मालवा की सुवास - श्रीनिवास


मालवी की मिठास को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में श्री बालकवि बैरागी का अवदान उल्लेखनीय है। साहित्य के दौर में ‘मालवी के मणके’ पिरोते हुए श्री बालकवि बैरागी ने सार्थक, सटीक और सरल लेखन सिरजा है। मालवी लेखन की बात चले और बालकविजी का स्मरण न हो, इसमें संशय है। श्री बैरागी ने जितना भी लिखा उसमें उनकी मालवी ठसक बरकरार रही। अपने हिन्दी के अनुपम और विस्तृत रचनाकर्म में भी श्री बैरागी का मालवी प्रेम ‘गुदड़ी के चलकते टाँकों’ की तरह बराबर उभर आता है। प्रस्तुत लेख श्रीयुत श्रीनिवास जोशी के प्रति बालकविजी की भाव-भीनी आत्मीयता का आईना है। श्री बालकवि बैरागी यादों के गलियारों में तलाश रहे हैं अपने दादाभाई को। -सम्पादक।
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वर्ष 1951 में उज्जैन में आयोजित कवि सम्मेलन के पश्चात् लिया गया, मालवी कवियों का दुर्लभ चित्र। कुर्सी पर - हरीश निगम, आनन्दराव दुबे, श्रीनिवासजी, गिरिवरसिंह भँवर। पीछे - वागीश पाण्डे, सुल्तान मामा, बसन्तीलाल बम और शिल्पकार। नीचे बैठे हुए - हजेला और बालकवि बैरागी।

मालवा और मालवी का जब भी प्रसंग आता है, तब कई नाम एकाएक चर्चाओ में उभर आते हैं। स्व. पं. सूर्यनारायणजी व्यास, पं श्री पन्नालालजी ‘नायाब’, स्व. डॉ. चिन्तामणीजी उपाध्याय, स्व. श्री डॉ. श्याम परमार, स्व. डॉ. बसन्तीलालजी बम, स्व. कुँवर श्री गिरिवरसिंह ‘भँवर’, स्व. श्री हरीश निगम, स्व. डॉ. श्री रघुवीरसिंहजी, स्व. श्री आनन्दरावजी दुबे, स्व. श्री हेमेन्द्र त्यागी और दादाभाई स्व. श्री श्रीनिवासजी जोशी। ये ऐसे नाम हैं जिनके उल्लेख के बिना ‘मालवी’ की चर्चा अधूरी मानी जाएगी। और भी कई नाम हैं जिन्हें मैं याद नहीं कर पा रहा हूँ। वे आज हमारे बीच में नहीं हैं पर उनकी तपस्या, उनका अवदान और मालवी भाषा के लिए उनका सृजन-संघर्ष हमारे लिये वन्दनीय और अभिवन्दनीय है। 

मेरा सौभाग्य है कि ऊपर लिखे सभी नामवर मनीषियों का मैं स्नेह भाजन बना रहा। आज जो मालवी के परिवेश में कर्मरत जीवित हस्ताक्षर हैं, उनकी नामावली हमें दीपावली की दीपमाला जैसी जगमगाहट दे रही है। अभी-अभी पिछले दिनों पूज्य टीकम बा भावसार हमारे बीच से गये हैं। मालवी को अमूल्य शब्दकोश देकर चिर बिदा लेने वाले श्री प्र. च. जोशी अब हमारे साथ नहीं हैं। देवीलाल बातरे जैसा समर्थ कवि हम खो बैठे। पर मेरा एक वाक्य आपको शायद चौंका दे। मैं कहा करता हूँ कि ‘मालवी की गोद सूनी हो सकती है पर मालवी की कोख कभी सूनी नहीं रहेगी। वह हमेशा सतवन्ती रही है और सतवन्ती ही रहेगी।’ 

आज हमारे पास गर्व करने के लिए मालवी पढ़ने-लिखेनवालों की लम्बी कतार है। बड़ा परिवार है। हमारा पुण्य है कि हमारे पास आज श्री नरेन्द्रसिंह तोमर, श्री नरहरि पटेल, पं. मदन मोहन व्यास, श्री सुल्तान मामा, श्री मोहन सोनी, डॉ. श्री शिव चौरसिया, डॉ. श्री पूरन सहगल, श्री ओम प्रकाश पण्ड्या, श्री सतीश श्रोत्रीय, श्री जगदीश बैरागी, श्रीमती ललिता रावल, श्री रमेश आँजना, श्री हुकमचन्द मालवीय, श्री शिल्पकार, श्री राधेश्याम परमार ‘बन्धु’, श्रीमती पुखराज पाण्डेय, श्री संजय पटेल, श्री अनन्त श्रोत्रीय, श्री जॉनी बैरागी, श्री सुरेश बैरागी, श्री अकेला, श्री पीरुलाल बादल, श्री धमचक मुलथानी, श्री जगन्नाथ विश्व आदि और इनके आसपास नये आकार लेते, उभरते कई व्यक्तित्व अपनी सम्भावनाओं, पूर्ण आभा सहित उपस्थित हैं। उपलब्ध हैं। मालवी वृन्दा का वृन्दावन हरीतिमा का संघर्ष कर रहा है।

स्व. श्री डॉ. प्रभाकर माचवे ने अपने कार्यकाल एवम् जीवनकाल में इन्दौर से प्रकाशित दैनिक ‘चौथा संसार’ में ‘भाषा भगिनी’ शीर्षक से मालवी को अपना आँगन दिया तथा समानान्तर राजमार्ग पर दैनिक ‘नईदुनिया’ (इन्दौर) ने भी मालवी को अपनी चौपाल पर बराबर ‘थोड़ी-घणी’ बनाये रखा। इसके मालिक, सम्पादक श्री अभय छजलानी का हमने आभार मानना चाहिये। इसके नेपथ्य को सक्रिय रखने में, सजीव रखने में, पं. कृष्णकान्तजी दुबे को जितना धन्यवाद दिया जाय उतना कम है। आकाशवाणी इन्दौर की ‘ग्राम सभा’ में मालवी को मस्ती के साथ महकाने का काम स्व. श्री सीतरामजी वर्मा ‘भेराजी’ और पं. श्री कृष्णकान्त दुबे ‘नन्दाजी’ ने पूरी निष्ठा से किया। मालवा के राजऋषि स्व. पं. काशीनाथजी त्रिवेदी के सुपुत्र भाई श्री अनिल त्रिवेदी और भाई श्री नरहरि पटेल ने गत बारह वर्षों से करीने से ‘मालवी जाजम’ बिछा रखी है। हमने इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिये।

मालवा की कई बहिन रचनाकारों का उच्चतम योगदान भी हम भूल नहीं सकते। सम्पर्क और संवाद शून्यता के कारण मुझ जैसे कई लोग इनके नाम नहीं जानते किन्तु मालवी भाषा को दिये जा रहे उनके अवदान के प्रमाण आज भी अखबारों में दृष्टव्य हैं। मैं आत्सन्तोष में डूबा कलम चला रहा हूँ। अस्तु,

कुंकुंम की यह रेखा मैं इसलिए खींच रहा हूँ कि मेरे पास ‘लाल कालीन’ बिछाने का आसान उपलब्ध साधन केवल कुंकुंम ही है। यह बिछात बिछाकर मैं स्वागत कर रहा हूँ मेरे दादा भाई पं. श्री श्रीनिवासजी जोशी का। हमारे पास यदि कविता और पद्य में ‘आदि हस्ताक्षर’ के रूप में नाम लेने के लिये स्व. पन्नालाल बा ‘नायाब’ का नाम उपलब्ध है तो मालवी कविता के साथ मालवी गद्य में नाम लेने का अवसर आते ही दादाभाई श्रीनिवासजी जोशी का नाम अपने आप सामने आ जाता है। मेरी पीढ़ी की जानकारी में दादाभाई श्रीनिवासजी जोशी की गद्य रचना ‘वा रे पट्ठा भारी करी’ मालवी गद्यकारों की अगवानी का गणेश पूजन है। इस नाम के आसपास अत्यन्त सम्मानजनक कुछ नाम और भी हैं जो किसी भी स्तर पर कमतर नहीं हैं। 

‘वा रे पट्ठा भारी करी’ के लेखक श्रीनिवास दादा को, एक ही मंच पर, प्रोत्साहित करने से एक स्तर ऊपर सराहित करनेवालों में मैंने एक साथ, एक स्वर में बोलते, अपनी आँखों से जिन ऋषितुल्य महानुभावों को देखा है, वे हैं - स्व. श्री कुमार गन्धर्व, स्व. श्री राहुल बारपुते, डॉ. श्री शिवमंगलसिंह सुमन, डॉ. श्री श्याम सुन्दर व्यास, डॉ. श्री श्याम सुन्दर निगम और वाचस्पति व्यक्तित्व के धनी स्व. पं. श्री सूर्यनारायणजी व्यास। उज्जैन कार्तिक मेले का क्षिप्रा तटीय मंच और उस पर मालवी कवि सम्मेलन का आयोजन। कुमारजी ने कबीर से इसे शुरु किया था और भाई डॉ. श्री श्याम परमार ने इसका ध्वन्यांकन किया था। स्व. श्री कुँवर गिरिवरसिंह ‘भँवर’ की अगुवाई में हम सभी लोग इस मंच पर काव्य-पाठ हेतु उपस्थित थे। जो नाम ठहाकों के साथ मंच पर छा गया था, वह था इन्दौर के मरहूम शायर श्री ‘जम्बूर’ साहब का। वे मालवी में भी खूब लिखते थे। दादाभाई ने हम सभी कवियों की पीठ ठोकते हुए ‘लिखता रीऽजो, पढ़ता रीऽजो ने मिलता रीऽजो’ का आशीर्वाद दिया था।

दादाभाई को लेकर दो प्रसंग मैं कभी नहीं भूल सकता हूँ। ये दोनों प्रसंग तब के हैं जब मैं मध्य प्रदेश सरकार में, पं. श्री श्यामाचरणजी शुक्ल के मन्त्रिमण्डल में सूचना विभाग का राज्य मन्त्री था। एक प्रसंग था जब मैंने धार जिले के सागोर गाँव में मालवी के आदिकवि श्री पन्नालाल बा ‘नायाब’ का अभिनन्दन समारोह मध्य प्रदेश सरकार की ओर से आयोजित किया था। हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार स्व. श्री श्याम व्यास धार में सूचना अधिकारी थे और सारा समारोह उन्हीं के जिम्मे था। चलते समारोह में अनायास एक हलचल पैदा हो गई मानो कोई विशेष व्यक्ति आ गया हो। एकाएक स्थिति साफ हुई कि इन्दौर से श्री राहुल बारपुते, श्री श्याम परमार, कवि श्री रामविलास शर्मा को साथ लेकर श्रीनिवास दादा श्रोताओं के उस छोर तक आ पहुँचे हैं। डॉ. श्री बसन्तीलाल बम ने उन्हें दूर से पहचान कर मंच को सावचेत किया।  सागोर जैसे देहात में यह आवक अनपेक्षित थी। पर हम लोग निहाल हो गये। ‘नायाब’ बा के आत्म-स्वर अनायास मुँह पर आ गये - ‘वा रे पट्ठा भारी करी।’

दूसरा प्रसंग भी मेरे उसी मन्त्रीकाल का है। पं. श्री रामविलासजी शर्मा, श्री श्याम व्यास और भाई श्री गिरिवरसिंह भँवर ने एक संयुक्त अध्यादेश निकाला कि मालवा में कहीं न कहीं ‘मालवी मेला’ होना चाहिये। बात मुझ पर छोड़ दी गई। मैंने मुख्य मन्त्री पं. श्री श्यामाचरण शुक्ल से आदेश, निर्देश लेकर मालवी मेले के लिए रतलाम शहर को उचित समझा और रतलाम में तीन दिन का मालवी मेला सरकार की ओर से आयोजित कर दिया। राष्ट्रकवि श्री रामधारीसिंह ‘दिनकर’ इस मेले के शुभारम्भकर्ता थे। वे एक दिन अधिक ठहरे। पर दूसरे दिन फिर वही सागोर जैसा चमत्कार हुआ। श्रीनिवास दादा, श्री राहुल बारपुते और स्व. पं. रामनारायणजी उपाध्याय अनायास मेले में आकर आशीर्वाददाताओं में शामिल हो गये। राहुलजी ने बताया कि यह सब श्रीनिवास दादा के कारण सम्भव हो सका। दादाभाई मुम्बई (तब की बम्बई) से पहले खण्डवा गये। वहाँ से रामनारायण दादा को लिया। दोनों इन्दौर आये। इन्दौर से राहुलजी ने कार की व्यवस्था की और तीनों देवदूतों की तरह ‘मालवी’ को आशीर्वाद देने के लिये आकर हमारे सामने वट-वृक्षों की तरह छाया करते खड़े हो गये। रामनारायण दादा का आशीर्वाद निमाड़ी में मिला, राहुलजी तो झन्नाट मालवी में बोलते ही थे और ‘वा रे पट्ठा भारी करी’ का सुसंस्कृत व्यक्तित्व मालवी में झराझर बरस गया।

आज मैं यह नहीं कहूँगा कि ‘कहाँ हैं वे लोग? कहाँ है वो बड़प्पन? कहाँ है वो मालवी अनुराग? कहाँ वैसे मनस्वी?’ मैं कहता हूँ कि उनके पालने में पले लोग आज भी हैं। मालवा में हैं। बहुतायत में हैं। प्रसंग जुटे तो सही! मैं पूरी श्रद्धा के साथ कहना चाहता हूँ कि श्रीनिवास दादा को, सागोर-रतलाम प्रसंग की सूचना मात्र थी। उन्होंने निमन्त्रण या मान-मनुहार का कोई अहंकार नहीं पाला। केवल मालवी के मान का आभास पाया और वे दौड़े चले आये। 

आज घर-गृहस्थी और दिनचर्या की कसावटों ने अपने बन्धन अधिक कस लिये हैं। मालवी मिठास, मालवी ललक और मालवी मस्ती में आज भी कमी नहीं है। मालवी वाले लोग जब भी आपस में मिलते हैं तो आज भी मौसम बदल जाते हैं।


उत्तरायण दिवस, 14 जनवरी 2007           -बालकवि बैरागी
मकर सक्रान्ति दिवस, 2063 वि. सं.

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वा रे पट्ठा भारी करी (मालवी की श्रेष्ठ हास्य कहानियाँ) लेखक - श्रीनिवास जोशी।

द्वितीय संस्करण: फरवरी 2008। 
मूल्य 80/- रुपये।
प्रकाशक - श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, 
11 रवीन्द्रनाथ टैगोर मार्ग, इन्दौर - 452001, 
दूरभाष - 2516657, 2529511
सर्वाधिकार/सम्पर्क - अमित जोशी, 501 राजयोग अपार्टमेण्ट, प्लॉट नम्बर - 76, सखाराम कीरपंथ, माहीम, मुम्बई-400016, फोन - 24325644, 24325635, 
ई-मेल: amit96@hotmail.com 
मुद्रक - सर्वोत्तम ऑफसेट, जी-8, स्वदेश भवन, 2, प्रेस कॉम्पलेक्स, ए. बी. रोड़, इन्दौर-452008 (म. प्र.)
आवरण सज्जा: ‘एडराग’, 3/1, ओल्ड पलासिया, नवनीत टॉवर के पीछे,
 इन्दौर-452018 (म. प्र.) फोन: 2560265, 2560282



दादा का यह लेख, स्व. श्रीयुत श्रीनिवासजी जोशी के व्यंग्य संग्रह  ‘वा रे पट्ठा भारी करी’ से लिया गया है। मेरे आत्मीय प्रिय धर्मेन्द्र रावल ने बड़ी चिन्ता और आत्मीयता से मुझे यह लेख और कार्तिक मेले के समय लिया गया कवियों का दुर्लभ चित्र इन्दौर से भेजा है।

स्पष्टीकरण

मालवा के एक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं - श्री मंगल मेहता। मालवांचल और मालवी बोली उनके रोम-रोम में बसी हुई थी। मालवा और मालवी पर उन्होंने न केवल अपने सामर्थ्य और क्षमता से अधिक काम किया, मालवांचल के बिखरे हुए अज्ञात-अपिरिचित, अनचिह्ने रचनाकारों को ढूँढ-ढूँढ कर उनसे लिखवाने का अद्भुत, अनूठा और श्रमसाध्य काम भी किया। अपनी इसी ‘धुन’ में उन्होंने 1966 में ‘मौन मुखर’ शीर्षक से एक कविता संग्रह प्रकाशित करवाया था। इसके मुखपृष्ठ से इसके रचनाकारों के नाम मालूम हो जाते हैं। दादा श्री बालकवि बैरागी भी इनमें से एक थे। दादा का यह ‘स्पष्टीकरण’ इसी संग्रह में छपा है। 

मुमकिन है, दादा के इस ‘स्पष्टीकरण’ में नया, अनूठा कुछ भी न हो। फिर भी इसमें ‘कुछ’ तो ऐसा मिल ही जाता है जो अच्छा लगता है और दादा की मनोभावनाएँ उजागर करता है। दादा के लिखे को सहेजने के एकमात्र मकसद से इसे यहाँ दे रहा हूँ। इसके साथ दादा का वही चित्र यहाँ दे रहा हूँ जो दादा की कविताओं के साथ ‘मौन मुखर’ में छपा था। ‘मौन मुखर’ में छपी, दादा की सारी कविताएँ दादा के कविता संग्रह ‘दो टूक’ (1971) में उपलब्ध हैं। 

मंगलजी के बेटे विवेक मेहता ने अत्यधिक आत्मीयता और चिन्ता से दादा का यह आत्म-कथन उपलब्ध कराया है। विवेक कच्छ (गुजरात) अंचल के आदीपुर कस्बे में रहता है। 

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स्पष्टीकरण

लगता है, इस देश के हर उस आदमी को, जो कि कलम से अपना रिश्ता रखता है, अपराधी माना जाता है। समाज उसे न जाने किन-किन तरीकों से, न जाने कौन-कौन सी सजाएँ देता है। इन कई सजाओं में एक सजा यह भी है कि वह समय-समय पर समाज के सामने अपना स्पष्टीकरण देता रहे कि वह क्यों लिखता है? आज मैं भी फिर से ऐसी सजा भुगत रहा हूँ। अपराधी हूँ सो बयान सो देना ही होगा। फिर, उन बेचारों की तो और भी अधिक शामत आती रहती है तो भूले-भटके ‘ऐसे’ या ‘वैसे’ कवि कहलाने लग जाएँ। यह मेरा भाग्य ही मानिये कि आज तक मैंने अपने आप को कवि नहीं माना है। सो, मेरी सुरक्षा की ग्यारण्टी ज्यादह है,....खैर,

सवाल बड़ा ही बेमानी है कि मैं क्यों लिखता हूँ? कई प्रश्नों के उत्तर नहीं होते। जैसे कि सूरज क्यों चमकता है? नदी क्यों बहती है? फूल क्यों खिलता है? पवन क्यों यायावर है? आदि-आदि। इन प्रश्नों का जो उत्तर होगा, वही कवि के बारे में सही होगा।

लिखना मेरे जीवन की पहली शर्त है। इसके बगैर मैं अपने आप को अधूरा मानता हूँ। न तो यह किसी पर उपकार है न एहसान। लिखे बिना रहा नहीं जाता, सो, लिखता हूँ।

अतीत को मैं आज तक गाली नहीं दे पाया, वर्तमान की विकृति पर मैंने दस्तखत नहीं किये और भविष्य पर अनास्था मैं कैसे पैदा कर लूँ? बहरहाल, इस चौखटे में मैं लिखता हूँ और बगावत के नाम पर बेवकूफी का कोई कार्यक्रम मेरे पास नहीं है।

मूलतः मालवी का कलमगर होने से मैं साधिकार कह सकता हूँ कि ‘जनता’ तत्व से मेरा तनिक विशिष्ट सम्पर्क रहा है। उसे बनाये रखना मेरी आत्मा की भूख है। जनता से मेरा सम्पर्क टूटा कि मैं टूटा। इस टूटन से मैंने आज तक बचने की कोशिश की है। मेरी रचनाओं का राष्ट्रीय पक्ष मेरी इसी प्यास का प्रतिफल है।

युद्ध होते हैं तो मैं भड़क उठता हूँ। इसके पीछे मेरी राष्ट्रीयता ही प्रेरक है। भारत पर थोपे गये आज तक के युद्धों के सन्दर्भ में मैंने और मेरी तरह के अनेक साहित्यकारों ने जो सकारात्मक भूमिका निबाही है उसके समर्थन में मुझे सिर्फ यही कहना है ‘जिस दिन मेरा देश अपनी ओर से किसी पर आक्रमण करेगा उस दिन मैं सबसे पहिले उसका विरोध करूँगा।’ मैं युद्ध का विरोधी हूँ पर देश की कीमत पर नहीं।

मेरे आसपास जितने भी लिख-पढ़ रहे हैं, मैं सबको आदर देता हूँ। सभी मुझसे सहमत हों, यह मेरी जिद नहीं है। बहस का मेरे पास समय नहीं है। काफी कुछ लिखना है।

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...और अब अश्वगन्धा

वाणिज्यिक-औषधीय कृषोपज अश्‍वगन्‍धाको लेकर दादा श्री बालकवि बैरागी का यह लेख, ‘आधारभूत लेख’ की श्रेणी में शामिल किए जाने की पात्रता रखता है। यह लेख, कोटा (राजस्थान) के स्थापित, जाने-माने पत्रकार प्रिय भाई धीरेन्द्र राहुल और मेरे कक्षापाठी, हमसाया, मनासा के अर्जुन पंजाबी के कारण ही सामने आ पाया है। राहुल ने याद दिलाई और अर्जुन ने मनासा में लगातार भागदौड़ कर यह लेख और इसके सारे फोटू उपलब्ध करवाए। यह लेख दैनिक ‘नईदुनिया’ में 10 नवम्बर 1977 को प्रकाशित हुआ था। इस लेख में दिए गए आँकड़े उसी समय के हैं। इस लेख का नायक रामकुँवार दरक मेरा कक्षापाठी है। इस लेख के कारण हम दोनों एक बार फिर सम्पर्क में आ गए। सेठ श्री भूरालालजी बसेर का चित्र उनके पौत्र प्रिय निरंजन बसेर ने, सेठ श्री विश्‍वनाथजी विजयवर्गीय का चित्र उनके पुत्र प्रिय सुरेश कुमार विजयवर्गीय ने और दादा श्री शोभाराम नागदा का चित्र उनके परिवारी प्रिय सुरेश नागदा के कृपापूर्ण सहयोग से प्राप्त हुए हैं। लेकिन इन तीनों को ये चित्र भेजने के लिए इन सबसे अर्जुन ने ही कहा। अश्‍वगन्‍धा के चारों  चित्र सहित शेष सारे चित्र रामकुँवार ने उपलब्‍ध कराए। ‘नईदुनिया’ में प्रकाशित इस लेख की फ्रेम करवाई हुई कतरन, रामकुँवार ने आज भी अपने कार्यालय में प्रदर्शित कर रखी है।  

भोपाल से मनासा आने के लिए व्हाया इन्दौर आ रहा हूँ। यात्रा, बस से कर रहा हूँ। एक बस स्टैण्ड पर बस रुकती है और पानी पीने को भागने को होता हूँ कि एक हँसती-खिलखिलाती छोटी सी भीड़ पर नजर जाती है। ढोल की थाप पर कुछ लोग हँस रहे हैं।

सीन अटपटा सा है। चार-पाँच हिंजड़े एक देहाती किसान को चारों ओर से घेर कर फटे बाँस जैसे अपने सुर में कुछ गा रहे हैं और आसपास खड़े कुछ मनचले उस किसान का मजाक उड़ा रहे हैं। मतलब केवल इतना सा है कि वह किसान घबरा कर रुपया, दो रुपया उन हिंजड़ों को दे दे। यह एक भोंडा तमाशा है जो आप भोपाल और उसके आसपास कभी भी देख सकते हैं।

पर, जो कुछ वे हिंजड़े गा रहे थे वह आश्चर्य का विषय हो सकता है। ऐसा गीत मैंने आज तक कभी सुना नहीं था। उस गीत की जितनी कड़ियाँ सुन पाया, उतनी दे रहा हूँ -

आग लग जाए तेरे असकन्द के खेत में।
गाज गिर जाए तेरे असकन्द के खेत में। 
फट जाए कलेजा काली घटा का,
मेघा मर जाए तेरे असकन्द के खेत में।
मेरा जनाजा जो जाए मनासा
तो कबर खुद जाए तेरे असकन्द के खेत में।

शायद किसी गजल की बहर है। इसकी पकड़ पंक्ति है, ‘असकन्द के खेत में’। मैं भीड़ को देखना भूल जाता हूँ। रह-रह कर मुखड़ा आता है ‘तेरे असकन्द के खेत में’। पर जब वे हिंजड़े गाते हैं, ‘मेरा जनाजा जाए मनासा तो कबर खुद जाए तेरे असकन्द के खेत में’ तब तो मैं हैरान रह जाता हूँ। यह सरेआम गाली है। और श्रीमान्! मेरे अपने गाँव मनासा को गाली है। फिर एक बार सोचता हूँ, कि यह ‘मनासा’ कोई दूसरा होगा। पर जब मनासा आकर छानबीन करता हूँ तो पाता हूँ कि नहीं, वे हिंजड़े मेरे अपने गाँव को ही कोस रहे थे। जिस खेत में ‘कबर खुदने’ की तमन्ना उन हिंजड़ों की थी, वह असकन्द का खेत मनासा में ही हो सकता है। 

और मैं असकन्द पर काम शुरु कर देता हूँ।

आयुर्वेद में ‘अश्वगन्धा’ का बड़ा ही महत्व है। यही ‘अश्वगन्धा’ कई नामों से पुकारी जाती है। जैसे, ‘असकन्द’, ‘असगन्ध’, ‘असींद’, ‘असन्द’, ‘अशन’ आदि। सारे भारत में आप कहीं भी घूम लें, ‘अश्वगन्धा’ की खेती नहीं मिलेगी। भारत में कुल जमा अश्वगन्धा की जितनी खेती होती है, उसकी 98 प्रतिशत अश्वगन्धा केवल मेरे अपने गाँव मनासा में पैदा होती है। रही शेष दो प्रतिशत, वह पाई जाती है मध्य प्रदेश के विदिशा जिले की ‘गंज बासौदा’ नामक बस्ती में। यह दो प्रतिशत भी नहीं के बराबर समझिए। यहाँ की सारी अश्वगन्धा भी मनासा से ही नियन्त्रित होती है। 

भारत का नक्शा लेकर आप उसे फैलाइए। जिला ढूँढिए जिसका नाम है मन्दसौर। इस जिले की एक तहसील का केन्द्र है मेरा गाँव मनासा। (30 जून 1998 को मन्दसौर जिले का विभाजन हो गया और नीमच जिला अस्तित्व में आ गया। इस पोस्ट के प्रकाशित होते समय मनासा, अब नीमच जिले का हिस्सा है।) वैसे, मेरी तहसील में कोई 300 गाँव हैं। सवा लाख की आबादीवाली इस पूरी तहसील का क्षेत्रफल अच्छा-खासा, लम्बा-चौड़ा है पर यह अश्वगन्धा पैदा कितने हिस्से में होती है? दक्षिण की ओर केवल सात मील के अर्द्धवृत्त के भीतर-भीतर, इने-गिने गाँवों में अश्वगन्ध पैदा होती है। 

कुल तीन व्यापारी इस फसल को सारे संसार में पहुँचाते हैं। केवल एक व्यापारी फर्म जो कि ‘रमेशचन्द्र रामकुँवार’ के नाम से जानी जाती है, इस फसल के सारे बाजार को उठाने-गिराने की क्षमता रखती है। शेष दो व्यापारी, श्री भूरालालजी बसेर तथा  श्री विश्वनाथजी विजयवर्गीय इसके स्टॉकिस्ट माने जाते हैं। देहात में एक ब्राह्मण किसान है श्री शोभराम नागदा। वे भी मात्र स्टॉकिस्ट हैं। पर सारा व्यापार करते हैं, ‘रमेशचन्द्र रामकुँवार’ वाले ही। इनका तार का पता भी ‘असगंधवाला’ ही है। यह फर्म माहेश्वरी जाति के नवयुवकों की है और इनका पुश्तैनी व्यापार है यह असगन्ध का निर्यात।

लेख की फ्रेमबन्द तस्वीर के साथ रामकुँवार दरक और अर्जुन पंजाबी

सेठ श्री भूरालालजी बसेर

सेठ श्री विश्‍वनाथजी विजयवर्गीय
                                                               
श्री शोभारामजी नागदा
                                                                   
 रामकुँवार के कार्यालय में लगी  हुई, लेख की कतरन की, फ्रेमबन्द तस्वीर

1974 में केवल ढाई हजार क्विण्टल अश्वगन्धा पैदा हुई। आप दो प्रतिशत गंज बासोदा को भी मिला लीजिएगा। याने, सब मिलाकर, सारे भारत का तीन हजार क्विण्टल। गए कुछ सालों से इसका भाव बराबर बढ़ता जा रहा है। दो साल पहले यह कोई दो सौ से लेकर तीन सौ रुपये क्विण्टल तक गई। गए साल यह पाँच सौ से लेकर छः सौ रुपये क्विण्टल तक तुली। 1974 में इसका भाव आया एक हजार रुपया क्विण्टल और 1975 में इससे भी ज्यादह। मनासा के इतिहास में गए कुछ साल निकले जबकि अश्वगन्धा की चोरियाँ हुईं और इसके एक खेत के लिए खड़ी फसल पर झगड़ा हुआ। वरना कोई इस फसल को पूछता भी नहीं था। 

अश्वगन्धा एक खरीफ की फसल है। पर यह फसल न सियालू (शीतकालीन) न उन्हालू (ग्रीष्मकालीन)। वह हमेशा ‘आलसी किसान’ की फसल रही है। जो किसान खेती से जी चुराए, वह असगन्ध बोता है। न कोई पशु खाता है न पक्षी।  किसी रखवाली की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसे किसी खाद या पानी की जरूरत नहीं है। हुई कि नहीं आलसियों की खेती? सावन की अमावस्या से लेकर भादों की अमावस्या तक के बीच के दिनों में यह फसल बो दी जाती है। जन्माष्टमी के बाद तक किसान इसे बोता है। अत्यधिक बरसात इस फसल की दुश्मन है। बीज बह जाए और खेत साफ। इसका बीज ‘फूँका’ जाता है। इस फसल का बीज बहुत हल्का होता है। आप लाल मिर्च को मसल लीजिएगा। उसमें जो बीज निकलता है, करीब-करीब वैसा ही बीज। खेत में बीज हाथों से फेंक दिए जाते हैं, जिसे ‘फूँकना’ कहते हैं। बारिश में फिर बीज टिकेगा ही कहाँ? शायद इसीलिए हिंजड़े गा रहे थे - ‘फट जाए कलेजा काली घटा का, मेघ मर जाए तेरे असकन्द के खेत में’। 

आसोज (आश्विन) महीने तक किसान यदि पाता है कि अश्वगन्धा के पौधे ठीक उग आए हैं (जिसे कहा जाता है ‘असगन्ध ठीक मँड गई’) तो फिर उसको रहने देगा। वरना वह खेत में नए सिरे से हल डाल कर रबी की फसल बो देगा। 

अश्वगन्धा का पौधा बहुत छोटा होता है। अमूमन एक फुट से ऊँचा नहीं उठता। पर, अश्वगन्धा पत्तियों के ऊपर लगनेवाली फसल नहीं है। यह जमीन के भीतर पैदा होती है। ठीक मूली की तरह, किन्तु मूली जितनी मोटी नहीं। जितना लम्बा पौधा (जमीन से) ऊपर होगा, करीब-करीब उतनी ही गहरी यह नीचे भी ‘बैठ’ जाती है। याने, जिसे आप अश्वगन्धा कहते हैं वह जमीन के नीचे नौ इंच से लेकर एक फुट तक जड़ जैसी होती है। अश्वगन्धा का सबसे बड़ा खाद है - कड़क सर्दियाँ। जिस समय मेरे गाँव में आसपास की सारी फसलें शीत दाह से जल जाती हैं, उस समय भी अश्वगन्धा का किसान खुश रहता है। उतरते माघ के आसपास इस फसल को उखाड़ लिया जाता है। यह कम्बखत यदि कहीं खलिहान में ही पड़ी हो और बादल आ जाएँ या मावठा हो जाए तो फिर अश्वगन्धा की सम्हाल पूरी करनी होगी। पानी इसका दुश्मन है। 

उखाड़ने के बाद अश्वगन्धा के पत्ते काट कर फेंक दिए जाते हैं। पत्तों के ठीक नीचे से जो तना शुरु होता है, वहाँ से आधे तने तक का टुकड़ा ‘बेहद अच्छी अश्वगन्धा’ माना जाता है। पूरी जड़ को चार टुकड़ों में काट लेते हैं - श्रेष्ठ, अच्छी, ठीक और बेकार। काटने के बाद मजदूर इसे मोटी लाठी से कूटते हैं। फिर इसे हवा में उफन लेते हैं। उफनाई के बाद अलग-अलग क्वालिटी के माल को छाँट लिया जाता है। एक बीघा में यह सूखी-सट्ट आधा क्विण्टल बैठ जाती है। याने, एक एकड़ में एक क्विण्टल से कुछ ही ज्यादा।

          

                  

                                        


                                          


                                              

गुणवत्ता क्रम से दिखाई गई अश्वगन्धा  

इसकी गन्ध की विशेषता ही यह है कि आपको लगेगा, अभी-अभी यहाँ से हजार-दस हजार घोड़े निकले हैं और अपनी गन्ध छोड़ गए हैं। 

आयुर्वेद ने इसका बहुत गुण गाया है। गठिया, वायु और हाथ-पाँव काँपने की बीमारी पर यह अकसीर मानी जाती है। पौष्टिक तो यह होती ही है पर धातुवर्द्धक भी है। मनुष्य को अश्व तक बनाने की क्षमता है इसमें। हिंजड़ों की शिकायत का यह भी एक मुद्दा रहा होगा। उनका सम्प्रदाय इसके कारण नष्ट होता होगा। इसीलिए वे गा रहे थे - ‘आग लग जाए’ और ‘गाज गिर जाए’। 

अश्वगन्धा के बड़े-बड़े ग्राहकों के नाम आप सब जानते हैं। जैसे कि वैद्यनाथ आयुर्वेदवाले, झण्डु फार्मेसी, मद्रास के जे. एण्ड जे. डिशेन कम्पनीवाले, चरक और धूतपापेश्वर आदि। अश्वगन्धा का रेशा-रेशा यहाँ से उठा लिया जाता है। ‘अश्वगन्धारिष्ट’ जैसी औषधि का नाम तो स्पष्ट है, पर अन्य और भी दवाइयाँ बनाने के समाचार मिलते रहते हैं। अश्वगन्धा की तासीर गरम है। सर्दियों में इसका पाक तैयार किया जाता है। मनासा और आसपास के प्रौढ़ तथा बूढ़े पुरुष इसका सेवन अक्सर करते हैं। जिस तरह गोंद और केसर या सुपारी का पाक बनता है उसी तरह अश्वगन्धा का भी पाक तैयार करके कमजोर पुरुषों को खिलाया जाता है। कहा जाता है कि यह पाक या दवा औरतों को नहीं दी जाती है। इधर के साधनहीन और गरीब लोग जब अश्वगन्धा का सेवन करना चाहते हैं तो किसी भी दुकान से इसके दो-चार टुकड़े माँग लेते हैं और उन्हें पीस कर, कपड़े से छान कर उस सूखे पावडर को फाँक लेते हैं। मर्द की काठी मजबूत रहती है। आपके शहर में भी यह चीज पंसारी की दुकान पर मिल जाएगी। 

चलते-चलते एक बात और कह दूँ। इस फसल का कोई काला बाजार या स्मगलिंग नहीं होता है। यह हर जगह आसानी से उपलब्ध हो सकती है। इसे हासिल करने के लिए आपको मनासा आने का कष्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप चिट्ठी लिख सकते हैं। आपको यह अवश्य लिखना पड़ेगा कि आपको अश्वगन्धा की आवश्यकता क्यों कर महसूस हुई? मैं आपको वाजिब कीमत पर भेजने के लिए मेरे नगर के व्यापारियों से निवेदन कर दूँगा। 

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