बढ़ती उम्र, घटता विश्वास, घटता साहस!
डाक विभाग की खबर: सब कुछ राजी-खुशी नहीं है
ऐसा कहीं और हुआ हो तो बताइएगा
तीसरा वर
बदनाम होने की अद्भुत निर्दोष (?) कामना
‘‘मेरा नाम राधेश्याम श्रीवास्तव है। इस समय मेरी आयु 71 वर्ष है। जब मैं आठवीं कक्षा में था तब, तेरह वर्ष की आयु में मैंने ‘पटवारी परीक्षा’ पास कर ली थी। किन्तु नाबालिग होने के कारण नौकरी नहीं मिल सकती थी। मुझे नौकरी मिली 1964 में। मैं राजस्व विभाग में नौकरी चाहता था किन्तु मिली सिंचाई विभाग में। नौकरी पक्की होते ही मैंने मेरी नौकरी राजस्व विभाग में स्थानान्तरण हेतु आवेदन दे दिया। किन्तु सुनवाई नहीं हुई। मैं बराबर कोशिशें करता रहा। आखिरकार ग्यारह बरस बाद, राज्यपाल के हस्तक्षेप से मुझे राजस्व विभाग में स्थानान्तरित तो कर दिया गया किन्तु विभाग मुझे रीलीव करने में टालमटूली करने लगा। उस जमाने में ग्यारह बरसों का अनुभव मायने रखता था। सो, सिंचाई विभाग मुझे छोड़ने को तैयार नहीं था। मैं कलेक्टर साहब की शरण में गया। शायद मेरी सीधी-सपाट बातों ने कलेक्टर साहब को प्रभावित किया। उन्होंने भूख हड़ताल पर बैठने की सलाह दी। मैं घबरा गया और कहा कि मैं भूख हड़ताल पर बैठ तो जाऊँगा किन्तु कहीं ऐसा न हो कि आप ही मुझे गिरफ्तार करवा दें। कलेक्टर साहब ने वादा किया कि वे मेरा काम भले ही न कर पाएँ किन्तु मुझे गिरफ्तार नहीं करेंगे। रामजी का नाम लेकर मैं भूख हड़ताल पर बैठ गया। कलेक्टर साहब ने हर घण्ट में सिंचाई विभाग के अफसरों से पूछताछ करनी शुरु कर दी। अन्ततः आठ घण्टों की भूख हड़ताल के बाद मुझे रीलीव कर दिया गया।
‘‘यह ‘उन’ कलेक्टर साहब की कृपा और ‘उस’ हलके के निवासियों की शुभ-कामनाओं का ही प्रताप रहा कि मैंने अपने बच्चों को ढंग-ढांग से पढ़ा पाया। बेटी की शादी बिना किसी विघ्न के सम्पन्न हो गई। दोनों बेटे पढ़-लिख कर ऐसे हो गए हैं कि प्रतिष्ठापूर्वक कमा-खा रहे हैं। ‘‘मैं, मेरी सहचरी और बेटे-बहू-पोते के साथ, सुखपर्वूक सेवा निवृत्त जीवन जी रहा हूँ।’’
सुनकर मैंने घर के सब लोगों को देखा। किसी का ध्यान हमारी ओर नहीं था। ‘सुनी-सुनाई’ और ‘घिसी-पिटी’ इस कहानी में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी। सब सामान्य और सहज रूप से अपना-अपना काम कर रहे थे। बस! एक मैं ही था जिसका मुँह अचरज से खुला हुआ था।
असम्मान का बीज: सम्मान की फसल
वे एक संस्था चलाते हैं। कुछ न कुछ उठापटक, कोई न कोई आयोजन कर, अखबारों में बने रहने के प्रयत्न करते रहते हैं और अपनी मनोकामना पूरी करने में सफल भी होते हैं। इस बार वे गरीब छात्रों को किताबें और शाला के गणवेश दान करने के लिए आयोजित समारोह में मुझे मुख्य अतिथि बनाना चाहते थे। मैंने पहली ही बार में मना कर दिया।
ऐसे आयोजन मुझे नहीं सुहाते। गरीब और गरीबी का अपमान लगते हैं मुझे ऐसे आयोजन। लोगों के जमावड़े के बीच किसी बच्चे को मंच पर बुलाकर उसे किताबें/कपड़े (या ऐसा ही कोई ‘दान’) देना मुझे क्षुब्ध कर देता है। ऐसे क्षणों में मुझे हर बार लगता है कि हम उस बच्चे को न केवल उसकी गरीबी अनुभव कराते हैं अपितु उसके समुचित लालन-पालन-शिक्षण के लिए उसके पिता-माता की अक्षमता भी उसे अनुभव कराते हैं। इसका सुनिश्चित परिणाम होता है - उस बच्चे में आजीवन हीनता बोध रोप देना। मेरा बस चले तो मैं ऐसे आयोजनों को ‘दण्डनीय अपराध’ बना दूँ। किन्तु भगवान गंजे को नाखून नहीं देता। लेकिन मेरा नियन्त्रण तो मुझ पर है ही। इसलिए ऐसे आयोजनों के निमन्त्रणों को, पूरी बात सुने बिना ही अस्वीकार कर देता हूँ। इसके बाद भी, एक-दो अवसर ऐसे आए जहाँ मुझे संकोचग्रस्त होकर जाना पड़ा। उनकी ग्लानि अब तक बनी हुई है।
‘वे’ मुझसे अप्रसन्न, खिन्न और कुपित होकर लौटे इस बात का मुझे दुःख अवश्य है किन्तु अपने निर्णय पर मुझे रंचमात्र भी खेद नहीं है।
‘गाड़ी ने लाड़ी देवा की नी वे’
इसके बाद कहने को क्या बाकी रह गया था?
गर्भपात की सम्भावना
थोड़ी ही देर में डॉक्टर बाहर आईं और ‘उन्हें‘ अपने पीछे आने का इशारा करते हुए अपने परामर्श कक्ष में चली गईं। वे भागे-भागे डॉक्टर के साथ ही कमरे में घुसे। दो-ढाई मिनिटों में बाहर आए। चेहरे पर उलझन, चिन्ता, घबराहट, परेशानी। आँखों में दहशत। हम कुछ पूछते उससे पहले ही बोले - ‘गड़बड़ हो गई है। गर्भपात की सम्भावना लग रही है। डॉक्टर पूरी कोशिश करने की कह जरूर रही हैं लेकिन इशारों-इशारों में गर्भपात की सम्भावना बता रही हैं।’
इसमें ‘उनका‘ कोई दोष नहीं। जैसा वे पढ़ते-सुनते हैं, वैसा ही तो बोलते हैं! ऐसा बोलनेवाले वे अकेले नहीं हैं। भाषा के प्रति सामूहिक, सहज असावधानी के कारण ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। अच्छे-भले, पढ़े-लिखे, समझदार लोग ही जब ऐसी असावधानी बरतते हों तो ‘वे‘ तो कम पढ़े-लिखे हैं! उन पर क्या गुस्सा करना?
मुझे याद आया, देश के तेरह राज्यों से चौंसठ संस्करण प्रकाशित करनेवाले, देश के सबसे बड़े समाचार पत्र समूह के दैनिक अखबार के स्थानीय संस्करण में, बहत्तर प्वाइण्ट टाइप में, चार कॉलम शीर्षक समाचार छपा था - ‘डाट की पुलिया पर दुर्घटना की सम्भावना।’ मेरे मित्र का पुत्र ही स्थानीय संस्करण का सम्पादक था। मेरे मित्र खुद तो हिन्दी में पी. एच-डी. हैं ही, उनके निर्देशन में दस-बीस बच्चे पी. एच-डी. कर चुके हैं। उनका सम्पादक बेटा भी हिन्दी में ही पी. एच-डी. है। शीर्षक पढ़कर मैंने उसे फोन लगाया और पूछा - ‘क्या अब दुर्घटना भी सम्भावना बन गई है?’ उसने अविलम्ब, तत्क्षण उत्तर दिया - ‘हाँ अंकल।’ मैंने प्रतिप्रश्न किया - ‘तो भाई मेरे! क्या शान्ति कायम होने की आशंका पैदा हो गई है?’ अब बात उसकी समझ में आई। उसने क्षमा याचना की और कहा - ‘अंकल! सच में मेरा ध्यान इस ओर गया ही नहीं। अब भूल नहीं होगी और आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’
झील में तूफान
‘ढ’ को लेकर परेशान ‘ज्ञ’
काश! मैं जैन साहब का विद्यार्थी हुआ होता!
बधाई याने धन्यवाद याने क्या फर्क पड़ता है?
‘आप विद्वानों के साथ यही दिक्कत है। बात को समझने के बजाय शब्दों को पकड़ कर बैठ जाते हैं! इतनी बारीकी आपको ही शोभा देती है। हम भी ऐसा करने लगेंगे तो आपमें और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा? हमारे लिए तो दोनों बराबर हैं।’
यह सब क्या है? भाषा के प्रति असावधानी, उदासीनता या उपेक्षा?
माँजना हई बाजाँ
दादा ने लबूर दिया
बाजार से निकलते हुए वासु भाई की दुकान पर नजर डाली तो पाया कि ग्राहक एक भी नहीं है और दोनों बाल-सखा बतिया रहे हैं। अड्डेबाजी की नीयत से मैं भी रुक गया। मैं जाकर बैठता उससे पहले ही वासु भाई से उपरोल्लेखित सम्वाद हो गया। मैंने देखा - सुनकर लोकेन्द्र भाई खिसियाने के बजाय खुलकर हँस रहे हैं। मैं आश्वस्त हुआ। पूछा तो पूरी बात सामने आई।
परम्परा से साक्षात्कार
महज एक वाचनालय नहीं
प्रवक्ता डॉट काम की लेख प्रतियोगिता
समसामयिक विचार पोर्टल प्रवक्ता डॉट कॉम के तीन साल पूरे होने पर द्वितीय ऑनलाइन लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। इससे पूर्व ‘प्रवक्ता’ के दो साल पूरे होने पर भी लेख प्रतियोगिता (http://www.pravakta.com/archives/18521) का आयोजन किया गया था।
प्रथम पुरुस्कार: रु. 2500/, द्वितीय पुरुस्कार: रु. 1500/- एवं तृतीय पुरुस्कार रु. 1100/- तय किया गया है।
पुरुस्कार के सम्बन्ध में निर्णायक मण्डल का निर्णय सर्वोपरि होगा। अपना लेख ई-मेल के ज़रिये prawakta@gmail.com पर भेज सकते हैं। कृपया अपना लेख हिन्दी के युनिकोड फ़ोंट जैसे मंगल (Mangal) में अथवा क्रुतिदेव (Krutidev) में ही भेजें।
विस्तृत विवरण के लिए यहाँ क्लिक (http://www.pravakta.com/archives/31304) करें या फिर सम्पर्क करें: संजीव कुमार सिन्हा, सम्पादक, प्रवक्ता डॉट कॉम, मो. 09868964804
अण्णा को पता तो चले
अण्णा का अधूरा आह्वान
मैं इस कल्पना मात्र से ही भयभीत हूँ। मैं अण्णा को असफल होते नहीं देखना चाहता।