झील में तूफान

परम्परा को सहजता से रूढ़ि बना लेनेवाले समाज में बदलाव की छोटी सी हरकत भी बवण्डर खड़ा कर देती है। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के छोटे से गाँव निकुम्भ में ऐसा ही कुछ हो गया।

मेरी बड़ी बहन, गीता जीजी इसी निकुम्भ में रहती थी, अपने छोटे बेटे कोमलदास बैरागी के साथ। पश्चिम रेल्वे के निम्बाहेड़ा से उदयपुर जानेवाली सड़क पर, निम्बाहेड़ा से लगभग बाईस किलोमीटर दूर आता है निकुम्भ चौराहा। वहाँ से, मुख्य सड़क से कोई तीन किलोमीटर अन्दर की दूरी पर बसा हुआ है गाँव निकुम्भ। कोई बीस-पचीस हजार की बस्ती होगी।

गीता जीजी की उम्र 77 वर्ष थी। वह गम्भीर बीमार तो नहीं थी किन्तु कमर इतनी झुक गई थी कि, खड़े होकर अपने पैरों चल पाना तो दूर रहा, सीधे बैठना भी मुमकिन नहीं रह गया था। वह दोहरी होकर ही बैठी रहती थी। तेईस नवम्बर की सुबह कोई साढ़े तीन बजे उसका निधन हो गया। मेरे भानजे कोमल ने, दो घण्टे बाद, सुबह साढ़े पाँच बजे खबर दी। बताया कि ग्यारह बजे दाह संस्कार हेतु शव यात्रा शुरु होगी। हम दोनों पति-पत्नी सुबह सात बजे निकुम्भ के लिए निकल गए। दादा से बात हो गई थी। उन्हें, नीमच में हमारी प्रतीक्षा करनी थी किन्तु उनसे रुका नहीं गया। वे आठ बजे ही निकल पड़े। यह अलग बात रही कि निकुम्भ गाँव में जाने के बजाय, निकुम्भ चौराहे पर ही वे हमारी प्रतीक्षा करते रहे - कोई घण्टा-सवा घण्टा रुक कर।

निर्धारित समय पर शवयात्रा निकली। हम सब श्मशान पहुँचे। हम परिजन एक तरफ बैठ गए। अधिकांश लोग हमारे आसपास बैठे। कुछ लोग चिता तैयार करने में लग गए।

चिता को मुखाग्नि देने के फौरन बाद ‘केश-दान’ (मुण्डन) की प्रक्रिया शुरु हो गई। मेरे बड़े भानजे श्यामदास का मुण्डन सबसे पहले हुआ। उसके बाद नम्बर आया छोटे भानजे कोमलदास का। उसका मुण्डन होते ही कोमल के बड़े बेटे (याने मेरी जीजी के पोते) मनीष को बैठा दिया गया मुण्डन के लिए। यह देखते ही दादा ने हाँक लगा कर टोका - ‘अरे! यह क्या कर रहे हो? पोते का मुण्डन नहीं होता।’ इसके साथ ही उन्होंने मनीष को आदेशित किया - ‘बेटा मनीष! उठ। सर धो और कंघा कर।’ मनीष ने अविलम्ब आज्ञा पालन किया। इसके बाद मनीष के छोटे भाई (जीजी के छोटे पोते) सन्तोष का नम्बर आने का तो सवाल ही नहीं रह गया। दादा की हाँक और टोका-टोकी से नीरवता छा गई। किन्तु जल्दी ही भंग भी हो गई। कहा जाने लगा कि पोते का मुण्डन तो होता है।

वस्तुतः मालवा के हमारे वाले क्षेत्र में पोते का मुण्डन नहीं होता किन्तु निकुम्भ में पोते का मुण्डन होने की परम्परा है। दादा के सामने बोलने का साहस कोई नहीं कर सका किन्तु पीठ पीछे तो बातें होती ही हैं। सो, दाह संस्कारोपरान्त स्नान कर जब हम सब घर लौट रहे थे तो यही बात हो रही थी - गाँव की परम्परा तोड़ दी गई। अच्छा नहीं हुआ। ये तो अभी चले जाएँगे किन्तु गाँव का धर्म तो भ्रष्ट हो गया। दादा ने सहज भाव से टोका था किन्तु यह झील के ठहरे पानी में फेंका गया पहला कंकर था।

निधन के तीसरे दिन, पचीस नवम्बर को अमावस्या थी और अमावस्या को उठावना (अस्थि संचय/तीसरा) नहीं होता। सो, अगले ही दिन, चौबीस नवम्बर को उठावना करना पड़ा। नगरों/कस्बों में, कुछ जाति/समुदायों/समाजों में उठावने के साथ ही शोक निवारण का चलन शुरु हो गया है किन्तु मालवा-राजस्थान के सनातनी समाज में तो पूरे बारह-तेरह दिनों तक शोक रखा जाता है। मेरा भानजा कोमल, सिलाई का काम करता है और पुलिस थाने के सामने ही उसकी, सिलाई की दुकान है। उसके बड़ा बेटा मनीष वीडियोग्राफी का काम करता है। उसकी दुकान, गाँव से गुजरनेवाली, निकुम्भ-बड़ी सादड़ी सड़क पर है। दादा ने कहा कि शोकपालन भले ही बारह/तेरह दिन किया जाए किन्तु दोनों दुकानें, उठावने के बाद ही खोल दी जाएँ ताकि छुटपुट काम आए तो ग्राहकी रुके नहीं। यह नई बात थी। केवल उठावना करने की बात होती तो अस्थि संचय कर, स्नानोपरान्त घर लौटने से पहले, किसी मन्दिर के सामने रुक कर, सड़क से ही देव दर्शन कर लिए जाते। किन्तु दुकानें खुलवाने के लिए तो मन्दिर जाकर, मृतक के नाम से ‘सीधा’ (सूखी भोजन सामग्री) रखना और महिलाओं के लिए मन्दिर से तुलसी दल तथा चन्दन लाना जरूरी होता है। सो, हम सब, ‘सीधा‘ लेकर मन्दिर पहुँचे। पुजारीजी नहीं थे। उनकी पत्नी थीं। वे बहुत नाराज हुईं। उन्होंने मेरे भानजे कोमल को हम सबके सामने खूब डाँटा, कड़ी फटकार लगाई और ‘सीधे’ की थाली को अपने हाथों लेने से (वस्तुतः ‘छूने से भी’) इंकार कर मन्दिर में एक कोने में रखवा दिया। किन्तु बिना किसी ना-नुकर के, तुलसी-चन्दन अवश्य दे दिया। हम लोगों के मन्दिर प्रवेश के पहले ही क्षण से उसका कोसना शुरु हुआ था जो हमारे लौटने तक जारी था।

उठावने के साथ ही मन्दिर प्रवेश! निकुम्भ के सनातनी समाज में ऐसा पहली बार हुआ था। हमें पता ही नहीं था कि हमने झील के ठहरे पानी में यह दूसरी कंकरी फेंक दी थी।

पाँच दिसम्बर को गीता जीजी का तेरहवाँ होना चाहिए था। किन्तु दो दिसम्बर से पंचक लग रहा है। सो, अब सात दिसम्बर को तेरहवें की रस्म होगी। बूढ़ी मौत और वह भी पोतों/नातियों के कन्धों पर जानेवाली बूढ़ी मौत। गाँव की परम्परा के मुताबिक तो ऐसी मौत के प्रसंग पर ‘पाँचों पकवान’ बनने चाहिए और जश्न मनाया जाना चाहिए। किन्तु परिवार ने तय किया कि परिजनों/निमन्त्रितों के लिए ‘भोज’ तो हो किन्तु ‘मृत्यु भोज’ न हो। लिहाजा, उस दिन केवल सब्जी, पूरी और एक नमकीन (भजिये या फिर बेसन सेव) परोसा जाएगा, मिठाई या मिष्ठान्न नहीं बनेगा। ठहरे पानीवाली झील में यह तीसरी कंकरी है। कंकरियों से तो पानी में लहर उठना तो दूर रहा, हिलोर भी नहीं उठती। किन्तु बीस-पचीस हजार की आबादी वाली, ठहरे पानी वाली झील जैसी बस्ती में इन छोटी-छोटी तीन कंकरियों से तूफान आया हुआ है।

मेरा भानजा कोमल, निम्न मध्यवर्गीय है। किन्तु दादा के पीठ बल ने उसका हौसला बँधाया भी और बढ़ाया भी। लोगों की तकलीफ यह नहीं है कि कोमल ‘पाँच पकवान’ क्यों नहीं बना रहा है। उनकी तकलीफ (या कि सबसे बड़ी चिन्ता) यह है कि आनेवाले दिनों में यदि कोई ऐसा करेगा तो उसे कैसे टोका जा सकेगा, कैसे उसे रास्ते पर लाया जा सकेगा? तब वह पलट कर पूछेगा - ‘कोमलदास ने जब यह सब नहीं किया तब तो कोई नहीं बोला। अब मुझे क्यों मजबूर किया जा रहा है?’ लोगों को कहावत याद आ रही है - ‘डोकरी (बुढ़िया) मरी इसका गम नहीं। गम इस बात का है कि मौत ने घर देख लिया।’

ठहरे हुए पानी की झील में यही तूफान आया हुआ है इन दिनों।

8 comments:

  1. रुके पानी की झील में इस प्रकार कंकड़ पड़ते रहने चाहिये और तूफ़ान भी आने चाहिये। हाँ, परिवर्तन यदि सर्व-स्वीकृति, समझ और सहमति से हो सके तो और भी अच्छा है।

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  2. स्कूली शिक्षा के दौरान सामाजिक शास्त्र और ईकोनोमिक्स विषयों में अक्सर भारतीय समाज में जन्म, विवाह, मृत्यु जैसे सामाजिक अवसरों पर विवशता से ही सही, कर्ज उठाकर ही सही सामाजिक आडंबर पूरे करने जैसे मुद्दे पढ़ते रहे। परंपराओं का पालन हो, लेकिन सादगीपूर्ण तरीके से और सामर्थ्यानुसार न कि देखादेखी।
    परिवर्तन ऐसे ही आते हैं और हमारे समाज की यह विशेषता ही लगती है कि कुरीतियों का विरोध और परिमार्जन हम करते रहते हैं। धीरे धीरे ही सही, बदलाव आयेगा।

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  3. कंकड़ फेकते रहने से झील में गति बनी रहती है।

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  4. हामारे यहाँ १३ वीं के पहले मंदिर प्रवेश वर्जित है. कंकड़ फेंकना आवश्यक है.

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  5. वाह रे समाज!
    फिल्म 'गुरु' (ऐ आर रहमान के संगीत वाली) में एक बढ़िया संवाद है "जब लोग आपकी बुराई गिनना शुरू कर दे तो समझ लेना चाहिए की आप तरक्की कर रहे हो .." कोमल ने जो किया उसके चलते लोग भले ही रूठना - बुरा मानना शुरू कर दें, लेकिन सोचने पर मजबूर तो अवश्य ही होंगे. कंकरी फेकने वालो को भी समझना होगा की उनकी पैदा की हुई छोटी छोटी लहरें कल को सैलाब का रूप लें तो उनके हाथ कोमल के कंधो पर होना ज़रूरी है, अन्यथा ये बदलाव न हो कर बस एक 'मनमर्जी' बन कर रह जायेगा.
    सामाजिक सुधारो की शुरुवात ऐसे ही हुई है, बकौल शाहरुख़ खान "पिक्चर अभी बाकि है दोस्त .."

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  6. कहावत बेहद दुखी करने वाली है

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  7. मालवा में मुण्डन नहीं होता - यह नयी जानकारी है!

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  8. परिवर्तन ही परम्‍पराओं का आधार है.

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