अब तुम मिलना स्सालों!

आपने वह किस्सा जरूर पढ़ा/सुना होगा जिसमें चार ठग मिल कर एक किसान के बछड़े को, अलग-अलग जगह, बकरा बता-बता कर उसका बछड़ा हड़प लेते हैं। इस किस्से को याद रखते हुए ही मेरी यह बात पढ़िएगा।

शारीरिक श्रम के मामले में बहुत ही आलसी हूँ। इतना कि यदि कभी जामुन के पेड़ की छाँव में लेटना पड़े तो मनोकामना होगी कि जामुन, सीधा मेरे मुँह में टपके, कोई और चबा ले, मुझे स्वाद आ जाए और गुठली भी कोई और ही थूक दे। आलसियों की कोई प्रतियोगिता हो तो छोटा-मोटा पुरुस्कार तो जीत ही सकता हूँ।

ऐसे में, जब भी पैदल चलता हूँ तो ‘मेरा भला चाहनेवाले’ टोकने लगते हैं - ‘बहुत तेज चलते हो। अब जवान नहीं रह गए हो। बुढ़ा गए हो। धीरे-धीरे चला करो। तेज-तेज चलते हुए ऐसे लगते हो जैसे गेंद लुड़क रही है। लुड़कती गेंद खुद पर काबूू नहीं रख पाती। सड़क पर इधर-उधर लुड़क सकती है। नाली में गिर सकती है।’ आलसीपने की वजह से यूँ तो पैदल चलना ही भूल गया हूँ। लेकिन जब भी पैदल चलने की कोशिश करता हूँ, ऐसी नसीहतें मिल जाती हैं।

कॉलेज में पढ़ते समय एनसीसी में भर्ती हुआ था। सेना के रिटायर्ड सुबेदार रामसिंह और हवलदार पूनाराम हमारे ‘उस्ताद’ थे। बताया करते थे कि ‘तेज चल’ में सामान्य टुकड़ी की गति 120 कदम प्रति मिनिट होती है और गोरखा टुकड़ी की गति 180 कदम प्रति मिनिट। सो, तब से ही तेज चलने की आदत तो बनी तो सही लेकिन वह अब तक बनी हुई है-यह मैं बिलकुल नहीं मानता। उम्र के पचहत्तर बरस पूरे कर लिए हैं। बेशक मन न तो बूढ़ा होता है न ही थकता है। लेकिन शरीर के साथ तो ऐसा बिलकुल नहीं होता। इसलिए, भाई लोग जब-जब मुझे तेज चलने पर ‘बड़े प्रेम से समझाते-दुलराते’ हैं तो मैं हँस कर रह जाता हूँ। लेकिन हर बात की एक हद होती है। सो, कभी-कभी लगने लगता है - ”इतने सारे लोग, अलग-अलग वक्त पर, अलग-अलग जगह पर जब एक ही बात कह रहे हैं तो ‘कुछ’ तो सचाई होगी।“ और मैं झाँसे में आ ही गया। मानने लगा कि मैं और लोगों के मुकाबले तेज चलता हूँ। 

लेकिन कल शाम गजब हो गया। 

कल शाम, ‘झाँसे में आया हुआ’, अपने-आप में मगन, मैं, अपनी ‘तेज चाल’ से, अच्छा-भला चला जा रहा था। खूब खुश-खुश कि भई लोग एकदम झूठ तो नहीं ही बोलते हैं। कि अचानक वह हो गया जो नहीं होना था। या कहिए कि वह हो गया जो एक न एक दिन तो होना ही था।

हुआ यह कि मुझसे भी अधिक बूढ़ी एक महिला, मेरे पीछे से आई और सरपट चाल से चलती हुई, पल भर ही में, मुझे पीछे छोड़ती हुई मुझसे आगे, ‘ये ऽ जा-वो ऽ जा!’ सड़क लगभग सुनसान। न तो कोई आवा-जाही न ही वाहनों की भरमार। ले-दे कर हम दो ही पद-यात्री। मुझे पार कर आगे निकली महिला को मैं ठिठक कर देखने लगा। पता ही नहीं लगा कि मैं कब रुक गया। मैं सनाका खा गया और हुआ यह कि मुझे, मुझे पीछे छोड़ कर जाती हुई उस महिला की पीठ पर मेरे उन सारे हितैषियों की शकलें नजर आने लगीं जो मेरी फिक्र में दुबले होते रहने का भरोसा मुझे दिलाते रहते हैं।

इसके बाद पूछिए मत कि मेरा मन कैसा-कैसा हुआ और अपने हितैषियों को मैंने कैसे-कैसे याद किया। बस! एक ही बात की तसल्ली रही कि जब मैं ‘कुछ भी कर गुजरने’ की मनोदशा में था तब, मुझे लड़ियाने-दुलराने वाले मेरे तमाम हितैषियों में से वहाँ कोई नहीं था। अच्छा हुआ कि वे सब और मैं तथा दोस्त और दोस्ती बची रह गई।

भगवान ऐसे दोस्त सबको मिलें जो मुगालते में रख कर दोस्तों को सुखी जीवन का उपहार देते हैं और मुगालते दूर करके हकीकत से वाकिफ भी बनाए रखते हैं।

दोस्ती जिन्दाबाद!

(अब तुम मिलना स्सालों! तुम सबने, अनायोजित रूप से मेरे मजे लिए। अब मैं एक-एक को निपटाऊँगा। तुम सबकी ऐसी गत बनाऊँगा कि सारी दुनिया तुम्हारे मजे लेगी। दोस्ती एक फर्ज है। यकीन मानो! पूरी शिद्दत और पूरी ईमानदारी से निभाऊँगा।)

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मन की बात

एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात,
करते हैं हम मन की बात।

कान लगा कर सुनो-सुनो,
मन में अपने गुनो-गुनो।
नाचे बादल, गाते मोर,
हरियाली है चारों ओर।

इसका मतलब, गाओ जी,
नाचो और नचाओ जी।
नाचें-गावें, हम सब साथ,
हरियाली हो, दिन और रात।

एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात,
करते हैं हम मन की बात।
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माँ से ज्यादा मौसी प्यारी

दिन भर मौसा पर गुर्राती,
बेलन का जौर दिखलाती

कोप-भवन में लेटी-लेटी,
घर-भर का खाना खा जाती।

फिर भी भूखी है बेचारी
,
माँ से ज्यादा मौसी प्यारी

जब-जब हमसे मिलने आती,
घर में शोक-सभा जुड़ जाती

वो भी रोए, माँ भी रोए,
हम हँसते तो डाँट पिलाती

कहती है खुद को दुखियारी,
माँ से ज्यादा मौसी प्यारी

माँ ने तो बस जनम दिया है,
(पर) मौसी ने जनम लिया है

हमको अपना मान रही है,
क्या यह कम उपकार किया है?

मेरी मौसी की बलिहारी
,
माँ से ज्यादा मौसी प्यारी

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मेरे पापाजी की कार

अड़ती तो बस! अड़ जाती है,
बढ़ती तो बस, बढ़ती जाती है।
जो भी इसके आगे आता,
उसके पीछे पड़ जाती है।

अपनी आदत से लाचार,
मेरे पापाजी की कार।

पेड़ो को भी गले लगाती,
लिप-लिपट खम्भों से जाती।
सिवा हार्न के सब बजता है,
पूरी बॉडी गाना गाती।

जीवों का करती उद्धार,
मेरे पापाजी की कार।

गेरेज से जब बाहर आती,
बस्ती मे हलचल मच जाती।
पूजा की थाली ले-ले कर,
गलियों से बहिनें आ जातीं।

इसकी महिमा अपरम्पार।
मेरे पापाजी की कार
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पापा करते कितना काम!

बड़ी सुबह वे चाय बनाते
नल पर से पानी भर लाते
कपड़े धोते, बर्तन मलते
फिर चूल्हे पर दाल चढ़ाते

तब तक माँ करती आराम
पापा करते कितना काम!

हमें जगाते, फिर नहलाते
सारा होम-वर्क करवाते
माँ का सिर दुखता रहता है
सबका खाना स्वयं पकाते

ले-ले करके हरि का नाम
पापा करते कितना काम!

दफ्तर जाते, वापस आते
फिर से चौके में घुस जाते
वही रसोई, वे ही बर्तन
फिर मम्मी के बाम लगाते

कट गई यूँ ही उमर तमाम
पापा करते कितना काम!
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बादल और मोर

बादल गरजा जोर से,
बोला प्यासे मोर से,
‘क्यों दिन भर चिल्लाता है?
आखिर किसे बुलाता है?
जब देखो तब हो-हल्ला
हो-हल्ला भी खुल्लम-खुल्ला
कल से शोर मचाना मत
घड़ी-घड़ी चिल्लाना मत।’

अब नबर था मोर का,
लगा ठहाका जोर का,
बाला- ‘सुन रे! सुन बादल!,
तू क्या जाने रे पागल!
मैं मस्ती में गाता हूँ,
गा कर तुझे बुलाता हूँ।

‘तू आता, गर्जन करता,
तब भी मैं नर्तन करता।
जब तू गा नहीं पाता है,
(तो) रोने लग जाता है।

‘बात-बात में रोना क्या?
पानी-पानी होना क्या?
मन चाहे तब आया कर।
लेकिन सुर में गाया कर।’
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कितना देता है आकाश!



कितना देता है आकाश!

देता है बेहद ऊँचाई,
देता है भरपूर प्रकाश।
रिमझिम करते बादल देता
और पवन देता उनचास।

तरह-तरह के मौसम देता
रंग-बिरंगे बारहमास,
कितना देता है आकाश!

जो भी देता, सबको देता,
भेद-भाव का नाम नहीं।
छोट-मोटा नहीं देखता,
राव-रंक का काम नहीं।

इसका नहीं पराया कोई,
सब ही इसके खासम-खास।
कितना देता है आकाश!
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कितना देती धरती मैया!


कितना देती धरती मैया!

हर मौसम में फसलें देती,
देती हमको, फल औ’ फूल।
घर-आँगन की मस्ती देती,
बस्ती, बस्ता और स्कूल।

नद्दी-नाले, परबत देती,
देती है पीपल की छैंया।
कितना देती धरती मैया!

कण लेती है, मन देती है,
नहीं बाँधती कोई गाँठ।
हँसते-हँसते सब सहती है,
देती है धीरज का पाठ।

तुमको घर औ’ मुझे घरौंदा,
देकर लेती रोज बलैंया।
कितना देती धरती मैया!
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अमर जवाहर


दादा से जुड़े कागजों का पुट्टल उलटते-पलटते अचानक ही यह गीत सामने आ गया। जाहिर है, जवाहरलालजी के निधन के बाद ही यह गीत लिखा गया होगा। 
  
होना तो यह चाहिए था कि इसे, जवाहरलालजी की पुण्य तिथि, 27 मई को दिया जाता। लेकिन क्या पता, तब तक मैं ही न जीयूँ! यह संयोग ही है कि आज जवाहरलालजी की जयन्ती है और आज ही यह गीत सामने आ गया। 
सो, 27 मई की प्रतीक्षा किए बिना, आज ही इसे दे रहा हूँ।
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अमर जवाहर
- बालकवि बैरागी

जिसने अपनी राख बिछा दी, खेतों में, खलिहानों में।
जिसने अपने फूल बिछाए, ऊसर रेगिस्तानों में।
जिसने अपनी पाँखुरियाँ दीं, ऐटम के शमशानों को।
जिसने अपनी मुसकानें दीं, तीन अरब इंसानों को।
जिसने अपनी बाँहें दे दीं, मानवता की आहों को,
जिसने अपनी आँखें दे दीं, भटकों को, गुमराहों को।
जिसने अपनी आहुति दे दी, संकल्पों की ज्वाला में।
चमक रहा है जो सुमेरु सा, जननी की मणि माला में।
उसका यश गायेगा अम्बर, धरती और पाताल रे!
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।

-1-

निर्मोही ने राजघाट से, ये जो नाता जोड़ा है।
यमुना-तट की ओर हठी ने, ये जो रथ को मोड़ा है।
ये जो माँ से अनपूछे ही, अमर तिरंगा ओढ़ा है।
ये जो तीन अरब लोगों को, नीर बहाते छोड़ा है।
ज्यों की त्यों रख कर के चादर, कर गया और कमाल रे।
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।

-2-

आजीवन जो रहा हँसाता, क्यों-कर भला रुलायेगा?
मन कहता है, यहीं, कहीं है, अभी यहाँ आ जाएगा।
मेघ स्वरों में अगत-जगत के, हाल-हवाल बतायेगा।
भारत माता की जय हमसे, वो बार-बार बुलवायेगा।
शोर न करना वरना खुद को, कर लेगा बेहाल रे।
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।

-3- 

अमन दिया, ईमान दिया और, जिसने हमें जवानी दी।
नये खून को राहें देकर, जिसने नई रवानी दी।
इतिहासों को नई दिशा दी, जिसने नई कहानी दी।
चन्दन में जल कर भी जिसने, माँ को अमर निशानी दी।
हमसे दूर करेगा कैसे, उसे बिचारा काल रे।
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।

-4-

नस-नस में भिद गया तुम्हारी, अपना खून टटोलो तुम।
कुछ तो सोचो, आँसू पोंछो, मोती और न रोलो तुम।
भावुकता भी भाषा साथी, और अधिक मत बोलो तुम।
तन की आँखें बन्द करो और, मन की आँखें खोलो तुम।
छूटी है माटी की ममता, बिछड़ा है कंकाल रे।
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।

-5-

प्यार एक सा किया निठुर ने, बेला और बबूलों से।
पुजवा लिया स्वयं को जिसने, परबत जैसी भूलों से।
जिसने पावन कर दी गंगा, अपने पावन फूलों से।
वो आँसू से नहीं पुजेगा, पूजो उसे उसूलों से।
नहीं चाहिए उसको केसर, कुंकुम और गुलाल रे।
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।

-6-

रोना-धोना बन्द करो और मस्तक जरा उठाओ रे!
भुजदण्डों पर ताल ठोेक कर, अंगद-चरण बढ़ाओ रे!
पीर पराई पी कर उसको, सच्चा सुख पहुँचाओ रे।
नीलकण्ठ के वंशज बेटों! कुछ तो जहर पचाओ रे।
उसका सरगम छूट न जाए, टूट न जाए ताल रे।
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।

-7-

खेत-खेत में उगे जवाहर, नीलम फसलें लहरायें।
नहर-नहर की लहर-लहर में, श्रम का अमृत घुल जाये।
बाग-बगीचे, वन-उपवन में, नहीं कभी पतझर आये।
नये पसीने की नदियों से, रीते सागर भर जायें।
प्राण भले ही छूटें लेकिन, छूटे नहीं कुदाल रे।
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।

-8-

होनी ने अनहोनी कर ली, बिगड़ी बात सँवारेंगे।
कर्मक्षेत्र को पीठ न देंगे, उसका कर्ज उतारेंगे।
उसके पद-चिह्नों पर चलकर, बाकी उम्र गुजारेंगे।
चाहे जो हो जाए लेकिन हा! हा! नहीं पुकारेंगे।
हम ही गौतम, हम ही गाँधी, हमीं जवाहरलाल रे।
नहीं मरा है, नहीं मरेगा, अमर जवाहर लाल रे।
अभी करोड़ों साल जियेगा, अमर जवाहर लाल रे।
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यहाँ प्रस्तुत चित्र गाँधी सागर बाँध के उद्घाटन समारोह (19 नवम्बर 1961) का है। 19 नवम्बर इन्दिराजी की जन्म तारीख है। उद्घाटन की यह तारीख डॉक्टर कैलाशनाथ काटजू ने तय की थी। उद्घाटन समारोह का संचालन दादा ने ही किया था। 

कल्प ऋषि दादा बालकवि बैरागी



- डॉक्टर पूरन सहगल

साहित्य, संस्कृति और इतिहास को दिशा-बोध देने वाले लोक पुरुष को मैं ऋषि मानता हूँ। संस्कृत और इतिहास का मुझे ज्ञान नहीं है। जब भी इतिहास या पुरातत्त्व पर चर्चा करनी होती है,  ज्ञात इतिहासज्ञ और पुरातत्वेत्ताओं की शरण में जाने में तनिक भी संकोच नहीं करता।

मैं ‘धूल-धाये’ (न्यारगर) की तरह सुनार की धूल के ढेर में से सोना, चाँदी तलाशने का श्रम करता हूँ। न सोना मेरा होता है न चाँदी, न धूल। सब कुछ सुनार का होता है। मेरा तो श्रम मात्र होता है। लोक से लोक साहित्य प्राप्त करना भी ठीक वैसा ही है।

मैंने उस धूल में से जो निकाला है वह कितना मूल्यवान है और कितना व्यर्थ, इसकी परख भी मुझे नहीं हैं। कबीर ने अपनी वाणी में ‘पारख ज्ञान’ की बात कही है जो केवल सद्गुरु के पास ही होता। वही सच्चा पारखी है। उसी को हम ऋषि कह सकते है। मेरे प्राप्य की परख भी होती है। दादा बालकवि बैरागीजी उसे परखते हैं। मेरे द्वारा प्राप्त का मूल्यांकन वे बिना बोले कर देते हैं।  मुझे ‘सार-सार को गहि ले थोथा देहि उड़ाय’ का पालन करना होता है। 

एक लोकोक्ति है ‘करमहीन कलप्यो करे, कलप बिरछ की छाँव’। कर्महीन व्यक्ति कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर भी दुःखी होता रहता है। कल्प वृक्ष के नीचे बैठने के बाद भी अपने इच्छित की प्राप्ति के लिए कर्म तो करना ही पड़ता है। 

मैं एक कल्प वृक्ष का उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ। इस कल्प वृक्ष को ‘कल्प ऋषि’ कहना अधिक उचित होगा। एक ऐसा ‘कल्प ऋषि’ जिसने स्वयम् को कल्प वृक्ष बना लेने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। आराम या विश्राम मैंने उनके जीवन में कभी नहीं देखा। जो मिल गया उसे मुकद्दर नहीं माना। श्रमफल माना। जो खो गया, उसे भुलाया नहीं। उसे याद रखते हुए सतत् प्रयत्न कर, पुनः प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित कर ‘चरैवेति-चरैवेति’ क्रम निरन्तर बनाए रखा। कबीर की तरह अपनी चादर को ओढ़ा भी, बिछाया भी लेकिन मैली नहीं होने दी। कबीर की ही तरह ज्यों की त्यों धर दी। मैं उन्हें डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन और दादा चिन्तामणी उपाध्याय की जीवन्त परम्परा का निर्वाहक मानता हूँ। वे निराला और दिनकर के वंशधर तथा प्रेमचन्द के प्रतिनिधि हैं। इसके बावजूद बैरागी, बैरागी ही बना रहा। अपना बैरागीपन नहीं छोड़ा। फकीरी मौज और खरा-खरा कहने की कबीरी मस्ती बरकरार बनाए रखी। वे न तो किसी वट वृक्ष के नीचे सोते रहे और न उन्होंने किसी कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर अपनी मनोमना पूरी होने की आकांक्षा की।

अपनी मंजिल में आने वाले रोड़े स्वयं हटाए। काँटे, कंकर स्वयं चुने और मार्ग की वर्जनाओं को अपने आत्मबल से हटाया। व्यक्ति से व्यक्तित्व तक की कठिन-कठोर यात्रा उन्होंने स्वयम् के वामन कदमों से तय की। किसी के कन्धों पर बैठकर नहीं। ख्यातनाम साहित्यकार धर्मवीर भारती जी एक बार निराला जी से मिलने गए। निरालाजी अस्वस्थ किन्तु प्रसन्नचित्त थे। उन्होंने भारतीजी से कहा - ‘मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मुझे पता चल गया है कि मेरा परिवार बहुत बड़ा है। किन्तु व्यक्तित्व केवल दो हैं - भारतेन्दु और निराला।’ यह बात उन्होंने निराला युग में कही थी। आज मैं इसी कड़ी में एक नाम बालकवि बैरागी का भी जोड़ दूँ तब यह त्रिवेणी संगम अधिक पावन हो जाएगा। व्यक्ति से व्यक्तित्व बन जाना सुदीर्घ तपस्या का फल होता है।

एक बार बैरागीजी ने मुझे खलील जिब्रान की एक सूत्र पंक्ति सुनाई थी - ‘यदि ईश्वर तुम्हारे हाथों से मशाल ले ले तब मायूस मत होओ। शायद वह  तुम्हारे हाथों में आफताब थमाना चाहता हो।’ यह सूत्र सदा उनके जीवन का आधार बना रहा।

आर्य समाज ने बैरागीजी को ‘आर्य रत्न’ सम्मान से विभूषित किया। आर्य रत्न तो वे हैं ही, वे तो इससे भी ऊपर, ‘हिन्दी रत्न’ एवम् ‘संस्कृति रत्न’ हैं। सच तो यह है कि बैरागी जी को सम्मानित करके कोई भी संस्था स्वयं सम्मानित और गौरवान्वित हो जाती है। सम्मान से ऊपर है ऐसे लोक पुरुष को, ऐसे कल्प ऋषि को सम्मान देकर स्वयं सम्मानित हो जाना।

अब उनका स्वाध्याय उन्हें निरन्तर दिव्यता प्रदान करता दीखता है। स्वाध्याय अर्थात् स्वयम् का अध्ययन। आत्मचिन्तन। स्वयं को जानने का प्रयत्न। अपने भीतर झाँक कर भीतर के उजास को जीवन्त बनाए रखने का प्रयास। इसे ही तो बुद्ध ने ‘अप्प दीपो भव’ कहा है। दादा बैरागीजी ने सदा यही किया है इसीलिए मैं उन्हें ‘कल्प ऋषि’ कहता हूँ। नहीं जानता कि कोई कल्प वृक्ष होता भी है या नहीं। किन्तु मैं ‘कल्प ऋषि’ को जानता हूँ। वे ऐसे कल्प वृक्ष हैं जिनके तले उगने वाला कोई पौधा न सूखा है न मुरझाया है। वह तो सदा पल्लवित और पुष्पित हुआ है। ऐसे कल्प वृक्ष को, ऐसे अश्वत्थ को, ऐसे ‘कल्प ऋषि’ को पीढ़ी का वन्दन, अभिनन्दन।

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(यह आलेख उज्जैन से प्रकाशित ‘समार्वतन’ के मई 2015 अंक में, इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का सम्पादित रूप है।)




डॉक्टर पूरन सहगल। जन्म - 13 जनवरी 1937, पंचग्राही, मियाँवाली, पाकिस्तान। ‘मालवालोक संस्कृति अनुष्ठान’ के संस्थापक-संचालक। मालवी लोक साहित्य और लोक संस्कृति पर निरन्तर शोध। अपराध पेशा और देह व्यवसाय में लिप्त जातियों, यायावर जाति वामनिया बंजारा, कालबेलिया, गाडोलिया, साटिया पर समाज शास्त्रीय अध्ययन-लेखन। दशपुर जनपद के सन्तों, सेनानियों पर लेखन। मालवी की कृष्ण-भक्त कवयित्री चन्द्रसखी, नवनिधि कुँवर, श्रृंगार की प्रसिद्ध कवयित्री सुन्दर एवम् रूपमति आदि के साहित्य का संकलन-सम्पादन-प्रकाशन। मालवी में उपलब्ध लोक देवता तेजाजी, वाबूजी, देवनारायणजी, रामदेवजी, महाराज विक्रमादित्य, भोज एवं भरथरी की गाथाओं का संकलन एवं सांस्कृतिक अनुशीलन। अब तक 78 पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पुरुस्कारों, सम्मानों से अलंकृत। पता - ऊषागंज कॉलोनी, मनासा-458110, जिला नीमच, मध्य-प्रदेश। मोबाइल - 94240 41310.

अपनी गंध नहीं बेचूँगा




- लाल बहादुर श्रीवास्तव -



चाहे सभी सुमन बिक जाएँ
चाहे ये उपवन बिक जाएँ
चाहे सौ फागुन बिक जाएँ
पर मैं गंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा।

उक्त पंक्तियाँ देश के प्रख्यात साहित्यकार कवि, सांसद बालकवि बैरागी की कविता ‘अपनी गंध नहीं बेचूँगा’ उस समय के दौर की हैं, जब राजनीति में पार्टियाँ खरीद-फरोख्त करती हुई अधिक नजर आती थीं। नेता स्वार्थवश दल-बदल कर लेते थे। लेकिन बालकवि बैरागी उन राजनीतिज्ञों में से एक थे, जिन्होंने अन्त तक अपनी शुचिता को अक्षुण्ण बनाए रखा। कभी मौकापरस्ती का साथ नहीं देते हुए जीवनभर संघर्षशील रहे।

सन् 1968 के समय की बात है, जब बालकवि बैरागी म.प्र. विधानसभा में कांग्रेस के विधायक थे। वे तब मन्त्री मण्डल मे संसदीय सचिव भी थे। अचानक दल-बदल की आँधी चली, कांग्रेस की सरकार गिर गई। ग्वालियर घराने की राजमाता सिंधिया की उठापटक से श्री गोविन्द नारायणसिंह के नेतृत्व में संविद सरकार बनी। तब राजमाता विजियाराजे सिंधिया ने बालकवि बैरागी के पास एक सन्देश भेजा कि दल बदलकर हमारी पार्टी में आ जाओ, तुम्हारा मन्त्री पद बना रहेगा।

ऐसी स्थिति में प्रायः राजनेता स्वार्थवश लुढ़क ही जाते हैं। अनेक नेता कांग्रेस से लुढ़ककर राजमाता के पक्ष में चले गए। लेकिन बालकवि बैरागी ने एक अनूठा उत्तर उस समय की सर्वाधिक ताकतवर और प्रभावशाली नेता, राजमाता सिंधिया को दिया, ‘राजमाता जी! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। पूरी विनम्रता के साथ आपका आदर करता हूँ। लेकिन मैं आपकी बात नहीं मान सकता। मैंने आज सुबह ही अपने हाथ-पैरों के नाखून काटे हैं। आपकी सारी शक्ति और सम्पदा भी इन्हें नहीं खरीद सकती। अतः मुझे भी खरीदने की मत सोचिएगा।’

यह चरित्र था साहित्यकार, राजनीतिज्ञ बालकवि बैरागी का। जिन्दगी भर स्वच्छ राजनीति की। राजनीति की ‘काजल की कोठरी’ में अपने दामन पर कभी दाग नहीं लगने दिया। वे राजनीति को अपना कर्म एवं साहित्य को धर्म मानते थे। कभी एक-दूसरे को इसमें समावेश नहीं होने दिया। छल, प्रपंच, आडंबर से कोसों दूर। सबके चहेते, चाहे वे विरोधी पार्टियों के सदस्य हो, उन सबसे घुल-मिलकर रहते थे । उन्हें अपनी रचनाधर्मिता पर माँ सरस्वती का वरदहस्त प्राप्त था। दोनों क्षेत्रों में वे अति विनम्र थे और दृढ़ भी।

इन्दिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया, तब उन्होंने इसका पुरजोर विरोध स्वयं इन्दिरा गांधी के सम्मुख दर्ज करवाया और कहा, आपात काल लगाना जनता को परेशानियों में डालने जैसा कार्य कांग्रेस ने किया है, इसका परिणाम भी शीघ्र सामने आएगा। और हुआ भी ऐसा हो। दिल्ली से कांग्रेस की सत्ता हाथ से निकल गई।

इनकी दृढ़ता उन्हें कभी भी विचलित नहीं कर सकती थी। बड़ों को आदर देना, छोटों को आशीष, उनका सबसे बड़ा गुण था। दो बार म.प्र. शासन में कांग्रेस की सत्ता में मन्त्री, लोक सभा तथा राज्य सभा सदस्य रहे। इन्दिरा गांधी से लगाकर सोनिया गांधी के भाषणों के वे भाषण-लेखक थे। प्रधान मन्त्री से लेकर एक पानवाला तक उनका प्रशंसक था।

बालकवि बैरागी एक राजनेता ही नहीं श्रेष्ठ संचालक, एक कुशल वक्ता के साथ-साथ श्रेष्ठ गद्य लेखक भी थे। उनकी कालजयी रचनाएँ इतिहास के पन्नों पर अजर-अमर रहेंगी। उन्होंने 26 फिल्मों के सुमधुर गीत लिखने के साथ-साथ कई फिल्मों में पटकथाएँ लिखीं। भादवामाता, रानी और लाल परीे फिल्म के गीत व पटकथा लिखी। वे राष्ट्र के ऐसे मंगल कवि थे और रहेंगे, जिनकी रचनाओं ने देश-विदेश में बड़ी धूम मचाई। मालवी भाषा को देशभर में अपनी श्रृंगार रचना ‘पनिहारी’ से शीर्ष पर पहुँचानेवाले राष्ट्रकवि बालकवि बैरागी हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर थे। उनका वर्षा गीत ‘बादरवा अईग्या’, ‘लखारा’ लोकगीत ग्रामीण महिलाओं के कण्ठों का मधुर लोकगीत बना। संगीतकार जयदेव ने ’रेशमा और शेरा’ फिल्म के लिए ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ गीत बैरागीजी से लिखवाया, जो सुनील दत्त और वहीदा रहमान पर फिल्माया गया, उसे स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेश्कर ने दिया था, उस समय बहुत प्रसिद्ध हुआ और आज भी है।

सन् 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में जब पाकिस्तान को करारी हार मिली, तब इसकी खुशी में लाल किले की प्राचीर पर हुए कवि-सम्मेलन में तत्कालीन प्रधान मन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के सम्मुख जब यह कविता ‘जबकि नगाड़ा बज ही गया है सरहद पर शैतान का, (तो) नक्शे पर से नाम मिटा दो पापी पाकिस्तान का’ सुनाई, तब शास्त्रीजी बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने कवि बैरागीजी को गले लगा लिया।

महावीर स्वामी का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव था। यही कारण था कि वे 20-25 देशों में घूमने के दौरान भी महावीर स्वामी की आहार संहिता का परिपालन करते थे! अभावों में रहकर जीवन भर संघर्ष कर उन्होंने अपने को अनमोल रत्न बना लिया था। उनका जीवन एक कल्प ऋषि-मुनि की तरह था। उनका सान्निध्य पाकर पत्थर दिल भी पारस हो जाया करते थे। वे डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन और रामधारीसिंह दिनकर के प्रिय शिष्य रहे।

जब कवि दिनकरजी विदा हुए तब बैरागीजी की कलम ने श्रद्धांजलि लिखी। 23 अप्रैल की रात दिनकर ने तिरुपति मन्दिर में जाकर भगवान विष्णु के दर्शन किए और मन्दिर प्रांगण में कविता सुनाने लगे। अश्रुधार निकली तो पूरा प्रांगण रोया, फिर रामेश्वरम में कविता पाठ किया, फिर सोये तो उठे ही नहीं। अखबार ने अगले दिन लिखा ‘हिन्दी का सूरज दिनकर डूब गया, प्रातः प्रणम्य दिनकर को शत-शत नमन।’

बैरागीजी ने खुद को दिनकर का वंशज माना था। उन्होंने ‘वंशज का वक्तव्य’ शीर्षक अपनी कविता में दिनकरजी को इस तरह श्रद्धांजलि दी -

क्या कहा? क्या कहा कि दिनकर डूब गया दक्षिण के दूर दिशांचल में;
क्या कहा कि गंगा समा गई रामेश्वर के तीरथजल में?
क्या कहा कि नगप्रति नमित हुआ तिरुपति के घने पहाड़ों पर?
क्या कहा कि उत्तर ठिठक गया दक्षिण के ढोल नयाड़ो पर?

कल ही तो उसका काव्य प्राठ सुनता था सागर शान्त पड़ा,
तिरुपति का नाद सुना मैंने, हो गया मुग्ध रह गया खड़ा,
वह मृत्यु याचना तिरुपति में। अपने श्रोत्रा से कर बैठा।
हो वहीं कहीं वह समाधिस्थ क्या कहते हो कि मर बैठा?

यदि यही मिलेगा देवों से उत्कृष्ट काव्य का पुरस्कार,
तो कौन करेगा धरती पर ऐसे देवों को नमस्कार?

इतिहास अपने आप को दोहराता है, उपरोक्त पंक्तियाँ फिर से सजीव हो उठीं। हिन्दी माँ के सरस्वती पुत्र बालकवि बैरागी अपने गुरु दिनकर की तरह मौन व्रत धारे चुपचाप इन्द्रसभा में दिनकर और सुमन के संग होनेवाले कवि-सम्मेलन में शरीक हो गए।

13 मई 2018 की सुबह वे उद्घाटन समारोह में पहुँचे। लगभग 40 मिनिट तक सबको हँसाया, गुदगुदाया। तीन बजे मित्रों के साथ गपशप की, फिर अपने शयनकक्ष में विश्राम के लिए चले गए। अपराह्न 4 बजे उनका सेवक जब चाय लेकर पहुँचा तो वे एक हाथ सिर पर रख सो रहे थे। उन्हें जगाया, वे नहीं उठे। ऐसा लग रहा था, शान्त मुद्रा में वे कोई कविता रच रहे हों। जब हिलाने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तब तक यह खबर आग की तरह देश भर में फैल गई। साहित्य मनीषी बालकवि बैरागी मौन धारण कर चुपचाप अलविदा कह गए। देश-विदेश में जिसने भी यह समाचार सुना, अश्रुधारा बह निकली। कवि-सम्मेलन के सहपाठी नीरज ने उनके निधन पर कहा, मेरे शरीर का आधा हिस्सा अनायास चला गया और कुमार विश्वास ने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा, ‘एक और दिनकर प्रकृति की गोद में हम सबको अपनी ओजस्वी रचनाओं का रसपान कराकर चुपचाप चल दिया।’

बालकवि बैरागी का सूत्र वाक्य था-‘साहित्य मेरा धर्म है, राजनीति मेरा कर्म। अपने धर्म और कर्म की शुचिता का मुझे पूरा ध्यान है। बाएँ हाथ से लिखता हूँ। ईश्वर ने मुझे बाएँ हाथ में कलम और पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने मेरे दाहिने हाथ में शहीदों के खून से रंगा तिरंगा थमाया। मैं दोनों की गरिमा को दाग नहीं लगने दूँगा।’ उन्हीं की ये पंक्तियाँ जिसका जीवनभर अनुसरण किया, ‘मैं मरूँगा नहीं, क्योंकि कोई काम ऐसा करूँगा नहीं’ पंक्तियों को सार्थक कर दिखाया।

बालकवि बैरागी एक राष्ट्रकवि के रूप में कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर सदैव हम सबके दिलों में जिन्दा रहेंगे। माँ सरस्वती पुत्र को शब्द-श्रद्धा-सुमन अर्पित उन्हीं के इस छन्द से-

आज मैंने सूर्य से बस जरा सा यूँ कहा,
‘आपके साम्राज्य में इतना अँधेरा क्यों रहा?’
तमतमाकर वह दहाड़ा, ‘मैं अकेला क्या करूँ?
तुम निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ कुछ तुम लड़ो।’
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(श्री लालबहादुर श्रीवास्तव का यह आलेख, ‘साहित्य अमृत’ के फरवरी 2019 अंक में छपा था। श्री लाल बहादुर श्रीवास्तव मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय मन्दसौर में रहते हैं। जब यह आलेख पोस्ट हो रहा है तब वे जनपद पंचायत मन्दसौर में सहायक विस्तार अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। उनका पता - ‘शब्द शिल्प’, एलआईजी ए-45, जनता कॉलोनी, मन्दसौर - 458004, मध्य प्रदेश तथा मोबाइल नम्बर 94250 33960 है।)

डॉ. काटजू ने पैर पटक कर कहा - ‘यहाँ, इसी जगह पैदा हुए थे कालिदास’

आज से उज्‍जैन में कालिदास समारोह प्रारम्‍भ हो रहा है। इस अवसर पर प्रस्‍तुत है, 
डॉक्‍टर मुरलीधर चाँदनीवाला की आँखों देखा प्रथम कालिदास समारोह 

1958 में, देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन उज्जयिनी में अखिल भारतीय कालिदास समारोह की शुरुआत हुई थी। पूरी नगरी उत्सवमयी थी। मैं तब मात्र सात वर्ष का था। तब मोबाइल, कैमरे आज की तरह न थे, किन्तु बहुत सारे दृश्य ज्यों के त्यों आँखों में अब भी तैरते ही रहते हैं। 

विवाद तो तब भी हुए। एक तो उद्घाटन के लिये राष्ट्रपति जी जिस विशेष रेलगाड़ी से आ रहे थे, उसके इंजिन का नाम ‘विक्रमादित्य’ रखा गया था,  जो इंजिन उसकी अगुआई कर रहा था, उसका नाम  ‘कालिदास’ रखा गया था। एक, तीसरे वैकल्पिक इंजिन का नाम ‘मेघदूत’ रखा गया था। तब जागरूक नेताओं और पत्रकारों ने इस व्यवस्था का जम कर विरोध किया था और इसे विक्रमादित्य व कालिदास का अपमान तक बता दिया था। 


डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का स्वागत करते हुए मन्त्री डॉक्टर कैलासनाथ काटजू।

कालिदास समारोह के उद्घाटन अवसर पर  राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, मुख्यमन्त्री डॉ.कैलासनाथ काटजू , डॉ. शंकरदयाल शर्मा, पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी,  पण्डित सूर्यनारायण व्यास, राज्यपाल हरिविनायक पाटस्कर  सहित राष्ट्र की महान् विभूतियाँ उपस्थित थीं। 

पहले कालिदास समारोह में ही कालिदास की जन्म-भूमि को लेकर विवाद खड़े हुए। सब विद्वान् यह मानने को तैयार नहीं थे कि कालिदास उज्जयिनी में पैदा हुए। विवाद बहुत ही गहरा था। मुख्यमन्त्री कैलासनाथ काटजू ने राष्ट्रपतिजी के सामने मंच पर माईक के सामने खड़े होकर अपने दाहिने पैर को जोर से जमीन पर पटकते हुए कहा - ‘मैं इस समय जहाँ खड़ा हूँ, कालिदास का जन्म यहीं, ठीक इसी जगह पर हुआ था।’ उनके यह कहने के बाद पूरे सात दिन के समारोह में  किसी विद्वान् ने कभी कालिदास की जन्मभूमि को लेकर विवाद नहीं छेड़ा।

प्रथम कालिदास समारोह समारोह के प्रसंग पर जुटी विभूतियों के इस समूह चित्र में डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी, पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर, डॉक्टर भगवत शरण उपाध्याय आसानी से पहचाने जा सकते हैं। 

पहले कालिदास समारोह में रूसी विद्वान् वारान्निकोव भी आये थे। उन्होंने अपना भाषण संस्कृत में ही दिया। उन्हें बड़ी हैरानी हुई कि लगभग सभी भारतीय विद्वान् अपना भाषण अंग्रेजी में दे रहे थे। वारान्निकोव ने इस बारे में कुछ तल्ख टिप्पणियाँ भी कीं। उपस्थित विद्वानों और भारतीय संस्कृति की पैरवी करने वालों को उस दिन सबके सामने बहुत नीचा देखना पड़ा था। दूसरे ही दिन अखबारों में वारान्निकोव की टिप्पणियाँ सुर्खी में छपी थीं। 

उस दिन का एक रोचक किस्सा बड़ा मशहूर है। राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्रप्रसाद जी ने उज्जयिनी-भ्रमण की इच्छा व्यक्त की। वे पहली बार उज्जयिनी आये थे। उन्हें उज्जयिनी-भ्रमण कराने का जिम्मा तत्कालीन ग्वालियर नरेश श्रीमन्त जीवाजीराव सिन्धिया ने आगे हो कर लिया। वे राजेन्द्र बाबू के साथ खुली जीप में सवार हुए। जीप महाराजा ही चला रहे थे। छत्री चौक से होते हुए जब वे गोपाल मन्दिर पहुँचे, तब वहाँ दोनों तरफ कतारबद्ध खड़े जन-समूह ने ‘महाराजा जीवाजीराव  सिन्धिया अमर रहे!’ का घोष करना आरम्भ कर दिया। राष्ट्रपति जी अपार जन-समूह का उत्साह-संवर्धन करते हुए स्वयं भी दाहिना हाथ उठाकर ‘अमर रहे! अमर रहे!!’ का घोष करने लगे। 

ग्वालियर नरेश श्रीमन्त जीवाजीराव सिन्धिया का स्वागत करते हुए 
पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास। प्रसन्नतापूर्वक निहारते हुए डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद।

संध्या समय सांस्कृतिक कार्यक्रम के अन्तर्गत कालिदास का नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ खेला जाना था। सब तैयारी हो चुकी थी। रंगमंच के नीचे प्रेक्षागृह में आगे की पंक्ति में राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, डॉ.कैलासनाथ काटजू, राज्यपाल सहित महत्वपूर्ण हस्तियाँ बैठी हुई थीं। दूसरी पंक्ति में राष्ट्रपति जी के ठीक पीछे पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर बैठे हुए थे। नाटक आरम्भ होने से पहले विशिष्ट अतिथियों को चाय पेश की गई। शीत लहर थी। राष्ट्रपति जी सहित सभी गणमान्य चाय का आनन्द ले रहे थे। तभी यवनिका हटी। मंच पर सूत्रधार ने प्रवेश किया। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर ने चाय का स्वाद ले रहे राष्ट्रपति जी के कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा - ‘राजेन्द्र बाबू! चाय का प्याला रख दीजिए। नाटक आरम्भ हो चुका है।’ और बस, राष्ट्रपति जी ने तत्काल चाय का प्याला  नीचे रख दिया।

उस वर्ष देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन पहले कालिदास समारोह के अवसर पर  उज्जयिनी में पधारे हुए विद्वान् अतिथियों के सम्मान में उज्जयिनी को बहुत ही सीमित साधनों के रहते सादगीपूर्वक, किन्तु बहुत ही सुन्दर ढंग से सजाया गया था।

मुझे अच्छी तरह से याद है, देर रात जब राष्ट्रपति जी रेल से बिदा हो रहे थे, तब मेरे बड़े भाई साहब कमल नयनजी मुझे साइकिल पर बैठाकर रेल्वे स्टेशन ले गये थे। मैंने देखा, राष्ट्रपति जी कम्पार्टमेण्ट के बाहर गेट पर खड़े होकर हाथ हिलाते हुए अभिवादन कर रहे थे। रेल सीटी दी रही थी, गॉर्ड हरी झण्डी दिखा रहा था। कोई अतिरिक्त भीड़-भाड़ नहीं थी। देखते ही देखते रेलगाड़ी रवाना हुई। बहुत दूर तक भी राष्ट्रपति जी मुस्कुराकर हाथ हिलाते हुए दिखाई देते रहे।

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अपनी जीवन संगिनी श्रीमती प्रतिभा चाँदनीवाला के साथ डॉक्टर मुरलीधर चाँदनीवाला। मुरलीधरजी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। रतलाम में रहते हैं। उनका पता - ‘मधुपर्क’, 07 प्रियदर्शिनी नगर, कस्तूरबा नगर, रतलाम-457001 और मोबाइल नम्बर 94248 69460 है। मुरलीधरजी का काम-चलाऊ परिचय मेरी इस पोस्ट पर उपलब्ध है। यह आलेख मैंने, मुरलीधरजी की फेस बुक वाल से ही लिया है।