहाते में बने ओटले पर अड्डा जमा लेता। 

लीलाएँ भले ही राम-कृष्ण की होती थीं लेकिन था तो धन्धा ही, इसलिए अधिकाधिक धन-संग्रह के उपाय किए जाते थे। कभी राम-सीता, राधा-कृष्ण की झाँकी, कभी किसी युद्ध में शत्रु पर राम, हनुमान की विजय, मूर्छित लक्ष्मण के लिए संजीवनी ले आने की घटना आदि प्रसंगों पर मालाएँ-चढ़ाने के निमित्त न्यौछावर का आग्रह। उस जमाने में एक माला का मूल्य एक-दो रुपये होता था। मण्डली के सारे सदस्य दर्शकों की भावनाएँ उकसा कर अधिकाधिक मालाएँ पहनवाने की कोशिशें करते। लीला शुरु होते ही की जानेवाली आरती की थाली दर्शक समुदाय में घुमाना तो धन संग्रह का स्थायी उपक्रम होता था। आरती लेकर प्रत्येक दर्शक कुछ न कुछ रकम थाली में डालता ही था। आरती की थाली घुमाने का जिम्मा प्रायः ही हनुमानजी बने पात्र के जिम्मे होता था। यह पात्र, नाना प्रकार की हरकतों और मुद्राओं से दर्शकों का मनोरंजन करते हुए थाली घुमाता था।  मण्डली के सदस्यों के अगले दिन के भोजन के लिए दर्शकों से यजमान बनने का आग्रह किया जाता। रोज ही कोई न कोई धर्माकुल श्रोता यजमान बन ही जाता। मण्डली जीमने जाती तो कभी-कभी राम-लक्ष्मण की भूमिका निभानेवाले पात्र इन देवताओं के स्वांग में ही जाते। अच्छी कमाई वाले कस्बे/गाँव में ये मण्डलियाँ कभी-कभी महीना-महीना रुक जातीं।

यह किस्सा ऐसी ही एक मण्डली का है। 

राम-जानकी आरती से लीला की शुरुआत हुई। अपनी ड्यूटी निभाते हुए ‘हनुमानजी’ ने आरती की थाली लेकर दर्शक समुदाय में प्रवेश किया। कभी उछल कर तो कभी ‘हुप्प-हुप्प’ करते हुए, कभी पूँछ से किसी की पीठ सहलाते हुए तो कभी ‘खी-खी’ करते हुए किसी का माथा झिंझोड़ते हुए, दर्शकों का मनोरंजन करते हुए आरती दे रहे थे। दर्शक भी भक्ति भाव से आरती ले रहे थे। 

‘हनुमानजी’ लगभग समूचे दर्शक समुदाय को आरती दे, समापन की और बढ़ रहे थे। आरती की थाली सिक्कों से भर गई थी। दो-चार नोट भी नजर आ रहे थे। अब केवल वे पाँच-सात दर्शक बच गए थे जो, अहाते के एक कोने में, एक अर्द्ध वृत्ताकार चबूतरे पर पंक्तिबद्ध बैठे थे। ‘हनुमानजी’ ने उन्हें देखा। दूरी का अनुमान लगाया और जोर से ‘हो ऽ ऽ प्प’ करते हुए छलांग लगाई। अनुमान शायद तनिक गड़गड़ा गया था। छलांग तनिक लम्बी लग गई और ‘हनुमानजी’ उन दर्शकों के सामने उतरने के बजाय उन्हें पार करते हुए, उनके ऊपर से, उनके पीछे पहुँच गए। यह कौतुक देखकर लोग तालियाँ बजाने ही वाले थे कि सबके हाथ रुक गए। जोर से ‘धम्म’ की आवाज आई और ‘हनुमानजी’ अदृष्य हो गए। 

‘हनुमानजी’ का इस तरह अन्तर्ध्यान होना सबके लिए अनपेक्षित, अकल्पनीय था। दर्शक समुदाय कुछ समझता उससे पहले, अर्द्ध वृत्ताकार चबूतरे पर बैठे दर्शक चिल्लाए - ‘अरे! हनुमानजी डूब गए रे!’ किसी को समझ नहीं आया कि क्या हुआ। 

हुआ यह कि हनुमान बना पात्र जिसे चबूतरा समझ बैठा था वह चबूतरा नहीं, अहाते में बनी कुईया की पाल थी जिस पर दर्शक बैठे हुए थे। मण्डली को कस्बे में आए ज्यादा दिन नहीं हुए थे। हनुमान बने पात्र को कुइया की जानकारी नहीं हो पाई थी और यह घटना हो गई।

अच्छा यह हुआ कि कुइया बहुत गहरी नहीं थी। लेकिन पानी इतना था कि आदमी डूब जाए। मण्डली के सदस्यों और दर्शकों ने फुर्ती से ‘हनुमानजी’ को निकाल लिया। तसल्ली की बात यह रही कि चोट बिलकुल नहीं आई। हनुमान बना पात्र, आरती की खाली थाली थामे, रुँआसी मुद्रा में कुइया से बाहर आया। आरती का दीपक और सारी चिल्लर डूब गई थी। उसके चेहरे पर एक रंग आ रहा था तो दूसरा जा रहा था। वह खुश था कि जान बच गई। लेकिन दुःखी था कि उस दिन का पूरा करा कलेक्शन पानी में चला गया।

हनुमान बने पात्र को देख-देख मण्डली का संचालक कभी गुस्सा हो रहा था तो कभी दया दिखा रहा था। लाड़ से डाँटते हुए, अपनी बोली में बोला - ‘हनुमान की एक्टिंग करते-करते तू तो सच्ची में हनुमान बन गया!’ नजरें नीची किए, सहमी आवाज में जवाब आया - ‘अब हनुमानजी बने हैं तो हनुमानजी की ही तो एक्टिंग करेंगे न दद्दा! हमें क्या पता कि वहाँ कुइया है! कुइया का पता होता तो हमारी छोड़ो, हनुमानजी भी वहाँ जाते?’

‘अन्त भला सो सब भला’ की तर्ज पर सबने भगवान को धन्यवाद दिया कि बड़ी दुर्घटना टल गई। इस घटना का असर यह हुआ कि लोगों के मन में मण्डली के प्रति दया और सहानुभूति का ज्वार उमड़ आया और वहीं, मौके पर ही अगले तीन दिनों के लिए मण्डली के भोजन की बुकिंग हो गई।

आरती का कलेक्शन पानी में चले जाने का दुःख अब, मण्डली के किसी भी सदस्य के चेहरे पर नहीं था।
-----

......और रावण ने बन्दूक चला दी

यह घटना मैंने दादा के मुँह सुनी और अनेक बार सुनी।

दादा का वैवाहिक जीवन आधी सदी से अधिक का रहा। याने, यह घटना लगभग पचास बरस पुरानी है। दादा की बारात राजस्थान के गाँव केरी गई थी। बाद में उनके ससुरजी नीमच जिले की जावद तहसील के तारापुर में आ बसे। दादा के सुसराल पक्ष के कुछ परिवार जावद तहसील के ग्राम अठाना में थे। मुझे अब ठीक-ठीक याद नहीं कि घटना किस गाँव की है और इसके केन्द्रीय पुरुष रिश्ते में दादा के क्या लगते थे। लेकिन दादा जिस तरह से यह किस्सा सुनाते थे उससे अनुमान करता हूँ कि वे दादा के (सम्भवतः) ताया ससुरजी थे। उनका नाम भी अब याद नहीं। बस इतना याद है कि उनका कुल-नाम (सरनेम) देवमुरार था।

वे देवमुराजी अपने गाँव के हैसियतदार, कारोबारी आदमी थे। उस जमाने में उनके पास बारूद से चलनेवाली, टोपीदार लायसेंसी बन्दूक थी। गाँव के सामाजिक/सार्वजनिक मामलों मंे उनकी भूमिका निर्णायक हुआ करती थी। ऊँची कद-काठी और भरे-पूरे शरीर के धनी ये देवमुरारजी ‘विजया प्रेमी’ थे। साँझ ढलते ही उनके लिए भाँग छानने का उपक्रम शुरु हो जाता था।

गाँव में हर बरस रामलीला होती थी। देवमुरारीजी इस रामलीला के ‘परमानेण्ट रावण’ थे। इस भूमिका को वे राजसी रूआब से कुछ इस तरह निभाते कि लोगों को लगने लगता था कि लंका का रावण देवमुरारजी जैसा ही रहा होगा। लेकिन उनकी यह ‘रावणी वास्तविकता’ रामलीला तक ही सीमित होती थी। अपने दैनन्दिन व्यवहार से वे गाँव में समुचित आदर-सम्मान पाते थे।

नवरात्रि चल रही थी। रामलीला का मंचन शुरु हो चुका था। छायादार घने पेड़ों से घिरा, छोटा से मैदान रामलीला स्थल था। पेट्रोमेक्स (गैस) की रोशनी में मंच नहाया हुआ था। लगभग पूरा गाँव ही मैदान में मौजूद था। अधिकांश लोग मैदान में, बिछात पर बैठे थे। लेकिन, पीछे बैठने से बचनेवाले कई लोग आसपास के पेड़ों पर बैठे थे। 

उस दिन, पता नहीं विजया-प्रभाव की सान्द्रता रही या कोई और बात, देवमुराजी अड़ गए - ‘बन्दूक लेकर बैठूँगा।’ लोगों ने खूब समझाया - ‘रावण के जमाने में बन्दूक नहीं होती थी।’ देवमुरारजी ने राजसी रौब से जवाब दिया - ‘उस जमाने में जब बन्दूक थी ही नहीं तो रावण बन्दूक लेकर कैसे बैठता? लेकिन आज तो बन्दूक है! आज तो रावण बन्दूक लेकर ही बैठेगा।’ समझाइश के स्वर थोड़ी देर में अनुनय-विनय, याचना से होते हुए गिड़गिड़ाहट में बदल गए। लेकिन ‘लंकेश’ अपनी बात पर अटल रहे। लोगों ने हथियार डाल दिए और ईश्वर से, किसी अनजान, अकल्पनीय अनिष्ट से बचाने की प्रार्थना करते हुए पीछे हट गए।

रामलीला शुरु हुई। रावण दरबार का दृष्य  आया। कंधे पर भरी बन्दूक लटकाए, गहनों से लदे-फँदे देवमुरारजी राजसी वेशभूष में सिंहासनारूढ़ थे। प्रसंगानुसार सारे पात्र अपने-अपने संवाद बोल रहे थे, अपनी-अपनी भूमिकाएँ निभा रहे थे। देवमुरारजी की बारी आई। उन्हें अत्यधिक क्रोधित मुद्रा में, चुनौती देते हुए, ललकारते हुए अपने संवाद बोलने थे। बरसों का रियाज था। सो, संवाद तो भली प्रकार याद थे। लेकिन बन्दूक लेकर पहली बार बैठे थे। यदि बन्दूक का उपयोग नहीं किया तो फिर बन्दूक का मतलब ही क्या रहा? सो एक भारी-भरकम संवाद बोलते हुए (कल्पना कर लीजिए कि ‘आज तू लंकेश के हाथों मारा जाएगा।’ या ऐसा ही कोई संवाद रहा होगा) उन्होंने काँधे से बन्दूक उतारी, घोड़ा खींचा, ताँबे की टोपी चढ़ाई और आसमान की ओर नली करते हुए घोड़ा दबा दिया। 

बन्दूक बारूद से भरी हुई थी। घोड़ा दबते ही जोरदार धमाका हुआ। पूरा गाँव गूँज गया। आसपास के पेड़ों पर चढ़े आठ-दस लोग धरती पर टपक पड़े। मैदान में भगदड़ मच गई। जिसे जिधर जगह मिली, उधर भाग निकला। लोगों की चीखें गूँजने लगीं। मंच के कलाकार पता नहीं कब, कहाँ अन्तर्ध्यान हो गए। उधर, मंच पर तनी चाँदनी से लपटें उठने लगीं। बारूद से निकली लपटों का असर हो गया था। 

कुछ ही पलों में मैदान का नक्शा बदल गया। इसके समानान्तर (या कहिए कि बन्दूक का धमाका होते ही) एक बात और हुई - ‘भंग-भवानी’ ने देवमुरारजी की काया त्याग दी। देवमुरारजी एक झटके में ‘मिथ्या जगत’ की वास्तविकता में आ गए। आते ही उन्होंने देखा कि केवल मंच पर ही नहीं, पूरे मैदान मे वे अकेले खड़े हैं। अब वे ‘लंकापति’ न रह कर ‘वीराने के बादशाह’ बन गए हैं। उन्होंने आसपास नजरें दौड़ाई। कोई नहीं था। उन्होंने अपने रुतबे के मुताबिक भदेस गालियाँ देकर लोगों को कोसकर बुलाना चाहा लेकिन पाया कि उनके गले से आवाज ही नहीं निकल रही है। माहौल में ठण्डक थी लेकिन देवमुरारजी पसीने में नहाए हुए थे। 

गाँव यूँ तो छोटा ही था लेकिन आसपास के गाँवों से बड़ा था। इसलिए वहाँ पुलिस चौकी कायम थी। लोगों की तलाश में नजरें घुमा रहे देवमुरारजी ने देखा कि पुलिस के दो जवान चले आ रहे हैं। न तो जवानों ने कुछ पूछा न ही देवमुरारजी ने कुछ पूछा। तीनों चुपचाप चौकी पर चले आए। तब तक (जान बचाकर भागे हुए) लोग भी एक के बाद एक जुटने लगे। अब पुलिस चौकी आबाद और रोशन थी। 

काफी-कुछ हो सकता था। लेकिन कुछ नहीं हुआ। गर्जना करनेवाले देवमुरारजी के बोल नहीं फूट रहे थे। गाँव के लोग उनके बचाव में एकजुट हो गए थे। दोनों जवानों को भी उसी गाँव में रहना था। सबने मिलजुल कर गाँव की इज्जत बचा ली।

चौकी से बिदाई होने लगी तो रामलीला का संरक्षक देवमुरारजी के सामने खड़ा हो गया। हाथ जोड़कर बोला - ‘देखो महाराज! रामलीला के रावण तो आप ही बनोगे। लेकिन आज, गाँव के सामने, मेरे माथे पर हाथ रखकर, मेरे बच्चों की सौगन्ध खाओ कि रामलीला में बन्दूक लेकर नहीं बैठोगे।’ 

अब तक देवमुरारजी सहज हो चुके थे। सस्ते में छूट जाने का बोध भी उन्हें हो चुका था। लेकिन अपनी हैसियत और रुतबा भी याद रहा। घर का रास्ता नापते हुए बोले - ‘चल! मान लिया। नहीं बैठूँगा बन्दूक लेकर।’ रामलीला संरक्षक खुश हो गया। खुशी में रमकते हुए बोला - ‘और भाँग भी मत पीना।’

सुनकर देवमुरारजी रुक गए। आँखें तरेर कर बोले - ‘रावण के राज में बन्दूक जरूर नहीं थी। लेकिन भाँग तो थी।’
-----