जब बैरागीजी को थाने में कविता सुनानी पड़ी

बी. एल. पावेचा


सन् 1965 में मेरा तबादला, सिविल जज मनासा के पद पर हुआ। तब तक बैरागीजी देश के अच्छे कवि के रूप में स्थापित हो चुके थे और वे मेरे लिए सम्माननीय हो चुके थे। मनासा में नौकरी ज्वाइन करने के बाद उनसे मेरी घनिष्ठता तो हुई किन्तु उससे पहले उनके बारे में कुछ अनूठी और रोचक जानकारियाँ मिलीं।

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि उनका मूल नाम नन्दराम दास बैरागी है। उनके पिताजी का नाम द्वारकादासजी बैरागी है। मुझे यह भी मालूम हुआ अर्थोपार्जन के लिए उन्होंने अपना केरियर वकील के मुंशी के रूप में शुरु किया था। बहुत कम लोगों मालूम है कि वे मनासा के तत्कालीन अग्रणी वकील जमनालालजी जैन साहब के मुंशी थे। वे (बैरागीजी) प्रतिभाशाली थे और भाषा पर उनका अधिकार था। इसलिये, जो काम दूसरे मुंशियों के लिए घण्टों का होता था, उस काम को बैरागीजी मिनिटों में निपटा देते थे।

मनासा के वकीलों और मुंशियों ने एक बड़ी रोचक जानकारी दी। मुंशीगिरी करते हुए बैरागीजी को दिन भर में जो कमाई होती थी, उससे वे, शाम को घर जाने से पहले कोर्ट के सारे मुंशियों को इकट्ठा कर, चाय-समोसे का नाश्ता कराते और बची रकम लेकर घर जाते थे। धन-संचय की इच्छा उनमें कभी नहीं रही। उन्हें धन से नहीं, सरस्वती से मोह था। यही उनकी प्रकृति थी।

आपने बैरागीजी को राष्ट्रीय मंचों पर कविता-पाठ करते देखा-सुना होगा। किन्तु शायद ही कोई कल्पना कर सकेगा कि बैरागीजी पुलिस थाने में कविता-पाठ करें। लेकिन बैरागीजी को पुलिस थाने में कविता-पाठ करना पड़ा था। मैं इस अनूठी घटना का चक्षु-साक्ष्य हूँ।

मेरे कार्यकाल मे, मनासा में गुलाबसिंहजी थानेदार थे। उनका तबादला हो गया। थाने के पुलिस कर्मचारियों ने उनका विदाई समारोह आयोजित किया। चाय-पानी, स्वल्पाहार की व्यवस्था थी। मैं भी इस आयोजन में निमन्त्रित था। मैं पहुँचा। थोड़ी देर में बैरागीजी भी आ पहुँचे। वे भी वहाँ निमन्त्रित थे। आप विचार कीजिए, थानेदार के तबादले की पार्टी में चाय-पानी के अलावा और क्या हो सकता है? कविता कैसे हो सकती है? लेकिन गुलाबसिंहजी ने अचानक ही दादा बैरागीजी से कविता सुनाने की फरमाइश कर दी। लेकिन दादा ने इस फरमाईश को सहज भाव से पूरा कर दिया। उन्होंने क्षण भर भी नहीं सोचा कि मैं अखिल भारतीय स्तर का कवि हूँ। इन पुलिसवालों को कविता क्यों सुनाऊँ? उन्होंने बहुत सुन्दर कविता सुनाई। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ मुझे अब भी याद हैं - ‘जब तक मेरे हाथों में है नीलकण्ठिनी लेखनी, दर्द तुम्हारा पीने से इनकार करूँ तो कहना।’

वे जितने अच्छे कवि थे, उतना ही समृद्ध, उतना ही मधुर कण्ठ उन्होंने पाया था। इसके चलते उनकी कविता का प्रभाव अविस्मरणीय होता था।

थाने में कविता पाठ को लेकर दादा और मैं एक मामले में बराबर रहे। उन्होंने इससे पहले और बाद में, मृत्यु-पर्यन्त कभी थाने में कविता-पाठ नहीं किया और मैंने भी उससे पहले से लेकर अब तक किसी कवि को थाने में कविता-पाठ करते नहीं देखा-सुना।

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पावेचाजी के दफ्तर में, पावेचाजी के साथ मैं।


दादा से जुड़ा, पावेचाजी का एक और रोचक संस्मरण और पावेचाजी का संक्षिप्त परिचय यहाँ पढ़िए। 


पावेचाजी का यह संस्मरण मेरे यू ट्यूब चेनल ‘बैरागी की बातें’ पर यहाँ देखा-सुना जा सकता है।


क्या हमारे गाँव चिड़चिड़े हो गए हैं?

 

बालकवि बैरागी

(दादा का यह लेख, इन्दौर से प्रकाशित हो रहे दैनिक नईदुनिया के, वर्ष 1993 के दीपावली विशेषांक में, पृष्ठ 16-17 पर छपा था। इसे क्या कहा जाए कि तीस बरस पहले लिखी बातें, आज की बातें लगती हैं। मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय नीमच से, श्रीमती शारदा संजय शर्मा के सम्पादन में प्रकाशित हो रहे मासिक ‘राष्ट्र समर्पण’ ने इसे अपने नवम्बर 2023 के अंक में छापा है। मुझे यह लेख उन्हीं के सौजन्य से मिला है। उन्हें धन्यवाद और आभार। दादा का लिखा हुआ, बहुत कुछ इधर-उधर बिखरा हुआ है। ऐसे लिखे हुए को सहेजने की कोशिश के अधीन ही यह लेख यहाँ दे रहा हूँ।)

महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा है ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’। यदि हम गहरे से देखें तो महाकवि की यह पंक्ति हमारे देश की आत्मा का सौ फीसदी सच्चा और सात्विक ही नहीं, तात्विक भी सही शब्दांकन है। 15 अगस्त 1947 के बाद हमारे पास आज करीब-करीब साढ़े पाँच लाख गाँव हैं। अखण्ड भारत में इनकी संख्या शायद सात लाख थी। कटने-बँटने के बाद हमारा भारत साढ़े पाँच लाख गाँवों में बसा हुआ है। स्थूल रूप से चाहे हम आजादी को 15 अगस्त 1947 से मान लें किन्तु भारत को निकट से पहचानने वाले राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय अध्येताओं का मत है कि सच्चे अर्थों में भारत 9 अगस्त 1942 को ही आजाद हो गया था। सरकार चाहे जिसकी और जैसी भी रही हो पर भारत ने स्वयं को उसी दिन से स्वतन्त्र मानकर जीना शुरु कर दिया था। मेरा मतलब सरकार के लेखे से ही है। सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने यह स्थापित कर दिया था कि  विदेशी सरकार का अब कोई वजूद भारत में नहीं है।

आजादी आने के बाद शनैः-शनैः देश का स्वरूप बनना और बदलना शुरु हुआ। योजनाएँ बनने और आकार लेने लगीं। जनता में समृद्धि और सम्पन्नता की ललक जागी। यह ललक, आज ललक से बढ़कर लपट में बदल गई है। आप-हम वह सब देख रहे हैं जो हमारी कल्पना में भी नहीं था। आकांक्षाएँ और महत्वाकांक्षाएँ जिस तरह पल्लवित होकर फलने-फूलने लगी हैं उससे हम सभी औचक-भौंचक और प्रायः अवाक् तक होने लगे हैं। हमारा देहात तन और मन तथा धन से जैसा कल था वैसा आज नहीं है और बेशक, आने वाले कल को वह वैसा नहीं रहने वाला है जैसा कि आज है। 

इस सारी होड़-दौड़ में हम देख रहे हैं कि हमारे ग्राम देवता की मूल पूँजी में दो मुकामों पर कमी आती जा रही है। किसी जमाने में कहा जाता था कि हमारा देहात भोला है, मासूम है। विकास और समृद्धि की चपेट में यह मासूमियत, यह भोलापन निरन्तर कम होता जा रहा है। हमारी दूसरी निधि थी हमारे ग्राम की शालीनता। आप मानें या न मानें पर हमारे गाँवों की यह शालीनता भी इन दिनों खीज, आक्रोश, आवेश, गुस्से और चिड़चिड़ाहट में नष्ट होती जा रही है। लगता है कि या तो हमारे देहात का कोई वाजिब हक मारा गया है या फिर कोई अवांछित और मनचाहा उसे मिल गया है। लगता है कि उसने स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र तथा विकास जैसे शब्दों को अपना आत्म-भाष्य दे दिया है। इन तीनों तत्वों ने उसके भोलेपन और उसकी शालीनता को आमूलचूल बदल दिया है। उसने खुलेआम कहना शुरु कर दिया है कि मासूमियत का मतलब मूर्खता होता है और शालीनता का अर्थ होता है मार खाते चले जाना। आजादी को उसने उद्दण्डता तक खींचना उचित समझ लिया है और शालीनता को अपने आसपास के बहते नदी-नाले या लहराते सरोवर में विसर्जित करने का अनुष्ठान शुरु कर दिया है। उसका तेवर, उसकी भाषा, उसकी अभिलाषा और उसकी आशा सभी कुछ बदलते जाने का का यह सक्रान्तिकाल है। उसकी बोली हमारे देखते-देखते बदल गई है। आज वह वैसा नहीं बोलता है जैसा कि पहले बोलता था। और यदि हम अपने मन से पूछें तो खुद-ब-खुद उत्तर आएगा कि हममें से आज कोई भी वैसा नहीं बोलता है जैसा कि पहले बाले जमाने में बोलता था। आकांक्षाएँ भाषा को बदल देती हैं और महत्वाकांक्षाएँ समूचे संस्कार का परिमार्जन कर देती हैं। भारत के देहात के साथ भी यही हुआ। 

चाहे आप देहात में जाकर चौपाल पर बातें करें या कि वहाँ का कोई आदमी आकर आपसे आपकी बैठक में बात करे, एक बात साफ है कि हमारे गाँव को लग रहा है कि हमारे शहरों ने उसके कई हकों को उससे छीन लिया है। जो गाँव में भी होना था, वह केवल शहर में होता चला जा रहा है। चाहे वह विकास की बात हो चाहे फिर विचार की। देहात का हम पर यह आरोप है कि शहरी विकास ने उसे लूट लिया है। गली-गली दिखाई पड़ने वाली समृद्धि के बावजूद देहात को लग रहा है कि वह विपन्न होता चला जा रहा है। उसकी धूल भरी गलियों में पलने-पुसने वाली पूरी की पूरी पीढ़ी और पौध को हमारे शहरों ने पीछे धकेल ही नहीं खदेड़ तक दिया है। वह इसे अपने अस्तित्व की लड़ाई का हिस्सा मानता है। परिणाम यह है कि आज हम अपने गाँव को बात-बात पर चिड़ा हुआ और खीजा हुआ देखते हैं। इसका असर उसके अपने अन्दरूनी जीवन पर भी पड़ा है। रात-दिन वह ऐसे विवादों और प्रकरणों के दलदल में धँसता-फँसता जा रहा है जिसका कि वह आदी नहीं था। हमारी कोर्ट-कचहरियों के आँगन-प्रांगण आज हमारे देहाती पक्षकारों से भरे पड़े हैं। पहले जहाँ वर्ण-समूहों और वर्ग-समूहों के झगड़े या विवाद होते थे आज वहाँ वर्ग, वर्ण के साथ-साथ धर्म के झगड़े और प्रपंच भी पैदा होते चले जा रहे हैं। कल तक हमारा जो देहात अपने पूरे भोलेपन के साथ  शत-प्रतिशत धार्मिक था आज वह कई अर्थों में साम्प्रदायिक तक हो चला है। कच्चे-पक्के लड़के-बच्चे आज वहाँ जिस तरह की आधी-अधूरी, कचरी-अधकचरी पढ़ाई प्राप्त कर रहे हैं, उससे उसकी मानस-सम्पदा छिनती चली जा रही है। पढ़ा-लिखा गाँव अपनी सामुदायिक चेतना और भावना को खोकर तरह-तरह की इकाइयों में बँटता दिखाई पड़ रहा है। आज से नहीं हमारे इतिहास ने हमें बताया है कि हजारों सालों से भारत का मूल चरित्र लोकतन्त्र का रहा है। पर आज लोकतन्त्र का अर्थ वहाँ क्या हो गया है, इसका एक ही उदाहरण बहुत है।

आप किसी भी गाँव में चले जाएँ, यदि सहज बात करेंगे तो उस गाँव के निवासी चाहेंगे कि भारत की लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव तो बिलकुल समय पर हो जाने चाहिए। पर ज्यों हीं आप पंचायत चुनावों की बात शुरु करेंगे कि वहाँ के दो-चार लोग इस बात की खुली वकालत करेंगे कि पंचायत के चुनावों को अभी रोक देना चाहिए और वहाँ जो जिस पद पर बैठा है उसे वहीं काम करने देना चाहिए। आप चकित रह जाएँगे जब आप सुनेंगे कि हमारी कई ग्राम पंचायतों की सामान्य बैठके चार-चार, पाँच-पाँच सालों से हुई ही नहीं हैं। तब भी वहाँ पंचायत का कामकाज चल रहा है। वह सब हो रहा है जो कि नहीं होना चाहिए। गाँव की जनता त्रस्त है पर कोई बोलने का साहस नहीं कर रहा है। पंचायत के मन्त्रीजी के कागजों में बैठकों के विवरण हैं किन्तु जब ग्राम पंचायत उन मन्त्रीजी से पूछताछ करती है तो वे सरपंच महोदय की तरफ कातर दृष्टि से देखते मिलते हैं। कई उदाहरण आपको इस तरह के मिल जाएँगे जहाँ कि लोकतन्त्र की प्रतिपक्षी भूमिका के आलोचक भाव को वे लोक विरोध तक ले गए और अब? अब तो वह विरोध से भी आगे दुश्मनी तक में बदलकर वहाँ के जन-जीवन को सनातन तनाव में लिप्त रखने लगी है। भारत के प्रधान मन्त्री तक के सामने चुनावों में आप हममें से किसी को भी चुनाव लड़ने का संवैधानिक अधिकार है और लोग उनके सामने लड़ते भी हैं। पर गाँव में दुश्मनी इस बात की है कि ‘आप देखिए साहब! इस दो कौड़ी के टटपूँजिए की हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि इसने मेरे सामने फॉर्म भर दिया? यह चुनाव में मेरे सामने खड़ा हो गया? इसकी औकात देखी आपने?’ ये संवाद आपको गाँव-गाँव सुनने को मिल जाएँगे। अपने सामने किसी विपक्षी या प्रतिपक्षी को चुनाव में वे खड़ा होते भी देखना नहीं चाहते। चुनाव में अपने सामने किसी को खड़ा नहीं होने देना और यदि खड़ा हो गया हो तो उसको लाठी तक से निपटाना तथा येन-केन-प्रकारेण लोकतान्त्रिक कुर्सी पर बैठकर फिर कई-कई सालों तक पंचायत की बैठकें तक नहीं करना, यह सब किस भविष्य का संकेत है? 

सच मानिए हमारा देहात लोकतान्त्रिक होते हुए भी आज मन से आत्मतन्त्रवादी होता जा रहा है। अपने भले बुरे का औचित्य सिद्ध करना उसने खूब सीख लिया है। समय ने उसे कितना प्रशिक्षित कर दिया है? ग्रामवासिनी भारत माता का यह सर्वथा नया स्वरूप है। एक तो शहरों ने उसे अपने पेट में डाल लिया और दूसरे उसने खुद शहर बनने की प्रक्रिया में अपने आपको न जाने क्या बना डाला। ज्यों-ज्यों जमीनों का मूल्य बढ़ता जा रहा है त्यों-त्यों अपने पड़ौसी की और सार्वजनिक या सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करके कब्जा करना उसने अपना हक मान लिया है। चारागाहों, श्मशानों और सार्वजनिक तालाबों तथा कब्रस्तानों की भूमियों पर आज किस-किस के कब्जे हैं यह सूची आप देखेंगे तो चकित रह जाएँगे। नतीजा यह है कि वहाँ की वैयक्तिक संवेदनशीलता प्रायः सामूहिक बनकर भभकती लगती है। आव-आदर का स्थान तनाव और बेबनाव ने ले लिया है। विकास आज वहाँ कार्यक्रम नहीं अपितु सौदेबाजी बन गया है। जन प्रतिनिधियों को गुलाल और फूलमाला के बाद भी प्रताड़ित और अपमानित करना तथा अपना दबेल बनाकर रखना उसने खूब समझ और सीख लिया है। सम्मान सहित अपमान करने की कला में हमारा देहात आज हमारे शहर से ज्यादा प्रशिक्षित है। विनम्रता को वह कायरता मानता है और विनय को टेपा। 

इस लेख को आप अपने मनोनुकूल विस्तार दे सकते हैं। 

मौसम अच्छा है। शुरु हो जाइए।

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बैरागीजी ने मेरी नौकरी छुड़वा दी और कहा - ‘यह मर्द से मर्द का वादा है।’

बी. एल. पावेचा

श्री बी. एल. पावेचा: पूरा नाम बसन्ती लाल पावेचा। जन्म वर्ष 1940। विक्रम विश्व विद्यालय से 1962 में विधि स्नातक की परीक्षा के स्वर्ण पदकधारी। 1962 में वकालात शुरु की। 1964 मे नौकरी के विचार से, म. प्र. लोक सेवा आयोग की परीक्षा दी और चयन सूची में पहला स्थान प्राप्त किया। सन् 1964 की अन्तिम तिमाही से सन् 1966 की अन्तिम तिमाही तक के दो वर्षों तक सिविल जज के रूप में काम किया। अक्टूबर 1966 से फिर से वकालात शुरु की। तब से इस टिप्पणी के लिखे जाने तक हाई कोर्ट में प्रेक्टिस कर रहे हैं। हाई कोर्ट बार एसोसिएशन इन्दौर के सचिव तथा अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। सन् 1995 में हाई कोर्ट ने ‘वरिष्ठ अभिभाषक’ घोषित किया। (इस टिप्पणी के लिखे जाते समय, म. प्र. के वरिष्ठ अभिभाषकों की सूची में पाँचवें स्थान पर)। दस वर्षों तक हाई कोर्ट की रूल कमेटी के सदस्य रहे। 1966 से 1992 तक इन्दौर के प्रतिष्ठित क्रिश्चियन कॉलेज के विधि संकाय में अध्यापन। हाई कोर्ट की लोक अदालत में लगातार दस वर्षों तक न्यायाधीश की जिम्मेदारी निभाई।

मैं, सन् 1965 में, मनासा में सिविल जज था। बैरागीजी के प्रति मेरे मन में सम्मान तो पहले से ही था किन्तु मनासा में रहते हुए उनसे घनिष्ठता भी हो गई। मेरे बारे में जल्दी ही उन्होंने आकलन कर लिया कि यह प्रतिभावान आदमी है और नौकरी में पिछड़ जाएगा। जब भी उनसे मिलना होता, बात होती, वे मुझे नौकरी छोड़ने के लिए कहते रहते थे। इच्छा तो मेरी भी थी कि नौकरी छोड़ कर, इन्दौर लौट जाऊँ और वकालत करूँ। क्योंकि नौकरी में प्रगति की सीमाएँ होती हैं। लेकिन विचार आता था कि जीवन-यापन के लिए जितनी आय चाहिए, वह कर पाऊँगा या नहीं? घनघोर आर्थिक अनिश्चितता का शिकार होना पड़ सकता था। ऐसी ही बातों के कारण जमी-जमाई नौकरी छोड़ने का साहस नहीं हो पा रहा था। परिवार में भी मेरे त्याग-पत्र देने-न-देने पर विचार चलता रहता था। ऐसे में बैरागीजी की प्रेरणा निर्णायक रही। 

यह बहुत ही, ऐसी नितान्त व्यक्तिगत बात है जो आज मैं सार्वजनिक रूप से साझा कर रहा हूँ। बैरागीजी ने कहा - ‘आपकी तनख्वाह 315 रुपये हैं। कट-पिट कर आपको हर महीने 275 रुपये मिलते हैं। आप इन्दौर जा कर वकालत शुरु करो। 275 रुपयों में जितने कम पड़ेंगे, मैं हर महीने उसकी भरपाई की ग्यारण्टी देता हूँ।’  बैरागीजी की इस बात ने मुझे हौसला दिया। इसके बाद तो मानो कोई विकल्प ही नहीं बचा था। मैंने स्तीफा दे दिया और इन्दौर आकर वकालत शुरु कर दी।

16 अक्टूबर 1966 को मेरे इन्दौर कार्यालय का उद्घाटन हुआ। तब से मैं वकालत कर रहा हूँ। तब से अब तक पीछे मुड़कर देखने की जरूरत ही नहीं हुई। 

लेकिन बैरागीजी की महानता देखिए कि तीन महीने के बाद मुझे उनका पत्र मिला। उन्होंने लिखा - ‘मुझे बिना किसी संकोच के लिख भेजिए कि मुझे कितने रुपये भेजने हैं। यह मर्द का मर्द से वादा है। पीछे नहीं हटूँगा।’ लेकिन यह ईश्वर ही कृपा ही रही कि ऐसी स्थिति बनी ही नहीं कि बैरागीजी को अपना वादा निभाना पड़ता। 

बैरागीजी की यह बात मेरे स्मृति-पटल पर स्थायी रूप से अंकित है। उनके इस प्रेरणादायी प्रोत्साहन के लिए मैं आजीवन उनका ऋणी हूँ। आज, जब 84 वर्ष की अवस्था में मैं वकालत कर रहा हूँ, लगातार सक्रिय बना हुआ हूँ तब सोचता हूँ, बैरागीजी की बात नहीं मानता तो चौबीस बरस पहले रिटायर हो जाता तो पता नहीं, आज जितना सक्रिय रह भी पाता या नहीं।

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पावेचाजी के साथ मैं, उनके दफ्तर में।



बोलपट के बैरागी

डॉ. मुरलीधर जोशी चाँदनीवाला

बात शुरु करूँ, तो वर्ष 1972 के वे दिन आँखों के सामने झूल जाते हैं, जब आचार्य श्री श्रीनिवास रथ विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ.शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ को प्रायः सुबह-सुबह भवभूति का ‘उत्तर रामचरित’ पढ़ाने जाते थे। दोनों महारथी गुरु-शिष्य की तरह आमने-सामने बैठते। आचार्य रथ जब श्लोकों का सस्वर पाठ कर उसकी सरस व्याख्या करते, तब दोनों तल्लीन हो जाते। कई बार दोनों की आँखें छलछला आतीं। कभी-कभार मैं भी आचार्य रथ के पीछे-पीछे चला जाता और एक तरफ बैठकर यह सब देखता रहता। एक बार आचार्य रथ सस्वर गा रहे थे-‘त्वं जीवितं त्वमसि मे हृदयं द्वितीयं त्वं कौमुदी नयनयोरमृतं त्वमङ्गे। इत्यादिभिः प्रियशतैरनुरुध्य मुग्धां तामेव शान्तमथवा किमतः परेण।।’ और उनका गला भर आया। ‘सुमन’ जी और आचार्य रथ की भावपूर्ण मुद्रा देखने काबिल थी। अचानक ‘सुमन’ जी ने बालकवि बैरागी के गीत का मुखड़ा याद दिला दिया-‘तू चंदा मैं चाँदनी, तू तरुवर मैं शाख रे!’ दोनों मन्द-मन्द हँस पड़े। दोनों ही बात करते-करते भवभूति से चल कर बालकवि बैरागी पर आ गये। उन दिनों ‘रेशमा और शेरा’ के लिये बालकवि बैरागी का लिखा गीत चर्चा में था। सुमन जी और आचार्य रथ के बीच बालकवि बैरागी के किस्से चल पड़े। उनके लिखे गीत-कविताओं पर गम्भीर चर्चा होने लगी। जहाँ तक मुझे याद है, ‘तू चन्दा, मैं चाँदनी’ की अनुगूँज के साथ ही हम वहाँ से बिदा हुए थे।

तब मुझे ज्यादा कुछ समझ में नहीं आया। अचरज में था, कि दो महान् व्यक्तित्व साहित्य में गोते लगाते-लगाते फिल्मी गीत में कैसे चले गये? ऐसा जरूर लगा कि भवभूति और बालकवि बैरागी एक ही पटरी पर दौड़ रहे हैं। भवभूति करुणा के कवि हैं, लेकिन उनमें शृंगार के बीजों का अंकुरण विस्मित कर देता है। यह तो मैं तब भी जानता था कि बालकवि बैरागी हिन्दी साहित्य के हैं, लेकिन वे सिनेमा में अपना गीत ले जाने के बाद भी दो दिग्गजों के बीच साहित्य का विषय बने रह सकते हैं, यह जानकर अचरज में था।

बालकवि बैरागी उज्जैन में रहते हुए सुमनजी और दादा चिन्तामणि उपाध्याय के शिष्य थे। बालकवि बैरागी के जीवन की करुण गाथा इनसे कभी छिपी हुई नहीं रही। सुमनजी अपने इस प्रिय शिष्य के प्रति बेहद संवेदनशील थे। बालकवि बैरागी के गीतों में उन्हें हृदय की करुण पुकार सुनाई देती, तो प्रेम की वह प्यास भी, जो सुमनजी और बालकवि बैरागी में बराबर-बराबर है। जब समझ आई, तब जाना कि बालकवि बैरागी का संसार बहुत बड़ा है। वे साहित्य में हैं, राजनीति में हैं, फिल्मों में हैं और इन सबके साथ अपने लोगों के बीच में भी हैं।

बालकवि बैरागी बहुत ही छोटी आयु में अपने भीतर बैठे हुए कवि को पहचान गये थे। जीवन की उठा-पटक के बीच भी उन्होंने अपनी लय टूटने नहीं दी। कवि सम्मेलनों के मंच पर वे बार-बार बुलाये जाते रहे। वे ऐसे बिरले कवि थे, जिन्होंने कवि सम्मेलन के मंच को साधने के साथ-साथ राजनीति को भी साध लिया था। वे जिस दल में थे, उसके कर्मठ सिपाही आजीवन रहे। वर्तमान परिदृश्य में अटलबिहारी वाजपेयी और बालकवि बैरागी, ये दो ही हैं, जो जितने यशस्वी कवि थे, उतने ही स्वच्छ राजनेता। ये दोनों ही जनता के अत्यन्त प्रिय चेहरे थे।

बालकवि बैरागी सिनेमा की ओर उस तरह नहीं गये, जिस तरह नीरज और अन्य दूसरे साहित्यकार गये। सिनेमा के लिये उन्होंने बहुत सारे गीत लिखे, लेकिन वे कभी भी आगे होकर उनकी चर्चा नहीं करते थे। उनके छोटे भाई विष्णु बैरागी बताते रहते हैं कि सिने-गीतों की चर्चा वे घर-परिवार में भी नहीं करते थे। घर वालों को तभी पता चलता, जब फिल्म के साथ गीत मशहूर हो जाता।

यूँ देखा जाए, तो बालकवि बैरागी के गीत और कविताएँ सिनेमा के प्रचलित ढाँचे के अनुरूप नहीं होती थीं। बालकवि हिन्दी के सच्चे पक्षधर थे। वे ताल ठोक कर हिन्दी का परचम लहराने वाले हिन्द के सपूत थे। दूसरे सिने-गीतकारों की तरह उन्होंने कभी भी अपने गीतों में उर्दू के शब्द नहीं डाले। वे हिन्दी की ताकत से अच्छी तरह परिचित थे। खड़ी बोली से भी ज्यादा भरोसा उन्हें आंचलिक बोलियों पर था। वे बड़े-बड़े लोगों के बीच बड़े ठाठ से अपनी प्यारी मालवी में बतियाते थे। यह बात उन्होंने पद्मभूषण पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास और सीतामऊ के राजकुमार रघुवीरसिंहजी से सीखी थी।

बालकवि बैरागी का रचनाकाल पचहत्तर बरस का है। चौदह वर्ष की आयु से लेकर अपने देहत्याग तक उनके गीतों की लय शहद की पतली धार की तरह अटूट है। उसे कहीं से भी छूकर देखो- मधुर, मदिर और जीवन से प्यार करती हुई। बालकवि बैरागी को शुरु से लेकर आखिरी तक अपने जीवन से, समाज से और इस संसार से कोई शिकायत नहीं। अपनी जड़ों को अन्तिम साँस तक सींचते रहने वाला कोई दूसरा गायक-कवि बैरागीजी को छोड़कर नहीं हुआ। दुनिया भर में अपने नाम का डंका बजा-बजाकर यह कवि हर बार लौट आता अपने उसी मनासा में, जिसने बचपन के अभाव तो दिये, लेकिन संसार में तैरना भी सिखाया। जो भी आया उनके पास, उनका होकर रह गया। शायद इसीलिए बालकवि बैरागी से जुड़े हुए हजारों लोग आज भी अपने-अपने दावे लेकर आते हैं और इस अनोखे इंसान पर अपना हक जमाते हैं। उनके संस्मरणों का पहाड़ इतना ऊँचा है, कि ठेठ ऊपर तक कोई नहीं जा सकता।

सत्तर का दशक बालकवि बैरागी के इतिहास का स्वर्णिम काल माना जा सकता है। भारत-चीन युद्ध के दौरान कवि सम्मेलनों का जो दौर था, उसमें बालकवि बैरागी की प्रतिभा निखर कर बाहर आई। लोकभाषा कवि सम्मेलनों में अपनी मालवी कविताओं से जान फूँकने वाले गिरिवरसिंह भँवर, सुल्तान मामा, भावसार बा जैसे कवियों के साथ बालकवि बैरागी की ख्याति दूर-दूर तक जा पहुँची। 1966 में आई फिल्म ‘गोगोला’ में बालकवि बैरागी का एक गीत था, जिसमें दो नायिकाओं का शिष्ट संवाद है। कम से कम शब्दों में गहरी व्यंजना - ‘चाँद सा गोरा, बेमतवाला/रस का लोभी, मन का काला/चल हट तूने क्या कह डाला।’ और इसके आगे का अन्तरा है - ‘मैं क्या उसका रूप बखानूँ? जानूँ री जानूँ, सब कुछ जानूँ? बतियाँ तोरी मैं ना मानूँ।’ इसी फिल्म का एक और मजेदार गीत था - ‘मोहे ला दे राजा मछरिया रे!’ मुजरा शैली में गाये गये इस गीत की विशेषता थी- अपने समय के विद्रूप पर करारी चोट। यह गीत हमारी न्याय व्यवस्था को झकझोरता है, और गुदगुदाता भी है।

बालकवि बैरागी मालवा के उस छोर पर हैं, जहाँ से आगे मारवाड़ लग जाता है। यहाँ की बोली मीठे सत्तू की तरह है। मिठास और ठण्डक एक साथ। स्वभाव में चाहे कितनी ही उष्णता आ जाये, उसे पिघलते देर नहीं लगती। बालकवि बैरागी बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी मिट्टी और उसकी सुगन्ध की तरफदारी करते हैं। वे अपनी कविता में अकादमिकता का ढिंढोरा पीटने की बजाय लोकरुचि का ध्यान रखते हैं। यही वजह है कि वे आजीवन लोक-पूजित रहे-साहित्यकारों में भी, फिल्म जगत् में भी और राजनीतिक गलियारों में भी।

बालकवि बैरागी को जिस एक गीत ने प्रसिद्ध कर दिया, वह तो ‘रेशमा और शेरा’ का वही गीत है जिसे सबने सुना और सबने सराहा-‘तू चन्दा, मैं चाँदनी, तू तरुवर मैं शाख रे। तू बादल मैं बिजुरी, तू पंछी, मैं पात रे’। किस्से बताते हैं, कि यह ख़ूबसूरत गीत जब लिखा गया, तब बालकवि बैरागी मध्यप्रदेश सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री थे। 1969-70 की बात है यह। संगीतकार जयदेव खुद चलकर आये थे भोपाल, उनसे गीत लिखवाने के लिये। जयदेव सप्ताह भर भोपाल मे रुके। बालकवि बैरागी ने यह गीत एक रात के लम्बे कैनवस पर लिखा। ऐसा लगता था, जैसे युग का चितेरा कवि मरुस्थल को अपने गीतामृत से सींचता चला जा रहा है और सिंचित भूमि में एक साथ कई चाँद उग आये हैं। रेगिस्तान को रससिक्त होकर उद्दाम चाँदनी में नहाया हुआ देखना हो, तो एक यही गीत है हमारे पास। जहाँ कुछ नहीं है सिवाय तपती रेत के, वहाँ पिया-मिलन की आस में गीत के जो बोल फूट पड़ते हैं, वे प्रणय का इतिहास रच देते हैं। ‘ना सरवर, ना बावड़ी, ना कोई ठण्डी छाँव। ना कोयल, न पपीहरा,ऐसा मेरा गाँव रे। कहाँ बुझे तन की तपन, ओ सैयाँ सिरमौर, चन्द्र-किरण को छोड़कर, जाये कहाँ चकोर। जाग उठी है साँवरे, मेरी कुँवारी प्यास रे! अंगारे भी लगने लगे, आज मुझे मधुमास रे!’ यह माँड गायन शैली में गाया गया वह गीत है, जिसकी जोड़ का दूसरा गीत अब शायद ही नसीब में हो, क्योंकि न अब बालकवि बैरागी हैं, न संगीतकार जयदेव, न भारतरत्न लता मंगेशकर। 

बालकवि बैरागी के जितने भी सिने-गीत हैं, वे देशज संस्कृति से सराबोर होने के साथ-साथ ऊबड़-खाबड़ और बंजर जमीन में हरी-भरी दूर्वा उगाने के करिश्मे जैसे हैं। बैरागी जी कभी भी न तो किसी प्रचलित लोकगीत की लीक पर चलते हैं, न नकल का रास्ता अपनाते हैं। वे सब जगह मौलिक हैं, और मौलिक बने रहने के लिये गीत के अलोकप्रिय होने के खतरे को समझते हुए भी जोखिम उठाते हैं। 1971 में आई फिल्म ‘वीर छत्रसाल’ में बालकवि बैरागी के एक नहीं, दो नहीं, तीन गीत शामिल हैं। ‘हाय बेदर्दी पिया काली रात में तो आ’ और ‘मोरी कसम झूठी कसमें ना खा’ में जो कसक है, जो हूक सी उठती है, वह हिन्दी कविता की आत्मा का शृंगार है। इस फिल्म के गीत बहुत लोकप्रिय नहीं हुए, लेकिन यहाँ हिन्दी साहित्य को प्रतिष्ठा मिली। इस फिल्म में बालकवि बैरागी के साथ महाकवि भूषण और नीरज के गीत भी हैं। फिल्म ‘वीर छत्रसाल’ के लिये लिखा गया बालकवि बैरागी का यह गीत कैसे अनदेखा रह सकता है-‘निम्बुआ पे आओ मेरे अम्बुआ पे आओ, आओ रे पखेरु मेरी बगिया में आआ’। 

बालकवि बैरागी पल-पल प्रकृति के बीच में हैं। उनके संस्कार प्रकृति के हैं। उनके सिने-गीतों में ग्राम्य सौन्दर्य झिलमिलाता है। उन्होंने कभी चाहा भी नहीं, कि इनसे कहीं दूर भाग कर किसी चकाचौंध से भरे स्वर्ग में बस जाएँ। उन्होंने अपने गीत अपनी मिट्टी में ही उगाए। वहीं उन्हें खाद-पानी दिया। फिल्म ‘दो बूँद पानी’ का वह गीत तो याद कीजिए-‘बनी तेरी बिन्दिया की ले लूँ रे बलैयाँ। भाभी तेरी बिन्दिया की ले लूँ रे बलैयाँ। दियेना सी दमके, लाजो की सुरतिया। कर दी उजारी मेरे भैया की रतियाँ।’ इसी तरह 1978 में आई फिल्म ‘पल दो पल का साथ’ में बैरागीजी का गीत ‘सजा ली तेरी बिन्दिया, रचा ली तेरी मेंहदी’ में भी देहात का घर-आँगन मुस्कुराता, खिलखिलाता दिखाई पड़ता है। 1985 में आई शायद वह आखिरी फिल्म ‘अनकही’ थी, जिसमें एक बार फिर बैरागीजी का गीत देखने-सुनने में आया। यह भक्तिरस में पगा हुआ अप्रतिम गीत था, जिसके बोल थे-‘मुझको भी राधा बना ले नन्दलाल’।

इसमें सन्देह नहीं कि बालकवि बैरागी का रचा हिन्दी साहित्य बहुत समृद्ध है। उनकी कविताएँ स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों में हैं, पढ़ाई जाती हैं, और पिछली पाँच-छः पीढ़ियाँ उन्हें गुनगुनाते हुए बड़ी हुईं। बैरागीजी के जीवन से जुड़े किस्से इतने मशहूर हो चुके हैं, कि केवल उन्हीं के बलबूते बालकवि बैरागी सदियों तक याद रखे जायेंगे। लेकिन यह भी सच है कि उनके सिने-गीतों का साहित्यिक विमर्श अभी शेष है। ये वे गीत हैं, जो मालवा के गाँव-देहात की सुगन्ध को हमारी उस संस्कृति में घोल देते है, जिसे हम ‘भारत की साझा संस्कृति’ कहते हैं। यही वह आईना है, जिसमें हम अपने आप को देखते हैं, और आत्म-मुग्ध होकर रह जाते हैं।

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‘मधुपर्क’, 07 प्रियदर्शिनी नगर, कस्तूरबा नगर, रतलाम-457001 
मोबाइल - 94248 69460


(भोपाल से प्रकाशित मासिक ‘रंग संवाद’ के नवम्बर 2023 अंक में प्रकाशित)

पत्र

 

बालकवि बैरागी

दादा की इस कहानी की जानकारी मुझे नहीं थी। यह कहानी, उज्जैन से, अनियतकालीन प्रकाशित होती रही कहानी पत्रिका ‘सांझी’ के  कहानी विशेषांक (जनवरी 1987) में छपी थी। (अब स्वर्गीय) श्री हरीश निगम इसके सम्पादक/प्रकाशक थे। यह कहानी और ‘सांझी’ के बारे में ये जानकारियाँ मुझे प्रिय विवेक मेहता (आदीपुर/कच्छ/गुजरात) ने अत्यन्त आत्मीयता और चिन्ता से मुझे उपलब्ध कराई है। मालवांचल के ख्यात, अत्यन्त आदरणीय, किसी सन्त की तरह चुपचाप साहित्य को समृद्ध करनेवाले साहित्यकार (स्व.) श्री मंगल मेहता का बेटा है विवेक। अपने पिता के लिखे को सहेजने, डिजिटीकरण कर संरक्षित करने के लिए कोई बेटा किस तरह खुद को समर्पित कर सकता है, इसका प्रेरक, अनुकरणीय और अनुपम उदाहरण है विवेक।  


‘आप के सहृदयतापूर्ण पत्र को सारे घर-भर ने सिर पर उठा रखा है। पत्र आया, तब मैं शादी में बड़ौदा गया हुआ था। लौटा तो गुड्डू गद्गद था कि आपने बड़ी मुहब्बत से याद किया है। बच्चे कह रहे थे कि अब तो आपकी शिकायत मिट गयी कि कोई आपको पूछता ही नहीं हैं, न कोई जानता है, न याद करता हैं। लो, यह पत्र आ गया है। अब आप इसका उत्तर दे दो। रीता भी पूछती रही है कि जवाब क्यों नहीं लिखते? मेरी इतनी लम्बी रामकथा से भी वह प्रसन्न नहीं है। उसकी टिप्पणी भी है कि यह तो फूल का जवाब पत्थर से हुआ। मैंने रीता से कहा कि अभी मेरे हाथ में पत्थर नहीं, न मै आने देना चाहता हूँ। और कागज के पत्थर अब बिल्कुल बेअसर है।

‘मतलब की बात सीधे-सीधे कहना मेरा स्वभाव नहीं रहा है। खैर, जब आपने पूछा है तो बताना ही चाहिए। वैसे देखें तो परेशानी है भी और नहीं भी है। बाबूलाल से भी ज्यादा मुसीबतजदा लोग जिन्दा हैं। उनकी कोई शिकायत भी नहीं है और अगर है भी तो उनके पास मनीष बाबू जैसी पहुँच वाला जरिया नहीं है।

‘आयु सैतालीस में चल रही है। नौकरी 23 साल से कुछ ज्यादा ही है। श्यामू अभी भी बेकार है और मैं बाबा बनने वाला हूँ। भुवनेश को पुलिस के रिक्रूटमेण्ट में भरती करवा दिया है। गुड्डू ग्यारहवीं में हैं। ज्योति 14 की हो गयी। अभी 8वीं में है। अप्पू 9वीं में चला गया है। जब जिम्मेदारियों के तेज नाखून गर्दन पर चुभ रहे हैं, तब मैं आपके खत का जवाब दे रहा हूँ। इन सारे हालात में मैं

‘मेडिकली डीकेटेगेराइज्ड कर दिया गया हूँ। एक आँख से कम दिखने के कारण सरकार मुझे स्टेशन मास्टरी में नहीं रखेगी। गये पाँच महीनों से मै अवकाश पर ही हूँ। दायी आँख का ग्लूकोमा का आपरेशन पाँच महीने पहले ही हो चुका है।

‘आपरेशन सफल रहा है। अब आप उपाय पूछते हैं तो मैं बताता हूँ। मेरी पे और ग्रेड सुरक्षित रहना चाहिए। यह हो सकता है, क्योंकि मुझे विकलांग लोगों के लिए बनी योजनाओं का लाभ दिया जा सकता है।

‘मैं पे और ग्रेड भी छोड़ सकता हूँ, यदि मुझे यही गुड्स क्लर्क बनाकर रख दिया जाये। मेरे लिए मकान बहुत बड़ी समस्या है। रेलवे का क्वार्टर नहीं मिला तो मैं नष्ट हो जाऊँगा। रीता ने तिनका-तिनका चुनकर जो घोंसला बनाया है, वह तबाह हो जायेगा। इस जमाने में तीन सौ रुपये महीने का मकान एफोर्ड नहीं कर सकता हूँ। गेंद अब तुम्हारे गोले में है।

‘तुमने पूछा तो मैंने लिख दिया। मैं हल्का हो गया। तुम बताओ कि अब तुम क्या करागे और मुझे क्या करना चाहिए?’

बाबूलाल के इस पत्र को मनीष बाबू ने चार-पाँच बार पढ़ा। वे जब-जब पत्र के इस अंश पर आते, एकाएक सिहर जाते। बाबूलाल का सारा परिवार उनकी आँखों में एक आकार लेता और फिर वे पाते कि सारा परिवार टूटकर बिखर रहा है। रीता भाभी की सूरत उनकी पुतलियों में तैरती और फिर वे पत्र में कुछ ढूँंढने की कोशिश में अनमने हो जाते।

बाबूलाल कभी भी मनीष बाबू का प्रशंसक नहीं रहा। मनीष बाबू का लिखा हुआ वह यहाँ-वहाँ पढ़ता और उस पर तीखी-तेज टिप्पणियाँ करता। जब भी मिलता तो गाली-गलौज करता। मनीष बाबू को यदा-कदा लगता था कि बाबूलाल में एक लेखक बनने के सारे गुण मौजूद हैं, पर बाबूलाल केवल एक पाठक बनकर रह गया। आलोचना का उसका तेवर इतना कड़वा और कसैला होता गया कि अन्ततः वह एक कुण्ठित पाठक से अधिक कुछ नहीं रह गया। उसकी यह कुण्ठा और चिढ़ उसकी आँखों के आसपास साफ झलकती थी। मनीष बाबू ने एक सहयोगी उपन्यास में अपने मित्रों के साथ एक अंश बाबूलाल से भी लिखवाया। बाबू ने लिखा भी बढ़िया था, लेकिन तब भी वह अपने आपको कुण्ठित ही पाता रहा। उसके लिखे अंश पर समीक्षकों ने बेहतर टिप्पणियाँ कीं। वह अंश पठनीय भी रहा, लेकिन बाबूलाल को न तो उपन्यास गले उतरा, न उसका लिखा अध्याय ही।

ज्योति 14 साल की हो गयी। मनीष बाबू फिर खो गये। अभी कल-परसों जैसी बात है। फिर उन्होंने याद किया। उनकी हँसी चली गयी। पूरे बारह बरस बीत गये। कल-परसों जैसा लगे बेशक, लेकिन काल पूरे बारह साल निगल गया है। तो क्या तब ज्योति दो ही बरस की थी? एक नन्हीं-सी गुड़िया, फ्रॉक में परियों जैसी थिरकती कितनी प्यारी लगती थी! फिर उन्होंने सोचा। तब फिर, गये सप्ताह रीता भाभी के साथ जो लड़की उनसे मिलने स्टेशन आयी थी, वह ज्योति ही रही होगी। और रीता भाभी? राम रे राम! सारे बाल कितने सफेद हो चले हैं! साथ-साथ देख लो तो लोग उन्हें बाबू की बड़ी बहन कहेंगे। संघर्ष सारा का सारा उनके बालों और गालों पर आ बैठा। आँखों के सिवाय रीता भाभी के पास कहीं नूर नहीं बचा था। भुवनेश को पुलिस में भरती करवा दिया। हे भगवान! माँ-बाप कितने भारी मन से बच्चों को पुलिस में भरती करवाते हैं! मनीष बाबू फिर से सिहर गये। परिवार कितना विवश होता जा रहा है। बाबू पर आती हुई जिम्मेदारियों ने मनीष बाबू को बिलकुल श्लथ कर दिया। वे अपनी कूर्सी पर लटक से गये।  

अपने एक अत्यन्त कड़वे आलोचक के परिवार के प्रति वे सजल हो आये। फोन उठाकर उन्होंने अपने पारिवारिक डॉक्टर से ग्लूकोमा के बारे में विशद् जानकारी ली। उधर से डॉवटर कुछ बोल रहा था। इधर मनीष बाबू जड़वत् होते जा रहे थे। क्या बाबू वाकई इतना निरीह हो गया है? क्या सरकार उसकी तेईस बरस की सेवाओं को यूँ कूड़े की टोकरो में फेंक देगी? एक आदमी ने अपनी भरी जवानी जिस विभाग के लिए काम करते-करते होम कर दी, आज उस विभाग के पास बाबू के लिए केवल पदावनति ही बची है? अपने आदमी पर मुसीबत हो, तब उसकी मदद की जानी चाहिए या उसे और अधिक अपाहिज बना दिया जाना चाहिए? हमारी सरकारों के ये कैसे नियम हैं? वे विचारों में खो गये। उन्होने अपने उद्वेलन को संयत करने की कोशिश की। फिर उनको लगा कि उनके सारे कमरे में ग्लूकोमा का अँधेरा फैल गया है। बाबूलाल अन्धा हो गया है। रीता भाभी उसे नहलाने के लिए बाथरूम की तरफ ले जा रही हैं।

वे जोर से चीखे, ‘नहीं! नहीं!! बाबूलाल अन्धा नहीं होगा। उसका आपरेशन सफल हुआ है।’ चीख सुनकर मनीष बाबू की पत्नी भागती हुई आयी। पसीने से नहा चुके थे मनीष बाबू। उन्होंने घबराये हुए बाबूलाल का खत अपनी पत्नी को थमा दिया। पत्र देखते ही वे समझ गयीं कि खत बाबूलाल का है। बिना पढ़े ही वे बोलीं, ‘बाबू भाई को ऊलजलूल लिखने-बोलने और कहने की आदत है। आपकी ताजा रचना पढ़कर वे कुछ लिख बैठे होंगे। इतना परेशान होने को क्या बात है? लेखकों, कवियों के सामने तो इस तरह के क्षण आते ही रहते हैं। माँ-बहन की गालियाँ तक तो आज के आलोचक देने लगे हैं। फिर बाबू भाई का मामला तो...’

मनीष बाबू ने उन्हें रोका, ‘नहीं। नहीं। बात ऐसी नहीं है। बाबूलाल और उसका परिवार बिलकुल तबाह होने की कगार तक पहुँच गया है। उसके बारे में भी दस-बारह दिन पहले ही मंगलजी ने सब कुछ बताया तो पत्र लिखकर सारा हालचाल पूछा। बाबू ने जो कुछ लिखा है, वह रोमांचकारी है।’ और मनीष बाबू एक क्षण को फिर बाबूलाल को स्टेशन मास्टरी करते देखने लगे - वह सिग्नल के लिए कण्ट्रोल से पूछ रहा है। रजिस्टर में गाड़ियों के नम्बर ओर टाइमिंग दर्ज कर रहा है। टेबलेट के लिए टेबलेट बाक्स पर लगी घण्टी को ठीक कर रहा है। और अनायास उसका हाथ अपनी दाहिनी आँख पर जा टिकता है। वह आँख मसलता है और फिर उसे एक अनचाही चौड़ाई देते देते हए, माथा लटकाकर टेलीफोन कान से लगाकर कहता है, ‘हलो....कण्ट्रोल! हलो... कण्ट्रोल...!’

सारा कमरा अवसाद से भर गया है। मनीष बाबू को लगा कि उनके हाथों को लकवा हो गया है । सख्त परेड करता हुआ भुवनेश उन्हें खयालों में दिखाई दिया। उसका यूनिफार्म गन्दा है। उसका परेड-हवालदार उसे माँ-बहन की गालियाँ दे रहा है। कॉशन कम, गालियाँ ज्यादा देते हुए हवालदार को जमकर डाँट पिलाने लिए मनीष बाबू मुँह खोलना ही चाहते हैं कि टेलीफोन की घण्टी घनघना उठती है। वे ललाट का पसीना पांेछकर चोंगा उठा लेते है, ‘हलो....यस...मनीष दिस साइड.. जी हाँ, मैं मनीष बोल रहा हूँ। आपका शुभ नाम?’ और उधर से पहले एक ठहाके की आवाज गूँजती है। फिर सीधा-सा जवाब आता है, ‘मैं बोल रहा हूँ। बाबूलाल।’ मनीष बाबू रोमांचित हो जाते हैं, कम्बख्त यह बाबूलाल कितना क्रूर है?

वे इसकी चिन्ता में रो रहे हैं, वो उधर हँस रहा है। सूखते हुए कण्ठ में थूक निगलते हुए मनीष बाबू ने पूछा, ‘क्या बात है बाबू भाई? यह ट्रंक करके पैसा क्यों बिगाड़ा? खत ही लिख देते। क्या स्टेशन से बोल रहे हैं?’

‘स्टेशन से ट्रंक काल को सुविधा कहाँ है? तुमसे बात करने के लिए सारा परिवार यहाँ रशीद मियाँ के घर आकर बैठा है। बच्चे कह रहे हैं कि अंकलजी से बात करेंगे। तीन मिनट का समय है। लो, एक-एक वाक्य सबसे सुन लो।’

मनीष बाबू की चेतना विलुप्त हो गयी। क्या सुनना था? किसका सुनना था? पहली आवाज रीता भाभी की थी, ‘सुनिए मनीष बाबू? मैंने इन्हें तैयार कर लिया है। आपके साथ ये दिल्ली जाने को तैयार हो गये हैं। आप वहाँ जाकर रेल मन्त्रालय में.....’ आगे के शब्द मनीष बाबू सुन सकें, इस मनःस्थिति में नहीं थे। उनके हाथ काँपने लगे। तभी दूसरे छोर से ज्योति बोली, ‘हलो अंकलजी! मैं आपकी ज्योति! आप पापा की बातों का बुरा मत मानिए। आप अपने साथ इनको दिल्ली ले जाइए। आपके सिवा हमारा कौन है? माँ भी यही कह रही थी। आपको कुछ-न-कुछ करना ही है। पापा तो कोरे आलोचक हैं। आलोचक का होता भी कौन है? प्लीज अंकलजी.....।’ मनीष बाबू के हाथ से चांेगा कभी का छूट चुका था। वे बिलकुल बिखर गये थे। रोते-रोते उनकी हिचकियाँ बँध गयीं। कमरे का दरवाजा खुला था और रास्ते आते-जाते लोग उनको हमेशा की तरह देख रहे थे। पर वे अपना यश, अपनी कीर्ति और अपनी प्रतिष्ठा सब भूलकर अनवरत रोये जा रहे थे।

फोन की घण्टी फिर बजी, मनीष बाबू की श्रीमती ने फोन उठाया। उधर से बाबू की आवाज थी, “भाभी! पहली बात पूरी नहीं हो पायी। जरा मनीष बाबू से बात करवा दीजिए। उनकी एक ताजा कविता मैंने अभी-अभी ‘पंकज’ में पढ़ी है!” मनीष बाबू को चोंगा थमाकर उनकी श्रीमतीजी मनोभावों का आकलन करने वाली शैली में खड़ी हो गयी। बाबू बोल रहा था, “मनीष बाबू! आज वाली कविता एकदम फूहड़ और थोथी है। आप जैसा कवि इतना घटिया लिखे, यह उम्मीद नहीं थी। पत्र-पत्रिकाओं वाले भी नाम को रोते हैं। आप अगर यह कविता नहीं लिखते तो हिन्दी साहित्य का ज्यादा भला होता। खैर, बहरहाल ज्योति बिटिया कुछ और कहना चाहती है। जरा उसकी बात सुन लो।’ मनीष बाबू बिलकुल गुमसुम, कान पर चोगा लगाये बैठे सुनते रहे, ‘हेलो! ज्योति बेटा! में मनीष अंकल बोल रहा हूँ। बोलो बेटे! क्या बात है?’ ‘अंकलजी! मम्मी, पापा को बुरी तरह डाँट रही है। देखिए, अभी भी पापा ने कितना कड़वा बोल बोल दिया हैं आपको! ये तो बस ऐसे ही हैं। आप अंकलजी, बोलिए न, पापा कौन-सी गाड़ी का पास बनवाएँ? माँ ने कहा है कि आपको किराये के लिए अपना कुछ खर्च नहीं करना पड़ेगा। अभी उसके हाथों में कंगन है......।’

मनीष बाबू के लिए अब सुनना और सहना मौत जैसा हो गया था। लोक-लाज का डर नहीं होता तो वे दहाड़ मार-भार कर रोते। वे उठे। नल के नीचे जाकर हाथ-पाँव धोये। मटके में से पानी का गिलास भरा। ठण्डा पानी पिया। आश्वस्त हुए। कुरसी सरकाकर लिखने की टेबल के छोरों से सटकर बैठे। टाइप रायटर आगे को सरकाया। उसमें कागज फँसाया। स्पेसिंग किया। एक नजर सामने वालो दीवार पर डाली। और उनकी ऊँगलियाँ टाइप मशीन की चाबियों पर चलने लगीं। पहला ही वाक्य जो उन्होंने टाइप किया, वह था - ‘आदरणीय रेल मन्त्रीजी....सादर अभिवादन....’ और कबूतरों की फड़फड़ाहट जैसी, चाबियों की आवाज सारे कमरे में भर गयी। उन्हें आभास भी नहीं था कि उनकी श्रीमतीजी उनकी कुर्सी से कभी की सटी खड़ी हैं। बोलीं -‘इस तरह के काम पत्रों से नहीं होते। खुद दिल्ली के लिए निकल जाइये। मैं बाबू भाई को फोन कर दूँगी कि आप रवाना हो चुके हैं।’

रोलर को उल्टा घुमाते हुए मनीष बाबू ने अधूरा पत्र बाहर निकाला। फाड़कर रद्दी को टोकरी में डाला। कुर्सी से उठे और....

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