ब्लॉगवाणी याने शुद्ध सोने के गहने नहीं बनते

वह दशहरे की शाम थी। जबलपुर से भाई गिरीश बिल्लोरे बोल रहे थे। दशहरे के अभिनन्दन और बधाइयाँ ऐसे दे रहे थे मानो शोकान्तिका पढ़ रहे हों। मुझे अचरज हुआ। बोले-‘सचमुच में शोक समाचार है। ब्लॉगवाणी बन्द हो गई है।’ मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ी। गिरीश भाई मुझ नासमझ को जितना समझा सकते थे, समझाया।

ब्लॉगवाणी के बारे में मैं सचमुच में कुछ भी नहीं जानता। इतना भर जानता हूँ कि यह ऐसी तकनीकी व्यवस्था है जिसके जरिए, किसी भी ब्लॉगर का लिखा, कछ ही मिनिटों में समूचे ब्रह्माण्ड में सार्वजनिक हो जाता है। एक ब्लॉग की ‘सीमीतता’ को ब्लॉगवाणी, निस्सीम कर देती है। कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि कोई मैथिलीजी हैं जो ब्लॉगवाणी चला रहे हैं-अपनी गाँठ का रोकड़ा और कमर का जोर लगा कर। मैथिलीजी की, प्रोत्साहित करने वाली दो-एक टिप्पणियाँ मेरे ब्लॉग पर भी आईं। बीच में, मेरा ब्लॉग जब अचानक ही ब्लॉगवाणी से गायब हो गया तो मैथिलीजी से सम्पर्क किया। उन्होंने तकनीकी शब्दावली में न जाने क्या-क्या पूछा। मेरे पास एक ही उत्तर था-‘मैं कुछ नहीं जानता।’ उनकी जगह मैं होता तो पलटकर नहीं देखता। भाड़ में जाए ऐसे आदमी का ब्लॉग। किन्तु मुझे अचरज हुआ। जल्दी ही मेरा ब्लॉग, ब्लॉगवाणी पर नजर आने लगा।

ब्लॉगवाणी का मतलब मेरे लिए यही है - अनजान लोगों की भीड़ वाले मेले में गुम हुए नासमझ बच्चे को ठिकाने पर पहुँचा देना।


ब्लॉगवाणी बन्द होने के पीछे क्या कारण रहे और क्या सोच कर मैथिलीजी ने इसे फिर शुरु किया-यह सब मैं चाहूँ तो भी नहीं जान सकूँगा। ब्लॉग जगत में मेरी उम्र ही क्या है? मुझे तो अब तक दूध के दाँत भी नहीं आए हैं। किन्तु इतनी समझ है कि विद्वान् कभी एक मत नहीं होते। यह भी कि कुछ लोगों को फजीहत में ही मजा आता है। यह भी कि चलते बैल को आर लगाने में कई लोगों को अवर्णनीय सुख मिलता है। और भी न जाने क्या-क्या।


मेरी हैसियत इतनी और ऐसी नहीं कि मैथिलीजी को कोई सलाह दे सकूँ। मुझे अपनी औकात मालूम है। वे वही करें जो वे चाहते हैं और जैसा चाहते हैं। किन्तु यह अवश्य याद रखें कि कोई भी व्यवस्था पूर्णतः निर्दोष नहीं होती। और यह भी कि सबको खुश रखने की कोशिश में किसी को भी खुश नहीं रखा जा सकता। सो, आपकी दशा तो वही होनी है जो बैल लेकर बस्ती में निकले बाप-बेटे की हुई थी। बाप बैठे और बेटा पैदल चले तो भी और बेटा बैठे और बाप पैदल चले तो भी। दोनों बैठें तो भी और दोनों ही बैल के साथ पैदल चलें तो भी। लोग तो कहेंगे ही। उन्हें तो कहना है। स्वर्गीय श्री लक्ष्मीकान्त वैष्णव की लघुकथा ‘लोग‘ ढूँढ कर पढ़ लीजिएगा, आपका क्षोभ कपूर हो जाएगा।


सो, सबसे पहले तो ब्लॉगवाणी फिर से शुरु करने के लिए धन्यवाद और आभार स्वीकार कर, इस नासमझ के थोड़े कहे को बहुत समझिएगा। और यह भी समझिएगा मेरा यह सब कहा, केवल मेरा नहीं है। मुझ जैसे और भी नासमझ इसमें शामिल हैं।


चलते-चलते, दादा की दो पंक्तियाँ आपको अर्पित कर रहा रहा हूँ -


किस-किस का हम मुँह पकड़ेंगे,

लाख जबानें चलती हैं।

जो जितना ज्यादा पुजता है,

उस पर दुनिया ज्यादा जलती है।


यह भी आपको अपर्याप्त लगे तो श्री राजबहादुर विकल जलालाबादी की ये दो पंक्तियाँ शायद आपको उकसा दें -

वीर वही है जिसने तम में, राह सत्य की शोधी।

उसकी प्रगति अर्थ क्या रखती, जिसके नहीं विरोधी?


और एक बात, लाख टके की। शुद्ध सोने के गहने नहीं बनते। सुन्दरियों की सुन्दरता बढ़ाने वाले गहने बनाने के लिए, सोने में मिलावाट करनी ही पड़ती है।


अच्छी लगे तो पीठ ठोक देना और बुरी लगे तो चाहे जो कर लेना किन्तु ब्लॉगवाणी पर मेरा ब्लॉग देना बन्द मत करना।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

एक जरूरी किताब


गोविन्द ने पूछा तो बस यही था - ‘एक किताब दूँ? बुरा तो नहीं मानेगा?’ कोई किताब देने से पहले, ऐसा पूछने का क्या मतलब? फिर , गोविन्द ने जिस तरह से, जिस आवाज और स्वरों में पूछा, उससे तय कर पाना कठिन हुआ कि वह संकोच कर रहा है, डर रहा है या झिझक रहा है? इस उलझन ने मुझे सहज ही ‘जिज्ञासु’ बना दिया। पूछा - ‘ऐसी कौन सी किताब है भई?’ किताबों के ढेर में से एक किताब खींच कर गोविन्द ने मेरे सामने रख दी। किसी दवा कम्पनी के मोटे, चिकने कागज वाले, किसी दवाई के प्रचार पोस्टर से आवरित की गई, मझौले आकार की किताब को मैंने ऐसे थामा मानो या तो कोई बहुत ही घातक प्रभाव करने वाली चीज हो या फिर कोई ऐसी और इतनी नाजुक चीज जो मेरे हलके से हलके स्पर्श से (शायद मेरी साँस के धक्के से ही) टूट कर वह पूर्णतः नष्ट हो जाएगी। मैंने किताब का पन्ना पलटा। किताब का शीर्षक मेरे सामने था - काम की बातें। मुझे गहरी निराशा हुई। कहा - ‘क्या यार! सफलता के सूत्र बताने वाली ऐसी पचासों किताबें फुटपाथ पर मिलती हैं और तू ऐसे दे रहा है मानो कोई अनूठी किताब हो।’ इस बार गोविन्द मुस्कुराया और खुलकर बोला - ‘मैं जानता था तू यही कहेगा। लेकिन इस किताब का ‘काम’ हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी की उठापटक वाला ‘काम-काज’ नहीं, यौन विषय वाला काम है।’ अब चौंकने की बारी मेरी थी। किताब के प्रति मेरी अब तक की भावनाएँ कपूर हो चुकी थीं। इस बार मैंने किताब को अतिरिक्त महत्व और नजरिए से टटोला। सरसरी तौर पर देखने के फौरन बाद कहा - ‘मैं इसे ले जा रहा हूँ। तसल्ली से पढ़ कर लौटाऊँगा।’ गोविन्द को मानो इसी जवाब का आकण्ठ विश्वास था। बोला - ‘मैं जानता था। तसल्ली से पढ़ना। लौटाने की कोई जल्दी नहीं है।’
किताब के बारे में आगे कुछ कहूँ, उससे पहले गोविन्द के बारे में जान लीजिए। गोविन्द मेरा ‘महाविद्यालयपाठी’ है। रामपुरा में हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे। वह विज्ञान का और मैं कला का छात्र था। उसके सामने स्पष्ट उद्देश्य था - डॉक्टर बनना। मेरा कोई लक्ष्य नहीं था। घरवालों ने कहा-पढ़ो। सो मैं पढ़ रहा था। गोविन्द रामपुरा का ही निवासी था। उसे डॉक्टर बनना था। बना। डिग्री हाथ में आते ही नौकरी के लिए हाथ-पाँव मारे। पहला विज्ञापन उत्तर प्रदेश सरकार का सामने आया। आवेदन भेज दिया। नौकरी मिल गई। गोविन्द उत्तरप्रदेश चला गया। इस बीच ‘अध्ययन’ निरन्तर रखा और चर्म तथा यौन रोगों में दक्षता प्राप्त की। सवा चौंतीस वर्षों का सेवाकाल पूरा कर लौटा तो रामपुरा नहीं गया। रतलाम में ही बस गया। उसका पूरा नाम डॉक्टर गोविन्द प्रसाद डबकरा है और वह रतलाम में, परामर्श सेवाएँ उपलब्ध करा रहा है। चार-छः महीनों में मैं उससे मिलने जब भी गया, उसे पहल, तद्भव, हंस जैसी पत्रिकाएँ पढ़ते या फिर ‘लफ्ज’ की वर्ग पहेली भरने के लिए परिश्रम करते पाया। मुझे लगता नहीं कि ऐसा आदमी पैसा कमाने को अपना लक्ष्य बना सकता होगा। उसका मौजूदा ‘चाल चलन’ देख कर मुझे उसके ‘प्राध्यापक’ होने का भ्रम होता है।

अब किताब के बारे में । 267 पृष्ठों वाली, 17 छोटे-छोटे अध्यायों में बँटी यह किताब राजकमल प्रकाशन (1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110001) ने प्रकाशित की है और मुम्बई के डॉक्टर प्रकाश कोठारी इसके लेखक हैं। गोविन्द ने मुझे जो प्रति दी, वह इसके प्रथम संस्करण की है जिसका मूल्य 140 रुपये है। किताब की टाइप का आकार सामान्य से तनिक बड़ा है। यदि यह आकार सामान्य होता तो पृष्ठ और कम होते। किताब को मैंने ध्यानपूर्वक पढ़ा और मेरे मन में आई पहली बात थी - ‘काश! यह किताब मुझे मेरे विवाह से पहले मिली होती।’ मेरे इस वाक्य का अर्थ आप अपनी इच्छानुसार निकाल सकते हैं। किन्तु वास्तविक अर्थ तभी अनुभव कर पाएँगे जब आप इस किताब को कम से कम एक बार पढें।

‘यौन’ चूँकि हमारे यहाँ ‘वर्जित’ (या कि अश्लील) विषय मान लिया गया है इसीलिए इसे लेकर असंख्य भ्रान्तियाँ हमारे मन में बनी रहती हैं। चूँकि हम खुलकर इस पर बात नहीं करते, सो नीम हकीमों और ‘सेक्स स्पेशलिस्टों’ के विज्ञापन प्रचुरता से दीवारों पर लिखे और पेशाबघरों में चिपके मिलते हैं। हमारे अज्ञान ने इन दुकानदारों की तथा दुकानों में पहुँचनेवालों की बाढ़ ला रखी है। जिन्‍हें खुद अपनी बीमारियों के बारे में कुछ भी पता नहीं, वे हमारे बच्चों को भयभीत कर, उनके आत्म विश्वास को जड़ों से उखाड़ फेंकने का दुष्कृत्य भी कर लेते हैं। हमारे बच्चे हमसे तो कुछ कहते नहीं किन्तु इन ‘सेक्स स्पेशलिस्टों’ के चक्कर में आकर ऐसी जड़ी-बूटियाँ और दवाइयाँ खा लेते हैं जिनसे उपजी बीमारियों का ईलाज कराना अपने आप में बड़ी समस्या बन जामा है।

जिन बातों को लेकर हमारे युवा ‘जिन्दगी बेकार हो गई’ जैसी बातों से और ‘मैं तो किसी काम का नहीं रहा’ जैसे विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं, वे तमाम बातें कितनी छोटी और कितनी सामान्य हैं, यह इस किताब से ही जाना-समझा जा सकता है। हमारे समाज में पौरुष को ‘मर्दानगी’ का पर्याय बना कर, उसके आकलन का एकमात्र आधार व्यक्ति का यौन व्यवहार बना दिया गया है। इसीलिए, स्वप्न-दोष, गुप्तांग का टेड़ापन, हस्त मैथुन जैसी सहज प्राकृतिक बातों का हव्वा बना कर पेश किया जाता है। समुचित जानकारी के अभाव में अनेक युवा हीन भावना से ग्रस्त होकर अकारण ही शर्मिन्दगी अनुभव करने लगते हैं और परिवार से कटने लगते हैं। इस ‘यौन अज्ञान’ के कारण अनेक गृहस्थियाँ टूटी हैं। ऐसे समस्त प्रकरणों के लिए यह पुस्तक असंदिग्ध रूप से ‘रामबाण’ है - यह मैं दावे से कह सकता हूँ।

किताब बहुत ही सरल, सुस्पष्ट और प्रवाहमय भाषा में है। पढ़ते समय प्रति क्षण लगता रहता है मानो जो बात मन में आ रही थी, वही बात सामने आ रही है। बोलचाल की भाषा में छोट-छोटे सवाल और वैसी ही भाषा में, सुस्पष्ट जवाब। जवाबों में कहीं भी क्लिष्टता या ‘डॉक्टरी भाषा’ अनुभव नहीं होती। अनेक चित्रों से बात और अधिक आसानी से समझ में आती है।

गए दिनों, ‘यौन शिक्षा’ को लेकर हमारे यहाँ बहुत बड़ा बवण्डर उठा था और लगा था मानो हमारी संस्कृति पर प्रलय आ गया है। यौन शिक्षा के नाम पर छिटकने वाले तमाम लोगों को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए। इस विषय को यदि इस किताब की तरह प्रस्तुत किया जाए तो बारहवीं कक्षा के बाद बाद वाली कक्षाओं में यह विषय आसानी से, बहुत ही सहजता/सरलता से पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सकता है।

जिन परिवारों में बच्चे विवाह योग्य हो गए हैं या बच्चों के विवाह की बात चल रही है या जहाँ रिश्ता तय होने के बाद विवाह की खरीदारी की जा रही है या जो भी परिवार अपने बच्चों को ‘नीम हकीमों’ और ‘सेक्स स्पेशलिस्टों’ के जाल से बचाकर आत्म विश्वास से भरा वैवाहिक जीवन का आनन्द लेते हुए देखना चाहता है, उस प्रत्येक परिवार में यह किताब होनी ही चाहिए-यह मेरी सुनिश्चित धारणा है। इस किताब से अधिक उपयोगी और सुन्दर और कोई भेंट नहीं होगी-यह आप तभी अनुभव करेंगे जब आप इसे पढ़ लेंगे।

मेरे बड़े बेटे के विवाह का दूसरा वर्ष चल रहा है। उसे भेंट देने के लिए इसकी एक प्रति के लिए मैंने प्रकाशक को पत्र लिख दिया है। उसे यह भेंट देकर मैं अपने आप से प्रसन्नतापूर्वक कहूँगा - बेटे! अत्यधिक विलम्ब से मैं तुम्हें यह भेंट दे पा रहा हूँ। किन्तु प्रसन्नता और सन्तोष यही है। कि इसकी जानकारी मिलते ही मैं अविलम्ब तुम तक इसे पहुँचा रहा हूँ।’
देर आयद, दुरुस्त आयद।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

वह लौह पुरुष: यह लौह पुरुष

मैं चाह कर भी ‘आडवाणी’ के साथ ‘जी’ नहीं लगा पा रहा हूँ। अब तक मैं उनसे असहमत, उनसे रुष्ट, उन पर क्रुद्ध रहता रहा। उनका ‘दुराग्रह’ मुझे कभी नहीं रुचा किन्तु यदा-कदा अचेतन में अच्छा लगता था कि कोई आदमी सारी दुनिया की परवाह न कर, अपने आग्रहों पर किस चरम तक अड़ा रह सकता है। किन्तु आज? आज मुझे उन पर शर्म आ रही है।

आडवाणी को ‘लौह पुरुष’ कहा जाता रहा है। यह नामकरण किसने किया, कब किया यह खोज का विषय हो सकता है। किन्तु इस समय मुझे लग रहा है कि निश्चय ही, खुद आडवाणी ने ही खुद का यह नामकरण किया होगा।

भारत में ‘लौह पुरुष’ का एक एक ही अर्थ होता है - सरदार वल्लभ भाई पटेल। इच्छा शक्ति, प्रबल आत्म विश्वास, रोम-रोम में व्याप्त राष्ट्र पे्रम, प्रत्येक भारतीय के लिए सम दृष्टि, राष्ट्र के लिए खुद को होम कर देने की, अहर्निश उत्कट अभिलाषा जैसे गुण जिस दुर्लभता से उनके व्यक्तित्व में थे, उन्हीं के कारण, उनके बाद, उनके उन जैसा दूसरा कोई नहीं हो पाया। यह बात जब देश का बच्चा-बच्चा जानता और अनुभव करता रहा हो तो भला आडवाणी क्यों पता नहीं रहा होगा? बिलकुल रहा होगा। किन्तु अब मैं कह सकता हूँ कि इसके समानान्तर सच यह भी था कि यह आदमी पहले ही क्षण से जानता था कि यह ‘लौह पुरुष’ है ही नहीं। किन्तु, जैसा कि मैं बार-बार कहता रहता हूँ, हमारे यहाँ ‘होने’ के बजाय ‘दिखना’ अधिक महत्वपूर्ण है। सो, इस आदमी ने भी ‘लौह पुरुष’ का स्वांग किया और इतनी भाव प्रवणता से किया कि देश का बड़ा तबका इसमें ‘लौह पुरुष’ को ही देखने लगा। इस आदमी के ‘स्वांग’ की पराकाष्ठा यह रही कि इस आदमी ने एक बार भी, सौजन्यवश या कि लोकाचार निभाने के लिए, विनम्रता दर्शाते हुए, एक बार भी, जी हाँ, एक बार भी नहीं कहा कि उसे इस नाम से न पुकारा जाए।

‘वह लौह पुरुष’ देश के लिए खुद को होम कर गया। और यह लौह पुरुष? इसने तो अपने लिए देश को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर, ऐतिहासिक रूप से कलंकित कर दिया। ‘वह लौह पुरुष’ पद के पीछे कभी नहीं दौड़ा, उसने अपनी महत्वाकांक्षाओं को (यदि कोई रही हों तो) कभी प्राथमिकता नहीं दी, अपनी अन्तरात्मा से कभी समझौता नहीं किया, जब लगा कि हैदराबाद का निजाम, भारत में अपनी पृथक सत्ता बनाए रखने पर आमादा है तो उससे समझौता करने (या कि तुष्टीकरण करने) के बजाय उसे, सैन्य कार्रवाई की दो-टूक चेतावनी देकर उसके घुटने टिकवा दिए। ‘उस लौह पुरुष’ ने जब भी सोचा, देश को सोचा, देश के लिए सोचा और तदनुसार ही काम करते हुए देश के लिए जीया और देश के लिए मर गया।

और ‘यह लौह पुरुष?’ इस आदमी ने तो जब भी सोचा, खुद के लिए सोचा और खुद के लिए देश को दाँव पर लगाने में इस आदमी को क्षणांश को भी हिचक नहीं हुई!
इस आदमी ने केवल कहा नहीं, अपनी पुस्तक में आधिकारिक रूप से लिखा भी कि ‘कांधार विमान अपहरण’ प्रकरण में, आतंकवादियों को छोड़ने के बारे में इस आदमी को कोई जानकारी नहीं थी और न ही यह निर्णय लेने वाली केबिनेट बैठक में यह उपस्थित था। इस लिखे के पीछे जो अनलिखा है, उसके जरिए यह आदमी कह रहा था कि यदि इसे मालूम होता तो यह आदमी ‘लौह पुरुष’ की तरह दृढ़ता बरतता और आतंकवादियों को कभी नहीं छोड़ता। पूरे देश की तरह मुझे भी आश्चर्य हुआ था। भला कोई प्रधान मन्त्री और रक्षा मन्त्री इस सीमा तक तानाशाह हो सकते हैं कि, इतने सम्वेदनशील मुद्दे पर अपने ही गृह मन्त्री की उपेक्षा कर दें? किन्तु मैंने तब इस आदमी की इस बात पर विश्वास किया था-यह सोचकर कि इतना बड़ा, गृहमन्त्री के पद पर रह चुका आदमी झूठ नहीं लिख सकता। किन्तु आज यह आदमी झूठा साबित हो गया है। इसे झूठा कहने वाले इसके राजनीतिक विरोधी नहीं, इसी की पार्टी के और इसी के साथ काम करने वाले लोग हैं (और अभी भी इसी की पार्टी में हैं) और बात-बात में प्रतिवाद करने वाले इस आदमी के मुँह से बोल नहीं फूट रहे हैं? लेकिन यह आदमी अभी भी नहीं कह रहा है कि इसे ‘लौह पुरुष’ नहीं कहा जाए।

एक ‘वह लौह पुरुष’ था जिसने, देश की तमाम मुस्लिम आबादी में लोकप्रियता की कीमत पर निजाम के घुटने टिकवाए। इधर ‘यह लौह पुरुष’ है जो पाकिस्तान में, जिन्ना की मजार पर जाकर जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढ़ भी आया और लिख भी आया। इसके साथी आज खुले आम कह रहे हैं कि मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए ‘इस लौह पुरुष’ ने भारत के साथ यह बेवफाई की। अपने दोस्तों की इस बात का प्रतिवाद करने के लिए भी ‘इस लौह पुरुष’ की जबान नहीं खुल रही है। इस आदमी को मुसलमानों के वोट क्यों चाहिए थे? इसलिए कि यह आदमी प्रधानमन्त्री बन सके। अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए भारत के इतिहास को कलंकित करने से पहले इस आदमी ने सोचा भी नहीं!

मनमोहन सिंह सरकार को बचाने के लिए सांसदों की खरीदी का मामला पूरी दुनिया में गूँजा। भाजपा सांसदों ने, लोक सभा में नोटों की गड्डियाँ लहराईं। जब यह सब हो रहा था तब हमारा ‘यह लौह पुरुष’ निर्लिप्त, निश्चन्त भाव से अपनी पार्टी के सांसदों के इस करिश्मे को चुपचाप देख/सुन रहा था। लोकसभा का कायदा है कि वहाँ पटल पर कोई भी कागज या वस्तु प्रस्तुत करने से पहले स्पीकर की अनुमति लेनी पड़ती है। ऐसा न करना, संसद की अवमानना है। घटिया भाषा में कहें तो ऐसा करना, संसद का बलात्कार करना है। उस काण्ड को लेकर कुछ भाजपा सांसदों को बर्खास्त किया गया। आज, भाजपा से निष्कासित जसवन्तसिंह, समाचार चैनलों को, टेलीविजन के जरिए सारी दुनिया के सामने कह रहे हैं कि, स्पीकर की अनुमति के बगैर नोटों की गड्डियाँ लहराने की सलाह हमारे ‘इस लौह पुरुष’ ने ही दी थी। तीन दिन से अधिक का समय हो गया है, हमारा ‘यह लौह पुरुष’ अपनी जबान तालू से चिपकाए बैठा है।

और तो और, ‘लौह पुरुष’ के जिस विशेषण को यह आदमी अपनी टोपी में खोंस कर अपनी शान बढ़ाता रहा है, ‘उस वास्तविक लौह पुरुष’ का अपमान करने में भी हमारे ‘इस लौह पुरुष’ को संकोच नहीं हुआ। लगता है, इस आदमी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है और विवेक नष्ट। इस आदमी ने कहा कि सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू के दबाव में राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगाया था। ईश्वर के सिवाय कोई भौतिक शक्ति ऐसी नहीं थी जो वल्लभ भाई से उनकी अन्तरात्मा के खिलाफ कोई काम करा लेती। लेकिन हमारा ‘यह लौह पुरुष’ सरदार वल्लभ भाई पटेल को दबाव में आने वाला क्षुद्र राजनीतिक घोषित कर गया।

भारत का प्रधानमन्त्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा (अब तो इसे ‘क्षुद्र और हीन महत्वाकांक्षा’ कहना ही समीचीन होगा) की पूर्ति के लिए इस आदमी ने सारे देश के सामने झूठ बोला, जान बूझ कर झूठ बोला, दुराशयतापूर्वक झूठ बोला, अभिलेखीय झूठ बोला, संसद को अपवित्र किया। मुझे तो इस आदमी के मुकाबले मोहम्मद अफजल बहुत ही छोटा अपराधी लगने लगा है। उसने जो कुछ भी किया, ‘दुश्मन मुल्क’ पर किया। किन्तु इस आदमी ने तो यह सब अपने ही मुल्क पर किया। मुझे आजीवन ग्लानि रहेगी कि सारी दुनिया में भारत की इज्जत हतक करने वाले इस आदमी की कुछ बातों पर मैं मुग्ध हुआ और इसे सच माना। मैं शर्म से गड़ा जा रहा हूँ।

इस प्राणान्तक वेदना के बीच भी मैं खुशी की एक किरण देख रहा हूँ। यह आदमी जब कुछ भी नहीं था तब इतना कुछ कर गुजरा।

यह आदमी यदि देश का प्रधान मन्त्री बन गया होता तो?

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