ये मेघा कजरारे

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की चौदहवीं कविता



तेरे देस भी छाये होंगे ये मेघा कजरारे


कल तक की परदेसिन पछुवा, मुसे लिपट गई आकर

स्वयं तृप्ति की साँस ले रही, मेरी प्यास जगा कर,

बिलखी-बिलखी बूँदें बरबस, बहक-बहक कर बरस गईं

मुझे छोड़ कर सारी बस्ती पुलक-पुलक कर हरस गई


सोच रहा हूँ तू भी बैठी होगी मन को मारे

मेरे देस भी छाये होंगे.....


मेरे गीतों के छप्पर में आ-आ कर अनजान बटोही

सुुखा रहे हैं भीगा तन-मन, कुछ विरही औ’ कुछ निर्मोही,

स्वार्थ सिद्ध होते ही उठकर चल देते हें ये अपकारी

धन्यवाद भी दे न सके हैं निर्धन को ये व्यापारी,


तेरा महल भी तकते होंगे ऐसे ही लोभी बनजारे।

मेरे देस भी छाये होंगे.....


लाख बार बिजली तड़पी पर एक-एक कण भीग गया है

प्रथम प्रणय का साखी पीपल, मुझे यहाँ से दीख गया है,

सब दिखता है लेकिन तेरा देस नहीं दिख पाता है

आँखों आगे श्याम बदरवा घड़ी-घड़ी घिर आता है


यही दर्द तुझको भी देते होंगे ये भीगे पखवारे।

मेरे देस भी छाये होंगे.....


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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963











ये सपने बेशरम तुम्हारे

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की तेरहवीं कविता



मुझे कहीं का नहीं रखेंगे, ये सपने बेशरम तुम्हारे

कल से इन्हें न आने देना, वर्ना द्वार बन्द कर दूँगा।


नाम तुम्हारा बतला कर ये, बिना बुलाये आ जाते हैं

मेरी नाबालिग निंदिया पर, जुलुम पचासों ढा जाते हैं

रोज-रोज आवारागर्दी, रोज-रोज ये खींचातानी

साफ बात है, नहीं चलेगी, कल से ये जबरन मेहमानी,


लूट लिया है इनने मेरे सपनों का अनमोल खजाना

अब तो मैं अपमान करूँगा, सब सत्कार बन्द कर दूँगा

सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा



कितनी आँखें दिखलाते हैं ये, करते हैं कितनी हेठी

जैसे मैं इनका खाता हूँ, या ब्याहेंगे मेरी बेटी

सीमा में सब बात ठीक है, पर ये सीमा तोड़ रहे हैं

इनकी शह से दुनिया वाले, रोज शगूफे छोड़ रहे हैं


मेरे दो आँसू की इनने कर दी, सागर भर बदनामी

गंगा तट पर अब मोती के सब बाजार बन्द कर दूँगा

सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा


इनका मेरा क्या रिश्ता है? क्यों इनकी गजलें गाऊँ?

क्यों तारीफ करूँ तारों की? क्यों नींदें नीलाम चढ़ाऊँ?

कसम तुम्हारी इनने मेरी साँसों से खिलवाड़ किया है

रातों को रामायण कर दीं, इनने तिल का ताड़ किया है,


तुमने शरमाना सीखा पर, इनको शरम नहीं सिखलाई

मेरे यौवन पर अब इनके, सब अधिकार बन्द कर दूँगा।

सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा


तुमसे मैंने प्यार किया है, क्या मतलब कुछ पाप किया है?

किस बूते पर इनने मेरा, घर-आँगन सब नाप लिया है?

नहीं, नहीं, यह क्या है आखिर, कैसे मेरी उम्र कटेगी?

तुम जो चाहो समझो लेकिन, इनकी-मेरी नहीं पटेगी


बहुत शराफत से कहता हूँ, अब इनको समझा लेना

वर्ना इन आवाराओं से मैं, सब व्यवहार बन्द कर दूँगा।

सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा


ये भी कोई बात हुई, तुम दिखो नहीं, ये रोज दिखें

मेरी चाँद धुली अभिलाषा, दो सपनों के मोल बिके,

जग ने एक लकीर खींच दी, तुमने भर ली ठण्ठी साँसें

मैं कैसे गिरवी रख दूँगा, सपनों के घर क्वाँरी प्यासें?


इन्हें न रोका, इन्हें न टोका, तो फिर लाख बुरा मानो तुम

इनके साथ तुम्हारी भी अब, हर मनुहार बन्द कर दूँगा।

सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा


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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963

पूर्व कथन - ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले’ यहाँ पढ़िए

बारहवीं कविता: ‘मादक नयनों की मादकता’ यहाँ पढ़िए

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मादक नयनों की मादकता

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की बारहवीं कविता


इतिहासों के विजयी स्वर हैं, ऐसे-वैसे बैन नहीं हैं

मादक नयनों की मादकता, मदन तुम्हारी देन नहीं है?


कुन्दन काया, कंचन छाया, बोझिल यौवन वाली बाला

इतने पर भी मन न भरा तो, नयनों को मादक कर डाला

रतिपति! फिर भी पंचवटी के, रघुपति क्यों बेचैन नहीं हैं?

मादक नयनों की.....


कामुकता के साँचों में तुमने, जो कुछ भी ढाला है

उन सबको शंकित हो तुमने, मादकता में डाला है

शान्तनु सुत भीषम ने फिर भी, पाई क्यों मधु रैन नहीं है?

मादक नयनों की.....


तेरा है विश्वास कि तूने, कितने ही गढ़ जीते हैं

और अभी तक तेरे पनघट, मधु-प्यासे मधु पीते हैं

(तो) अजर जवाहर की पलकों में क्यों बौराये नैन नहीं हैं,

मादक नयनों की.....


कितने ही मादक नयनों को, मेरे होठों ने परखा है

मादकता की संज्ञा देकर, तुमने उनमें जो निरखा है

वह बय मेरी ही तो छवि है, जिसको पल भर चैन नहीं है

मादक नयनों की.....


मादक नयनों की मदिरा पर, तेरा दावा झूठा है

दाता तो सचमुच प्रियतम है, तूने तो यश लूटा है

ओ! मधु मदिरा के छलकइया, क्यों फिर तेरे ही नैन नहीं हैं?

मादक नयनों की.....


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यह कविता समस्या पूर्ति के अन्तर्गत लिखी गई थी।



दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963











तू क्या जाने रे परदेसी


श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की ग्यारहवीं कविता



रस पीकर बन गया विदेसी और नहीं अब सुधि लेता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।


नग्न नीम की, नव फुनगी पर, कोयलिया आहें भरती

रात-रात भर बेबस चकवी, सदा अपूरण चाहें करती,

सरवर तीरे स्वर उठते हैं, ग्वाले की मृदु बाँसुरिया के

इन सबमें स्वर खो जाते हैं, तेरी बिरहन बावरिया के,


तभी पवन का मादक झोंका, न जाने क्या-क्या कहता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


ये पलाश के फूल, फूँक कर रख देते हैं जियरा

ताने दे-दे पूछ रहे हैं, कहाँ है तेरा पियरा,

ये अफीम, ये सरसों फूली, धरा आज बन गई सुहागन

और सुहागन तेरी बैठी, मझ फागुन में बनी अभागन


क्या बतलाऊँ इन नैनों में, बेमौसम सावन रहता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


ये गुलाल से लाल गगन और ये रंग रस की बौछारें

भीगी-भीगी राधाओं से, मन-मोहन की मनुहारें,

अमराई में डफ की थापें, ये घुँघरु की रणकारें,

यौवन पर यौवन के डेरे, ललनाओं की किलकारें,


फिर भी मेरे मन मधुवन पर, पतझर ही पतझर रहता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


दूध नहाई चाँदनिया में, चटखी-चटखी चम्पा कलियाँ

सोनजुही, रजनीगन्धा की, अलियों द्वारा लुटती गलियाँ,

मधु सरिता की लहर-लहर को, आलिंगन में कसे कन्हैया

मुझे छोड़कर हर यौवन को, एक नहीं सौ-सौ निरखैया


चेचक वाला चाँद कलमुँहा, देख मुझे ताने देता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


तुझको भी कुछ कहती होगी, ये मादक, मीठी पुरवाई

तू भी लेता होगा मेरे जैसी ही, विधवा अंगड़ाई,

क्या जाने तेरे अन्तर में, मेरी याद रही भी होगी

क्या जाने इस पुरवाई ने मेरी बात कही भी होगी,


सुनती हूँ इन दिनों कन्हैया, राधा के चुम्बन लेता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963












दुःख-सुख जो चाहे दे डालो

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की दसवीं कविता



                        दुःख-सुख जो चाहे दे डालो

                                मैंने झोली फैला दी है।


                नाम तुम्हारा लेकर मैंने कुटुम्ब कबीले छोड़ दिये

                कितने ही नयनों को प्रियतम, मैंने गीले छोड़ दिये

                        पग में पायल पहन तुम्हारी

                        सारी दुनिया ठुकरा दी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....


                रूठी नींदें, टूटे सपने, विवश उमंगें, व्यथित बहारें

                आहें, आँसू, अन्तर-पीड़ा, बैरन रातें, दिन दुखियारे

                        सब कहते हैं मैंने अपनी

                        नाव भँवर में उलझा दी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....


                अपने हाथों जो भी दोगे, हँस कर शीश चढ़ाऊँगी

                इतना चल कर आई हूँ तो, खाली हाथ न जाऊँगी

                        आज प्रतीक्षा की परिभाषा

                        अभिलाषा को सिखला दी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....


                द्वार उघारो, बाहर आओ, जो देना हो, झट दे डालो

                मेरा सरबस लेनेवाले, ड्योढ़ी पर से ही मत टालो

                        दाता होकर क्यों ड्योढ़ी की

                        भीतर साँकल लगवा दी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....


                अच्छा, अच्छा, कुछ मत देना, पर सूरत तो दिखला जाओ

                जो कुछ मेरे पास बचा है, वह ही लेने को आ जाओ

                        वर्ना फिर बस राख मिलेगी

                        कल ही मेरी शादी है।

                                        दुःख-सुख जो चाहे.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
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मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963












नरक दुवारे जाऊँगा ही

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की नौवीं कविता



मृत्यु लोक का मनुज अपूरण, मैं कमजोरी का पुतला

स्वर्ग अगर ठुकरायेगा तो नरक दुवारे जाऊँगा ही


मेरे जैसे जितने भी तन इस दुनिया में आते हैं

इस बनजारे मन के हाथों सभी विवश हो जाते हैं

विवश किया है मुझको भी इस पगले मन ने, जीने को

(तो) सागर के तट पर आया हूँ मैं भी अमृत पीने को


अभी तलक तो देव-पुत्र हूँ, अमृत का अधिकारी हूँ

(पर) देव अगर तरसायेगा तो राहू तो कहलाऊँगा ही

                                        नरक दुवारे जाऊँगा ही।



चरम सत्य का मैं अन्वेषक, आराधक शिव-सुन्दर का

दर्द पराया पीना अब तक धर्म रहा मेरे अन्तर का

इसी दाँव पर हार गया हूँ मैं अपना यह जीवन सारा

बलि-पथ पर ही मुझे मिल गया प्राण! अचानक द्वार तुम्हारा


मेरा धरम तड़प कर तुमसे, पीर तुम्हारी माँग रहा है

(पर) कामधेनु कतरायेगी तो बकरी तो दुहवाऊँगा ही।

                                        नरक दुवारे जाऊँगा ही।



पग-पग पर हैं चोर ठगारे, फिर भी मुझको जाना है

साँसों की यह निर्धन गठरी, मरघट तक पहुँचाना है,

तुम क्या जानो कितना भारी बोझा मेरे माथे है

कितने भारी दिन हैं मेरे, कितनी भारी रातें हैं


राह सुलभ करने को मेरी, अपनी पूनम दे भी दो

तुम यदि चाँद छिपाओगे तो, मावस गले लगाऊँगा ही।

                                        नरक दुवारे जाऊँगा ही।



मुझे शिकायत नहीं रही है अब तक अमर, अमीरी से

तुम तो भली-भाँति परिचित हो, मेरी मस्त फकीरी से,

मन की राहों पर जाता हूँ औ’ मन की राहों आता हूँ

दर-दर पर मैं अलख जगा कर, अपनी मस्ती गाता हूँ,


दुनिया से डर कर तुम चाहे अपना द्वार छुड़ा लेना

(पर) पौरुष यदि आजमाओगे तो, दुनिया नई बसाऊँगा ही।

                                        नरक दुवारे जाऊँगा ही।



तन से यदि कुछ भूल हुई हो, तब तो मैं अपराधी हूँ

मन से तो मैं ही क्या बोलूँ, पहले ही मन-वादी हूँ,

मन ने जो कुछ कर डाला है, उस पर है अभिमान मुझे

चाहे देवल अपमानित हो या चाहे शमशान पुजे,


चरण धूलि हूँ, पड़ा हुआ हूँ, दुर्बल देह लिए पथ पर

फिर भी यदि ठुकराओगे तो, सिर-आँखों पर आऊँगा ही।

                                        नरक दुवारे जाऊँगा ही।

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963












ओ! निष्ठुर पाषाण

श्री बालकवि बैरागी

के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की आठवीं कविता



अब तो परख वेदना मेरी ओ! निष्ठुर पाषाण

अरे ओ! कठिन हृदय पाषाण!


साँस-साँस न्यौछावर कर दी मैंने तेरे पूजन में

शैशव-यौवन-मधुमय जीवन किया समर्पित वन्दन में

किस सीमा तक सहन करूँ मैं अर्चन के अपमान?

                                अरे ओ! निठुर हृदय पाषाण!


नयन नीर से मैंने तेरा पल-पल पर अभिषेक किया

सप्त स्वर्ग की सौख्य सुधा को ठुकरा क्या अविवेक किया!

कब तक रहूँ जगाता मैं सपनों के बता श्मशान?

                                अरे ओ! निठुर हृदय पाषाण!


तेरे यश के गीत सुनाये मैंने पग-पग, गली-गली

जब-जब जग ने पागल समझा, कहते मेरी हँसी चली-

गीतों के कफनों में कब तक दुलराऊँ अरमान?

                                अरे ओ! निठुर हृदय पाषाण!


तेरी खातिर मैंने अपनी कितनी कसमें तोड़ीं

तट पर जाती नाव सैंकड़ों बार प्रलय में मोड़ी

कब तक करता रहूँ बता मैं अनबोले बलिदान?

                                अरे ओ! निठुर हृदय पाषाण!


अन्तिम साँसों के दीपों से करूँ आरती तेरी

परख अगर तू परख सके तो, मौन साधना मेरी

ठकुराई को निठुराई का मत पहना परिधान।

                                अरे ओ! निठुर हृदय पाषाण!

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963










मेरा कवि भी हार गया है

श्री बालकवि बैरागी

के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की सातवीं कविता



पीड़ाओं के सौ-सौ सागर मैंने हँस-हँस पी डाले

लेकिन तेरे पनघट पर तो, मेरा कवि भी हर गया है।


जिस माटी से मेरे मन के महलों का निर्माण हुआ है

उसे करोड़ों झोंपड़ियों के इन्सानों की मिली दुआ है

हल्दी लगी हजारों क्वाँरी पीड़ाएँ इनमें रहती हैं

मेरे संरक्षण का वन्दन, गुम्बज पर चढ़कर करती हैं


गलबहियाँ तेरी पीड़ा के डाल-डाल मैं लिपट गया

लेकिन तेरी जोगन का तो सचमुच ही अवतार नया है।

                                        मेरा कवि भी हार गया है।



गली-गली, घर-घर जाता हूँ, मैं पीड़ा की प्यास लिये

आँखों, अधरों पर, जीवन का, मदमाता मधुमास लिये,

जहाँ-जहाँ मिलती है पीड़ा, ओक माँड कर पी लेता हूँ

दाता को मधुमास दिया औ’ खुद पतझर में जी लेता हूँ,


घुटनों के बल ओक माँडकर, बोल कहाँ तक बिठलायेगी

पानी, पनघट, पनिहारी का यह तो कुछ व्यवहार नया है।

                                        मेरा कवि भी हार गया है।



जिसकी भी पीड़ा पीता हूँ, तलछट तक पी जाता हूँ,

कसम कफन की, मरते-मरते, बहक-बहक जी जाता हूँ,

पी कर चता हूँ तो पीछे युग के युग चल पड़ते हैं

इसीलिये तो ये निर्बल पग, बढ़ते हैं और बढ़ते हैं,


लाखों ने प्रतिबन्ध तोड़कर मेरा पौरुष पूजा है

लेकिन तेरे प्रतिबन्धों का सचमुच ही परिवार नया है।

                                        मेरा कवि भी हार गया है।



प्रतिदिन तेरे पनघट पर मैं क्वाँरी प्यास लिये आता

तुझको बेबस पाता हूँ तो ओठ चाटकर रह जाता,

तेरे सिन्दूरी बन्धन पर मेरी प्यासें निछराऊँ

तू ही बतला हार मान कर किस मुँह से वापस जाऊँ,


मेरे पद चिह्नों पर लाखों कलमेें गुदना गोदेंगी

चिह्न बनाता इन राहों पर इक परबस, लाचार गया है।

                                        मेरा कवि भी हार गया है।



मुझ पीड़ा के प्यासे को यदि तू प्यासा लौटायेगी

(तो) पनघट से अब गागर भरकर दर्द लिये कैसे जायेगी,

गागर फोड़ूँगा, पीयूँगा, पानी हो या हो ज्वाला

आज रोेक ली राहें मैंने, बनकर गोकुल का ग्वाला,


राधा बनकर जो न दिया, वह जसुदा बनकर देती जा

जी भर देख, तेरे काह्ना का, रूप नया, सिंगार नया है।

                                        मेरा कवि भी हार गया है।

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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
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मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963










यह कितना उपकार कर दिया

श्री बालकवि बैरागी

के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की छठवीं कविता





दो पल से भी अधिक नहीं है उम्र हमारे परिचय की

पल भर में ही तुमने मुझ पर यह कितना उपकार कर दिया!



अनजानी जिज्ञासा तुमने मेरे अन्तर की पहचानी

चिर निन्द्रा से जगा दिया है, तुमने मेरा विज्ञानी,

तुमने मुझे विवश कर डाला, मैं यह बाह्य जगत निरखूँ,

बनूँ प्रयोगी और यहाँ के कण-कण, अणु-अणु को परखूँ


भौतिकता से भाँवर करके, पहले रथ में बैठा लूँ

नौसिखिया मन सारथि मेरा, कितना पटु, हुशियार कर दिया!

                                        यह कितना उपकार कर दिया..



आत्म-मनन, चिन्तन, परिशीलन बिलकुल ही अनिवार्य हो गया

कण्टक पथ का निर्धारण भी मुझसे तो सत्कार्य हो गया,

द्वार-द्वार से दर्द माँग कर अपने घर में लाना होगा

शशि-शेखर बनने से पहले, नीलकण्ठ कहलाना होगा,


भौतिकता में लिप्त प्रयोगी, योगी बन कर विचरेगा

सचमुच में तुमने अधोन्मुखी को अर्चनीय अवतार कर दिया

                                        यह कितना उपकार कर दिया..



बिना छुुए ही तुमने मेरा रोम-रोम झकझोर दिया है

शिव, सुन्दर के साथ सत्य के रस में पूरा बोर दिया है,

तर्कहीन मेरे मानस को, तुमने तर्क प्रदान किया है

जनम-मरण औ’ आदि-अन्त का, तर्कशील नवज्ञान दिया है,


जीवन की ही भाँति मृत्यु के ओठ चूमना सिखलाया

ओ! जीवन के शिल्पी तुमने, निराकार साकार कर दिया!

                                        यह कितना उपकार कर दिया..



प्राण! तुम्हारी दीक्षा को मैं चरणामृत सी पी लूँगा

और आचरण के आँचल से, साँस-साँस को सी लूँगा,

आदर्शों की रोली अपने, अंग-अंग पर मल लूँगा

ज्वालामुखियों पर भी अब तो हँसते-हँसते चल लूँगा,


मुझे परखनेवाले मेरी अर्थी पर पछतायेंगे

यह लो! जग की अमर चुनौती को मैंने स्वीकार कर लिया!

                                        यह कितना उपकार कर दिया..



तत्व-ज्ञान, दर्शन मन-मन्थन, बाह्य जगत का अवलोकन

आत्म-परीक्षण, स्तुत्य-आचरण, शिव-सुन्दर-सत्यान्वेषण

परिचय के इस प्रथम प्रहर में, मैंने जो कुछ पाया है

वह कुबेर ने कोटि जन्म लेकर भी नहीं जुटाया है,


ओ! मेरे अकलंक देवता! ओ! मेरे भोले भण्डारी!

जाने या अनजाने तुमने मेरा तो भण्डार भर दिया!

                                        यह कितना उपकार कर दिया.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963











या तो मेरे देस पधारो

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की पाँचवीं कविता






                                या तो मेरे देस पधारो

                                या फिर अपने देस बुलाओ


        ना सन्देशे देते ही हो, ना सन्देशे लेते हो

        ना मुझको बुलवाते हो और ना ही आने की कहते हो

                                क्या पाओगे पाहनपन में 

                                पी, पल भर पाहुन बन जाओ

                                        या तो मेरे देस पधारो...


        मैं चाहूँ तो अगले पल ही, देस तुम्हारे आ सकती हूँ

        पंख कटे हैं, पैर बँधे हैं, फिर भी मंजिल पा सकती हूँ

                                पर तुम भी मेरे मंगल की

                                मान-मनौती तो मनवाओ

                                        या तो मेरे देस पधारो.....


        आठ पहर प्रियतम मैं तेरा पंथ बुहारा करती हूँ

        आस भरी आँखों से सूनी राह निहारा करती हूँ

                                या तो रथ की रास मरोड़ो

                                या मेरी डोली भिजवाओ

                                        या तो मेरे देस पधारो.....


        दुनिया से यदि डरते हो तो, में तरकीब बताती हूँ

         तुम उतरो अट्टा से नीचे, मैं कुछ ऊपर आती हूँ

                                और क्षितिज के पार सलौने

                                सचमुच का संसार बसाओ

                                        या तो मेरे देस पधारो.....


        ना आना और ना बुलवाना, रीत कहाँ की है प्यारे?

        जीना मुश्किल, मरना मुश्किल, ऐसी तो मत तड़पा रे!

                                पार लगाने आ न सको तो

                                नाव डुबाने ही आ जाओ

                                        या तो मेरे देस.....

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दरद दीवानी

कवि - बालकवि बैरागी

प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट

प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ

मूल्य - दो रुपये

आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन

मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर

प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963









रीता पेट भरूँगा कैसे


श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की चौथी कविता



प्रतिदिन सौ-सौ गीत लिखे पर कागज रीते पड़े हुए

कठिन प्रश्न है इन गीतों से रीता पेट भरूँगा कैसे?


ये चपटे, चौकर, त्रिकोण कपासी टुकड़े कागज के

अर्द्ध नग्न ही रह जाते हैं कवि को नगन-भगन करके,

आँसू औ’ छालों में मैंने कितनी स्याही घोली है

फिर भी इनकी भूख-प्यास तो इक रीती मरु झोली है


शोषक स्याही-चूस अभी देख रहा टेड़ा-तिरछा

रक्तहीन इस अस्थि चर्म को उसकी भेंट करूँगा कैसे?

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे?


रत्नाकर से रत्न निकाले और हुआ जब बँटवारा

सबको कुछ तो प्राप्त हुआ ही अमृत या विष की धारा

अपना चाहा पाने वाले दैव-दैत्य सब साक्षी हैं

मेरू दण्ड और महाशेष के कर्ज अभी तक बाकी हैं


कवि के रतन लूटनेवाले देव! दानवों! बतलाओ

मेरू-शेष का वंशज मैं अब लम्बा हाथ करूँगा कैसे

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे?


गीत भला मैं खाऊँ कैसे, गीत भला ओढ़ूँ कैसे?

दो दानों के दीप-महल तक, गीतों पर दौड़ू कैसे?

मातम में मर जानेवालों, तुम तो सिर्फ बराती हो

ये हैं मेरे साथी तो ही, तुम भी मेरे साथी हो


जिस साथी को खून पिलाया, पाला, पोसा, बड़ा किया

एक गढ़ा भरने को उससे दूजी बात करूँगा कैसे?

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे?


तुम जैसे ही गोरे-काले, मुझको भी दिन-रात मिले हैं

देह मिली है तुम जैसी ही, ये देखो, दो हाथ मिले हैं,

पर, एक बार में एक काम ही इन हाथों से करवा लो

या तो दाने गिनवा लो या अपनी फिर पीर सँवरवा लो


अगर विषमता को न ओढ़ाई तुमने काली चूनरिया

बतलाओ मैं उस डायन की रीती माँग भरूँगा कैसे?

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे?


जिसने चोंच बनाई वह ही चुगा जुटाया करता है

मित्र पेट इन आशाओं से नहीं भराया करता है,

माना अपनी माँ के स्तन में दूघ नहीं रख आया था मैं

तो क्या केवल माँ के आँचल लिपट, लूटने आया था मैं?


केवल माँ के दूध तलक ही कवि को जीवित रखनेवालों

अपना जीवन जी न सका तो अपनी मौत मरूँगा कैसे?

                                        रीता पेट भरूँगा कैसे

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963











मन बंजारा

श्री बालकवि बैरागी

के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की तीसरी कविता





तन को तो मिल गई शरण ओ! दाता तेरे आँगन में

बता देवता कब तक भटकेगा मेरा यह मन बंजारा।


जिस-जिस हाट गया यह निर्धन, उसमें इसको मिली निराशा

इसकी पूँजी गई न परखी, क्वाँरी रही युवा अभिलाषा,

इसको देख, समेट दुकानें, चले गये सारे व्यापारी

भरी दुपहरिया साँझ हो गई, ज्यों ही इसने गाँठ पसारी,


ठहरा दिया इसे तूने भी अपनी अतिथि शाला में

बँधी गाँठ ले काटे कैसे रजनी, यह दर-दर का मारा

                                        बता देवता कब तक.....


सोचा था, तू इसे देखकर रंग महल खुलवायेगा

तू परखेगा इसके मोती, कुछ सौदा हो तायेगा,

पर, माखन से मुँह बिचका कर तू सिर्फ देखता रहा गगरिया

तेरे आँगन आकर मैंने लम्बी कर ली और उमरिया,


जीने को जी लूँगा मैं, चल भी लूँगा काँटों में

किन्तु कहाँ तक रख पाऊँगा, छालों में मैं सागर खारा

                                        बता देवता कब तक.....


सुनता था तू परखैया है, लाखों और हजारों में

तेरी साख बहुत चलती है बड़े-बड़े बाजारों में,

तेरे एक इशारे भर से नीलामी रुक जाती है,

तेरे आगे लाख कुबेरों की पूँजी चुक जाती है,


बता कौनसी खोट दिखाई देती मेरी गठरी में

निर्मम! जो तू कहता मुझसे, आ जाना फिर कभी दुबारा

                                        बता देवता कब तक.....


चाहे मेरा तन ठुकरा दे, पर मन को तो मत ठुकरा

चाहे मेरा मूल्य भुला दे, पर धन को तो मत बिसरा,

यह तेरा निर्माल्य बता मैं वापस कैसे लेकर जाऊँ

तेरे इस अकलंक विरद पर, मैं कलंक कैसे कहलाऊँ,


मैंने कब कीमत माँगी है, मेरे मूक समर्पण की

कब ललचा कर मैंने तेरे आगे रीता हाथ पसारा

                                        बता देवता कब तक.....


मन-महलों में रखा उन्हें जो मुझसे पीछे आये थे

बतला क्या वे मुझसे ज्यादह मँहगे मोती लाये थे,

मुझको ईर्ष्या-द्वेष नहीं है तेरे किसी पुजारी से

रार नहीं है मुझको तेरे द्वारा तृप्त भिखारी से


मेवल मेरा तन सहला कर पल-दो-पल को मत बहला

वर्ना तेरे आँगन में ही होगा मरघट का उजियारा

                                        बता देवता कब तक.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963


पूर्व कथन - ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले’ यहाँ पढ़िए

दूसरी कविता: ‘राधाएँ तो लाख मिलीं’ यहाँ पढ़िए 

चौथी कविता: ‘रीता पेट भरूँगा कैसे’ यहाँ पढ़िए