दल बदलना याने माँ की कोख बदलना


दादा श्री बालकवि  बैरागी ने नियमित रूप से डायरी कभी नहीं लिखी। किन्तु सन् 2004 मेंअकस्मात ही उन्होंने प्रकट किया कि उन्होंने सन् 2001 की, पूरे 365 दिनों की डायरी लिखी है। भोपाल में ‘दुष्यन्त स्मारक’ वाले श्री राजुरकर राज ने यह डायरी, ‘पड़ाव प्रकाशन, भोपाल’ से मई 2004 में, ‘बैरागी की डायरी’ शीर्षक से प्रकाशित की है।यहाँ प्रस्तुत अंश उसी डायरी से, दादा के वक्तव्य से लिया गया है।

दादा, जून 1999 से जून 2004 तक, संसद के उच्च सदन, राज्य-सभा के सदस्य रहे। जैसा कि अपनी इस डायरी में दादा ने ही कहा है, इस डायरी लेखन की जानकारी, दादा के सिवाय किसी को भी नहीं थी। और तो और मेरी भाभीजी श्रीमती सुशील चन्द्रिका बैरागी को भी नहीं।

अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने के लिए नेताओं द्वारा राजनीतिक निष्ठा बदलने के, हतप्रभ करनेवाले इस लज्जाजनक समय में दादा की ये बातें अविश्वसनीय ही लगेंगी। 

मैं प्रायः कहता रहता हूँ कि प्रत्येक आदमी की एक कीमत होती है और हर आदमी खरीदा जा सकता है। किन्तु यदि भिखारी भी धार ले कि उसे नहीं बिकना है तो उसे कुबेर भी नहीं खरीद सकता।

दादा के वक्तव्य का यह अंश इस बात का एक छोटा सा प्रमाण है।

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अनायास ईश्वरीय वरदान की तरह श्रीमती सोनिया गाँधी ने जून 998 में मध्यप्रदेश के राजनीतिक परिवेश की आशाओं और अनुमानों में एक नया पृष्ठ जोड़ते हुए मुझे संसद के राज्य-सभा सदन में सदस्य चुनवाकर बैठा दिया। पूरे छः वर्षाे के लिए। 

सन् 1945 से इन पंक्तियों के लिखने तक मैं काँग्रेस कार्यकर्ता के तौर पर तिरंगा हाथ में थामे अपना जीवन जी रहा हूँ। ईश्वर ने मुझे कलम थमाकर एक सर्वथा भिखमंगे (शत-प्रतिशत मँगते) परिवार में जन्म दिया। माँ ने मुझे टूटने से बचाया। आजन्म अपाहिज और लाचार बाप का मैं जेठा बेटा। पूर्णतः माँ का निर्माण। मैं खुद कहता रहा हूँ - ‘गरीब के घर में बच्चा पैदा नहीं होता-हमेशा बूढ़ा ही पैदा होता है।’ सो वही मैं। होश आने पर मैंने कहा - ‘साहित्य मेरा धर्म है, राजनीति मेरा कर्म।’ धर्म और कर्म के बीच की क्षीण-सी रेखा को मैंने न लाँघा, न मिटाया। मान-सम्मान, अपमान, पुरस्कार, तिरस्कार, प्यार, प्रताड़ना, उतार-चढ़ाव, सिंहासन-आसन-निरासन, पद-अपद, जो भी मिला, सभी को प्रभु का प्रसाद मानकर ठहाकों के साथ चलता रहा। काँग्रेस की राजनीति में न कभी मचला, न कभी फिसला, न कभी बहका, न कभी बिका। मुझे खरीदने बड़े-बड़े धनी, राजे-महाराजे, रानियाँ-महारानियाँ अपने-अपने समय पर पूरी निर्लज्जता से पधारे। मेरे अभावों, मेरी गरीबी और मेरे संघर्षाें के खुले आकाशी तम्बू में मुझे ठहाका लगाते देख, पानी-पानी होकर लौट गये। आजादी की लड़ाई में मैंने नाखून भी नहीं कटाया किन्तु श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने मुझे मध्य-प्रदेश में दो बार मिनिस्टर बनवाया। एक बार संसदीय सचिव बनवाया। श्री राजीव गाँधी ने मुझे मन्दसौर जैसे विकट क्षेत्र से लोकसभा में चुनवाया और श्रीमती सोनिया गाँधी की अहेतुकी कृपा के कारण इस समय राज्यसभा का एक मुखर कॉँग्रेसी सदस्य हूँ। जी हाँ, मेरे कार्यकाल के पूरे छः वर्ष इसी 29 जून 2004 को पूरे होने जा रहे हैं। दलबदल और आस्था बदल जैसे कलंक मुझ पर कभी नहीं लगे। दलबदल पर मैंने एक टिप्पणी कर दी-‘पता नहीं लोग माँ की कोख कैसे बदल लेते हैं?’ कुछ लोग भौंचक सुनते रहे। श्रोताओं ने उन लोगों की तरफ ठहाका मारकर व्यंग्य से देखा।

अभी-अभी, लोक-सभा के चुनावी मौसम में एक महानुभाव मुझ टटालने पधारे। उन्हें लगा, बैरागीजी की राज्य-सभा टर्म खत्म हो रही है। लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं। ये पार्टीवालों को चुनाव लड़वा रहे हैं, ख़ुद नहीं लड़ रहे हैं। मध्य-प्रदेश में काँग्रेस केे पास विधानसभा में संख्या बल इतना भी नहीं है कि कोई एक सदस्य राज्यसभा में पार्टी ला सके। तब फिर ये क्या करेंगे? मुझसे पूछ बैठे - ‘आप अपने बारे में क्या सोच रहे हैं? कहीं किसी द......ल.......ने.......ता..... वेता से बात हुई या हम.......।’ मैं तैयार बैठा था। उनका वाक्य पूरा हो उससे पहले ही बोला - ‘मैं अपने बारे में सोच रहा हूँ कि मेरे मरने के बाद मेरे आँगन में से मेरी लाश को जलाने के लिये कुत्ते अपने आँगन में लिये नहीं चले जायें। बचाना। अपने उत्तराधिकारियों से कह रहा हूँ।’ उनकी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई।

मैंने रहीम को पढ़ा है। महाकवि ने लिखा है-

सर सूखे, पंछी उड़े, औरे सरन समाहिं।
दीन मीन बिनु पंख के, कहु रहीम कँह जाहिं।।

दलबदल की राजनीति पर मैं यह दोहा चस्पा करता हूँ। तालाब का पानी सूखने पर उसके किनारे के हरे-भरे वृक्षों पर किलोलें करने वाले पंछी दूसरे तालाबों के किनारों पर चले जाते हैं, लेकिन उस सूखते तालाब की मछलियाँ तड़प-तड़प कर उसी तालाब में जान दे देती हैं पर तालाब नहीं छोड़तीं। पंख मछली के पास तैरने के लिए होते हैं। पंख पक्षियों के पास उड़ने के लिए होते हैं। मेरा और आस्था-बदल दलबदलुओं का यही फासला है। वे हरियाली की तलाश में कहीं भी जा सकते हैं। मुझे इसी तालाब में जान देनी है।

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