मुकेश इस समय मेरे सामने होता तो शाल-श्रीफल से उसे सम्मानित कर देता।
मेरी ससुराल, इन्दौर-उज्जैन के बीच, सावेर में है। मुकेश मेरा सबसे छोटा साला है। शासकीय विद्यालय में अध्यापक है। रहता तो सावेर में है किन्तु इन्दौर में भी मकान बना लिया है। उसका बड़ा बेटा नन्दन इन्दौर में ही नौकरी करता है। मुकेश और मेरी सलहज मंजू प्रायः प्रति शनिवार शाम को इन्दौर आ जाते हैं।
आज, रविवार 26 फरवरी, मुकेश-मंजू के छोटे बेटे तन्मय की जन्म तारीख है। इस शनिवार मुकेश-मंजू इन्दौर आए तो तन्मय को भी साथ लेते आए - इस शुभ-विचार से कि पूरा परिवार एक साथ तन्मय का जन्म दिन मना लेगा। मेरे सास-ससुरजी भी इन्दौर ही रहते हैं। हमारा छोटा बेटा तथागत भी इन्दौर में ही नौकरी कर रहा है।
मुकेश स्वभावतः पारम्परिक और सुविधानुसार प्रगतिशील है। घर का सबसे छोटा बेटा होने से कुछ विशेषाधिकार उसे स्वतः प्राप्त हैं जिनके चलते कभी-कभी मुझे भी, बिना असम्मान बरते, ‘सद्भावना और सदाशयतापूर्वक’ हड़का देता है।
तो, इन दिनों जैसा कि चलन बन गया है, बच्चों ने, 25 और 26 फरवरी की सेतु रात्रि की बारह बजे, तन्मय के जन्म दिन का केक काटना और जश्न मनाना तय कर तदनुसार साज-ओ-सामान जुटा लिए।
आधी रात में जन्म दिन मनाना मुझे आज तक न तो सुहाया न ही समझ में आया। आधी रात में तारीख बदलना मुझे एक ‘व्यवस्था’ लगती है, (प्रमुखतः यात्रा टिकिटों के आरक्षण को लेकर) संस्कृति और परम्परा नहीं। किन्तु सम्भवतः, 31 दिसम्बर की आधी रात को नए साल के आगमन का जश्न मनाने से यह व्यवस्था, परम्परा का रूप लेती हुई संस्कृति बन गई। आधुनिक और प्रगतिशील होने का दिखावा करने की होड़ में हम भारतीय ‘अंग्रेजों से ज्यादा अंग्रेज’ हो गए और भूल गए कि हम ‘उदय तिथि’ वाले लोग हैं। हमारा दिन सूर्योदय से प्रारम्भ होता है। इसीलिए, आधी रात में जन्म दिन वर्ष गाँठ का उत्सव मनाना आज तक मेरे गले नहीं उतर पाया है। बहुत पहले मैं ऐसा करने से रोकने की कोशिश करता था किन्तु एक बार भी सफल नहीं हो पाया। बच्चों के माँ-बाप मुझसे सहमत होते और बच्चों के सामने हथियार डाल, मेरे सामने झेंपते। जल्दी ही मुझे अकल आ गई और भारतीय संस्कृति को बचाने का यह महान् काम मैंने बन्द कर दिया। लेकिन दुःखी तो होता ही हूँ। ऐसे में, ऐसे उपक्रमों की खिल्ली उड़ाकर अपनी भड़ास निकाल लेता हूँ और खुश होकर अपनी पीठ थपथपा लेता हूँ।
आज सुबह, अपने प्रिय भतीजे को शुभाशीष और शुभ-कामनाएँ देने से पहले मेरी उत्तमार्द्ध ने, जश्न के हालचाल जाने के लिए तथागत को फोन लगाया। तथागत ने जवाब दिया - “कौन सा जश्न मम्मी? कोई जश्न-वश्न नहीं हुआ। मामाजी को मालूम हुआ तो उन्होंने डाँट दिया। बोले - ‘ये क्या उल्लूपना है? कोई कहाँ से आएगा और कोई कहाँ से। आधी रात में आते-जाते कहीं कुछ हो गया तो मुँह काला हो जाएगा। लेने के देने पड़ जाएँगे। चुपचाप सो जाओ। जो भी करना हो, सुबह करना।’ इसलिए हमारा तो सारा जश्न धरा का धरा रह गया मम्मी।”
‘उदय तिथि’ वाले मुद्दे पर उत्तमार्द्धजी भी मेरी पार्टी में हैं। सो, तथागत का जवाब सुनकर हँस-हँस कर दोहरी हो गई। इसी दशा में, बड़ी मुश्किल से मुझे सारी बात बताई। हँसी तो मुझे भी आई किन्तु खुशी ज्यादा हुई। नहीं जान पाया (न ही जानना चाहा) कि मुकेश ने यह सब मानसिकता के अधीन किया या व्यावहारिकता के अधीन। किन्तु बात मेरे मन की थी। मेरी तबीयत खुश हो गई। मैंने फौरन ही मुकेश को फोन लगाया और इस ‘नेक काम’ के लिए खूब प्रशंसा की और बधाइयाँ दी। मेरी मनःस्थिति और बधाई देने का कारण जान कर मुकेश भी खूब खुश हुआ और हँसा। मैंने कहा - ‘फटाफट तुम चारों का फोटू भेजो।’ उसने पूछा - ‘क्या करोगे जीजाजी?’ मैंने कहा - ‘क्या करूँगा? अरे भई! तेने वो काम किया जो मैं चाहता हूँ कि सब करें। तू मेरे सामने होता तिलक लगा कर शाल-श्रीफल से तेरा सम्मान कर देता। मुझसे खुश समेटी नहीं जा रही। अपनी खुशी बाँटूँगा। उसी के लिए फोटू चाहिए। फटाफट भेज।’
मुकेश ने अभी ही फोटू भेजा और उतनी ही फुर्ती से मैं अपनी खुशी का विस्तार कर रहा हूँ।
नेक काम में भला देर क्यों?
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(चित्र में बॉंये से तन्मय, मुकेश, मंजू और नन्दन)