कर दी अंग्रेजी की हिन्दी

हिन्दी के साथ अब जो  हो जाए, कम है। ‘बोलचाल की भाषा’ के नाम पर अब तक तो हिन्दी के लोक प्रचलित शब्दों को जानबूझकर विस्थापित कर उनके स्थान पर जबरन ही अंग्रेजी शब्द ठूँसे कर भाषा भ्रष्ट की जा रही थी। किन्तु अब तो हिन्दी का व्याकरण ही भ्रष्ट किया जा रहा है।

दुनिया की तमाम भाषाओं के व्याकरण का सामान्य नियम है कि जब भी कोई शब्द अपनी मूल भाषा से किसी इतर (दूसरी) भाषा में जाता है तो उस पर उस दूसरी (इतर) भाषा का व्याकरण लागू होता है। इसलिए, यदि किसी दूसरी भाषा का कोई शब्द हिन्दी में आता है तो उस पर हिन्दी का व्याकरण लागू होगा न कि उस शब्द की मूल भाषा का। इसी नियम के अन्तर्गत हिन्दी का कोई शब्द किसी दूसरी भाषा में जाएगा तो उस पर उसी भाषा का व्याकरण लागू होगा, हिन्दी का नहीं। इसीलिए हिन्दी से अंग्रेजी में गए शब्दों पर अंग्रेजी का ही व्याकरण लागू होता है। उदाहरणार्थ हिन्दी के ‘समोसा’, ‘इडली’, ‘डोसा’ अंग्रेजी में गए तो वहाँ उनका बहुवचन रूप ‘समोसाज’, ‘इडलीज’, ‘डोसाज’ (या कि ‘समोसास’, ‘इडलीस’, ‘डोसास’) होता है न कि हिन्दी बहुवचन रूप ‘समोसे’, ‘इडलियाँ’, ‘डोसे’। 
इसी तरह अंग्रेजी के शब्द जब भी हिन्दी में आएँगे तो उन पर हिन्दी का व्याकरण लागू होगा न कि अंग्रेजी का। इसीलिए अंग्रेजी से हिन्दी में आए अधिसंख्य शब्दों के बहुवचन रूप हम हिन्दी व्याकरण के अनुशासन से ही प्रयुक्त कर रहे हैं जैसे कारें, रेलें, लाइटें, सिगरेटें, मोटरें, सायकिलें आदि। 

किन्तु इन दिनों अंग्रेजी शब्दों को हिन्दी में प्रयुक्त करते समय उनके अंग्रेजी बहुवचन रूप प्रयुक्त करने का भोंडा और खतरनाक चलन शुरु हो गया है। जैसे प्रोफेसर्स, डॉक्टर्स, टीचर्स, स्टूडेण्ट्स आदि। यह गलत है। ऐसा करने से पहले शायद किसी ने सोचने-विचारने की आवश्यकता ही नहीं समझी। इनके स्थान पर प्रोफेसरों, डॉक्टरों, टीचरों,  स्‍टूडेण्‍टों प्रयुक्त किया जाना चाहिए।

लेकिन अब तो कोढ़ में खाज जैसी दशा हो रही है। इसका एक नमूना यहाँ प्रस्तुत है।


यह उज्जैन से प्रकाशित एक सान्ध्यकालीन अखबार की कतरन है। उज्जैन की पहचान कवि कालीदास और राजा विक्रमादित्य से होती है। यह सोलह आना हिन्दी इलाका है जहाँ अंग्रेजी जानने/समझनेवालों का प्रतिशत दशमलव शून्य के बाद का कोई अंक ही होगा। किन्तु बोलचाल की भाषा के नाम पर अंग्रेजी बहुवचन का भी बहुवचन कर दिया गया है। यह हमारी मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा है। 

किसी की अवमानना कर देने के लिए जब भी कोई ‘अरे! उसकी तो हिन्दी हो गई।’ कहता है तो मुझे मर्मान्तक पीड़ा होती है। ऐसा बोलते/कहते समय हम हिन्दी की अवमानना कर रहे हैं यह किसी को सूझ नहीं पड़ती। किन्तु यदि उसी लोक वाक्य का सहारा लिया जाए तो कहना पड़ेगा - ‘इस अखबार ने अंग्रेजी की हिन्दी कर दी।’

राष्ट्रकवि मैथिली शरणजी गुप्त ने बरसों पहले निश्चय ही इसी दशा को भाँप लिया था और कहा था -

‘हम क्या थे, क्या हैं, और क्या होंगे अभी!’
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यह किसका संकट है?

बाँये से: ‘हम लोग’ के अध्यक्ष श्री सुभाष जैन, ‘समिति’ के पुस्तकालय मन्त्री श्री राकेश शर्मा, श्री जयकुमार जलज, श्रीमती प्रीति जलज और ‘समिति’ के प्रधान मन्त्री श्री सूर्य प्रकाश चतुर्वेदी

इन्दौर की, श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, एक सौ उन्नीस वर्षों से, विभिन्न उपक्रमों के जरिए हिन्दी की सेवा करती चली आ रही है। इस समिति को दो बार गाँधीजी की मेजबानी करने का अवसर मिला हुआ है। इन दिनों यह समिति, ‘हमारे रचनाकार’ शीर्षक श्रृंखला के अन्तर्गत, वीडियो रेकार्डिंग के जरिए, देश के रचनाकारों के कृतित्व और व्यक्तित्व का संक्षिप्त अभिलेखीकरण (डाक्यूमेण्टेशन) करने का अत्यन्त महत्वपूर्ण काम कर रही है। ‘समिति’ के प्रधान मन्त्री श्री सूर्य प्रकाश चतुर्वेदी और पुस्तकालय मन्त्री श्री राकेश शर्मा इसी काम में जुटे हुए हैं। चतुर्वेदीजी की आयु लगभग 78 वर्ष है किन्तु उनका समर्पण और उत्साह आयु पर भारी पड़ रहा है। इस काम के लिए ‘समिति’ सामान्यतः रचनाकार को इन्दौर आमन्त्रित करती है और यदि रचनाकार के लिए इन्दौर पहुँच पाना सम्भव नहीं होता है तो ‘समिति’ रचनाकार के पास पहुँचती है। इस क्रम में अब तक लगभग चालीस रचनाकारों की रेकार्डिंग की जा चुकी है।

इसी क्रम में रतलाम के जलजी की रेकार्डिंग होनी थी। जलजजी याने डॉक्टर जय कुमार जलज।  वे देश के ख्यात भाषाविद् और रचनाकार हैं। उनका जन्म तो ललितपुर (उ.प्र.) में हुआ किन्तु वे रतलाम के ही होकर रह गए। मुझ जैसे मोहग्रस्त लोग तो उन्हें रतलाम का पर्याय मानते, कहते हैं। डॉक्टर रामुकमार वर्मा और बच्चनजी के समकालीन जलजी अपनी आयु के बयासीवें वर्ष में चल रहे। हृदयाघात झेल चुके हैं। घुटनों और रीढ़ की हड्डी की कुछ बीमारियों से भी परेशान हैं। शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो गए हैं। घर से बाहर निकलना केवल अपरिहार्य स्थितियों में (अपवादस्वरूप या कहिए कि विवशता में) ही होता है। चलने-फिरने में ही नहीं, बोलने में भी थकान आ जाती है। इसलिए रेकार्डिंग हेतु ‘समिति’ ही रतलाम आई। चतुर्वेदीजी और राकेशजी खुद पहुँचे। ‘विचार से सामाजिक बदलाव’ का लक्ष्य लिए काम कर रही संस्था ‘हम लोग’ ने आयोजन की व्यवस्थाएँ जुटाई थीं।

आयोजन के समाचार अखबारों में ठीक-ठाक रूप से छपे थे। आयोजकों ने अपनी ओर से भी लोगों से सम्पर्क किया था। होटल अजन्ता पेलेस के, लगभग साठ श्रोताओं की क्षमतावाले सभागार में लगभग पचास श्रोता आ जुटे थे। साहित्यिक अयोजनों में श्रोताओं के अकालवाले इस समय में यह बहुत अच्छी और पर्याप्त सन्तोषकजनक से कहीं आगे बढ़कर अत्यन्त उत्साहजनक उपस्थिति थी।  किन्तु अधिकांश श्रोता जलजजी के प्रति आदर-भाव अथवा शिष्य-भाव के अधीन पहुँचे थे। आयोजकों के प्रति संकोच भाव से भी कुछ लोग पहुँचे थे। किन्तु ‘हिन्दी-भाव’ से पहुँचनेवाले श्रोता अंगुलियों पर गिने जा सकते थे। इस बात ने मुझे निराश किया।

मेरे कस्बे में कवियों, रचनाकारों की कम से कम आठ संस्थाएँ तो मेरी जानकारी में हैं। इनमें से कुछ तो नियमित रूप से मासिक गोष्ठियाँ करती हैं। इनमें से कुछ बैठकें सद्य प्रकाशित कहानी/कविता संग्रहों की समीक्षा-बैठकें होती हैं तो कुछ गोष्ठियाँ काव्य-पाठ की होती हैं। समीक्षा गोष्ठियाँ भी काव्य पाठ से ही समाप्त होती हैं। अखबारों में प्रकाशित खबरों को आधार बनाऊँ तो इन गोष्ठियों के भागीदारों की संख्या किसी भी दशा में एक सौ से कम नहीं होती। किन्तु जलजजी वाले इस आयोजन में इन एक सौ कलमकारोें में से पाँच भी नहीं पहुँचे थे।

मैंने इन कलमकारों की अनुपस्थिति का कारण टटोला तो हतप्रभ रह गया। हिन्दी के इन जितने साहित्यकारों से बात हुई तो लगभग एक ही कारण सामने आया-‘जलजजी के इस आयोजन में हम भला कैसे आते? वे तो हमारे किसी कार्यक्रम में, किसी भी गोष्ठी में नहीं आते।’ मैंने जलजजी की अस्वस्थता और शारीरिक दुर्बलता का हवाला दिया तो जवाब मिला-’सब बहाने हैं। अपनी रेकार्डिंग के लिए वे आए कि नहीं? घण्टा, डेड़ घण्टा बैठ कर सवालों के जवाब दिए कि नहीं?’ मैं चाह कर भी कोई तवाब नहीं दे पाया।  

हिन्दी अनेक संकटों से जूझ रही है। अधिकांश संकट हिन्दीवालों ने ही पैदा किए हैं। इस घटना से मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि यह संकट हिन्दी का है या हिन्दीवालों का?
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खुद को झूठा मानने में सच्चे

जून और जुलाई महीनों में सौगन्ध उठाने के समारोहों की मानो बाढ़ आ जाती है। अन्तर राष्ट्रीय स्तर के सेवा संगठनों की स्थानीय इकाइयाँ अपने-अपने पद-भार ग्रहण और शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करती हैं। यह अलग बात है कि इन संगठनों के नीति निर्देशों में ऐसे शपथ ग्रहण समारोहों का प्रावधान नहीं है। इन संगठनों का वर्ष जुलाई से शुरु होता है और नीति निर्देशों के अनुसार, बिना कसम खाए ही नए पदाधिकारियों का काम पहली जुलाई से अपने आप शुरु हो जाता है। इन संगठनों के कुछ (ऊँचे) पदाधिकारियों के प्रशिक्षण का प्रावधान है। तदनुसार, जुलाई महीना शुरु होने से पर्याप्त समय पहले ऐसे पदाधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए देश-विदेश में बुला लिया जाता है। उन्हें केवल प्रशिक्षण दिया जाता है। कसम नहीं खिलाई जाती। इन संगठनों के अन्तर राष्ट्रीय स्तर से लगाकर स्थानीय इकाइयों तक के लिए शपथ ग्रहण का कोई प्रावधान नहीं है। किन्तु हम भारतीय उत्सव प्रेमी और प्रदर्शन प्रेमी हैं, शायद इसीलिए उत्सव मनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।  कसम खाने के ऐसे सार्वजनिक और उत्सवी आयोजन अब सामान्य होते जा रहे हैं। विभिन्न समुदायों, समाजों के ‘सोश्यल ग्रुप’ भी कसम खाने के ऐसे आयोजन अत्यधिक उत्साह से करते हैं।

मेरा कस्बा मुझ पर अत्यधिक कृपालु है। सो, ऐसे प्रत्येक आयोजन का बुलावा मुझे आता है। मैं भी अत्यन्त उत्साह से पहुँचता हूँ। कुछ बरस पहले तक स्वादिष्ट और विविध व्यंजनों का आकर्षण होता था। अब सब कुछ वर्जित है। अब, अधिकांश कृपालुओं से एक साथ मिलने का लोभ मुझे इन समारोहों में खींच लिए जाता है। देख रहा हूँ कि व्यंजनों से निषेधित मुझ जैसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे हम लोग अपने अतीत पर गर्व करते हुए मौजूदा समय के आयोजनों की कमियाँ और गिरते स्तर पर चिन्तित होते हैं। आयोजन के मुख्य वक्ता के ज्ञान को अधकचरा और सतही साबित करने की कोशिशें करते हैं। सलाद, दाल, रोटी और चाँवल तक सीमित रह कर तरसी नजरों से तमाम व्यंजनों को देखते रहते हैं और उनसे स्वास्थ्य को होनेवाली खामियाँ गिना-गिना कर खुश होते रहते हैं। उस वक्त हम यह भूल जाते हैं कि ‘अपने जमाने में’ हम लोग इन्हीं व्यंजनों पर भुक्खड़ों की तरह टूट पड़ते थे। ऐसे हम लोगों में से जो ‘छड़ा’ होता है वह परहेज से परहेज कर अधिकाधिक व्यंजनों को उपकृत करने का पुण्य लाभ लेता है।

समारोह की कार्यवाई मुझे ऐसा नीरस ‘कर्मकाण्ड’ लगती है जिसमें सम्बन्धित व्यक्ति के अलावा और किसी की रुचि नहीं होती। उस कर्मकाण्ड और भोजन के दौरान  बतरसियों की भीड़ के बीच मैं खुद को अकेला पाता हूँ। तब इस तरह शपथ लेने और इस हेतु आयोजित समारोहों के औचित्य पर विचार करने लगता हूँ। सम्वैधानिक पदों के लिए शपथ लेने की बात तो समझ में आती है किन्तु सेवा संगठनों के पदों के लिए कसम खाने की बात मुझे समझ नहीं आती। सेवा भाव तो ईश्वर प्रदत्त होता है। सेवा करने के लिए किसी संगठन की भी आवश्यकता नहीं होती है! दुनिया में अनगिनत लोग अपने-अपने स्तर पर, अकेले ही नाना प्रकार की सेवा कर रहे हैं। कभी सुनने, देखने, पढ़ने में नहीं आया कि इस हेतु उन्होंने, ऐसा कोई समारोह आयोजित कर कसम हो खाई। इसके समानान्तर यह विचार भी मन में आता है कि समारोहपूर्वक कसम खानेवालों में से कितनों को यह कसम याद रहती होगी? इस तरह कसम खाना उनके लिए फोटू खिंचवाकर अखबार में छपवाने और निजी एलबम में सजाने के अतिरिक्त शायद ही किसी और काम में आता होगा। तब ऐसे समारोहों का क्या औचित्य और क्या आवश्यकता?

मुझे लगता है, हम भली प्रकार जानते है कि हम झूठे हैं। इसीलिए सारी दुनिया को भी झूठा मानते हैं। गोया, हम सब एक दूसरे को झूठा मानते हैं। अपनी सामान्य बातचीत में अपनी बात कहते हुए हम अत्यन्त सहज भाव से ‘आप विश्वास नहीं करेंगे किन्तु सच मानिए.......’ कहकर अपनी बात शुरु करते हैं। इसी के समानान्तर, सामनेवाले से कोई बात पूछते हुए, बड़ी ही सहजता से ‘देखो! सच-सच कहना, झूठ मत बोलना........’ कह कर उसके मुँह पर ही उसे झूठ बोलनेवाला कह देते हैं। इस तरह हम सब रोज ही एक दूसरे को झूठा कहते-सुनते रहते हैं और मजे की बात यह कि किसी को बुरा नहीं लगता। लगे भी तो कैसे? हममें से किसी का ध्यान इस ओर जाता ही नहीं। भला सच से कोई, कैसे इंकार करे? याने, कम से कम इस बात में तो हम सच्चे हैं कि हम खुद को झूठा स्वीकार करते हैं।

जो काम घोषित रूप से हमारे जिम्मे किया है उसे करने के लिए भला सौगन्ध उठाने की क्या आवश्यकता? सूरज कभी कसम नहीं खाता कि वह रोज समय पर उगेगा और सारी दुनिया को प्रकाश और ऊष्मा देगा। चाँद कभी कसम नहीं खाता कि वह सारी दुनिया पर अपनी चाँदनी समान रूप से बरसाएगा। हवा कभी कसम नहीं खाती कि बराबर बहती/चलती रहेगी और सारी दुनिया को प्राण-वायु देती रहेगी। प्रकृति कभी सौगन्ध नहीं खाती कि वह अपना चक्र अविराम गतिशील बनाए रखेगी। पशु कभी कसम नहीं खाते कि वे भूख से अधिक नहीं खाएँगे। मनुष्य के अतिरिक्त सृष्टि का कोई जीव कसम नहीं खाता कि वह अपने स्वभाव से हटकर कभी कोई हरकत नहीं करेगा। याने, समूचे विश्व में, समूची सृष्टि में यह मनुष्य ही है जिसे कसम खाने की जरूरत होती है। जब भी कोई शपथ ग्रहण कर रहा होता है तो उसकी इस रस्म अदायगी के साक्षी होते हुए हम शायद ही कभी गम्भीर रहते हैं। उस समय हम परिहासपूर्वक घोषणा करते रहते हैं कि हमारा यह प्रिय पात्र इस शपथ पर कायम नहीं रहेगा। कायम रहना तो दूर, उसे यह शपथ याद भी नहीं रहेगी। तब हम भली प्रकार जानते हैं कि वह एक खानापूर्ति कर रहा है।

हम सुरक्षा के लिए अपने मकानों, दुकानों, संस्थानों पर ताले लगाते हैं, चौकीदार रखते हैं, सुरक्षा गार्ड तैनात करजे हैं। किन्तु ऐसा करते समय बराबर जानते हैं और कहते भी हैं कि ताले और चौकीदार साहूकारों के लिए हैं, चोरों के लिए नहीं। अनगिनत मकानों, दुकानों, सुस्थानों पर ताले लगे रहते हैं, चौकीदार और गार्ड तैनात रहते हैं। ताले टूटने, रक्षकों पर हमले कर चोरी, डकैती के मामले गिनती के ही होते हैं। याने समाज में ‘साहूकार’ अधिसंख्य हैं। किन्तु गिनती के चोरों, डकैतौं के कारण हम सारी दुनिया पर सन्देह करते हैं। लेकिन खुद पर लागू करते हुए हम जानते हैं कि हममें से अनगिनत लोग इसलिए ईमानदार, चरित्रवान बने हुए हैं क्योंकि उन्हें बेईमान, चरित्रहीन होने के अवसर नहीं मिले और अवसर मिले भी तो वे साहस नहीं कर पाए।

अभी-अभी अखबारों में पढ़ा कि आगामी विधान सभा चुनावों के सन्दर्भ में पंजाब काँग्रेस, उम्मीदवारी की दावेदारी करनेवालों से शपथ-पत्र ले रही है कि उम्मीदवारी न मिलने की दशा में वे पार्टी से न तो विद्रोह करेंगे और न ही पार्टी विरोधी कोई हरकत करेंगे। समाचार पढ़कर मुझे हँसी आ गई। अवसरवाद की राजनीति के इस समय में ऐसे शपथ-पत्रों की क्या तो औकात और क्या डर? निष्ठा की कागजी ग्यारण्टी नहीं दी जाती। वह तो संकट काल में व्यक्ति के आचरण से ही उजागर होती है। कुछ इस शेर की तरह -

गुल से लिपटी हुई तितली को गिराओ तो जानूँ,
हवाओं! तुमने दरख्तों को गिराया होगा।

अपनी जिम्मेदारी सत्य निष्ठा से निभाने के लिए शपथ लेना आज एक खानापूर्ति बन गया है। अदालतों में गीता, कुरान की शपथ लेनेवालों के बयानों पर सदैव ही सन्देह जताया जाता है। शपथ लेने की रस्म अदायगी करने कर्मकाण्डों के इस समय में एक बात पर जरूर सन्तोष किया जा सकता है कि हम जानते और मानते हैं कि हम झूठे हैं।
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एक ऑपरेशन ने बदल दी मेरी हैसियत

यदि मेरी जानकारियाँ सही हैं तो मैं देश के सवा अरब से अधिक लोगों में से गिनती के, लगभग तीन हजार लोगों में शरीक हो गया हूँ। एक छोटे से ऑपरेशन ने मुझे यह हैसियत दिला दी है।

इसी बरस, मार्च के दूसरे सप्ताह में मुझे ‘मूत्र नली संक्रमण’ (अर्थात् यूटीआई अर्थात् यूरीनरी ट्रेक्ट इन्फेक्शन) का रोगी घोषित कर दिया। यूरोलॉजिस्ट के अनुसार मेरी मूत्र नली अच्छी-खासी सिकुड़ गई थी और मुझे फौरन ही किसी कुशल यूरोसर्जन की सेवाएँ लेनी चाहिए। रतलाम के डॉक्टर उदयजी यार्दे ने कहा - ‘आप बड़ौदा में डॉक्टर नागेश कामत से मिलिए। इस कष्ट से मुक्ति वे ही दिलाएँगे।’ मैंने आँख मूँदकर यार्देजी का कहा माना और कष्ट-मुक्त ही नहीं हुआ, देश के ‘अब तक के गिने-चुने’ लोगों में भी शरीक हो गया। मुझे इतनी राहत मिली है कि मैं अपने इस अनुभव को सार्वजनिक करने से खुद को रोक नहीं पा रहा।

कामतजी पहले ही मेरा, सरकम सीजन का ऑपरेशन कर चुके थे। उन्होंने मेरे कागज देखे, पूरी बात सुनी और कहा कि ऑपरेशन से पहले वे ऑपरेशन के बारे में मुझे विस्तार से बताना/समझाना चाहेंगे। कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि जिस तरीके से वे ऑपरेशन करेंगे वह सामान्य चलन में नहीं है। इस बीमारी के जो ऑपरेशन इन दिनों हो रहे हैं उनमें मूत्र नली की मरम्मत की जाती है और मरीज को एक छोटी सी शलाका (रॉड) प्रयुक्त करने की सलाह दी जाती है जिसे, (ऑपरेशन के बाद) जब-जब मूत्र त्याग में  बाधा अनुभव हो तब-तब मूत्र मार्ग में डालकर मरीज खुद अपनी सहायता करता रहे। यह व्यवस्था तनिक कष्टदायक होती है और कालान्तर में रोगी झुंझलाने लगता है। कामतजी ने कहा कि वे जर्मन पद्धति अपनाएँगे जिसमें मूत्र नली की मरम्मत करने के स्थान पर, मूत्र नली के क्षतिग्रस्त भाग का ‘पुनर्निमाण’ किया जाता है। (यह ‘पुनर्निमाण’ शब्द मैंने गढ़ा है।) बोलचाल की भाषा में इसे मूत्र नली की प्लास्टिक सर्जरी और डॉक्टरी भाषा में यूरोथ्रोप्लास्टी कहा जाता है। कोई पन्द्रह बरस पहले यह पद्धति जर्मनी में ईजाद हुई और लगभग दस बरस पहले भारत में इस पद्धति से ऑपरेशन शुरु हुए हैं।

इस पद्धति में मूत्र नली के पुनर्निर्माण हेतु मरीज के शरीर की चमड़ी प्रयुक्त की जाती है। चूँकि मूत्र नली चौबीसों घण्टे गीली रहती है इसलिए वहाँ सूखी चमड़ी (याने, शरीर पर बाहर दिखाई दे रही चमड़ी) प्रयुक्त नहीं की जा सकती। उसके सिकुड़ने की आशंका बनी रहती है। इसलिए रोगी के शरीर की गीली चमड़ी ही ली जाती है। यह गीली चमड़ी मनुष्य शरीर में चार स्थानों, दोनों गालों और दोनों होठों के अन्दर से ली जाती है। गालों की अन्दरूनी चमड़ी तनिक मोटी होती है इसलिए होठों के अन्दर की चमड़ी अधिक उपयुक्त होती है। गालों/होठों की चमड़ी निकालने की प्रक्रिया को ‘बकास मकोसाा हार्वेस्टिंग’(BUCCAS MUCOSA HARVESTING) कहा जाता है। 

जर्मनी में इस हेतु मरीज की चमड़ी का बहुत छोटा सा अंश लेकर उसे विकसित किया जाता है। बोलचाल की भाषा में कह सकते हैं कि इस चमड़ी की खेती जाती है, छोटी-मोटी फसल उगाई जाती है जिसे ‘सेल कल्चर’ (CELL CULTURE) कहते हैं। यह प्रत्येक रोगी के लिए अलग-अलग की जाती है। किन्तु यह पद्धति अधिक खर्चीली और अत्यधिक समय लेनेवाली होती है। इसलिए इसके बजाय आवश्यकतानुसार पूरी चमड़ी ही ली जाती है।

कामतजी ने पहले ही बता दिया था कि ऑपरेशन तो बहुत छोटा (माइनर सर्जरी) होगा। खतरे, चिन्ता या अतिरिक्त गम्भीरता जैसी कोई बात नहीं है। किन्तु यह ‘एक में दो ऑपरेशन’ जैसा होगा - चमड़ी निकालना और मूत्र नली का पुनर्निर्माण। इसलिए कम से कम चार घण्टे लगेंगे। 


मेरे मामले में मेरे ऊपरी होठ की चमड़ी निकाली गई। ऑपरेशन थिएटर में घुसने से लेकर निकलने तक का समय करीब पौने पाँच घण्टे रहा। ऑपरेशन हेतु मुझे निश्चेष्ट किया गया। पुनर्निर्मित मूत्र नली अपने नवनिर्मित आकार में बनी रहे इसलिए वहाँ, उपयुक्त गोलाई की एक नली लगा दी गई। चूँकि मुख्य मूत्र मार्ग का पुनर्निर्माण किया गया था इसलिए वह रास्ता तो बन्द करना ही था। मूत्र त्याग हेतु अतिरिक्त रास्ता बनाकर एक नली लगा कर एक थैली लगा दी गई। याने, जब मैं ऑपरेशन थिएटर से बाहर आया तो मुझे दो नलियाँ लगी हुई थीं।

मैं 19 मई की शाम को कामतजी के अस्पताल में भर्ती हुआ, ऑपरेशन 20 मई को हुआ और 27 मई को मुझे छुट्टी मिली। तयशुदा कार्यक्रमानुसार मैं 04 जून को फिर बड़ौदा गया। उस दिन मेरी, मूत्र त्याग के मुख्य मार्ग पर लगी (पुनर्निर्मित मूत्र नली का आकार बनाए रखने के लिए लगाई गई) नली निकाली गई। 19 मई के बाद उसी दिन मैंने सामान्य और स्वाभाविक रूप से मूत्र त्याग किया। याने, पन्‍द्रह दिनों तक मुझे पेशाब, बाहर लगाई गई नली से अपने आप होता रहा। तयशुदा कार्यक्रमानुसार 13 जून को मैं फिर बड़ौदा गया। उस दिन बाहरी नली निकाली गई। बाहरी नली से जुड़ी पेशाब की थैली पहले मरीज को हाथ में लेकर चलना पड़ता था। तकनीकी विकास इस मामले में भी हुआ। अब मरीज अपने पाँव पर ही यह थैली बाँध कर पेण्ट/पायजामा पहन सकता है।

इस ऑपरेशन से मुझे मेरी अपेक्षा से अधिक राहत मिली है। मूत्र नली सँकरी होने के कारण पहले मुझे पेशाब करने में अधिक समय तो लगता था ही था, अधिक दबाव भी झेलना पड़ता था। पेशाब शुरु होने की अनुभूति तो होने लगती थी किन्तु पेशाब आना कुछ देर बाद शुरु होता और समाप्त होने की अनुभूति होने के देर बाद तक आता रहता। अब सब कुछ सहज, सामान्य और प्राकृतिक स्थिति जैसा हो गया है। अभी, 13 जुलाई को मैं फिर बड़ौदा जाकर लौटा हूँ। यूरोफ्लोमीटरी के जरिए मेरे  मूत्र-प्रवाह की गति आदि की जाँच हुई है। सब कुछ सामान्य है। कामतजी के मुताबिक अब मुझे उनके पास किसी जाँच के लिए नहीं जाना है।

इस अक्टूबर में अपने जीवन के पचास वर्ष पूरे करनेवाले कामतजी लगभग इक्कीस वर्षों से इस पेशे में हैं। जैसा कि मैंने शुरु में ही बताया है, भारत में गए दस बरसों में इस तरह के लगभग तीन हजार ऑपरेशन हुए हैं। मैं इनमें से एक हूँ। कामतजी ने यूरोथ्रोप्लास्टी का पहला ऑपरेशन कोई आठ-नौ बरस पहले किया था। मैं उनका सम्भवतः ‘शतकीय मरीज’ हूँ। बड़ौदा में अकोटा इलाके में 21, विनायक सोसोयटी पर, एसएनडीटी कॉलेज के सामने, अकोटा स्टेडियम के पीछे, ‘कामत किडनी एण्ड आई हास्पिटल’ नाम से उनका अपना अस्पताल है। उनकी उत्तमार्द्ध श्रीमती प्रीती कामत प्रख्यात, कुशल नेत्र चिकित्सक हैं। अस्पताल का फोन नम्बर  (0265) 2322463, मोबाइल नम्बर 9558819868 तथा ई-मेल पता:kamatkeh@gmail.com  है।

यह मेरा अपना अनुभव है। इतनी गुंजाइश रखी जानी चाहिए कि मेरा अनुभव दूसरों के अनुभव से अलग भी हो सकता है।
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यहाँ दिया गया मेरा चित्र, मेरे ऊपरी होठ के अन्दर की चमड़ी निकालने के बाद, मेरी स्थिति बता रहा है। पोस्ट पर, चित्र के नीचे केप्शन देना मैं अब तक नहीं सीख पाया। 

कानून अपना काम नहीं करेगा

समान नागरिक संहिता इन दिनों चर्चाओं में है। मैं अपने जीवन के सत्तरवें बरस में चल रहा हूँ। ढंग-ढांग की गृहस्थी और ठीक-ठीक स्तर का परिचय, सम्पर्क और लोक-व्यवहार है मेरा। लोगों के सुख-दुःख के प्रसंगों में शरीक होता हूँ और लोग मेरे सुख-दुःख में। लेकिन इस सबमें और अपना सामान्य जीवन जीने में यह समान नागरिक संहिता अब तक न तो जरूरी अनुभव हुई और न ही कभी, कहीं आड़े आई। सब कुछ निर्विघ्न, निर्बाध सम्पन्न होता रहा है। भावोत्तेजित करनेवाला यह विषय हमारे दैनिक जीवन और वैयक्तिकता को शायद ही छूता, प्रभावित करता हो। पहली नजर में मुझे यह विषय सीधे-सीधे वोट से जुड़ा होने के कारण महत्वपूर्ण होता लगता है। हमारे राजनीतिक दलों, राजनेताओं और उनके समर्थकों के लिए यह अवश्य ही उत्प्रेरक या फिर कभी-कभार प्राण-वायु बनता रहता है।
अपने अनुभव के आधार पर मेरी धारण बनी हुई है कि समानता सदैव ही आचरण की विषय वस्तु होती है। कानून या सम्वैधानिक प्रावधान बनाना शायद बहुत ही आसान हो। लेकिन यदि उन कानूनों, प्रावधानों पर ईमानदारी से अमल न हो तो वे हास्याास्पद होकर अपना महत्व और अर्थ खो देते हैं।

गए दिनों मैं इन्दौर में था। 29 जून के अखबारों में छपी एक खबर ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। वहाँ, कुछ दुकानों की मौजूदा स्थिति को निगम प्रशासन ने अनुचित माना और उन्हें सील कर दिया। खबर से अनुमान लगा कि अधिकांश (हो सकता है, सारी) दुकानें मौजूदा सत्ताधारी दल भाजपा से जुड़े लोगों के कब्जे में हैं। वहाँ की एक विधायक ने निगम प्रशासन की इस कार्रवाई को अनुचित माना और (अखबारी खबर के अनुसार) रात आठ बजे, नगर निगम की जनकार्य समिति के प्रभारी के घर ‘धरना’ दे दिया। निगम प्रशासन की कार्रवाई को ‘बगैर जाँच की गई’ बताने के साथ-साथ उनके दो सवाल थे- निगम अफसर क्या ‘अपने ही लोगों को’ टारगेट कर रहे हैं? और हमें राजनीति करने दोगे या नहीं? अखबार के मुताबिक,  ‘सोशल मीडिया पर जमकर मेसेज चला कि पूर्व महापौर कृष्णमुरारी मोघे और भाजपा नेता गोपीकृष्ण नेमा ने निगम अफसरों पर लगाम कसने की बात करते हुए उन्होंने यह बात दोहराई कि निरंकुश अफसरों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। केन्द्र और राज्य में हमारी सरकार है।’

ऐसी बातें केवल भाजपाई नहीं कहते। सत्ता के मद में प्रायः सभी दलों के लोग ऐसी बातें करते हैं-कोई कम तो कोई ज्यादा, कोई खुलकर तो कोई लोकलाज का ध्यान रखकर बन्द कमरों में।

इस उदाहरण में निगम प्रशासन की कार्रवाई पर नियमों/कानूनों के आधार/औचित्य के परिप्रेक्ष्य में आपत्ति नहीं उठाई गई। ऐतराज इस बात पर था कि ‘अपने ही लोगों पर’ कार्रवाई की जा रही है जबकि ‘केन्द्र और राज्य में हमारी सरकारें हैं।’

यहीं आकर नियम और वैधानिक प्रावधान अपना अर्थ और महत्व खो देते हैं। अपराध का निर्धारण जब ‘अपना-पराया’ के आधार पर होने लगता है तो सारे कानून बलात्कृत दशा में आ जाते हैं। जब भी किसी प्रभावी व्यक्ति पर कानूनी शिकंजा कसता है तो तमाम नेता एक ही बात कहते हैं - ‘कानून अपना काम करेगा।’ लेकिन बेचारा कानून काम करे तो कैसे? वह काम करे उससे पहले ही उसे मनमाफिक हाँकने की जुगत शुरु हो जाती है।

कानून काम कैसे करता है और पदों पर बैठे लोग कैसे उसका लिहाज पालते, कैसे उसका आदर करते हैं, इसके कुछ किस्से मुझे बरबस ही याद आ गए। 

1998-99 में मनोज झालानी रतलाम के कलेक्टर थे। रतलाम को सूरत की तरह साफ-सुथरा बनाने की भावना से उन्होंने, रतलाम के कुछ जनप्रतिनिधियों, गण्यमान्य नागरिकों और प्रबुद्ध लोगों को सूरत भेजा था ताकि वे वहाँ की व्यवस्थाएँ देख कर उन्हें रतलाम में लागू कर, रतलाम को वैसा ही साफ-सुथरा बनाने की सम्भावनाओं पर विचार करने के लिए सुझाव दे सकें। नारायण पाटीदार तब रतलाम के एसडीएम थे। सूरत जानेवाले लोगों में उन्होंने मेरा नाम भी शरीक करवाया था।

सूरत नगर निगम पर भाजपा काबिज थीा वहाँ की व्यवस्थाएँ सचमुच में अविश्वसनीय थीं। वहाँ, सड़कपर थूकने पर आर्थिक दण्ड का प्रावधान था। नियमों/कानूनों का पालन कराने में वहाँ समान-भाव बरता जा रहा था। व्यवस्थाओं और कानूनों/नियमों के  क्रियान्वयन को समझने के लिए सूरत नगर निगम की स्थायी समिति के अध्यक्ष नटू भाई (मुझे यही नाम याद आ रहा है) से हमारी बात हुई। मैंने सवाल किया - ‘आप तो राजनीतिक व्यक्ति हैं। आपको वोटों की चिन्ता करनी पड़ती है। जुर्माने से बचने की सिफारिश केे लिए आपके पास तो प्रतिदिन पचासों लोग आते होंगे। आप उनसे कैसे निपटते हैं?’ नटू भाई ने बताया कि शुरु-शुरु में उनका पूरा दिन ही ऐसे मामलों का सामना करने में बीता जाता था। अधिसंख्य लोग उनके कार्यकर्ता होते थे। लेकिन वे एक भी मामले में सिफारिश नहीं करते थे। प्रत्येक से कहते कि वह जुर्माने की रकम उनसे (नटू भाई से) ले ले और जमा कर दे। रकम एक ने भी नहीं ली। प्रत्येक ने जुर्माना चुकाया।

1969 से 1972 के बीच सुश्री विमला वर्मा मध्य प्रदेश की स्वास्थ्य मन्त्री थीं और दादा (श्री बालकवि बैरागी) सूचना-प्रकाशन राज्य मन्त्री। दादा के एक  कार्यकर्ता अपने एक साथी के साथ अलसुबह भोपाल पहुँचे। साथी का बेटा पीएमटी में फेल हो गया था। उसे पास कराने का काम लेकर। दादा ने कहा कि वे तो कुछ जानते-समझते नहीं। हाँ, उन कार्यकर्ता और उनके साथी की भेंट विमलाजी से करवा देते हैं। जो भी कहना-सुनना हो, कह-सुन लें। ऐसा ही हुआ। सुन कर विमलाजी ने अपनी बहन को (जो उनके साथ ही रहती थीं) आवाज लगाई और कहा कि वे उनकी बेटी (याने, विमलाजी की भानजी) की, पीएमटी की अंक सूची लेकर आए। उन्होंने अंक सूची, दादा को और दादा ने कार्यकर्ता को थमा दी। कार्यकर्ता ने साथी को दिखाई। दोनों ने मानो एक साथ कहा - ‘चलो! अब क्या कहना-सुनना!’ विमलाजी की सगी भानजी पीएमटी में फेल हो गई थी।

यह घटना रतलाम के राजा सज्जनसिंहजी के शासन काल 1893 से 1947 के बीच की। रियासत के एक प्रमुख अधिकारी श्रीनिवासजी राय को कुछ लोगों ने षड़यन्त्रपूर्वक एक आर्थिक घपले में फँसा दिया। मामला रियासत की कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश श्री शिवशक्ति राय के सामने पेश हुआ। श्रीनिवासजी राय पिता और श्री शिवशक्ति राय पुत्र। पूरी रियासत में सनसनी और उत्सुकता। खुद राजा सज्जनसिंहजी की नजर पूरे मामले पर। बचाव पक्ष के वकील, श्रीनिवासजी को निर्दोष साबित करने में विफल रहे। मुख्य न्यायाधीश ने दोषी (पिता) को छह मास का कारावास और पाँच सौ रुपयों के जुर्माने की सजा सुनाई। अदालत में सन्नाटा खिंच गया। 

निर्णय सुनाकर शिवशक्तिजी कुर्सी से उठे। पिता के पास आए। उनके पाँवों में माथा टेककर, धार-धार रोते हुए बार-बार क्षमा माँगी और पहले से ही लिखा हुआ त्याग-पत्र जेब से निकाल कर राजा सज्जनसिंहजी को पहुँचा दिया। इधर पिता परम प्रसन्न। गर्वित। बेटे ने न्याय की रक्षा की और पद की गरिमा कायम रखी। उन्होंने बेटे को बाँहों में भर, गले लगा लिया।

यह अलग बात रही कि श्रीनिवासजी को सजा नहीं भुगतनी पड़ी। राजा सज्जनसिंह समानान्तर रुप से सारे मामले की जाँच करवा रहे थे। उन्हें पहले ही पता चल चुका था कि श्रीनिवासजी को फँसाया गया है। वे निर्दोष हैं। उन्होंने अपने विशेषाधिकार प्रयुक्त करते हुए सजा रद्द कर दी और शिवशक्तिजी को अपने दरबार में सर्वोच्च स्थान देकर सम्मानित किया।

दरअसल, कानून बनाना जितना आसान है, उसकी और उसके मान की रक्षा करना उतना ही कठिन होता है। उसके लिए खुद को दाँव पर लगाना होता है, अपनी कथनी-और करनी में समानता बरतने का प्राणलेवा संघर्ष खुद से पल-प्रति-पल करते रहना होता है।

जाहिर है, कठिन काम करना, खुद से संघर्षरत रहना हमें रास नहीं आता। सो, हम आसान काम करते हैं। किए जा रहे हैं। ऐसा करके हम खुश भी होते हैं। लेकिन हकीकत में हम लोकतन्त्र को निर्बल ही नहीं, विफल भी कर रहे होते हैं और गुनाह बेलज्जत करते हुए कहते हैं - कानून अपना काम करेगा।
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दोनों कतरनें दैनिक नईदुनिया (नगर संस्‍करण) 29 जून 2016 पृष्‍ठ 02

लोकतन्‍त्र का समीकरण : दोनों हाथ साथ ही धुलते हैं

1965  का भारत-पाकिस्तान युद्ध कोई नहीं भूल सकता। न हम, न पाकिस्तान। उस समय शास्‍त्रीजी  प्रधान मन्त्री थे। अनेक प्रतिकूलताओं और अभावों के बीच भारतीय सेना ने वह युद्ध जीता था। सेना और भारतीय जन मानस को यह जीत समर्पित करते हुए शास्त्रीजी ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। तब हम खाद्यान्न के मामले में आत्म-निर्भर नहीं थे। अमरीका का मुँह देखते थे। अमरीका पाकिस्तान के साथ था। उसने खाद्यान्न आपूर्ति रोकने की धमकी दी। इससे निपटने के लिए शास्त्रीजी ने देश के लोगों से मदद माँगी और प्रति सोमवार (एक समय भोजन करने का) व्रत लेने का आह्वान किया। व्रत की शुरुआत शास्त्रीजी ने खुद से की। शास्त्रीजी के इस आह्वान को पूरे देश ने सर-माथे लगा कर स्वीकार किया। जन-जन की भागीदारी से किसी राष्ट्रीय संकट का सामना करने का यह अनूठा उदाहरण था। पचास बरस से अधिक के बाद, आज भी अनेक लोग ‘शास्त्री सोमवार’ करते मिल जाएँगे।   

यही युद्ध जीतने के बाद शास्त्रीजी को, पाकिस्तान से वार्ता के लिए ताशकन्द जाना था। तैयारी करते हुए अपने कपड़ों में उन्हें एक फटी धोती रखते देख परिजनों और परिचारकों ने टोका और दूसरी ‘ढंग-ढांग’ की धोती रखने की सलाह दी। शास्त्रीजी ने कहा कि देश के अनगिनत लोग फटी धोती पहन रहे हैं और उनसे भी अधिक लोगों के पास तो पहनने के लिए पूरे कपड़े ही नहीं हैं। ऐसे में वे भला ‘ढंग-ढांग’ की धोती के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं? वे वही फटी धोती लेकर गए। 

इससे पहले, नेहरूजी के समय केन्द्रीय मन्त्री होते हुए भी शास्त्रीजी रेल के साधारण डिब्बे में सफर किया करते थे। सफर के दौरान वे सरकार के और अपने विभाग के बारे में लोगों की राय जानते रहते थे। कोई निजी सचिव या सरकारी अमला साथ में नहीं होता। लोगों की शिकायतें/समस्याएँ/सुझाव, उनके नाम-पते खुद ही लिखते थे और दिल्ली पहुँच कर जो कार्रवाई करते, उसकी जानकारी सम्बन्धितों को पत्र के जरिए देते थे। वे अपनी बात नहीं कहते थे, कोई उपदेश नहीं देते थे, लोगों से आग्रह, अपेक्षा नहीं जताते थे। खुद चुप रहते और लोगों की बात सुनते थे।

लोगों से जुड़ाव के मामले में गाँधी आज तक ‘अनुपम और इकलौते’ बने हुए हैं। उनके तमाम चित्रों में वे ‘अधनंगे’ ही नजर आते हैं-कमर से ऊपर निर्वस्त्र और घुटनों तक की धोती पहने हुए। अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहने से, भारत को जानने के लिए वे जब देशाटन पर निकले थे तो पारम्परिक काठियावाड़ी पोषाख (माथे पर खूब मोटा पग्‍गड, घेरदार अंगरखा और धरती छूती धोती) पहने हुए थे। लेकिन यात्रा के दौरान ही वे ‘अधनंगे’ हो गए। दक्षिण भारत के एक गाँव में उन्हें मालूम हुआ कि एक परिवार में तीन महिलाएँ हैं लेकिन वे तीनों चाहकर भी गाँधीजी की प्रार्थना सभा में एक साथ नहीं आ पा रहीं। पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उन तीनों के बीच एक ही साड़ी है जिसे वे बारी-बारी से पहनती हैं। सुनकर गाँधीजी ने उसी दिन से पूरे कपड़े पहनना बन्द कर दिया। एक, अधूरी धोती को अपनी पोषाख बना लिया और आजीवन इसी स्वरूप में बने रहे।

उसी समय-काल में भारत ने विनोबा नामक एक और ‘लोक पुरुष’ को देखा। वे सम्भवतः अब तक के एकमात्र भारतीय होंगे जिन्होंने पूरे भारत को अपने पाँवों नापा। उनके कहने पर देश के अनेक भूमिपतियों, जागीरदारों, जमीदारों ने अपनी हजारों एकड़ जमीन विनोबा के ‘भूदान यज्ञ’ की समिधा बना दी।

सन् 1954 की इस घटना का तो मैं खुद साक्षी हूँ। उस समय मेरी उम्र आठ साल भी नहीं थी। गाँधी सागर बाँध का शिलान्यास करने के लिए जाते समय जवाहरलालजी की एक आम सभा मेरे गाँव मनासा के ऊषागंज में हुई थी। वे क्या बोले, न तो उस समय समझ थी न इस समय याद है। बस! इतना याद है कि बहुत ऊँचा मंच बना था और काँटेदार तारों की बागड़ जैसी घेराबन्दी कर लोगों के बैठने की जगह बनाई गई थी। लेकिन भाषण देते-देते जवाहरलालजी अचानक ही तेजी से उतरे और काँटेदार तारोेंवाले दो खम्भों को उखाड़ फेंका। उनकी शेरवानी फट गई। पुलिसवाले और दूसरे लोगों ने दौड़कर उन्हें पकड़ा और कार में बैठाया। बाद मालूम हुआ कि वे काँटेदार तार देख कर गुस्सा हुए थे। कह रहे थे कि उनके और उनके लोगों के बीच ऐसे काँटेदार लगाने की बेवकूफी और जुर्रत किसने, कैसे, क्यों की। 

ये सब वे लोग थे जिनके पीछे देश के लोग खुद को, अपना सब कुछ भूल कर चल देते थे। इनके कहे को सर-माथे चढ़ाते थे। लोगों को भरोसा था कि ये लोग खुद के लिए नहीं, देश और लोगों के भले के लिए निस्वार्थ भाव से जी रहे हैं।

लेकिन इन सब बातों का आज क्या मतलब? क्या सन्दर्भ? दरअसल एक समाचार पढ़कर ये सारी बातें एक के बाद एक याद आ गईं। समाचार था कि देश में दालों की कमी दूर करने के लिए हमारी सरकार अफ्रीकी देश मोजाम्बिक से सम्पर्क कर रही है। एक अखबार ने तो वहाँ कुछ जमीन लीज पर लेने की बात भी कही। यही समाचार पढ़कर ये सब बातें याद आ गईं। कल तक अमरीकी लाल गेहूँ के लिए झोली फैलानेवाले हम वह देश हैं जिसने पहले हरित क्रान्ति का और बाद में श्वेत क्रान्ति का अजूबा कर दिखाया। लेकिन हमारे नेताओं की पुण्याई इतनी भी नहीं रह गई कि ऐसे संकट के समय वे लोगों से ‘त्याग’ करने का आग्रह कर सकें? निश्चय ही केवल इसलिए कि इसके लिए जो नैतिक साहस और आचरणगत शुचिता चाहिए होती है, वह हमारे नेताओं में दूर-दूर तक नजर नहीं आती। रक्षा मन्त्री मनोहर पर्रीकर ने एक समय भोजन करने का विचार दिया भी तो इतनी अगम्भीरता, इतनी आत्मविश्वासहीनता से कि वह समाचार माध्यमों में यथेष्ट जगह ही नहीं पा सका। कारण? हमारे नेता अपनी असलियत खूब अच्छी तरह जानते हैं। अपनी अपील पर एक करोड़ लोगों द्वारा गैस सबसिडी छोड़ने का उल्लेख हमारे प्रधानमन्त्री जब अपनी उपलब्धि की तरह करते हैं तो मुझे ताज्जुब होता है। इससे कई गुना अधिक तो उनकी पार्टी की सदस्य संख्या होने का दावा किया जाता है!

यह दरिद्रता भला क्यों कर आ गई? देश के तमाम दलों के तमाम नेताओं की यह दशा क्यों कर हो गई? नेता तो ‘वे’ भी थे और नेता तो ‘ये’ भी हैं? टैक्स तो ‘वे’ भी लेते थे और ‘ये’ भी ले रहे हैं? उनकी बात सब क्यों मानते थे और आज के नेताओं की क्यों नहीं? निश्चय ही इसलिए कि  ‘उन्होंने’ कभी भी खुद को राजा या शासक नहीं माना। किलों-महलों में कैद होकर नहीं बैठे रहे। ‘वे’ खुद चल कर सड़कों, पगडण्डियों पर आए, लोगों से मिले, उनके जैसे बने, धूल-मिट्टी में सने। उन्होंने दुहाइयाँ नहीं दीं, अपना किया नहीं गिनवाया, सदैव इसी संकोच में रहे कि वे जितना कुछ कर सकते थे, उतना नहीं कर पाए। उन्होंने कभी भी अपने ‘पूर्ण’ होने की गर्वोक्तियाँ नहीं की, सदैव खुद को अपूर्ण ही माना। वे अपनी हाँक कर, अपनी कह कर नहीं रह गए। उन्होंने अपनी या तो कही ही नहीं और कही तो बहुत कम। लोगों की अधिक सुनी-समझी-गुनी।

पूँजी को मिल रही निर्लज्ज, अशोभनीय और आपराधिक प्रमुखता के बावजूद यह देश भले और भोले लोगों का देश है। लोग सुनते भी हैं और मानते भी हैं। लेकिन भले और भोले होने का अर्थ मूर्ख होना कभी नहीं होता। वे उसी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हैं जो अपना ‘स्व’ उनमें विसर्जित कर दे। मालवी की कहावत है - ‘राख पत तो रखा पत।’ तुम मेरा मान रखो, मैं तुम्हारा मान रखूँ। दोनों हाथ साथ ही धुलते हैं। लोग तभी सुनते हैं, जब लोगों की सुनी जाए। लोकतन्त्र का समीकरण बहुत ही सीधा -सपाट, सहज-सरल है: लोगों के मन की सुनो, मानो और अपने मन की सुनाओ, मनवाओ।
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