हिन्दी को मिल गई पहली अन्तरराष्ट्रीय मान्यता
रोटरी क्लब की 'कौंसिल ऑफ लेजिस्लेशन ऑफ रोटरी इण्टरनेशनल' ने गत दिनों शिकागो (अमेरीका) में हुई अपनी बैठक में, हिन्दी को अपनी आधिकारिक भाषा बनाए जाने के प्रस्ताव को सर्वानुमति से स्वीकार कर लिया है । प्रति तीन वर्षों में होने वाली इस बैठक में, दुनिया के 206 देशों में कार्यरत 531 रोटरी मण्डलों में से 526 रोटरी मण्डलों के प्रतिनिधि उपस्थित थे और सबने एक मत से इस प्रस्ताव को हरी झण्डी दी । इन 526 मण्डलों में, भारत के दक्षिण प्रान्तों वाले रोटरी मण्डल भी शरीक थे ।
हिन्दी को यह दर्जा दिलाने के लिए, भारत में कार्यरत रोटरी क्लबों ने कोई 30 वर्षों से यह अभियान चला रखा था जिसे अब जाकर कामयाबी मिल पाई । इस बार यह प्रस्ताव, मध्य प्रदेश के देवास जिले के सोनकच्छ में कार्यरत रोटरी क्लब की ओर से रोटरी मण्डल 3040 के पूर्व प्रान्तपाल श्री अजीत जैन (इन्दौर) ने जनवरी 2005 में, रोटरी अन्तरराष्ट्रीय के समक्ष प्रस्तुत किया था । रोटरी अन्तरराष्ट्रीय ने, अप्रेल 2007 में, अपनी 'कौंसिल आफ लेजिस्लेशन ऑफ रोटरी इण्टरनेशनल' की कार्यसूची में इस प्रस्ताव को क्रमांक 07-213 पर सूचीबध्द किया था ।
इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिए जाने के बाद अब रोटरी क्लब के, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले, साधारण सदस्यों वाले खुले अधिवेशनों, प्रशिक्षण सेमीनारों, निर्वाचित प्रतिनिधियों की असेम्बलियों, आधिकारिक आयोजनों आदि में वितरित किया जाने वाला समस्त साहित्य हिन्दी में भी उपलब्ध कराया जाएगा और हिन्दी अनुवादकों की व्यवस्था की जाएगी ।
रोटरी का साहित्य हिन्दी में तैयार करने तथा इस प्रस्ताव को जल्दी से जल्दी क्रियान्वित कराने की जिम्मेदारी 'रोटरी न्यूज ट्रस्ट' के माध्यम से 'रोटरी इण्डिया' को सौंपी गई है । यह ट्रस्ट इस समय चेन्नई में कार्यरत है तथा रोटरी सदस्यों के लिए 'रोटरी न्यूज' (अंग्रेजी) तथा 'रोटरी समाचार' (हिन्दी) मासिक पत्रिकाएं प्रकाशित कर रहा है । यह जिम्मेदारी निभाने के लिए 'रोटरी न्यूज ट्रस्ट', चेन्नई से अपनी गतिविधियां समेट कर दिल्ली में हिन्दी का अन्तरराष्ट्रीय सचिवालय प्रारम्भ करेगा जिसके लिए 1 लाख्ा अमेरीकी डालर (लगभग 42 लाख रूपयों) की व्यवस्था 'रोटरी इण्डिया' खुद करेगा । अभी छप रही दोनों मासिक पत्रिकाओं की सारी तैयारी भी दिल्ली में ही होगी लेकिन उनकी छपाई चेन्नई में ही होगी ।
इस सारे मामले में कुछ बातें उल्लेखनीय हैं ।
पहली बात तो यह कि रोटरी मण्डल 3040 के वर्ष 2006-2007 के लिए प्रान्तपाल बने, रतलाम निवासी श्री अशोक तांतेड ने इस प्रस्ताव को अपने कार्यकाल के प्रमुख लक्ष्यों में शामिल कर अपने पूरे कार्यकाल में इस अभियान को अपनी पूरी चिन्ता, सजगता, सतर्कता से 'फालो-अप' दिया । इसके लिए उन्होंने पूरे देश के रोटरी प्रान्तपालों से जीवन्त सम्पर्क बनाए रखा और असहमति की प्रत्येक आशंका को निर्मूल करने के लिए सबकी जिज्ञासाओं का समाधान कर, वातावरण को प्रस्ताव के पक्ष में बनाए रखा । श्री तांतेड की अभिलाषा थी कि यह प्रस्ताव उनके कार्यकाल में ही स्वीकार कर लिया जाए । श्री तांतेड को इस बात की परम प्रसन्नता और आत्मीय सन्तोष है कि ईश्वर ने उनकी यह मनोकामना पूरी की । यदि श्री तांतेड तनिक भी असावधान हो जाते या थोडे से भी चूक जाते तो मुमकिन है कि हिन्दी को अगले तीन वर्षों तक फिर प्रतीक्षा करनी पड जाती । श्री तांतेड ने इस मामले में वैसी ही चिन्ता और भागदौड बरती जैसी कि किसी जवान बेटी का पिता उसके लिए योग्य वर की तलाश में बरतता है । निस्सन्देह श्री तांतेड इस ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए पूरे देश से अभिनन्दन और सम्मान के अधिकारी बन गए हैं । हिन्दी के लिए तनिक भी वेदना रखने वाले प्रत्येक भारतीय से मेरा अनुरोध है कि वह श्री तांतेड को एक बार धन्यवाद अवश्य दे । श्री तांतेड का ई-मेल पता ashoktanted@yahoo.com, उनका मोबाइल नम्बर 94251 95187 (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ से बाहर के सज्जन इस नम्बर से पहले '0' अवश्य लगाएं) तथा उनके निवास का नम्बर (07412) 239712 है ।
दूसरी बात यह कि हिन्दी को यह अन्तरराष्ट्रीय स्वीकृती नितान्त अराजनीतिक प्रयत्नों से, वह भी एक सेवा संगठन के माध्यम से मिली है । हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने के लिए आन्दोलनरत लोग इस तथ्य को 'दिशा सूचक' के रूप में ले सकते हैं ।
और तीसरी तथा सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यह प्रस्ताव सर्वानुमति से स्वीक़त हुआ है । याने, दक्षिण भारत के समस्त रोटरी प्रान्ताध्यक्षों ने भी इसका समर्थन किया है । यह तथ्य इसलिए महत्वपूर्ण तथा ध्यानाकर्षक है कि हिन्दी का विरोध सबसे ज्यादा और सबसे पहले दक्षिण से ही होता है । लेकिन रोटरी अन्तरराष्ट्रीय के मंच पर दक्षिण भारत की एक भी आवाज इसके खिलाफ नहीं उठी । इस प्रकरण ने यह साबित कर दिया है कि दक्षिण भारत का जन मानस हिन्दी का विरोध नहीं करता, केवल अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए ही कुछ राजनीतिक दल यह आपराधिक दुष्कृत्य कर रहे हैं । हिन्दी का विरोध करने वाले राजनेताओं के सामने, रोटरी अन्तरराष्ट्रीय के इस प्रकरण को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर उनकी बोलती बन्द की जा सकती है ।
हिन्दी को यह अन्तरराष्ट्रीय स्वीक़ृती हम सबको मुबारक हो ।
बधाइयां । अभिनन्दन ।
तू चन्दा मैं चांदनी : विस्तार (2)
फिल्मों में गीत लिखने के सिलसिले में दादा साठ के दशक में कुछ अरसा मुम्बई में रह चुके थे । तब उन्होंने श्री मुबारक मर्चेण्ट के यहां मुकाम जमाया था । ये मुबारकजी वे ही थे जिन्होंने फिल्म 'अनारकली' में अकबर की भूमिका निभाई थी और जो बाद में स्थापित चरित्र अभिनेता के रूप में पहचाने गए । दुर्गा खोटे की आत्मकथा 'मी दुर्गा' में मुबारकजी का सन्दर्भ अत्यन्त भावुकता से आया है । मुबारकजी मूलत: तारापुर के रहने वाले थे । यह तारापुर, महाराष्ट्र वाला नहीं बल्कि मालवा वाला तारापुर है जो इस समय नीमच जिले की जावद तहसील का हिस्सा है । इस तारापुर की रंगाई और इसकी छींटें (प्रिण्ट्स) विश्व प्रसिध्द है जिन्हें 'तारापुर प्रिण्ट्स' के नाम से जाना जाता है । इन छींटों की रंगाई के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले प्राकृतिक रंग खूब गहरे/गाढे होते हैं जो सैंकडों धुलाइयों के बाद भी फीके नहीं पडते । तारापुर के रंगरेजों की पीढियां बीत गई हैं लेकिन कोई भी यह बताने की स्थिति में नहीं है नहीं कि रंगों के कडाहों में पहली बार रंग किसने डाला था । इन कडाहों को पूरा खाली होते किसी ने नहीं देखा । अपने से पहली वाली पीढी से प्राप्त, इन रंग भरे कडाहों को अपने से आगे वाली पीढी को सौंपने का क्रम आज भी बना हुआ है । तारापुर के रंगरेज अपनी इस परम्परा का सगर्व बखान करने का कोई अवसर नहीं चूकते । इन रंगरेजों को 'छीपा' जाति के नाम से पहचाना जाता है और इस जाति में दोनों सम्प्रदायों (हिन्दू और मुसलमान) के लोग हैं । सच बात तो यह है कि तारापुर की यह छपाई अपने आप में अध्ययन और लेखन का स्वतन्त्र/वृहद् विषय है ।
फिल्मी दुनिया में मुबारकजी को किस सम्बोधन से पुकारा जाता था यह मुझे नहीं पता क्यों कि उनके रहते मैं कभी मुम्बई नहीं गया । हम लोगों ने उनका जिक्र सदैव ही दादा से सुना और दादा उन्हें 'चाचाजी' कहते थे । सो, वे हम सबके चाचाजी थे । मुम्बई जाकर भी चाचाजी ने तारापुर को अपने मन में बराबर बसाए/बनाए रखा । वे मालवी न केवल फर्राटे से बालते थे बल्कि मालवी बोलने के मौके खुद पैदा करते थे । दादा के आग्रह पर वे एक बार मनासा आए थे और हमारे परिवार के साथ कुछ दिन रहे थे । उन्हें मनासा के, लोक निर्माण विभाग के डाक बंगले में ठहराया गया था । वे शिकार के शौकीन थे । दादा के कुछ मित्रों ने उनके लिए शिकार खेलने की व्यवस्था की थी । जिज्ञासा भाव से मैं भी उस शिकार में शरीक हुआ था । कंजार्डा पठार के जंगलों में, चाचाजी के साथ, शिकारी जीप में की गई वह यात्रा मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा । प्रत्येक क्षण मुझे लगता रहा कि यह जीप या तो कहीं टकरा जाएगी या फिर उलट जाएगी और हम लोगों के शव ही घर पहुंचेंगे । लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । काफी भाग दौड के बाद उन्होंने अन्तत:, बारहसिंघे की प्रजाति के जानवर एक 'जरख' को उन्होंने मार गिराया था । लेकिन इससे पहले, जब काफी देर तक कोई शिकार नहीं मिला और एक खरगोश सामने आया तो शिकार आयोजित करने वाले मेजबानों ने चाचाजी को सलाह दी कि वे खरगोश का शिकार कर लें । उन्होंने फौरन ही इंकार कर दिया । मेरे लिए यह 'विचित्र किन्तु सत्य' जैसी स्थिति थी । अंधरे की अभ्यस्त हो चुकी आंखों से , मैं ने चाचाजी का चेहरा देखा तो वहां शिकारी की क्रूरता और हिंसा कहीं नहीं थी । जीप की हेड लाइट की तेज रोशनी में खरगोश की शरबती आंखें चमक रही थीं और चाचाजी के चेहरे पर मानों मक्खन का हिमालय उग आया था । वे खरगोश को ऐसे देख रहे थे मानों खुदा की सबसे बडी नेमत उनके सामने मौजूद हो । उन्होंने कहा था - 'कैसी बातें करते हैं आप ? इतना खूबसूरत और मुलायम जानवर तो प्यार करने के लिए है, मारने के लिए नहीं ।' उस समय वे 'सोमदत्त' के भेस में थे और उनका व्यवहार 'सिध्दार्थ' जैसा था । कंजार्डा पठार के घने जंगलों में, उस गहरी, अंधरी रात में मैं ने एक कलाकार का जो स्वरूप देखा, वह मेरे लिए जीवन निधी से कम नहीं है ।
चाचाजी नियमित सुरा-सेवी थे । मनासा तब मुश्किल से नौ-दस हजार की आबादी वाला कस्बा था । आबादी में माहेश्वरियों और श्वेताम्बर/दिगम्बर जैनियों प्रभुत्व तथा प्रभाव । माहेश्वरियों ने तो उस गांव को बसाने में भागीदारी की । सो, सकल वातावरण 'सात्विक' । देसी शराब का ठेका जरूर वहां था लेकिन 'अंग्रेजी शराब' की तो बस बातें ही होती थीं । ऐसे में एक शाम, जब डाक बंगले मैं अकेला उनके पास था, उन्होंने अचानक ही शराब की फरमाइश की । मैं अचकचा गया । शराब का नाम मैं ने तब तक सुना जरूर था लेकिन शराब देखी नहीं थी । शराब का ठेका भी मैं ने देखा जरूर था लेकिन वह 'स्थायी वर्जित प्रदेश' था । मैं घबरा गया । समझ नहीं पाया और तय नहीं कर पा रहा था कि क्या करूं और चाचाजी को क्या जवाब दूं । तब तक चाचाजी ने फरमाईश दुहरा दी । शराब ला पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था और डाक बंगले पर रूक पाना उससे भी अधिक कठिन हो गया था । मैं वहां से चला तो मेरे कानों में सीटियां बज रही थीं और आंखें कुछ भी देख पाने में मदद नहीं कर रही थीं । एक प्रतिष्ठित कवि का छोटा भाई और 'बैरागी-साधु' जाति के महन्त का बेटा, छोटी सी बस्ती में, जहां सब उसे खूब अच्छी तरह जानते-पहचानते हों, दारू लाने के लिए दारू के ठेके पर जा रहा था । मुझे लग रहा था मानों बस्ती के लोग तो लोग, सडक पर विचर रहे ढोर-डंगर भी मुझे कौतूहल से देख रहे हैं और धिक्कार रहे हैं । लेकिन मेरा भाग्य शायद साथ दे रहा था । मैं डाक बंगले से सौ-डेड सौ कदम ही चला होऊंगा कि मैं ने देखा कि सामने से मोहम्मद साहब चले आ रहे हैं । मोहम्मद साहब के पिताजी और मेरे पिताजी गहरे मित्र थे और उनसे हमारा पारिवारिक व्यवहार था । मोहम्मद साहब खुद दादा के अच्छे मित्र थे और चाचाजी के शिकार की व्यवस्थाएं करने में वे अग्रणी थे । लेकिन उस क्षण की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि वे आबकारी विभाग में कांस्टेबल के पद पर मनासा में ही पदस्थ थे । मेरी शकल की इबारत उन्होंने मानो उन्होंने पढ ली । मेरी बात सुन कर वे खूब हंसे और मुझे डाक बंगले वापस भेजा । बाद में, जब वे देसी दारू की बोतल लेकर चाचाजी के पास आए तो मेरी दशा का बखान कर, खूब मजे लिए ।
इन्हीं चाचाजी ने मुम्बई में दादा को अपने पास रखा । दादा तब तक हालांकि 'बालकवि' के रूप में स्थापित हो चुके थे लेकिन अन्तरंग स्तर पर वे अपने मूल नाम 'नन्दराम दास' से ही सम्बोधन पाते थे । चाचाजी दादा को 'नन्दू' कह कर पुकारते थे । मुम्बई में दादा के संघर्ष गाथा की जानकारी मुझे बिलकुल ही नहीं रही । लेकिन वे वहां इतने समय तक रहे कि पिताजी, दादा की सफलता की प्रतीक्षा नहीं कर सके और एक दिन मुम्बई जाकर, चाचाजी से उनके 'नन्दू' और अपने 'नन्दा' को मनासा लिवा लाए ।
मनासा लौटने के बाद भी मुम्बई से दादा का सम्पर्क बना रहा । तब तक दादा को कवि सम्मेलनों के न्यौते मिलने लगे थे और वे मंच लूटने के लिए पहचाने जाने लगे थे । उनकी मालवी रचना 'पनिहारी' लोगों के दिलों पर तब से ही राज करने लगी थी । उन्हें 'मालवी का राजकुमार' कहा जाने लगा था । इसी क्रम में उनका सम्पर्क बालाघाट के अग्रिणी खनिज व्यवसायी 'त्रिवेदी बन्धुओं', भानु भाई त्रिवेदी और मुकुन्द भाई त्रिवेदी से हुआ । इनकी रूचि फिल्मों में थी ही । नितिन बोस निर्देशित फिल्म 'नर्तकी' के निर्माता ये 'त्रिवेदी बन्धु' ही थे ।
मुकुन्द भाई त्रिवेदी फिल्म निर्देशक बनने के अवसर तलाश रहे थे । योजना बनी कि खुद ही खुद की फिल्म क्यों न निर्देशित कर ली जाए । सो, फिल्म बनना तय हुआ । मामला बातों से कागजों पर उतरना शुरू हुआ । गीत लिखने का जिम्मा दादा को मिला । यह एक स्टण्ट/हॉरर/थ्रिलर श्याम-श्वेत फिल्म थी । नाम था - 'गोगोला' । ऐसी फिल्मों की कहानी जैसी होती है, वैसी ही कहानी इस फिल्म की भी थी । आजाद नायक और तबस्सुम इसकी नायिका थीं । संगीत का जिम्मा 'राॅय और फ्रेंकी' को सौंपा गया । इनमें से कोई एक (सम्भवत: फ्रेंकी), प्रख्यात संगीतकार रवि के सहायक थे । दादा की यह पहली फिल्म थी जिसके सारे के सारे गीत दादा ने लिखे थे । फिल्म बनी, सेंसर हुई और जैसे-तैसे प्रदर्शित भी हुई । उन दिनों रेडियो सीलोन से, सवेरे-सवेरे पन्द्रह मिनिट का कार्यक्रम (सम्भवत: सवेरे सात बजे) 'एक ही फिल्म के गीत' आया करता था । जिस दिन इस कार्यक्रम में 'गोगोला' के गीत बजे उस पूरे दिन हम सब लोग मानो नशे में रहे । फिल्म में चार गीत थे और यह संयोग ही था कि उस कार्यक्रम में चार गीत ही बजाए जाते थे । याने उस कार्यक्रम में, 'गोगोला' के सारे के सारे गीत बजे । इनमें से एक गीत (जो वस्तुत: गजल था) उन दिनों लोकप्रिय गीतों के दायरे में शामिल हुआ था । गीत का मुखडा था -
जरा कह दो फिजाओं से हमें इतना सताए ना ।
तुम्हीं कह दो हवाओं से तुम्हारी याद लाए ना ।
इसे मुबारक बेगम और तलत मेहमूद ने गाया था । कुछ ही दिनों बाद 'गोगोला' के रेकार्ड दादा के पास आए । हमारे घर में 'रेकार्ड प्लेयर' नहीं था । ऐसे समय में मांगने की आदत खूब काम आई । मैं ने एक रेकार्ड प्लेयर जुगाडा और पूरे चौबीस घण्टे वे रेकार्ड बजा-बजा कर सुनता रहा । शुरू-शुरू के कुछ घण्टों तक तो सबने आनन्द लिया लेकिन जल्दी ही वह नौबत आ गई कि मेरी पिटाई हो जाए । मुझे मन मार कर रूकना पडा ।
यह फिल्म इन्दौर के 'महाराजा' सिनेमा में लगी थी । इन्दौर के लोग इस बात की ताईद करेंगे कि इन्दौर के सिनेमाघरों में, 'महाराजा' सिनेमा, श्रेष्ठता क्रम में अन्तिम स्थान पाता था । इस सिनेमा घर में फिल्म प्रदर्शित होना ही फिल्म के स्तर पर टिप्पणी होता था और यहां लगने वाली फिल्मों का दर्शक वर्ग स्थायी और चिर परिचित होता था । इसके बावजूद, फिल्म तो देखनी ही थी । सो दादा और उनके दो मित्र श्री कृष्ण गोपालजी आगार और श्री मदन मोहन किलेवाला, दादा की पहली फिल्म 'गोगोला' देखने हेतु इन्दौर के लिए चले । ये दोनों महानुभाव अब इस दुनिया में नहीं हैं । कृष्ण गोपालजी रहते तो मनासा में थे किन्तु व्यापार करते थे नीमच की मण्डी में । उन्हें मनासा का नगर सेठ होने का रूतबा हासिल था । वे प्रतिदिन नीमच आना-जाना करते थे । वे मनासा के एकमात्र 'कार स्वामी' हुआ करते थे । किलेवालाजी नीमच निवासी ही थे । वे न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी के विकास अधिकारी थे । दादा, कृष्ण गोपालजी को 'केजी' और किलेवालाजी को 'एमएम' के सम्बोधनों से पुकारते थे । कभी-कभी वे इन्हें 'कनु' और 'मनु' भी कहते । लेकिन 'केजी' और 'एमएम' ही इनकी पहचान बन गये थे । 'केजी' बहुत ही कम बोलने वाले, मानो संकोची हों या आत्म केन्द्रित जब कि 'एमएम' चुप्पी के बैरी । ये दोनों दादा के अन्तरंग मित्र थे, सुख-दुख के संगाती और अपनी सम्पूर्ण आत्मीयता और 'ममत्व' से दादा की चिन्ता करने वाले लोग थे । इनका विछोह दादा के लिए आज भी मर्मान्तक बना हुआ है ।
इन्हीं दोनों के साथ दादा इन्दौर रवाना हुए । बल्कि कहा जाना चाहिए कि ये दोनों दादा को, दादा के गीतों वाली फिल्म दिखाने और खुद देखने, दादा को इन्दौर ले गए । कार, 'केजी' की ही होनी थी । यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि इन्हें 'गोगोला' देखने की खुशी ज्यादा थी या 'महाराजा सिनेमा' में इस फिल्म के रिलीज होने का गम । दादा को ऐसी बातों से सामान्यत: कोई अन्तर नहीं पडता । वे अपने को हर हाल में, हर दशा में समायोजित बहुत ही जल्दी कर लेते हैं । अभावों को कुशलतापूर्वक जीने का अभ्यास उनके बडे काम आता है । लेकिन 'केजी' और 'एमए' के लिए 'महाराजा सिनेमा' में प्रवेश करना 'इज्जत हतक' से कम नहीं था । फिर भी अपने 'यार की खातिर' इन दोनों ने, 'महाराजा सिनेमा' को इज्जत बख्शने का ऐतिहासिक उपकार किया । फिल्म में देखने के नाम पर केवल गीतों का फिल्मांकन देखना था । लेकिन सारे के सारे गीत एक साथ तो आते नहीं । सो दोनों मित्र खुद को सजा देते हुए, कसमसाते हुए बैठे रहे । फिल्म समाप्त हुई । तीनों बाहर आए और मुकाम पर चलने के लिए कार में बैठे । कार सरकी ही थी कि 'एमएम' ने कुछ ऐसा कहा - 'यार ! बैरागी, 'गोगोला' देखनी थी सो देख ली । फिल्म में तो कोई दम है नहीं । गीतों की तारीफ क्या करना ! लेकिन मजा तो तब आए जब तुम्हारा गीत लता गाए और उस पर वहीदा रहमान नाचे ।' 'केजी' मुस्कुरा दिए, दादा कुछ नहीं बोले, 'महाराजा सिनेमा' के दर्शकों की टिप्पणियां उनके कानों में शायद तब भी गूंज रहीं थीं । अपनी बात का ऐसा 'कोल्ड रिस्पांस' पा कर 'एमएम' को अच्छा तो नहीं लगा लेकिन चुप रहने के सिवाय वे और कुछ कर भी क्या सकते थे ? सो, 'एमएम' की बात आई-गई हो गई । तीनों मित्र लौटे और अपने-अपने काम में लग गए ।
लेकिन जब 'उस सुबह' दादा को, भोपाल में लताजी का फोन मिला और लताजी से बात कर दादा जैसे ही सामान्य-संयत हुए, वैसे ही उन्हें 'एमएम' की बात याद आ गई । वे भावावेग में रोमांचित हो गए । तब तक 'रेशमा और शेरा' की कास्टिंग सार्वजनिक हो चुकी थी और सबको पता था कि वहीदाजी इसकी नायिका हैं । 'एमएम' ने इच्छा प्रकट की थी या भविष्यवाणी की थी ? दादा ने हाथों-हाथ 'एमएम' को फोन लगाया और सारी बात सुनाई । 'एमएम' 'नाइट लाईफ' जीने वाले आदमी थे और उठने के मामले में 'सूरजवंशी' । सो, दादा का फोन उन्होंने चिढ कर ही उठाया लेकिन जब किस्सा-ए-फोन सुना तो ऐसे चहके मानो सवेरे-सवेरे उनके घर, वंश वृध्दि का मंगल बधावा आ गया हो ।
'रेशमा और शेरा' तीनों ने जब देखी और 'तू चन्दा मैं चांदनी' पर वहीदाजी की भाव प्रवण भंगिमाएं देखीं तो उनकी क्या दशा रही होगी, यह कल्पना करने का कठिन काम या तो आप खुद कर लीजिए या फिर दादा से ही पूछ लीजिएगा । वह प्रसंग उनके लिए आज भी ज्यों का त्यों जीवन्त बना हुआ है । तीनों के गले रुंधे हुए थे और 'एमएम' खुद को, बार-बार चिकोटी काट-काट कर अपने होने को अनुभव कर रहे थे ।
'तू चन्दा मैं चांदनी' का विस्तार (2) यहीं समाप्त हो जाना चाहिए । लेकिन एक और बात बताने से मैं अपने आपको को रोक नहीं पा रहा हूं । सबके लिए यह बात बासी हो सकती है किन्तु यहां प्रासंगिक है ।
आज की लोकप्रिय और स्थापित गायिका सुनिधि चौहान का रिश्ता भी 'तू चन्दा मैं चांदनी' से है । मुझे यह तो याद नहीं आ रहा कि किस टी वी चैनल ने कौन सी प्रतियोगिता आयोजित की थी । किन्तु उस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पा कर ही सुनिधि चौहान ने पार्श्व गायन के क्षेत्र में प्रवेश किया था । प्रतियोगी के रूप में सुनिधि ने जो गीत गा कर प्रथम स्थान पाया था वह बालकविजी का यही गीत था - तू चन्दा मैं चांदनी ।
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तू चन्दा मैं चांदनी : विस्तार (1)
पोस्ट पढते-पढते, ऊंट के पास बैठे वहीदा रहमान, सुनीलदत्त और इन दोनों सम्पूर्ण कलाकारों को अपने में समेटता हुआ अनन्त रेगिस्तान आंखों पर अपना साम्राज्य कायम करने लगा । गीत कानों में बजने लगा और उसके मादक प्रभाव से आंखें मुंदने लगीं । पूरा गीत मानो कायनात को मालवा के अफीम के खेत में बदल रहा हो जिसमें अफीम के लाल, बैंगनी, सफेद फूलों से लिपटे डोडे (ओपियम केप्सूल) एक ताल में नाच रहे हों और अफीम की आदिम मादक गन्ध का ऐसा समन्दर बना रहा हो जिससे बाहर आने को जी ही नहीं करे । और जब गीत समाप्त हो रहा होता है तो स्थिति नाडी जाग्रत होने वाली या फिर शवासन वाली आ जाती है । 'रेशमा और शेरा' से पहले भी रेगिस्तान अनेक फिल्मों में छायांकित किया जाता रहा है लेकिन इस फिल्म का रेगिस्तान 'निर्जीव' नहीं था । इसकी बालू का कण-कण स्पन्दित होता लगता था । 'धर्मयुग' के फिल्म समीक्षक ने इस रेगिस्तान को 'रेशमा और शेरा' अनूठा जीवन्त पात्र करार दिया था ।
लेकिन मुझे केवल यही सब याद नहीं आया । कई सारी वे बातें याद आ गईं जिन्हें इस समय उजागर करते हुए रोमांच हो रहा है, फुरहरी छूट रही है । यह 1969 से 1972 के बीच की बात है । तब दादा, मध्य प्रदेश के सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री थे । पण्डित श्यामाचरण शुक्ल (जिन्हें 'श्यामा भैया' का लोक सम्बोधन मिला हुआ था) मुख्यमन्त्री थे । दादा का निवास भोपाल में, शाहजहांनाबाद स्थित पुतलीघर बंगले में था । 'रेशमा और शेरा' के गीत लिखवाने के लिए जयदेवजी वहीं आए थे और कच्चा-पक्का एक सप्ताह भोपाल रहे थे । जयदेवजी को तो यही काम था लेकिन दादा के पास तो 'राज-काज' का झंझट भी था । उसी में से समय चुरा कर दादा, जयदेवजी के पास बैठते, उनकी
बातें सुनते, सिचुएशन सुनते, अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते । जयदेवजी ने पहली ही बैठक में स्पष्ट कर दिया था कि वे धुन पर गीत नहीं लिखवाएंगे, गीत के अनुसार धुन तैयार करेंगे । किसी भी रचनाकार के लिए यह स्थिति मुंह मांगी मुराद से कम नहीं होती । जयदेवजी का एक ही आग्रह था - मैं गीत लेकर जाऊंगा । यही हुआ भी ।
जयदेवजी चले गए । फिल्मों में गीत लिखने का दादा का यह कोई पहला मौका नहीं था । फिल्मी दुनिया के तौर तरीके और फिल्म निर्माण की गति से वे भली भांति वाकिफ थे । सो, जयदेवजी के जाने के बाद उत्कण्ठा तो बराबर बनी रही लेकिन वह बेचैनी में नहीं बदली । राजनीति, दादा को वैसे भी सर उठाने की फुरसत कम ही देती थी । वे भी खुद को साबित करने के लिए अतिरिक्त रूप से परिश्रम करते रहते थे । उन्हें बडी विचित्र स्थितियों का सामना करना पडता था । वे राजनेताओं के बीच कवि होते थे और कवियों के बीच राजनेता । दादा इस स्थिति से तनिक भी नहीं घबराते बल्कि अपने मस्त मौला स्वभाव के अनुसार आसमान फाड ठहाके लगा कर इस विसंगति को कुशल नट की भांति सुन्दरता से निभाते और सबकी मुक्त कण्ठ प्रशंसा पाते । राजनीति में अपने आप को साबित करने के लिए दादा जितना परिश्रम करते उससे अधिक परिश्रम वे 'राजनीति के राज रोग' से खुद को बचाने के लिए करते । विसंगतियों की इस विकट साधना के बीच समाचार सूत्रों से और फिल्मी अखबारों/पत्र-पत्रिकाओं से 'रेशमा और शेरा' की प्रगति सूचनाएं मिलती रहती थीं ।
सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि एक सवेरे वह हो गया जिसे दादा न तो कभी भूल पाएंगे और न ही कभी भूलना चाहेंगे । मन्त्री रहते हुए भी दादा ने 'मन्त्री पद' और 'मन्त्रीपन' को खुद पर हावी नहीं होने दिया । वे यथासम्भव सवेरे जल्दी उठ जाते अपने विधान सभा क्षेत्र से आने वाले कार्यकर्ताओं /मतदाताओं की अगवानी करते, उन्हें अतिथिशाला में ठहराते, उनकी चाय-पानी की व्यवस्था करते । मन्त्रियों के टेलीफोन सूरज उगने से पहले ही घनघनाते लगते हैं । ऐसे टेलीफोनों को दादा खुद ही अटेण्ड किया करते थे । सामने वाले की 'हैलो' के जवाब में जब दादा कहते - 'बोलिए, मैं बैरागी बोल रहा हूं' तो सामने वाला विश्वास ही नहीं करता । सब यही मानते कि मन्त्रीजी के कर्मचारी तो अभी आए नहीं होंगे और अपना काम कराने के लिए आया हुआ कोई कार्यकर्ता या कोई छुटभैया नेता मौके का फायदा उठा कर, 'बैरागी' बन कर बात कर रहा है । ऐसे लोग फौरन डांटते और कहते - 'अपनी औकात में रहो और मन्त्रीजी को फोन दो ।' दादा ऐसे क्षणों का भरपूर आनन्द लेते और कहते - 'भैया, मानो न मानो, मैं बैरागी ही बोल रहा हूं ।' सुन कर सामने वाले की क्या दशा होती होगी, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है ।
ऐसा ही एक फोन 'उस' सवेरे आया । दादा ने फोन उठाया । उधर से नारी स्वर आया - 'हैलो ! बैरागीजी के बंगले से बोल रहे हैं ?' दादा उठे-उठे ही थे । लेकिन ऐसा भी नहीं कि नींद के कब्जे में हों । खुमारी थी जरूर लेकिन यह 'हैलो' कानो में क्या पडी, मानों सम्पूर्ण जगत की चेतना कान के रास्ते शरीर में संचारित हो गई हो - बिलकुल बिजली की तरह, निमिष मात्र में । पता नहीं, दादा ने उत्तर दिया था या वे हल्के से चित्कारे थे - 'अरे ! दीदी आप !' उधर से लताजी बोल रही थीं । उस एक क्षण का वर्णन कर पाना मेरे बस में बिलकुल ही नहीं है । आप दादा से ही पूछिएगा और मुमकिन हो तो किसी सार्वजनिक समारोह में पूछिएगा । सब सुनने वालों का भला होगा । 'कहन' के मामले में दादा अद्भुत और बेमिसाल हैं । जब वे कोई घटना कह रहे होते हैं तो सुनने वाले उस घटना के एक-एक 'डिटेल' को 'माइक्रो लेवल' तक देख रहे होते हैं ।
सो, उस अविस्मरणीय पल को दादा ने जिस तरह जीया वह कुछ इस तरह था - लताजी की आवाज मानो कानों में मंगल प्रभातियां गा रही थीं या फिर सूरज की अगवानी में भैरवी गाई जा रही थी । वे बोल रही थीं लेकिन मैं उनके एक एक शब्द को देख पा रहा था, मानो बाल रवि की अगवानी में शहद के फूलों की सुनहरी घण्टियां प्रार्थनारत हो गई हैं । दादा को वह एक पल एक जीवन जी लेने के बराबर लगा ।
अभिवादन के शिष्टाचार के बाद सम्वाद शुरू हुआ तो लताजी ने जो कुछ कहा वह किसी भी रचनाकार की कलम के लिए अलौकिक पुरस्कार से कम नहीं हो सकता । लताजी ने कुछ इस तरह से कहा - 'कल पापाजी (जयदेवजी को फिल्मोद्योग में इसी सम्बोधन से पुकारा जाता था) ने मुझसे एक गीत रेकार्ड कराया है - रेशमा और शेरा के लिए । गीत तो मैं बहुत सारे गाती हूं लेकिन मुझे अच्छे लगने वाले गीत बहुत ही कम होते हैं । मुझे वह गीत बहुत अच्छा लगा । इतना अच्छा लगा कि गीतकार को बधाई दिए बिना चैन नहीं मिल रहा था । पापाजी से पूछा तो उन्होंने बताया कि गीत आपका है । उन्हीं दसे आपका नम्बर लिया । इतना अच्छा गीत लिखने के लिए आपको बधाई । ऐसे ही गीत लिखते रहिएगा ।' यह गीत था - तू चन्दा मैं चांदनी ।
लताजी ने ठीक-ठीक क्या कहा था, यह तो दादा ही बता सकते हैं क्यों कि मैं तो उनसे सुनी-सुनाई लिख रहा हूं, वह भी इतने बरसों बाद । सम्भव है, कई पाठकों को यह किस्सा सुनकर रोमांच हो आए । लेकिन यह तो कुछ भी नहीं है । इस रोमांच का वास्तविक आनन्द तो दादा के मुंह से सुनने पर ही मिल सकता है क्यों कि मालवा में कहावत है कि आम की भूख इमली से नहीं जाती ।
सो, फिलहाल आप इस इमली से काम चलाइए । लेकिन इस गीत से जुडा यह एक ही संस्मरण नहीं है । एक और किस्सा है जो आप पाएंगे, 'तू चन्दा मैं चांदनी : विस्तार (2)' में - दो दिनों के बाद ।
गुम हो जाएंगी लिपियां ?
डॉक्टर विनोद वैरागी उज्जैन में रहते हैं । हम सब उन्हें 'विनोद भैया' ही कहते हैं । वे बी. ए. एम. एस. याने बेचलर ऑफ आयुर्वेदिक मेडिसीन एण्ड सर्जरी हैं । लोग उन्हें 'डॉक्टर' कहते हैं जबकि वे खुद को 'वै़द्य' कहलाना पसन्द करते हैं । मेरी शादी में उनसे पहली भेंट हुई थी । उम्र में मुझसे छोटे हैं किन्तु चूंकि वे मेरी पत्नी के मामा होते हैं इसलिए रिश्ते में मेरे मामिया ससुर होते हैं । लेकिन न तो मैं ने उन्हें कभी ससुर माना और न ही उन्होंने मुझे कभी दामाद । सहज मैत्री हम दोनों को जोडे हुए है ।
विनोद भैया की बिटिया पूर्वा का ब्याह, दो साल पहले ही, कोटा निवासी, श्री विष्णु दत्तजी शर्मा के बेटे प्रियंक से हुआ है । विष्णु दत्तजी मेरे साढू होते हैं । चूँकि वह रिश्ता काफी दूर का है सो उनसे जीवित सम्पर्क नहीं रहता । लेकिन पूर्वा की शादी के कारण वे 'दुगुने सम्पर्की' हो गए । कोई एक पखवाडे पहले, विष्णुदत्तजी के पिताजी का देहावसान हो गया । शोक पत्रिका मुझे भी आई । बडे भाई साहब से मिली आदत के कारण मैं प्रत्येक पत्र का उत्तर देता हूं । सो, विष्णु दत्तजी को उत्तर लिखने बैठा । लेकिन जब पता लिखने की बारी आई तो देखा कि शोक पत्रिका में पेषक के स्थान पर जो पता लिखा है, वह उनके संयुक्त परिवार का है । जिस पते पर विष्णु दत्तजी रहते हैं वह पता कुछ और है ।
मैं ने सीधे विनोद भैया को फोन लगाया-उज्जैन । विनोद भैया नहीं मिले । उनकी अर्ध्दांगिनी अनीता मिली । उसने बताया कि उसे अपने समधीजी का पता मालूम नहीं है । मैं चौंका । जिस घर में बेटी दी है, उसका पता नहीं मालूम ! मैं ने कारण पूछा तो अनीता ने बताया कि पूर्वा से फोन पर, लगभग रोज ही बात होती रहती है और पत्र लिखने की जरूरत ही नहीं पडती । सो पता याद रखने की नौबत ही नहीं आई । लेकिन यह सब बताते-बताते अनीता को संकोच हो आया । उसने कहा िक वह डायरी में पता देख कर थोडी देर में मुझे फोन करेगी । मैं ने परिहास किया कि जब उसे अपनी बेटी का पता ही याद नहीं तो वह जब भी कोटा जाती होगी तो बेटी के घर तक कैसे पहुँचती होगी । उसने तत्क्षण उत्तर दिया - कोई न कोई स्टेशन पर लेने आ ही जाता है । खैर, मैं पते के लिए अनीता के फोन की प्रतीक्षा करने लगा ।
थोडी ही देर में फोन की घण्टी बजी । मैं ने फोन उठाया तो उधर से अनीता के बजाय विनोद भैया बोल रहे थे । वे कोटा ही थे । उन्होंने अपने समधीजी का पता लिखवाया । मैं ने पूछा कि अनीता ने पता क्यों नहीं बताया । विनोद भैया हँसे और बोले कि अनीता को शायद यह भी पता नहीं कि पतों वाली डायरी कहां रखी है ।
खैर ! मुझे विष्णु दत्तजी का पता तो मिल गया लेकिन इस घटनाक्रम ने मुझे चौंका दिया । एक मां को अपनी बेटी ( बेटी, जिसे पेट की आंत कहा जाता है और जो बेटे के मुकाबले मां-बाप की चिन्ता ज्यादा करती है) का पता ही याद नहीं । यही नहीं, यह पता याद रखने की जरूरत भी उसे अनुभव नहीं होती ! इस स्थिति को क्या ऐसे समझा जाए कि संचार क्रान्ति ने लिपी को अनावश्यक बना दिया ? 'यन्त्र' ने 'अक्षर' को विस्थापित कर दिया ? या फिर, मनुष्य ने यन्त्र बनाया और खुद उसका दास हो गया ?
इस हादसे से उबरा भी नहीं था कि 'कोढ में खाज' वाली दशा में आ गया । मुम्ब्ाई से श्रीयुत एन.एन.वैष्णव साहब का फोन आया । उन्होंने कहा कि दिल्ली निवासी श्री यू. के. स्वामी का संक्षिप्त परिचय लिख्ा कर उन्हें भेज दूँ । स्वामीजी का मोबाइल नम्बर मेरे पास था ही । मैं ने स्वामीजी को कहा कि वे अपने व्यक्तिगत ब्यौरे मुझे भिजवा दें । उन्होंने कहा - जल्दी ही भिजवाता हूँ । लेकिन दो मिनिट बाद ही उनका फोन आया । वे कह रहे थे कि उन्हें लिखने की आदत बिलकुल ही नहीं रही है इसलिए क्या यह सम्भव है कि वे फोन पर बोलते जाएं और मैं लिख लूँ ? मैं ने मंजूर कर लिया । बोले कि वे फुरसत से मुझे लिख्ावा देंगे ।
स्वामीजी ने अपना फोन बन्द कर दिया था लेकिन मैं अपने फोन को कान से लगाए, लगभग जडवत था । मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि यह कौन सा मुकाम है जहां दूसरों के बारे में लिखना तो दूर की बात रही, आदमी खुद के बारे में भी, दो शब्द लिखने की स्थिति में नहीं रह गया है ? उसके पास समय तो है लेकिन लिखने की आदत नहीं रही !
यह सब सोचते-सोचते मुझे ध्यान आने लगा कि मेरी डाक में आने वाले पत्रों की संख्या भी दिन प्रति दिन कम होती जा रही है और जिन मित्रों को मैं पत्र लिखता हूं, उनके उत्तर भी तीन-तीन, चार-चार महीनों में आते हैं । मेरे तमाम मित्र अपनी-अपनी तीसरी पीढी को गोद में खेला रहे हैं । प्राय: सबके सब सेवा निवृत्त हो चुके हैं और कोई ताज्जुब नहीं कि फुरसत से परेशान हों । समय तो सबके पास भरपूर होगा लेकिन लिखने के नाम पर आलस्य से पहले थकान आ जाती होगी । लिखने की आदत जो नहीं रही ।
इस स्थिति को क्या माना जाए ? 'बाजार' के दबाव के चलते, लोक प्रचलित भाषा प्रयुक्त करने के आग्रह के अधीन अभी तो हम हिन्दी के अनेक शब्दों के विलुप्त हो जाने की दहशत से उबरे भी नहीं हैं और यह नया खतरा सामने आ रहा है ? क्या लिपियां अतीत की या किस्से-कहानियों की चीजें बन कर रह जाएंगी ? हम सम्भाषण और सम्परेषण तो खूब करेंगे लेकिन 'अभिलेख' हमारे पास नहीं रहेंगे । अभिलेखागारों के हमारे विशाल भवन तब सीडियों और डीवीडियों को सहेजने के काम आएंगे ।
क्या यह ठीक समय है कि कुछ कागजी दस्तावेजों को टाइम केप्सूल में बन्द कर रख दिया जाए ? वर्ना आने वाली पीढियां कैसे जान पाएंगी कि उनके पूर्वज अपनी अभिव्यक्ति के लिए 'कागज' नाम के जिस 'मटेरियल' का उपयोग करते थे, वह कैसा होता था ?
राखी ने कपडे उतारे
जिन लोगों ने राखी और मुम्बई महा नगर परिषद (मनपा) की लोक सेवक (हमारे यहां ऐसे लोगों को, कार्पोरेटर के हिन्दी अनुवाद में पार्षद कहा जाता है) राजुल पटेल की 'टी वी फाइट' देखी होगी वे जरूर मेरी बात से सहमत होंगे । राजुल पटेल न केवल लोक सेवक हैं बल्कि वे शिव सेना की उम्मीदवार के रूप में जीती हुई लोक सेवक हैं । अब, मुम्बई में शिव सेना का दबदबा किससे छुपा है ? शिव सेना के/की लोक सेवक का विरोध करने के लिए या तो भरपूर राजनीतिक संरक्षण चाहिए और यदि वह नहीं है तो फिर अतिरिक्त तथा अद्भुत आत्म बल चाहिए । किसी राजनीतिक पार्टी में यह साहस नहीं कि राखी सावन्त से खुद को जोड ले । ऐसे में यदि राखी, राजुल पटेल से भिडी तो जाहिर है कि अपने दम-खम पर ही भिडी । इस भिडन्त में राखी ने एक बार नहीं, बार-बार राजुल पटेल की बोलती बन्द कर दी । राजुल पटेल की हालत यह हो गई कि वे राखी पर व्यक्तिगत हमले करने पर मजबूर हो गई । जब राखी, राजुल पटेल को उनके जन प्रतिनिधि होने की जिम्मेदारियां गिनवा रही थी तो राजुल पटेल राखी को 'नंगी औरत' कह कर अपना बचाव कर रही थी । राखी बार-बार पूछ रही थी कि उसके इलाके की समस्याएं उठाने में उसका (राखी का) नंगापन कैसे आडे आता है और राजुल पटेल के पास इस बात को कोई जवाब नहीं था ।
राजुल पटेल को ऐतराज इस बात पर था कि जब मनपा आयुक्त राखी के इलाके में पहुंचे तो राखी ने उनसे बात करने की हिम्मत कैसे कर ली । राखी कह रही थी आयुक्त तो राखी के मुहल्ले वालों के आग्रह पर वहां पहुंचे थे और उन्होंने अपने आने की तारीख पहले से ही सूचित कर रखी थी । इसके विपरीत राजुल पटेल यह साबित करने पर तुली हुई थी कि आयुक्त उनके कहने से आए थे,राखी के कहने से नहीं । जब राजुल पटेल अपनी बात पर अडी रही (अड जाने और अडे रहने के मामले में तो शिव सैनिक वैसे ही सारे देश में पहचाने जाते हैं)तो राखी ने यह 'क्रेडिट' पटेल को देते हुए जब पूछा कि उसके इलाके की समस्याएं कब हल होंगी तो राजुल पटेल अचकचा गई और नेताओं के स्थायी,चिरपरिचित जुमले उगलने लगीं । चेनल की एंकर ने जैसे-तैसे लोक सेवक 'सिंहनी'की लाज बचाई ।
इससे पहले, पहली जुलाई वाले रविवार की रात को 'कॉफी विथ करण' कार्यक्रम में राखी ने अंग्रेजी में बात करने से इंकार कर दिया और अपनी बात हिन्दी में की । यह कार्यक्रम स्टार चैनल का न केवल लोकप्रिय बल्कि अत्यधिक प्रतिष्ठित कार्यक्रम भी है और फिल्मी सितारे इस कार्यक्रम में बुलावे की प्रतीक्षा ऐसे करते हैं जैसे कि विधायक/संसद सदस्य, मन्त्रि मण्डल के शपथ ग्रहण समारोह में मन्त्री पद की शपथ लेने के लिए राज्यपाल के बुलावे की प्रतीक्षा करते हैं । जिन करण जौहर की फिल्म में भूमिका प्राप्त करने के लिए राखी हरचन्द कोशिश करती हो, उन्हीं करण जौहर को राखी ने पहले ही साफ-साफ कह दिया था कि वह अपनी बात हिन्दी में ही कहेगी । उसने कारण बताया - 'क्योंकि मेरी अंग्रेजी न तो मेरी समझ में आएगी और न ही देखने-सुनने वालों को । 'राखी जब यह कारण बता रही थी तब करण जौहर की शकल देखते बनती थी । उनकी हंसी और झेंप के लिए 'खिसियाहट' शब्द निहायत ही बौना और अपर्याप्त साबित होता है । राखी की यह टिप्पणी, हिन्दी फिल्मों की कमाई से अपनी तिजोरियां भरने वाले तमाम करण जौहरों के मुंह पर जोरदार थप्पड था । बी ग्रेड हिन्दी फिल्मों की सी ग्रेड आइटम गर्ल का यह तमाचा 'सुपर ए ग्रेड' श्रेणी का था ।
एक पखवाडे में राखी सावन्त ने जिन दो लोगों के कपडे उतार दिए वे दोनों अपने-अपने वर्ग के प्रभावी प्रतीक हैं । एक राज नेता है तो दूसरा अभी भी 'भारत'को 'इण्डिया' बनाने में जुटा हुआ मानसिक गुलाम । भारतीय लोकतन्त्र का दुर्भाग्य और भाग्य की विडम्बना यह है कि ये दोनों वर्ग आज देश को शासित तथा नियन्त्रित किए हुए हैं । इन दोनों वर्गों का विराध करने से पहले आदमी को मरने के लिए तैयार रहना पडता है । लेकिन राखी सावन्त जैसी एक मामूली अभिनेत्री ने यह कर दिखाया । ये दोनों मामले राखी के असाधारण आत्म बल के यादगार और प्रेरक नमूने हैं । राज नेता जहां माफिया की शकल ले चुके हों और अंग्रेजी तथा अंग्रेजीयत के सामने तमाम हिन्दीदां और बुध्दिजीवी चुप रहने को संस्कारित शालीनता कहने की सुविधावादी बुध्दिमत्ता बरत कर बच निकल जाते हों, वहां ऐसी असाधारण हिम्मत कोई साधारण व्यक्ति ही दिखा सकता है । जोखिम लेने का साहस हमारे बुध्दिजीवियों से नाता तोड चुका क्योंकि उनके पास खोने को शायद काफी कुछ हो गया है ।
राखी सावन्त विवादास्पद और चर्चित अभिनेत्री भले ही हो लेकिन स्थापित अभिनेत्री कतई नहीं है । फिल्मोद्योग में उसकी स्थिति ऐसी नहीं है कि उस पर कोई हमला हो तो समूचा उद्योग उसके बचाव में उतर आए । उसके मुहल्ले के कितने लोग उसके बचाव में आएंगे, खुद राखी भी नहीं बता सकेगी । लेकिन उसकी 'न्यूज वेल्यू' तो है ही । राखी ने अपनी इसी 'न्यूज वेल्यू' का उपयोग (आप इसे दोहन भी कह सकते हैं) किया और बखूबी किया । उसके पास जो पूंजी थी, जो प्रभाव था वह उसने दांव पर लगाने की हिम्मत की । नतीजे की परवाह राखी कर भी नहीं सकती थी क्यों कि उसका नियन्त्रण तो केवल प्रयत्नों पर था, परिणाम पर नहीं ।
हमारे बीच ऐसे असंख्य लोग हैं जिनके पास प्रभाव की भरपूर पूंजी है और वे चाहें तो मौजूदा समय की कई मुश्किलें दूर करने में इस प्रभाव का उपयोग कर सकते हैं । लेकिन वे सब विवेकवान और चतुर लोग हैं । वे केवल सलाह देंगे और 'चाहिए' या फिर 'किन्तु-परन्तु' की जुगाली करना शुरू कर देंगे । उनमें इतनी अकल है कि वे जोखिम लेने से बच सकें ।
कपडे उतार कर लोगों के लुच्चेपन को उजागर करने वाली राखी सावन्त ने क्या केवल एक नेता और अंग्रेजी के एक पैरोकार के ही कपडे उतारे ? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने हममें से कइयों के कपडे उतार दिए ?
पाली (राजस्थान) स्थित हेमावास बांध के टूटने से जल संकटग्रस्त हुए ग्रामीणों के हाथों वहां के एडीएम साहब को पिटते देखना अनूठा और रोमांचक अनुभव था । इन लोगों ने 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना' को मानने से इंकार कर दिया । कुपित ग्रामीणों को तो पता ही नहीं होगा कि उन्होंने अनजाने में ही लोकतन्त्र की 'पधरावणी' का पुनीत काम किया । हमारे 'लोकतन्त्र' को, पता नहीं क्यों, हम सब 'प्रजातन्त्र' ही बोलते-लिखते हैं । अब, जब हम 'प्रजातन्त्र' प्रयुक्त करते हैं तो अनजाने में ही 'राजतन्त्र' का वजूद कबूल करते होते हैं । हमारे मन्त्री, संसद सदस्य, विधायक और अफसर शायद हमारी इसी मानसिकता के चलते अपने आप को 'राजा' मानते हैं और वैसा ही व्यवहार भी करते हैं । जब हम खुद, अपने आप को 'लोक' के बजाय 'प्रजा' मानते हों तो 'वे' राजा की तरह बरताव भला क्यों न करें ? कहते हैं कि जब गुस्सा आता है तो सबसे पहले विवेक साथ छोडता है और अविवेक कब्जा कर लेता है । लेकिन पाली के गुस्साए लोगों ने इस धारणा को झुठला दिया । उन्होंने तो उल्टे साबित कर दिया कि गुस्से में सही काम हो जाता है । भ्रष्ट नेताओं, पदान्ध-मदान्ध अफसरों और धनपतियों की तिकडी ने सारे देश को बंधक बना रखा है । इस तिकडी से मुक्ति का उपाय दूर-दूर तक नजर नहीं आता । लेकिन पाली के गुस्साए लोगों ने एकदम अनजाने में यह उपाय उजागर कर दिया है । अधिकारियों और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को हमारे यहां 'लोक सेवक' कहा गया है लेकिन इन लोगों ने बडी चतुराई से इस शब्द को 'लोक इनका सेवक' बना दिया । इसका प्रतिवाद किसी ने किया भी नहीं । सो, जो इन्होंने सोचा, वही व्यावहारिक सच हो भी गया । फलस्वरूप हमारा 'लोकतन्त्र' बदल कर 'तन्त्रलोक' हो गया । 'लोकतन्त्र' में तो 'लोक' आगे होता है और 'तन्त्र' उसके अनुचर के रूप में उसके पीछे-पीछे चलता है । लेकिन आज तो 'तन्त्र' ने 'लोक' पर सवारी कर रखी है । लोक कराह रहा है और तन्त्र मजे मार रहा है, मलाई चाट रहा है । हमारे बुध्दिजीवियों से उम्मीद की जाती थी कि वे मूक, निरीह, बेबस 'लोक' की रक्षा करते और उसके अधिकार उसे दिलाते । लेकन वे तो 'बादशाहों के हरम के रखवाले' बन गए ।
ऐसे में पाली के लोगों ने एडीएम की पिटाई कर, 'लोकतन्त्र' को पुनर्स्थापित ही किया है । 'लोक' ने 'तन्त्र' को उसकी औकात बता दी । खबरिया चैनलों ने बताया कि बरसात ने पाली का 50 साल का रेकार्ड तोड दिया । लेकिन पाली वालों ने तो भारतीय लोकतन्त्र के 60 बरसों का रेकार्ड तोड दिया । और रेकार्ड ही नहीं तोडा, 'तन्त्र' से त्रस्त समूचे भारतीय समाज को एक रास्ता भी दिखाया, एक दिशा दी ।
पाली में हेमावास बांध के टूटने से बेशक कई लोग बेघर हुए होंगे लेकिन इन बेघर हुए लोगों ने 'लोकतन्त्र' का उजडा घर बसा दिया । पाली में बाढ से काफी कुछ बहा होगा लेकिन उस बाढ से लोकतन्त्र की पुनर्स्थापना की किरण ने क्षितिज पर डेरा जमाया है ।
पाली के गुस्साए लोगों को सलाम ।
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ब्लागियों ! उजड जाओ
घूमते-घूमते एक सन्त एक गांव पहुंचे और अपना डेरा जमाया । चर्चा सुन कर कुछ दुष्ट पहुंचे और सन्त के साथ दुर्व्यवहार कर खूब अपमान किया । सन्त अविचलित बने रहे और दुष्टों को आशीर्वाद दिया - 'जहां बसे हुए हो,वहां और मजबूती से बसे रहो । एक क्षण के लिए भी तुम्हें वहां से हटना, विस्थापित नहीं होना पडे ।'
दुष्टों के जाने के कुछ ही देर बाद कुछ भले लोग पहुंचे । सन्त की खूब सेवा-सुश्रुषा की । वे चलने को हुए तो सन्त ने आशीर्वाद दिया - 'उजड जाओ । एक जगह पर तुम कभी भी ज्यादा दिन नहीं रहो । तुम्हारा कोई भी ठौर-ठिकाना स्थायी नहीं रहे ।'
भले लोगों के जाने के बाद शिष्यों ने कौतूहल और तनिक आक्रोश से पूछा - 'यह कैसा आशीर्वाद और न्याय ? जिन्होंने दुर्व्यवहार किया, अवमानना की उन्हें तो बसने का आशीर्वाद दिया और जिन्होंने सेवा की उन्हें उजड जाने का आशीर्वाद ?'
सन्त सस्मित बोले - 'दुष्ट लोग जितना कम विचरण करेंगे उतना ही जगत का भला होगा और सज्जन लोग जितना अधिक घूमेंगे, लोगों से मिलेंगे उतना ही अधिक भला जगत का होगा ।'
एक माह से भी कम समय हुआ है मुझे हिन्दी ब्लाग विश्व से जुडे लेकिन इसकी प्रचुर शक्ति का अनुमान मुझे भली प्रकार हो गया है । मैं तो कल्पना भी नहीं कर पा रहा था कि कम्प्यूटर और हिन्दी का रिश्ता इतना प्रगाढ हो सकता है । हिन्दी ब्लागियों ने मेरे सारे भ्रम दूरू कर दिए, मेरे जाले झाड दिए ।
हिन्दी ब्लाग के इतिहास की जितनी भी जानकारी मुझे मिल पाई है उसका लब-ओ-लुबाब यही है कि इस की शुरूआत न तो साहित्यिक कारणों से हुई और न ही व्यावसायिक कारणों से । इसका मूलभूत कारण और आधार रहा - हिन्दी को इण्टरनेट माध्यम से वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने और स्थापित करने की प्रबल भावना । कहना न होगा कि इस कोशिश को आशा से अधिक सफलता मिली और आज हिन्दी ब्लागिंग एक सशक्त विधा के रूप में स्थापित है और इसके परिवार में तेजी से बढोतरी हो रही है । बावजूद इसके कि यह अपनी शैशावस्था में है, इसने न केवल लेखन के सारे आयामों को समेट लिया है, इसने कइयों को लिखना-बोलना सिखा दिया है और यह क्रम निरन्तर बना हुआ है ।
लेकिन अभी भी आम आदमी को यह जानकारी नहीं हो पाई है कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में आसानी से सम्प्रेषण हो सकता है । मेरा शहर बेशक लगभग तीन लाख की आबादी वाला है लेकिन यहां तीन सौ लोगों को भी इस महत्वपूर्ण तथ्य की जानकारी नहीं है । यहां अभी भी लोग कम्प्यूटर व्यवहार के लिए अंग्रेजी को अपरिहार्य और अनिवार्य मानते हैं जबकि 1981 की जनगणना में मेरे शहर को 'प्रदेश का सर्वाधिक साक्षर शहर' का दर्जा दिया गया था । जो दशा मेरे शहर की है, कमोबेश वही तमाम शहरों, कस्बो, नगरों की है । जाहिर है कि इस मामले में अधिकांश 'हिन्दी वाले' लोग 'हनुमान' की दशा में जी रहे हैं जिन्हें 'जाम्बवन्त' की प्रतीक्षा है ।
क्या हमारे ब्लागिये बन्धु 'जाम्बवन्त' की यह भूमिका निभा सकते हैं ? मेरी निश्चित राय है-हां । जितने भी हिन्दी ब्लाग मैं ने देखे-पढे हैं उन सबमें परस्पर प्रशंसा और प्रोत्साहन का भाव प्रचुरता से उपलब्ध है जो आज के जमाने में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता । मुझे विश्वास हो रहा है कि ये तमाम ब्लागिये यदि 'अपनी वाली'पर आ जाएं तो सारे देश के सामान्य लोगों को (खास कर नौजवानों को) कम्प्यूटर के जरिए हिन्दी से जोडने का अविश्वसनीय काम कर सकते हैं । लोगों के मन से यह भावना जड-मूल से निकाल सकते हैं कि कम्प्यूटर पर काम करने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य और अपरिहार्य है और यह कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में काम नहीं किया जा सकता ।
मैं आप सबका ध्यान श्री अशोक चक्रधर की उस बात पर आकर्षित करना चाहता हूं जो उन्होंने 'चक्रधर की चक्कलस'वाले अपने ब्लाग में 'विश्व हिन्दी सम्मेलन सिलसिले' शीर्षक आलेख में कही है । उन्होंने लिखा है - 'नई सूचना प्रौद्योगिकी का लाभ अभी हम हिन्दी में नहीं उठा पा रहे हैं । कम्प्यूटर और नई तकनीकों के प्रति हम सहज नहीं हो पाए हैं और न ही समझ पाए है कि कम्प्यूटर, कलम जैसा ही एक औजार है जो आपकी क्रियाशीलता को कई गुना बढा देता है ।'
ब्लागियों के नामों में ऐसे-ऐसे नाम शामिल हैं जो शासन और प्रशासन को प्रभावी और निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकते हैं । ये सब लोग अपने-अपने पद और प्रभाव का उपयोग कर हिन्दी को कम्प्यूटर से जोडने का अभियान छेड दें तो काया पलट हो सकता है । इनमें से कई लोग नीति-नियामक की स्थिति में हैं ।
मैं भारतीय जीवन बीमा निगम का एजेण्ट हूं । 'निगम' की ओर से ग्राहकों भेजे जाने वाले अधिकांश पत्र निर्धारित प्रारूप के स्वरूप में भेजे जाते हैं । ये सारे के सारे प्रारूप अंग्रेजी में हैं । राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के तहत 'क' क्षेत्र में समूचा पत्राचार हिन्दी में और 'ख' क्षेत्रों में पत्राचार द्विभाषा में किया जाना चाहिए । शाखा कार्यालय स्तर पर मैं ने इस बात को जब-जब भी उठाया तो मुझे रटा-रटाया जवाब मिला - 'हम अपनी ओर से कुछ भी नहीं कर सकते क्यों कि हमें तो जो 'प्रोग्राम' केन्द्रीय कार्यालय से मिला है, उसे ही 'आपरेट' कर रहे हैं ।' यदि केन्द्रीय कार्यालय से ये तमाम प्रपत्र हिन्दी में ही उपलब्ध करा दिए जाएं (जो कि आसानी से उपलब्ध कराए जा सकते हैं) तो भारतीय जीवन बीमा निगम से प्रति माह भेजे जाने वाले करोडों पत्रों को इसके ग्राहक पढ पाएंगे । अभी तो लोग इन्हें देखते भी नहीं और फेंक देते हैं क्यों कि अधिकांश ग्राहक अंग्रेजी जानते ही नहीं । यही दशा बैंको तथा ऐसे अन्य तमाम संस्थानों की है । ऐसे में न केवल हिन्दी अपने अधिकर से वंचित हो रही है, करोडों रूपयों का कागज और डाक खर्च भी बेकार जा रहा है । आपकी सूचना के लिए बता रहा हूं कि भारतीय जीवन बीमा निगम की जिस शाखा से मैं सम्बध्द हूं, उस शाखा से प्रति माह कम से कम पन्द्रह हजार ऐसे प्रपत्र भेजे जाते हैं और पूरे देश में भारतीय जीवन बीमा निगम की 2048 शाखाएं हैं और सारी की सारी शाखाएं कम्प्यूटरीक़त हैं । इनमें से कम से कम 50 प्रतिशत शाखाएं, राजभाषा अधिनियम के हिसाब से 'क' और 'ख' क्षेत्र में आती हैं । आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि भारतीय जीवन बीमा निगम के केन्द्रीय कार्यालय को खनखना दिया जाए तो हिन्दी और कम्प्यूटर के सत्संग की जानकारी देश के कितने सारे लोगों को हो जाएगी । इससे हिन्दी का भला तो होगा ही, अधिक महत्वपूर्ण बात यह होगी कि लोगों को भरोसा होगा कि कम्प्यूटर ज्ञान और संचालन के लिए अंग्रेजी कोई विवशता नहीं है ।
अब मैं अपनी उसी बात पर आता हूं कि हिन्दी ब्लागिंग शुरू करने का मूलभूत कारण और आधार था - हिन्दी को इण्टरनेट माध्यम से वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने और स्थापित करने की प्रबल भावना । हम हिन्दुस्तानी लोग चूंकि बहुत कम में और बहुत जल्दी सन्तुष्ट होने के 'आनुवांशिक रोग' से ग्रस्त हैं इसलिए कहीं ऐसा तो नहीं कि हिन्दी ब्लागिंग की मूल भावना को भूले जा रहे हैं ?
इसीलिए मैं कह रहा हूं - ब्लागियों ! उजड जाओ । सब एक जगह एकत्रित हो कर बसने-रमने लगे हैं । जरा अपनी दुनिया से बाहर आओ । मेरे शहर के कम्प्यूटर कोचिंग केन्द्र वालों को जब मैं ने 'यूनीकोड' वाली बात बताई तो वे मुंह बाये मेरी तरफ देखते रहे । ऐसे तमाम केन्द्र, मानसिक अंग्रेज पैदा करने वाले कारखाने बन गए हैं । लिहाजा, अपने-अपने 'ठीयों' से उजडे हुए लोग जिस तरह बसने के लिए नई-नई जगहें तलाश करते हैं, उसी तरह तमाम ब्लागिए भी हिन्दी को बसाने के लिए अपने-अपने स्तर पर शुरू हो जाएं । हम लोग ब्लाग विश्व में तो निरन्तर सक्रिय रहें ही लेकिन तनिक समय निकाल कर मैदान में भी उतर जाएं । जो लोग सरकारी ओहदों पर बैठे हैं वे अपने पद और प्रभाव का उपयोग कर यह नेक काम शुरू कर दें । जो लोग निर्वाचित जन प्रतिनिधियों से दोस्ती रखते हैं, वे उन्हें समझाएं । शासन और प्रशासन का एक निर्णय केन्द्रीय स्तर पर परिणाम दे सकता है । याने,कम मेहनत और कम समय में अधिकाधिक अनुकूल नतीजे ।
श्री रवि रतलाम ने अभी-अभी ब्लाग विश्व में 'मालवी जाजम' बिछाई है । मैं उस पर श्री बालकवि बैरागी की दो पंक्तियां परोस रहा हूं -
मंगल मोहरत निकल्यां जई रयो, उतरो गहरा ज्ञान में ।
मेहनत करवा वारां मरदां, अई जावो मैदान में ।।
अर्थात् - मंगल मुहूर्त निकला जा रहा है । जरा विचार करो और पुरूषार्थियों-परिश्रमियों, मैदान में आ जाओ ।
ब्लागियों ! मैदान में आ जाओ । उजड जाओ
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दो गजलें
- विजय वाते
(1)
जैसे-जैसे हम बडे होते गए ।
झूठ कहने में खरे होते गए ।
चांदबाबा, गिल्ली डण्डा, इमलियां ।
सब किताबों के सफे होते गए ।
अब तलक तो दूसरा कोई न था ।
दिन-ब-दिन सब तीसरे होते गए ।
एक बित्ता कद हमारा क्या बढा ।
हम अकारण ही बुत होते गए ।
जंगलों में बागबां कोई न था ।
यूं ही बस, पौधे हरे होते गए ।
(2)
यार देहलीज छूकर न जाया करो ।
तुम कभी दोस्त बन कर भी आया करो ।
क्या जरूरी है सुख-दुख में ही बात करो ।
जब कभी फोन यों ही लगाया करो ।
बीते आवारा दिन याद करके कभी ।
अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो ।
वक्त की रेत मुट्ठी में कभी रूकती नहीं ।
इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो ।
हमने गुमटी पे कल चाय पी थी 'विजय' ।
तुम भी आकर के मजमे लगाया करो ।
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'गरीब'
(मालवी लोक कथा)
काली, अंधेरी रात । तेज, मूसलाधर बारिश । ऐसी कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही । मानो सारे के सारे बादल आज ही रीत जाने पर तुले हों । पांच झोंपडियों वाले 'फलीए' की, टेकरी के शिखर पर बनी एक झोंपडी । झोंपडी में आदिवासी दम्पति । सोना तो दूर रहा, सोने की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो रही । झोंपडी के तिनके-तिनके से पानी टपक रहा । बचाव का न तो कोई साधन और न ही कोई रास्ता । ले-दे कर एक चटाई । अन्तत: दोनों ने चटाई ओढ ली । पानी से बचाव हुआ या नहीं लेकिन दोनों को सन्तोष हुआ कि उन्होंने बचाव का कोई उपाय तो किया ।
चटाई ओढे कुछ ही क्षण हुए कि आदिवासी की पत्नी असहज हो गई । पति ने कारण जानना चाहा । पत्नी बोली तो मानो चिन्ताओं का हिमालय शब्दों में उतर आया । उसने कहा - 'हमने तो चटाई ओढ कर बरसात से बचाव कर लिया लेकिन बेचारे गरीब लोग क्या करेंगे ?'
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