मेरे कस्बे रतलाम का माणक चौक स्कूल (वर्तमान अभिलेखीय नाम - शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय क्रमांक-1) अपनी स्थापना के सवा सौ वर्ष पूरे कर रहा है। यहाँ पढ़े लोग पूरे देश में फैले हुए हैं और अपने-अपने क्षेत्र में ‘नामचीन’ हैं। होना तो यह चाहिए था कि इस स्कूल के सवा सौ वर्ष पूरे होने पर ऐसा भव्य और व्यापक समारोह मनाया जाता जिसमें पूरा कस्बा शामिल होता-विशेषतः वे तमाम जीवित लोग अपने परिवार सहित शामिल होते जो यहाँ पढ़े हैं, इस स्कूल की ऐतिहासिकता के बारे में, स्वाधीनता संग्राम में इसकी साक्ष्य के बारे में, नगर विकास में इसकी भूमिका के बारे में विस्तार से वर्तमान पीढ़ी को बताया जाता।
लेकिन इसके विपरीत जो कुछ हो रहा है वह ‘चौंकानेवाला’ से कोसों आगे बढ़कर ‘हताश करनेवाला’ है। हमारे नगर नियन्ताओं ने घोषणा कर दी है कि वे इसे ध्वस्त कर यहाँ ‘शापिंग मॉल’ बनाएँगे। उन्होंने केवल घोषणा ही नहीं की, जिला योजना समिति से तत्सम्बधित प्रस्ताव पारित करवा कर प्रदेश सरकार को भी भेज दिया है।
इस समाचार से जिन कुछ लोगों को अटपटा लगा, उनमें मैं भी शरीक रहा। किन्तु मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने पाया कि अटपटा लगने वाले इन लोगों में रतलाम का मूल निवासी एक भी नहीं है - हम सबके सब वे लोग हैं जो बाहर से आकर रतलाम में बसे हैं। न तो हम लोग और न ही हमारे बच्चे इस स्कूल में पढ़े हैं। सीधे-सीधे कहा जा सकता है कि बेचैन हो रहे हम लोगों का इस स्कूल से कोई लेना-देना नहीं है।
लेकिन इससे क्या अन्तर पड़ता है? जो मिट्टी मेरी कर्म स्थली है, जिसने मुझे पहचान, प्रतिष्ठा, हैसियत दी, वह अकड़ दी कि मैं लोगों से आँखें मिलाकर बदतमीजी से बात कर लेता हूँ - उस मिट्टी के प्रति मेरी सहज नैतिक जिम्मेदारी बनती है। फिर, मेरी बात को आगे पहुँचाने के लिए मेरे पास ‘उपग्रह’ नामका अखबार भी है - भले ही उसका प्रसार और प्रभाव सीमित हो! यही सोच कर मैंने ‘पुरातात्विक और ऐतिहासिक स्कूल को ध्वस्त करने को उतावला ‘बनिया शहर’ शीर्षक से एक विस्तृत समाचार ‘उपग्रह’ में दिया। बदले में जो कुछ हुआ उसने मेरी यह धारणा मिथ्या साबित कर दी कि ( 33 वर्षों से यहाँ रह रहा) मैं अपने कस्बे को जानता-पहचानता हूँ।
मुझे लगा था कि मेरे समाचार से ‘अच्छी-खासी’ भले ही न हो, ऐसी और इतनी हलचल तो होगी ही कि हमारे नेताओं और प्रशासन को अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार के लिए कम से कम बार तो सोचना ही पड़ेगा।
किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गिनती के लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की-वह भी, समाचार के लिए मुझे बधाई और धन्यवाद देने के लिए। केवल, श्री नवीन नाहर नामके एक सज्जन ने लोगों के नाम एक पत्र लिखकर उसकी कुछ फोटो प्रतियाँ कस्बे में बँटवाई हैं। किन्तु श्री नाहर को मेरे कस्बे ने कभी भी गम्भीर आदमी नहीं माना।
समाचार को छपे आज नौंवा दिन है। कस्बे में जहाँ कहीं जाता हूँ, लोग समाचार के लिए मुझे धन्यवाद देकर प्रश्नवाचक नजरों से दखने लगते हैं - ‘स्कूल भवन को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?’ मैं उनसे कहता हूँ - ‘आप लोग कुछ करते क्यों नहीं?’ उत्तर मिल रहा है - ‘आप कर तो रहे हैं? आपने काम हाथ में लिया है तो पूरा हो ही जाएगा।’ देख रहा हूँ अपनी भागीदारी की बात करने से हर कोई बड़ी चतुराई से बच रहा है।
ले-दे कर एक जलजजी (डॉक्टर जयकुमारजी जलज) हैं जो लगभग अस्सी का आँकड़ा छूते हुए भी कह रहे हैं - ‘आप निराश मत होईए। अपने से जो बन पड़े, करेंगे।’
मुझे अकुलाहट हो रही है। क्या कोई पूरा का पूरा कस्बा, अपनी ऐतिहासिक और पुरातात्विक धरोहरों के प्रति इस तरह उदासीन हो सकता है?
किसी को क्या कहूँ? अपने लिए ही कह सकता हूँ - अभागा।
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