भारती भवन के भुवन भास्कर

बालकवि बैरागी

(भारत-गर्व, प्रातःस्मरणीय श्रद्धेय पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास के सुपुत्र हैं श्री राजशेखर व्यास

‘प्रेम पत्र का साधारीकरण’  पढ़कर शेखर भाई ने, दादा श्री बालकवि बैरागी का यह आलेख मुझे भेजा। इसके साथ दिए जा रहे सारे चित्र भी उन्हीं ने भेजे हैं। यह एक अनूठा लेख है। इसे पढ़कर ही इसके अनूठेपन को अनुभव किया जा सकता है। इसमें, शिखर-व्यक्तित्वों के अज्ञात संकट-संघर्ष, उनकी जिजीविषा उजागर होती है, इन संकटों-संघर्षों से मिलनेवाला अमूल्य जीवन-पाथेय मिलता है, अपने श्रद्धेय के प्रति श्रद्धालु की महकती, छलछलाती आत्मीयता और माटी के एक कवि की, उपमाओं-अलंकारों से अटाटूट, मनमोहक भाषा की भेंट मिलती है। 

दादा श्री बालकवि बैरागी का, 16 जून 1991 को लिखा यह लेख, श्री राजशेखर व्यास द्वारा, अपने पिता पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास पर केन्द्रित/सम्पादित पुस्तक ‘स्वाभिमान के सूर्य’ में संग्रहित है और (शेखर भाई के कहे अनुसार) अनेक अख़बारों में प्रकाशित हो चुका है।)

समाचार पत्र कह रहे हैं कि अवन्तिका-उज्जयिनी के लोक प्रसिद्ध हरसिद्धि मन्दिर के सिद्ध-तन्त्र को समय और वर्षा ने धुँधला कर दिया है। अब उसकी तन्त्र भाषा पढ़ने में नहीं आती है। काल के क्रूर थपेड़ों से उस महायन्त्र को बचाने की किसी को चिन्ता नहीं है। तन्त्र और मन्त्र के जानकार इस स्थिति पर चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। चिन्ता यहाँ तक है कि इस स्थिति का असर हरसिद्धि के उपासकों की श्रद्धा पर बहुत विषम पड़ेगा और मन्दिर पर अपनी तन्त्र साधना करने वालों को झटका लगेगा। अवन्तिका का हरसिद्धि मन्दिर देश का सुपरिचित और लोकमान्य तन्त्र साधना का सिद्धपीठ है।

इस समाचार को आज से एक युग पहले मैं पढ़ लेता तो आश्वस्त होकर केवल एक पोस्ट कार्ड लिख देता या अधिकाधिक एक फोन कर देता और सारी चिन्ताएँ दूर हो जातीं। पर आज वैसा नहीं हो सकता है। उस छोर पर वह वाचस्पति व्यंितव ही अनुपस्थित है जिसे हम लोग अपनी चिन्ताएँ सौंप कर निश्चिन्त हो सकते थे।

इस एक युग ने उज्जयिनी से कितना कुछ छीन लिया है? विचित्र है रत्नगर्भा का यह चरित्र! पहले वह रत्नों को प्रस्तुत करती है फिर अपनी गोद में सदा-सदा के लिए सुला भी लेती है। कितना प्राणलेवा है उसका यह लेन-देन! भगवान जाने, पहले वह देती है कि लेती है? प्रचलित मुहावरा है लेन-देन हो न हो, पहले वह लेती होगी फिर देती होगी। भारतीय दर्शन का पुनर्जन्म सिद्धान्त अपने चक्र को कहाँ से शुरु करता है यह आज तक किसी की समझ में नहीं आया।

इसी चक्र ने हमसे वापस ले लिया है भारती भवन का भुवन भास्कर व्यंितव पं. सूर्यनारायण जी व्यास जैसा महाप्राण व्यक्ति। यदि मैं संस्मरणों पर जाऊँगा तो पृष्ठ दर पृष्ठ फैलते चले जाएँगे। हम लोग सम्मान के साथ उन्हें ‘दा साहब’ के सम्बोधन से सम्बोधित करते थे। बात हमसे वे चाहे एक पल ही करते थे या कि एक घण्टे, बोलते ‘मालवी’ में ही थे। मुझे खूब अच्छी तरह याद पड़ती है एक विशेष बात, मेरे आसपास कुल मिलाकर केवल चार, मात्र चार ही महानुभाव ऐसे हुए जिन्होंने अपने पतों में कभी अपने शहर के आगे अपने प्रदेश का नाम ‘मध्य प्रदेश’ या ‘राजस्थान’ नहीं लिखा। आपकी जानकारी के लिए इन चारों नामों को देना मैं

अपना विनम्र कर्तव्य मानता हूँ। एक तो हैं पं. सूर्यनारायण जी व्यास, सदैव के  ‘उज्जयिनी’ के आगे सदैव ‘मालवा’ ही लिखते थे। दूसरे हुए पं. श्री गणेश दत्त जी शर्मा ‘इन्द्र’। हमेशा अपने शहर आगर के बाद कोष्टक में ‘मालवा’ लिख कर गर्वित होते थे। तीसरे रहे हमारे सीतामऊ के महाराजकुमार डॉ. श्री रघुबीर सिंह जी। अपने मोतियों जैसे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखते थे ‘सीतामऊ’, ‘मालवा’। और चौथे हुए राजस्थान, ‘प्रतापगढ़’ के महान् उपन्यासकार और लेखक श्री परदेशी।  उन्होंने ‘प्रतापगढ़’ के आगे कभी ’राजस्थान’ नहीं लिखा। हमेशा ‘प्रतापगढ़’ ‘मालवा’ ही लिखते रहे। ‘मालवा’ और ‘मालवी’ के लिए इन चारों के आग्रह अपनी-अपनी जगह बहुत ही आत्मीय और ऐतिहासिक बने रहे। आज चारों हमारे बीच में नहीं हैं। महाकाल ने अपनी चतुरंगिणी ध्वज वाहिनी में इन चारों को शामिल कर लिया है। पता नहीं हमारे बाद वाले हमारे उत्तराधिकारी परिजन इन लोगों को किस तरह याद करेंगे।

बहुत याद आते हैं ‘दा’ साहब! कितने चतुर निकले वे अपना पुण्य दिवस चुनने के मामले में? 22 जून, यह माह मालवा में सम्मोहन और मांसल मादकता से भरपूर ‘कामिनी’ हवाओं के चलने का होता है। नीम की निम्बोरियाँ पकने टपकने को होती हैं। पौ फटने के प्रथम प्रहर में कोयल की. कुहू-कुहू पूरे मालवा को मस्ती से भर देती है। पानी भरती पनिहारिनें, रसाल आम की किस्मों पर बहस करती अपनी हमजोलियों से चुहलों में अनंग-प्रसंग उभारती खिलखिलाती, अपनी सुहाग चूड़ियों को खनकाती मिलती हैं, गौ वत्स कुलाँचें भरते खेतों की मेंड़ों पर भागते रहते हैं। जेठ की तपती दोपहरी के गर्भ में आषाढ़ का पहला बादल साँस लेता स्पष्ट आभासित होता है। किसान अगले संवत्सर का गणित बैठाता यहाँ-वहाँ भागता रहता है। बहिन-बेटियाँ मन-ही-मन राखी के दिन गिनने लग जाती हैं। माँ क्षिप्रा अपने तटों और घाटों से दूर भागते पानी को ललचाकर पुकारने लगती है। कुछ-कुछ ऐसा ही होता है मालवा में जून का महीना। महाकवि कालिदास ने ‘ऋतुसंहार’ में ग्रीष्म का जो रम्य अनुगायन किया है उसका जोड़ विश्व के साहित्य में कहाँ मिल सकेगा! ‘दा’ साहब ने यही समय चुना अपनी चिर बिदा का। हँसता-गाता मालवा छोड़ कर महाकाल के जा रथ में जा बैठे। हम लोग उस रथ के पहियों की धूल को आज तक अपनी आँखों में महसूस कर रहे हैं। न आँसू पोंछ पाये न आँखें ही मसल पाये। पीछे अवाक् खड़े आज तक अनन्त क्षितिज को निहारने की कोशिश में बस यही कल्पना कर रहे हैं कि शायद यह रथ वापस कभी लौटेगा। पर यह आशा कभी फलवती नहीं हुई।

अपनी प्रातःकालीन चर्या से निवृत होकर ‘दा’ साहब जब भारती भवन के अपनेझरोखे में आकर बैठते थे तो लगता था कि सूरज अपने सारथि अणु को दिशा निर्देष देता हुआ अपने सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हो गया है। भगवान भुवन भास्कर की जय यात्रा शायद इसी तरह शुरु होती होगी। शुभ्र धवल वस्त्र और सुनहरी फ्रेम का चश्मा, प्राणों को आर-पार बेधती उनको अनुभवी किन्तु अध्ययनशील आँखें, करीने से बढ़े हुए केश, और ताजा मालवी पान से रचे हुए होंठ, भगवान ने उन्हें भरापूरा शरीर और मजबूत कद-काठी तो दी ही थी, रास्ते चलते और आते-जाते लोग उन्हें झुक कर इस तरह प्रणाम करते निकलते थे मानो किसी मन्दिर के सामने से निकलने वाले श्रद्धालु अपने इष्ट प्रभु को या अपनी पूज्य देव-प्रतिमा को प्रणाम कर रहे हों। जिस पर उनकी नजर पड़ जाती वह निहाल हो जाता। कई-कई दिनों

तक वह अपने परिवेश से उस एक नजर का बखान करता रहता था। अपनी मेज पर बैठे वे या तो लिखते रहते थे या फिर पढ़ते दिखाई देते थे। प्रायः ऐसा भी हुआ है कि पूर्व निर्धारित समय के कारण उनसे मिलने वाले लोग भी उनके सामने बैठे मिलते। अपनी जिज्ञासाओं का उत्तर लेते या फिर अपनी ज्ञान-पिपासा का शमन करते प्रतीत होते थे। ‘दा’ साहब के उत्तर साधिकार और प्रामाणिक होते थे। उनका वचन, ‘शास्त्र-वचन’ माना जाता था। उनके माता-पिता ने उनका नाम बहुत सोच-समझ कर रखा होगा। वे ‘सूर्य’ भी थे और ‘नारायण’ भी। सूर्य अपनी जगह अटल, अविचल और अनासक्त है। उसका काम है स्वयं को अपनी ही ऊर्जा से दीप्त रखना। जो भी उसको सीमाओं में आ जाए, उसे रोशनी देना। फिर, वे ‘नारायण’ भी थे। नर रूप में लोग उन्हें ‘नारायण’ भी पाते थे। आशीर्वाद देने का अधिकार उन्हें जन्म से तो मिला ही था। यद्यपि वे श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल के कुल दीपक थे। किन्तु उन्होंने अपनी तपस्या से भी इस अधिकार को अर्जित किया था। वे विसर्जित हो गए तब तक उनका यह अर्जन बराबर चलता रहा। एक पल और एक दिन भी वे निठल्ले या निष्क्रिय नहीं रहे। आज यदि संसार-भर में उनका पत्राचार ही ढूँढ़ लिया जाए तो हजारों पृष्ठों की सामग्री एकत्र हो सकती है। पर उनके पत्र कौन दे? अमूल्य निधि जो हो गए हैं वे पत्र!

पत्रों को लेकर एक बहुत ही विचित्र किन्तु विनोदपूर्ण प्रसंग मैं आज तक नहीं भूला हूँ। उनके झरोखे में हम लोग बैठे हुए थे। अपने निर्धारित समय पर एक सज्जन उनसे मिलने आए। बहुत ही परेशान और करीब-करीब उद्विग्न। हम लोग उठ कर चलने को हुए। ‘दा’ साहब ने हमें रोका, फिर बैठा लिया। उन सज्जन से बात शरु हुई। अनुमान था कि शायद वे अपनी या अपने किसी परिजन को गृहदशा पर ‘दा’ साहब से कुछ पूछताछ करेंगे। सम्भवतः किसी बड़े आदमी की जन्म कुण्डली जेब से निकालेंगे या फिर हो न हो, ज्योतिष का कोई रहस्य जानने की जिज्ञासा उन्हें भारती भवन तक ले आई होगी। पर वैसा कुछ नहीं हुआ। 

‘दा’ साहब ने जब हम लोगों की उपस्थिति से उन्हें आश्वस्त कर दिया तो उन्होंने अपनी जेब से दस-बारह पत्र निकाले-कुछ पोस्ट कार्ड, कुछ लिफाफे और कुछ अन्तर्देशीय जैसे पत्र। ‘दा’ साहब को सौंपते  हुए उन्होंने माथे पर रूमाल रगड़ा और लम्बी साँस छोड़कर पूछा, ‘पण्डितजी! मैं क्या करूँ?’ दा साहब ने एक-दो पत्रों को सरसरी नजर से पढ़ा और पहले तो हल्के से मुस्कराए फिर खिलखिला कर हँस दिए। फिर अपनी टेबल की दराज को खींचा। उसमें से दो-तीन पत्र अपने नाम पर आए हुए निकाले और उन सज्जन कोे थमा दिए। उन सज्जन ने वे पत्र गहराई से पढ़ेे, ‘दा’ साहब की ओर भेद-भरी दृष्टि से देखा फिर हम लोगों को देखा और मुँह लटका कर वे पत्र ‘दा’ साहब का लौटा दिये। इस बीच ‘दा’ साहब ने भी वे सारे पत्र उन सज्जन को लौटा दिये जो कि उन्होंने ‘दा’ साहब को दिये थे। 

वातावरण बोझिल और रहस्यमय हो चला था। हम लोग इस तरह प्रतीक्षारत थे मानो कोई परीक्षाफल प्रकट होने वाला हो। वे सज्जन फिर बोले, ‘पण्डितजी! रोज न एक ऐसा गालियों-भरा गुमनाम पत्र मुझे मिलता है। कभी वह बच्चों को मिलता है, कभी बहू को, कभी पत्नी को। मैं घर जाता हूँ तब तक उस पत्र को सारा परिवार पढ़ चुका होता है। परिवार में तनाव और अपमानजनक मानसिकता बनी रहती है। कुछ सुझाइयेगा कि मैं क्या करूँ?’ ‘दा’ साहब रंच मात्र भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने सहज पूछा, आपने मेरे दिए हुए पत्र पढ़े? क्या वे आपको मिले पत्रों से किसी कदर कमतर हैं? मैंने इस तरह के पत्र मिलने के बाद क्या किया? जो मैंने किया वही आप भी कीजिए।’ वे उन सज्जन से बोले, ‘ठहाका लगाइये और ऐसे पत्र लिखने वाले को माफ कर दीजिएगा। भगवान को धन्यवाद दीजिएगा कि उसने आपको इतना ईर्ष्यास्पद जीवन दिया कि कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं आपसे जल-भुन रहा है। यह आपके जीवन की सफलता है।’ फिर अपने विनोद को सहजते हुए बोले, ‘आपको पता है इस तरह के गुमनाम पत्र कौन लिखता है?’ तब तक वातावरण सहज हो आया था। 

वे सज्जन चुप थे। हम सभी चुप थे। ‘दा’ साहब खुद ही बोले, ‘इसका उत्तर मेरी गरिमा के नीचे जैसा लगेगा। पर मैं बता देता हूँ। ऐसे गुमनाम पत्र वे लोग लिखते हैं जिनको अपनी माँ का तो पता होता है पर अपने जन्मदाता पिता का पता नहीं होता। जिनका बाप गुमनाम, उनका पत्र गुमनाम।’ और उस झरोखे में जो ठहाका लगा तो एक पल को रास्ता चलते लोग भी ठहर गए। ‘दा’ साहब ने एक-एक पान की गिलौरी हम सभी को थमाई और उन सज्जन से कहा, ‘तनाव मुक्त होकर जीने की कोशिश कीजिए। जाइए! भगवान महाकाल का दर्शन करके अपना कामकाज कीजिए।’ चरण स्पर्श करके वे सज्जन चल पड़े। 

उनके जाने के बाद ‘दा’ साहब ने उनके पास आए वे पत्र हमें भी पढ़ने को दिये। बहुत गलीज और गन्दे शब्दों में किसी ने ‘दा’ साहब को न जाने क्या-क्या लिखा था। मैं जरा-सा चकित हुआ तो ‘दा’ साहब ने समझाया, ‘क्या लोग पहाड़ पर मल विसर्जन नहीं करते?अपनी गन्दगी नहीं उलीचते? अगर पहाड़ बने हो तो यह सब सहना पड़ेगा।’ सामने बहती हुई क्षिप्रा की ओर संकेत करते हुए उन्होंने प्रति प्रश्न किया, ‘सारी उज्जयिनी की गन्दगी यह माता अपनी छाती पर ढोती है या नहीं? पूज्य बने रहने के लिए न जाने क्या-क्या सहना पड़ता है!

मुझे खूब याद है, वे जब झरोखे में बैठते थे तो उनका मुँह क्षिप्रा की ओर रहता था। सामने हरसिद्धि का दिव्य मन्दिर और क्षिप्रा का क्षिप्र प्रवाह। शहर की ओर पीठ। महाकाल का विग्रह उनके बाएँ और दाहिने खुला जनपथ। पर, जब झरोखे से उठ कर वे भीतर वाली बैठक में बैठते थे तो सारी दिशाएँ बदल जाती थीं। ठीक झरोखे की विपरीत स्थिति। इस स्थिति को वे यदाकदा विस्तार से समझाते थे वह अलग से लिखने का मामला है।

राजस्थान के भ्रमण में एक ज्योतिषियों से भरपूरे शहर में एक प्रख्यात ज्योतिषी ने मुझसे जो कुछ कहा, वह रोमांचकारी है। उनका कहना था, ‘हम लोग उसे ज्योतिषी ही नहीं मानते जिसकी पूजा और बैठक में पण्डित सूर्यनारायण जी व्यास का चित्र नहीं हो।’ यह बात उस दिन नए सिरे से रेखांकित हो गई जब कि ठेठ गंगा किनारे रुड़की शहर में एक मित्र ज्योतिषी ने अपनी पूजा के लिए खुद मुझसे ही ‘दा’ साहब का चित्र माँग लिया। 

पता नहीं महाकाल ने हमसे कितना कुछ ले लिया है और रत्नगर्भा हमें कितना क्या दे देगी? इसे आप लेन-देन कहेंगे या देन-लेन?

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श्री राजशेखर व्यास





नाद हमारी आत्मा का निनाद है

विजय बैरागी के सवाल - बालकवि बैरागी के जवाब

(दादा श्री बालकवि बैरागी द्वारा दिए गए, विजय बैरागी के सवालों के ये जवाब, जारा पब्लिकेशन की त्रैमासिक पत्रिका ‘ओशो: शून्य के पार’ के, फरवरी, मार्च, अप्रेल 2018 के अंक में प्रकाशित हुए थे। ये सवाल-जवाब श्री विजय बैरागी के सौजन्य से ही मिले हैं। इस सामग्री के साथ दिया गया दादा का चित्र भी, पत्रिका के इसी अंक से लिया गया है।)
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20 सितम्बर 1977 को प्रातः ओशो द्वारा आध्यात्मिक क्रान्ति प्रवचन के दौरान, ‘अंगार और श्रंगार के ख्यातनाम कवि’, हिन्दी-मालवी के शब्द-साधक बालकवि बैरागी की कविता ‘पुरवा को पछुवा मार गई’ की व्याख्या कर श्री बैरागी को सम्मानित किया गया। सन्त चरणदास के पदों पर दिए गए ओशो के दस प्रवचनों के संकलन ‘नहीं सांझ, नहीं भोर’ में यह प्रवचन संकलित है।
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प्रश्न - धर्म की धारणा को कैसे अभिव्यक्त करें?

उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है जितना हम लोग समझते हैं। धर्म वह है जिसे हम धारण करते हैं। वस्तुतः धर्म एक धारणा है पर धर्म वह नहीं है, जिसे हम पालते हैं। सच्चाई यह है कि हमारा धर्म ही हमें पालता है। मैं ऐसे हजारों लोगों से मिला हूँ, और मिलता रहता हूँ, जो स्वयं को धर्मपाल मानते और समझते हैं। अपने नाम के आगे या पीछे धर्मपाल शब्द का उपयोग एक डिग्री या उपाधि की तरह लगाते हैं और गर्वित होते हैं। धर्म कोई जीवन शैली नहीं है । सच्चाई यह है कि धर्म हमारी जीवन यात्रा का वो महत्वपूर्ण तत्व है, जो हमें जीवन जीने के सतपथ पर साथ रह कर रास्ता बनाता है। आपको आपका चरित्र देता है और आसपास रह कर सतत् आपसे आपकी जीवन यात्रा का लक्ष्य पूछता है। धर्म को हम अपने कर्म से अभिव्यक्त करते हैं। आपका कर्म ही आपके धर्म की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। समाज आपको आपके कर्म से पहचानता है। धर्म से नहीं। यही एक कारण है कि हम विभिन्न धर्मों वाली सृष्टि में मनुष्य के रुप में भेजे गये हैं। हम मानव को मानव, मनुष्य को मनुष्य बनाये रखें यही एक अभिव्यक्ति है, जिससे हमारा निर्माता हमारी धारणा को समझता है।

प्रश्न - भक्ति, पूजा और प्रार्थना आपके विचार से.....?

उत्तर - यदि आप मनुष्य हैं तो आप प्रतिदिन भक्ति, पूजा और प्रार्थना करते हैं। भक्ति आपकी भावात्मकता है। पूजा आपकी सकारात्मक साधना है और प्रार्थना आपका समर्पण है। ये तीनों प्रक्रियाएँ आप सगुण और निर्गुण, साकार और निराकार दोनों के प्रति कर सकते हैं। सात्विकता, राजस रूप और तामस भाव तीनों तरह से यह त्रिगुणात्मकता निबाहते लोगों को हम रोज देखते हैं। प्रभु भक्ति या देव भक्ति और भूत भक्ति इन तीनों तरह के भक्तों से आप परिचित हैं। देव पूजा, व्यक्ति पूजा और भूत पूजा के पुजारी आपसे मिलते रहते हैं। और प्रार्थना हमारा अन्तर्भाव है। हम सब कहीं न कहीं किसी न किसी शक्ति के सामने अतिभाव से प्रार्थी बने हुए हैं। प्रत्येक जीवन इस त्रिकोण का एक कोण है। यह आवश्यक ही नहीं अत्यावश्यक है।

प्रश्न - बाहरी और अन्‍तर्यात्रा की भावभूमि शाब्दिक हो सकती है?

उत्तर - शब्द को हमारे यहाँ ब्रह्म माना गया है। ब्रह्म में कौन-सी शक्ति नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। आपके जीवन की जो भी यात्रा हो, शब्द उसे या उसका वर्णन कर सकता है। यहाँ तक कि हमारे आपके मौन को भी वह पूरे विश्वास से शाब्दिकता दे सकता है। हमारे ज्ञात-अज्ञात महापुरुषों और स्वयं प्रकृति ने अपनी बाहरी और आन्तरिक अन्तर्यात्रा को शाब्दिकता देकर सिद्ध किया है। यह मात्र शाब्दिक नहीं अपितु पठनीय, विचारणीय और विवेचनीय है। मनुष्य जीवन की दोनों ही प्रश्नांकित यात्राओं की भाव भूमि शाब्दिक हो सकती है। हमारा देश वेदों और उपनिषदों का देश है इनके अध्ययनकर्ता जानते हैं कि शब्द-ब्रह्म ने विभिन्न भाव भूमियों को किस तरह सहेजा और सम्हाला है । इसे इस शाब्दिकता का उत्तराधिकारी बनाया है। यह एक अद्भुत और अनुपम सम्पत्ति है जो हमें विरासत में मिली।

प्रश्न - दार्शनिकों ने दर्शन को अनेक आयाम दिये आपके समीप ‘दर्शन’, वाद और विचारधारा से पल्लवित है?

उत्तर - संसार में समय-समय पर अपनी-अपनी धरती पर ‘दर्शन’ को अपनी-अपनी समझ और बुद्धि से तरह-तरह के आयाम दिये यह एक सच्चाई है पर विश्व में कहीं भी दर्शन पर और दर्शन की विवेचना तथा आयाम पर पूर्णविराम नहीं लगा। यह एक तात्विक प्रक्रिया है और तात्विक पर प्रतिदिन कहीं न कहीं विमर्श होता रहता है। सबके पास अपनी-अपनी विचारधारा और अपने-अपने वाद हैं। न यह धारा रुकती है न ये वाद ठिठकते हैं । हम स्वयं इन वादों और विचारधाराओं का अध्ययन करने के बाद अपने स्वयं की विचारधारा में अवगाहन कर बैठते हैं और अपने वाद के नशे में डूब जाते हैं। दर्शन और ‘दार्शनिक’ हमारी अपनी विचारधारा को नवपल्लवित करते हैं।

प्रश्न - संस्कृति व लोक की रसात्मक अभिव्यक्ति को सृजन एवं पुरातन परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करना चाहेंगे?

उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर एक विराट अध्ययन चाहता है।  संस्कृति और लोक की रसात्मक अभिव्यक्ति को हम पुरातन परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करेंगे तो अपने भूतकाल से जुड़े रहने के मोह में अपने वर्तमान से कट जायेंगे। यह व्याख्या हमें वर्तमान के सन्दर्भों और प्रासंगिकताओं को ध्यान में रख कर करनी पड़ेगी। यह एक तुलनात्मक प्रक्रिया है। इसने क्या खोया और क्या पाया तथा आज हमारे पास क्या है और कितना है? सभ्यता और वर्तमान संस्कृति हमें क्या दे रही है? लोक दृष्टि में हम मिट रहे हैं या बन रहे हैं बह देखना समझना जरूरी है। कल की व्याख्या आज पुरानी लगती है और आज की व्याख्या कल पुरानी हो जायेगी। हमारे बाद वाली पीढ़ियाँ हमें किन नजरों से देखेगी यह प्रश्न कौंध जाता है। आज के बच्चों को उनके माँ-बाप अपनी संस्कृति और रसात्मक लोक भूमि पर किस दृष्टि से देख रहे हैं? क्या संस्कृति विकृत हो रही है? क्या रसात्मकता सूख रही है? क्या सरसता क्षण-क्षण क्षरित हो रही है? ऐसे प्रश्न रोज उठ रहे हैं। संस्कृति मूक है और लोक अवाक् है। क्या यह ऐसा युग है? प्रश्न हमें मथ रहे हैं। पुरातन परिप्रेक्ष्य में आज का सृजन और आज की व्याख्या कितनी कारगर है? ऐसे हजारों प्रश्न हमसे उत्तर चाहते हैं। हम प्रश्नों की शर-शैया पर भीष्म बने लहू लुहान हैं।

प्रश्न - लौकिक व पारलौकिक इयत्ता पर स्वानुभूत सत्य कहाँ जाकर ठहरता हैं?

उत्तर - लौकिक और पारलौकिक इयत्ता पर स्वानुभूत सत्य दोनों के सन्धि स्थल पर आकर ठहर जाता है। स्वानुभूति स्वयं कहती है कि मैं लौकिक भी हूँ और पारलौकिक भी। यही मेरा स्वानुभूत सत्य है। प्रश्न श्रृंखला का यह प्रश्न सबसे अधिक सरल है।

प्रश्न - आवागमन का सिद्धान्त और पुनर्जन्म की परिकल्पना की तार्किकता और मृत्यु के रहस्य को ओशो ने कई बार उद्घाटित किया - जैन, मसीही व कबीर के सन्दर्भाे ने आपके चिन्तन को आलोकित किया?

उत्तर - आप आस्तिक हैं या नास्तिक संसार में जन्म और मृत्यु, शाश्वत सत्य हैं। यदि आप जन्म में विश्वास करते हैं तो मृत्यु में विश्वास करें या नहीं करें, वह सुनिश्चित है। ‘जो आया है वो जाएगा’, इस सत्य को आप झुठला नहीं सकते। मैं पुनर्जन्म में विश्वास करता हूँ। ओशो ने अपने प्रवचनों में जन्म-मृत्यु, आत्मा-परमात्मा, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष,  ईश्वर-परमेश्वर, स्वर्ग, नरक, ध्यान, पूजा और आध्यात्म एवं दर्शन के प्रायः प्रत्येक तत्व का गहनतम तात्विक विश्लेषण किया है। जैन, बुद्ध, मसीहा, कबीर जैसे विश्व ख्यात विचारकों, सन्तों और मानवता की आत्मपरक संस्थागत व्याख्याएँ एवं भाष्य किया है। आपके प्रश्न में जिन महापुरुषों के नामों का उल्लेख किया है, आज इनमें से कोई भी सशरीर हमारे सामने नहीं हैं, पर उनका बोला, कहा आज हमारे पास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। मेरा जीवन और चिन्तन इनके द्वारा दी गई व्याख्याओं से आलोकित है। मैंने जीवन में कभी अँधेरा महसूस नहीं किया। इन और ऐसे महान व्यक्तियों के कारण अपने जीवन में मैंने हमेशा उजास पाया। मैं इनका कृतज्ञ होकर अपना जीवन जी रहा हूँ।

प्रश्न - ‘माँ’ आपके अनुभव जगत को किस तरह छूती रही है?

उत्तर - माँ को मैं सशरीर ईश्वर मानता हूँ। वह है भी सशरीर ईश्वर। मैंने बार-बार कहा है कि ‘ईश्वर सशरीर सबके साथ रहना चाहता था पर वह ऐसा कर नहीं पाया, इसलिये उसने माँ बना दी। माँ हमारा स्वर्ग है और पिता उस स्वर्ग का द्वारपाल। स्वयं ईश्वर जब भी धरती पर अवतरित होना चाहता है तो वह किसी माँ के गर्भ से ही जन्म लेता है। मैं स्वयं अपनी माँ का निर्माण हूँ। पिता मेरे जनक हैं और माँ मेरी जननी। माँ के निधन के बाद ईश्वर स्वयं भी आपको जन्म देने वाली जन्मदात्री माँ-जननी नहीं दे सकता। माताएँ तो हमारे पास हजारों हैं, पर जन्म देने वाली केवल एक ही होती है। वह होती है माँ।

प्रश्न - ‘शब्द ही ब्रह्म है’ आपने कई बार यह व्याख्या दी। फिर, ‘नाद’ और ‘लय’ को भी आप ही विवेचना दें।

उत्तर - हाँ। समय-समय पर और जगह-जगह पर प्रासंगिक अवसरों पर मैंने कहा है कि ‘शब्द ही ब्रह्म है’ यह सूत्र या मन्त्र हमें हमारे ऋषियों और अध्यात्मिक दार्शनिकों ने दिया है। शब्द साधक को हम ब्रह्म साधककहते हैं। शब्द यहाँ ब्रह्म की साधना का सर्वाेपरि साधन है। शब्द का सदुपयोग ब्रह्म की पूजा है। दो ऋषियों का यह सम्वाद जग विख्यात है। परस्पर सम्वाद में एक ऋषि ने दूसरे से पूछा- ‘आज आपने ऋचा सृजन में क्या किया।?’ दूसरे ने उत्तर दिया - ‘आज मैंने ऋचा सृजन में एक शब्द बचा लिया।’ जहाँ एक-एक शब्द को बचाना भी तपस्या माना जाता हो वहाँ हम इस ब्रह्म के साथ क्या कर रहे हैं यह एक विचारणीय विषय है। जहाँ तक ‘लय’ का प्रश्न है, वहाँ मैं दुहरा कर कहता हूँ कि ‘लय ही जीवन है।’ लय टूटी कि जीवन टूटा। लय गई कि जीवन गया। प्राण की साँसें हमारी ‘लय’ है। लय एक प्राणवाचक क्रिया है। यदि आप ‘नाद’ का तात्पर्य पूछते हैं तो मैं कहूँगा कि ‘नाद’ हमारी आत्मा का निनाद है। हम सब ‘नाद’ की अनुगूज के दास हैं। अन्तर्नाद शब्द प्रचलित और विवेचित है। यह मौत की भाषा है। ‘नाद’ कभी वाचास नहीं होती। वह सदैव संयम और सन्तुलन की धारक है। ‘नाद’ को भी हमारे विचारक ‘ब्रह्मनाद’ तक ले गये और हमने माना। ‘नाद’ निराकार है। ‘ओऽम्’ हमारी नाद का प्रकटीकरण है। इसे आप अपने प्राणों और आत्मा में अधिगुंजित सुनते हैं। यह एक आन्तरिक प्रकिया है। यह हमेशा ‘अतर’ रहती है।

प्रश्न - ओशो ने अपने व्याख्यान में आपके गीत ‘पुरवा को पछुआ मार गई’ को व्याख्यायित किया था - आपकी अनुभूति को पाठकों के साथ बाँटना चाहेंगे ?

उत्तर - मुझे आज तक पता नहीं है कि मेरा गीत ‘पुरवा को पछुवा मार गई - लगता है पीढ़ी हार गई’ ओशो को कैसे और कहाँ से प्राप्त हुआ। ओशो जब शरीर में थे तब में उनसे कभी मिल नहीं पाया। मैंने ओशो को कभी नहीं देखा और कभी नहीं सुना। मुझे जब ओशो भक्तों ने फोन पर बताया, तब मैंने जाना कि उन्होंने अपने किसी प्रवचन में मुझे आशीर्वाद दिया और मेरे गीत को व्याख्यायित किया। इसे मैं अपने आप पर ओशो की विशेष कृपा मानता हूँ। मैं ओशो का एक पाठक हूँ। पत्र-पत्रिकाओं में जहाँ मुझे ओशो के प्रवचन या प्रवचनांश मिलते हैं। मैं अवश्य पढ़ता हूँ। उनके द्वारा की गई मेरे गीत की व्याख्या तक मुझे आज तक पढ़ने को नहीं मिली। हजारों पृष्ठों में ओशो का साहित्य फैला हुआ है। मैं तो उनकी कृपा का कृतज्ञ हूँ ।

प्रश्न - ‘कर्म’ को ओशो भी कृष्ण से जोड़कर ही उद्घाटित करते रहे, उम्र के इस पड़ाव पर आपको फलित आकांक्षाओं से परे प्रयोजनमूलक अशेष व निस्सारता बोध अभिप्रेरित करता है?

उत्तर - मैंने संसार को कभी भी सारहीन या निस्सार नहीं माना। हमें ईश्वर ने इसीलिये अपनी सृष्टि और अपने संसार में भेजा है कि यहाँ कई लोग संसार को सारहीन और निस्सार सिद्ध कर रहे हैं। उसने हमें आदेश दिया है कि मेरी सृष्टि और मेरे संसार की धरती पर जाओ और अपने कर्मठ कर्मों से इसे अधिक सारवान और सारपूर्ण बनाओ। ओशो ने कर्म को कृष्ण से बिलकुल सही जोड़ा। हमारा शास्त्र ‘श्रीमद् भगवद्गीता’ हमें कर्मठ कर्म का सन्देश देता है। कर्म करो और फल की चिन्ता छोड़ दो। फल की आशा मत करो। अपनी कर्मठता को प्राणवान रखो। संसार अनन्त है। असार या निस्सार नहीं है। पौरुष और प्राणपूर्ण कर्मठ कर्म भी संसार का एक सार है। इस सार को प्राप्त करो और दूसरों को बाँटो । संसार और सृष्टि को सारवान बनाना और सारसिद्ध रखना हमारा मूल प्रयोजन बने। यह हमारे जीवन का मुख्य लक्ष्य बने और यही हमारे कर्म का चरित्र हो। कर्म का अभिप्रेरण स्पष्ट है।

प्रश्न - शून्य के पार आकाशगंगाओं की अन्तहीन वैज्ञानिकता को ‘ब्लेक-होल’ या कि ‘कृष्ण-विवर’ को कवि की नजर से परखें या उपकरणों से?

उत्तर - इस ‘कृष्ण-विवर’ को उपकरणों से कृपया नहीं परखें। इसे परखना हो तो हे महानुभाव! इसे कवि की नजर से परखें। कवि के पास एक सौन्दर्य दृष्टि होती है। कविता और काव्य की कसौटी उसके मनीषियों ने तय कर रखी है। वह कसौटी है ‘सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्’। जो सत्य हो, शिव याने लोक कल्याणकारी हो और सुन्दर हो। काव्य की इस कसौटी ने कवि को विशेष सौन्दर्य दृष्टि दी है। वह कलिमा, कज्जल और काली अमावस्या तक में सौन्दर्य ढूँढ लेता है। काजल तक को हमने रुप और सौन्दर्य का उपकरण माना है। काले आकाश में वह अनन्त सौन्दर्य देखता है । आप जिसे ‘ब्लेक-होल’ या ‘कृष्ण-विवर’ कहते हैं, उसे उपकरणों से परखना उचित मानने वाले महानुभावों से मेरा आग्रह है कि कृपया वे कवि की नजर से ही ‘कृष्ण-विवर’ को परखें। आकाश में भी एक गंगा हम देख कर उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाते हैं। उपकरणों को विश्राम देना भी कभी-कभी जरुरी होता है।

प्रश्न - आपा-धापी के कोलाहल में आपने ध्यान-योग व आसन क्रियाओं को किस स्तर तक अपनाया?

उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर बहुत आसान और आत्मसिद्ध है। मात्र एक शब्द में ही इसका उत्तर पर्याप्त है। वह शब्द है - ‘एकाग्रता’। आप मन, बुद्धि और विचार की एकाग्रता साध लें तो ध्यान योग, आसन, सब सध जाते हैं। यदि आप मन की एकाग्रता को सिद्ध कर लें तो कैसी भी आपा-धापी हो, कैसा भी कोलाहल हो, सब ओझल हो जायेगा। यदि आप ‘एकाग्र’ नहीं हैं तो फिर किसी भी क्रिया में अग्र नहीं हो सकेंगे। क्रिया कोई-सी भी हो, सुसम्पन्न होने के लिये एकाग्रता माँगती है। मुझे एकाग्रता हमेशा अपनी सहायिका ही नहीं, सफल सहायिका लगी। आप कोलाहल, आपा-धापी और भरी भीड़ में भी एकाग्र हो सकते हैं।

प्रश्न - आपके समीप आचरण की शुद्धता के प्रतिमान रहे। आपको सर्वाधिक प्रेरणा किन बिन्दुओं पर, किन व्यक्तिया, स्थानों या विचारों से मिली?

उत्तर - मैंने अपनी जिज्ञासा को हमेशा जीवित रखा। अपने परिवेश में आये और रहे प्रत्येक व्यक्ति या प्रत्येक घटना से मैं सदैव कुछ न कुछ सीखता रहा। सीखने और जानने की इस अमृत इच्छा ने मुझे सदैव चैतन्य रखा। देश-विदेश प्रदेश और कहीं भी आते-जाते रहते मैं हमेशा कुछ न कुछ जानता और सीखता रहा। इसके बिन्दु और व्यक्तित्व दो-चार होते तो मैं नाम लिखता या बताता। यह एक अथक गणित है। मैं जिससे मिलता हूँ या कोई मुझसे मिलता है तो दोनों से मुझे कुछ-न-कुछ मिलता ही है। मुझे परमात्मा ने ‘समझकर जानने’ की प्रबलता दी है। शुद्धता और सिखाने की ललक, जड़ और चेतन दोनों को दी है। उदाहरणार्थ जड़ और निष्प्राण पत्थर तक हमें सिखाता है कि नींव में पड़ने को तैयार रहो ताकि तुम पर गुम्बज और कलश तथा पताकाएँ अपनी उपस्थिति बना सकें। प्रत्येक स्थान, प्रत्येक यात्रा हमें बहुत कुछ दे सकती है, बशर्ते कि आपकी जिज्ञासा जीवित हो। स्वयं को पूर्णांक मत मानो। हम अधूरे बने रहें तो कोई न कोई हमें पूरा करने की कोशिश करनेवाला मिल जायेगा। विचार आपकी बुद्धि और विवेक द्वारा ही अपना औचित्य आपको समझायेगा। यह एक प्रयोगशील प्रक्रिया है जो सतत् और सतवन्ती है।

प्रश्न - आपके ठहाके व विनोदप्रियता सर्वविदित हैं। कोई रोचक संस्मरण सभी से बाँटना चाहेंगे?

उत्तर - प्रसंगों में हास्य, विनोद और ठहाका ढूँढ लेना मेरी एक आनन्ददायी प्रवृत्ति है। लटका हुआ मुँह लेकर जियोगे तो कोई आपसे नमस्ते भी नहीं करेगा। लोग आपसे टल कर निकल जायेंगे। हँसते-मुस्कराते रहोगे तो हर कोई पूछेगा कि ‘क्या बात है? हमको भी तो बताओ?’ खैर, एक छोटा-सा प्रसंग लें। तब मैं मध्यप्रदेश सरकार में सूचना और प्रकाशन विभाग का मन्त्री था। सन् 1970 की बात है। सरकारी बंगला (जिसे पुतलीघर बंगला कहा जाता था) मेरा निवास था। मेरे स्टॉफ में एक चपरासी रीवा का था, जो पढ़ा-लिखा बहुत ही मामूली था। मैं अपने आँगन में आरामकुर्सी पर अधलेटी अवस्था में लेटा हुआ अखबार पढ़ रहा था। सूचना विभाग के राज्य मनत्री को प्रदेश के अखबार सारे पढ़ने पड़ते थे। अखबार की आड़ में मेरा चेहरा ढँका हुआ था। तभी मेरे अन्तर्गत विभाग में काम करने वाले अधिकारी श्री गुलशेर अहमद ‘शानी’ एक फाइल लेकर मुझे मिलने पधारे। वे मेरे घनिष्ट मित्र थे। मेरे साथ चाय पीना श्री शानी और श्री दुष्यन्त का एक तरह से संवैधानिक अधिकार माना जाता था। यह आत्मीयता थी। चूँकि मेरा चेहरा दिखाई नहीं पड़ा था सो शानी भाई ने उस चपरासी से पूछा- ‘साहब कहाँ हैं?’ चपरासी ने मेरी आराम कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए उत्तर दिया - ‘वो क्या आराम कुर्सी पर पड़े हैं! दिखता नहीं है?’ शानी भाई उत्तर सुनते ही ठहाका लगा बैठे। मैं भी अपने ठहाके को रोक नहीं पाया। मिनिस्टर हो या महाराजा, आराम कुर्सी पर पड़ा ही कहा जाएगा। उसे बैठा या अधलेटा कौन कहेगा? एक चौथे दर्जे के चपरासी ने भी मुझे ठहाका दे ही दिया। यह भी एक ठाठ है।

प्रश्न - ओशो की जीवन-दृष्टि व लौकिक मोक्ष की सांसारिक कल्पना को शब्द दें।

उत्तर - हिन्दी और संसार की बीसियों भाषाओं में आसानी से प्राप्त, ओशो की 650 पुस्तकों में से कोई भी पुस्तक पढ़ने का कष्ट करें। उनकी जीवन दृष्टि व मोक्ष की सांसारिक कल्पना को शब्द देना मेरे दायरे से बाहर की बात है। मैं क्षमा चाहता हूँ।
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विजय बैरागी - रंगकर्म और नाट्यकर्म के जरिए, जनवादी आन्दोलनों, सरोकारों, संगठनों/संस्थाओं की पहली पंक्ति के सक्रिय सदस्य। मालवा अंचल के सुपरिचित शब्द-सरोकारी। मनासा (जिला नीमच, मध्य प्रदेश) में रहते हैं। मोबाइल नम्बर 88218 89223 पर उपलब्ध हैं।
  





ओशो: शून्य के पार - त्रैमासिक, जारा पब्लिकेशन, पी. एम. हाउस, 31, पटवा कॉम्पलेक्स, नीमच (म. प्र.) 458441, मोबाइल - 93006 27593 और 76930 27593



श्री बालकवि बैरागी के अन्‍य साक्षात्‍कार










अपनी ब्याणजी (समधनजी) को दी गई अनूठी शब्‍द-चित्र-श्रद्धांजलि

दादा के कागज-पत्तर उलटते-पुलटते यह एक पत्र ऐसा हाथ में आ गया जिसे एक ही साँस में पढ़ गया। एक बार पढ़कर जी नहीं भरा तो दूसरी बार, फिर तीसरी बार पढ़ा। पहली बार पढ़ते हुए ही मन में पहला विचार आया कि यह पत्र सार्वजनिक किया जाना चाहिए। फिर, हर बार पढ़ते हुए यह विचार दृढ़ से दृढ़तर होता गया और अन्ततः यह पत्र यहाँ दे रहा हूँ।

यह एक नितान्त निजी और पारिवारिक पत्र है। किन्तु इसमें हमारी ब्याणजी (समधनजी) सुन्दरबाई का जो स्वरूप दादा ने सहजता से (लेखकीय चमत्कार जताने के लिए तो दादा ने यह सब नहीं ही लिखा होगा) उकेरा है, वह लेखकीय दृष्टि से तो अद्भुत है ही किन्तु गिनती के घरों/परिवारों वाले एक छोटे से गाँव की, वैधव्य भोग रही, एक  अशिक्षित, युवा, औसत स्त्री के संघर्ष, जीवट और जीजिविषा का ब्यौरा दादा ने जिस तरह से दिया है, उससे, यह पत्र पढ़ते-पढ़ते, हमारी ब्याणजी सुन्दरबाई के प्रति मैं नतमस्तक होता चला गया। मुझे ताज्जुब बिलकुल ही नहीं होगा, यदि मुझ जैसी ही दशा कुछ और पाठकों की भी हो जाए।

इस पत्र में कुछ पारिवारिक उल्लेख ऐसे हैं जिन्हें पढ़ते ही, ‘बुद्धि’ ने सम्पादित करने को कहा। लेकिन अगले ही क्षण ‘विवेक’ ने इस विचार को निरस्त कर दिया। लोकप्रियता और लोकप्रतिष्ठा में ‘ईर्ष्यास्पद’ स्थिति जी रहे लोग भी पारिवारिक और व्यक्तिगत स्थितियों में कितने विवश, कितने लाचार हो जाने को अभिशप्त रहते हैं! ऐसे लोगों के ‘अन्दर और बाहर’ के संघर्षों का अनुमान, ये पारिवारिक उल्लेख आसानी से उजागर कर देते हैं। अपनी एक मुक्त कविता-पंक्ति में दादा ने खुद के लिए ‘मैं असाधरण रूप से साधारण हूँ’ कहा है। ये पारिवारिक उल्लेख मुझे इस पंक्ति के भाष्य अनुभव हुए।

‘पीपल्या रावजी’ गाँव का नाम है। मेरी गीता जीजी की ससुराल। यह चन्द्रावतवंशी घराने का ठिकाना (रावला) है। हमारे समधीजी इस रावले में ‘कामदार’ के पद पर थे। 

इस पत्र में आए नामों/व्यक्तियों का परिचय क्रमानुसार इस तरह है -

बब्बू - मैं, विष्णु बैरागी। बब्बू मेरा, घर का नाम है।
गीता - दादा से छोटी और मुझसे बड़ी बहन। मेरी गीता जीजी। अब स्वर्गवासी।
चतुर्भुजजी - हमारी ब्याणजी के बडे़ बेटे। गीता जीजी के पति। मेरे जीजाजी।
गोवर्द्धनजी - हमारी ब्याणजी के छोटे बेटे। गीता जीजी के देवर।
निर्मल - हमारा छोटा भानेज। गीता जीजी का सबसे छोटा बेटा।
श्याम - हमारा बड़ा भानजा। गीता जीजी का बड़ा बेटा।
कोमल - हमारा मझला भानजा। गीता जीजी का दूसरा बेटा।
गोर्की- दादा का छोटा बेटा। मेरा छोटा भतीजा।
कला - गोवर्द्धनजी की अर्द्धांगिनी। गीता जीजी की देवरानी। अब स्वर्गवासी।
रूपा - दादा की छोटी बहू। नीरजा बैरागी। गोर्की की पत्नी।
हीरा - दादा की पोती। गोर्की-नीरजा की बडी बेटी। यह उसका घर का नाम है। वास्तविक नाम अभिसार।
सुशील - दादा की अर्द्धांगिनी। मेरी भाभीजी - श्रीमती सुशील चन्द्रिका बैरागी। अब स्वर्गवासी।
सोना - दादा की बड़ी बहू। बड़े बेटे मुन्ना की अर्द्धांगिनी।
वीणा - मेरी अर्द्धांगिनी।
वल्कल - मेरा बड़ा बेटा।
तथागत - मेरा छोटा बेटा। 
‘पीपल्या रावजी’ गाँव का नाम है। 

हमारी ब्याणजी का चित्र उपलब्ध कराने में मेरे कक्षापाठी प्रिय रमेश सोनी (मनासा) ने अत्यधिक परिश्रम किया। मैं रमेश का आभारी हूँ। 

मेरे इस अनावश्यक ‘बौद्धिक’ के बाद अब पत्र पढ़िए।
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मनासा

15 अगस्त 1991

प्रिय बब्बू

प्रसन्न रहो

यह पत्र मैं नीमच से लिख रहा हूँ। सुशील और मैं कल शाम को यहाँ पहुँचे हैं। एक-दो दिन यहाँ ठहर कर वापस मनासा निकल जाएँगे।

मनासा में सब ठीक ही है। पिताजी स्वस्थ हैं। घर में सब कृपा है भगवान की।

समाचार मिला ही होगा कि 10/8/91 (हरियाली अमावस्या) को पीपल्या रावजी में गीता की सास का अचानक देहान्त हो गया। वे दो ही मिनिट में चल बसीं। प्रातः दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर चाय पी। फिर स्नान किया। बाल सँवारे। कपड़े बदले। ओढ़ना सूखने को फैलाया। गीला लँहगा निचोड़ ही रही थीं कि गिर पड़ीं और चल बसीं। गनीमत है कि दरवाजा खुला था सो सामनेवाले पड़ौसियों ने देख लिया। यदि बन्द रहा होता तो पता नहीं, कब तक, क्या होता रहता? नितान्त अकेली थीं। हम लोग उसी शाम तक उनका दाह संस्कार करके घर लौट आये थे। 12/8 को उठावना हुआ। चतुर्भुजजी 13/8 को पहुँचे। जैसी कि सम्भावना थी, कई सारे विवाद उनके आते ही हो गये हैं।

अब 20/8 को घाटा और 21/8 को पगड़ी है। गोवर्द्धनजी सारा काम मनासा चाहते हैं। परिवार उनके साथ है। चतुर्भुजजी सब कुछ पीपल्या में ही करने बैठे हुए हैं। अन्ततः आवास और खेती-बाड़ी को पराया होना है। इस पारिवारिक विवाद में हम लोग कहीं नहीं हैं। निर्मल की मृत्यु के समय इन लोगों ने जो कुछ व्यवहार किया था, मैं तभी से इन लोगों से स्वयं को परे रखता चला आ रहा हूँ। श्याम समझदार है और जिम्मेदार भी। कोमल मेहनती और अन्ततः समझाया जा सकता है। इन बच्चों से मेरा मानसिक जुड़ाव है और ये ही बच्चे मुझे जरा समझते भी हैं। शायद ‘प्रतिष्ठा’ का मतलब भी इन्होंने समझ लिया है।

चूँकि सारे काम 20 और 21 को हैं, सो मेरे सभी कार्यक्रम ध्वस्त हो गये हैं। 20/8 राजीवजी का जन्म दिन है। भाई श्री गुलामनबी ‘आजाद’ मुझे दिल्ली में ढूँढ रहे हैं और मैं इस पारिवारिक गाँठ में बँधा बैठा हूँ। शिकायत मुझे किसी से नहीं है। कल गोर्की को लिखा है। आज तुझे लिख रहा हूँ। तुम लोग इस अवसर पर अपनी दिनचर्या को असहज मत करना। जो भी नेग-दस्तूर होगा, वह यहाँ हो जायेगा। हाँ, इतना सब होने पर भी पिताजी की अप्रसन्नता मुझे सहनी ही है। मैं बिना किसी तनाव के इस सारे आल-जाल में बराबर सहज और अपनी कलम को लेकर सक्रिय भी हूँ। ईश्वर का सहारा और प्रसाद ही है सब।

यह जानना बहुत जरूरी है कि गीता की सास को एक शानदार और शान्त मृत्यु मिली है। जिसकी मृत्यु सुधर जाती है, उसका जीवन सुधर गया माना जाता है। उनका नाम सुन्दरबाई था और थीं भी वे अपने समय की एक सुन्दर महिला। मृत्यु के समय वे करीब 70 वर्ष की थीं। सम्वत् 2002 में प्रभु ने उहें वैधव्य दे दिया। पूर 46 वर्षों तक वे विधवा रहीं। जब उनकी माँग पुँछी, वे 34 वर्ष की युवा महिला थीं किन्तु उनके बारे में एक शब्द भी गरिमा से नीचे का नहीं सुना गया। वे चर्चित ही इसलिए रहीं कि वे सर्वथा अचर्चित थीं। एक ‘वनफूल’ जैसा उनका समूचा जीवन रहा। एक-एक करके लड़के उनसे अलग होते चले गये। तीनों बेटियाँ ससुराल चली गईं। बीचवाला बेटा किशोर वय में चल बसा। ‘कामदार’ कहा जानेवाला रुतबेदार पति स्वर्गवासी हो गया। गीता मेरे पास है और कला मनासा में अपनी गृहस्थी देख रही है। न वे किसी के पास रह सकती थीं, न कोई उनके पास रह सकता था। आज से 50 साल पहले उस मकान को जैसा मैंने देखा था, वैसा का वैसा आज है। ठीक सामनेवाले खड्डे में जो रोड़ियाँ आधी शताब्दी पूर्व थीं, वे यथावत् हैं। बस, भीतरवाले आँगन में एक नीम का पेड़ जरूर नया पनपा है जो गीता ने लगाया था। बड़ा और भरपूर वृक्ष हो गया है। पर मकान में आज भी बिजली तक नहीं ले सके ये लोग। वे ही बाँस-बल्ली और वे ही खपरैल। कोई बदलाव नहीं। यह जड़ता है, ठिठकाव है, उदासीनता है, अकर्मण्यता है या कि विपन्नता? समझ नहीं पड़ता। एक अस्तव्यस्त, अवज्ञाकारी और उद्दण्ड सदस्यों का छोटा-बड़ा समूह यदा-कदा वहाँ जुटता रहा होगा और सभी एक-दूसरे पर खीजकर अपने-अपने घरों की ओर चल पड़ते होंगे। न कुछ सहनीय, न कुछ उल्लेखनीय। महत्वाकांक्षी कोई नहीं और स्वयं को सर्वोपरि मानने की पालित कुण्ठा का शिकार एक परिवार। अपने आप को छोड़कर बाकी सबकी नजरों में सब दोषी। सभी असन्तुष्ट। सभी आक्रोशयुक्त। जिससे बात करो, वही उल्का-पिण्ड की तरह जलता-भुनता। भभूका। ईश्वर के क्या-क्या खेल और कैसे-कैसे निर्णय?

तब भी बब्बू! इस महिला की मृत्यु के बाद देखा  कि उसका रसोई घर भरा-पुरा था। दोपहर की चाय तक का दूध सुरक्षित था। अन्न का एक दाना भी नहीं खरीदना पड़ा। सब कुछ सुरक्षित। सब कुछ व्यवस्थित। अपने-आप में मग्न और आत्म-मुग्ध जीवन का अद्भुत समायोजन और समापन था यह। बेशक, बर्तन आदि एकाकी सदस्य पुर्ते ही थे। तब भी स्नान-ध्यान के तत्काल बाद तुलसी पूजन करके, सम्पन्न अन्नपूर्णा की गोद में इस तरह चिर विश्राम करने का क्षण किसे मिलता है? यदि चाहते तो मृत्यु-स्नान भी अनावश्यक जैसा ही था। स्नान करके तो उन्होंने शरीर छोड़ा ही। इतनी शान्त, सुन्दर और ईर्ष्यास्पद मृत्यु का ‘उत्सव’ भी परिजन नहीं मना पा रहे हैं। कब, किस सीमा तक, कौन बढ़ जायेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है। ईश्वर सभी को सद्बुद्धि दे। सहारा दे। सम्हाले। मैं प्रभु से अपनी प्रतिष्ठा का नैवेद्य हाथ में लेकर प्रार्थना कर रहा हूँ। तुझे यह सब इसलिए लिख दिया कि शायद तू मेरी मनःस्थिति को समझ सके।  मृत्यु शाश्वत है। जीवन सनातन। मृत्यु निश्चित है। जीवन अनिश्चित। निश्चित की प्रयोगशाला हमें, अनिश्चित को सुन्दर बनाने के हल सुझाती है। आखिर मनुष्य सीखता किससे है? भगवान अपनी कक्षाएँ और किस तरह लेता है? अस्तु,

20 अगस्त से सम्बद्ध 4/5 आलेख मैंने देश के करीब 30-32 अखबारों को भेजे हें। एक आलेख तो मैंने 28 अखबारों को दिया है।

तुझे पता होगा कि 4 अगस्त को मैं श्रीपेराम्बुदूर भी हो आया हूँ। यदि अखबारों में कुछ छपे तो तू देख ही लेगा।

तूने उस दिन शिकायत की थी कि लम्बे समय से मैं इन्दौर के किसी पत्र में नहीं छपा। शायद ‘ऋतुपर्व चौमासा’ (नईदुनिया-इन्दौर-4/8/91) तूने देख लिया होगा। पूरा पृष्ठ घेरा है इस सांस्कृतिक आलेख ने। लोग अच्छे पत्र लिख रहे हैं। वैसे 4/8/91 को मैं ‘सण्डे मेल’ में भी हूँ। 3/8 को भोपाल के ‘नव भारत’ में हूँ। 5/8 को इन्दौर के ‘नव भारत’ में हूँ। 3 या 4 अगस्त को भोपाल की ‘दैनिक नईदुनिया’ में भी था।

पहिली अगस्त’91 को भोपाल के राजभवन मेें महामहिम राज्यपालजी ने अन्ततः मेरे कन्धों पर शाल डाल कर श्रीफल दे ही दिया। मुझे इतनी जानकारी नहीं थी। उस क्षण मुझे माँ बहुत याद आई। गोर्की, रुपा, हीरा थे मेरे साथ। कोई भी तो तुम में से नहीं था वहाँ। सुशील भी नहीं थी। जानकारी ही नहीं थी कि ऐसा भी हो जायेगा।

पिताजी दिनानुदिन कमजोर होते चले जा रहे हैं। बिना बात के भी झल्ला पड़ते हैं। परिवार उनको अत्यन्त पूज्य-भाव से देख रहा है। सोना बहू की सेवाएँ हमारा ऋण चुका रही हैं।

वीणा और वल्कल को हमारा स्नेह, सम्मान और आशीष देना। तथागत को प्यार। मित्रों को स्मरण।

भाई

बालकवि बैरागी


प्रेम पत्र का साधारणीकरण

बालकवि बैरागी

(मेरे बड़े भतीजे, दादा के बड़े बेटे मुन्ना बैरागी द्वारा उपलब्ध कराए गए इस चित्र के दाहिने कोने में सबसे पहले श्री शरद जोशी, उनके बाद मेरी भाभीजी श्रीमती सुशील चन्द्रिक बैरागी और बाद में दादा श्री बालकवि बैरागी नजर आ रहे हैं।)

(आलेख का शीर्षक जितना चौंकानेवाला है, समूचा घटनाक्रम उससे कई गुना अधिक चौंकानेवाला, सर्वथा अकल्पनीय है। किसी को दण्डित करने का यह अनूठा उपाय उन्हें अन्तिम साँस तक याद रहा होगा/रहेगा जिन्होंने यह खेल शुरु किया था। दादा का यह लेख कब लिखा गया होगा इसका अनुमान लगाने के लिए हमें ‘धर्मयुग’ का प्रकाशन बन्द होने का वर्ष तलाशना पड़ेगा। क्योंकि लघु पत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ ने वहीं से लेकर इसे अपने 1992 के अंक में छापा था। देश के ख्यात, जाने-माने, सुपरिचित व्यंग्यकार इन्दौरवाले श्री जवाहरजी चौधरी ने अत्यन्त कृपापूर्वक मुझे यह उपलब्ध कराया है।)  

जी हाँ! यह शरद जोशी के जीवन का एक सच्चा पृष्ठ है। शरद जोशी आज एक आदृत व्यंग्य हस्ताक्षर हैं और जहाँ-जहाँ हिन्‍दी की पत्र-पत्रिकाएँ पहुँचती हैं, वहाँ-वहाँ शरद जोशी पहचाने जाते हैं। आज कवि-सम्मेलनों के मंच पर उनकी धूम है।गाँव-गली उनके केसेट्स बज रहे हैं। उनको सुनना आज समाज में ‘स्टेटस सिम्बल’ बनता जा रहा है। कवि सम्मेलनों के बादवाली कई सुबहों तक लोग बड़ी शान से कहते हैं-‘कल हमने शरद जोशी को सुना है।’ शाम को क्लबों में, लिपी-पुती महिलाएँ शरद जोशी के बारे में बढ़-चढ़ कर बाते करती हैं और जो शरद जोशी को नहीं पहचानतीं, उसे उपहास का बिन्दु बनना पड़ता है। गये तीस सालों से लोग उन्हें पढ़ते आ रहे हैं । अब लोगों ने उन्हें सुनना शुरु कर दिया है। कवि-सम्मेलनों के मंचों पर लोग पूरी सम्प्रेषणीयता के उनके आठ-आठ, नौ-नौ पृष्ठों के व्यंग्य निबन्ध सुनते हैं। उन्हें ‘वंस मोर’ और फड़फड़ाती तालियों का तोहफा जम कर मिलता है। ऑटोग्रॉफ हण्टर्स में कोमलांगी बालाओं की तादाद बेशुमार बढ़ती जा रही है।

शरद भाई अपने 51 साल मई 82 में पूरे करने जा रहे हैं। तीन जवान बेटियों के लाड़ले पिता श्री शरद जोशी एक जिम्मेदार गृहस्थी के स्वामी हैं। यह साल उनकी शादी का रजत जयन्ती वर्ष है। चौबीस पूरे करके पच्चीसवें साल में उनका संघर्षमय वैवाहिक जीवन सुख की परिधि में टेण्ट डालता नजर आ रहा है। वे अपने जीवन के उस काल में जा पहुँचे हैं, जहाँ लोग लेखक के लेखन के साथ उसके निजी जीवन के बारे में भी बहत-कुछ जानना चाहते हैं। मैं उनके वैयक्तिक जीवन पर कुछ भी नहीं लिखूँगा। मेरे अधिकार क्षेत्र की बात नहीं है यह सब। मैं क्यों किसी की खिड़कियों में ताक-झाँक करूँ? जो खुला है, वह ही लिख दूँ तो बहुत होगा। इस आलेख में भी इतनी भूमिका भी इसलिए देनी मुझे सुहाती है कि उनके बारे में शायद यह बिलकुल पहला आलेख होगा, जो कि उनके लेखन से हट कर उनके व्यक्तिगत जीवन पर लेखन की शुरुआत करे। एक तरह से शिलान्यास।

शरद भाई अब मूलतः मलवा के हैं। पूर्वज कभी कभी गुजरात से चले थे। उज्जैन में बस-बसा गये। शरद भाई का कार्य क्षेत्र, बम्बई को छोड़ दें तो कुल मिला कर मालवा ही रहा। यही, उज्जैन, इन्दौर, नीमच, मन्दसौर, जावरा, रतलाम, सैलाना,देवास, शाजापुर और मालवा के कटिबन्ध भोपाल। आज से 24 बरस पहले, परिवार की सभी ब्राह्मण परम्पराओं और समाज की रूढ़ियों से विद्रोह करके शरद भाई ने इरफाना भाभी से शादी की। आज की इरफाना शरद, तब इरफाना सिद्दीकी थीं। शाजापुर के एक भद्र मुस्लिम परिवार की पढ़ी-लिखी कन्या। शरद भाई इन्दौर से प्रकाशित दैनिक ‘नईदुनिया’ में ‘ब्रह्मपुत्र’ के छद्म नाम से एक लोकप्रिय कॉलम लिखते थे। शीर्षक था ‘परिक्रमा’। कॉलम बहुपठित था। इरफाना सिद्दीकी तब एक एक नवोदित कहानी लेखिका थीं। खूब छपती थीं और खूब पढ़ी जाती थीं। ‘नईदुनिया’ एक तरह से दोनों का मिलन मंच था। दोनों उलझ गये और इरफाना सिद्दीकी एक दिन श्रीमती इरफाना शरद हो गयीं। कुछ बरस तक इस शादी को ले कर जैसी हो सकती थी, वैसी बातें होती रहीं। पर आज मैं यह कह सकता हूँ कि यदि किसी को एक आदरणीय, सुखी और हर तरह से सुसंस्कृत परिवार देखना हो, तो वह शरद भाई का परिवार देखे। इस परिवार को संघर्ष और स्थापना का द्वीप माना जा सकता है। मात्र कलम और ठहाकेदार जीवट ही इस परिवार का सम्बल रहा है। शरद भाई की तीन दुलारी बेटियाँ बानी, ऋचा और नेहा अपने-अपने आकाशों में अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के डैने फैलाये भविष्य की टोह में बराबर व्यग्र दीख रहीं हैं। इरफाना भाभी की अनुशासित ममता चौकस हो कर ‘लछमन जती’ वाली मुद्रा में पर्णकुटी की रखवाली कर रही है।

ऐसा लोकप्रिय लेखक, ऐसा संघर्षरत लेखक, ऐसा स्वाभिमानी और जुझारू लेखक किसी को खटका नहीं हो, ऐसा हो नहीं सकता है। मैंने अतीत की काई को संस्मरणों की झील के पानी पर से थोड़ा-सा हटाने की कोशिश की। पूछा, ‘शरद भाई! इस सुखी गृहस्थी के तिनकों को तोड़ने की कोई हीन हरकत कभी हुई?’ शरद भाई अपना छत ठोकू ठहाका लगा कर कहते हैं-

“आज से कोई बारह-तेरह बरस पहले की बात है। भोपाल में हम लोगों को आये सात-आठ साल हुए होंगे। मैं संघर्षरत था। बेटियाँ छोटी-छोटी थीं। खूब लिखता और खूब छपता था। भोपाल के लेखक खेमेबाज शुरु से रहे हैं। मैं विवादास्पद तो शुरु से ही रहा हूँ पर, विवादरत भी था। चटखारे लेने और देने का अपना सुख है। जम कर टाँग खिंचाई चलती थी। ऐसे में एक दिन मेरी डाक में एक पत्र आया। लिखा था-‘आपने मेरी जिन्दगी तबाह कर दी।... अब मैं गर्भवती भी हूँ।...आपके बच्चे की माँ बननेवाली हूँ।...आप मुझे दगा दे रहे हैं?...ईश्वर आपको कभी माफ नहीं करेगा।... मैं कहाँ जाऊँ?...आदि-आदि।

“पत्र इरफाना ने भी पढ़ा और मेरी गृहस्थी सन्देहों और गलतफहमियों की धधकती, फन फुफकारती लपटों में ता पड़ी। इरफाना वह सब करने को तैयार गयी, जो ऐसे में निष्ठावान, समर्पिता पत्नी और परिणीता प्रेयसी कर सकती है। मैं कठघरे में था। यार लोग जो चाहते थे, वह घटित होने के आसार अंकुरा कर फसल की तरह पक गये। मेरे छक्कके छूट गये। अपने-पराये सब एक साथ याद आने लगे। दो-चार घण्टोंें में मैने समीकरण बैठा लिया कि यह कमीनी किसकी हो सकती है। खेमेबाज इतना गहरा खूँटा गाड़ेंगे, यह अनुमान नहीं था। मेरे लेखन से जब वे पूरा नहीं पटक पाये, तो मेरे सुखी जीवन पर तबाही बरसाने का उपक्रम करने लगे। 

“उस टुच्चे प्रेम पत्र को ले कर मैं अपने एक हितैषी मित्र श्री हरिहर जोशी के पास पहुँचा। वे उस समय मध्यप्रदेश सरकार के मुद्रण विभाग में एक अधिकारी थे। भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे। आज वे इस संसार में नहीं हैं। पूरा पत्र बहुत लम्बा था। मैंने पत्र उनको दिया । उन्होंने पूरा पढ़ा। इरफाना की प्रकृति और बेटियों की शक्ल उनकी आँखों में घूम गयी। मैंने अपने अनुमान बताये। वे मुझसे सहमत थे और मेरी इस बात से भी सहमत थे कि इस मसविदे के पीछे चार-पाँच लोगों का कुण्ठित मस्तिष्क है।

“आगे चल कर मेरा अनुमान सौ फीसदी सही निकला। वे सभी लोग आज भी जीवित हैं। मेरे आसपास ही हैं। खैर, जोशी जी ने मेरी स्थिति को समझा और कहा - ‘शरद! तुम यह पत्र मेरे पास छोड़ जाओ। अपने घर-परिवार को सम्भालो और चार-पाँच दिन का मौका दो। बिलकुल चुप रहो। मैं इस प्रेमपत्र का साधारणीकरण कर दूँगा।’ मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। ‘प्रेमपत्र का साधारणीकरण’ मेरी समझ के बाहर का मामला था।

“मैं मर्माहत था और अपने ही घर पहुँचने का मनोबल जुटाना भी मेरे लिए एक समस्या हो गयी थी। मैं घर जा कर टूटते तिनके बचाने की कोशिश में लग गया। कुछ अबोला, कुछ मान, कुछ मनुहार, कुझ कसमें, कुछ वादे, कुछ कहा, कुछ सुनी, कुछ डाँट-फटकार। यानी कि थपेड़ों में भी जहाज के मस्तूल तने रहे। उधर जोशीजी ने जो किया, वह अद्भुत था। वे बदमाशों के भी बाप निकले। उन्होंने उस प्रेम पत्र को अपनी टेबल पर रखा। प्रतिदिन वे दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह क्लर्कों को बुलाते और उस प्रेम पत्र की नकलें करवाते। अलग-अलग हस्तलिपियों में उन्होंने उस प्रेमपत्र की चालीस-पचास प्रतियाँ तैयार करवा लीं। दो-चार टाइप भी। फिर एक दिन, एक ही साथ भोपाल के चालीस-पचास लिखने-पढ़नेवाले लेखकों के पते अलग-अलग लिफाफों पर लिख कर उन्होंने सारे लिफाफे एक ही साथ डाक के हवाले कर दिये। यथासमय वे लिफाफ सब को मिले। किसी को आज, तो किसी को कल। हाँ, उन लोगों को भी वह प्रेमपत्र मिल गया जिन्होंने कि उसे ड्राफ्ट किया था और मुझे डाला था। 

“चालीस-पचास घरों एक साथ आग लग गयी। भोपाल में वह पूरा पखवारा गृहस्थी के ऊलजलूल युद्धों का पखवारा बन कर रह गया। सब अनमने। कोई किसी से नहीं बोले। जहाँ जाओ, वहीं धू-धू। जिससे मिलो, वहीं थू-थू। लानत-मलामत का एक भयंकर बावेला मच गया। यहाँ-वहाँ से पारिवारिक संग्रामों के समाचार आने शुरु हो गये। कई लोगों ने चुपचाप दफ्तरों से छुट्टियाँ ले लीं। कई के बच्चे स्कूल नहीं जा सके। कई घरों में सूटकेस तैयपर हो गये। कुए, बावड़ी और झील तालाब की धमकियाँ और केरोसिन माचिस की छीना-छपटी। यानी कि कुछ पूछिए मत! मैंने मुद्रणालय कार्यालय जा कर जोशी जी से पूछा, ‘प्रभु! यह सब कया हो रहा है?’ वे संयत स्वर में बोले, ‘शरद! यह प्रेमपत्र का साधारणीकरण है। तुम चुपचाप अपने घर जाओ और अपनी गृहस्थी को सम्भालो।’

“मैं चला आया। बार-बार मुझे लगा कि हो-न-हो, प्रेम पत्र के इस साधारणीकरण में एकाध गृहस्थी उजड़ न जाये। शीशों में बाल पड़ गये पर कोई शीशा टूटा नहीं। आज पहली बार सार्वजनिक तौर पर आपको यह बात बता रहा हूँ। जब इरफाना जैसी सुलझी हुई महिला को तटस्थ होने में महीनों लगे थे, तो कई गृहिणियों को तो तटस्थ होने में बरसों लगे होंगे।”

मैं, तो यह बात सुन कर ही काँप गया था। ठहाका लगाने के लिए भी शक्ति बटोरनी पड़ी। न जाने कौन-कौन मेरी आँखों में तैर गये।

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हमारा जीवन-लक्ष्य: हमें सुनने के बाद कोई जीवन से निराश न हो


श्री बालकवि बैरागी से देविन्दर कौर मधु की बातचीत

(दादा श्री बालकवि बैरागी का यह साक्षात्कार, आकाशवाणी के कार्यक्रम ‘बातें आपकी’ के लिए देविन्दर कौर मधु ने फोन पर, जुलाई 2011 के बाद किसी समय लिया था। इसमें बीच-बीच में दादा की पसन्द के फिल्मी गीत भी बजाए गए थे।  बिना गानों का यह साक्षात्कार 29 मिनिट का है। इसे लिखवाना मेरे लिए टेड़ी खीर था। मैंने फेस बुक पर मदद माँगी तो मेरा साथी बीमा अभिकर्ता अमृत बिन्नी बामनिया प्रकट हुआ। उसने कहा कि उसकी बेटी निकिता बामनिया स्टेनोग्राफर है और वह यह साक्षात्कार लिपिबद्ध कर देगी। रतलाम जैसे छोटे से, कस्बेनुमा शहर में मेरे लिए यह किसी वरदान से कम नहीं था। यह साक्षात्कार पूरी तरह से प्रिय अमृत बिन्नी बामनिया और उसकी बिटिया निकिता बामनिया के कारण ही यहाँ दे पा रहा हूँ। इन दोनों बेटी-बाप को बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार।)




देविन्दर कौर मधु - नमस्कार बैरागीजी!

बैरागीजी - नमस्कार। प्रणाम।

देविन्दर कौर मधु - कैसे हैं आप?

बैरागीजी - मैं कुशल हूँ। स्वस्थ हूँ। प्रसन्न हूँ। अपने काम में लगा हूँ।

देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! इस समय बहुत सारे श्रोता आपको सुन रहे हैं। आज हम चाहते हैं कि अपने बारे में हमारे श्रोताओं का कुछ बताइये कि आप कहाँ रहते हैं और आपका बचपन कहाँ बीता है? आपका जन्म कहाँ का है? शुरुआत मैं आपके बचपन से ही करना चाहूँगी। अपने बचपन के बारे में हमें कुछ बताइये।

बैरागीजी - मेरा बचपन बहुत विपन्न अवस्था में बीता है। मैं बहुत गरीब घर का जेठा, सबसे बड़ा बेटा हूँ। लेकिन, जैसा कि मैं बार-बार कहता हूँ, गरीब के घर बच्चा नहीं, हमेशा बूढ़ा पैदा होता है। तो, मैं मेरे घर का ऐसा, सबसे पहले जनमा बूढ़ा बेटा हूँ। 

मेरे पिता जन्म से अपािहज थे। उनके दोनों पाँव और दाहिना हाथ, जन्म से, गर्भ से ही अपाहिज थे। शादी के समय मेरी माँ नौ वर्ष की थी और पिताजी 14 वर्ष के थे। शादी के 6 महीने के भीतर ही दोनों अनाथ हो गए। इस तरह, हमारे परिवार में मेरे माता-पिता के अलावा कोई नहीं बचा था। तो, मैं ऐसे अनाथ माँ-बाप का जेठा बेटा था। 

हमारा परिवार भीख माँगता था। मेर साढ़े चार वर्ष की उम्र में मेरी माँ ने मुझे जो पहला ‘खिलौना’ खेलने के लिए मेरे हाथ में दिया था, वो था, भीख माँगने का बरतन। कहा - ‘बेटा! पड़ोस से कुछ माँग ला तो घर में चूल्हा जले।’ तो, साढ़े चार वर्ष की उम्र से मैंने गलियों में भीख माँगना शुरु किया और यह क्रम चलता रहा। 

लम्बे वर्षों तक मेरे अपाहिज पिता, मेरी माँ, मैं और फिर, मेरे बाद मेरी छोटी बहन हुई तो वह भी, हम सारे परिवार के लोग भीख माँग कर अपना गुजारा करते थे। अपने ऐसे, इसी जीवन के आधार पर मैंने कई बार लिखा है कि अभाव से अच्छा कोई मित्र इस संसार में नहीं होता है। आपके पास यदि कोई अभाव है तो वह आपका अच्छा, आपका सच्चा मित्र है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे जनम से ही ऐसा मित्र मिल गया। 

मैं माँ का निर्माण हूँ। सही बात यही है कि मुझे मेरी माँ ने बनाया। भीख माँगते हुए जब कभी मैं निराश होता तो माँ, अपने आँचल से मेरे आँसू पोंछते हुए कहती - ‘कोई बात नहीं बेटा! गरीबी ईश्वर की सबसे खूबसूरत, सबसे प्रिय बेटी होती है। और खूबसूरत बेटी को पिता किसी निकम्मे या आवारा वर को नहीं, हमेशा अच्छे, योग्य पर को ही सौंपता है। भगवान ने यदि गरीब बनाया है तो कोई बात नहीं। लेकिन अब, डटकर अपना काम करता रह। ठहाके लगा कर, हँस कर जीना सीख। रोने बैठ गया तो याद रखना, संसार के किसी भी मील (टेक्सटाइल मील) में, आँसू पोंछने के लिए रूमाल नहीं बना है।’ तो, मेरी जिन्दगी इस तरह अभावों से शुरु हुई। 

आज जब मैं आपसे बातें कर रहा हूँ तो इस समय मेरी उम्र 81 बरस की हो रही है। अभावों की तो मुझे आदत हो गई। किन्तु जो एक बात मुझे आज सालती है वह यह कि मुझे मदरसे में भर्ती कराने के लिए न तो मेरे पिताजी साथ थे न मेरी माँ। एक पड़ौसी, पूर्बिया मित्र कँवर लाल ने मुझे भर्ती कराया था। (अपािहज होने के कारण) पिताजी आ ही नहीं सके थे। मैंने अपनी सारी पढ़ाई भीख माँग-माँग कर पूरी की। कपड़े भी माँग-माँग कर ही पहने। किताबें भी भीख माँग-माँग कर ही लीं। उस जमाने में एक पैसे में (पेन/कलम की) दो नीबें मिलती थीं। मेरे पास तो पैसे होते ही नहीं थे। तो, मैं सरकारी दफ्तरों की खिड़कियों के बाहर से, कर्मचारियों द्वारा उपयोग कर, फेंकी गई नीबें बीन-बीन कर अपना काम चलाता था। 

मेरी माँ ने मुझे कभी निराश नहीं होने दिया। मेरे पिताजी थोड़े, क्रोधी, गुस्सैल थे। लेकिन, मेरी माँ ने यदि अपना पहला बेटा कोई पाला तो वह उसका स्वयं का पति था। आप कल्पना कर सकती है कि साढ़े नौ वर्ष की उम्र में, घर में, कोई बहू अनाथ हो जाए और उसका पति बिलकुल अपाहिज हो जो कोई काम नहीं कर सके, ऐसे पति को पालना कितना मुश्किल था? 

जवानी तो मेरी माँ पर भी आई होगी, उसके ऊपर भी रूप आया होगा, लेकिन उस सबके बावजूद उसने अपने आप को कितना बचाया, कितना सुरक्षित रखा अपने आप को इस समाज में, कितने से प्रतिष्ठित रखा, मेरे जीवन को आकार दिया। तो, ये मेरे बचपन की कुछ बातें हैं। यदि मैं लम्बी बात करने लग जाऊँ तो शायद आपके श्रोता भी तंग हो जाएँ। कहेंगे कि बैरागीजी अपने जीवन की ये कैसी बातें कर रहे हैं? लेकिन ये बातें मेरे जीवन का सत्य हैं। यदि मैं इस सत्य को स्वीकार नहीं करता हूँ तो ईश्वर के प्रति अपराध करता हूँ।

देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! आपने आज जो मुकाम हासिल किया है, जिन्दगी में आज जहाँ आप हैं, वहाँ आपके पहुँचने के बाद मैं यकीनन कह सकती हूँ कि हम आपके बारे में बहुत कुछ जानना चाहते हैं। और  आप जो बता रहे हैं उसे, लोग शायद बहुत ही दिल से सुन रहे हैं

मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि इतने अभाव और ऐसी परिस्थितियों के बाद भी आपने बहुत अच्छी शिक्षा पाई है। वह (शिक्षा) आपने कहाँ पाई, कैसे पाई? किन स्कूलों में, किन लोगों से पाई? इसके बारे में कुछ बताएँ।

बैरागीजी - देखिए! मेरा जो पैतृक गाँव है, उसका नाम है मनासा। आज नीमच जिले में है। करीब 25-30 हजार की आबादी का गाँव है। मेरे जन्म के समय तो इसकी आबादी मुश्किल से 4 हजार या 5 हजार के बीच में रही होगी। मेरा जन्म स्थान, मेरा ननिहाल, मनासा के पास रामपुरा है। वहाँ, सुतारों के मन्दिर में मेरा जन्म हुआ। मेरी माँ रामपुरा की थी। मेरा जन्म स्थान रामपुरा है लेकिन मेरी पितृ भूमि, कर्म भूमि मनासा है। मनासा, होलकर स्टेट में था। इन्दौर हमारी राजधानी होती थी। लेकिन हमारा, सरकारी स्कूल किराये के मकान में चलता था। किराए के स्कूल में मैंने चौथी पास की। उसके बाद बड़े स्कूल में आया। वह स्कूल आज भी वहाँ जिसमें मैंने पाँचवीं, छठवीं, सातवीं पास की। सन 44 में मैंने पास की थी सातवीं। सातवीं की परीक्षा देने के लिए हमें मनासा से 300 किलो मीटर इन्दौर आना पड़ता था। न आने-जाने के पैसे थे, न कुछ था। लेकिन सौभाग्य से हमें शिक्षक अच्छे मिले। गुरु अच्छे मिले। माता-पिता अच्छे मिले। पड़ौसी अच्छे मिले।

देविन्दर कौर मधु - आपके किसी गुरु का ध्यान आता है आपको?

बैरागीजी - अरे! सबका ध्यान आता है। मैं किस-किस का नाम बताऊँ आपको? मुझे पढ़ाने वाले ऐसे गुरु मिले हैं जिनका निधन इन्दौर में हुआ लेकिन थे वो मनासा के। रामनाथजी उपाध्याय मास्टर सा’ब उनका नाम था। जब मैं सातवीं में था, वो रोज क्लास में मुझे कहते थे - ‘बाबल्या! तू लिख ले! विधाता भी आकर तुझे पास कराना चाहे तो तू पास नहीं हो सकता।’ लेकिन जब उन्हें पता चला कि मैं सातवीं की परीक्षा देने के लिए इन्दौर नहीं जा सकूँगा तो वे मेरे घर आये, मेरे पिताजी से लड़े। कहा - ‘चाहे मकान बेचना पड़े तो मकान बेच। लेकिन मेरे मेधावी विद्यार्थी को मैं इन्दौर जरूर ले जाऊँगा। चाहे जो हो जाए।’ तो, उन्हीं शिक्षक ने (जो कहते थे कि विधाता भी मुझे पास नहीं करा सकता) मुझे इन्दौर ले जाकर मुझे परीक्षा में बैठाया और मैं पास हुआ। ऐसे शिक्षक थे कि रात को कन्दील लेकर हमें घर तक छोड़ने आते थे। दिन भर पढ़ाते थे फिर रात को घर बुलाते और अभ्यास कराते थे और फिर घर छोड़ने आते थे और बाहर से आवाज लगाते - ‘बहू! देख! नन्दराम आया है। इसे सम्हाल कर सुलाना और सुबह स्कूल भेज देना।’ ऐसे गुरु मिले! ऐसे शिक्षक मिले! अच्छे लोग मिले। घासीरामजी शुक्ला, जिनके नाम पर आज भी ‘नईदुनिया’ इन्दौर की एजेंसी चल रही है, वो अब इस दुनिया में नहीं हैं। वो पढ़ाते थे हमको। द्वारका प्रसादजी दीक्षित अंग्रेजी पढ़ाते थे। भैरवलालजी चतुर्वेदीजी चौथी में पढ़ाते थे। राधाकिशनजी व्यास, अभी-अभी दो साल पहले जिनका देहान्त हुआ है, ये सब वे गुरु थे जिन्होंने मुझे आकार दिया।

देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! मैं यहाँ पर आपको  बीच में रोक रही हूँ। आपकी पसन्द का कोई गाना है जो आप हमारे श्रोताओं को सुनाना चाहते हैं? आप बताएँ! क्या सुनाएँ आपको और श्रोताओं को?

बैरागीजी - अगर आप सुनाना चाहती हैं तो मेरा ही लिखा हुआ एक गीत सुना दीजिए जो फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ में सुनील दत्त साहब और नर्गिसजी ने जयदेवजी के कम्पोजीशन में लताजी से गवाया है।

देविन्दर कौर मधु - तू चन्दा मैं चाँदनी?

बैरागीजी - हाँ। तू चन्दा मैं चाँदनी।

(रेडियो पर ‘तू चन्दा मैं चादनी’ गीत बजाया गया)

देविन्दर कौर मधु - तो, बैरागीजी! हमने आपका लिखा, आपका मनपसन्द गाना सुनवाया। इसे आपने हजारों बार सुना होगा लेकिन आपके साथ सुनने मे आज कुछ अलग ही आनन्द आया।

अब हम अपने प्रोग्राम को आगे बढ़ाते हैं।

तो, यही जानना चाहूँँगी, आपकी यंग एज के बारे में, आपने अपनी युवावस्था कहाँ और कैसे बिताई?  

बैरागीजी - (देर तक, जोर-जोर से हँसते हैं। मधुजी भी साथ-साथ हँसती हैं।) आप इस देश के, गलियों के एक भिखारी से, भिखारी शब्द तो फिर भी बड़ा होता है मधुजी! भिखमंगा और भिखारी शब्द तो सम्मानजनक है! मैं तो ‘मंगता’ रहा जिसको लोग दुत्कार देते थे। ऐसे व्यक्ति से जवानी के बारे में पूछ रही हैं? 

देविन्दर कौर मधु- बैरागीजी! यह तो आपका बड़प्पन है जो आप अपने बारे मे इस तरह बता रहे हैं। लेकिन लाखों, करोड़ो लोग आपसे मिलना चाहते हैं। उनमें मैं भी हूँ। ऐसा लगता है कि आपसे कब मिलूँ! कब आकर देखूँ? कब आपके चरण स्पर्श करूँ? इसलिए मैं.....चलिए! आप अपने तरीके से अपनी जवानी के बारे में बताइये।

बैरागीजी - किस उम्र को आप जवानी मानती हैं? मुझे (जवानी की उम्र के) वर्ष बताइये। (इस बीच मधुजी रुक-रुक कर हँसती हैं और बैरागीजी जोर-जोर से हँसते हैं) वो तो आप पर भी आई होगी।

(दोनों जोर-जोर से हँसते हैं।)

देविन्दर कौर मधु - मैं जवानी उस दौर को मानती हूँ जब दिल में कुछ-कुछ होने लगता है।

बैरागीजी - ऐसा तो मेरे साथ एक ही बार हुआ और मैंने उससे शादी कर ली और अब वो चली गई। इस दुनिया से निकल गई। अभी 18 जुलाई को चली गई। 57 वर्ष, दो महीने मेरे साथ रह कर चली गई। 

कुल मिला कर बात यह है कि सन् 1944 में मनासा से 7वीं परीक्षा पास कर ली और 8वीं पढ़ने के लिए जब मैं जाने लगा रामपुरा। तब हाई स्कूल रामपुरा में होता था। होलकर राज्य में कुल तीन हाई स्कूल थे। एक रामपुरा में, एक खरगोन के आसपास कहीं और तीसरा इन्दौर में था। जब मैं जाने लगा तो पिताजी ने बहुत मार-पीट की। मुझे पीटा और बोले कि तू चला जाएगा तो हमें भीख माँग कर कौन खिलायेगा? किसी तरह से माँ ने मुझ वहाँ जाने की आज्ञा दी। तो, आपके श्रोताओं में यदि कोई विद्यार्थी, कोई बच्चे सुन रहे हों तो मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि मैं मनासा से रामपुरा 32 किलो मीटर 13 वर्ष की उम्र में, 8वीं पास करने के लिए जब मैं निकला तो 32 किलो मीटर मुझे पैदल जाना पड़ता था। हफ्ते में दो या तीन बार आना-जाना पड़ता था। यहाँ भी भीख मँगो, वहाँ भी भीख माँगो। यहाँ माता-पिता के लिए भीख माँगो। वहाँ खुद के लिए भी भीख माँगो। इस तरह से मैंने सन् 1947 में मेट्रिक पास किया।

तो, दसवीं पास की। फिर इन्दौर आना पडा परीक्षा देने के लिए। तो, हमें बात-बात में इन्दौर की तरफ भागना पड़ता था। पैसा था नहीं। गरीबी थी। लेकिन उसके बाद एक उम्र आई। किशोर काल निकला। तो, जीवन के ऐसे संघर्षों में, आप मुझे बताइये! मैं तो किसी को भी चाह लूँ लेकिन मुझे कौन चाहे? मेरे हाथ में तो भीख का कटोरा! कौन मुझे कहे कि चलो! मैं तुम्हें प्यार करती हूँ या मैं तुम्हें चाहती हूँ? 

देविन्दर कौर मधु - आपने तो किया होगा किसी से?

बैरागीजी - मैंने किया था तो मैं किसी से कह नहीं सकता था। अब वो इस दुनिया में है नहीं।

देविन्दर कौर मधु - नहीं। आपने किया तो हमें तो बता सकते हैं कि आपने किसी को चाहा।

बैरागीजी - मैंने कहा ना, कि मैंने किसी को चाहा था। मेरी एक कविता नईदुनिया में छपी। जिसे पढ़कर एक लड़की ने अपने पिताजी से कह दिया कि इस लड़के से मेरी शादी कर दो। और मेरी उससे शादी हो गई। 

देविन्दर कौर मधु - (हँसते हुए) यह तो बहुत अच्छी बात हुई।

बैरागीजी - नईदुनिया में छपी। मैं नाम ले रहा हूँ अखबार का। कृष्णकान्तजी ने मेरी कविता छापी।  उसके सम्पादक थे और मैं नन्दराम दास बैरागी ‘पागल’ के नाम से लिखता था। तब मैं बालकवि नहीं हुआ था। 

देविन्दर कौर  मधु - अरे? बालकवि कैसे हुए? यह भी बताइये कि कैसे हुए बालकवि? 

बैरागीजी - डॉक्टर कैलाशनाथजी काटजू ने बनाया मुझे बालकवि। सन 1951 की 23 नवम्बर। तारीख मुझे याद है। मनासा में काँग्रेस की आम सभा थी। लोक सभा का चुनाव लड़ने के लिए वहाँ पधारे थे। जावरा में उनकी पैदाइश थी। काँग्रेस ने, जवाहरलालजी ने उनको यहाँ से काँग्रेस का टिकिट  दे दिया है। तो, मनासा की, उस काँग्रेस की आम सभा में पहले मुझसे कहा गया कि एक गीत गा दो। तो, मैंने अपनी लिखी हुई एक कविता पढ़ दी। वो (कविता) चुनाव से सम्बन्धित थी। वो आपके, आकाशवाणी के लायक नहीं है। वो पढ़ दी। उसके बाद डॉक्टर साहब ने बोला कि एक और सुना दो। तो, मैंने एक और सुना दी। तो, (इस तरह, एक के बाद एक) मैंने तीन (कविताएँ) सुना दी। फिर उन्होंने कहा कि एक और सुना दो। तो मैंने एक और, चौथी भी सुना दी। पर मधुजी! मैं मन ही मन सोच रहा था कि अगर इन्होंने एक बार और कह दिया तो तब तो फिर द्रोपदी का चीर हरण हो ही जाएगा। शायद ही कोई भगवान कन्हैया आकर चीर बढ़ाए। क्योंकि लिखी कुल चार ही थीं। लिखी तो पाँचवी भी थी। उन्होंने धीरे से कहा - एक और सुनाओ। तब तक आकर उनके मिलिट्री सेक्रेट्री ने उनको घड़ी बताई और बोला कि सर! आप 45 मिनिट के लिए यहाँ आये हैं और 40 मिनिट से आप कविता सुन रहे हैं। अपने को चलना है आगे।

उन्होंने खड़े होकर भाषण दिया मनासा में। करीब-करीब 2-3 हजार लोग थे हमारे गाँधी चौक में, बद्रीविशाल मन्दिर के सामने। उन्होंने भाषण दिया कि ‘मुझे कोई भाषण देना नहीं हे। जवाहरलालजी ने कहा है तो मैं आपके यहाँ चुनाव लड़ने आ गया। मैं लोक सभा में काम करूँगा।’ उस समय वो अन्तरिम सरकार के, देश के गृह मन्त्री थे। उन्होंने कहा कि ‘ये जो है ना आपके सामने बैठा हुआ, (मैं उनके सामने जाजम पर बैठा हुआ था) ये लड़का? मैं इसका नाम नहीं जानता। ये जो आपका बालकवि है ना, इसने जो कहा है वो करना।’ उस दिन से हम बालकवि हो बैरागी हो गए। ये कैलाशनाथजी काटजू साहब की कृपा है।

देविन्दर कौर मधु - ये काटजूजी का दिया हुआ नाम है?

बैरागीजी - हाँ। मेरे माता-पिता ने इस नाम को स्वीकार कर लिया ये उनका बड़प्पन है।

देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! श्रोताओं को कुछ और सुनवाना चाहेंगे। बताइये! कौन सा गीत सुनवाएँ आपको?

बैरागीजी - चलिए! एक और सुनवा दीजिए। यदि हो आपके पास तो बहुत पुरानी गजल है मेरी। फिल्म ‘गोगोला’ में लिखी थी मैंने। जिसको बम्बई के, वो क्या है कृष्ण महल या कृष्णा महल, मेरीन ड्राइव पर, जिसमें सुरैया रहती थी, उसके किसी एक कमरे में बैठकर मैंने एक गजल लिखी थी - ‘जरा कह दो फिजाओं से, हमें इतना सताए ना’ तलत महमूद साहब और मुबारक बेगम ने इसे गाय है। 

देविन्दर कौर मधु - जी। बहुत अच्छी गजल है ये बैरागीजी। मैं इसे कल से ढूँढ रही थी आपके लिए। मुझे लगा था कि आप इसकी फरमाइश करेंगे जरूर। लेकिन वो मिल नहीं रही थी। तो, मेरे एक साथी हैं, उद्घोषक प्रवीण शर्मा। उन्होंने इस गजल को ढूँढ कर दिया।

बैरागीजी - प्रवीणजी का मैं आभारी हूँ।

देविन्दर कौर मधु - तो, हम भी सुनते हैं आपके साथ। आप हमारे साथ बने रहिएगा। आपको अभी थोड़ी देर और कष्ट दूँगी।

बैरागीजी - इसमें कष्ट देने की क्या बात है?

(बैरागीजी की मनचाही गजल रेडियो पर सुनाई गई।)

देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! आपसे हमने आपके बचपन की कुछ बातें सुनीं। कुछ आपकी युवावस्था की बातें हुईं। अब, इन दिनों आप क्या कर रहे हैं, इसकी कुछ बात करें। 

बैरागीजी - लोग मुझसे पूछते हैं कि इन दिनों मैं क्या कर रहा हूँ तो मैं कहा करता हूँ कि जिस तरह पटवारी जमीन नापता फिरता है तो मैं सरस्वती का पटवारी हूँ। देश को नापता फिर रहा हूँ। अपने आप को सरस्वती का पटवारी मानता हूँ और जहाँ लोग, मित्र बुलाते हैं वहाँ जाता हूँ। वहाँ खड़ा होता हूँ और काम करता हूँ। लिखता हूँ। पढ़ता हूँ। इस समय भी मेरी टेबल पर लिखने का काम चल रहा है।

देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! मैं आपसे आपकी पहली कविता के बारे में पूछूँगी तो वो मुझे ठीक नहीं लग रहा। मुझे ऐसा लग रहा है कि आपकी पहली कविता के बारे में लोग शायद आपसे बहुत कुछ सुन चुके हैं। लेकिन इस समय आपने आखिरी कविता कौन सी लिख है? वह मुझे बताइए ना!

बैरागीजी - इन दिनों की कोई कविता? कविता कोई आखिरी थोड़ी ना होेती है!

देविन्दर कौर मधु - नहीं! नहीं! लेटेस्ट जो आपने लिखा है।

बैरागीजी - ये बड़ा मुश्किल है। मुझे मेरा ब्रीफ केस खलना पड़ेगा। मुझे नहीं पता था कि आप ये पूछ लेंगी।

देविन्दर कौर मधु - जो आपको याद हो वो सुनाइये।

बैरागीजी - चलिये! मैं आपको एक कविता सुना देता हूँ। मेरे श्रोता.....श्रोता आपके कहाँ हैं! श्रोता तो मेरे हैं। (दोनों खुल कर हँसते हैं।)

देविन्दर कौर मधु - जी! जी! आपके ही श्रोता हैं।

बैरागीजी - आप तो माध्यम मात्र हैं मधुजी! लेकिन लोग आपसे पूछते हैं। हमसे भी पूछते हैं। सबसे पूछते हैं। बड़ों से, बच्चों से, सबसे पूछते हैं। छोटों से भी पूछते हैं, बूढ़ों से भी पूछते हैं कि जीवन क्या है? तो, इस पर मैंने कुल मिला कर बारह पंक्तियाँ लिखी हैं। ये बारह पंक्तियाँ मैं अपने श्रोताओं तक पहुँचा कर मुझे प्रसन्नता होगी। मैंने लिखा है कि -

रोज सवेरे सूरज आता,
किरणों का कंचन बरसाता।
बड़े प्यार से तुमको-हमको, 
जीवन का मतलब समझाता।।

अपनी ही आहुतियाँ देकर,
स्वयं प्रकाशित रहना सीखो।
यश, अपयश, जो भी मिल जाए
उसको हँसकर सहना सीखो।।

थकना, रुकना, चुकना, बुझना,
यह जीवन का काम नहीं है।
सच पूछो तो गति के आगे,
लगता पूर्ण विराम नहीं है।।

(कविता सुनाते हुए, बैरागीजी बीच-बीच में व्याख्या भी करते हैं और पंक्तियाँ दुहराते भी हैं।)

गति होती है जीवन में। उसके आगे कोई फुल प्वाइण्ट नहीं, कोई पूर्ण विराम नहीं लगता है। सतत् आगे बढ़ते जाओ। अपनी ही आग में जलो। किसी से रोशनी उधार मत माँगो। निराश मत रहो। ठहाके मार कर काम करो। इस तरह से जीवन जीयो कि लोग आपसे प्रेरित हों। आपसे प्रोत्साहित हों। जीवन में सकारात्मक रहो। नकारात्मक कभी मत रहो। ऐसी कुछ बातें सूरज हमें रोज सिखाता है। जबकि हम, एक असत्य रोज बोलते हैं। सूरज के खिलाफ बोलते हैं कि सूरज अस्त हो गया, सूरज उग गया। सूरज से हमने एक दिन पूछा भी कि ‘हे! प्रभो! आप डूब गय, आप अस्त हो गये।’ तो उन्होंने कहा कि मैं तो वहाँ का वहीं हूँ जहाँ पर तुमने खड़ा किया है! जहाँ मुझे रोक दिया था कि तुम यहीं पर रहना। मैं वहाँ का वहाँ खड़ा हूँ। एक इंच, एक सेण्टी मीटर भी इधर से उधर नहीं गया। फिर हमने पूछा ‘तो रात कैसे हो जाती है? अँधेरा कैसे हो जाता है?’ बोले - ‘तेरी माँ पृथ्वी से पूछ जिसकी गोद में तू बैठा हुआ है। कहीं उसी ने तो घूमते हुए मुझे पीठ नहीं दे दी? और उसके कारण अँधेरा हो जाए? तो, तू अपनी माँ को गाली नहीं दे सकता इसलिए तू रोज मुझे गालियाँ देता है। इसके बावजूद मैं तुझे रोशनी देता हूँ।’ तो, हम लोग सूरज से पूछते हैं।

(इसके बाद बैरागीजी पूरी कविता फिर दुहराते हैं।)

देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! आपने अपनी कविता सुनाई। हमें बहुत-बहुत अच्छा लगा। और इसके पहले आपने एक बात कही कि मैं तो वाकई  इस कार्यक्रम में माध्यम हूँ। (इस बात पर दोनों जोर से हँसते हैं।) श्रोता तो इस समय आपको सुनना चाहते हैं। और आपने जैसा कि बताया, मैं अपने श्रोताओं को बताना चाहती हूँ कि आप तो ये आकाशवाणी इन्दौर की जो स्थापना हुई थी तो उससे भी पहले जो पहली मीटिंग्स हो रही थीं, इसे स्थापित करने के लिए, उन मीटिंग्स मे आप शामिल थे। आपने ही इस आकाशवाणी केन्द्र की शुरुआत में एक तरह से बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।

बैरागीजी - अरे! मुझे तो आपके यहाँ (नौकरी के लिए) अपाइण्टमेण्ट मिल चुकी थी।

देविन्दर कौर मधु - जी! बैरागीजी, वही  बातें मैं अपने श्रोताओें के साथ करना चाहती हूँ आपसे। 

बैरागीजी - अरे! आप जब भी चाहें, पूछ लीजिएगा। मुझे प्रसन्नता हाती है कि हम लोग अपने मित्रों से इसी माध्यम से जुड़ जाते हैं, मिल जाते हैं। बातचीत हो जाती है। अब, सुनने के बाद कुछ लोग हमको भी टेलिफोन करेंगे। मुझे पत्र लिखेंगे। लेकिन मूल लक्ष्य मेरा यह है कि आपका, हमारा कोई भी श्रोता हमें सुनने के पश्चात् निराश नहीं हो जीवन के प्रति। थके नहीं और अपनी जीवन की यात्रा ठाठ के साथ पूरी करे।

देविन्दर कौर मधु - बैरागीजी! आपसे हमारा बहुत पुराना रिश्ता है। आकाशवाणी का रिश्ता आपके साथ बहुत पुराना है। कोई नया नहीं है। आपकी पसन्द का कोई गीत सुनवाना चाहती हूँ श्रोताओं को। बताइये! अब क्या सुनाएँ आपको?

बैरागीजी - अगर हो आपके पास तो पण्डित नरेन्द्र शर्मा का लिखा हुआ गीत, फिल्म ‘भाभी की चूड़ियाँ’ का, ‘ज्योति कलश छलके’

देविन्दर कौर मधु - जी। ज्योति कलश छलके।

बैरागीजी - जी। मेरी पसन्द का गीत है। लताजी ने गाया है। क्या बढ़िया गाया है! वाह! वाह! वाह! और क्या लिखा है!

देविन्दर कौर मधु - जी। आपको सुनवाते हैं यह गीत और अपने श्रोताओं को भी सुनवाते हैं। और मैं आपसे विदा ले रही हूँ।

बैरागीजी - बहुत-बहुत धन्यवाद। बधाइयाँ। प्रणाम।

(रेडियो पर बैरागीजी का फरमाईशी गीत ‘ज्योति कलश छलके बजना शुरु होता है और बजते-बजते धीमा होते हुए शून्य में विलीन हो जाता है।)

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अमृत बिन्नी बामनिया और  बिटिया  निकिता बामनिया


देविन्दर कौर मधु - 30 नवम्बर को जन्मी, आकाशवाणी (इन्दौर) की जानी-मानी, लोकप्रिय रेडियो उद्घोषिका रही हैं। लगभग 40 वर्षों की सेवाओं के बाद सन् 2014 में सेवा निवृत्त हुईं। इन्दौर में रहती हैं। पता - 13, अहिल्यापुरी, रेसीडेंसी एरिया, इन्दौर - 452001 और मोबाइल नम्बर 94250 77372 तथा 87703 97736 है।

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श्री बालकवि बैरागी के अन्‍य साक्षात्‍कार








श्री अमन अक्षर से बालकवि बैरागी की बातचीत यहाँ पढ़िए।


वेदों और उपनिषदों के देश में मौलिक कौन है?

राधेश्‍याम शर्मा के सवाल - बालकवि बैरागी के जवाब

दादा श्री बालकवि बैरागी का अन्तिम साक्षात्कार

(मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय नगर नीमच के शासकीय मॉडल उच्‍चतर माध्‍यमिक विद्यालय में अंग्रेजी के व्‍याख्‍याता श्री राधेश्याम शर्मा से दादा श्री बालकवि बैरागी का यह सम्वाद लिखित प्रश्नोत्तर के रूप में हुआ था। दादा का देहावसान 13 मई 2018 को हुआ था। राधेश्यामजी को यह साक्षात्कार, डाक से 16 मार्च 2018 को मिला था। )


(दादा द्वारा दिए गए, राधेश्यामजी के प्रश्नों के उत्तर के एक पन्ने की फोटो ध्यान से देखने योग्य है। इतनी बारीक, एक समान अक्षरोंवाली लिखावट में एक भी जगह कोई काट-छाँट नजर नहीं आती। दादा के उत्तर ऐसे नौ पन्नों में हैं। कल्पना की जा सकती है राधेश्यामजी के जवाब लिखने में दादा की एकाग्रता, तन्मयता कितनी/कैसी रही होगी? लगे हाथ यह कल्‍पना भी कर लीजिए कि इस साक्षात्कार को टाइप करने में मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी।)

प्रश्न - ‘लिखना’ आपके लिए क्या है - आदत? नशा? कर्तव्य? प्रेम? शौक?

उत्तर - बड़ा सुखद प्रश्न है आपका। धन्यवाद। लिखना मेरे लिए एक ईश्वरदीय आदेश है। आदि पिता परमेश्वर ने मुझे जन्म देते समय ही जो कुछ दिया, वह तो दिया ही, पर, एक लेखनी, एक कलम भी थमा दी और मुझसे चुपचाप कह दिया ‘तू धरती पर जा रहा है। संसार के विशेष देश खण्ड ‘भारत’ में जन्म लेगा। ले! यह कलम अपने हाथ में थाम ले। वैसे यह ‘कलमुँही’ होगी-काली स्याही से लिखेगी। पर तू थोड़ा सा ध्यान रखना, कि धरती पर जाकर इससे ऐसा कुछ मत लिखना कि तेरा मुँह भी काला हो जाए। इस ‘कलमुँही’ को सूरजमुखी, चन्द्रमुखी, रजतमुखी या स्वर्णमुखी सिद्ध करना। जाओ।’ धरती पर आते-आते किसी अनजाने मोड़ पर माँ रस्वती ने अपना आँचल मेरे सिर पर फैला दिया और मैं भारत जैसे पुण्यवान देश में एक मनुष्य बनकर अपनी माँ की गोद, पिता की छाया और आप सभी की संगत में आ गया। बस! तब से आज तक लिखना मेरी वृत्ति, प्रवृत्ति, आदत, कर्तव्य, प्रेम, नशा या शौक आप चाहे जो समझें, वह हो गया। 

सरस्वती माँ ने आशीर्वाद देते हुए मेरी कलम से कहा - ‘तू सतवन्ती रहना, तेरी कोख फले-फूले, तुझे यश मिले। यशवन्ती भव। और फिर, सब कुछ आपके सामने है। जो कुछ हो रहा या आपको लग रहा है, उसका माध्यम, एक तुच्छ निमित्त ईश्वर ने मुझे भी बनाया। मेरा भाग्य-लेख, मेरी ललाट-लिपि में जो कुछ उसने लिखा, उसके अनुसार मैं जी रहा हूँ। करुणा, बुद्धि, विवेक, वेदना, व्यथा, सम्वेदना, विरह-मिलन, मान-अपमान, श्रद्धा, सम्मान, विद्या, व्यसन जो कुछ उसने दिया, वही सम्पदा लेकर मैं आपके बीच में हूँ। 

मैं संसार को असार नहीं मानता। संसार मेरे लिए सारभूत है और इसे सारस्वत मानकर अपनी प्रकृति और अपने युगीन पुरुषार्थ का सदुपयोग करना मेरा धर्म है। हम मनुष्य होकर भी संसार को सारभूत नहीं बनाए रख सके तो फिर समूचे संसार में भारत और भारत माता जैसे पवित्र शब्द अपना अर्थ ही खो बैठेंगे। यही कुछ मेरा मनोदेव मुझसे साँस-साँस कहता रहता है और मैं किसी क्षितिज पर सप्तरंग-नवरंग-इन्द्रधनुष अपनी कल्पना और आराधना से बनातारहता हूँ। इसका जो भी अर्थ लगाएँ, लगा लें। आप स्वतन्त्र हैं। आपके इस प्रश्न ने मुझे एक नया साहस दे दिया। मैं कृतज्ञ हूँ।

प्रश्न - आपको कवि बनाने में शिक्षा-शिक्षक-परिवार-समाज के योग का अनुपात क्या रहा? हर कोई कवि नहीं बनता। क्या चीज है जो कवि बनने के लिए जरूरी है?

उत्तर - साहित्य-कला-संस्कृति, यह सब संस्कारगत ईश्वरीय सम्पदा है। कविता और कवि-कर्म इस सम्पदा का एक अंग और अंश है। मातृ-गर्भ से ही यह संस्कार-सम्पदा हमें मिल जाती है। जब हम मातृ-गर्भ से बाहर, इस  धरती पर आते हैं तो इस संस्कार-सम्पदा को समृद्ध रखने के लिए हमें न जाने कहाँ-कहाँ से, न जाने कैसी-कैसी और न जाने कितनी-कितनी सम्पत्ति लेनी पड़ती है। यह प्रक्रिया आजीवन चलती है। इसका पात-अनुपात लगाना असम्भव है। माता-पिता हमें बोल-चाल सिखाते हैं। परिवार और समाज हमें लोक व्यवहार तथा शिष्टाचार, सदाचार और सभ्यता का प्रशिक्षण देते हैं। शिक्षक हमें सिखाता है - विद्या विनयेन शोभते। यदि आप विनीत और विनम्र नहीं है तो आप कभी भी सुदृढ़ जीवन नहीं जी सकते। गुरु हमें शिक्षा के साथ दीक्षा देता है। हम दीक्षित होकर सार्थक जीवन जीते हैं। हमारे पुरुषार्थ को चैतन्य और जाग्रत रखता है हमारा परिवेश। बीता अतीत और अनागत भविष्य हमें अपना वर्तमन जीना सिखाता रहता है। यह एक अनन्त प्रक्रिया एवम् प्रशिक्षण है। यहाँ समय, स्थिति और परस्थिति हमारे प्रशिक्षक हैं। आपको जिज्ञासु बनाये रखने की गुदगुदी समय देवता या काल देवता चलाता रहता है। आपका धर्म-कर्म-अध्यात्म-आस्था और निष्ठा आपको सक्रिय रखते हैं। आदान-प्रदान आपके जीवन-मन्त्र होते हैं। अभाव आपके सच्चे साथी और मित्र रहते हैं। कल्पना आपकी सहचरी और प्रतिभा आपकी प्रहरी हो जाती है। इनसे और इन जैसे तत्वों से आप जितना कुछ, जैसा कुछ लेना चाहें वैसा अपनी आकांक्षा के साथ ले सकते हैं।

यह एक अमृत प्यास है। यह प्यास यदि बुझ गई तो मान लो कि आप निष्प्राण हो गए। ऐसी ही अज्ञात और और अदृश्य निधियाँ आपको समृद्ध करती रहती हैं। आप, चूँकि एक जीवधारी, देहधारी मनुष्य हैं इसलिए ‘सब कुछ’ नहीं तो भी ‘बहुत कुछ’ अतिरिक्त लेकर एक ‘कवि’ भी हैं। स्वयम् को अलग या विशेष मानकर विपरीत मत चलिए। आँसू और विकल वेदना आपके पास अतिरिक्त और विशेष सम्पदा है। इस सम्पदा का सदुपयोग आपका व्रत हो तो लोग आपको ‘कवि’ कहते और मानते रहेंगे। सस्मित और सविनय शैली आपको कुछ विशेष सम्बोधन देती रहेगी जिसमें ‘कवि’ भी एक सम्बोधन होगा। करुणा को मरने मत दीजिए, कविता जीवित रहेगी। कवि बने रहोगे।

प्रश्न - कविता आपको निष्प्रयास या सहज मिल जाती है? आप ‘स्वान्तः सुखाय’ लिखते हैं?

उत्तर - कविता को मैं एक सम्वेदनशील मन की सहज अभिव्यक्ति मानता हूँ। यदि आपके पास व्यथा, करुणा और सम्वेदना है तो आपका अन्तर्यामी स्वयम् बोल उठता है। कहता है - ‘सोचता क्या है? उठा लेखनी! व्यक्त कर दे उसे जो कुछ भीतर छटपटा रहा है। अपनी बेचैनी व्यक्त कर दे।’ यह एक निष्प्रयास सर्जना है। जो सृजित होना चाहता है, वह आपको चैन नहीं लेने देगा। कोई ‘वियोग’, संयोग से स्वमेव व्यक्त हो जाता है। अज्ञात प्रेरक शक्ति सारे सुयोग जुटा देती है। आप पिंगल जानें या नहीं जानें, आपकी अभिव्यक्ति, आपका सारस्वत विचार, भाषा और वाणी का सहारा लेकर सार्वजनिक होने की प्रक्रिया में प्रकट हो जाता है। सम्प्रेषित होने की आकांक्षा उसे आकार दे देती है। वह छन्द, स्वच्छन्द, मुक्त छन्द, गद्य, पद्य या गल्प कुुछ भी हो सकता है। यदि वह सम्प्रेषित होने की सफलता वाला शब्द समूह हो तो अपना रास्ता खुद बनाता हुआ समाज और लोक में प्रवेश कर जाता है। उसका प्राण-तत्व उसे यायावर बना देता है। वह एक जाग्रत अवचेतना का अवतरण है। शब्द उसे अपने हृदय में बैठाकर उसके वाहक बन जाते हैं। उसका तन कैसा भी हो, पर मन सारस्वत और शिवम् वाला होना जरूरी है। एक निष्प्रयास सहजता उसे आकार और लोकाचार का आचरण दे देती है। समाज उसे कविता मानकर उससे जुड़ जाना चाहता है। इस प्रक्रिया को पूरा करनेवाली अभिव्यक्ति कविता कहाती है। उसकी गेयता, अगेयता बाद की बात है। लोक स्वीकृति पहली बात है। वह सर्जक को भी सुख देती है और श्रोता या पाठक को भी नवरस दे देती हे।

मैं मात्र अपने सुख के लिए नहीं लिखता। हाँ, कभी-कभी ऐसा हो जरूर जाता है। मेरे सामने मेरा लोक और मेरी भूमि का सुख जरूरी है। सुख स्वयम् को मिले या नहीं, पर शिव (सुख) प्रत्येक उस प्राण और प्राणी को मिले जो ‘शिव’ के लिए बेचैन, मारा-मारा फिर रहा है। ‘सर्वजन सुखाय’ भी एक सूत्र है, एक मन्त्र है। यह एक साधना है। मैं वैसे भी इसका एक साधक हूँ।

प्रश्न - क्या आपको लगता है कि आपकी कविता ने पराकाष्ठा छू ली है? जैसे कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, गालिब, मीर, निराला, मुक्तिबोध.....?

उत्तर - मुझे, अपने बारे में न कोई भ्रम है न कोई गलतफहमी। मैं आज भी कविता लिखना सीख रहा हूँ। कविता का, प्राथमिक स्तर का एक विद्यार्थी हूँ। मेरी यह पढ़ाई आजीवन चलती रहेगी। हमें अपनी मौलिकता पर हमेशा गर्व होता है। यह गर्व हमें दम्भ और अहंकार की अँधरी गुफाओं में धकेल देता है। मुझे खूब पता है कि भारत वेदों और उपनिषदों का देश है। हमारी सृष्टि के एक-एक कण, एक-एक अणु, एक-एक पल पर, वेद रचयिताओं ने रच दिया है। फिर हम कहाँ मौलिक हैं? आपने स्व. साहिर लुधियानवी का एक शे’र सुना होगा। उन्होंने लिखा है और कहा है -

‘दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शकल में
जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं’

‘दुनिया ने मुझे जो-जो अनुभव और तजुर्बे (भले-बुरे) हवादिस की सूरत में मुझे दिए हैं, मैं वे ही आपको लौटा रहा हूँ।’ अब बताइए! कहाँ है मौलिकता? हम किस पर इतराएँ? किस पर अकड़ें? इससे आगे मैं एक बात और जानता-मानता हूँ। वह यह कि आप किसी देवता की नैवेद्य थाली में से कुछ खायेंगे तो वह प्रसाद माना जाएगा। पर यदि आप किसी ऐरे-गैरे की थाली में से खायेंगे तो झूठा-एँठवाड़ा और टुकड़ा माना जाएगा। यदि कुछ खाना है तो देव थाली में से खाओ। ऐरे-गैरे की थाली में से टुकड़ा मत तोड़ो।

मैं फिर कह रहा हूँ कि मुझे अपने बारे में न कोई भ्रम है न कोई गलतफहमी। और स्वयम् की रचनाकर्मिता पर न कोई दम्भ है न अहंकार। मैं तब भी कविता का, रचनाधर्मिता और काव्यकर्मिताता का एक विद्यार्थी था और आज भी एक सामान्य विद्यार्थी हूँ। लिखना सीख रहा हूँ। मेरा यह अभ्यास आजीवन चलता रहेगा। इस प्रश्न का उत्तर कई पृष्ठों में दिया जा सकता है। पर इस उत्तर को फिलहाल इतना ही पर्याप्त मानता हूँ। वैसे भी मैं एक ‘बालकवि’ ही हूँ। ‘बैरागी’ तो जन्म और जाति से हूँ।

प्रश्न - क्या कविता के बिना समाज की और समाज के बिना कविता की कल्पना सम्भव है?

उत्तर - जिसे आप समाज कहते या मानते हैं वह अपने आदिकाल से सरस है। शुष्क या सूखा नहीं है। साहित्य-कला-संस्कृति ये मनुष्य जीवन ही नहीं, प्रत्येक जीवन के मूल तत्व हैं। कविता को साहित्य में शीर्ष स्थान मिला है। उसके बिना समाज का प्राण तत्व सूख जाएगा। मैं सोच भी नहीं सकता हूँ कि बिना कविता के समाज स्वयम् को समाज कैसे मानेगा? समाज को कविता चाहिए और कविता के लिए समाज अनिवार्य है। संसार में जब तक ‘माँ’ है, तब तक गीत और कविता अमर है। प्रत्येक ‘माँ’ अपने आप में एक काव्य है, कविता है। गीत है। संस्कृति और कला है।

प्रश्न - प्रकृति और कविता में रिश्ता है, प्रकृति प्रदूषण के चलते कविता को क्या नुकसान हुआ है?

उत्तर - प्रकृति एक प्रेरक तत्व है। प्रकृति की एक सूक्ष्मतम हलचल भी किसी न किसी को हर तरह से प्रेरित करती है। उसका अवदान, प्रेरित करने से भी अधिक, प्रभावित करने का है। वह प्रेरित और प्रभावित, दोनों करती है। प्रकृति में यदि प्रदूषण होता है तो उसका प्रभाव प्रत्येक ‘प्राण’ को प्रभावित करता है। कवि एक जीवित, सशरीर प्राणी है। वह निश्चित ही शब्द-ब्रह्म का सहारा लेकर पूछेगा और कहेगा - ‘यह क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है?’ यह बात, बातचीत की हर विधा में प्रकट होगी-चाहे वह गद्य हो या पद्य हो या गल्प हो। प्रकृति में आया, प्रकृति में हुआ या प्रकृति में किया हर बदलाव, हर प्राणी पर असर डालेगा। कवि भी उसमें एक प्राणी है।

प्रश्न - पिछले जनम की किसे पता! अगले जनम में कवि बनना चाहेंगे?

उत्तर - आपने ठीक ही पूछा है। पिछले जनम का तो सचमुच मुझे कुछ पता नहीं कि मैं क्या था और कहाँ था एवम् कैसा था। पर यदि अगले जनम की मेरी चाह की थाह लेना चाहते हैं तो मैं कहूँगा कि मेरे इस जन्म को देनेवाले पूज्य और स्वर्गीय पिता महन्त श्री द्वारिकादासजी बैरागी और मेरी स्वर्गीय जन्मदात्री श्रीमती धापूबाई बैरागी द्वारा पुनः मनुष्य जीवन ही चाहता हूँ और इसी पावन भारत माता भूमि में ही जन्म लेना चाहता हूँ। मैं यह जानता हूँ कि मुझे पुनर्जन्म मिलेगा और मैं इसी मिट्टी मे वह पा लूँगा। मोक्ष और स्वर्ग की न तो मेरी कामना है, न साधना, न तपस्या और न कोई चाह। 

प्रश्न - आपको जो भी मिले-रिश्तेदार, मित्र, परिजन, किसी से कोई शिकवा है?

उत्तर - मुझे किसी से कोई शिकवा या शिकायत नहीं है। सभी मेरे हैं और मैं सभी का हूँ। मैं चूँकि सभी का सम्मान करता हूँ इसलिए सभी मुझे सस्नेह सम्मानित करते हैं और रखते हैं। मैं जानता हूँ कि विनम्रता और स्नेहिलता जीवन को सुदृढ़ता एवम् सम्मान देती है। मेरी दो पंक्तियाँ लिख लें। आप इस प्रबोध पर चौंक जाएँगे -

जीवन की फटी चदरिया पर, पैबन्द काम में आते हैं।
सम्बन्धी काम नहीं आते, ‘सम्बन्ध’ काम में आते हैं।

आप, शायद इसे अपने मर्म की कसौटी पर कस लेंगे और स्वयम् निस्संकोच सोच लेंगे।

प्रश्न - अपनी प्रिय पुस्तक, प्रिय कवि, प्रिय शौक, प्रिय मौसम बताएँ?

उत्तर - सात्विक जीवन को सक्रिय रखनेवाली प्रत्येक पुस्तक मुझे प्रिय लगती है। अनगिनत शास्त्रों की संख्या में ऐसी पुस्तकों की संख्या एक तक सीमित रखना मेरे लिए अत्यन्त कठिन ही नहीं, असम्भव है। मैंने अपनी सातवीं कक्षा तक आते-आते पढ़ लिया था - जो मेरे पाठ्यक्रम में था -

उत्तम विद्या लीजिए, भले नीच पे होय।
पड़ो अपावन ठौर में, कंचन तजे न कोय।।

जीवन को सकारात्मक सोच देनेवाली प्रत्येक पुस्तक मुझे प्रिय और पठनीय लगती है। रहा प्रश्न अपने प्रिय कवि का, सो अपनी कलम का अवदान ‘सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्’ की कसौटी पर कसने पर खरा उतरनेवाला जो भी कवि देता है वह मेरा प्रिय है। अपने से पहले वाली पीढ़ी के प्रत्येक सरस्वती पुत्र को मैं चरण छू कर प्रणाम करनेवाला जीव हूँ। अपनी समकालीन पीढ़ी के प्रत्येक काव्य-कर्मी का मैं एक सही पाठक और आत्मीय अनुज हूँ। अपने से बाद वाली पीढ़ी को मैं कभी हतोत्साहित नहीं करता और उसकी रचनाधर्मिता पर हमेशा बधाई देता हूँ। 

मेरा प्रिय शौक है अच्छा पढ़ना और अच्छा लिखना। इस शौक को हमेशा जवान बनाये रखना भी मेरा शौक है। और, आप तो मात्र मौसम की पूछ रहे हैं! पर, मैं जानता हूँ कि संसार में मौसम तो तीन ही होते हैं - ग्रीष्म, वर्षा और शीत। पर भारत में ऋतुएँ छह होती हैं। ग्रीष्म, वर्षा, शीत, हेमन्त, शिशिर और वसन्त। कृपया शीत के साथ शरद और जोड़ लें। मैं इन सभी ऋतुओं और मौसमों में प्रियता ढूँढ लेता हूँ। प्रत्येक मौसम और ऋतु से मैं कुछ न कुछ पाता ही हूँ। प्रत्येक ऋतु के पास अपना रस होता है और प्रत्येक मौसम के पास उसका सौन्दर्य होता है। सौन्दर्य को सराहना और रस का पान करना मैं जानता हूँ। मैं ‘रसो बैस’ का अर्थ समझता हूँ।

प्रश्न - आज के फिल्मी गीतों, संगीत के बारे में कुछ कहें। आपने गीत लिखे हैं। संगीत भी आप जानते हैं।

उत्तर - सारे संसार में फिल्म निर्माण और फिल्म प्रदर्शन एक व्यापार है। कारोबार या धन्धा है। भारत में भी यही कुछ होता आ रहा है। पिछले एक सौ वर्षों में फिल्म निर्माण का जो विकास और बदलाव है, वह सब हमारे सामने है। कलात्मक फिल्में तब भी इनी-गिनी बनती थीं। मूल कथानक का लक्ष्य मनोरंजन होता था। वैसे भी, फिल्मों के शौकीन लोग अपने मनोरंजन के लिए ही दर्शक बनते हैं और पैसा खर्च करते हैं। पहले फिल्मों में संगीत प्रधान युग था। उस युग में संगीत, माधुर्य प्रधान होता था। गाना और गीत, दो अलग-अलग चीजें हैं। गाना, बनाया और गाया जाता था। गीत में साहित्य का स्पर्श होता है। गीत बनाया नहीं जाता। गीत रचा जाता है। सरलता और सम्प्रेषण, दोनों की आत्मा होती है। भाषा की सरलता और रचना की सम्प्रेषणता, दोनों में अनिवार्य है। गेयता, मधुरता तथा सुरों की मिठास उन्हें स्थायित्व, लोकप्रियता तथा अमरता देनेवाली शक्ति है। अब न तो गाना लिखा जाता है, न गीत रचा जाता हैै। संगीत की मधुरता मर गई है। ‘मेलोडी’ अब ढूँढे नहीं मिलती। हमारी फिल्मों के कथानकों में मारपीट, लात-घूँसे, हिंसा और बारूद उगलते हथियार छा गये। आज की फिल्मों में करुणा और सम्वेदनाएँ सिकुड़ती जा रही हैं। वह युग बीत गया जब एक ही सिनेमा घर में, एक फिल्म तीन-तीन बरस तक दिखाई जाने का इतिहास बनाती थी। आज एक फिल्म तीसरे दिन तक भी चलाना असम्भव हो गया। दर्शकों की रुचि बदल गई। फिल्म के दर्शक सिनेमा हाल से निकलते समय न तो कोई गीत अपने दिल में लाते हैं न कोई सम्वाद। साहित्य का तो कोई सवाल ही नहीं है। फोटोग्राफी और कलाकारों के प्रदर्शन पर सारा मामला टिक गया। पुराने गीत और संगीत को हम बार-बार याद करते हें। मैं कह नहीं सकता हूँ कि माधुर्य लौटेगा या नहीं। मेरे अपने अनुभव इस बिन्दु पर तरह-तरह के हैं। जब किसी विधा से लोकरंजन विदा हो जाए और मात्र मनोरंजन प्रधान हो जाए तब ऐसा होता है। फिल्मों से ‘पैगाम’ या ‘मेसेज’ मिलना कठिन हो गया। माधुर्य के शोक-काल को हम अपनी फिल्मों में जी रहे हैं।

प्रश्न - आज की पीढ़ी पढ़ती नहीं है। साहित्य से वास्ता कम रखती है। दोष किसका है? समाधान क्या है?

उत्तर - आपका प्रश्न नया नहीं है। यह एक चिरंजीवी प्रश्न है। शाश्वत है इसकी आत्मा। साहित्य और कविता के क्षेत्र में आप एक बात को गम्भीरता से लें। बात यह है कि भारत मूलतः श्रुति का देश है। आदिकाल से आज तक का वाणी-सागर आप मथ लें। हमारे यहाँ कैसी भी स्थिति या परिस्थिति हो, लोग सुनकर अपनी सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। पढ़ने में उनकी रुचि दूसरे क्रम पर भी नहीं है। देश निरक्षर था तब भी और आज प्रायः साक्षर है (तुलनात्मक दृष्टि से) तब भी, हम श्रोता बनना पसन्द करते हैं। अपनी साक्षरता का अधिक उपयोग हम आधुनिक मशीनों पर करते हैं। पढ़ने के बजाय सुनना आसान और सरल होता है। हमारी आज की पीढ़ी उतना ही पढ़ती है जितना उसे अपना लक्ष्य और भविष्य प्राप्त करने के लिए जरूरी लगता है। फिर, आज की पीढ़ी की दिनचर्या का अध्ययन भी कर लें। आज की पीढ़ी के पास अपनी दिनचर्या में इतना समय भी नहीं है कि वह पढ़ने की तरफ मुड़े। साहित्य से भी उसका सरोकार उतना ही है जितना उसे अपने विद्यार्थी जीवन में परीक्षाएँ पास करने के लिए पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता है। पठन और श्रवण के बीच विभाजन रेखा स्वमेव खिंच जाती है। आप वाचनालयों और लायब्रेरियों मे जाकर देखें। यह पीढ़ी अपने-अपने परीक्षकीय विषयों की पुस्तकें पढ़ते हुए मिलेगी। साहित्यिक पुस्तकें खरीदना उनके लिए एक बेकार का काम है। वह गीत, कविता, भाषण, प्रवचन, वाणी, कहानी सब सुनना पसन्द करती है। आधुनिक टी. वी. ने उसे सब कुछ दिखाने और सुनाने का जिम्मा स्वम् ले लिया है। समय देवता इसका समाधान यथा समय करते जाएँगे। हम सभी निर्दोष हैं।

प्रश्न - राजनीति और शब्द की शुचिता, के बीच सन्तुलन का न्याय आप कैसे रख पाते हैं?

उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर मैं कई बार दे चुका हूँ। आज फिर दे रहा हूँ।

मेरी मान्यता है कि राजनीति कविता का विषय नहीं है। एक समय था जब हमारे यहाँ ‘राजकवि’ हुआ करते थे। प्रत्येक राजा के पास अपना या अपने कवि हुआ करते थे। वे (कवि) क्या करते थे, यह इतिहास का विषय है। आपने मुझसे प्रश्न पूछा है तो मेरा उत्तर बहुत सीधा, सरल और सपाट है। मैं इस समय अपनी उम्र के 87वें वर्ष में चल रहा हूँ और पिछले 72 वर्षों से काँग्रेस पार्टी में  एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह काम कर रहा हूँ। दल-बदल का कलंक मुझ पर कभी नहीं लगा। मैं जहाँ कल था, वहीं आज भी हूँ। मेरा सिद्धान्त सूत्र है - ‘साहित्य मेरा धर्म है और राजनीति मेरा कर्म है।’ मैं इस बात का ध्यान रखता हूँ कि ‘कर्म’ मेरे ‘धर्म’ का उल्लंघन नहीं करवा दे। इस सूत्र का निर्वाह करने में मुझे कोई असुविधा आज तक नहीं हुई। मैं राजनीतिक मंचों पर कविताएँ पढ़ने से स्वयम् को बचा लेता हूँ। यह कोई चतुराई नहीं अपितु मेरी मान्यतागत नीति है। बातचीत, भाषणों और सम्वादों में काव्यगतता लाने का प्रयत्न मैंने कभी नहीं किया। भाषण कविता हो सकता है पर जब कविता भाषण होने लगती है तो श्रोताओं की प्रतिक्रिया कई तरह से व्यक्त होने लगती है। आप स्वयम् कई स्थानों पर इसके साक्षी रहे होंगे।

प्रश्न - आज की लोक-संस्कृति विकृत हो गई है। होली, दीवाली, त्यौहार वैसे आनन्द नहीं देते। प्रदूषण अधिक होता है।

उत्तर - हमें परम्परा से विरासत में मिली लोक-संस्कृति तो बिलकुल वही है। उसमें कोई विकृति मैं नहीं मानता। जिसे आप विकृति समझ रहे हैं वह हमारे समाज में आई आधुनिक सभ्यता की छाया है। हम सामाजिक स्तर पर भटके हैं। सांस्कृतिक स्तर पर कोई भटकाव नहीं है। प्रत्येक त्यौहार, पर्व या उत्सव का एक भौतिक अर्थशास्त्र होता है। यह एक प्रक्रियागत बदलाव है। संस्कृति हमें प्रेरित करती है और उत्साहित करती है कि त्यौहार है, तो मनाओ। पर्व है तो, पूजो। उत्सव है तो, उसे अनुपम करो। हम होली आज भी मनाते हैं। दीपावली पर पूजन आज भी करते हैं। मेले-ठेले आज भी जुड़ते हैं। उत्सव आज भी प्रेरित करते हैं। जिसे आप आनन्द कहते हैं, यह लेना या प्राप्त करना, सब वर्तमान की छाया में होता है। सभ्यता की छाया कभी हमें चुटकी काटती है तो कभी हमसे प्रश्न करती है और हम सभ्यता के प्रश्नों के उत्तर देने लगते हैं। रंग, वही के वही हैं। दीयों की ज्योति वही की वही है। चंग, मृदंग, ढोल और वाद्यों की भाषा में कोई फर्क नहीं है। तब फिर हमें देखना होगा कि आपकी तथाकथित विकृति कैसे आ गई? आनन्द क्यों नहीं है? यहाँ मुुख्य भूमिका वर्तमान के अर्थशास्त्र और जीवन की व्यस्तता तथा दिनचर्या की जटिलता की हो जाती है। अतीत बीत चुका होता है। वर्तमान हमारे पास है। हम अतीत को बाट बनाकर वर्तमान को भविष्य की तराजू पर तोलने की सभ्यता का एक शुष्क प्रयत्न का खेल, खेल रहे हैं। आनन्द हमारी पारम्परिकता, लोक व्यवहार तथा आत्मीयता का मधु है। जिसे आप प्रदूषण कह रहे हैं। वह हमारी अपनी ही देन अपने आप को है। हमने सम्पूर्ण निर्मल प्रकृति को आगे बढ़ कर, आगे रह कर प्रदूषित किया है। अपनी स्वनिर्मित विकृति पर हमें पछतावा होता है। पर, हमारा पछतावा भी इतराता और अकड़ता है। आनन्ददायिनी बेल के फल-पत्ते हमें मुँह चिढ़ाते हैं और अँगूठा दिखाने लगते हैं। हमारी मनोभूमि आज भी उपजाऊ और उर्वरा है। आप उससे सुस्पष्ट सम्वाद करके देखिए। आनन्द हमारी परस्परता और आत्मीयता का पर्याय है। इसे दूसरा अर्थ मत दीजिए। कृपा होगी।

प्रश्न - मोबाइल क्रान्ति के बाद मनुष्य के बीच रिश्ते वैसे अपनेपन के नहीं रहे जो कभी खत लिखने के दिनों में रहा करते थे। क्यों?

उत्तर - हाँ। आप ठीक कह रहे हैं। इस आधुनिक महादैत्य ने हमसे बहुत-कुछ छीन लिया है। पत्राचार में अपनेपन की हमारी जो ऊष्मा थी, वह प्रायः समाप्त हो गई है। हर व्यक्ति अपने मोबाइल को देखता और सुनता रहता है। यहाँ तक कि एक ही परिवार के सदस्यगण एक ही जगह मिलते-बैठते भी आपस में बातचीत करना भूलते जा रहे हैं। प्रेमालाप समाप्त हो गया और निरन्तर मरता जा रहा है। पत्राचार का वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक आनन्द समाप्त होता हम स्वयम् देख रहे हैं। डाकिये का, हमारे घर पर पत्र देने आने का रोमांच और सरोकार जो सुख देता था वह सुख चिर-निद्रा में लीन होता चला जा रहा है। सरकार का डाक विभाग सन्नाटे में अस्त-व्यस्त जीवन जी रहा है। मोबाइल ने उसे दूसरे कई कामों में लगा दिया है। मित्रों और पड़ौसियों को अपने आये हुए पत्र दिखाने का जो रस और सुखानन्द था वह सूख गया है। मोबाइल के की-बोर्ड ने आपसे आपकी हस्तलिपि और मातृ-भाषा छीन ली। उसने अपनी भाषा आपको दे दी। ‘अक्षर ब्रह्म’ के अवतरण का मशीनी ठेका उसने ले लिया। ‘अक्षर-प्रभु’ का सारा सौन्दर्य उसने अपने कब्जे में कर लिया। अक्षरों के कटाव, घुमाव और सुन्दरता के संसार पर आपके मोबाइल के की-बोर्ड का कब्जा है। आपके हाथ में कलम नहीं, की-बोर्ड की चाबियाँ हैं। हम सभी जानते और समझते हैं कि हम प्रत्येक क्षण लुट रहे हैं और बड़ा विलोम-क्षण जी रहे हैं कि लुटेरा हमारी जेब में, हमारे ही द्वारा व्यवस्थित और सुरक्षित है। हम इस लुटेरे के नवीनतम संस्करण की प्रतीक्षा में नित्य ही पैसा खर्च कर रहे हैं। यह लुटेरा बन्द नहीं हो जाए इसका पूरा ध्यान हम प्रत्येक लुटेरे की शर्त पर रख रहे हैं। हम, इस क्रान्ति का सदुपयोेग कम, दरुपयोग अधिक कर रहे हैं। यह (तकनीक) हमारा गुलाम बनने आई थी। हो गया उल्टा। हम मोबाइल के गुलाम हो गए हैं। इस दासता पर भी हम गर्वित हैं। अपनेपन की ऊष्मा को वापस लाने का कई नया उपाय ढूँढना जरूरी है। कोशिश कीजिए। शायद कोई रास्ता मिले।

प्रश्न - आपकी वे इच्छाएँ बताएँ जो अब भी चाहते हैं, अधूरी हैं, पूरी हो जाएँ।

उत्तर - ‘इच्छा’ एक ऐसी ग्रंथि है जो दिनानुदिन खुलती है, बन्द होती है और गठीली हो जाती है। यह, न किसी की मरती है न पूरी होती है। अधूरी रह कर प्रायः अविस्मरण और विस्मरण का खेल खलेती रहती है। जब जागते और जागृत रहते हैं तब इच्छा थोड़े नेपथ्य में चली जाती है। क्यों कि तब आप प्रयत्नशील रहते हैं कि ‘मेरी अनुपम इच्छा’ को मैं पूरी कर लूँ। पर जब आप सोते रहते हैं तब यह जागृत होती है। आपको सपनों तक में परेशान करती रहती है। यह एक सहज और सामान्य प्रक्रिया है। संसार की तराजू पर आज तक वह बाट नहीं बना जो इच्छा को तौल सके। मेरी भी यही स्थिति है। इच्छा के सन्दर्भ में हमारे पास एक आसान समीकरण है - ‘जो पूरी हो गई वह मेरी इच्छा और जो पूरी नहीं हुई, वह ईश्वर की इच्छा।’ यह समीकरण मुझ पर भी लागू है। मैं एक बात विशेष जानता हूँ। वह यह कि प्रभु ने हमें एक जबर्दस्त शक्ति दी है जिसका नाम है ‘स्मरण शक्ति’। पर इससे भी बड़ी शक्ति उसी प्रभु ने हमें दी है वह है ‘विस्मरण शक्ति’। यदि परमात्मा ने मनुष्य को ‘विस्मरण शक्ति’ नहीं दी होती तो सारी दुनिया आज पागलखाना बन गई होती। आप क्या-क्या याद रखते? जो नहीं हुआ या नहीं हो सका उसे भूलो और आगे बढ़ो। जो भी करना चाहते हो, उसके लिए प्रयत्न करो। प्रयत्नशीलता जीवन की निशानी है। प्रयत्न, आपके जीवन्त होने का प्रमाण है।

प्रश्न - कोई कवि कैसे बने? कोई सूत्र, संकेत, सलाह? कवि बनने के संकट?

उत्तर - ‘कवि’ एक संज्ञा है, या विशेषण या कि अलंकरण, यह एक वैचारिक विषय है। दो मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता यह है कि कवि जन्मना होता है। दूसरी मान्यता यह है कि कवि पैदा नहीं होता अपितु ‘बनाया’ जाता है। हमारे यहाँ ‘काव्य’ को ‘शास्त्र’ माना गया है। शास्त्र का अध्ययन किया या कराया जाता है। फिर, हमारेे यहाँ ‘पिंगल’ एक पूरा शास्त्र है जिसका शिक्षण, प्रशिक्षण और परीक्षण सब होता है। ‘पिंगल’ में हमारे पास पूरा ‘छन्द विधान’ है। ‘लय’ उसका प्रमुख अंग है। बदलावों ने हमें ‘स्वच्छन्द’ और ‘मुक्त छन्द’ तक की सुविधा दी है। ‘लय’ को हम ‘अ-लय’ तक ले गए बशर्ते कि उसमें ‘विचार’ हो। विचार शून्यता कविता को कभी भी, कहीं भी स्वीकार नहीं है। चौबीस घण्टों में प्रत्येक व्यक्ति की भाषा, वाणी में बदल जाती है। भाषा में अर्थ होता है, वाणी में गूढ़ार्थ व्यक्त होता है। कई बार हम चौंक कर कहते हैं, ‘सुनो! सरस्वती बोल रही है।’ कई बार हम कह बैठते हैं, ‘क्या बकवास है! हिश्त।’ तब फिर एक बात और सामने आई -

‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पड़त निसान।।’

भारत में महकवि और संसार के प्रथम विश्व कवि वाल्मिकी और दूसरे हैं महाकवि कालिदास। अब कीजिए आप बहस! न कोई सूत्र, न कोई संकेत, न कोई सलाह लेकिन इन दोनों कवियों के बना विश्व कविता और भारतीय सृजन शून्य हैं। ‘शब्द’ वर्णन करता है, भाषा व्यक्त करती है और वाणी उसकी गूढ़ता और गम्यता सिद्ध करती है। हमारे पास ऐसे हजारों व्यक्तित्व हैं जिन्होंने एक पंक्ति भी कविता की नहीं लिखी पर जिसका बोला एक-एक वाक्य कविता हो गया। आप अपने स्वयम् के परिवार में अपनी माँ, अपनी बहन, अपनी बेटी, अपनी बहू और अपने बच्चों की बातचीत पर ध्यान दीजिए। आपको लगेगा कि उनकी शैली में वे कविता से अधिक कारगर वाक्य और बातें बोल देते हैं। वे किसी से नहीं सीखते पर एक अदृश्य सत्ता उनसे ‘कविता’ जैसे बोल बुलवा देती है। यह ईश्वर का एक अद्भुत करिश्मा और प्रकृति का अनुपम उपहार है। कवि दोनों प्रक्रियाओं से प्रजनित प्राणी है। रहा सवाल ‘सलाह’ का, तो मैं किसी का भी सलाहकार नहीं हूँ। अपने बाद वाली कलकमकार पीढ़ी को मैं सदैव प्रोत्साहित करता हूँ। किसी को हताश और निराश करना मेरी नजर में एक अपराध है।

प्रश्न - आजकल अभिव्यक्ति के खतरे हैं। क्या ये प्रारम्भ से रहे हैं? सत्ता सदैव ‘शब्द’ से डरती रही है?

उत्तर - आपके इस प्रश्न का अन्तिम वाक्य ही पूरे प्रश्न का उत्तर है। सत्ता का शब्द से सीधा संग्राम आज कोई नया नहीं है। यह एक सतत् और सनातन संग्राम है। सत्ता अपनी आलोचना और विरोध को पहले ही दिन से अपना दुश्मन मानती रही है। समाज चुप रहे और सत्ता सजीव चलती रहे, यह सत्ता का बहुत ही गहरा लक्ष्य और संकल्प है। सत्ता का ‘शब्द सत्ता’ से कभी भी मैत्री सम्बन्ध नहीं रहा। वह चलती रहे और आप चुपचाप उसे देखते रहें, यही उसकी ‘नीति’ रही है। सत्ता को सावधान करना और सावधान रखना तथा चेतावनी देना शब्द का धर्म है। सत्ता के पास ‘सहन’ नाम का ‘शील’ नहीं है। सत्ता सहनशील नहीं, सदैव से असहनशील ही रही है। आप स्वयम् तय करें और अपने आप से पूछें कि आप सहनशील सत्ता चाहते हैं या असहनशील सत्ता?

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मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय नगर नीमच के शासकीय मॉडल उच्‍चतर माध्‍यमिक विद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता श्री राधेश्याम शर्मा, दादा के परम-चरम प्रशंसक रहे हैं। दादा के दो-एक कविता संग्रहों की सामग्री मुझे राधेश्यामजी से मिली। उनका पता-   एल-64, इन्दिरा नगर विस्तार, नीमच-458441 तथा मोबाइल नम्बर 88891 27214 है। 

अगला साक्षात्कार - आकाशवाणी इन्दौर की जानी-मानी रेडियो उद्घोषिका देविन्दर कौर मधु का दादा श्री बालकवि बैरागी से, आकाशवाणी के लिए  हुआ फोन सम्वाद।



श्री बालकवि बैरागी के अन्‍य साक्षात्‍कार









श्री अमन अक्षर से बालकवि बैरागी की बातचीत यहाँ पढ़िए।