तोड़ दो यह बाँध


दादा की यह कविता इसलिए तनिक अनूठी है कि यह उनके किसी संग्रह में नहीं है किन्तु यू ट्यूब पर इसके ढेरों वीडियो उपलब्ध हैं। इतने वीडियो, उनकी और किसी कविता के उपलब्ध नहीं हैं। 


                                            जब धरा पर धाँधली
                                            करने लगे पागल अँधेरा।
                                            और मावस धौंस देकर
                                            छीन ले तुमसे सवेरा।
                                            तब तुम्हारा हार कर, 
                                            यूँ बैठ जाना
                                            बुजदिली है, पाप है
                                            आज की इन पीढ़ियों का
                                            बस यही सन्ताप है।

                                            अब भी समय है
                                            आग को अपनी जलाओ।
                                            बाट मत देखो सुबह की
                                            प्राण का दीपक जलाओ।

                                            मत करो परवाह
                                            कोई क्या कहेगा
                                            इस तरह तो वक्त का दुश्मन
                                            सदा निर्भय रहेगा।

                                            सब्र का यह बाँध तुमने
                                            पूछ कर किससे बनाया?
                                            वह कौन है जिसने तुम्हें
                                            इतना सहन करना सिखाया?

                                            तोड़ दो यह बाँध
                                            बहने दो नदी को।
                                            दाँव पर खुद को लगा कर
                                            धन्य कर दो इस सदी को।
                                                        -----

महल से नीचे पधारो

 

बालकवि बैरागी

महल से नीचे पधारो, देश फिर वन्दन करेगा
फिर वही अर्चन करेगा, और अभिनन्दन करेगा
महल से नीचे पधारो.....

00000

बहुत दिन पहले कहा था, फाँस गहरी गड़ रही है
नाव डगमग हो रही है, औ’ भँवर में पड़ रही है
घाव बहने लग गये हैं, ओज सब ढलने लगा है
बेबसी बढ़ने लगी है, हर रुँआ जलने लगा है
किन्तु तुमने मुँह सिकोड़ा, औ’ मुझे दी गालियाँ
और सत्ता की सुरा की, खूब ढाली प्यालियाँ

किन्तु अब मेरा कहा, फरमान बनने जा रहा है
अब सिकोड़ो नाक-भौंह, वो काल सिर पर आ रहा है

इसलिए फिर कह रहा हूँ,
महल से नीचे पधारो.....

00000

आग में रख दो, कमीनी कुर्सियों को तोड़ दो
हद से ज्यादह हो गया है, मेनका को छोड़ दो
संगठन सब सड़ गया है, कोढ़ कितनी गल रही है
तुम समझते हो कि गाड़ी, पटरियों पर चल रही है
आँख तो खोलो जरा, , देखो हकीकत और है
महल जो तुमने बनाया, किस कदर कमजोर है

पुण्य जितना था पुराना, सब भुना कर खा गये हो
तुम कहाँ पर जा रहे थे, औ’ कहाँ पर आ गये हो

इसलिए फिर कह रहा हूँ
महल से नीचे पधारो.....

00000

ये महल, ये कुर्सियाँ, गर देश है तो सब रहेंगे
बात कुछ नीची हुई तो, सब बुरा तुमको कहेंगे
इस तरह इन आँधियों में, तुम अड़े कैसे रहोगे?
पाँव ही जब तोड़ लोगे, फिर खड़े कैसे रहोगे?
अफसोस! सत्ता के नशे में, किस कदर तुम खो गये हो
सौ नरक बस जायें, इतने पाप तुम खुद कर गये हो

मैं कसम से कह रहा हूँ, अब सहा जाता नहीं है
क्या कहूँ? कैसे कहूँ, कुछ भी कहा जाता नहीं है

इसलिए फिर कह रहा हूँ,
महल से नीचे पधारो.....

00000

किस कदर तुम हो गये हो, दूर इस आवाम से
कर रही हैं पीढ़ियाँ थू-थू तुम्हारे नाम से
उफ! शहीदों का चमन, सारा उजड़ता जा रहा है
तुम बनाने जा रहे हो, पर बिगड़ता जा रहा है
हज्म तक होता नहीं है, पेट इतने भर लिये
यादवों से हाल तुमने, आप अपने कर लिये

वरदान जनने थे तुम्हें, तुम श्राप जनते जा रहे हो
तुम पतन के दूसरे पर्याय बनते जा रहे हो

इसलिए फिर कह रहा हूँ,
महल से नीचे पधारो.....

00000

आज भी विश्वास मेरा, तुम बहुत हो काम के
तुम बदल सकते हो नक्शे, आज फिर आवाम के
पर जरा नीचे पधारो, और पश्चात्ताप कर लो
फिर नई ताकत जुटाओ, देश का विश्वास लो

आस्था का देश है यह, सौ गुना फिर पाओगे
यह मुहूरत टल गया तो, देखना पछताओगे

इसलिए फिर कह रहा हूँ,
महल से नीचे पधारो.....
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झुँझनू (राजस्थान)
19 अगस्त 1963 

पाँच बाल-कविताएँ

बालकवि बैरागी


एक

गोरे-गोरे चाँद में धब्बा,
दिखता है जो काला-काला।
उस धब्बे का मतलब हमने,
बड़े मजे से खोज निकाला।
वहाँ नहीं है गुड़िया-बुढ़िया,
वहाँ नहीं बैठी है दादी।
अपनी काली गाय, सूर्य ने
चन्दा के आँगन में बाँधी।
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दो

शाम ढले पंछी घर आते।
अपने बच्चों को समझाते।
अगर नापना हो आकाश।
पंखों पर करना विश्वास।
साथ न देंगे पंख पराए।
बच्चों को अब क्या समझाए!
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तीन

बड़े सवेरे सूरज आया।
आकर उसने मुझे जगाया।
कहने लगा, ‘बिछौना छोड़ो,
मैं आया हूँ, सोना छोड़ो!’
मैंने कहा, ‘पधारो आओ।
जाकर पहले चाय बनाओ।
गरम चाय के प्याले लाना।
फिर आ करके मुझे जगाना।
चलो रसोईघर में जाओ।
दरवाजे पर मत चिल्लाओ।’
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चार

नदियाँ होतीं मीठी-मीठी,
सागर होता खारा।
मैंने पूछ लिया सागर से,
यह कैसा व्यवहार तुम्हारा?
सागर बोला, सिर मत खाओ।
पहले खुद सागर बन जाओ।
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पाँच

ईश्वर ने आकाश बनाया।
उसमें सूरज को बैठाया।
अगर नहीं आकाश बनाता!
चाँद-सितारे कहाँ सजाता?
कैसे हम किरणों से जुड़ते?
ऐरोप्लेन कहाँ पर उड़ते?
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ये बाल-कविताएँ, भोपालवाले श्री मनोज जैन ‘मधुर’ (मोबाइल नम्बर 93013 37806) की फेस बुक वाल पर ‘वागर्थ’ समूह से, रतलामवाले मेरे प्रिय आशीष दशोत्तर (मोबाइल नम्बर 98270 84966/96303 34034) ने उपलब्ध कराईं। दोनों का बहुत-बहुत आभार।




दिल्ली अलोनी हो गई बाबू सा’ब!

बालकवि बैरागी

26 जुलाई को इस बार फिर दिल्ली पहुँच गया। ठीक एक महीने बाद। इस बार काम का बोझ ज्यादा रहा। कुछ सरकारी काम काज कुछ गैर सरकारी मित्र मिलन। पूरे चार दिन दिल्ली में बीते। इससे पहले संजयजी की शवयात्रा मे शामिल होने गया था। अत्यन्त उदास और हताश अवसर था। भोपाल में रहकर सोचता था कि शायद दिल्ली की उदासी कुछ टूटी होगी। पर दिल्ली आकर देखा तो मन और उदास हो गया। उदासी बिलकुल नहीं टूटी है। हर तरफ एक गहरा विषाद और अव्यक्त बेचैनी है।

ठीक है कि प्रधान मन्त्री ने सरकारी काम-काज करना शुरु कर दिया है, पर उनसे जो भी भेंट करके आता है वह विगलित हो जाता है। मैं तो इस बार उनके सामने जाने का साहस भी नही जुटा पाया। अब वे ‘शुद्ध माँ’ हो गई हैं। उनका मातृत्व इस उम्र में आकर अत्यधिक व्यापक और समष्टिगत हो गया है। बारीक पर्यवेक्षण करने वाले लोग ऐसा ही कहते है। पुत्र शोक ने उनकी कोमलता को एक प्रकट एव स्पष्ट आत्मीयता दी है। अपना दुःख दर्द लेकर ? मिलने जाने वाले लोग उनके सामने जाकर सब कुछ भूल जाते हैं। मालवा के किसान नर-नारियों का एक समूह गंगा यात्रा जाते समय इन्दिराजी से मिलने का कार्यक्रम बना बैठा। सदा की तरह वे सबसे भेंट करने लॉन में आईं। सैंकड़ों लोग अपनी पीड़ा पोंछने आए थे। मालवा के इस समूह ने ज्यों ही इन्दिराजी को देखा, करीब-करीब एक ही साथ सबके-सब फूट पड़े। रोते-बिलखते बाहर निकले। पढ़े-लिखे लोग भी आँखें पोंछते हुए ही बाहर आते हैं। जवाहरलाल नेहरू जैसे पिता, कमलाजी जैसी माँ, फीरोज गाँधी जैसे पति और संजय जैसे पुत्र के शोक में डूबी इन्दिराजी को नजर भर देखने का साहस जुटाना अब बहुत श्रम साध्य हो गया है। माँ और पति के सिवाय शेष दोनों मृत्युओं ने इन्दिराजी के सामने राजनीतिक समीकरण ध्वस्त कर दिए हैं। नए समीकरण बैठाना बिलकुल नई तपस्या जैसा श्रम है। वे यदा-कदा हँसती भी हैं पर हँसी की खनक के पीछे पीड़ा का अपार सागर हहराता लगता है।

स्टेशन से मध्य प्रदेश भवन जा रहा हूँ। कारवाला मारे बारिश के बदहवास-सा है। भगवान जाने कौनसा रूट उसने लिया। घनघोर बारिश में भाँय-भाँय करती घनी, छायादार सड़क पर एकाएक वह कार रोकता है। एक क्षण बाद ही वापस गियर लगा देता है। मैंने पूछा क्या हुआ भैया! उसका उत्तर मुझे भीतर, गहरे तक झकझोर देता है। कहता है- ‘दिल्ली अलोनी हो गई सा’ब।’ मै अपने दाहिने वाला शीशा साफ करता हूँ। तूफानी बारिश के पार नजर गड़ाता हूँ। देखता हूँ तो उदासी और घनी हो जाती है। वही 12 विलिंगडन क्रीसेंट। संजयजी का बंगला। न जाने क्या क्या दिमाग में कौंध जाता है। जब-जब इस बंगले के सामने से निकला, तब-तब हजारांे की भीड़। नारों का शोर। जवानों की उमंग और एक ज्वाला का आभास। आप मानें या नहीं मानें पर यह सच है कि मैंने संजयजी को कभी जीते जी नहीं देखा। उनका शव दर्शन ही किया। मन्दसौर की 1977 की एक चुनावी सभा मे मैं उनकी प्रतीक्षा में कोई सवा चार घण्टे अनवरत बोलता रहा। 50 हजार लोगांे की भीड़ उनकी प्रतीक्षा में मुझे सुनती रही। मैं मंच से उतरा तब तक मुझे नहीं बताया कि वे नीमच से ही वापस लौट गए हैं। मन्दसौर आए ही नहीं। अवसर उसके बाद भी कई बार आए, पर उनकी व्यस्तता को देखते हुए मैं ही दूर-दूर रहा। उनको बताने लायक मेरे पास कोई समस्या थी ही नहीं। कारवाला मेरी तन्द्रा तोड़ता है ‘साब! क्या मर्द पट्ठा था! दिल्ली का नमक खत्म हो गया। संजय की एक प्यार भरी दहशत थी सब पर। सब लुट गया सा’ब! आज कल गले में कौर नहीं उतरता।’

प्रदेश की खाद्यान्न और वितरण समस्या को लेकर इस बार कई महत्वपूर्ण लोगों से मिला। बात सबने की, पर थोड़ी-थोड़ी देर में हर संजीदा आदमी दूर क्षितिज पर देखता-सा लगा। मैंने अदेखे संजय के बारे में जगह-जगह कहा था, ‘श्रीमती इन्दिरा गाँधी व्यक्ति नहीं, इस देश की भावना है और संजय गाँधी हमारी सम्भावना है। लोग-बाग सम्भावना और भावना दोनों पर प्रहार करने पर तुले हुए हैं। और अब हमें फिर नई सम्भावना का निर्माण करना होगा। हमारे पास केवल भावना बची है। सम्भावना को प्रभु ने हमसे चकमा देकर छीन लिया।’

संजय पर मेरी कलम कभी नहीं चली। मेरी कविताओं में वे आज से 15 वर्ष पूर्व एक जगह कहीं आए थे। कहीं मैंने लिखा था, ‘जिस दिन राजू-संजू को खुद केसरिया पहिनाएगी’ ऐसी ही पंक्ति थी। तब वे मात्र 10 वर्ष के थे। उन्हें संजू कहा या लिखा जा सकता था। शनैः-शनैः वे विकसित होते गए। उनके कदम दृढ़ और पंजे सशक्त हुए। उनके जबड़ों पर एक भिंचाव आता गया। उनकी आँखों में सपने जवान हुए। उनका प्रभा मण्डल विस्तीर्ण हुआ और हमारी सम्भावना हो गए। पर आज! ‘दिल्ली अलोनी हो गई, बाबू सा’ब।’

कई राज-नेता मिले। कुछ चिन्तित, कुछ अचिन्तित। दो एक संवेदनशील लोग तो उस शव-यात्रा के बाद से आज तक बीमार चल रहे हैं। एक से मैं मिला भी। विचित्र-सा रिक्तता का बोध हो रहा है। शून्य को तोड़ने की कोशिश में लोग क्षुब्ध होकर खुद टूट रहे हैं। राजीव भाई या श्रीमती मेनका गाँधी का बिलकुल नया सिलसिला सुगबुगाहट ले रहा है। दूकानों और दफ्तरों में संजयजी के बड़े-बड़े फोटो और कैलेण्डर इस उदासी को और भी गहरा कर देते हैं। अब गाँधी-दर्शन की तरह ‘संजय - राष्ट्र का सपूत’ जैसी फोटो प्रदर्शनी, छोटी-बड़ी रेलों में लगाकर सारे देश में घुमाई जाए, यह तैयारी शुरु हो गई है। पण्डित कमलापतिजी त्रिपाठी इसकी तैयारी हेतु निर्देश देते देखे गए।

दिल्ली से वापसी पर जब मध्य-प्रदेश भवन छोड़ता हूँ तो पहले दिन वाली कार के बदले दूसरी कार मिलती है। तीन मूर्ति के पास में नार्थ एवेन्यू का रास्ता लेते समय मैं विलिंगडन क्रीसेंट की तरफ एक उदास नजर दौड़ाता हूँ। बारिश नहीं है। बदराया मौसम जरूर है। सूनी सड़क पर 12 नम्बर कोठी के बाहर घने पेड़ों की छाँह में एक गुमटी पर संजयजी की कई तस्वीरें विभिन्न मुद्राओं में लगी हुई दूर से ही दिखाई पड़ती हैं। यह गुमटी तब भी थी। अब भी है और शायद कल भी रहेगी। उस दिन वाले ड्राइवर के शब्द शिराओं से झनझनाते हैं-‘दिल्ली अलोनी हो गई बाबू सा’ब!’

स्टेशन पर अखबारों के ताजे सायंकालीन संस्करण खरीदता हूँ। आदत के अनुसार पहले देखता हूँ। फिर बन्द कर देता हूँ। फिर पृष्ठ उलटता पलटता हूँ। एक साप्ताहिक का मुख ? पृष्ठ पूरी सजधज से कहता है, ‘छोटे भैया के बाद बड़े भैया आ रहे हैं।’ राजीव गाघी की एक गम्भीर तस्वीर भी छपी हुई है। 

कौन कह सकता है कि कल क्या होगा। दिल्ली में इस बार काम तो बहुत हुआ पर मन नहीं लगा। 

लगता भी कैसे? 

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‘नईदुनिया’, इन्दौर में 10-08-1980 को प्रकाशित यह लेख, देवासवाले श्री ओमजी वर्मा (मोबाइल नम्बर 93023 79199)ने उपलब्ध कराया।


नेपथ्य का सच

 

बालकवि बैरागी

मेरी पगडण्डी पर बिछाने के लिए
उन्होंने बेरी से बबूलों तक,
कैर से करौंदियो तक से
उधार लिए काँटे
और बड़ी सावधानी से
मेरे रास्ते में बिछाए,
फिर मन ही मन मुस्काए
पर वे परिचित नहीं थे
आजन्म नंगे, मेरे पाँवों की सख्ती से।
मेरी एड़ियों और पगतलियों की
                                    बेलिहाज, फौलादी चोटों से।

जब धूल में मिल गए
उधार के काँटे
तब वे चिढ़े बेरी पर,
गुस्साए बबूलों पर,
खीजे कैर पर,
कोसने लगे करौंदियों को,
गरियाते रहे काँटों को।

अपनी प्रयोगशालाओं में
परीक्षण करने ले गए
मेरी पगडण्डी की धूल को।

पूछा मैंने उनकी परेशानी का सबब
तो लाल होकर बोले -
तुम्हारे लिए हमने छोड़ा राज-पथ
चले तुम्हारी राह पर
कर्जदार बने न जाने किस-किस के
और तुम इतने काँटों पर चलकर भी
न रोए, न सिसके।

कहीं-कहीं तुम्हारी पगडण्डी
अचानक काट देती है
हमारे राज-पथ को।
उन चौराहों पर कहीं तुम
रोक न दो हमारे राज-रथ को।

नेपथ्य का सच यह है कि
हमारा सारथी तुम्हें पहचानता है।
तुम्हारे पाँवों की सख्ती का लोहा मानता है।

हमें उतार कर, कहीं बैठा न ले तुम्हें
अपने राज-रथ में।
इसलिए, जहाँ से भी लाना पड़े
लाएँगे हजार तरह के काँटे
और बिछाएँगे तुम्हारे पथ में।

यह हमारी लाचारी है।
पता नहीं क्यों, हमारा राज-पथ
तुम्हारी पगडण्डी का आभारी है।
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यह कविता, रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक उपलब्ध कराई।

‘चरित्रवानों की सूची में शामिल करने के लिए तुम्हें अपना नाम भी नहीं सूझा?’


(श्री राजशेखर व्यास के संस्मरण संग्रह ‘याद आते हैं’ में यह संस्मरण, ‘यह संस्मरण नहीं, मरण है’ शीर्षक से संग्रहीत है। संस्मरण के साथ दिया गया, श्री राजे शेखर व्यास को सम्बोधित, दादा श्री बालकवि बैरागी का पत्र इस संस्मरण की समूची भूमिका है।) 



उस दिन बालकवि ’दा कुछ उदास और अनमने लगे।  बालकवि ’दा यानी हमारे कवि-सांसद, पूर्व मन्त्री बालकवि बैरागी! मैंने इससे पहले उन्हें कभी परेशान नहीं देखा था। जब मिले, हँसते, मुसकुराते, अट्टहास करते और समस्याओं को चिन्दी-चिन्दी बिखेरते। सहज मन बालकवि बैरागी सिर्फ कवि ही नहीं, महान् मनुष्य, चिन्तक और विचारक भी हैं।


राजनीति और राजनीतिक दलों से ऊपर उठकर वे एक संवेदनशील कवि हैं। देश की दशा से चिन्तित थे। अटलजी की अस्वस्थता के समाचार से विचलित, उनके घुटनों के दर्द से बेचैन! अपने रोग, अपनी परेशानियाँ, विसंगतियाँ तो होती ही हैं। बात करते-करते यादों में खो गए। कहने लगे, “हमने भी एक ‘सर्वदलीय सरकार’ बनाई थी।” मैं चौंका - ‘सर्वदलीय सरकार’ और आपने? बोले, “सिर्फ मैंने ही नहीं, ‘श्री माँ’ ने भी बनाई थी, आज से तीस बरस पहले। तब मैं मध्य प्रदेश का पर्यटन मन्त्री था और दक्षिण भारत में डॉ. कर्णसिंह ने देश के सभी प्रदेशों के पर्यटन मन्त्रियों की एक सभा बुलाई थी।

सभा खत्म हुई तो सभी का मन हुआ अरविन्द आश्रम चलें, ‘श्री माँ’ के दर्शन करें।

बात तब की है जब पाण्डिचेरी आश्रम की अधिष्ठात्री ‘श्री माँ’ ने महासमाधि नहीं ली थी। यद्यपि वे जीर्ण चल रही थीं पर वे दर्शन देती थीं और मिलनेवालों के लिए समय निकाला करती थीं।

एक बार विभिन्न राजनीतिक दलों के कुछ नेता ‘श्री माँ’ के पास पधारे। दर्शन करने की लालसा और आशीर्वाद की प्यास उनको वहाँ तक ले गई थी। अपनी बीमारी के बावजूद ‘श्री माँ’ ने उनको समय दिया।

चर्चा के दौरान नेताओं ने ‘श्री माँ’ के सामने देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करते हुए ‘श्री माँ’ से सवाल किया; “माँ! यह कितने दिन तक चलेगा? किस तरह यह नाव पार लगेगी? निराशा और अनैतिकता तथा भ्रष्टाचार एवं पाखण्ड का यह साम्राज्य ‘श्री अरविन्द भूमि’ पर कब तक ताण्डव करता रहेगा? शासन आज अपने सारे अर्थ खो चुका है, सत्ता निरर्थक होे गई है, पीढ़ी भटक गई है। नेता झुक गए हैं, व्यापारी लालची हो गए हैं, गरीब अनाथ और कलाकार करुण हो गए हैं। इस ढलान पर लुढ़कता हुआ देश कब वापस अपने भारतीय चरित्र को प्राप्त कर सकेगा? क्या आज का सत्तालोलुप नेतृत्व इस सबको इसी तरह निरीह होकर देखता रहेगा या कभी राजदण्ड का उपयोग भी करेगा?”

प्रायः सभी जिज्ञासुओं की यही मनोभूमि थी। शब्द और स्वर में भिन्नता थी पर उनकी चिन्ता का दायरा यही सब समेटे हुए था।

‘श्री माँ’ उनको गम्भीर होकर सुनती रहीं....सुनती....रहीं.....सुनती रहीं। करीब-करीब सब बोल चुके, तब ‘श्री माँ’ के होंठ एक हलकी सी दिव्य मुसकराहट के साथ हिले, उनमें कम्पन हुआ, उनकी आँखों में एक तेजस्विता चमकी और वे मुखर हुईं -

‘भारत मेरी मातृभूमि नहीं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मेरा यहाँ कुछ नहीं है। भारत से अलग करके मैंने अपने आपको कभी नहीं देखा। पर तुम सब लोग राजनीति में काम करते हो, सरकारें बनाते हो, बिगाड़ते हो, कुर्सियों और पदों को शोभित करते हो। मैं यही पूछती हूँ कि जिस बिन्दु पर तुम्हें चिन्तन करना है, उस पर तुम चिन्ता लेकर आश्रम तक कैसे आ गए? खैर। सुनो! किसी भी देश को नेता या व्यक्ति नहीं चलाता। उसे चलानेवाले तत्त्व का नाम है ‘चरित्र’। एक क्षण के लिए तुम कल्पना करो कि दिल्ली का शासन तुम्हारे हाथ में आ जाए, वर्तमान व्यवस्था बदल जाए और तुमको अपने मन की सरकार बनाने का अवसर मिल जाए, तब तुम क्या करोगे?’

“हम ‘सर्वदलीय सरकार’ बनाएँगे।” एक ने उत्तर दिया। ‘श्री माँ’ ने फिर एक दिव्य मुसकान के साथ कहना शुरु किया, “बहुत अच्छी बात है कि मिल-जुलकर देश को चलाने की भावना तुममें है। चलो, ‘सर्वदलीय सरकार’ बनाने के लिए केन्द्र का ‘छाया मन्त्रि मण्डल’ बनाने का पूर्वाभ्यास करो। कम-से-कम एक दर्जन ऐसे नामों की सूची बनाओ जिन नामों पर सारे देश की सहमति हो जाए, जिन पर राष्ट्रीय चरित्र के मामले में उँगली नहीं उठाई जा सके। इतने बड़े देश का काम चलाने के लिए कोई बारह व्यक्ति तो लगेंगे ही न?”

एक उतावले सज्जन ने तत्काल कलम ली और वे ‘छाया मन्त्रि मण्डल’ के लिए ‘समग्ररूपेण सहमत सूची’ बनाने को उद्यत हो गए। वे बोले, ‘जी हाँ, श्री माँ, मैं नाम दे देता हूँ।’

’श्री माँ’ तटस्थ होकर उनकी ओर इस तरह देखने लगीं मानो कोई माँ अपने बच्चों का खेल देख रही हो। सूची बनने लगी। शिष्टमण्डल का हर सदस्य अपनी राय देने लगा। चिन्तातुर लोग चिन्तन पर आ गए। उनको लगता था कि आज भारत के उद्धारकों की अन्तिम सूची बनकर तैयार हो जाएगी।

पहला नाम आया श्री जयप्रकाश नारायण का। उल्लसित भाव से सबने उस नाम को सर्वाेपरि लिख लिया। दूसरा नाम एक-दो क्षणो में विनोबाजी का उछला। किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। तीसरे नाम पर सिर खुजाया जाने लगा। धीरे से कोई बोला - ‘अटलजी का नाम लिख लो।’ हलकी सी कसमसाहट के साथ वह नाम भी लिख लिया गया। चौथा नाम आया कामराजजी का। किसी ने कहा - ‘प्रतिक्रियावादी है।’ पर बात फिर भी सहमति पर आ गई। पाँचवा नाम लॉटरी की तरह निकला मोरारजी भाई का।  तब तक बात व्यंग्य पर आ चुकी थी। फिर भी कहा गया - ‘जिद्दी होने के बावजूद उनकी राष्ट्रीयता और नैतिकता पर उँगली नहीं उठ सकेगी। लिख लो।’ अब हो गए पाँच। सात फिर भी चाहिए।

‘श्री माँ’ ने बन्द पलकें एक पल को उघाड़ीं, बनती हुई सूची पर दृष्टिपात किया और फिर आँखें मूँद कर बैठ गईं।  बड़ी कठिनाई से किसी ने छठवाँ नाम बोला एस. ए. डांगे का। तभी किसी ने आपत्ति की -‘कम्युनिस्ट हैं।’ तत्काल दूसरे ने जवाब दिया - ‘सबसे अच्छी बात यह है कि कम्युनिस्ट कभी चरित्र की बात नहीं नहीं करते। उनका वाद एक अन्तरराष्ट्रीय वाद है। इसलिए उनके सामने अन्तरराष्ट्रीय चरित्र का पक्ष प्रबल होता है। फिर भी डाँगे साहब का नाम लिख लो। भारत के सन्दर्भ में वे भारतीय पहले होंगे, कम्युनिस्ट बाद में।’

इन छह नामों के बाद बात जो फँसी तो कलम चली ही नहीं। सब बहस में उलझ गए। सातवाँ नाम मिल ही नहीं रहा था।

‘श्री माँ’ ने बहस को रोका और पूछा - ‘कितने हुए? हो गए एक दर्जन?’

नेतागण निराश होकर बोले, ‘मदर! बड़ी कठिनाई से आधा दर्जन नाम तय हुए हैं। आगे कुछ सूझता नहीं है।’

और तब ‘श्री माँ’ के चेहरे पर अवसाद की रेखाएँ उभर आईं। वे आर्द्र हो उठीं। कहने लगीं - ‘ऐसा नहीं है कि इस देश में चरित्रवान लोगों का अकाल पड़ गया है। करोड़ों लोग हैं, जो उदात्त राष्ट्रीय चरित्र के मालिक हैं। पर तुममें से कोई उन्हें जानता तक नहीं और जिन्हें तुम जानते हो, उनके पास चरित्र नहीं है। कैसी विडम्बना है! (तब 50 करोड़) आज 100 करोड़ से अधिक की आबादीवाले इस महान् देश के पास एक दर्जन लोग भी नहीं हैं, जो चारित्रिक भाव-भूमि पर इस देश को चला सकें! जिन्हें राजनीति में काम करनेवाले तुम जैसे लोग भी जानो। कभी तुमने चरित्रवानों को भीड़ में अपना नायक ढूँढने की कोशिश की है? जिनके पास चरित्र नहीं है, तुम लोग उनकी जय-जयकार करते फिर रहे हो, और जिनके पास चरित्र है, उनका तुम नाम तक नहीं जानते! क्या अधिकार है तुम्हें इस देश की दशा पर आँसू बहाने का?’

और करीब-करीब निढाल-सी होकर ‘श्री माँ’ ने कहा, ‘तुम्हारा चिन्तन शुरु हुआ या नहीं, यह मैं नहीं जानती, पर तुमने मेरे सामने चिन्ता का द्वार खोल दिया है। मेरे बच्चों! ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे। हमारा देश संसार का सिरमौर देश बने, पर मेरी आँख का आँसू आज इसलिए चिन्तित है कि इस सूची में तुम लोग जयप्रकाश और विनोबा का नाम लिखते हुए तनिक भी नहीं झिझक रहे हो। तुम्हें पता है इनकी उम्र क्या है? ये लोग सत्तर को पार कर गए! देश को चलानेवाला चरित्र तुम अतीत में ढूँढ़ रहे हो! तुमने भविष्य में चरित्र ढूँढ़ने की कभी कोशिश की? वर्तमान से कभी पूछा तुमने कि तेरे चरित्र को क्या हो गया है?’

एक क्षण को ‘श्री माँ’ फिर विराम लेकर गहरी साँस छोड़ते हुए फूट पड़ीं - ‘मुझे दुःख है कि तुममें से किसी एक तक को अपना खुद का नाम भी इस काबिल नहीं लगा कि वह इस सूची में रख दिया जाता। ओफ्!’

उस शिष्टमण्डल में सभी राजनीतिक दलों के, तरह-तरह के राजनेता थे। सब जमीन देख रहे थे। किसी को यह तक पता नहीं चल सका कि ‘श्री माँ’ कब उठकर दूसरे कमरे में चली गईं।

कहते-कहते बालकवि ‘दादा’ रुक गए। कण्ठ अवरुद्ध हो गया, आँखें भीग आईं, “कौन जानेगा इतने बरस पहले ‘सर्वदलीय सरकार’ की बात ‘श्री माँ’ के सामने भी आई तो थी। वह सपना भी आज सच हो गया है। मगर कैसा सच? आज हम 50 से 100 करोड़ हो गए हैं। कहाँ है वह चरित्र?”

मैं भी डबडबाई आँखों से उस ‘चरित्र’ को खोजता रहा।

कभी आपसे मिले तो कहिएगा, देश भी उसे खोज रहा है!

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लोक पुरुष का परलोक प्रयाण

 बालकवि बैरागी

(03 दिसम्‍बर 1981 को सामरजी का निधन हुआ। उन्‍हें गए 23 बरस बीत रहे हैं। इस कालखण्ड में दो पीढ़ियाँ सामने आ गई होंगी। पता नहीं, ये पीढ़ियाँ सामरजी को जानती भी होंगी या नहीं। सामरजी पर केन्द्रित दादा का यह विरला लेख, मध्य प्रदेश के देवास निवासी, ख्यात कलमकार श्री ओमजी वर्मा ने, दादा के प्रति अत्यधिक आत्मीयता और चिन्ता से मुझे उपलब्ध कराया है। उनकी इस अतिशय कृपा और सौजन्य के लिए मैं हृदय से उनका आभारी हूँ। लेख के साथ देने के लिए, ओमजी से उनका चित्र और परिचय माँगा तो अत्यन्त विनम्रता से इंकार कर दिया। दूसरी बार माँगा तो पलटकर जवाब नहीं दिया। अन्ततः उनका चित्र मुझे फेस बुक से लेना पड़ा। उनका परिचय, उनके साले डॉ. हरिकृष्णजी बड़ोदिया से मिल सका।  ओमजी का चित्र और परिचय, लेख के अन्त में दिया है। सामरजी की प्रतिमा और भारतीय लोक कला मण्‍डल के भवन के चित्र 'गूगल' से साभारा - विष्‍णु बैरागी।)

 उदयपुर में, भारतीय लोक कला मण्डल के भवन परिसर में स्थापित सामरजी की प्रतिमा


उदयपुर में भारतीय लोक कला मण्डल का भवन

उन्होंने काठ को प्राण दिए। कठपुतलियों को मुद्राएँ दीं। लोक-कथाओं की फड़ों को फानूस  में बदल दिया। उनका स्पर्श पाकर माँडणे वाचाल हो गए। वस्त्र, वैभव में बदल गए और काठ के पुतले टीप लगा कर गाने लगे। यह सब उन्होंने देखते-देखते कर दिया। अकेले एक व्यक्ति का लोकसंकल्प समूचे राष्ट्र को इतना यश, इतनी कीर्ति, इतना गौरव, इतनी गरिमा दे देगा, यह उनके किसी भी समकालीन के विश्वास के बाहर की बात है। 

मुझे खूब याद है, कि सन् 1954 तक तो वे गाँव-गाँव लोक कलाकारों की तलाश में घूम रहे थे। यदि मैंने उनका आग्रह मान लिया होता तो आज सर्वथा दूसरा बालकवि बैरागी आपके सामने होता। सन् 1954 में दो बार वे खुद चलकर मनासा, मेरे घर तक पधारे। तब भी वे ढीला सफेद पायजामा, काली शेरवानी और गहरी काली दीवाल वाली ऊँची टोपी लगाते थे। आजीवन मैंने उन्हें इसी पोषाख में देखा। टोपी वे कुछ इतनी ढीली सी लगाते थे कि सहज अनुमान होता था कि मानों उन्होंने अपनी लम्बी केश राशि को उसमें छिपा रखा है।

देश और विदेश ने उनको ‘सामरजी’ के नाम से जाना। पूरा नाम था, देवीलाल सामर। उदयपुर के एक संभ्रान्त ओसवाल परिवार में वे जन्मे। लेकिन सारे जीवन वे एक लोक-जाति के निर्माण में लगे रहे। पूरे 27 वर्षों तक उनका मेरा पारिवारिक परिचय रहा। तब वे 43 वर्ष के थे और एक श्रेष्ठ नर्तक के तौर पर पहचाने जाते थे। मैं मात्र 24 बरस का था। मेरी शादी 1954 में हुई। बालकवि बैरागी के तौर मेरा नाम कुल-जमा तीन बरस का था। पर वह मालवा से चलकर मेवाड़ तक पहुँच चुका था। मेरा मालवी गीत ‘पीयुजी की गलियाँ में आजे रे लखारा’, चम्बल, क्षिप्रा, रेतम और ईडर की कछारों से पंख लेकर पिछोला की नावों में जा बैठा था। सहेलियों की बाड़ी (उदयपुर) में कतिपय मालवी सैलानी महिलाओं के मुँह से यह गीत सुनकर वे इस गीत के अन्तिम छन्द में लिखित ‘बालकवि खेले गोदी में आशा, आँगणा में म्हारे रोज बँटे रे पताशा’ पंक्ति सुनकर ‘बालकवि’ को ढूँढते-ढूँढते ठेठ मेरे घर तक आ गए।

पहली यात्रा में मैं नहीं मिला। जिला काँग्रेस कमेटी मन्दसौर के दफ्तर में गुमा हुआ था। मेरे पिताजी से वे बड़ी देर तक न जाने क्या-क्या पूछताछ करके खाली हाथ लौट गए। फिर उनके पत्र आते रहे। एक दिन वे फिर आ गए। चटाई पर बैठकर मुझसे वही ‘लखारा’ सुनते रहे। मुझे समझाते रहे, ‘इस लोकधुन का आधार ठाठ राग पीलू है।’ और फिर सीधा प्रस्ताव - ‘पाँच सौ रुपया महीना पारिश्रमिक। भोजन, भ्रमण और रमण की सारी सुवधिाएँ।’ ये शब्द उन्हीं के हैं। तब इस शब्द ‘रमण’ को उन्होंने पूरी रसिकता के साथ उचारा था। वे मुझे ‘भारतीय लोक कला मण्डल’ का स्थायी कलाकार बनाता चाहते थें। मैं झिझका। वे और आगे बढ़े ‘सपत्नीक आ जाइए। एक हजार रुपया महीना और शेष सारी सुविधाएँ।’ पारिवारिक परिस्थितियों ने मेरे पैर बाँध दिए और हाथ जुड़वा लिए। मैं उनका हो गया, पर घर नहीं छोड़ सका।

मेरे सुझाए कई लोग उन्होंने उसके बाद रखे। मालवा के श्रेष्ठ बाँसुरी वादक, मन्दसौर जिले के बिल्लौद ग्राम के भाई खुर्शीद साहब को उन्होंने मेरी ही प्रार्थना पर रखा। उन्हें खुर्शीद भाई में दूसरे पन्नालाल घोष दिखाई पढ़े। भाग कर खुर्शीद भाई ही छोड़ आए। सामरजी ने अपनी तरफ से रिश्ता नहीं तोड़ा। सैकड़ों लोगों को उन्होंने विदेशों का पानी पिलवा दिया। हजारों लोक कलाकारों को उन्होंने उनके घोंसलों से पकड़-पकड़ कर बाहर निकाला। उन्हें पंख ही नहीं दिए, परवाज भी दी। ‘भारतीय लोक कला मण्डल’ एक वट वृक्ष बन गया। उसकी जटाएँ जड़ पकड़ती गईं। बीसों कला मण्डल पैदा हो गए। अन्यों के पास अन्यान्य सब कुछ था पर सामरजी नहीं थे। नारायण, दयाराम, तुलसी, नारायणी याने कि लोक कलाकारों और लोक नर्तकों की पूरी आकाश गंगा का सृजन उन्होंने किया। ‘तेरह ताल’ जैसे कठिन लोक नृत्य को उन्होने सर्वथा मनोहारी बना दिया। गोविन्द कुलकर्णी जैसा कठपुतलीकार उन्होंने सिरजा। उसे पुत्रवत् पाला। सम्पत्ति का मालिक बनाया चेकोस्लोवाकिया में जब गोविन्द कठपुतली से देश के लिए गौरव बटोर रहा था तब वे विह्वल होकर अवरुद्ध कण्ठ से बोलने के प्रयत्न में बह चले। भारत के लिए लोक कला के सरोवर में यह पहला ‘पुरुस्कार पारिजात’ था। बहुत कच्ची उम्र में गोविन्द चल बसा तो वेे जड़ हो गए। इस घक्के को उनका कोमल मन कभी नहीं सह सका। वे तभी से मृतवत् हो गए। डॉक्टर महेन्द्र भानावत और शूरवीर सिंह जैसे लोगों ने उन्हें इस तरह सम्हाला जैसे कोई टिटहरी अपने अण्डे को संभालती है।

‘भारतीय लोक कला मण्डल’ को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रय कलामर्मज्ञों का तीर्थ बना दिया। उदयपुर जानेवाले यात्रियों के लिए ‘भारतीय लोक कला मण्डल’ एक दर्शनीय स्थल बन गया। वहाँ का लोक संग्रहालय अध्येताओं और शोधार्थियों का काबा कहा जाने लगा। यद्यपि मैंने उन्हें मंच पर नर्तक के रूप में कभी नहीं देखा पर पूर्वाभ्यास में, दयाराम के साथ खुद ढोलक बजाते सामरजी को कभी नहीं भूल पाऊँगा। रिहर्सल हॉल में दयाराम यहाँ से वहाँ तक लहरें लेता नाच रहा है और वे ढोलक बजा रहे हैं। एक-एक वस्त्र और भूषा के एक-एक भूषण पर उनकी पैनी नजर पड़े बिना नहीं रहती थी। कठपुतलियों को दृष्टि और स्मित देते समय वे रेशे-रेशे पर आँख रखते थे। कठपुतली को वे प्यार से सहलाते, पुचकारते, उससे बोलते और बतियाते रहते। मैं सोचता हूँ कि कठपुतली कला में ‘रामायण’ को इतनी समग्रता शायद ही किसी ने दी होगी।

देश को जितना सम्मान अकेले सामरजी ने अपनी तपस्या से दिया उसकी मिसाल लोक कला के इतिहास में नहीं मिलेगी। उन्होंने मंच पर मेक-अप करके जाना और नाचना बरसों पहले छोड़ दिया। मैंने उन्हें ‘एक्शन’ में नहीं देखा। पर नेपथ्य में वे हर जगह पाए गए। यदि वे सम्माननीय दर्शकों के बीच में बैठकर भी देख रहे होते, तब भी नेपथ्य उन्हें हर क्षण अपने में पाता था। एक निर्देशक के नाते वे बेहद चौकस, चौकन्ने और चपल रहे। लोक कला को एक आन्दोलन बना कर विदा हो गए।

70 वर्ष की उम्र में वे परलोकवासी हुए पर कभी 70 के नहीं लगे। आज भी वे 50-55 के लगते थे। दिव्य, सहज, सरल, सस्मित और सबके। मुझे नहीं पता कि उनका पारिवारिक जीवन कैसा था। पर पहले उन्होंने मुझ पर वात्सल्य उँडेला। जब मैं उन्हें उनकी परछाई से परे लगा तो उन्होंने गोविन्द को अपना सब कुछ बना लिया। जब गोविन्द को प्रभु ने छीन लिया तो उन्होंने मुझसे और मेरी पत्नी सुशील से बहुत कातर होकर मेरा एक बेटा माँगा था। उनकी वह मुद्रा मैं आज भी असह्य पाता हूँ। उनके यहाँ से खाना खाकर जब हम लोग निकले तब एक बार फिर उन्होंने मुझसे कहा था,  ‘आपको भगवान ने दो बेटे दिए हैं। मुझे  कोई सा भी एक दे दो। मैं उसे अन्तरराष्ट्रीय व्यक्ति बनाने का नया साहस जुटाऊँगा।’ मैं उन्हें कुछ नहीं दे पाया। न उनकी बात कभी समझ पाया। दीपावली के ठीक एक सप्ताह पहले तक वे डॉ. पूरन सहगल ‘मधु’ से पूछताछ करते रहे। एक अभाव कहीं तो भी था। कहीं-न-कहीं वे अकेले थे। अनमने थे। शायद किसी से कुछ कह गए हों। सुनते हैं, उनकी मृत्यु बिलकुल  अनायास, अनपेक्षित और औचक हुई।  तीन दिसम्बर को वे अनायास चले गए। लोक गीतों का सारा रस निचुड़ गया। लोक कला का एक लोक महर्षि समाधिस्थ हो गया। वे आजीवन देते रहे। कभी चुके नहीं। अथक और अटूट रहे। अर्पित तो थे ही। आज उनकी कठपुतलियों तक के आँसू सूखते नहीं हैं। कौन पोंछे?

आठ दिसम्बर को डॉ. महेन्द्र भानावत ने मुझे उदयपुर से लिखा:  ‘सामरजी को 15 नवम्बर की रात्रि अचानक जबान पर लकवा असर कर गया; जिससे उन्होंने बोलता बन्द कर दिया। 5 दिन तक यहाँ इलाज चलता रहा। पर इस बीच हाथ-पाँव पर भी लकवे का असर देख उन्हें बम्बई ले जाने का निर्णय लिया गया और 20 को बॉम्बे हॉस्पिटल में उन्हें दाखिल कराया गया। मुख्यमन्त्री शिवचरण माथुर के प्रयासों से उनका उच्च स्तरीय इलाज चला और वे क्रमशः स्वस्थ भी होते रहे। पर अचानक दो दिसम्बर को उनकी किडनी खराब हो गई और तीन को इस वजह से वहीं उनका देहावसान हो गया। यह सब ऐसी त्वरा में हो गया कि किसी को कुछ एहसास तक नहीं हुआ। बम्बई से उनका शव यहाँ लाया गया और 4 को दाह संस्कार किया गया। 5 को शोक श्रद्धांजलि हुई, जिसमें सुखाड़ियाजी और चन्दनमलजी बेद भी उपस्थित थे।

‘सामरजी के कोई सन्तान तो थी नहीं। उनकी पत्नी है। कला मण्डल उनके सम्मान में सब तरह से सब कुछ कर रहा है - करेगा ही। अब तो आवश्यकता यह है कि सामरजी का कार्य अच्छी तरह प्रवहमान होता रहे और उसे मजबूती मिले। आप जैसे हितैषियों का मार्गदर्शन स्नेह-सम्बल अब हम लोगों को, कला मंडल को अधिकाधिक में मिले यह अपेक्षा और उम्मीद है।’
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मैं धधकती जिन्दगी का बैरागी हूँ

 



(लखनऊ से प्रकाशित ‘साहित्यगंधा’ के अंक-23, जून 2017 में प्रकाशित, दादा का यह साक्षात्कार मुझे जाने-माने कलमकार, देवासवाले ओमजी वर्मा (मोबाइल नम्बर 93023 97199) ने अत्यन्त कृपापूर्वक उपलब्ध कराया है। इस साक्षात्कार में कही गई कुछ बातें, इससे पहले कहीं दिखाई नहीं दी थीं। मैंने तत्क्षण ही तय किया कि इस साक्षात्कार को फेस बुक और मेरे ब्लॉग ‘एकोऽहम्’ पर दूँगा। साक्षात्कारकर्ता श्री अमन अक्षर  को धन्यवाद देने और इस साक्षात्कार के साथ उनका मनपसन्द चित्र उपलब्ध कराने का अनुरोध करने के लिए मैंने, ओमजी से अक्षरजी का सम्पर्क नम्बर माँगा तो उन्होंने असमर्थता जताई कि वे अमनजी के सम्पर्क में नहीं हैं। तलाश किया तो अमनजी फेस बुक पर मिल गए। उनके मोबाइल नम्बर (96691 77774) पर दो बार फोन लगाया। दोनों ही बार उनके सहायक मिले। उन्होंने दोनों ही बार मुझसे विस्तार से पूछताछ की और दोनों ही बार कहा कि वे जल्दी ही अमनजी से मेरी बात कराएँगे। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। अन्ततः मैंने फेस बुक से ही उनका चित्र लिया और वही चित्र यहाँ दे रहा हूँ। - विष्णु बैरागी।)






श्रद्धेय बालकवि बैरागी
एक ऐसा नाम है जिन्होंने दिनकर के बाद हिन्दी काव्य की ओजस्वी रचनाधर्मिता का परचम सबसे पुरजार तरीके से बुलन्द ओजस्वी रचनाधर्मिता का परचम सबसे पुरजार तरीके से बुलन्द रखा, अभूतपूर्व लोकप्रियता और गहन साहित्यिक देशज समझ, बालकवि बैरागी को अपने समय के सबसे बड़े कवियों में शुमार कराती है। अपने संघर्षपूर्ण जीवन में उन्होंने शून्य से शिखर तक की यात्रा की। अत्यन्त गरीबी में जन्मे बालकवि बैरागी ने अपने जीवन में संघर्ष और सफलता दोनों को प्रबल पुरुषार्थ के साथ जीया और शिक्षा, राजनीति और साहित्य, हर क्षेत्र में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करवाई। ऐसे महान् व्यक्तित्व को साहित्यगंधा परिवार नमन करता है। उनके विषय में अधिक जानने के लिए उनका विशेष साक्षात्कार युवा गीतकार अमन अक्षर ने किया। प्रस्तुत है, संक्षिप्त अंश - सम्पादक।

अमन अक्षर - नमस्कार दादा। सबसे पहले हमें बताएँ कि आपका नाम, जो कि बहुत सुन्दर और रुचिकर है, कैसे मिला? जन्म नाम सम्भवतः कुछ और रहा होगा।

बैरागीजी - जी। बिलकल सही कहा। मेरा जन्म नाम बालकवि बैरागी नहीं था। मेरे माता-पिता ने नाम रखा था नन्दराम दास और बैरागी मेरा जातिगत उपनाम है। एक बार डॉ. कैलाशनाथ काटजू, जो कि तत्कालीन केन्द्रीय गृह मन्त्री और विधि मन्त्री थे, उन्होंने मेरे गाँव मनासा की आम सभा में मेरी कविता सुनकर मेरा नाम बालकवि रख दिया और शायद आनुप्रासिक उच्चारण और रसमय होने के कारण मेरे माता-पिता ने भी यह नाम स्वीकार कर लिया। 

अमन अक्षर - कविता से आपका पहला जुड़ाव कब हुआ? स्पष्टतः यह कि पहली कविता आपने कब लिखी?

बैरागीजी - मैंने अपनी पहली कविता, अपने गुरु के कहने पर 9 वर्ष की आयु में, कक्षा चार में लिखी। हमारे विद्यालय में एक भाषण प्रतियोगिता थी जिसमें मुझे विषय मिला - व्यायाम। मेरे माता-पिता बहुत अच्छा गाते थे। उसी गुण का अंश मुझमें भी कहीं न कहीं था। तो, मैंने भी इस विषय पर एक गीत ही लिखा जिसकी पंक्ति थी - ‘कसरत ऐसा अनुपम गुण है, कहता है नन्दराम। भाई, सभी करो व्यायाम’। इस गीत को पसन्द तो बहुत किया गया लेकिन इसमें हमारी कक्षा हार गई थी जिस पर कई लोगों ने आपत्ति भी जताई। लेकिन निर्णायक मण्डल का तर्क था कि मैंने भाषण की प्रतियोगिता में कविता पढ़ी। यह तर्क बिलकुल दुरुस्त था।  इस तरह मेरी पहली कविता पर मुझे पराजय मिली। लेकिन ईश्वर की कृपा से गाड़ी चल पड़ी।

अमन अक्षर - आदरणीय! आप अपने परिवार के बारे में बताएँ। आपके माता-पिता और बाकी सदस्य या और आत्मीय अधिकार लेकर पूछें तो अपने जीवन में कभी कोई प्रेम रहा हो तो कृपया बताएँ जो आपकी प्ररणा और सहकार रहा होगा।

बैरागीजी - मैं इस प्रश्न की प्रतीक्षा कर रहा था। जहाँ तक मेरी पृष्ठभूमि का प्रश्न है तो इस विषय से कई लोग अपरिचित हैं। मैं आपको बताऊँ, मैंने अपने जीवन के शुरुआती 23 वर्षों तक भरपेट भोजन नहीं किया। मेरे परिवार को खाना नहीं मिलता था। मेरे विकलांग पिता, मेरी माँ, हम सब गलियों में भटक-भटक कर भोजन इकट्ठा कर अपना भरण करते थे। मैं जब 4 वर्ष की आयु में था तब मुझे मेरा पहला खिलौना जो दिया गया वो भिक्षा-पात्र था (बैरागीजी भरे हुए कण्ठ से कहते हैं) जिसे देते वक्त कहा गया कि जाकर खाने के लिए पड़ौसियों से कुछ माँग लाऊँ। मैं आपके पाठकों से, जो अब वस्तुतः मेरे पाठक हैं, इतना ही कहना चाहता हूँ कि गरीब के घर कभी बच्चा पैदा नहीं होता, केवल बूढ़ा पैदा होता है, जिसके जीवन में कभी जवानी नहीं आती। केवल दायित्व का भार रहता है। लेकिन मैं अपनी माँ का निर्माण हूँ। मैंने अपनी माँ की वो सीख कि ‘कभी टूटना मत’ हमेशा मानी और मैं  सदैव लड़ता रहा। ऐसे व्यक्ति के जीवन में कहाँ प्रेमिका का आगमन होता? लेकिन मैं इतना जरूर कह सकता हूँ कि मुझे मीठी नजरों से देखा कई लोगों ने और इसका कारण यही रहा कि लोकप्रियता ईश्वर ने इतनी दी जिसका मैं सदा ऋणी रहूँगा। लेकिन एक बात यह भी कि लोकप्रियता से बड़ा धन भी कोई नहीं है और उससे बड़ा शत्रु भी कोई नहीं है। मैं सबसे यही कहना चाहता हूँ - जीवन में हिम्मत कभी नहीं हारना। मैं आशावादी भी हूँ. और मेरी कविता भी आशा की कविता है। आपका आभार कि आपने ये सवाल किया। आशा करता हूँ मेरी कहानी सभी के लिए प्रेरणा का काम करे।

अमन अक्षर - आपके बारे में इतनी बातें पहली बार किसी के सामने आई होंगी। इसी क्रम से एक प्रश्न फिर से मन में आता है कि इतने संघर्षों के बाद भी स्वयं को इतना संभाल कर शिक्षित किया और इतना यश कमाया। यहाँ.तक कि आपकी कविताओं पर कई लोगों ने पी.एचडी. भी की हैं। यह सब कैसे सम्भव हुआ?

बैरागीजी - सबसे पहले मैं अपनी माँ के सन्दर्भ में एक बात और कहना चाहता हूँ कि मेरी माँ निरक्षर जरूर थी लेकिन अपढ़ नहीं थी। उसका सम्पूर्ण जीवन साक्षात एक विश्वविद्यालय था। उसकी ही प्रेरणा और शक्ति ने मुझे बनाया है। मैंने पहले भी कहा है - मैं माँ का निर्माण हूँ। लेकिन साथ में मेरा अपना एक नीति वाक्य भी है कि जीवन में तीन चीजें अच्छी मिलनी चाहिए। पहली, एक गुरु, दूसरी, अच्छे मित्र और तीसरी, अच्छा जीवन साथी। ये मिल जाएँ तो जीवन सफल हो जाता है। सार्थक हो न हो लेकिन सफल जरूर हो जाता है। मेरे साथ यही रहा कि मुझे ये सभी चीजें सर्वश्रेष्ठ मिलीं। परिवार, दोस्त सभी लोग बहुत अच्छे मिले। जब तक माँ थीं तब तक वो मेरी शक्ति रही। बाद में, ज़ीवन संगिनी ऐसी मिली कि जीवन सहज और सुन्दर हो गया। मेरी ईश्वर से यही कामना है कि अगले जनम में भी ये ही लोग मिलें जो इस जन्म में साथ थे या हैं। लेकिन मेरे जैसा बचपन किसी भी व्यक्ति को न मिले चाहे वह मेरा शत्रु ही क्यों न हो। मैं ईश्वर का इसलिए भी आभार मानता हूँ कि मेरे जीवन में मुझे सम्मान और स्नेह से देखने वाले कई लोग मिले। इससे अधिक मुझे कुछ भी वांछनीय नहीं है।

अमन अक्षर - श्रद्धेय! अब हम आपकी रचनाधर्मिता की ओर बढ़ते हैं। हमें बताएँ कि आपकी स्मृति में कौन सी ऐसी कविता है जिसने आपके और आपके पढने-सुनने वाले लोगों के बीच पहली बार एक सेतु बाँधने का कार्य किया?

बैरागीजी - आपका यह सवाल मुझे गुदगुदा गया। इसी से एक बात ये ध्यान आती है कि ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया लेकिन हम स्वयं को गुदगुदाने के मामले में असमर्थ हैं। हमें गुदगुदाने के लिए किसी और की जरूरत होती है। तो, आपका यह सवाल मुझे बड़ा पसन्द आया। ऐसा है कि हम भारतीय थोड़ा अधिक गम्भीर होकर अपने देवताओं को बहुत कष्ट देते हैं। हमारे देवी-देवता ऊँगलियों से शुरु होकर कमर तक आ जाते हैं। आराधना इतनी करते हैं कि देवता भाग उठते हैं। भगवान विष्णु क्षीर सागर छोड़ लक्ष्मीजी के घर चले गये, भगवान शंकर पहाड़ पर, शिवलोक में बस गए। लेकिन हमारा सबसे बड़ा देवता सूर्य है, जो हमें निरन्तर शक्ति और प्रेरणा देता है। जो अविचल, अटल, अविराम और सतत कर्मशील है। हम एक झूठ रोज कहते हैं कि सूरज डूब जाता है। सूरज कभी नहीं इूबता। यही बात हमने सूरज से पूछी - ‘क्यों सूरज डूब गए?’ इस पर सूरज बोला कि पहले ये अपनी माँ पृथ्वी से पूछो। कहीं वही तो सूर्य की ओर पीठ करके नहीं बैठ  जाती है? मैं कहीं नहीं जाता। मैं वहीं हूँ। बाकी सब चल रहे हैं। मेरी एक कविता है जिसमें कहा है कि अँधेरे से लड़ाई बड़ी कठिन है। यह अँधेरा कई तरह का हो सकता है - प्रेम का, सत्ता का, सम्बन्धों का, समाज का....कई तरह का। मैंने सूर्य से प्रश्न करके पूछा -

आज मैंने सूर्य से बस यूँ कहा,
आपके साम्राज्य में इतना अँधेरा क्यूँ रहा?
तमतमाकर वो दहाड़ा, मैं अकेला क्या करूँ?
तुम-निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो।
संग्राम ये घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ, कुछ तुम लड़ो।

अन्त मैं यही कहना है - पृथ्वी घूम रही है। सूर्य अपनी जगह सतत कर्मशील हैं, जो कहता है कि हमें भी अपना संग्राम लगातार काम करते हुए लड़ना है। हम जीवनभर घूमते रहते हैं और दोष दूसरों को देते रहते हैं। लड़ना हम सबको पड़ेगा। किसी और से आशा करना बेकार है।

अमन अक्षर  - सही कहा आपने। (इसी बीच बैरागीजी कहने लगते हैं) 

बैरागीजी - मैंने कहीं कहा है -

हैं अँधेरे से लड़ाई, युद्ध है अँधियार से।
इस लड़ाई को लड़े हम कौन से हथियार से?
एक नन्हा दीप बोला - मैं उपस्थित हूँ यहाँ।
रोशनी की ख्रोज में, आप जाते हैं कहाँ?
आपके परिवार में, नाम मेरा जोड़ दें।
(बस) आप खुद अँधियार से यारी निभाना छोड़ दें।

एक छन्द और है जो शायद मुझे अमर ही रखेगा-

हैं करोड़ो सूर्य लेकिन सूर्य हैं बस नाम के।
जो न दे हमको उजाला वो भला किस काम के?
रात भर जलता रहे, उस दीप को दीजे दुआ।
सूर्य से वो श्रेष्ठ है, तुच्छ है तो क्या हुआ।

साथ ही

वक्त आने पर मिला ले, हाथ जो अँधियार से।
सम्बन्ध उनका कुछ नहीं है सूर्य के परिवार से।

अमन अक्षर - आप राजनीति में होकर भी ओजस्विता को बुलन्द करते रहे हैं। ऐसा कैसे हो सका?

बैरागीजी - एक बात सुनो! माँ की आरती में, पूजा में, प्रार्थना में, मन्दिरों में, मस्जिदों में, गिरजा में, गुरुद्वारों में, हर जगह आरती में जलते हुए दिये रखे जाते हैं। बुझे हुए कभी नहीं। इसलिए अपनी जिन्दगी को ओजस्वी रखो। जलती हई, धधकती हुई, मुखर रखो। किसी की परवाह न करो। कोई तुम्हारे अच्छे काम में बाधा नहीं डाल सकता।

अमन अक्षर - आपने साहित्य के साथ-साथ राजनीति को अपनाया हुआ है। आपको इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में किसी दिक्कत का सामना करना पड़ा?

बैरागीजी - मेरे परिवार में मुझसे पहले राजनीति में कोई नहीं रहा और नहीं जानता कि मेरे बाद वाले लोग क्या करेंगे। मैं कभी इस बहस में नहीं पड़ा। लेकिन जिसे आप राजनीति कहते हैं, उस राजनीति में पीढ़ियाँ बदलीं, परिवेश बदला, महत्वाकांक्षाएँ बदलीं, वातावरण बदला और बहुत कुछ बदला। इस प्रकार यदि हम उसी मूलगत राजनीति की बात करें तो आजकल हम राजनीति की बात कम करते हैं और सत्ता की बात पहले करते हैं। सत्ता और राजनीति में फर्क है। बह़ुत फर्क है। पहले तो हम परिभाषित कर लें कि हम बात किसकी कर रहे हैं? मुझे इसमें असुविधा इसलिए नहीं हुई क्योंकि मैं जहाँ-जहाँ बैठा, जिस राज्य सभा में बैठा तो मुझसे पहले वहाँ पर बैठे हुए थे मैथिलीशरणजी गुप्त, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, भगवती शरण जी वर्मा और यदि हम लोक सभा की बात करें तो वहाँ पर भी मुझसे पहले कई श्रेष्ठ साहित्यकार बैठे हुए ये। ऐसा नहीं है कि कलमवाले लोग वहाँ बैठे नहीं रहे हों। लेकिन उन्होंने सत्ता की तरफ मुग्ध नजरों से नहीं देखा। सत्ता की तरफ जब भी उनकी नजर पड़ी तो या तो भृकुटी तानकर देखा, या वीतराग नजरों से देखा। इसलिए उन्हें कोई असुविधा नहीं हुईं। तो, मुझे भी इसमें कोई असुविधा इसलिए नहीं होती है क्योंकि मेरे पास मेरे अपने ऐसे व्यक्तित्व हैं जो मेरे पूज्य और आदर्श हैं। जब हम सत्ता को या राजनीति को कुछ देना चाहते हैं तो हमको कुछ ज्यादा धनी होना चाहिए। हमें धनी यदि कोई रखती है तो सरस्वती रखती है। हमें धनी रखती है तो कलम रखती है। हमें यदि कोई चीज धनी रखती है तो हमारी लोक संस्कृति रखती है, हमारी सभ्यता रखती है।

अमन अक्षर - आप गीत, गजल, छन्दमुक्त सभी तरह की रचनाएं लिखते आये हैं। लेकिन आपको कौन सी विधा ज्यादा प्रिय लगती है?

बैरागीजी - आपने फिर से एक अच्छा प्रश्न किया है। यह बहुत अच्छी बात है। एक बात याद  रखिये, हम भारत में रहते हैं और भारत में पहली कविता किसी फूल को देखकर नहीं लिखी गई, किसी नदी को देखकर नहीं लिखी गई, किसी चाँद-चाँदनी को देखकर नहीं लिखी गई, किसी मुग्धा या किसी प्रियतमा को देखकर भी नहीं लिखी गई। पहला छन्द जब फूटा तो वो करुणा से लिखी गया। क्रौंच पक्षी को बहेलिए के बाण से घायल देखकर महाकवि वाल्मीकि से जो पहला छन्द फूटा वो अनुष्टुप छन्द था और करुणा से कविता आईं। जब तक आपके भीतर करुणा है, सम्वेदना है तब तक कविता आपके भीतर बराबर लहरें लेती रहेगी। इसलिए कविता गीत में है कि छन्द में है, लय में है कि अलय में है, मैं इस बहस  में कभी नहीं पड़ा। सैकड़ों सालों से लोग भावनाओं को लय में गाते आ रहे हैं। वही कविता है। कविता चाहे छन्द में हो या छन्दमुक्त। कोई छन्द को तोड़ सकता है लेकिन कविता की लय को कभी नहीं तोड़ सकता। और जिसमें लय नहीं हैं वो कविता नहीं हो सकती। लय ही जीवन है। जीवन ही लय है। इसमें से लय चली जाएगी तो प्रलय हो जाएगा। जीवन को लय में रखो। इसलिए मैंने मुक्त छन्द और छन्द, दोनों में प्रयोग किए।

एक छन्द देखिए -

वो कहती है मैं गीतों में, चाँद नहीं ला पाता हूँ।
और सितारों की दुनिया के, इसी पार रह जाता हूँ।
क्या समझाऊँ उस पागली को, जिसको ये भी पता नहीं।
जिस धरती पर भार बना हूँ, गीत उसी के गाता हूँ। 

मैं देश की स्थिति को ही गाता और लिखता हूँ। जीवन भर, देश की परिस्थिति को ही अपनी कविता का प्रमुख विषय बनाकर रखने की दृढ़ इच्छा भी है।

अमन अक्षर - आज के कवि सम्मेलन के मंचों के बारें में क्या कहना चाहेंगे?

बैरागीजी - आज हिन्दी की वाचिक परम्परा में बहुत जबरदस्त संघर्ष है। मंचों पर वातावरण अनुकूल बनाना पड़ता है। भारत में कविता महलों में थी, वहाँ से निकलकर आम जनता तक आई। आजकल तो मूँगफलीवाले, सब्जीवाले, ठेलेवाले, कपड़े प्रेस करनेवाले कविता की बात करते हैं। वो कविता लिखते भी हैं, पढ़ते भी हैं, सुनते भी हैं और समझते भी हैं। जब कविता महल से निकलकर बाहर आती है तो कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन यदि बाहर आ कर स्तरहीन हो जाएगी तो फिर कुछ नहीं हो सकता। हमें मंचों पर भी कविता के स्तर को बनाए रखना होगा। श्रोताओं का स्तर बढ़ाइए। कविता का स्तर मत गिरने दीजिए।

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श्री बालकवि बैरागी के अन्‍य साक्षात्‍कार









दाँव लगा तो राजघाट तक को नीलाम करेंगे।।



बालकवि बैरागी

 

बापू तेरे जनम दिवस पर, कवि का मन भर-भर आता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

चूर-चूर हो गए सपन सब, बापू तेरे मन के।
सुमन सभी निर्गन्ध हो गए, बापू इस उपवन के।।
तेरे आदर्शों की बापू, होती है अवहेला।
तेरे राम-राज का पावन, चित्र हुआ मटमैला।।

दिन-दिन बात बिगड़ती बापू,कोई नहीं बनाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

जिन की खातिर रहा जनम भर, बापू तू अधनंगा।
जिन की खातिर लाया था तू, आजादी की गंगा।।
अब भी वे भूखे हैं बापू, अब भी हैं वे प्यासे।
वे ही सूनी-सूनी आँखें, वे ही उखड़ी साँसें।।

भूमिहीन है अब तक बापू, दुनिया का अन्नदाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

राजनीति ने लोकनीति का, आज किया मुँह काला।
धूर्तनीति ने रहा-सहा भी, सब स्वाहा कर डाला।।
राम-भरत में सिंहासन की, होती खींचातानी।
त्याग-तपस्या की बातें अब, लगतीं बड़ी पुरानी।।

माता पर शासन करती है बापू, आज विमाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

हम भाषा के लिए झगड़ते, लड़ते, खून बहाते।
नये प्रान्त बनवाते बापू, हम नारे लगवाते।।
आज राष्ट्र से बड़ा हो गया, बापू पेट हमारा।
सचमुच हमसे कहीं भला था, बापू! वो हत्यारा।।

अब तक तो तू खुद ही उसको, दे आवाज बुलाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

बात-बात में चलती गोली, जगती है रणचण्डी।
सर्वोदय के दल्लालों ने, मँहगी कर दी मण्डी।।
अलग-अलग दुकानें बापू, अलग-अलग वादों की।
देख लगी क्या बापू, गुण्डों और दादाओं की।।

जयचन्दों ने जोड़ लिया है, परदेसी से नाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

देशभक्ति को दे डाला है, दिल से देश निकाला।
अब भी लड़वाते हैं बापू, मस्जिद और शिवाला।।
तन पर आई है चिकनाई, लेकिन मन हैं रूखे।
सरहद पर तपती दोपहरी, ताण्डव होते लू के।।

ढाई अरब भुजाओं पर भी, गीदड़ है गुर्राता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

आजादी के गुड़ पर बापू, लगे हुए हैं चींटे।
तुझको तक दे सकते हैं हम, भाषण मीठे-मीठे।।
लाभ न जाने कहाँ गया है, दिखता है बस घाटा।
पता नहीं किसने अमृत को, कहाँ बैठ कर बाँटा।।

नीलकण्ठ! यह कालकूट तो तुझको भी तड़पाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

राह दूर तक नहीं दीखती, दिखता नहीं उजाला।
तेरे तन पर पोत रहे हैं, हम सब मिल कर काला।।
खा पी कर चुकती कर दी है, तेरी सकल कमाई।
आलस के आलिंगन में है बापू, अब भारत की तरुणाई।।

दर-दर झोली फैलाती है बापू! तेरी भारत माता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

सभी बुझाने, लगे हुए हैं, अपनी-अपनी दाढ़ी।
एक जवाहरलाल कहाँ तक, खींचे सारी गाड़ी?
उसे दाँव पर लगा-लगा कर, रोज खेलते जुआ।
इधर खोद दी खाई हमने, उधर बनाया कुआ।।

कुर्बानी का नारा बापू, झूठा समझा जाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

दिन भर में चल पाये बापू! केवल कोस अढ़ाई।
कर लेते हैं मन बहलाने, अपनी आप बढ़ाई।।
बहुत अधिक खोया है बापू, क्या-क्या तुझे गिनाऊँ?
आँसू ले-ले कर आँखों में, गीत कहाँ तक गाऊँ?

गीत वतन के गानेवाला, चापलूस कहलाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

तुझे पता तो होंगे ही सब, उलटे काम हमारे।
आये दिन सुनता ही होगा, तू भी नाम हमारे।।
कहने को तो हमने बापू, सारी बात बना ली।
लेकिन दिल की बात है बापू! राम करे रखवाली।।

जुल्म हुआ जो आज सत्य पर, नहीं बताया जाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

*        *        *        *        *        *        *

घाटे की दुकानें बापू, हमने बीसों खोलीं।
तेरे फूल-कफन तक पर हम, बोल लिए हैं बोली।।
या तो नोचेंगे नेहरू को, या आराम करेंगे।
दाँव लगा तो राजघाट तक को नीलाम करेंगे।।

तुझ से छिपा हुआ ही क्या है, खुला पड़ा सब खाता।
इस वेला में तू होता तो, तड़प-तडप कर मर जाता।।

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दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की यह दुर्लभ कविता, उनकी पोती, हम सब की प्रिय रूना (रौनक) बैरागी ने उपलब्ध कराई। 

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