अपवाद के सामान्य में बदलने का आशावाद

यह रविवार, 29 अप्रेल की सुबह है। मैं इन्दौर में हूँ। एक बीमा अभिकर्ता साथी का फोन आया। एक अखबार का नाम और पन्ने का नम्बर बताते हुए कहा - ‘यह खबर पढ़िए। छोटी सी है लेकिन छोटी नहीं है। पढ़िएगा और पढ़कर बताइएगा, मैं ठीक कह रहा हूँ या नहीं।’ 

मेरे पास अखबार नहीं है। मैं अखबार का ई-संस्करण खोलता हूँ। मित्र के बताए पन्ने पर जाता हूँ। ज्यादा खोजना नहीं पड़ता। जल्दी ही नजर आ जाती है। पन्ने के ऊपरी हिस्से में ही है। इन्दौर की सांसद और लोकसभा स्पीकर श्रीमती सुमित्रा महाजन से जुड़ी, छः/साढ़े छः कॉलम शीर्षक वाली खबर है। मित्र की बताई खबर सचमुच में बहुत छोटी है - एक कॉलम में। गिनती की नौ पंक्तियों की। लेकिन मित्र का अनुमान सही है। खबर दीखने में छोटी है लेकिन छोटी है नहीं।

खबर के मुताबिक, जिला विकास एवम् निगरानी समिति की बैठक में, श्रीमती महाजन की उपस्थिति में, पंचायतों को डिजिटल बनाने के मुद्दे पर, बीएसएनएल के अधिकारी जब सफाई दे रहे थे तभी इन्दौर की महापौर श्रीमती मालिनी गौड़ ने पूछा लिया कि बीएसएनएल का फोन एक बार में क्यों नहीं लगता? बड़ी मुश्किल से बात हो पाती है। इस पर अधिकारी ने कहा - ‘मैडम! आपके घर आकर जाँच करा लेते हैं।’ इस पर महापौर ने कहा - ‘मैं अपने घर की नहीं, सभी के घर की बात कर रही हूँ।’ समाचार यहीं समाप्त हो जाता है।

मैं मित्र का आशय समझ जाता हूँ। मेरे मित्र भी आखिर हैं तो मुझ जैसे ही! मैंने उन्हें फोन लगाया। पूछा - ‘अपनी महापौर से नाराज हो?’ बोले - ‘सही पकड़े हैं। बीएसएनएल का फोन एक बार में नहीं लगता यह कोई आज की या एक दिन की बात नहीं है। सारा शहर और आसपास के गाँवों के अनगिनत लोग परेशान हैं। महापौर को यह ज्ञान प्राप्ति उस बैठक में अचानक ही नहीं हुई। वे सब कुछ अच्छी तरह से जानती हैं। लेकिन उन्हें अफसरों से कहने की फुरसत कभी नहीं मिली। वे सारा दिन घूमती हैं। रोज ही आठ-दस पत्र तो लिखवाती ही होंगी। एक चिट्ठी बीएसएनएल के अफसरों को भी लिख देतीं! उन्हे अपने दफ्तर मे बुलवा लेतीं या खुद उनके दफ्तर चली जातीं। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। किया भी तब जब जिले भर के अफसरों का जमावड़ा उन्हें तैयार मिला।’

मित्र की नाराजी मुझे ठीक नहीं लगी। मैंने कहा - ‘आप अपनी महापौर से जबरन नाराज लगते हैं। लगता है, आप कोई काम लेकर गए होंगे और उन्होंने आपको टरका दिय होगा।’ मित्र बोले - ‘आपको लगता है कि मैं इस कारण से ऐसी बातें कर रहा हूँ? ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं नाराज भी नहीं हूँ। हाँ! दुःखी जरूर हूँ। जो काम वे महीनों पहले कर सकती थीं, या कहिए कि उन्हें कर लेना चाहिए था, वह काम करने के लिए वे मौके और मुहूर्त की बाट तकती रहीं। आपको उनसे सहानुभूति हो रही है तो आप भी एक बात नोट कर लो! अफसरों के मजमे में बीएसएनएल के अफसरों को हड़काने के बाद वे पलटकर भी नहीं देखेंगी कि उनके कहे पर कोई कार्रवाई हुई भी या नहीं। मैं इसी बात पर गुस्सा  हूँ और दुःखी हूँ। समस्या का निपटारा करना उनका मकसद नहीं था। उनका मकसद था, अफसरों को हड़काना और अखबारों में सुर्खियाँ पाना। बस! और कोई बात नहीं।’

मैं मित्र से पूरी तरह सहमत नहीं हो सका। महापौर ने भले ही अफसरों को हड़काने के लिए ऐसा किया हो लेकिन मुझे इसमें यह बात अच्छी लगी कि उन्होंने अपनी नहीं, सबकी चिन्ता की। वे जिस हैसियत में हैं उसमें, उन्हें तो फोन से परेशानी नहीं ही हो रही होगी। लेकिन उन्होंने यह महसूस किया कि उनकी जैसी सुविधा बाकी लोंगों को नहीं ही मिल रही है। उनके मन में यह बात आई या पहले से रही हो, मुझे बहुत अच्छी लगी।

हमारी ‘व्यवस्था’ इस मायने में खूब चतुर, चुस्त, चौकन्नी और सजग है। वह खूब जानती है कि कौन कितना बोलेगा और किसके बोले का कितना असर होगा। इसलिए, जिसके बोलने का असर होता लगता है, सबसे पहले उसकी बोलती बन्द करती है। मैं इस बात का भुक्त-भोगी हूँ। एक बार नहीं, कई बार।

लोक सेवाओं से जुड़े विभिन्न विभाग, खानापूर्ति के लिए ग्राहकों के सम्मेलन बुलवाते रहते हैं। ऐसे सम्मेलनों में मुझे खूब बुलावे आते थे। लेकिन किसी भी विभाग ने मुझे दूसरी बार नहीं बुलाया। अब तो मेरी ‘प्रसिद्धि’ इतनी फैल गई है कि अब कोई नहीं बुलाता। अब तो सावधानी बरती जाती है - दफ्तर की गलती से मुझे बुला न लिया जाए

ऐसे ग्राहक सम्मेलनों में होता यह था कि असन्तुष्ट लोगों की शिकायतों के बाद विभाग के लोग उन लोगों से उनके अनुभव पूछते जिन्होंने कोई शिकात नहीं की। मैं ऐसे ही लोगों में शरीक होता था। आकण्ठ भरोसे और बड़ी निश्चिन्तता से मुझसे पूछा जाता - ‘हमारी सेवाओं को लेकर आपका अनुभव क्या है?’ मेरा अनुभव सदैव अच्छा ही रहता था क्योंकि मेरी पहचान ‘कुशल शिकायतकर्ता’ की थी। मेरी शिकायतों की सफलता का प्रतिशत सदैव ही 90 से ऊपर रहा है। इसलिए मैं जब भी किसी विभाग में जाता तो मेरी समस्या प्रायः ही हाथों हाथ हल कर दी जाती। पूछनेवाले को भरोसा रहता था कि मैं उनके पक्ष में जवाब दूँगा। लेकिन मैं उनकी आशा पर तुषारापात कर देता। कहता - ‘मेरा अनुभव तो बहुत अच्छा है लेकिन मैं जानता हूँ कि वह क्यों अच्छा है। मैं अपवाद हूँ। इसलिए मेरी बात का कोई मूल्य नहीं है। जिन्होंने यहाँ शिकायतें सुनाई हैं, मैं उन सबको व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि वे आपके दफ्तर के चक्कर काट-काट कर थक गए हैं। सच बात तो वही है जो इन सबने कही है। मेरा अनुभव भले ही आपके पक्ष में है लेकिन ऐसा सबके साथ हो तो ही मेरी बात का कोई मतलब होगा।’ मेरी बात पर लोग तालियाँ बजाते और अफसरों के चेहरे उतर जाते। सम्मेलन समाप्ति के बाद सबसे पहला काम होता - यह सुनिश्चित करना कि अगले सम्मेलन में मुझे न बुलाया जाए।

इसलिए, मित्र की बात से मैं सहमत नहीं हो पाया। महापौर का मकसद चाहे जो रहा हो, लेकिन उन्होंने सबकी चिन्ता की। यह बहुत अच्छी और प्रशंसनीय बात है। 

मुमकिन है, आज केवल दिखावे के लिए, अफसरों को हड़का कर अपनी धाक जमाने के लिए, अखबारों की सुर्खियाँ पाने के लिए ऐसा किया गया हो। लेकिन ऐसा हर बार तो सम्भव नहीं हो पाएगा। आज का अपवाद, कल की सामान्य स्थिति बनेगा।

हमें इतना आशावाद तो अपनाना चाहिए। इसमें हर्ज ही क्या है?
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पुनश्चः मेरे पूछने पर मित्र ने बताया कि अपने मन की यह सारी बात उन्होंने महापौर को लिख भेजी है। मुझे फोन करने से पहले ही। मुझे उनकी यह व्यक्तिगत ईमानदारी बहुत अच्छी लगी।
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.......मैं दो बाप की औलाद हो गया

यह मंगलवार 24 अप्रेल की सुबह है। पौने दस बज रहे हैं। नरेन्द्रजी अभी-अभी गए हैं। उनकी दशा देखी नहीं जा रही थी। व्यापारी तो मझौले स्तर के हैं लेकिन साख चौबीस केरेट सोने जैसी। सौदे के सच्चे, बात के पक्के। कम बोलते हैं लेकिन नाप-तोल कर बोलते हैं। भाजपा के निष्ठावान कार्यकर्ता और संघ के समर्पित स्वयम् सेवक हैं। उनसे मेरी खूब पटती है। उम्र में मुझसे अठारह बरस छोटे किन्तु मेरे आदरणीय। जब भी मौका मिलता है, उनकी दुकान पर बैठ जाता हूँ। खुलकर बात करते हैं। गलत को गलत और सही को सही कहते-सुनते हैं।

उनका अचानक आना मुझे अच्छा तो लगा लेकिन उनकी सूरत ने सहमा दिया। होठ पपड़ाए हुए मानो कच्छ का रन पैदल पार कर आ रहे हों। आँखें इस तरह गीली और रतनार मानो गहरे पानी में सौ डुबकियाँ मार ली हों। उनके आने से उपजी खुशी, उनकी दशा से उपजी दहशत में दब गई। घरघराती आवाज में अगवानी की - ‘वाह! आज तो भए प्रकट कृपाला। कैसे कृपा कर दी?’ मेरा पूछना हुआ नहीं कि मानो कोई मजबूत दीवार भरभरा कर गिर पड़ी हो। उनका निःशब्द रुदन गूँजने लगा। उन्हें इस दशा में देख मैं इतना घबरा गया कि न तो कोई पूछताछ कर पाया न ही सांत्वना के दो बोल मेरे मुँह से फूटे। दो-एक मिनिटों में उन्होंने खुद को संयत किया और बिना किसी भूमिका के, मर्मान्तक पीड़ा भरे स्वरों में बोले - “आज तो बैरागीजी! मैं अपनी ही नजरों में दो बाप की औलाद हो गया।” मुझे मानो ततैया ने काट लिया हो। खुद के बारे में ऐसी टिप्पणी? लेकिन मैं चुप ही रहा। वे अनुचित, अकारण नहीं बोलते। सहमा हुआ, जिज्ञासु बन उनकी शकल देखता रहा। बोले - “यूँ तो कोई ढाई-तीन साल से गुस्सा आ रहा है लेकिन हर बार सोचता रहा कि चलो कोई बात नहीं। मोदीजी जल्दी ही सब ठीक कर देंगे। लेकिन डेड़ साल से तो मैं रोज अपनी परीक्षा ले रहा हूँ और रोज फेल हो रहा हूँ। मँहगाई के विरोध में हमने कितने जुलूस निकाले! कितनी नारेबाजी की! कितनी गालियाँ दीं! कितने पुतले जलाए! कितने ज्ञापन दिए! कोई गिनती नहीं। लेकिन आज सबकी जबानों को लकवा मार गया है। नोटबन्दी के बाद से तो जैसे तपते तवे पर बैठे हैं। धन्धा चौपट हो गया। दुकान खाली पड़ी है। माल नहीं। नाणा तंगी ऐसी कि जहाँ पहले आधी ट्रक माल मँगाता था वहाँ आज टेम्पो भी नहीं भरता। मँगतों की तरह टुकड़ों-टुकड़ों में माल मँगाना पड़ रहा है। बची-खुची कसर जीएसटी ने निकाल दी। धन्धा बाद में करो, पहले रेकार्ड रखो और रिटर्न भरो। मैंने अपने सर्कल के व्यापारियों से बात की - भई! कुछ करो। लेकिन सबने चुप रहने को कहा। बोले - अपनी पार्टी की सरकार है। नेताओं से बात करेंगे। लेकिन हुआ कुछ नहीं। फिर मैंने अपनी एसोसिएशनवालों से बात की। उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए कि देखा नहीं सराफावालों की क्या दशा हुई थी? नेताओं के घर-घर गए थे कि भैया ज्ञपान तो ले लो। लेकिन कोई ज्ञापन लेने को भी तैयार नहीं हुआ था। व्यापारियों ने पार्टी से सपरिवार स्तीफे दिए थे। लेकिन किसी ने परवाह नहीं की। फिर! सूरत के व्यापारियों ने क्या कुछ कम कोशिश की थी? लाखों लोग महीने भर तक रैलियाँ निकालते रहे लेकिन न तो कोई आया न किसी ने बुलाया। इसलिए चुपचाप रहो। जो सबके साथ होगा वही अपने साथ भी होगा। सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा। यह क्या बात हुई कि अपनी पार्टी की सरकार है तो गैरवाजिब बात पर भी चुप रहो? अरे! अपनी पार्टी की सरकार है तो फिर तो पार्टी को अपनी चिन्ता सबसे पहले करनी चाहिए! मैंने कहा कि भले ही कुछ नहीं हो लेकिन विरोध तो करो। गलत को गलत तो कहो! चार साल पहले जो बात गलत थी, वो आज सही कैसे हो गई? लेकिन कोई नहीं बोला। सब चुप रहे। मेरा जी खट्टा हो गया।

“मैं व्यापारी हूँ। दुकानदारी चलाने के लिए सबसे पहले ग्राहक का भरोसा जीतना पड़ता है। जब भी कोई ग्राहक भाव-ताव करता है, मैं अपनी बिल बुक बता कर कहता हूँ - ‘देख लो! एक भी बिल यदि तुम्हें बताई रकम से कम का हो तो तुम्हें फोगट में दे दूँगा। जिसका बाप एक, उसकी बात एक।’ यह सुनकर बैरागीजी! ग्राहक कोई सवाल नहीं करता। ऐसा मैं खाली कहने-सुनने या दिखाने के लिए नहीं करता। सच्ची में इस पर कायम रहता हूँ।

“लेकिन बैरागीजी! आज सुबह अखबार देखा तो अपने पर घिरना (घृणा) आ गई। पेट्रोल अस्सी रुपया लीटर पार कर गया! इस पेट्रोल को लेकर हमने मनमोहन सरकार को कितनी गालियाँ दीं! कितनी खिल्ली उड़ाई! कोई गिनती नहीं। पूरी दुनिया के भाव दिखा कर हम कहते थे कि हमें सारी दुनिया में सबसे मँहगा पेट्रोल खरीदना पड़ रहा है। तब हमने मँहगाई का खूब विरोध किया। हमारे बड़-बड़ेे नेता पेट्रोल और गैस की बढ़ती कीमतों के विरोध में धरने पर बैठे। मोदी सरकार बनी तो लगा था कि मँहगाई के खात्मे की शुरुआत पेट्रोल की कीमतें कम होने से होगी। लेकिन एकदम उल्टा हो गया। कच्चे तेल के भाव जैसे-जैसे कम हों, अपने यहाँ पेट्रोल की कीमत वैसे-वैसे बढ़ने लगी। मैंने पार्टीवालों से कहा कि यह गलत है। इसका विरोध करो। जिसका बाप एक, उसकी बात एक। सबने मेरी बात का एक ही जवाब दिया - ‘अपन ऐसा नहीं कर सकते। अपनी पार्टी की सरकार है।’ फिर मैंने एक के बाद एक वो सारी बातें गिनवाईं जिन पर मोदीजी ने पलटियाँ खाईं। लेकिन किसी ने मेरी नहीं सुनी।

“लेकिन आज तो बैरागीजी मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कार दिया। ऐसी कैसी पार्टी लाइन कि हर गलत बात को सही कहो! अरे! मँहगा पेट्रोल यदि कल गलत था तो आज सही कैसे? गलत तो गलत ही होता है। मैंने सुमित और राजेन्द्र को फोन लगाया। शरम तो उन्हें भी आ रही है और मेरी बात को सही भी कह रहे हैं लेकिन वही जवाब - ‘पार्टी लाईन।’ मैं सुबह से रो रहा हूँ। काँच में अपनी शकल देखने की भी हिम्मत नहीं हो रही। क्या करूँ, क्या नहीं? कोई जवाब नहीं सूझा तो आपके पास चला आया। मालूम है कि आप कुछ नहीं कर सकते। लेकिन अपनी बात किससे कहूँ। आपके सामने रो-गा लूँगा तो छाती ठण्डी हो जाएगी।”

यह सब सुनने के लिए मैं बिलकुल ही तैयार नहीं था। मैंने कहा - ‘आप सब लोग मिलकर हाईकमान से बात करें? न हो तो पार्टी से बगावत की धमकी दें। चुनाव के साल में सरकार से जो चाहो करवा लो।’ बोले - ‘इस पर भी सोचा। लेकिन बैरागीजी! व्यापारी की मूँछ हमेशा नीची ही रहती है। फिर, आप हमारे संगठन को नहीं जानते। हम अछूत बना दिए जाएँगे। अरे! आप आडवाणीजी, मुरली मनोहर जोशीजी जैसे दिग्गजों की दो कौड़ी की दशा देख नहीं रहे? हमारे यहाँ जिसका बहिष्कार किया, उसके तो दाग (दाह संस्कार) में भी नहीं जाते।”

उन्हें अपना अतीत और वर्तमान ही नहीं अपना भविष्य भी पता था। मैंने पूछा - ‘तो अब आप क्या करेंगे?’ मानो अपनी छाती में अपने हाथों खंजर भोंक रहे हों, इस तरह बोले - ‘चुनाव की राह देखेंगे।’ ‘लेकिन तब तक?’ ‘तब तक? तब तक खुद को दो बाप की औलाद मानते रहेंगे। इसे भूलेंगें नहीं।’

वे चले गए। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर मुझे गर्व हो रहा है लेकिन चिन्ता भी हो रही है। अब मुझे रोज उनका हाल-चाल पूछना है। यह जिम्मेदारी मैंने खुद ओढ़ी है।
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दैनिक 'सुबह सवेरे', भोपाल,  दिनांक 26 अप्रेल 2018 

रॉकेट की यात्रा, बैलगाड़ी में बैठकर

हम दोनों, पत्नी-पति के नाम पर डाक घर में पाँच आवर्ती जमा (आर. डी.) खाते  हैं। डाक घर की बचत योजनाओं के एजेण्ट मित्रों की मदद से ये खाते चल रहे हैं। कोई तीन महीने पहले, इन एजेण्ट मित्रों ने एक के बाद एक कहना शुरु किया कि हमें डाक घर में बचत खाता अनिवार्यतः खुलवाना पड़ेगा क्योंकि डाक घर से अब न तो नगद भुूगतान मिलेगा न ही चेक से। इन मित्रों को मैंने बताया कि हमारे खाते पहले से ही दूसरे बैंकों में हैं। अब कहीं और नया खाता खुलवाने का कोई औचित्य नहीं है। डाक विभाग चेक न दे, हमारे खाते में नेफ्ट के जरिये भुगतान कर दे। लेकिन एक के बाद एक, पाँचों ने कहा कि डाक विभाग नेफ्ट से भी भुगतान नहीं करेगा। डाक घर में ही खाता खुलवाना पड़ेगा।

बात मेरी समझ में बिलकुल ही नहीं आई। तमाम आय-कर सलाहकार कहते हैं कि लोगों को कम से कम बैंक खाते रखने चाहिए। मुमकिन हो तो एक ही खाते से काम चलाना चाहिए। लेकिन यहाँ सरकार का ही एक विभाग जबरन खाता खुलवाने पर तुला हुआ है। मुझे लगा कि शायद इन एजेण्टों को नए खाते खुलवाने का ‘टार्गेट’ दे दिया गया है और प्रत्येक एजेण्ट अपने-अपने आवर्ती खाते के लिए हमारा अलग-अलग बचत खाता खुलवाना चाह रहा है। याने पाँच बचत खाते। लेकिन मेरा यह अनुमान गलत निकला। कहीं कोई टार्गेट नहीं था। हमें एक ही बचत खाता खुलवाना पड़ेगा। मेरे गले बात उतर ही नहीं रही थी।

मैं सीधा, प्रधान डाक घर के मुख्य डाक पाल से मिला। उन्होंने एजेण्टों की बात दुहराई - ‘यदि भुगतान लेना है तो आपको डाक घर में ही बचत खाता खुलवाना पड़ेगा।’ मैंने समझाने की कोशिश की तो वे अत्यधिक विनम्रता से बोले कि उन्हें मेरी बात समझ में आ रही है कि हम दोनों के नाम पर पहले से ही दूसरे बैंकों में खाते चल रहे हैं और हम चाह रहे हैं कि डाक विभाग नेफ्ट से हमारे खातों में हमारा भुगतान भेज दे। ‘लेकिन सर! इट इज नॉट पॉसिबल। आपको यहाँ खाता खुलवाना ही पड़ेगा। उसके बिना हम आपको पेमेण्ट नहीं कर पाएँगे।’ - उन्होंने शान्त स्वरों में कहा। वे तो शान्त थे लेकिन उनकी बात से मुझे चिढ़ आ गई। मुझे लगा, वे मेरे साथ ‘अफसरशाही’ बरत रहे हैं। मैंने कहा - ‘अजीब जबरदस्ती है! मेरा खाता पहले से बैंक में है। आप एक और खाता खुलवाने पर तुले हैं। मैं एक खाता और क्यों खुलवाऊँ? नहीं खुलवाना मुझे खाता।’ वे तनिक भी असहज या विचलित नहीं हुए। बोले - ‘यह तो आप ही तय करेंगे सर! लेकिन हमारी मजबूरी है कि हम आपको भुगतान तब ही कर सकेंगे जब आप डाक घर में बचत खाता खुलवा लें। आपके किसी और बैंक खाते में हम भुगतान नहीं कर सकेंगे।’

खुद पर नियन्त्रण रख पाना मेरे लिए पल-पल कठिन होता जा रहा था। धैर्य साथ छोड़ने को उतावला हुआ जा रहा था। तनिक ऊँची आवाज में मैंने कहा - ‘अजीब मनमानी है! ऐसा कोई आदेश है आपके पास?’ उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप अपना ड्राअर खोला और दो पन्ने मुझे थमा दिए। यह कहते हुए - ‘मुझे, यह आदेश मिलते ही लग गया था कि कभी न कभी, कोई यह सवाल जरूर करेगा। लीजिए! आप खुद ही पढ़ लीजिए।’ मैंने आदेश पढ़ा और मेरी बोलती बन्द हो गई। दोनों बातें साफ-साफ लिखीं थी - डाक घर से किया जानेवाला कोई भी भुगतान नगद या चेक से नहीं किया जाए और डाक घर के बचत खाते में ही भुगतान किया जाए। मेरे सुर बदल गए। मुख्य डाकपालजी से हो रहे सम्वादों में खिसियाहट और झेंप घुल गई। गर्मी खाने और अकड़ दिखाने पर शर्म भी आई। लेकिन गुस्सा कम नहीं हो रहा था। एक ओर तो डाक विभाग अपने तमाम डाक घरों को ‘सम्पूर्ण बैंक’ में बदल रहा है और दूसरी ओर बैंकिंग की न्यूनतम गतिविधि को अंजाम देने से इंकार कर रहा है! मैंने जानना चाहा कि आखिर क्या वजह है जो मुझे नेफ्ट से भुगतान नहीं मिल पाएगा? मुख्य डाकपालजी ने इस बार अत्यधिक विनम्रता बरती। बोले - ‘मुझे माफ करें। यह बताने की इजाजत मुझे नहीं है। आप तो व्यापक सम्पर्कों वाले आदमी हैं। पता करने में आपको देर नहीं लगेगी।’

मैं चुपचाप चला आया। इतना चुपचाप कि धन्यवाद ज्ञापित करने का शिष्टाचार निभाना भी भूल गया। वहाँ से निकलते ही सीधा अपने बैंक में गया। वहाँ मित्रों को सारी बताई तो वे गम्भीर हो गए। बोले - ‘सर! उन पर गुस्सा मत कीजिए। वे दया के पात्र हैं। हम उनकी कठिनाई समझ सकते हैं। एक तो स्टॉफ कम और दूसरे, लगभग जीरो इन्फ्रास्ट्रक्चर। वे भी क्या करें? उन्हें नेफ्ट करने की टेक्नोलॉजी ही उपलब्ध नहीं कराई गई है।’ जाहिर था, मुझे न केवल खाता खुलवाना था बल्कि चेक बुक भी जारी करवानी थी। (ताकि वहाँ की रकम अपने बैंक के खाते में जमा करा सकूँ।)

एक एजेण्ट मित्र से खाता खुलवाने की खानापूर्ति करवाई। कोई एक महीने में पास बुक मिली। पास बुक मिलते ही मैंने एजेण्ट मित्र से चेक बुक दिलाने में मदद माँगी। तीन दिन बाद उन्होंने कहा इसके लिए कि मुझे एक आवेदन देना पड़ेगा। फौरन आवेदन दिया। लेकिन चेक बुक फौरन ही नहीं मिली। कोई डेढ़ महीने बाद मिली। चेक बुक देख कर मैं हैरान रह गया। चेक बुक के आवरण पन्ने पर जरूर मेरी उत्तमार्द्धजी का नाम (संयुक्त खाते में पहला नाम उन्हीं का है) और खाता नम्बर लिखा था लेकिन अन्दर सारे के सारे चेक एकदम खाली थे - चेकों पर न तो नाम छपा था न ही खाता नम्बर। अब प्रत्येक चेक पर अपना खाता नम्बर और हस्ताक्षरों के नीचे अपना नाम मुझे ही लिखना है। बैंकिंग प्रक्रिया का यह बहुत ही महत्वपूर्ण काम डाक घर ने मेरे ही जिम्मे कर दिया। 

यहाँ मैं चेक बुक के आवरण पन्ने की और एक चेक की फोटू लगा रहा हूँ। आवरण पन्ने पर चेक बुक का नम्बर छपा है और पहले चेक पर भी वही नम्बर छपा है जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उसी चेक बुक का चेक है।

चेक बुक का आवरण पृष्ठ। चेक बुक नम्बर 751281 दृष्टव्य है।



चेक बुक का पहला खाली चेक जिस पर चेक नम्बर 751281 आसानी से देखा जा सकता है।

बहुत हैरत हो रही है और उतना ही गुस्सा भी आ रहा है। लेकिन भोंडा मजाक यह कि मेरे इस गुस्से के पात्र उच्चाधिकारी मेरे सामने नहीं हैं और जो कर्मचारी सामने हैं वे इस अव्यवस्था के लिए कहीं जिम्मेदार नहीं हैं। याने कुढ़ना, खीझना, झुंझलाना मुझे ही है - खुद पर ही।

डिजिटल इण्डिया का सपना शायद इसी तरह पूरा होगा - राकेट में यात्रा करनी है लेकिन अपनी बैलगाड़ी में बैठकर।
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भीड़ बन जाना ही हमारी प्रॉब्लम है सर!

‘सर! मैं करीब-करीब पूरा इण्डिया घूम लिया हूँ। और मुझे कहीं ऐसा नहीं लगा जैसा आप पूछ रहे हो और सोच रहे हो।’ वसीम ने कहा तो मैं चौंक गया। बात के बादवाले हिस्से ने तो भरपूर तसल्ली दी लेकिन पूरा भारत घूम लेनेवाली बात पर विश्वास नहीं हुआ। लगा, बात करते-करते, रौ में बहकर गलतबयानी कर बैठा। अभी उसकी उम्र ही कितनी है! कुल 29 बरस! उसी ने बताया था। मैंने भेदती नजर से पूछा - ‘कैसे मुमकिन है? कितने बरस की उम्र में काम शुरु किया?’ ‘सर, पाँच बरस की उम्र से संघर्ष कर रहा हूँ।’ सड़क पर नजरें जमाए उसने जवाब दिया। मैं फिर चौंका। कार चलाते ड्रायवर से मैं सामान्यतः बात नहीं करता हूँ। लेकिन इस बार खुद को रोक नहीं पाया। 

हुआ यह कि भानजी प्रीति की बिटिया रोशी (रजनी) के विवाह की कुछ रस्मों में शरीक होने के लिए गुरुवार को हम दोनों (पति-पत्नी) को मन्दसौर जाना था। मुझे अपने रिश्तेदार से अधिक मान देनेवाले, बैंक कर्मचारियों के बड़ेे नेता हरीश  भाई यादव की कार मिल गई थी। ड्रायवर की व्यवस्था, हरीश भाई के विश्वस्त अरविन्द को करनी थी। अरविन्द ने पूछा - ‘सर! मुसलमान ड्रायवर चलेगा?’ मुझे हैरत भी हुई और बुरा भी लगा। लगा, अरविन्द ने मुझे गाली दे दी है। मैंने तनिक रोष से जवाब दिया - ‘बिलकुल चलेगा। किसी भी जात-धरम का चलेगा। लेकिन तुमने यह पूछा क्यों?’ उसने सहम कर कहा - ‘सर! कुछ लोगों को नहीं चलता।’ सुनकर और बुरा लगा था। ऐसा भी कहीं होता है? लेकिन होता ही होगा। वर्ना भला, बेचारा अरविन्द पूछता ही क्यों? मेरी बात के जवाब में अरविन्द ने कार सहित हम दोनों को वसीम के हवाले कर दिया।

जैसा कि मैंने कहा है, मैं कार चला रहे ड्रायवर से सामान्यतः बात नहीं करता। उसका ध्यान भंग न हो, इसलिए। लेकिन अरविन्द के सवाल ने मुझे आकुल कर रखा था। बस्ती से निकल कर हम लोग जैसे ही फोर लेन पर आए, मैंने वसीम से बतियाना शुरु कर दिया था। मैं जानना चाहता था कि इन दिनों के, धर्मान्धता और नफरत के माहौल से उसके काम-काज पर, उसके साथ हो रहे व्यवहार पर, उसके मुसलमान होने से क्या कोई फर्क पड़ा? उसे कोई परेशानी हुई या हो रही है? उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी में कोई बदलाव आया है? उसे अपनी धार्मिक पहचान छुपानी तो नहीं पड़ती? मेरी बातों के जवाब में उसने टुकड़ों-टुकड़ों में जो कुछ वह कुछ इस तरह था -

‘सर! मुझे कहीं भी, कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। सब कुछ वैसा का वैसा है। जो लोग बरसों से मुझे बुला रहे हैं, वे उसी तरह आज भी बुला रहे हैं। आप तो जानते हो कि रतलाम में जैन समाज का बोलबाला है। इसलिए जैन समाज में ही मेरा ज्यादा आना-जाना है। व्यवहार में भेद-भाव तो दूर की बात है सर! कोई भी मुझे यह अहसास भी नहीं कराता कि मैं मुसलमान हूँ। अभी कुछ दिनों पहले मैं चैन्नई ट्रिप पर गया था। पूरे पन्द्रह दिनों में घर आया। लेकिन मुझे एक सेकण्ड भी नहीं लगा कि मुझे मजहबी तौर पर अलग से ट्रीट किया जा रहा है। चार-चार, पाँच-पाँच दिनों के ट्रिप तो मेरे लिए अब आम बात है सर!’ और फिर वही कहा जो मैंने शुरु में लिखा है - कि वह करीब-करीब पूरा भारत घूम चुका है।

पाँच बरस की उम्र से संघर्ष करनेवाली बात पर मेरे सवाल के जवाब में उसने मानो अपनी जिन्दगी की किताब ही मेरे हवाले कर दी। वह पाँच बरस की उम्र में बिना माँ का हो गया था और नौ बरस की उम्र में पिता भी चल बसे। कहने को बड़ा भाई था तो जरूर लेकिन इतना बड़ा नहीं कि छोटे भाई की देख-भाल कर सके। छोटे भाई से फकत दो बरस बड़ा। यूँ तो अच्छा-खासा कुनबा लेकिन सबने आँखें फेर लीं। दोनों नासमझ बच्चों को महसूस करा दिया कि वे खुदा पर और अपने दोनों हाथों पर भरोसा करें। वह तो अच्छा हुआ कि पिताजी ने मकान बनवा लिया था। वर्ना जमाने ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जमीन ही बिछाने और आसमान ओढ़ने की नौबत आ जाती। जिन्दा रहने के लिए दोनों भाइयों को माँ की मौत के बाद से ही हाथ-पाँव मारने शुरु करना पड़ गए थे। 

हमारी कार ‘कथित फोर लेन’ पर उचकती, हिचकोले खाती, ठेकेदार-नेता-अफसरों की ‘राष्ट्रीय चरित्र’ वाली पारम्परिक भ्रष्टाचारी मिलीभगत के किस्से बयान करती दौड़ रही थी। मेरी नजर वसीम पर टिकी हुई थी और वसीम था कि सड़क पर नजरें जमाए, मानो उसकी बगल में बनी हुई मेरी मौजूदगी से बेखबर, अपना काम किए जा रहा था।

वसीम की बातों ने मुझे मथ दिया था। करुणा के सोते प्रवाहित करती उसकी कहानी मुझे परेशान कर रही थी। लेकिन, मेरी मूल जिज्ञासा के जवाब में वह जो कुछ कह रहा था, उससे बड़ी तसल्ली, बड़ी ठण्डक मिल रही थी। कुछ इस तरह जैसे कि बैसाख के महीने में, किसी दानी पुरुष द्वारा शुरु की गई प्याऊ पर बैठ मुझे ठण्डा गंगा जल पिला रहा हो।

मैंने पूछा - ‘वसीम! कुछ बता सकते हो कि जब तुम्हें कोई परेशानी नहीं हो रही, तुम्हारा काम और तुम्हारे भाई का गेरेज बिना किसी बाधा, बिना किसी रुकावट के अच्छा-भला चल रहा है, तुम्हारे सर्कल में सभी धर्मों के लोग हैं और तुम कह रहे हो कि वे कभी भी तुम्हारे मुसलमान होने का अहसास भी नहीं कराते तो फिर मुल्क में, धर्म के नाम पर ये मरने-मारने, तोड़-फोड़, हंगामा, आगजनी, यह नफरत क्यों फैली हुई है।?’

अविचल और निर्विकार भाव से, किसी यन्त्र की तरह कार चलाते हुए वसीम ने शान्त, संयत और सधी हुई आवाज में जवाब दिया - ‘सर! अनपढ़-गँवार लोग ये सब बेकूफियाँ करते हैं। वे न तो कुछ जानते-समझते हैं न ही जानना-समझना चाहते हैं। ऐसे लोग सर! हर कौम, हर मजहब में होते हैं। कुछ पढ़े-लिखे धन्धेबाज लोग इन्हें जरिया बनाकर अपनी दुकानें चलाते हैं। बस! यही मुश्किल है सर।’ मैंने कहा - ‘लेकिन ये तो बहुत थोड़े लोग हैं। गिनती के। ये गिनती के लोग पूरे देश में बवाल कैसे पैदा कर देते हैं?’ इस बार वसीम ने मेरी ओर देखा और थोड़ा रुक कर बोला - ‘सर! गिनती के ये लोग जब हम लोगों को भीड़ में बदल देते हैं तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। आप तो जानते ही हो सर! कि भीड़ का दिमाग नहीं होता। वो तो भेड़ों का रेवड़ बन जाती है। यदि गिनती के इन लोगों पर सख्ती से रोक लग जाए और हम लोग भीड़ में न बदलें तो कोई प्राब्लम ही न हो सर! हमारा भीड़ बन जाना ही सारी प्राब्लम है सर!’

शाम करीब पाँच बजे वसीम हमें घर पर छोड़ गया है। लेकिन उसकी निर्दोष बातों की पोटली मेरे सामने खुली पड़ी है। आधी रात बीत गई है। मैं पोटली को उलट-पुलट रहा हूँ। वसीम की बातें मुझे एक से बढ़कर एक, अनमोल जेवरों की तरह लग रही हैं। लेकिन मैं इन्हें बाँधकर अपनी आलमारी में नहीं रख सकता। इन्हें तो चौराहों पर लुटाने में ही इनकी सार्थकता और मेरी समझदारी है।

अचानक ही जिज्ञासा हो आई - ‘वसीम’ के मायने क्या हैं? मैं उर्दू-हिन्दी शब्दकोश उठाता हूँ। वसीम के मायने बताए गए हैं - ‘सुन्दर, शोभित, खूबसूरत।’ आधी रात में मेरी सुनहरी सुबह हो गई हो, ऐसा लग रहा है मुझे। 

यह वसीम तो फकत एक नौजवान नहीं, मेरा मुल्क है जो खुद अपना परिचय दे रहा है - सुन्दर, शोभित, खुबसूरत।
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बाबा, मुख्य मन्त्री और हम लोग याने हमाम के नंगे

बाबाओं को राज्य मन्त्री का दर्जा देनेवाले मामले में किसकी असलियत सामने आई? बाबाओं की? सरकार की? या फिर हम, आम लोगों की? मुझे लग रहा है - हम सबकी असलियत सामने आ गई। सारी बातें जानते तो सब थे लेकिन सब खुद से नजरें बचा रहे थे। 

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। राजा के सिपाहियों से बचने के लिए एक ठग गिरोह ने दूर-दराज के एक गाँव में ठौर ली। मुखिया ने बाबा का चोला धारण किया। मुखिया प्रमुख बाबा और बाकी सब उसके अनुचर सन्यासी। जल्दी ही बाबा का मुकाम ‘बाबा का धाम’ बन गया।

एक दिन गाँव का साहूकार, रुपयों से भरी थैली लेकर आया। बोला कि एक विवाह प्रसंग में उसे पाँच दिनों के लिए बाहर जाना है। अपने जीवन की सारी कमाई, सुरक्षा के लिए बाबा के पास छोड़े जा रहा है। लौट कर ले लेगा। बाबा ने थैली रख ली। छठवें दिन साहूकार लौटा और अपनी थैली माँगी। बाबा ने थैली जस की तस थमा दी। साहूकार खुश हो, बाबा की जैकार करता चला गया। उसके जाते ही साथियों ने पूछा - ‘थैली क्यों लौटा दी? कोई गवाह तो था नहीं। मना कर देते तो साहूकार क्या कर लेता?’ मुखिया ने कहा - “हम भले ही ठग हैं लेकिन ‘बाने की लाज’ रखनी पड़ती है। साहूकार ने ‘बाबा’ को थैली थमाई थी, ‘ठग’ को नहीं।’ किसी के पास कोई जवाब नहीं था। कुछ बाबाओं ने राज्य मन्त्री का दर्जा लेने से जरूर मना कर दिया है लेकिन बाकी बाबाओं ने ‘बाने की लाज’ नहीं रखी। इनमें से एक तो भोपाल पहुँच भी गए हैं और सर्किट हाउस की छत पर धूनी रमा रहे हैं।

मुख्य मन्त्री ने क्या किया? निश्चय ही अनुचित किया। लेकिन डगमगाती कुर्सी को थामे बैठा राजनेता किसी भी सीमा तक चला जाता है। तब नैतिकता, ईमानदारी, मूल्य जैसी बातें जुमले बन कर रह जाती हैं। मुख्य मन्त्री को पता था कि जिन मुद्दों पर बाबा लोगों ने पूरे पैंतालीस दिन, पैंतालीस जिलों के गाँव-गाँव जाकर सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खोलने की बात कही है, वे सारी बातें सच हैं। बाबा की कही बातों पर लोग वैसे भी बिना सोचे भरोसा कर लेते हैं। सो मुख्य मन्त्री ने बाबाओं को अपनी जमात में शरीक कर लिया। मुझ जैसे तुम भी हो जाओ। अब भला, एक भ्रष्ट आदमी, दूसरे भ्रष्ट आदमी की पोल कैसे खोल सकता है? लिहाजा, भ्रष्टाचार को उजागर करनेवाली, बाबाओं की जन-यात्रा, पद प्राप्ति योजना में बदल गई। यह साफ-साफ दो टू सौदा था। मुख्यमन्त्री ने सरेआम रिश्वत दी और बाबाओं ने सरे आम यह रिश्वत कबूल की। लेकिन किसी मुख्य मन्त्री की इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि वह किसी साधु-सन्त को इस तरह जगजाहिर प्रलोभन दे? जवाब आसान है। मुख्य मन्त्री को खूब पता था कि इन बाबाओं ने कबीर की बात पर अमल किया है - ‘मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा।’ 

मुख्यमन्त्री की इस पेशकश ने मुझे काका हाथरसी की बरसों पुरानी एक कुण्डली याद दिला दी -

कूटनीति मंथन करी, प्राप्त हुआ यह ज्ञान।
लोहे से लोहा कटे, यह सिद्धान्त प्रमाण।
यह सिद्धान्त प्रमाण, जहर से जहर मारिए।
चुभ जाए काँटा तो काँटे से निकालिए।
कह ‘काका’ क्यों काँप रहा है रिश्वत लेकर?
रिश्वत पकड़ी जाए, छूट जा रिश्वत देकर।

सारी दुनिया ने इस कुण्डली को साकार होते देखा। इस तरह, बाबाओं की और राजनीति की वह असलियत सामने आई जिसे हम सब पता नहीं कब से जानते हैं। इसीलिए, रिश्वत के इस लेन-देन पर हमें न तो ताज्जुब हुआ और न ही गुस्सा आया। तलाश कीजिए कि इस लेन-देन पर कितने लोगों ने आपत्ति ली? कितने लोग गुस्सा हुए? कितने लोग सड़कों पर आए? अनगिनत बाबाओं के इस देश में गिनती के पाँच-सात बाबा अप्रसन्न हुए। यह देश चूँकि ‘पार्टी लाइन’ पर चलता है, इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी के उत्साही वक्तव्यवीरों की भी बोलती बन्द हो गई। बड़े नेताओं ने तो बढ़-चढ़ कर मुख्य मन्त्री का समर्थन किया। रही बात प्रति पक्ष की! तो उसकी तो मानो बाँछें खिल गईं। मुख्य मन्त्री ने उन्हें एक नया औजार थमा दिया है। यदि कभी सत्ता में आए तो इसे काम में लेंगे। लिहाजा, प्रतिपक्ष भी अण्टा गाफिल मुद्रा में, चुप पड़ा रहा। सत्तारूढ़ पार्टी के दो-चार लोग विरोध में, चैनलों के पर्दे पर बोले जरूर लेकिन उनके विरोध को किसी ने ‘ईमानदार विरोध’ माना ही नहीं। उनका कहा, उनके कहने से पहले ही हवा हो गया।

अब रही बात आम लोगों की। आपकी-हमारी। हम सबकी। तो हम सब जानते हैं कि इन बाबाओं को बाबा हम ही ने बनाया है। भेंट-पूजा-पत्री, नारियल-प्रसाद, फूल मालाएँ, चढ़ावे की थालियाँ लिए हम ही लम्बी कतारों में लग, इनके दर्शनों की प्रतीक्षा में अपनी टाँगें पतली करते रहे। ये बाबा जैसे भी हैं और जो कुछ भी कर रहे हैं, उसके लिए तो हम ही जिम्मेदार हैं। यदि हम लोग इन्हें भाव न दें तो भला मुख्य मन्त्री इन्हें क्यों पूछे। हम सबने इनके पिछलग्गू बनकर खुद को वोट बैंक में बदल लिया है। मुख्य मन्त्री को वोट चाहिए। और जब चुनाव ऐन सामने हों तब तो चाहिए ही चाहिए। मुख्य मन्त्री ने वही किया। हमने ताज्जुब जरूर किया लेकिन हमारे ताज्जुब में ताज्जुब कम और उपहास ज्यादा था। हम जब इनका उपहास कर रहे थे तब वास्तव में हम अपनी ही खिल्ली उड़ा रहे थे। ऐतराज तो हम कर ही नहीं सकते थे। कैसे करते? खूब जानते हैं कि सारा किया-धरा तो हमारा ही है! हम यही कह-कह कर अपना मन समझाते रहे कि बाबाओं और मुख्यमन्त्री, दोनों ने एक-दूसरे का उपयोग कर लिया। जबकि हकीकत यह है कि इन दोनों ने हमारा उपयोग किया है। इन दोनों ने तो माल कूटा है। ठगाए तो हम हैं और हम खुशी-खुशी ठगाए हैं।

जो समाज अनुचित पर चुप रह कर अपनी सहमति देता है, वह ठगाने के लिए अभिशप्त रहता है। मुझे याद आ रहा है कि जैन समुदाय के साधु-सन्त ऐसा व्यवहार नहीं कर पाते।  प्रत्येक जैन साधु अवचेतन में भी जानता है कि उसके आचरण पर श्रावक समुदाय नजर बनाए हुए है। यायावरी, जैन साधु जीवन की अनिवार्य शर्त है। कोई जैन साधु यदि किसी एक स्थान पर तीन दिन से अधिक रुक जाए तो श्रावक करबद्ध हो, विनीत भाव से पूछ लेता है - ‘आपकी इच्छा क्या है महाराज साब?’ स्खलित आचरण के कारण जैन साधुओं को, श्रावक समुदाय द्वारा सांसारिक वेश धारण कराने के कुछ मामलों की जानकारी तो मुझे निजी स्तर पर है। वहाँ ‘श्रावक’ सजग-सावधान रह, अपनी जिम्मेदारी निभाता है। लेकिन अपने हिन्दू होने पर गर्व करने का आह्वान करनेवाले हम अपने किसी साधु से कभी कोई पूछताछ नहीं करते। हमें हिन्दू धर्म विरोधी करार दिए जाने का खतरा बना रहता है। 

दरअसल, सर्वाधिक अधर्म, अनाचार, अत्याचार धर्म के नाम पर ही होता है। हमारे अज्ञान के कारण हमारा धर्म अन्धों का हाथी बन कर रह गया है। सबके पास धर्म की अपनी-अपनी व्याख्या और अपना-अपना स्वरूप है। तरलता और पारदर्शिता धर्म की प्रकृति है। लेकिन हमने धर्म को जड़ और लौह आवरण में बदल कर रख दिया है। हमने प्रतीकीकरण को धर्म मान लिया है।

यह सब कुछ हमारा ही किया-धरा है। नेता हो या बाबा, हमें वही और वैसा ही मिल रहा है जिसकी पात्रता हमने अर्जित की है। बबूल बोये हैं तो आम कहाँ से पाएँगे? 

आइये! काँटों की चुभन के साथ आनन्दपूर्वक जीने का अभ्यास करें।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 12 अप्रेल 2018

.............. राजा माँगे ईमानदार प्रजा

विभिन्न देशों को, भारत सरकार द्वारा दिए उपहारों का ब्यौरा बताने से सरकार ने इंकार कर दिया है। कारण?  इससे उन देशों के साथ हमारे सम्बन्ध खराब हो सकते हैं। गोया, दुनिया के देश, भारत की प्रेमिकाएँ हैं जो अपनी सौतन को मिले उपहार से जल-भुन कर हमसे बेवफाई कर लेंगे। यह जानकारी ‘सूचना के अधिकार’ के तहत माँगी गई थी। इस तर्क की हकीकत समझी जा सकती है। लेकिन सरकार की अपनी सोच है। जरूरी नहीं कि लोगों की सोच और सरकार की सोच एक जैसी हो। लेकिन ऐसे इंकार लोगों की जिज्ञासा और बढ़ा देते हैं। 

सरकार ने ऐसा इंकार पहली बार नहीं किया। प्रधान मन्त्री की विदेश यात्राओं के खर्च का ब्यौरा देने से भी इंकार कर दिया। क्योंकि यह खर्च उजागर करना देशहित में नहीं है। सरकारी यात्राओं के, एयर इण्डिया के कितने बिलों की कितनी रकम की देनदारी सरकार के माथे है, यह बताने से भी इंकार कर दिया गया। क्योंकि यह बताना व्यापक हितों के विरुद्ध होगा। यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण है कि अत्यधिक आर्थिक भार से एयर इण्डिया की कमर टूटी जा रही है और इसी कारण सरकार इसके विनिवेश पर विचार कर रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार की तरफ एयर इण्डिया की देनदारी इतनी हो कि यदि सरकार चुका दे तो एयर इण्डिया के विनिवेश की जरूरत ही नहीं रहे? 

अपने खर्चों का ब्यौरा देने में सरकारों की रुचि नहीं होती। वे इससे बचना चाहती हैं। मन्त्रियों-सांसदों के वेतन-भत्तों, उनकी विलासितापूर्ण सुख-सविधाओं, सरकार का पूरा खर्चा आम आदमी चलाता है। लेकिन उसे ही जानने का अधिकार नहीं कि उसकी कमाई का उपयोग कैसे हो रहा है। लेकिन हिसाब-किताब न देने की यह सुविधा जनसामान्य को नहीं है। वेतन भोगियों की आय तो सरकार की सीधी नजर में रहती है। उन्हें तो वित्तीय वर्ष पूरा होत-होते ही अपना पूरा-पूरा आय कर चुका देना होता है। उद्यमियों, व्यापारियों, व्यवसायियों के लिए भी अपने आय-व्यय का ब्यौरा देने और आय कर चुकाने के लिए समय सीमा निर्धारित है। इसका उल्लंघन करने पर न्यूनतम दण्ड का प्रावधान है। 

जीएसटी लागू होने के बाद व्यापार का भट्टा बैठ गया है। छोटे दुकानदार और असंगठित क्षेत्र के अनगिनत लोग बेकार हो गए हैं। छोटे और मझोले व्यपारियों के लिए व्यापार करना आसान नहीं रह गया है। इसी पहली अप्रेल से लागू हुए एक प्रावधान ने रोजमर्रा की कठिनाई और बढ़ा दी है। अब कोई भी व्यापारी एक दिन में दस हजार या उससे अधिक का नगदी लेन-देन नहीं कर सकता है। गैर व्यापारियों (याने ग्राहकों/उपभोक्ताओं) के लिए यह सीमा बीस हजार रुपये है। इसका मतलब यह हुआ कि यदि मैं अपने कस्बे से बाहर खरीददारी करता हूँ तो मुझे चेक देना पड़ेगा। बाहर का दुकानदार मेरा चेक स्वीकार करने की जोखिम उठाएगा या नहीं? याने ग्राहक/उपभोक्ता को अपने कस्बे/शहर में ही खरीददारी करनी है। मेरा कस्बा रतलाम सोने के आभूषणों के लिए विख्यात है। वैवाहिक तथा अन्य विभिन्न प्रसंगों के लिए आभूषण खरीदने के लिए, देश के कोने-कोने से लोग यहाँ आते हैं। पहले नगद खरीदी कर लेते थे। अब नहीं कर सकते। कोई ताज्जुब नहीं कि रतलाम के आभूषण व्यापार पर नकारात्मक असर हो। अन्य कस्बों/शहरों पर भी यह बात लागू होगी। याने, आम आदमी, उद्यमी, व्यापारी, व्यवसायी को अपनी साँस-साँस का हिसाब देना है,  आर्थिक सुस्पष्टता और पारदर्शिता बरतनी है। लेकिन इन सबके द्वारा चुनी गई सरकारें, अपने चयनकर्ताओं को अपना हिसाब देने को तैयार नहीं। 

मौजूदा व्यवस्था का रूपक यदि रचा जाए तो कह सकते हैं कि हमारी सरकारें (और राजनीतिक पार्टियाँ) पारम्परिक, देहाती महिलाओं की तरह, लम्बे, अपारदर्शी घूँघट में अपनी शकल छिपाए रखती हैं और शेष देश को पारदर्शिता बरतने का न केवल उपदेश देती हैं अपितु उस पर सख्ती से अमल भी कराती हैं।

हमारी राजनीतिक पार्टियों के चन्दे को ‘सूचना का अधिकार’ में शामिल करने के लिए अनेक समूह बरसों से लगे हुए हैं। लेकिन सारे राजनीतिक दल गिरोहबन्दी कर इसे असफल किए हुए हैं। मँहगे चुनाव भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है। चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों की अधिकतम खर्च सीमा, लोक सभा के लिए सत्तर लाख रुपये और विधान सभा के लिए 28 लाख रुपये है। लेकिन मौजूदा चुनावी चलन में एक भी माई का लाल इस सीमा में रहकर चुनाव नहीं जीत सकता। चुने हुए लोग कभी-कभी उत्साह के आवेग में टीवी के पर्दे पर जो आँकड़े बताते हैं, वे सदैव ही करोड़ों में होते हैं। 

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) के एक अध्ययन के अनुसार 2014 के चुनावों में जीतकर सांसद बननेवालों ने 13,575 करोड़ रुपये खर्च किए। पार्टियों का और हारनेवालों का खर्च अलग है। सेण्टर ऑफ मीडिया के अध्ययन के अनुसार 2014 के लोक सभा चुनावों का कुल खर्च 30,000 करोड़ रुपये रहा। 

सरकारें और राजनीतिक दल अपना हिसाब देने से न केवल बचते हैं बल्कि बचे रहने के सुनिश्चित प्रावधान भी कर/करवा लेते हैं। अभी-अभी ऐसे ही दो प्रावधान सबने ‘प्रसन्नतापूर्वक मिलजुलकर’ किए हैं। पहला - इलेक्टोरल बॉण्ड। दुनिया में यह ऐसी पहली व्यवस्था है जिसमें सफेद धन को काले धन में बदलने की व्यवस्था की गई है। इसमें खरीदनेवाला चेक से खरीदेगा। यह खरीदी, खरीदनेवाले के खर्च में शामिल कर उसे आय-कर की छूट दी जाएगी। लेकिन यह बॉण्ड उसने किस पार्टी को दिया, यह जानकारी उसके सिवाय किसी और को नहीं होगी। यह बॉण्ड वह अपनी मनपसन्द पार्टी के बैंक खाते में सीधे जमा करवा सकता है, बन्द लिफाफे में पार्टी दफ्तर पहुँचा सकता है। पार्टी के लिए यह ‘गुप्त दान’ होगा - किसी के नाम की रसीद नहीं कटेगी। दूसरा - 1976 के बाद से मिले विदेशी चन्दे के बारे में किसी पार्टी से कोई पूछताछ नहीं की जा सकेगी।  ये दोनों प्रावधान ईमानदारी, शुचिता, नैतिकता, पारदर्शिता जैसे नैतिक मूल्यों को ठेंगा भी दिखाते हैं और उनकी खिल्ली भी उड़ाते हैं। ताज्जुब की बात तो यह कि इसके बाद भी तमाम नेता भ्रष्टाचार समाप्त करने का बीड़ा उठाते हैं।

पार्टियों को मिली ऐसी छूटें सारे गड़बड़झाले की जड़ हैं। सब कुछ साफ-सुथरा बनाने के लिए लॉ कमीशन ने 2015 से दो सुझाव दे रखे हैं। पहला - तमाम राजनीतिक दल अपना ऑडिटेड हिसाब पेश करें जिसे सीएजी भी जाँच सके। दूसरा - यदि 20,000 रुपयों से कम चन्दे की कुल रकम, बीस करोड़ रुपयों से अधिक हो तो इस रकम का स्रोत अनिवार्यतः बताया जाए। पार्टियाँ भला ऐसे आत्मघाती सुझाव कैसे मान लें? 

यह सब देख-देख कर कहने को जी करता है कि अपनी प्रजा को सम्पूर्ण रूप से ईमानदार बनाने में लगा राजा खुद ईमानदार बनने बनने को तैयार नहीं।

स्कूली दिनों में ‘फूलो का फ्राक’ शीर्षक कहानी पढ़ी थी। कम उम्र फूलो की सगाई कर दी जाती है। उसे निरन्तर समझाया जाता है कि ससुराल के लोगों से पर्दा करे। अपना चेहरा न दिखाए। एक दिन उसके ससुरजी, बिना खबर दिए, अचानक ही आ जाते हैं और अचानक ही फूलो उनके सामने आ जाती है। समझाइश का पालन करते हुए फूलो फ्राक उठाकर अपना चेहरा छुपा लेती है। यह देख ससुरजी हो-हो कर हँसते हुए उसे गोद में उठा लेते हैं।

कहानी की फूलो तो बाल सुलभता में फ्राक उठाकर चेहरा छुपाती है। लेकिन हमारी सरकारें और पार्टियाँ खूब सोच-समझ कर, सीनाजोरी से अपनी-अपनी फ्राकें उठा रही हैं। फूलो लिहाज पाल रही थी। ये सब लिहाज नहीं पाल रहे। अपनी निरावृतता बता रहे हैं। लोग भौंचक हैं और ये गर्व कर रहे हैं।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 05 अप्रेल 2018