सूर्योपासनार्थ भास्कर-स्तवन

 

सूर्योपासनार्थ भास्कर-स्तवन

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्र्रह
‘मन ही मन’ की पहली कविता

यह संग्रह श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




सूर्योपासनार्थ भास्कर-स्तवन

ओऽम् भास्कराय नमः
तपन! तापन!! हे महेश्वर!!!
लोकसाक्षी! हे विकर्तन!!
लोकचक्षु! गभस्तिहस्त!!
त्रिलोकेश! हे विवस्वान!
मार्तण्ड! भास्कर!! रवि!!! ब्रह्मा!!!!
कर्त्ता! हर्त्ता!! लोकप्रकाशक!!!
सप्ताश्ववाहन! सर्वदेव!!
हे तमिस्त्रहा! शुचि!! हे श्रीमान्!!!
मैं नमस्कार में नत-विनीत
दो, कोटि किरण का दिव्यदान
हे त्रिलोकेश! हे विवस्वान!!
ओऽम् भास्कराय नमः!!!

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टिप्पणी -
(1) भगवान भुवन भास्कर के ये 21 नाम ‘गुप्त नाम माला’ के रूप में जाने जाते हैं। स्वयम् ब्रह्मा ने ये नाम सूर्यदेव को दिये थे।
(2) मुझे ये नाम रतलाम (मध्यप्रदेश) के एक साहित्यकार मित्र श्री नन्दलाल उपाध्याय ‘अतुल विश्वास’ से प्राप्त हुए हैं। मैंने केवल छन्दोबद्ध किए हैं।
(3) सूर्याेपासकों के लिये यह छन्द मन्त्र-माला का काम देता है।
(4) जिन संज्ञाओं के आगे ‘सम्बोधन चिन्ह’ (!) लगे हैं वे ही इस नामावली के मुक्तामणि हैं।
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‘मन ही मन’ की दूसरी कविता ‘मुझसे यह नहीं होगा’ यहाँ पढ़िए।


संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल



कविता संग्रह ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह ‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

मालवी कविता संग्रह  ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।








गीत असा कसरूँ गावे

 

गीत असा कसरूँ गावे

श्री बालकवि बैरागी के, मालवी कविता संग्रह ‘चटक म्हारा चम्पा’ की बत्तीसवीं कविता

यह संग्रह श्री नरेन्द्र सिंह तोमर को समर्पित किया गया है।








गीत असा कसरूँ गावे

गीत असा कसरूँ गावे रे गुणवान
गूँजे आखी धरती ने गूँजे आसमान

कईऽज हमझ में न्‍हीं आवे, करूँँ, कई करूँ
हुण्या करूँँ, हुण्‍या करूँँ, हुण्‍या ईऽज करूँ
पाछे-पाछ तान के म्हूंँ भागतो फरूँ
प्राण म्हारा बावरा, उतावरा है कान
गीत असा कसरूँ गावे  रे गुणवान

जगमगावे आखो जगत थारी तान में
या पवन समईगी आखा आसमान में
छटपटाईने आरपार वेई पखाण में
पूर नदी जसी चली जावे थारी तान
गीत असा कसरूँ गावे  रे गुणवान

मन तो यूँ करे के म्हूँ भी थारा सुर में गऊँ
लाख होदूँँ, न्‍हीं मले ई बोल, क्याँ ती लऊँ
कण्‍ठ ती नही फूटे बोल, गऊँ तो कसरूँ गऊँ
गावा बले छटपटावे वाचा का पिरान
गीत असा कसरूँ गावे  रे गुणवान

हार॒या आँसूड़ा ती आला म्हारा गाल है
म्हारे चाऽरे आड़ी, थारा सुर को जाल है
ऐ गुणी यो जाल, थारो कई कमाल है
फाँद्यो कसा फन्दा में ऐ दयानिधान
गीत असा कसरूँ गावे  रे गुणवान

 (गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजली के एक गीत का मालवी अनुवाद)

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‘चटक म्हारा चम्पा’ की तैंतीसवीं कविता ‘झील’ यहाँ पढ़िए







संग्रह के ब्यौरे 
चटक म्हारा चम्पा (मालवी कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज प्रकाशन, 4 हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन
मूल्य - 20 रुपये
चित्रांकन - डॉ. विष्णु भटनागर
प्रकाशन वर्ष - 1983
कॉपी राइट - बालकवि बैरागी
मुद्रक - विद्या ट्रेडर्स, उज्जैन




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।




माँ ने तुम्हें बुलाया है


श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की चाौथी  कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है। 



माँ ने तुम्हें बुलाया है

देखो हिमगिरि की ड्योढ़ी पर हत्यारा चढ़ आया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है

दिखलाना है फिर जौहर
जाग उठो हे प्रलयंकर
महादेव जय हो हर-हर
बोलो अल्ला हो अकबर
कफन बाँध लो फिर सर पर

बेमौसम ही हिमगिरि का हिम देखो आज पिघलता है
दो हजार बरसों का साथी तेवर आज बदलता है
जितना समझाओ उतना ही ज्यादह और मचलता है
करो अमन की बात बावरा बस बारूद उगलता है
नब्बे कोटि भुजाओं का बल लौह लाड़लों रे
(इन) नब्बे कोटि भुजाओं का बल पेकिंग ने अजमाया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....
 
राजनीति के राघव इसको युद्ध नहीं बतलाते हैं
मानवता के माधव सब कुछ सहते हैं समझाते हैं
गला काटता है परदेसी फिर भी गले लगाते हैं
दुनिया क्या जाने हम हिन्दी कितना जहर पचाते हैं
लाल किले की लल्लाई पर लौह लाड़लों रे
लालकिले की लल्लाई पर लाल चीन ललचाया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....

झाँसी, प्लासी, पानीपत और कुरुक्षेत्र हुँकार रहा
जलियाँवाला और कलिंग का हर जर्रा ललकार रहा
मान सरोवर की लहरों पर कब किसका अधिकार रहा
सन्निपात के उस रोगी का नहीं और उपचार रहा
शैशव में ही उस रोगी पर लौह लाड़लों रे
शैशव में ही उस रोगी पर महाकाल मँडराया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....

मीणों, मेवों, मर्द मराठों, गुप्त, गुर्जरों, परमारों
ओ जाटों, ओ चारण-भाटों, ओ पाटण की तलवारों
ओ बुन्देलों, ओ चन्देलों, बाघ-बघेलों, परिहारों
बन्दा बैरागी के बेटों, ओ नानक के सरदारों
आज शेर की मूँछ पकड़ने लौह लाड़लों रे
आज शेर की मूँछ पकड़ने गार में गीदड़ आया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फ़िर जोहर.....

ओ कन्नड़, ओ कोंकण, तामिल, ओ घाटों के पहरेदार
ओ तैलंग, ओ तीखे तैलप, सूँतों फिर सोई तलवार
ओ मैसूरी, ओ मद्रासी, ओ आन्ध्रा, ओ वज्र बिहार
ओ आसामी, ओ गुजराती, ओ उड़िया, ओ बंग कुमार
माँ काली का खाली खप्पर लौह लाड़लों रे
माँ काली का खाली खप्पर अभी नहीं भर पाया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....

ओ बजाज, ओ बिड़ला, टाटा, डालमिया, ओ सोमानी
ओ निजाम ओ सारा भाई, बैद्यनाथ, ओ समदानी
कच्छ देश के कर्ण कुबेरों, बागड़िया, राजस्थानी
(ओ) भामा शाह की सन्‍तानों, तुम पुनः बनो औढर दानी
आज वतन पर सब निछरादो लछमी वालों रे
आज देश पर सब निछरा दो जितना भी जुट पाया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....

कैनेड़ी, अय्यूब, सुकर्णों, मेकमिलन कुछ तो बोलो
ओ डिगाल, ओ नासिर, आरिफ, ओ हुसैन मुँह तो खोलो
ओ टीटो, नक्रुमा, कुव्वत, झूठ-सत्य तुम तो तोलो
ओ निकिता तुम ही चाऊ की नई-नई गाँठे खोलो
बिना बात ही बैठे ठाले दुनिया वालों रे
बिना बात ही बैठे ठाले किसका सर खुजलाया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....

ओ हंगरी, ओ हिन्दचीन के बुझते-बुझते अंगारों
नये कोरिया पर पग धरती, अमर अमन की झनकारों
चन्द्र, सूर्य, मंगल, पताल के वाशिन्दों और संसारों
ओ उन्नीस सौ सैंतालिस से आज तलक के अखबारों
सच बतलाना इस मरघट में दुनिया वालों रे
सच बतलाना इस मरघट में किसने बाग लगाया है
चलो देश के लौह लाड़़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....

अगर हथौड़े-हँसिये का ईमान यहाँ पर छूटेगा
पंचशील का पावन घट यदि इस पनघट पर फूटेगा
अगर हिमालय के हीरों को कोई लुटेरा लूटेगा
(तो) दो हजार क्या दो करोड़ बरसों का रिश्ता टूटेगा
भाई चारा हम नहीं भूले दुनिया वालों रे
भाई चारा हम नहीं भूले, चाऊ ने बिसराया है
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....

अगर जंग के रंग उड़े तो कदम नहीं हटने देंगे
माँ पर चढ़ती रक्तांजलि में रक्त नहीं घटने देंगे
सिर पैंतालिस कोटि कटेंगे देश नहीं कटने देंगे
केरल छँटना भी चाहे तो कभी नहीं छँटने देंगे
(अब) केरल सबसे आगे होगा चाऊ चाचा ओ-
(अब) केरल सबसे आगे होगा कवि ये वादा लाया है
चलो देश के लौह लाडलों माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....

कसम तुम्हें है हिमगिरि की उन सर्द हिमानी आहों की
कसम तुम्हें है वीर जवाहर की भृकुटि और भुजाओं की
कसम तुम्हें है करमसिह के हरे-हरे उन घावों की
कसम तुम्हें है तेनसिह के उन अपराजित पाँवों की
बलिदानों का मंगल मौसम लौह लाडलो रे
बलिदानोंें का मंगल मौसम किस्मत से ही आया है
चलो देश के लौह लाड़लो माँ ने तुम्हें बुलाया है
दिखलाना है फिर जौहर.....
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
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कविता संग्रह ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह ‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

मालवी कविता संग्रह  ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी। 
 
कविता संग्रह ‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह  ‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी

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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।

 

झरामर रातलड़ी

 

झरामर रातलड़ी

श्री बालकवि बैरागी के, मालवी कविता संग्रह 
‘चटक म्हारा चम्पा’ की इकतीसवीं कविता

यह संग्रह श्री नरेन्द्र सिंह तोमर को समर्पित किया गया है।





झरामर रातलड़ी

झरामर रातड़ली आँधी अपार
प्राण प्यारा बन्‍धु आज करूँगा म्हूँ प्यार

जाणे कोई प्रेमी की टूटीगी आस
असरूँ आज आकाश छोड़े निसाँस
नेणा में म्हारे कोऽनी नींद को निवास
रेई-रेई ने वाट नारूँ खोली-खोली द्वार
प्राण प्यारा बन्‍धु आज करूँगा म्हूँ प्यार

दूर कोई नदिया के पेले- पेले पार
झाड़ी वारी राड़ी और घुप्प अन्‍धकार
गहरा-गहरा वन के वीचे भूली म्हारो प्यार
कई लेवा ऊबा म्हारा हिवड़ा का हार
प्राण प्यारा बन्‍धु आज करूँगा म्हूँ प्यार

(गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजली के एक गीत का मालवी अनुवाद)
  
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संग्रह के ब्यौरे 
चटक म्हारा चम्पा (मालवी कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज प्रकाशन, 4 हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन
मूल्य - 20 रुपये
चित्रांकन - डॉ. विष्णु भटनागर
प्रकाशन वर्ष - 1983
कॉपी राइट - बालकवि बैरागी
मुद्रक - विद्या ट्रेडर्स, उज्जैन




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


‘मन ही मन’ के कवि का आत्म-कथ्य, समर्पण और संग्रह के ब्यौरे

 
‘मन ही मन’ 

समर्पण
नवगीत के पाणिनी
स्व. पण्डित श्री वीरेन्द्र मिश्र
को
समूची छन्द-श्रृद्धा सहित
सादर-सविनय
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छन्द

आज मैने सूर्य से, बस जरा सा यूँ कहा
‘आपके साम्राज्य में, इतना अँधेरा क्यूँ रहा?’
तमतमा कर वह दहाड़ा -“मैं अकेला क्या करूँ?
तुम निकम्मों के लिये, मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के, चक्करों में मत पड़ो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ कुछ, तुम लड़ो।’
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अनायास 
(कवि का आत्म-कथ्य)

मेरी अपनी यायावरी में अनायास भाई श्री नरेन्द्र चंचल एक दिन मुझे भोपाल में उपलब्ध हो जाते हैं और मेरे साथ वाले कागज पत्रों में अस्त-व्यस्त, इधर-उधर रखी इन कविताओं को देखते हैं। बात अक्रम ही आगे बढ़ती है और बस, यह संग्रह आकार ले लेता है।

निरन्तर लिखना, छपना, बोलना, घूमना और ताजातम पढ़ना मेरी जीवनचर्या का मूल चरित्र है। यदि विगत वर्षों का अपना लिखा और छपा मैं इसी तरह संकलित करता जाऊँ तो ऐसी कई पुस्तकें निकल आयेंगी। जब-जब अपने लिखे और छपे, किन्तु यत्र-तत्र बिखरे पड़े पृष्ठों के पुलिन्दों को मैं देखता हूँ तो घबराकर आँखें बन्द कर लेता हूँ। भिन्न-भिन्न विधाओं में न जाने क्या और कितना लिखता चला जा रहा हूँ। सोचता हूँ कि इन्हें क्रम दे दूँ। प्रकाशक मित्रों के उलाहने आते हैं और मैं अपने ‘लीचड़पन’ से लज्जित होकर हीले-हवाले करता रहता हूँ। बहाने बनाता हूँ।

.....और ‘मन ही मन’ की इस यात्रा में वह मोड़ भी ‘अनायास’ ही आ गया जब यह पाण्डुलिपि ‘पड़ाव प्रकाशन’ के अधिष्ठाता भाई श्री राजुरकर राज के हाथों में जा पहुँची। मैं ‘पड़ाव प्रकाशन’ का बहुत आभारी हूँ कि अपने संघर्ष काल में भी दुस्साहस करके इन पृष्ठों को आप तक पहुँचाया। बीसवीं सदी के समापन काल में हिन्दी कविता की पुस्तक छापना सचमुच दुस्साहस का ही काम है। ‘पड़ाव प्रकाशन’ यदि यह सात्विक साहस नहीं करता तो ‘मन ही मन’ इस रूप में आप तक शायद ही पहुँच पाता।

अब यह ‘मन ही मन’ आप तक पहुँचाने में प्रकाशक संस्थान के सिवा यदि में एकल आभारी हूँ तो भाई श्री नरेन्द्र ‘चंचल’ का, जो उन्होंने इतना कुछ मुझसे करवा लिया।

मैं रोमाचित होकर विह्वल और विसुध हूँ कि मेरे अग्रज प. श्री वीरेन्द्र मिश्र को मैं ये पृष्ठ उनके जीते जी अर्पित नहीं कर सका। नवगीत के वे पाणिनी थे और छन्द-स्वच्छन्द कुछ भी हो ‘लय’ उनकी सम्पदा रही। ‘स्वर’ उनका साधु था। मैं श्रद्धांजलि के तौर पर ही यह पुस्तक उन्हें समर्पित करके स्वयं को कुछ हल्का कर रहा हूँ।

आशीर्वाद मुझे सभी का चाहिये। प्रमाण पत्र जिनसे लेना था वे सब के सब शारदा लोक को चले गये। मेरा मतलब गीत और कविता के कसौटी व्यक्तित्वों से है। अस्तु।

मेरा प्रणाम और ‘मन ही मन’ स्वीकारें।

-बालकवि बैरागी
मनासा (मध्यप्रदेश)
जिला मन्दसौर 458110



संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि -बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन, 46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल





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मालवी कविता संग्रह  ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह ‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह  ‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी

कविता संग्रह  ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


निमन्त्रण

 
श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की तीसरी कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




निमन्त्रण

जुग-जुग से ऊँचे उड़ते हैं जिसके अमर निशान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे
उजले-उजले कुछ सौदागर आये हिन्दुस्तान में
कौन नहीं विश्वास करेगा अपने ही मेहमान में
किन्तु लगा कुछ काला-काला जब उनके ईमान में
(तो) मेरी माँ ने हाथ उठाये और देखा असमान में
तो पोरबन्दर से देखो रे
पोरबन्दर से चरखा लेकर चला नया भगवान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

कफन बाँध कर चली अहिंसा, हिसा का स्वागत करने
माँग पोंछ कर चली सुहागन कुँकुम से आँगन भरने
आज़ादी अधिकार हमारा दिया हमें भी ईश्वर ने
करो-मरो के नारे गूँजे दौेड़ पड़े करने-मरने
वो जलियाँवाला देखो रे
जलियाँवाला अब तक करता स्वागत पर अभिमान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे 

और गुलामों ने शाहों के शाही कदम उखाड़ दिये
जिस नक्शे में सूर्य न डूबा उसके रंग बिगाड़ दिये
दो पसली ने भरी सभा में दिग्गज बड़े पछाड़ दिये
दीवानों ने लालकिले पर अपने झण्डे गाड़ दिये
वो लाल किले पर देखो रे
लालकिले पर लहराता है मानव का ईमान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

(पर) जाते जाते परदेशी ने झूठे झगड़े करवाये
घरम-धरम और मजहब-मजहब हम भी कुछ दिन चिल्लाये
सचमुच वो दिन दुश्मन को भी राम कभी ना दिखलाये
(किन्तु) सुबह के भूले भटके साँझ पड़े फिर घर आये
अब तो पढ़ते देखो रे
अब तो पढ़ते एक साथ हम गीता और कुरान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

नई राह पर नया सवेरा मेरे देश में आता है
महल का मालिक लिये फावड़ा अब खेतों में जाता है
कल तक का कंगाल किसनियाँ आज कजरिया गाता है
दूर गगन में  मेरा बापू मन हीे मन मुसकाता है
आज अमन की देखो रे
आज अमन की फसल उगाता भारत का किरसान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान

लगे बदलने खण्डहर सारे महलों और मकानों में
आज झोंपड़े बातें करते ऊँचे महल के कानों में
नया खून है नया जोश है इन बेखौफ जवानों में .
नये देश का नया वेश है नदियों के ढलवानों में
हरे हरे देखो रे
हरे हरे घूँघट में हँसते खेत, कुए, खलिहान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

नये-नये कवि कविता लिखते नये नये अरमानों की
नये कहानी लेखक लिखते नई कथा इन्सानों की
सरस्वती के मन्दिर में है भीड़ लगी गुणवानों की
देस-देस से गुणिजन आते आस लिये वरदानों की
गली गली में देखो रे
गली-गली गिरि, गगन गुँजाते गोरे-गोरे गान रे
देखो रे देखो दुनिया वालों मेरा हिन्दुस्तान रे
 
सारी दुनिया दोस्त हमारी हमको सबसे प्यार है
मेहमानों के लिये हमारे हरदम खुले किंवार है
हमने हाथ मिलाया सबसे सब अपना परिवार है
देखो कोई दग़ा न करना अब हम भी हुशियार हैं
चाँद से गोरा देखो रे
चाँद से गोरा दिल रखते हैं हम काले इन्सान रे
देखो रे देखो दुनियाँ वालों मेरा हिन्दुस्तान रे

हम तकदीरें बदल रहे हैं दुनियाँ के इन्सानों की
आग बुझा दी हमने देखो ऐटम के तूफानों की
मोम बनाते, माखन करते, हम छाती पाषाणों की
अब दुनिया से खतम करेंग हम सत्ता शैतानों की 
इसीलिये तो देखो रे
इसीलिये तो नेहरू चाचा अब तक बना जवान रे
देखो रे देखो दुनियां वालों मेरा हिन्दुस्तान रे
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कविता संग्रह ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

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मालवी कविता संग्रह  ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह ‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह  ‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
मुद्रक - लोकमत प्रिण्टरी, इन्दौर (म. प्र.)






यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


 


हीया हूनी रूपारी

श्री बालकवि बैरागी के, मालवी कविता संग्रह 
‘चटक म्हारा चम्पा’ की तीसवीं कविता

यह संग्रह श्री नरेन्द्र सिंह तोमर को समर्पित किया गया है।








हीया हूनी रूपारी


हाय कसी पीड़ा खटकीरी जोद्धा, थारा हिवड़ा में
फरे एकलो लेईने पो रो उणियारो 
मुरझईगी सरवर में व्हा शैवालण जणा कणी घड़ी
और पँखेरू गावे कोन्ही गीतडलो कामणगारो

हाय कसी पीड़ा खटकीरी जोद्धा थारा हिवड़ा में
जो तू  अतरो लटक्यो-लटक्यो, दुबरो-दुबगो देखावे
खेताँ में की हाक कटी ने, धान घराँ में पोंचीग्यो
ताली (गिलहरी) की कोटर में दाणा धानचून का न्‍हीं मावे

देखी र्‌यो हूँ थारो मुखड़ो, जणे कमलणी घायल है
जणे ताब में तपी-तपी ने नरम पाँखड़्याँ कुम्हलईगी
गालां पर ती ऊनो पसीनो टप-टप थारे चूचे है
पल पल मुरझातो जावे ने काया थारी हूकईगी

म्हने मिली थी एक डावड़ी, लीला मुलक रुपारा में
भर जोबन में ऐसी लागे, जणे परी की जायी थी
लम्बा-लम्बा केश वणी का, ढबे न्‍हीं पग थरक-थरक
काँकड़ली आंखड़ल्याँ जण में मदमाती रतनाई थी

फुलड़ा की एक मारा पोईने माथे वण के गूँथी दी
बाजूबन्द बणायो वणके फूल कँदोरो महकारी
प्यार भरी एक मादक तिरछी चितवन म्हारे पर न्हाकी
और भरी ली मीठी-माठी एक वणी ने सिसकारी

म्हारा अबलक घुड़ला ऊपर, म्हने वणी ने बेठाई
आखो दन भर म्हने और तो, कई भी न्‍हीं नजराँ आयो
कॉं के वणने झूम-झूम, घुड़ला पर यें-वें नमी-नमी
जीव भरी ने किन्नरियाँ को मीठो गीत घणो गायो

मों लई ने द्या घणा ह॒वादू फल मीठा-मीठा
और रसीला कन्द-मूल ने, वन को हेँत हिया भायो
बोली एक अनोखी अदभुत बोली में 
के थारे ऊपर शुद्ध पवित्तर प्यार म्हने है निछरायो

म्हने वणी का डूँगर का अद्भुत वागाँ में व्हा लेईगी
और वटे व्हा रोई, गैरी, ठण्‍डी साँसाँ लेई-लेई ने
पचे वणी का रस भीना ओठाँ पर चुम्मा चार जड्या
म्‍हने वणी का मिरग मनोहर, मोहक नेणां मूँदी ने

मों होवई द्यो बटे वणी ने मीठी थपक्याँ देई-देई ने
याद हाल तक खटके जण की, देख्यो सपनो एक असो
ऊ ही आखर सपनो थो, जो देख्यो शीतल परबत को
मोह-मुलक में फेर कदी न्‍हीं देख्यो सपनो म्हने वसो

देख्या कतरई जोद्धा राजा, राजकुँवर मोट्यार वटे
गारा जैसा पीरा पट्‌ट पड़ी ग्या था जोबन धारी
चिल्लाया व्‍ही थारे ऊपर, रूप मोहिनी न्‍हाकी ने
दास वणई ने बाँधी लई या, हीया हूनी रूपारी

हाँझ पड्याँ देख्यो के वण का, भूखा होठ खुल्या, हाल्या
और भयकर सबदाँ में मों चेतायो
जाग्यो म्हूँ तो शीतल परबत के ऊपर
मोह मुलक छेटी म्हूँ नजराँ आयो

अणी बले म्हू बण बनवासी, ऊजड़ बन में वास करूँ
फरू एकलो लेईने पीरो उणियारो
मुरझईगी सरवर में व्हा शैवालण जाणा कणी घड़ी
और पँखेरू गावे कोन्ही गीतड़लो कामणगारो

(जॉन कीट्स की प्रसिद्ध रचना ‘ला बैले डेम सॉस मर्सी’ ‘हृदयहीन रूपसी’ याने ‘निर्मम सुन्दरी’ का मालवी अनुवाद।)

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संग्रह के ब्यौरे 
चटक म्हारा चम्पा (मालवी कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज प्रकाशन, 4 हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन
मूल्य - 20 रुपये
चित्रांकन - डॉ. विष्णु भटनागर
प्रकाशन वर्ष - 1983
कॉपी राइट - बालकवि बैरागी
मुद्रक - विद्या ट्रेडर्स, उज्जैन




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


रूपम् से

 
श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की दूसरी कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।





रूपम् से

कुछ दिन अब मैं नहीं करूँगा सजनी ! तेरी मनुहारें
मेंहदी महावर नहीं गाऊँगा, गाऊँगा अब अंगारे

बुरा न लाना अपने मन में
समय समय की बात है
झुलस रहा है अपना उपवन
झुलस रहे मृदु पात हैं
गीत छोड़ कर भंँवरों ने भी आज भरी हैं हुँकारें
तो फिर कैसे करूँ सलौनी! मैं भी तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....

कुछ दिन अब मैं.....
बर्फों की ये शुभ्र घाटियाँ
आज खून से लाल हैं
आग लगी केसर कुंजों में
शिकन भरा हर भाल है
खड़क रहीं हैं घर-घर खडगें, तड़फ रहीं है तलवारें
किस मुँह से मैं कर साँवरी! बतला तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....

सब से आगे चला आज तक
युग की राह बनाता हूँ,
मेरी जिद से परिचित है तू
मैं तो मौसम गाता हूँ
(पर) कोई मेरे मौसम का खून करे औ’ ललकारे
तब तो मुझे रोकनी होगी गोरी! तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....

मेरे गीत सदा से तूने
गाये और गुँजाये हैं
इसीलिये ये इस ऊमर में
हर पनघट छू आये हैं
किन्तु अचानक ठहर गई हैं, हर पनघट की पनिहारें
इस बेला में कैसे कर लूँ रूपम्! तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....

अब भी साथ अगर दे दे तो
मैं तेरा आभारी
और नहीं तो माफी दे दे
है मेरी लाचारी
तेरा-मेरा प्यार नहीं ये कल की पीढ़ी धिक्कारे
इसीलिये मैं नहीं करूँगा पगली! तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....

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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
मुद्रक - लोकमत प्रिण्टरी, इन्दौर (म. प्र.)
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कविता संग्रह ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह ‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

मालवी कविता संग्रह  ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

कविता संग्रह ‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी। 
 
कविता संग्रह  ‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।





भवानी भाई के प्रति

श्री बालकवि बैरागी के काव्य संग्रह 
'वंशज का वक्तव्य' की तीसवीं/अन्तिम कविता

यह संग्रह राष्ट्रकवि रामधरी सिंह दिनकर को समर्पित किया गया है।



भवानी भाई के प्रति

चरण तुम्हारे छूकर
मुझको पहिली बार लगा है ऐसा
मानो मैंने
उस निस्सीम क्षितिज पर अपना
कलुषित माथा टिका दिया है
जिस निस्सीम क्षितिज को
कोई छू न सका था
मुझसे पहले!
मेरे मस्तक पर जो अक्षत्
लग जाते हैं यदा.कदा
वे सव हैं निर्माल्य तुम्हारे ही चरणों के!
देव!
तुम्हारी इस महिमा को
मैं प्रणाम भी कर न सकूँगा
कहीं तुम्हारे चरण छूट जायें इस डर से
हाथ नहीं उठ पाते मेरे!
खडे रहो तुम
पड़ा रहूँ मैं
युग को दिशा दायिनी
माँ कविता के शिला लेख पर
इस पीढ़ी की भाषा बन कर
युगों.युगों तक
जड़ा रहूँ मैं! जड़ा रहूँ मैं!! जड़ा रहूँ मैं!!!
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वंशज का वक्तव्य ;कविता संग्रहद्ध
कवि . बालकवि बैरागी
प्रकाशक . ज्ञान भारतीए 4ध्14ए  रूपनगर दिल्ली . 110007
प्रथम संस्करण . 1983
मूल्य 20 रुपये
मुद्रक . सरस्वती प्रिंटिंग प्रेसए मौजपुरए दिल्ली . 110053 



यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।

हार्‌या ने हिम्मत

श्री बालकवि बैरागी के, मालवी कविता संग्रह 
‘चटक म्हारा चम्पा’ की उनतीसवीं कविता

यह संग्रह श्री नरेन्द्र सिंह तोमर को समर्पित किया गया है।







हार्‌या ने हिम्मत
(पण्डित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर।)

भरी रे दुपेरी में सूरज डूब्यो
वेईग्यो घुप्प अँधारो रे राम
तो मन का दिवला संजोवो म्हारा संगवी
करी लो नी फेर उजारो रे राम

घरती को धीरज धक-धक घूजे
गगन वसीका ताणे रे
इंडो फूटीग्यो टींटोड़ी को
जिवड़ा की जिवड़ो जाणे रे
तो बीती बिसारो ने धीरज धारो
यूँ मती हिम्मत हारो रे राम!
मन का दिवला संजोवो म्हारा संगवी
करी लो नी फेर उजारो रे राम
भरी रे दुपेरी में.....

आँबा लगईग्यो ने हाँटा उगईग्यो
काँटा का नखल्या तोड़ीग्यो
भूखा ने धाणी ने गूँगा ने वाणी
देई ने हठीलो पोढ़ीग्यो
या तितली पे बिजली पड़ी अण वीती
गायाँ ने छोड़ीद्यो चारो रे राम!
तो मन का दिवला संजोवो म्हारा संगवी
करी लो नी फेर उजारो रे राम
भरी रे दुपेरी में.....

मन्दर रोवे ने मज्जित रोवे
रोवे है गुरुद्वारा रे
गिरजाघर का आँसू न्ही टूटे
रोवे धरम हजाराँ रे
मनकपणा ने नींदड़ली अईगी
वेईग्यो बन्द हुँकारो रे राम!
तो मन का दिवला संजोवो म्हारा संगवी
करी लो नी फेर उजारो रे राम
भरी रे दुपेरी में.....

तीरथ अपणो ते करीग्यो है
जग ने मोवणहारो रे
दरसण करवा ने पाछे अईर्‌यो
आखो ही जग दुखियारो रे
पाछे वारा की पीड़ा जाणो ने
आगे पंथ बुहारो रे राम!
मन का दिवला संजोवो म्हारा संगवी
करी लो नी फेर उजारो रे राम
भरी रे दुपेरी में.....


पग पग पर पँतवार॒याँ वणई ने
पंथ वणईग्यो पाको रे
सत का सरवर और सरायाँ
बाँधीग्यो बेली थाँको रे
(अब) काँधा की कावड़ छलकी न्‍ही जावे
बिछड़े न्ही संग यो रुपारो रे राम!
तो मन का दिवला संजोवो म्हारा सँगवी
करी लो नी फेर उजारो रे राम
भरी रे दुपेरी में..... 

वेगा-वेगा चालो तो पंथ कटेगा
रात कटेगा अँधारी रे
आँसूड़ा पोंछो तो आँखा में उतरे
पूनम की असवारी रे
ठेठ ठिकाणे पोंची ने अपणा
काँधा को बोझ उतारो रे राम!
मन का दिवला संजोवो म्हारा संगवी
करी लो नी फेर उजारो रे राम
भरी रे दुपेरी में

एक असते है तो एक उगे है
मत यो नेम बिसारो रे
सूरज डूब्यो तो चाँद उगेगा
न्हीं तो उगेगा तारो रे
नछंग अँधारो कदी भी नही रेगा
पूरब आड़ी  नाऽरो रे राम!
मन का दिवला संजोवो म्हारा संगवी
करी लो नी फेर उजारो रे राम
भरी रे दुपेरी में.....
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संग्रह के ब्यौरे 
चटक म्हारा चम्पा (मालवी कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज प्रकाशन, 4 हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन
मूल्य - 20 रुपये
चित्रांकन - डॉ. विष्णु भटनागर
प्रकाशन वर्ष - 1983
कॉपी राइट - बालकवि बैरागी
मुद्रक - विद्या ट्रेडर्स, उज्जैन




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।