‘जातिगत आरक्षण का विरोध करनेवालों को सस्नेह अर्पित'

इन दिनों फेस बुक पर मेरी खूब पिटाई हो रही है। कारण है - जातिगत आरक्षण को लेकर की जा रही मेरी प्रस्तुतियाँ। देश भर में, देहातों में, जातिगत कारणों से अछूतों, अस्पृश्यों पर सवर्णों, अगड़ों द्वारा प्रायः प्रतिदिन ही किए जा रहे अत्याचारों को लेकर छपनेवाले, समाचारों की कतरनें मैं इन दिनों फेस बुक पर, ‘जातिगत आरक्षण का विरोध करनेवालों को सस्नेह अर्पित’ लिख कर लगा रहा हूँ। आरक्षण के समर्थक तो प्रायः ‘लाइक’ तक ही सीमित रहते हैं किन्तु विरोधियों की तिलमिलाहट शब्दों में आ ही जाती है। प्रायः सबके सब इसे केवल और केवल मोदी-विरोध मानते हैं और ‘राजा के प्रति खुद राजा से अधिक वफादार’ की भूमिका और मुद्रा में पूछते हैं-‘यह सब दो सालों में ही हो रहा है? इसके पहले साठ सालों तक कुछ नहीं होता था?’ मेरी हँसी चल जाती है। मुझे ‘मूर्ख मित्र से समझदार दुश्मन बेहतर’ वाली कहावत याद आ जाती है। मैं पूछता हूँ-‘मैंने ऐसा कहा? मेरे लिखे को पूरे ध्यान से फिर पढ़ें और बताएँ-मैंने ऐसा कहा? यदि नहीं तो जाहिर है कि आप अपना अपराध-बोध ही उजागर कर रहे हैं।’ इसके बाद कोई जवाब नहीं आता।

लेकिन बात केवल परिहास की नहीं है। इसे परिहास में उड़ा देना या सिरे से खारिज कर देना अत्यधिक घातक है। अन्ध समर्थक और अन्ध विरोधी समान रूप से घातक हैं। हमें तथ्यों और वास्तविकताओं से सामना करना पड़ेगा।

मैं आरक्षण का समर्थक नहीं हूँ। किन्तु यह आधी बात है। इसके विरोध में जाने से पहले मुझे अपनी जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। यह जिम्मेदारी है-जिस समाज में मैं बैठा हूँ वह ऐसा बने कि किसी को आरक्षण की आवश्यकता ही न हो। यह जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाए बिना आरक्षण का विरोध करना याने जंगल के कानून का समर्थन करना। 

जाति प्रथा हमारा बहुत ही कुरूप और कड़वा सच है। यह अमानवीय और ईश्वर विरोधी कुप्रथा हमने ही बनाई है। मेरी पृष्ठभूमि देहाती है। मैंने देखा है कि जाति के कारण अनगिनत बच्चे स्कूल तक भी नहीं पहुँच पाते। पहुँच भी गए तो उपेक्षा, अवमानना, व्यंग्योक्तियों के दंश सहते हैं। रोटी-पानी से भी दूर रखा जाता है। कई बार शिक्षक भी इस सबमें कभी सक्रियता से तो कभी चुप रहकर शामिल हो जाते हैं। वातावरण और स्थितियाँ ऐसी बना दी जाती हैं कि छोटी जातियों के बच्चे खुद ही स्कूल आना बन्द कर दें। ऐसे कुत्सित प्रयासों से अनेक प्रतिभावान बच्चों से देश वंचित हो जाता है। जाति और वर्ण व्यवस्था के चलते इस देश ने वह दौर भी देखा है जिसमें शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करना तो दूर रहा, शिक्षा के स्वरों से भी वंचित रखा गया था और उनके कानों में वेद वाक्यों के स्थान पर गरम-गरम सीसा उँडेल देने के निर्देश दिए गए थे। हजारों बरसों से चल रही इस व्यवस्था पर आजादी के बाद रोक तो लगी किन्तु स्थितियाँ ऐसी नहीं हो पाई कि निश्चिन्त या सन्तुष्ट हुआ जाए। देहातों में तो यह सब अभी भी प्रचुरता से प्रभावी है। इन्हीं कारणों से हमारे सम्विधान निर्माताओं ने जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया था। उन्होंने हम पर भरोसा किया था कि हम उनकी भावनाओं को समझ कर पन्द्रह बरसों में जातिविहीन समाज बना देंगे। किन्तु हम अपनी भूमिका निभाने में न केवल असफल हुए बल्कि जातिवाद को बनाए रखने में और अधिक तेजी से जुट गए। जाहिर है, जब तक जाति प्रथा बनी रहेगी तब तक जाति आधारित आरक्षण भी बना रहेगा। इसलिए, जातिगत आरक्षण समाप्त करने की माँग तब ही की जा सकेगी जब जाति प्रथा समाप्त हो जाए।

यहीं से समाज की जिम्मेदारी शुरु होती है। खास कर उन लोगों की जो जातिगत आरक्षण समाप्त करने में प्राण-पण से जुटे हैं। वे चाहें, न चाहें, उन्हें यह जिम्मेदारी निभानी ही पड़ेगी। जब समाज यह जिम्मेदारी निभाने में असफल हो जाता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी लेनी पड़ती है। 

ऐसी जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाने के अनेक उदाहरण हमें हमारे आसपास ही मिल जाएँगे। अधिक जाने-माने नामवाला उदाहरण है बड़ौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़। जिस जमाने में अस्पृश्यों की छाया से भी दूर रहा जाता था उस जमाने में उन्होंने ऐसे अस्पृश्यों को न केवल बराबरी की जगह दी बल्कि उन्हें प्रेरित, प्रोत्साहित, संरक्षित भी किया। स्त्री शिक्षा का अलख जगाने में ‘हरावल’ बने, महाराष्ट्र के ज्योति फुले आज किसी पहचान के मोहताज नहीं। छोटी जातियों के प्रति व्याप्त सामाजिक भेदभाव को दूर करने के प्रयासों पर झेले गए उनके प्रतिरोध को सम्मानित करते हुए सयाजीराव ने ही उन्हें ‘महात्मा’ कह कर सम्बोधित किया और ज्योतिबा फुले के मरणोपरान्त उनकी पत्नी और बेटे के लिए बड़ौदा राज्य से आर्थिक सहायता की व्यवस्था की। महर्षि शिन्दे के नाम से ख्यात हुए श्री विट्ठलराव शिन्दे को मेनचेस्टर (इंगलैण्ड) में उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति दी। आज अम्बेडकर के नाम का डंका बज रहा है। लेकिन यदि सयाजीराव गायकवाड़ नहीं हुए होते तो दुनिया को अम्बेडकर शायद ही मिले होते। डॉक्टरेट हेतु प्रस्तुत उनका शोध-पत्र जब ‘द इवोल्यूशन ऑफ प्राविंशियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ तो अम्बेडकर ने वह सयाजीराव को ही अर्पित किया। अम्बेडकर आजीवन खुद को सयाजीराव का ऋणी मानते रहे। 19 मार्च 1918 को मुम्बई में हुई, ‘आल इण्डिया कौंसिल ऑफ? फॉर रेमेडी ऑफ अनटचेबिलीटी’ की अध्यक्षता करते हुए इन्हीं सयाजीराव ने कहा था - ‘अस्पृश्यता ईश्वर ने नहीं बनाई। यह तो अज्ञान और जातिगत अहम् से ग्रस्त मनुष्य ने ही बनाई है।’ 

सामाजिक स्तर पर अपनी जिम्मेदारी निभानेवालों में अपने आसपास मुझे, स्वाधीनता सेनानी माणक भाई अग्रवाल नजर आते हैं। मन्दसौर जिले के (अनुसूचित जातियों हेतु आरक्षित) सुवासरा विधान सभा क्षेत्र से दो बार विधायक रहे श्री रामगोपाल भारतीय को माणक भाई ने ही ‘पोषित और विकसित’ किया। यदि माणक भाई नहीं होते तो भारतीयजी भी यह मुकाम शायद ही हासिल कर पाते।

कोई प्रतिभावान है या नहीं यह तब ही तय किया जा सकता है जब सबको समान अवसर, समान वातावरण, समान स्थितियाँ और समान जीवन स्तर मिले। यह सब न मिलने के बाद भी कुछ लोग अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के बूते, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त, आलोचकों की आँखों में अंगुलियाँ गड़ाकर अपनी उपस्थिति जता देते हैं। ऐसे लोगों में मुझे डॉक्टर अशोक कुमार भार्गव सदैव याद आते हैं। वे आरक्षित वर्ग से रहे किन्तु उन्होंने सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रुप में, 1986 की राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा के सफल उम्मीदवारों की सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। ऐसा पहली बार (और अब तक आखिर बार भी) हुआ कि आरक्षित वर्ग के किसी उम्मीदवार ने, सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में शामिल हो कर सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। इस उल्लेख सहित तत्कालीन मुख्य मन्त्री श्री मोतीलाल वोरा ने उन्हें विशेष रूप से सराहना-पत्र प्रदान किया। ऐसा सराहना-पत्र न उससे पहले किसी को मिला न अब तक किसी को मिल पाया। डॉक्टर भार्गव आज भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के सदस्य हैं और भोपाल में ही, अपर सचिव के पद पर पदस्थ हैं। 

जातिगत आरक्षण में विसंगतियाँ हो सकती हैं। इस व्यवस्था में समयानुसार बदलाव आवश्यक अनुभव किया जा सकता है। किन्तु हमें यह याद रखना पड़ेगा कि जातिगत आरक्षण उपलब्ध करवा कर हम अपनी गलतियाँ ही सुधार रहे हैं। यदि पूर्वजों का गौरव हमारा भी गौरव है तो पूर्वजों की गलतियाँ, हमारी भी गलतियाँ हैं। दादा के रोपे आम के पौधे के फल यदि पोता खाता है तो दादा की चूकों का परिष्कार भी पोते को ही करना पड़ेगा। हमें यदि आज लग रहा है कि जातिगत आरक्षण से हमें अवसरों से वंचित किया जा रहा है तो हमें यह याद करना पड़ेगा कि हमारे पूर्वजों ने कितने हजार बरसों तक, समाज के कितने बड़े वर्ग के लोगों की कितनी पीढ़ियों को अवसरों से वंचित किया है।

लिहाजा, मैं खुद भी किसी भी प्रकार के आरक्षण का समर्थक न होकर भी जातिगत आरक्षण का विरोध नहीं कर पाता। यह आरक्षण, वृक्ष की फुनगियों की तरह जरूर नजर आ रहा है किन्तु फुनगियों की छँटाई समस्या का निदान नहीं है। जड़ें काटे बिना हमारा उद्धार नहीं।
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(मेरी यह पोस्‍ट आज ही, भोपाल से प्रकाशित दैनिक 'सुबह सवेरे' में प्रकाशित हुई है।)

सिंहस्थ से भयभीत


एक से पन्द्रह मई के बीच, दो दिनों के लिए उज्जैन जाना है लेकिन घबराहट अभी से बनी हुई है। नहीं। न तो सिंहस्थ का पुण्य-लाभ लेना है न ही महाकाल दर्शन का या अन्य किसी साधु-महात्मा के दर्शनों का। एक प्रियात्मा की भावनाओं के अधीन जाना (ही) है। किन्तु अखबारों की सुर्खियाँ और उज्जैनी मित्रों/परिचितों से मिल रही सूचनाएँ विकर्षित और हतोत्साहित कर रही हैं। सुन-सुन कर पहला निष्कर्ष निकल रहा है कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए बरती जानेवाली अत्यधिक और अतिरिक्त सतर्कता के कारण ही अव्यवस्था हो रही है। दूसरा निष्कर्ष निकल रहा है - व्यवस्थाओं के नाम पर सिंहस्थ को ‘हाई-टेक’ बनाने के चक्कर में व्यवस्थाओं के घुटने टिक रहे हैं। 

मेरे एक उज्जैनी मित्र के लिए यह पाँचवाँ सिंहस्थ है। वे व्यवस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं। उनका कहना है कि अन्तिम निर्णय लेने के लिए जिन अधिकारियों को कमान थमा दी गई है उनमें से शायद ही कोई उज्जैन को और सिंहस्थ के मिजाज को जानता-समझता है। सफलता का साफा बँधाने के लिए (और नौकरी में आगे तरक्की सुनिश्चित करने के लिए) नेताओं ने अपनेवालों को आगे कर दिया है जो ‘राजकीय संरक्षण और सुरक्षा से उपजे अतिरिक्त आत्म-विश्वास’ के चलते, पुराने और सिंहस्थ के अनुभवी लोगों की नहीं सुन रहे हैं। हर बात को ‘पहले जो ठीक और कामयाब था, जरूरी नहीं कि आज भी ठीक और कामयाब हो’ कह कर सब ‘मेनेजमेण्ट के अपने-अपने फण्डे’ आजमा रहे हैं। पहले शाही स्नान वाले दिन इसी कारण ‘सब कुछ होते हुए भी सब कुछ ध्वस्त हो जाने’ के पीछे भी यही मनमानी रही। मेरे एक और परिचित, इन्दौर निवासी एक प्रशासकीय अधिकारी का यह दूसरा सिंहस्थ है। उनका भी यही कहना है कि सिंहस्थ से अनजान अधिकारी, सिंहस्थ के जानकार अधिकारियों को हँसी में खारिज कर रहे हैं और मुख्यमन्त्री की भद पिटवा रहे हैं। उनका भी यही कहना है-‘छप्पन व्यंजन तैयार रखे हैं और लोग भूखे जा रहे हैं।’

यातायात व्यवस्था को लेकर डरावनी खबरें सर्वाधिक आ रही हैं। हर कोई कह रहा है कि पाँच-सात किलो मीटर तो चलना ही पड़ेगा। हम दोनों पति-पत्नी उम्र से भले ही आँखें चुरा लें लेकिन अपने थुलथुलपन से कैसे इंकार करें? इस कारण भी घबराहट हो रही है। ऐसे में कोढ़ में खाज की तरह, मेरे प्रिय मित्र, ‘उज्जैनी’ भाई अनिल देशमुख की इस पोस्ट ने अभी से नींद हराम कर दी है। शाही स्नान के दो दिनों बाद, 24 अप्रेल की उनकी यह फेस बुक पोस्ट पढ़कर आप भी हमारे डर को वाजिब ही कहेगें -

”उज्जैन में सिंहस्थ को ले कर अनावश्यक बैरिकेटस इतने लगा दिए गए हैं कि बिना बात लोगों को परेशान होना पड़ रहा है। जो पुल और चौड़ी सड़कें सिंहस्थ के लिए विशेष रूप से बनी हैं, उन पर ही बैरिकेट लगा कर जाने नहीं दे रहे और लोगों को सँकरे रास्तों पर डाइवर्ट किया दिया जा रहा है। इससे बिना बात जाम की स्थिति बन रही है। 

कल मैं मेरी पत्नी के साथ, अपने दुपहिया से रामघाट जाने के लिए हरिफाटक ब्रिज पर बने, हरसिद्धि को ओर जाने वाले नए पुल पर पहुँचा तो पुलिस ने जाने नहीं दिया। शाम साढ़े आठ का वक्त था और ट्रैफिक बिलकुल नहीं था। काफी देर वहाँ खड़े रहने पर जब कहा कि यह पुल तो बनाया ही इसलिए गया है कि लोग  महाकाल क्षेत्र के सँकरे मार्ग के बजाय सीधे हरसिद्धि जा सकें। अभी जरा भी ट्रैफिक नहीं है। आप क्यों रोक रहे हैं? तब एक पुलिस वाले ने हमें जाने दिया। पर पुल उतरते ही वहाँ बैरिकेट लगा कर 10-15 पुलिसवाले खड़े थे जो किसी को भी नहीं जाने दे रहे थे जबकि पूरी सड़क खाली थी। उन्होंने लोगों को जयसिंहपुरा की और डाइवर्ट कर दिया। याने चौड़ी और नई सड़क के बजाय बेहद सँकरे, पुराने रास्ते पर, जहाँ आगे चौराहे पर अच्छा-खासा जाम लग गया। जैसे-तैसे आगे बढ़े तो नरसिंह घाट से तीन किलो मीटर पहले फिर बैरिकेट्स लगे हुए थे। वहाँ दुपहिया वाहनों की पार्किंग व्यवस्था भी नहीं थी और पुलिस भी बड़ी अभद्रता से पेश आ रही थी। यह रात साढ़े नौ बजे का समय था और मेला क्षेत्र बिलकुल खाली पड़ा था। पार्किंग न होने से कई लोगों ने फुटपाथ पर अपने दुपहिया वाहन चढ़ा रखे थे। मुझे भी वहाँ से आधा किलो मीटर आगे जा कर अपना वाहन खड़ा करना पड़ा जहाँ चाय की दुकाने थीं। पर वाहन सुरक्षा की चिन्ता बराबर बनी रही। 

न तो शाही स्नान का दिन और न ही ट्राफिक का दबाव, न किसी ई-रिक्शा को जाने दे रहे न किसी ऑटो रिक्शा को। फिर भी जाम की स्थिति यदि बन रही है तो वह बिना बात ट्रैफिक-फ्लो को बार-बार अवरुद्ध करने और वाहनों को चौड़ी सड़कों के बजाये सँकरे रास्तों पर डाइवर्ट करने से बन रही है । हम लोग तो खैर स्थानीय, ‘उज्जैनी’ हैं इसलिए इधर-उधर के रास्‍तों से किसी  भी घाट पर जा सकते हैं। पर बाहर से आनेवालों के लिए सिंहस्थ यात्रा किसी प्रताड़ना से कम नहीं है। घर में 80 -85 वर्ष के बुजुर्ग, जो ज्यादा चल नहीं सकते वे ई रिक्शा या अन्य साधन के अभाव में आम दिनों में भी घाट पर स्नान से वंचित हैं। 

यह सब इसलिए पोस्ट किया कि हमारे ग्रुप के कुछ साथी, जरूर प्रशासन के उच्च अधिकारियों के सम्पर्क में रहते हैं। वे ऐसी असुविधाओं (बिना बात की अव्यवस्थाओं) की बात अगर आगे तक पहुँचा सकें तो उज्जैन नगर का गौरव बना रहेगा। अन्य साथी भी यह पोस्ट अधिकतम शेयर करें ताकि आने वाले समय में लोग इस भव्य आयोजन का सपरिवार आनन्द ले सकें।

इन डरावनी और हतोत्साहित करनेवाली खबरों के बीच आज एक परिचित ने कहा कि यह सब सौ प्रतिशत सच नहीं है। स्थिति इतनी भयवह नहीं है। लेकिन अधिसंख्य समाचार फिर भी डरा ही रहे हैं।

आपमें से किसी को कोई अनुभव हुआ तो बताइयेगा।
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कौन किस पर गर्व करे?

यह अभी-अभी, सप्ताह भर पहले की बात है। एक जन समारोह में एक केन्द्रीय राज्य मन्त्री ने दूसरे केन्द्रीय राज्य मन्त्री की उपस्थिति में, भारत सरकार से सम्राट अशोक की जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की माँग की। यह माँग जाति-समाज आधारित थी। मुझे अचरज भी हुआ और पीड़ा भी। मंजूरी देनेवाला सरे बाजार माँग कर रहा है! यदि मन्त्री ही इस तरह माँग करें तो आम आदमी किससे माँगे? लोकतान्त्रिक और साम्विधानिक मर्यादाओं और आचरण के प्रति यह हमारा अज्ञान है या हम ज्ञान-पापी हैं? लेकिन इससे आगे बढ़कर मुझे कष्ट इस बात से हुआ कि सस्ती लोकप्रियता और वोट केन्द्रित राजनीति के चलते ऐसी माँग कर हम अपने महापुरुषों, इतिहास पुरुषों, आदर्शों, नायकों का मान बढ़ाते हैं या कम करते हैं? ऐसी माँग करते समय हम अपने नायकों के बारे में कितना जानते हैं?

सम्राट अशोक के बारे में मैं उतना ही जानता हूँ जितना  मुझे, स्कूल की परीक्षाएँ पास करने के लिए पढ़ना पड़ा था। मैं भी सम्राट अशोक को ‘अशोक महान्’ कहता तो रहा लेकिन कभी नहीं जाना कि भारत के अनेक राजाओं के बीच अशोक को ‘महान्’ क्यों कहा गया। बस! किताब में छपा था इसलिए मेरे लिए ‘अशोक महान्’ बना रहा और अब तक बना हुआ है।
केन्द्रीय राज्य मन्त्री द्वारा यह माँग उठाने के बाद मैंने अपने आसपास के ज्ञानियों के यहाँ हाजरी लगाई तो सम्राट अशोक के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलीं। इन जानकारियों के बाद मैं और ज्यादा चिन्तित हो गया। आखिरकार हम अशोक महान् के किस स्वरूप को अपना आदर्श मानते हैं या मानना चाहेंगे?

चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते और राजा बिन्दुसार के बेटे अशोक वर्द्धन मौर्य को हम लोग सामान्यतः कलिंग विजय हेतु किए गए युद्ध के कारण ही जानते हैं। लेकिन उसने अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध नहीं किए। उसके सामने अपने दादा की तरह न तो किसी राजा नन्द की चुनौती थी और न ही चाणक्य जैसा दूरदर्शी, रणनीतिकार गुरु। उसे देवनाम प्रिय अशोक, प्रियदर्शी अशोक, चक्रवर्ती सम्राट अशोक के साथ ही साथ चण्ड अशोक याने अत्यधिक गुस्सैल अशोक भी कहा गया है। उसके जीवन का अधिकांश समय परिजनों से संघर्ष में बीता, राज्य विस्तार के संघर्ष में नहीं। उसके बड़े भाई ने उससे मुक्ति पाने के लिए और गद्दी की दावेदारी से दूर रखने के लिए युद्ध हेतु भेजा। सोचा था, अशोक असफल हो जाएगा। किन्तु उल्टा हो गया। स्थितियों ने उसे राज गद्दी की प्रतियोगिता में धकेल दिया जिसके लिए उसे अपने भाइयों की हत्या करनी पड़ी।

सब कुछ ठीक ही चलता किन्तु लेकिन कलिंग युद्ध के नतीजे ने सब कुछ बदल दिया। कलिंग युद्ध के बाद, (वर्तमान भुवनेश्वर से कोई दस किलोमीटर दूर स्थित) धौली की पहाड़ियों से दया नदी को देख अशोक का हृदय लज्जा, अपराध-बोध, विरुचि और घृणा से भर गया। जहाँ तक नजर जाती थी, क्षत-विक्षत सैनिकों के शवों के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आया। सैनिकों के खून से नदी का पानी लाल हो गया था। कलिंग युद्ध की बर्बरता और नृशंसता देख अशोक की पत्नी देवी उसे छोड़ गई। इन स्थितियों और मनोदशा से मानो एक नए अशोक ने जन्म लिया - यही अशोक, ‘अशोक महान्’ के नाम से जाना गया। युद्ध के नतीजे ने सम्राट अशोक को बुद्ध का श्रेष्ठ अनुयायी बना दिया। उसने खुद को और अपने बेटे महेन्द्र तथा बेटी संघमित्रा को, बुद्ध को और बौद्ध धर्म को अर्पित कर दिया। उसने अपना ‘स्व’ बुद्ध में विसर्जित कर दिया।

यह सब जानकर मैं उलझन में पड़ गया। अशोक महान् की जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करनेवाले आखिर अशोक के किस स्वरूप को मानेंगे? सत्ता के लिए प्रतियोगिता में धकेल दिए गए अशोक को? उसके योद्धा स्वरूप को? या फिर युद्ध की विभीषिका से उपजी विरुचि के अधीन, राज सिंहासन को त्याग कर बौद्ध भिक्षु बने स्वरूप को? 

मध्य प्रदेश मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान से मध्य प्रदेश के ब्राह्मण बहुत खुश हैं। ब्राह्मणों की प्रदेशव्यापी माँग को मंजूर कर शिवराज ने सन् 2015 से परशुराम जयन्ती का सार्वजनिक अवकाश घोषित करना शुरु कर दिया है। मैंने अपने ब्राह्मण मित्रों से परशुरामजी के बारे में जानना चाहा। मुझे यह देख निराशा हुई कि कुछ अपवादों को छोड़कर सब के सब परशुरामजी को एक ही बात से जानते हैं कि उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रीयविहीन किया था। मैंने इसका कारण जानना चाहा और जानना चाहा कि एक बार क्षत्रीयविहीन हो जाने के बाद धरती पर क्षत्रीय फिर कैसे आ गए? वह भी एक के बाद, इक्कीस बार! किसी के पास कोई जवाब नहीं था। कोई नहीं जानता था कि सहस्रबाहु अर्जुन नामक एक क्षत्रीय राजा  द्वारा परशुराम की माता रेणु से कामधेनु नामक गाय जबरन छीन लेने से कुपित परशुराम ने सहस्रबाहु अर्जुन का वध किया था जिसका बदला लेने के लिए सहस्रबाहु अर्जुन के बेटों द्वारा (परशुराम की अनुपस्थिति में) परशुराम के पिता जमदाग्नि की हत्या कर देने से क्रुद्ध परशुराम ने सहस्रबाहु अर्जुन के समस्त पुरुष रिश्तेदारों को मौत के घाट उतार दिया था। वस्तुतः परशुराम ने, ब्राह्मणों को पीड़ित करनेवाले, आपराधिक प्रवृत्ति के क्षत्रियों का संहार किया था और यह काम उन्होंने लगातार इक्कीस वर्षों तक किया। आज परशुराम की पहचान केवल ‘हाथ में फरसा लिए, क्षत्रियों का वध करने को उद्धत योद्धा’ की बन कर रह गई है। शायद ही कोई जानता  हो कि वे क्षत्रियों के विरुद्ध नहीं, ब्राह्मणों के ब्राह्मण-कर्म में बाधक बननेवाले क्षत्रियों के विरुद्ध थे? वे इतने ‘पितृ आज्ञाकारी’ थे कि कुपित पिता के आदेश पर अपनी माँ का सिर काट दिया था और इतने मातृ प्रेमी कि, अपने आज्ञा पालन से प्रसन्न पिता ने जब उनसे कोई वर माँगने को कहा तो उन्होंने अपनी माँ को जीवित करने को कह दिया। इन्हीं परशुराम की जयन्ती की पहली छुट्टी पर ही मेरे अनेक ब्राह्मण मित्र सैरसपाटे पर निकल गए थे।

यह सचमुच में दुःखद और लज्जाजनक है कि हमने अपने राष्ट्रीय नायकों को अपनी आवश्यकता और सुविधा से ‘अपने-अपने महापुरुष’ बना लिए हैं। शहीद हेमू कालानी केवल सिन्धी समाज तक सीमित हो गए हैं। क्या उन्होंने केवल सिन्धियों के लिए खुद को होम किया था? देशी रियासतों और रजवाड़ों का आत्म-समर्पण करवाकर गौरवशाली भारत बनानेवाले लौह पुरुष सरदार पटेल  पाटीदारों/पटेलों में सिमटे जा रहे हैं। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के साथ जो हो रहा है वह तो शायद चरम है। जाति प्रथा को उन्होंने देश की प्रगति का सबसे बड़ा रोड़ा कहा था और इसका नाश करने के लिए जाति तोड़ा आन्दोलन शुरु किया था। लेकिन उनकी जयन्ती और पुण्य तिथि पर कुछ शहरों में अग्रवाल समाज द्वारा आयोजन करने के समाचार चौंकाते हैं। आजादी के बाद गैर काँग्रेसवाद की अवधारणा  और ‘जिन्दा कौमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करतीं।’ जैसे सर्वकालिक आप्त वचन क्या लोहिया ने केवल अग्रवाल समाज के लिए दिए थे?

सच तो यह है कि या तो हमें अपने इरादों, अपने कर्मों, अपने पुरुषार्थ और अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं रह गया है या फिर हम अपनी वास्तविकता जानते हैं। इसीलिए हमें अपनी पहचान के लिए कोई एक महापुरुष आवश्यक हो गया है। ऐसे महापुरुषों के विचार को आचरण में उतारने के बजाय हम उनका उपयोग  अपना दबदबा बनाने के लिए करते हैं। जिन महापुरुषों का नाम सुनकर ही मन में श्रद्धा भाव उपजना चाहिए, अपने आचरण से हम उनके प्रति भय और आतंक पैदा करने में ही अपनी सफलता मानने लगे हैं। हम इन पर अपना अधिकार जताते हुए इनके नाम की दुहाइयाँ देते हैं लेकिन इनकी चिन्ता खुद नहीं करते। इनकी मूर्तियाँ लगवाने के लिए और बाद में उन मूर्तियों के रखरखाव के लिए स्थानीय निकायों से माँग करते हैं, दबाव बनाते हैं और (वोट की राजनीति के चलते) सफल होकर गर्व से फूले, इतराते घूमते हैं। लेकिन वास्तव में हम अपने महापुरुषों का कद घटा रहे होते हैं। हम सागर को पोखर में बदलने का आपराधिक दुष्कर्म करते हैं। हम उनके नाम पर सार्वजनिक छुट्टी घोषित करवाते हैं और खुद ही उस दिन पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं।


हम अपने पुरखों पर गर्व करें, यह तो अच्छी बात है। किन्तु क्या अधिक अच्छा यह नहीं होगा कि हम ऐसा कुछ करें कि हमारे पुरखे हम पर गर्व करें?
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