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तकनीकी प्रभातियों में माँ
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अपवादों में आपवादिक सुखद संयोग
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रवि का ढोल
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हेप्पी शिवरात्रि
मूक मालियों का ‘अंकुर’
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कूरीयर सेवाएँ: जाएँ तो जाएँ कहाँ?
ब्लॉग ने बचाया ठगी से
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सहजता से असहज करना
मिर्ची में मिर्ची मिलने की जुगत
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मेरे कस्बे में कालिदास
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सरकारी काम याने मेरी गिरफ्तारी
चार्वाक : अमरीकियों के आदर्श?
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अथ गणदेवताय नम:
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यह मेरी ‘खानापूर्ति पोस्ट’ है। इस ब्लॉग के लिए लिखी गई पोस्ट नहीं। ‘दैनिक भास्कर’ के, देवास तथा झाबुआ जिलों के संस्करणों के, गणतन्त्र दिवस 2012 पर प्रकाशित स्थानीय परिशिष्टों में यह ‘मुख्य आलेख’ के रूप में प्रथम पृष्ठ पर, सचित्र प्रकाशित हुई थी।
हे! गणदेवता, यह सब क्या हो रहा है? और तुम क्या कर रहे हो?
ऐसा तो इस देश में कभी नहीं हुआ! तब भी नहीं, जब अंग्रेजों का राज था। तब तो एक ही दुःख था कि हम अंग्रेजों के गुलाम हैं। आज तो हम अंग्रेजों के गुलाम नहीं हैं, आजाद हैं और हालत यह है कि लोग अंग्रेजों का राज याद करने लगे हैं! कहने लगे हैं कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का राज था! यह सब हो रहा है और तुम गूँगे और असहाय बने, अकर्मण्य बैठे हो? कुछ भी पूछो तो जवाब देते हो - ‘मैं कर ही क्या सकता हूँ?’ जिन स्वरों ने अंग्रेजों के पैर उखाड़ दिए उन स्वरों में इतनी दयनीयता? इतनी लाचारी? क्या हो गया है तुम्हें?
तब की बात और थी। वे तो परदेसी थे। उन्हें भारत की कोई चिन्ता नहीं थी। उन्हें मतलब था अपनी थैलियाँ भरने का, भारत की सम्पदा के दोहन का। अमानवीय और क्रूर शोषण के बावजूद एक बहाना था, एक तसल्ली थी कि कोई अपनेवाला हमारे साथ यह सब नहीं कर रहा है। लेकिन आज तो सब के सब अपनेवाले ही हैं! क्या इसीलिए चुप बैठे हो कि सब अपनेवाले हैं?
ऐसे कैसे अपनेवाले? ये तो हमारी चौकीदारी करने की, हमारी बेहतरी की जिम्मेदारी लेने का भरोसा दिलाते हैं लेकिन सबके सब डकैतों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। सत्ता-लोलुप नेताओं, भ्रष्ट अफसरों और स्वार्थी-लालची धन-पशुओं की तिकड़ी ने ताण्डव मचा रखा है। अंग्रेजों के राज में पूरा देश एक था - भारत। भारत को ही अंग्रेजों से आजाद कराया था। लेकिन इन सबने तो देश को दो हिस्सों में, इण्डिया और भारत में बाँट कर रख दिया है! देश की तीन चौथाई सम्पत्ति, देश के गिनती के घरानों की तिजोरियों में बन्द हो गई है। आँकड़ों के दम पर देश को दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों में जगह मिलने का दावा किया जाता है और इधर हकीकत यह है कि गरीब को तो साँस लेना भी दूभर हो रहा है। हमारे नेताओं को इस बात पर तो गुमान है कि दुनिया के धनवानों की सूची में अब कुछ भारतीयों के नाम भी नजर आने लगे हैं। लेकिन इनमें से किसी को इस बात पर क्षण भर भी शर्म नहीं आती कि इनके लिए अन्न उपजानेवाला, इनका ‘अन्नदाता’, इन्हें जिन्दा रखने के लिए खुद आत्महत्या कर रहा है।
देश की अधिसंख्य आबादी आज भी देहातों में बसती है और खेती-किसानी-मजदूरी पर निर्भर है। किन्तु नीतियाँ बन रही हैं कार्पोरेट घरानों की बेहतरी केा ध्यान में रखकर। आम आदमी के विरुद्ध इस अमानवीय और प्राणलेवा षड़यन्त्र में सारे राजनीतिक दल और राजनेता मानो सबसे आगे रहने की प्रतियोगिता में लगे हैं। जिस संसद में भारत के जन सामान्य की झलक नजर आनी चाहिए थी, जहाँ किसानों-मजदूरों की आवाज प्रतिध्वनित होनी चाहिए थी, आजादी के शुरुआती दौर में जहाँ धोती-कुर्ते-गमछे नजर आते थे वहाँ आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के, सूट-बूट में सजे नुमाइन्दे नजर आ रहे हैं, उन्हीं कम्पनियों के लिए लाल कालीन बिछाने की जुगतें भिड़ाई जा रही हैं। कतार में खड़े अन्तिम आदमी की चिन्ता करते हुए, आजीवन अधनंगे रहनेवाले गाँधी की दुहाइयाँ देकर उसी अन्तिम आदमी की लंगोटी तक छीनने के जतन किए जा रहे हैं। आम आदमी के जिस नमक को गाँधी ने अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाया था वही नमक आज उसी आम अदमी के लिए विलासिता की वस्तु बना दी गई है। जिस गाँधी को आज सारी दुनिया आत्मसात कर रही है, लगता है कि उसी गाँधी के देश में, गाँधी की समाधि राज-घाट का नीलाम होना ही बाकी रह गया है!
हे! गणदेवता, ऐसे में तुम चुप कैसे बैठ सकते हो? अंग्रेजों से आजाद कराकर हमने भारत को ‘गणतन्त्र’ का रूप दिया है। इस शब्द का अर्थ और महत्व समझो।
दो शब्दों, ‘गण’ और ‘तन्त्र’ से बना यह एक शब्द तुम्हारे-हमारे लिए ‘आराध्य की साधना का मूल-मन्त्र’ है। ‘गण’ का अर्थ है - लोग। याने, हम सब। और ‘तन्त्र’ का अर्थ है - शासन व्यवस्था जिसे शासकीय अमला या अफसरों-बाबुओं-कर्मचारियों की जमात। अब ‘गणतन्त्र’ पर तनिक ध्यान दो। इसमें ‘गण’ पहले है और ‘तन्त्र’ बाद में । सीधा और एकमात्र मतलब है कि ‘गण’ को आगे रहना है और ‘तन्त्र’ को उसका अनुगमन करना है, ‘गण’ के पीछे-पीछे चलना है। किन्तु आज सब कुछ उलटा हो गया है। ‘गण’ की चुप्पी और लापरवाही के कारण ‘तन्त्र’ ने ‘गण’ पर सवारी कर ली है। अफसरशाही-बाबूशाही ने पूरे देश पर कब्जा कर लिया है। बची-खुची कसर सत्तालोलुप नेताओं ने पूरी कर दी। यह अचानक नहीं हुआ। धीरे-धीरे हुआ और इसलिए हुआ कि ‘गण’ ने अपनी जिम्म्ेदारी पूरी नहीं की। वह ‘तन्त्र’ पर निर्भर हो गया। हम सब भूल गए कि आजादी केवल अधिकार नहीं, जिम्मेदारी भी है। हम अधिकारों की माँग करते रहे और जिम्मेदारी भूल गए। गैर जिम्मेदार लोग किसी भी ‘तन्त्र’ के लिए सर्वाधिक आसान शिकार होते हैं। यही हमारा कष्ट है।
इसलिए हे! गणदेवता, जागो। अंग्रेजों की गुलामी के दौर में, देश की जनसंख्या में नौजवानों की उपस्थिति के मुकाबले आज नौजवानों की तादाद अधिक है - देश की जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा। कोई भी देश अपने नौजवानों की ही सम्पत्ति होता है। इसीलिए तो नौजवानों को देश का भविष्य कहा जाता है! देश की यह दुर्दशा हमने ही की है। इसलिए इससे उबरना भी हमारी ही जिम्मेदारी है। वैसे भी स्वर्ग देखने के लिए मरना पड़ता है। आज स्थिति यह है कि देश की अधिसंख्य आबादी मर मरकर जी रही है। इससे अच्छा तो यही है एक बार जी कर मर जाएँ।
इसलिए हे! गणदेवता, उठो! अपनी कराहों, सिसकियों को हुँकार में और असहाय विवशता को बेचैनी भरे आक्रोश में बदलो। बाजी पलटना यदि आसान नहीं है तो तय मानो कि मुश्किल कुछ भी नहीं। इतिहास गवाह है कि प्रयत्नों को ही परिणाम मिलते हैं और मेहनत करनेवालों की हार नहीं होती। हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते किन्तु वर्तमान में संघर्ष कर भविष्य सँवारने के जतन तो कर ही सकते हैं।
इसलिए हे! गणदेवता, उठो! निराशा की कन्दरा से बाहर आओ। साध्य तो तय है। आवश्यकता है, साधनों की। वे चारों ओर बिखरे पड़े हैं। उन्हें समेटो। ध्यान इतना ही रखना कि उनमें से केवल पवित्र साधन नही चुनना। वर्ना, अपवित्र साधनों के चलते जो दुर्दशा अण्णा-आन्दोलन की हुई है, उसका दुहराव हो जाएगा। सावधानी बस इतनी ही बरतनी है कि देश की दुहाई देकर पार्टी लाइन पर मत उतर जाना। जो गलत है, वह गलत ही होता है, कोई भी करे - अपनेवाला या सामनेवाला। यदि बिना भेदभाव किए गलत का प्रतिकार कर लोगे तो इतिहास बना दोगे वर्ना इतिहास के गर्त में चले जाओगे।
हे! गणदेवता, उठो! सफलता तुम्हारे कदम चूमने को बेताब है। तुम कदम तो उठाओ!
एक पिछड़ा, नासमझ राष्ट्रवादी
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