बात जरूर कर, लेकिन ‘यूँ ही’ मत कर

रतलाम में होता हूँ तो अखबार पढ़ने का मन नहीं होता। लेकिन जब इन्दौर में होता हूँ तो अखबार की तलाश रहती है। काम-धाम कुछ रहता नहीं। फुरसत ही फुरसत रहती है। वहाँ अखबार मुश्किल से मिल पाता है। दो-तीन दिनों के लिए जाता हूँ। बन्दी के अखबार बाँटनेवाले हॉकर के पास अतिरिक्त प्रतियाँ नहीं होतीं। रिंग रोड़ पर सिन्धिया प्रतिमा चौराहे पर अखबारवाला आता तो है लेकिन अपने मन का राजा है। उसके बाद अखबार मिलता है ठेठ पलासिया चौराहे पर। इतनी दूर कौन जाए? इसलिए, सुबह-सुबह सड़क पर आ खड़ा होता हूँ। इस उम्मीद से कि कभी, कोई हॉकर महरबान हो जाए। 

इसी ‘कृपाकांक्षा’ में परसों, मंगलवार की सुबह कनाड़िया मार्ग पर आ खड़ा हुआ। सामनेवाली मल्टी के नीचेवाली होटल की सर्विस रोड़ के लिए बनी दो-फुटी दीवाल पर टिक गया। सात बज रहे हैं। होटल खुली नहीं है। एक ऑटो खड़ा है। दो सज्जन बैठे हुए हैं। बतिया रहे हैं। कड़ाके की सर्दी है - तापमान सात डिग्री। मैं उनकी बातें सुनने लगता हूँ। अपनी तरफ मेरा ध्यान देखकर वे अपनी बातों का सिलसिला तोड़ देते हैं। पूछते हैं - ‘कहीं बाहर से आए हैं? नए लगते हैं। पहले कभी नजर नहीं आए।!’ मैं अपना परिचय देता हूँ और वहाँ बैठने का मकसद बताता हूँ। एक कहता है - ‘आपको अखबार शायद ही मिले। लेकिन थोड़ी देर राह देख लीजिए। पाँच-सात रुपयों के लालच में कोई हॉकर किसी बन्दी वाले का अखबार आपको दे-दे।’ मैं मौन मुस्कुराहट से जवाब दे देता हूँ। उनकी बातों का टूटा सिलसिला जुड़ जाता है -

‘बहू को अच्छी नहीं लगी कैलाश की बात।’

‘कौन सी बात?’

‘वही! प्रियंका को चिकना चेहरा कहनेवाली बात।’

‘हाँ। वो तो अच्छा नहीं किया कैलाश ने। ऐसा नहीं कहना चाहिए था। शोभा नहीं देता। लेकिन सज्जन ने भी तो वही किया! उसे क्या जरूरत थी जवाब देने की? चुप रह जाता!’

‘हाँ। सज्जन ने भी घटियापन का जवाब घटियापन से दिया।’
‘हाँ। पता नहीं इन लोगों को क्या हो गया है! इन्हें न तो अपनी इमेज की चिन्ता है न अपनी पार्टी की इमेज की। पता नहीं, इनकी ऐसी बातें सुन कर इनके टीचर लोग क्या सोचते होंगे!?’

‘क्या सोचते होंगे! अपना माथा कूटते होंगे। यही पढ़ाया हमने इनको? पता नहीं राजनीति में आते ही इन लोगों को क्या हो जाता है!’

‘ऐसी बातों से ही लोग राजनीति को गन्दी मानते हैं।’

‘हाँ। राजनीति के कारण ही सज्जन बोला होगा। सोचा होगा, चुप रह जाऊँगा तो लोग बेवकूफ समझेंगे।’

‘हो सकता है। लेकिन बोल कर बेवकूफ साबित होने से तो अच्छा है कि चुप रह बेवकूफ साबित हुआ जाए। बेवकूफी का जवाब बेवकूफी नहीं होता।’

सन्दर्भ मुझे समझ में आ जाता है। कैलाश याने कैलाश विजयवर्गीय और सज्जन याने मध्य प्रदेश सरकार के मन्त्री सज्जन सिंह वर्मा। हमारे राज नेता भाषा की शालीनता से दूरी बढ़ाने की प्रतियोगिता करते नजर आ रहे हैं। उन्हें रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं। लेकिन यह वार्तालाप सुनकर मेरी सुबह अच्छी हो गई - लोग हमारे नेताओं पर न केवल नजरें बनाए हुए हैं बल्कि उनकी भाषा पर भी ध्यान दे रहे हैं। आज अकेले में बात कर रहे हैं, कल मुँह पर बोलेंगे। बात निकलती है तो दूर तलक जाती ही है। बेवकूफी का जवाब बेवकूफी नहीं होता। खून के दाग खून से नहीं धोए जा सकते।

अब तक एक भी हॉकर इधर से नहीं निकला है। वे दोनों खड़े होते हैं। मुझे सलाह देते हैं - ‘अच्छा होगा कि आप माधव राव के पुतलेवाले चौराहे पर चले जाओ।’ उनके साथ-साथ मैं भी उठ जाता हूँ। 

रिंग रोड़ चौराहे पर खूब भीड़ है। बॉम्बे हास्पिटल की ओर से आ रहा एक ट्रक उलट गया है। नुकसान तो कुछ नहीं हुआ लेकिन यातायात अस्तव्यस्त हो गया है। जाम लगा हुआ है। शीत लहर के कारण कलेक्टर ने स्कूलों की छुट्टी कर दी है। स्कूलों के वाहन गलती से ही नजर आ रहे हैं। उद्यमों/संस्थानों के वाहन सड़कों पर हैं। उनके कर्मचारी अपने-अपने वाहन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सबको जल्दी है। ट्रेफिक पुलिस के दो जवान और तीन-चार समाजसेवी मिलकर ट्रेफिक क्लीयर करने में लगे हुए हैं। लोग उनकी परवाह नहीं कर रहे हैं। जिसे, जहाँ गुंजाइश मिल रही है, अपना वाहन घुसेड़ रहा है। ऐसा करने में खुद की और सबकी मुश्किलें बढ़ रही है। अखबारवाला नहीं आया है।एक ऑटो वाला कहता है - ‘अब नहीं आएगा। आना होता तो आ गया होता।’ मैं अपने मुकाम की ओर चल पड़ता हूँ। दारू की दुकान से दो दुकान आगेवाली होटल के सामने, दो लोग सड़क पर खड़े-खड़े चाय पीते हुए, दीन-दुनिया से बेपरवाह बातें कर रहे हैं। इस तरह कि रास्ते चलते आदमी को बिना कोशिश के ही सुनाई दे जाए। लगता है, दोनों एक ही संस्थान में काम करते हैं और कम्पनी के वाहन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। दोनों समवय हैं। चालीस-पैंतालीस के आसपास। मुखमुद्रा और बेलौसपन से एक झटके में समझ पड़ जाती है कि गम्भीर बिलकुल नहीं हैं। वक्तकटी की चुहलबाजी कर रहे हैं -

‘तुम स्साले काँग्रेसियों को उस एक खानदान के सिवाय और कुछ नजर नहीं आता। अपने घर के हीरों की न तो परख करते हो न ही पूछताछ। ये तो हम हैं जो बड़ा दिल करके तुम्हारेवालों को सम्मानित कर देते हैं। हिम्मत चाहिए इसके लिए। तुम सब तो मम्मी से डरते हो।’

तू कभी नहीं सुधरेगा! तेरे आका इतने भले नहीं है कि बिना किसी लालच के किसी के गले में माला डाल दे। इतने भले होते तो आडवाणी और जोशी की ये दुर्गत न करते। लोकसभा चुनाव में सीटों का घाटा पूरा करना है। इसलिए बंगालियों को खुश करने के लिए प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न दे दिया। लेकिन ये चाल उल्टी न पड़ जाए। जानता है प्रणव मुखर्जी कौन है? इन्दिरा गाँधी ने जो इमरजेन्सी लगाई थी, उसका ब्लाइण्ड सपोर्टर था! उस समय, उसकी केबिनेट में मिनिस्टर था। इन्दिरा की इमरजेन्सी का विरोध और इमरजेन्सी का समर्थन करनेवाले को भारत-रत्न! तेरे आकाओं ने ये भी नहीं सोचा कि उन्होंने इमरजेन्सी का समर्थन कर दिया है। अब किस मुँह से इमरजेन्सी को क्रिटिसाइज करेंगे? और अभी जो कमलनाथ ने मीसा बन्दियों की पेंशन खत्म करने का जो आर्डर जारी किया है, उसका विरोध किस मुँह से करोगे? मुँह उठाकर कुछ तो भी बोल देते हो! कुछ अक्कल-वक्कल है के नहीं?’

‘अरे! तू तो सीरीयस हो गया यार! कहाँ तो तू राहुल को पप्पू कहता है और कहाँ ऐसी बातें कर रहा है?’

‘तेने हरकत ही ऐसी की! मैं तो जानता हूँ कि मुझे राहुल और सोनिया रोटी नहीं देते। लेकिन तू तो ऐसे बातें करता है जैसे मोदी केवल तेरे भरोसे, तेरे दम पे पीएम बना हुआ है और वहीं से तेरा टिप्पन आता है! अरे भई! जब पढ़े-लिखे लोग भी ऐसी बातें करेंगे तो सबका भट्टा बैठेगा नहीं तो और क्या होगा? ईमानदारी से अपना काम करो। सही को सही और गलत को गलत कहो।’

‘सॉरी-सॉरी यार! तू सही कह रहा है। मैंने तो यूँ ही बात-बात में बात कर दी थी। दिल पे मत ले।’

‘बात-बात में बात तो जरूर कर लेकिन यूँ ही मत कर। पढ़ा-लिखा, समझदार, एक बच्चे का बाप है। जिम्मेदारी से बात किया कर।’ उसे कोई जवाब मिलता उससे पहले ही उनकी बस आ गई। 

वे दोनों चले गए। अब मुझे अखबार की जरूरत नहीं रह गई थी। जाते-जाते वह अनजान आदमी सूत्र दे गया - ‘बात जरूर कर लेकिन यूँ ही मत कर। जिम्मेदारी से किया कर।’ क्या यह सूत्र मुझ अकेले के लिए है?
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 31 जनवरी 2019

जरा तलाश करना! इन्हें आप्टे साहब मिले?


फेस बुक पर अचानक ही यह तस्वीर नजर आई। कुछ दिन पुरानी है। फिल्मी दुनिया के कुछ लोग प्रधान मन्त्री मोदी से मिलने गए थे। उसी समय की तस्वीर है यह। चित्र में प्रधान मन्त्री मोदी, अभिनेत्री परिणीति चोपड़ा से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाए नजर आ रहे हैं। जवाब में परिणीति हाथ मिलाने के बजाय हाथ जोड़ कर नमस्कार करती दिखाई दे रही हैं। इस चित्र ने फेस बुक की ‘चाय की प्याली में तूफान’ ला दिया। अधिकांश लोगों ने परिणीति के इस व्यवहार को प्रधान मन्त्री मोदी का अपमान माना और खिन्नता जताते हुए परिणीति को अनेक परामर्श दिए। कुछ लोगों ने इस व्यवहार को भारतीय संस्कृति का निर्वाह मानते हुए परिणीति की सराहना की। ‘लाइक’ और ‘ट्रोलिंग’ से ‘आच्छादित’ इस समय में कुल मिलाकर लोगों ने अपनी भावनानुरूप ही मूरत देखी। चित्र पर लोगों की प्रतिक्रियाएँ देखकर मुझे, पचास बरस से अधिक पहले, अंग्रेजी के अपने प्रोफेसर आप्टे साहब से खाई जोरदार डाँट-फटकार याद आ गई। 

मैं उस समय के अविभाजित मन्दसौर  जिले के रामपुरा कॉलेज में बी. ए. के दूसरे साल में था। अंग्रेजी के प्रोफेसर एस. डी. आप्टे साहब उसी बरस स्थानान्तरित होकर रामपुरा आए थे। मैं मन्दसौर कॉलेज से बी. एससी. के पहले साल में फेल होकर रामपुरा कॉलेज में, बी. ए. में भर्ती कराया गया था। रामपुरा बड़े गाँव जैसा कस्बा था। उसके मुकाबले मन्दसौर बहुत बड़ा शहर होता था। कॉलेज में छात्रों की संख्या का आलम यह कि मन्दसौर कॉलेज में, बी. एससी. के प्रथम वर्ष की तीन कक्षाओं की छात्र संख्या, रामपुरा कॉलेज की सभी वर्षों की सभी कक्षाओं की छात्र संख्या के बराबर। रामपुरा कॉलेज का प्रत्येक प्रोफेसर, कॉलेज के प्रत्येक छात्र/छात्रा को नाम और शकल से पहचानता था। बी. ए. दूसरे वर्ष की कक्षा में हम कुल चौदह छात्र/छात्रा थे। ‘मन्दसौर रिटर्न’ होना मुझे रामपुरा में सबसे अलग करता था। मेरा रहन-सहन, चाल-चलन ‘फैशनेबल’ माना जाता था। अपनी यह दशा अनुभव कर मैं भी खुद को ‘स्मार्ट’ मानने लगा था और वैसा ही व्यवहार भी करने लगा था।

आप्टे साहब स्थूल शरीर, ऊँचे डील-डौल और गुरु-गम्भीर व्यक्तित्व वाले थे। बड़ी-बड़ी आँखें और गूँजती आवाज। कम बोलते थे। उनका कम बोलना हमें आतंकित करता था। शुरु के कुछ महीनों तक उनके सामने हमारे बोल ही नहीं फूटते थे। स्थिति ‘तनावपूर्ण किन्तु नियन्त्रण में’ जैसी बनी रहती थी। लेकिन धीरे-धीरे बर्फ पिघली तो मालूम हुआ - ‘अरे! आप्टे साहब तो नारियल हैं! ऊपर से हड्डी तोड़ कठोर लेकिन अन्दर से सजल मुलायम और मीठे।’ जिस पर लाड़ आता, उसे ‘अरे! गधे’ कह कर पुकारते। कुछ ही महीनों में, गिनती के हम विद्यार्थियों में ‘गधा’ बनने की होड़ शुरु हो गई। 

सब कुछ ऐसा ही चल रहा था। लेकिन एक दिन मेरी ‘ओव्हर स्मार्टनेस’ ने मुझे आप्टे साहब के हत्थे चढ़ा दिया। उस दिन मैं कक्षा में सबसे बाद में लेकिन आप्टे साहब से पहले पहुँचा। मैं कक्षा में घुस ही रहा था कि आप्टे साहब आते दिखे। मैं रुक गया। सोचा, सर के पीछे ही कक्षा में जाना चाहिए। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन वह मूर्खता हो गई जिसने जिन्दगी का बड़ा पाठ पढ़ा दिया। 

मैं कक्षा की दहलीज के बाहर खड़ा था। आप्टे साहब पहुँचे तो उन्हें प्रभावित करने के लिए, हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए, विनम्रताभरी एँठ से बोला - ‘गुड मार्निंग सर!’ अपनी रौ में झूमते चले आ रहे आप्टे साहब झटके से ठिठक गए। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें हैरत से और बड़ी हो गईं। मुझे घूरकर देखने लगे। मुझे पल भर भी नहीं लगा यह समझने में कि मैंने कोई बड़ी गड़बड़ कर दी है और मैंने अब अपनी खैर मनानी शुरु कर देनी चाहिए। आप्टे साहब की शकल देखकर मैं हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। 

यह स्थिति कुछ ही क्षण रही। आप्टे साहब धीरे-धीरे मेरे पास आए। अपना भारी-भरकम हाथ उठाया। मुझे लगा - ‘आज तो बेटा विश्न्या! तू गया काम से!’ लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बहुत ही धीमे से उन्होंने मेरी टप्पल में धौल टिकाई और बोले - ‘अरे गधे! तू गधा ही रहेगा।’ कहकर, कसकर मेरी गर्दन पकड़ी। दो-तीन बार झटके से इधर-उधर हिलाई और बोले - ‘इंगलिश लिटरेचर ले लेने का मतलब अंग्रेज हो जाना नहीं होता। यू आर स्टडिंग इंगलिश लिटरेचर ओनली। डोण्ट ट्राय टू बी एन इंगलिश मेन। इट इज ग्रेट टू बी एन इण्डियन। बी ए गुड इण्डियन एण्ड रीमेन लाइक देट।’ मेरी गरदन लोहे के पंजे में जकड़ी हुई थी। साँसें घुट रही थीं। बोल पाने का तो सवाल ही नहीं था।

मेरी गरदन को इसी तरह जकड़े हुए आप्टे साहब कक्षा के बाहर खड़े थे। अन्दर बैठे सारे तेरह साथी/साथिनें यह अद्भुत और अनूठा ‘सीन’ देख रहे थे। आप्टे साहब गुस्से में बिलकुल नहीं थे लेकिन मेरी गर्दन पर उनकी पकड़ रंच मात्र भी ढीली नहीं हो रही थी। इसी दशा और मुद्रा में आप्टे साहब ने उस दिन अपना पूरा ‘पीरीयड’ एक अकेले विद्यार्थी को पढ़ाया।

आप्टे साहब ने कहा कि हाथ मिलाना पाश्चात्य शिष्टाचार की परम्परा है। भारतीय परम्परा नमस्कार करने की है। अर्थ तो दोनों का एक ही है - अभिवादन कर आदर जताना। किन्तु दोनों की प्रक्रिया एकदम अलग-अलग है। लगभग विपरीत। पाश्चात्य परम्परा में वरिष्ठ को शाब्दिक अभिवादन (यथा, गुड मार्निंग/गुड नून/गुड इवीनिंग सर!) किया जाता है। जवाब में वरिष्ठ शाब्दिक अभिवादन तो करता ही है, कनिष्ठ के प्रति प्रेम और सम्मान भाव प्रकट करते हुए अपना हाथ बढ़ाता है। तब ही कनिष्ठ उससे हाथ मिलाता है। पाश्चात्य संस्कृति में कनिष्ठ कभी भी पहले हाथ नहीं बढ़ाता। भारतीय संस्कृति में हाथ नहीं मिलाया जाता। हमारे यहाँ कनिष्ठ व्यक्ति, विनयपूर्वक, दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार कर अभिवादन करता है। जवाब में वरिष्ठ व्यक्ति प्रेमपूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वचन से उसे समृद्व करता है। विस्तार से समझा कर आप्टे साहब ने मेरी गर्दन छोड़ी और पूछा - ‘डिड यू अण्डरस्टेण्ड?’ घिघियाते हुए मेरे बोल फूटे - ‘यस सर!’ आप्टे साहब बोले - ‘नो। इट इज नाट सफिशियण्ट। लेट अस हेव ए प्रेक्टिकल।’ कह कर खुद दो कदम पीछे हटे और बोले - ‘आई एम कमिंग टू क्लास। विश मी ए गुड मार्निंग।’ मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। मेरी दशा देख कर बोले - ‘अरे! गधे! विश मी ए गुड मार्निंग।’ मन्त्रबिद्ध दशा में मैंने खुद को यन्त्रवत बोलते सुना - ‘गुड मार्निंग सर!’ खुश होकर आप्टे साहब ने जवाब दिया - ‘व्हेरी गुड मार्निंग माय ब्वाय। हाऊ डू यू डू?’ और अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया। मैंने उसी दशा में अपना लुंज-पुंज हाथ उनके हाथ में दे दिया। वे खुश हो गए। मेरा हाथ छोड़ कर बोले - ‘अब भारतीय संस्कृति का प्रेक्टिकल हो जाए।’ कह कर फिर दो कदम पीछे हटे। इस बार मैंने न तो प्रतीक्षा की न ही देर। बोला - ‘नमस्कार सर!’ पूरी ऊँचाई तक अपना दाहिना हाथ आकाश में उठाते हुए आप्टे साहब गद्गद् भाव से बोले - ‘आयुष्मान् भव। यशस्वी भव।’ कहते-कहते मेरा माथा सहलाया और कक्षा में देखते हुए बोले - ‘तुम सबने सुना?’ सबने मुण्डियाँ हिला कर हामी भरी। देखकर आप्टे साहब बोले - ‘आज की क्लास हो गई। सी यू टुमारो।’

उसके बाद क्या हुआ, क्या नहीं, यह बताने का कोई मतलब नहीं। वह सब आज याद आ गया - प्रधान मन्त्रीजी और परिणीति की यह तस्वीर देखकर। पता नहीं, इन दोनों को कभी कोई आप्टे साहब मिले या नहीं।
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‘राज’ की नहीं, ‘राज्य’ की चिन्ता करें

‘दोनों में डिफरेंस ही क्या है? दोनों एक ही तो हैं अंकल!’ सुनकर मैं चौंका भी और हतप्रभ भी हुआ। 

यह 25 जनवरी की अपराह्न है। सत्तरवें गणतन्त्र दिवस से ठीक एक दिन पहले की अपराह्न। मेरे परम मित्र रवि शर्मा के भानजे लकी के विवाह प्रसंग के कार्यक्रमों में भागीदारी के लिए बिबड़ोद मार्ग स्थित एक मांगलिक परिसर में बैठा हूँ। सब लोग फुरसत में गपिया रहे हैं। लोकसभा चुनावों पर बातें हो रही हैं। ‘सरकार किसकी बनेगी?’ इस पर हर कोई बढ़-चढ़कर, विशेषज्ञ की मुद्रा में अन्तिम राय दे रहा है। सबकी अपनी-अपनी पसन्द है। वे अपनी पसन्द की सरकार बनवा रहे हैं। मैंने अचानक ही कह दिया - “सरकारें तो बनती-बिगड़ती रहती हैं। आती जाती हैं। बेहतर होगा कि ‘राज’ की नहीं, ‘राज्य’ की चिन्ता करें।’ मेरी इसी बात के जवाब में एक अपरिचित नौजवान ने वह कहा जो मैंने शुरु में लिखा है। वह नौजवान स्नातक कक्षा के अन्तिम वर्ष का विद्यार्थी है। वह ‘राज्य’ और ‘राज’ को पर्यायवाची माने बैठा है। यह हमारी, भाषागत विफलता है या अपनी अगली पीढ़ी से बनी हमारी संवादहीनता का परिणाम? मेरा भाग्य अच्छा था कि उस नौजवान ने समझने की खिड़कियाँ बन्द नहीं कर रखी थीं। उसने इस अन्तर को समझाने का आग्रह किया। मेरी बात तनिक लम्बी हो गई लेकिन उस नौजवान ने पल भर भी धैर्य नहीं छोड़ा। वह मेरी बात चुपचाप सुनता रहा। 

हम स्वभावतः लोकतान्त्रिक समाज रहे हैं। शासक भले ही एक व्यक्ति (राजा) रहा हो लेकिन वह भी ‘लोक’ केन्द्रित ही रहा। भारत का इतिहास जनपदों और गणराज्यों के उल्लेखों से भरा पड़ा है। शासक कोई भी रहा हो, ‘गण’ और ‘जन’ ही उसके लक्ष्य रहे हैं। राजाओं ने राज तो किया लेकिन ‘राज्य’ ही उनकी पहली चिन्ता और पहली प्राथमिकता रहा। राम के वनवास काल में भरत ने राज तो किया लेकिन राजा बनकर नहीं। उन्होंने ‘अवध’ की चिन्ता की, खुद के पद की नहीं। मेवाड़ के शासकों ने भगवान एकलिंगजी के प्रतिनिधियों के रूप में राज किया। जिन्होंने ‘राज’ की परवाह की, वे लोकोपवाद के रूप में उल्लेखित किए गए और जिन्होंने ‘राज्य’ की परवाह की वे इतिहास बन गए।

कानूनी और तकनीकी विवेचन से तनिक नीचे उतरकर बोलचाल की भाषा में बात करें तो ‘राज्य’ एक स्वतन्त्र, सार्वभौम भूमि प्रदेश होता है और ‘राज’ उसकी संचालन व्यवस्था। भारत एक स्वतन्त्र, सार्वभौम गणराज्य है और निर्वाचित संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली इसकी संचालन व्यवस्था। इस प्रणाली से ही हम अपनी सरकार चुनते हैं। ऐसी प्रत्येक सरकार (याने कि ‘राज’) अस्थायी होती है लेकिन ‘राज्य’ तो स्थायी, अविचल बना रहता है।

लेकिन ‘सेवक भाव’ से राज करने की बात अब ‘कल्पनातीत’ से कोसोें आगे बढ़कर ‘मूर्खतापूर्ण सोच’ हो गई है। अब तो जो भी सरकार में आता है, वह आजीवन वहीं बना रह जाना चाहता है। इसीलिए प्रत्येक ‘राजा’ खुद को ‘राज्य’ साबित करने लगता है। तब, ‘व्यक्ति विरोधी’ को ‘राष्ट्र विरोधी’ घोषित किया जाने लगता है। इसका पहला उदाहरण इन्दिरा राज में तत्कालीन कांग्रेसाध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने ‘इन्दिरा इज इण्डिया एण्ड इण्डिया इज इन्दिरा’ कह कर पेश किया था। तब, विरोधियों की बात तो दूर रही, अनेक काँग्रेसियों ने भी इस ‘अमृत वचन’ से असहमति व्यक्त कर इसकी खिल्ली उड़ाई थी। 1977 के आम चुनावों में देश ने बरुआ का मुगालता दूर कर दिया। खुद इन्दिरा गाँधी ही चुनाव हार गई।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ‘राज’ और ‘राज्य’ का अन्तर जिस तरह से हमें समझाया वह अद्भुत है। उन्होंने ‘राज्य’ (भारत) को मुक्ति दिलाने के लिए ‘राज’ (अंग्रेजी राज) को उखाड़ फेंका। गाँधी के प्रत्येक आग्रह, अभियान को अंग्रेज सरकार ने राष्ट्रद्रोह कहा लेकिन गाँधी ने हर बार साबित किया कि वे देश का नहीं, अंग्रेजी राज का विरोध कर रहे थे। आश्चर्य यह कि यह अनूठा विरोध भी वे अंग्रेज सरकार के (याने ‘राज’ के) कानूनों का पालन करते हुए कर रहे थे। क्रान्तिकारियों का साथ न देने के कुछ आरोप् गाँधी पर इसलिए भी लगे कि गाँधी ने, अपने सिद्धान्तों के अधीन, ‘राज’ के कानूनों का उल्लंघन करने से इंकार कर दिया था। 
‘राज’ और ‘राज्य’ कभी भी समानार्थी या कि पर्यायवाची नहीं रहे। केवल तानाशाही शासन पद्धति में ही ये दोनों समानार्थी माने जाते हैं। तब, राजा को ही राष्ट्र बना दिया जाता है। राजा के विरोधी को राष्ट्र का विरोधी करार दिया जाता है और मृत्युदण्ड या देश निकाला दे दिया जाता है। इन्दिरा राज में इन्दिरा विरोधियों को देश विरोधी करार दिया जाता था। वही दौर आज फिर लौट आया है। प्रधान मन्त्री मोदी को ‘राष्ट्र’ निरूपित किया जा रहा है। उनके विरोधियों को राष्ट्र विरोधी करार दिया जा रहा है और ऐसे ‘राष्ट्र विरोधियों’ को पाकिस्तान भेजने का तो मानो मन्त्रालय ही स्थापित हो गया है। इतिहास गवाह है कि तानाशाहों का अन्त या तो आत्म-हत्या से हुआ है या फाँसी से।

हमारे संविधान में राजनीतिक प्रतिबद्धता की बाध्यता नहीं थी। संविधान विशेषज्ञ बताते हैं कि प्रधान मन्त्री चुनने के बाद संसद सदस्य राजनीति प्रतिबद्धता से मुक्त हो जाते थे। किन्तु बाद के वर्षों में (सम्भवतः राजीव गाँधी के कार्यकाल में, जब दलबदल निरोधी प्रावधान प्रभाव में आए) पार्टी व्हीप की बाध्यता शुरु हुई।

आज ‘राज्य’ पर ‘पार्टी लाइन’ हावी हो गई है। प्रत्येक पार्टी के लोग जानते हैं कि उनकी पार्टी की अनेक बातें असंवैधानिक, अनुचित और आपत्तिजनक हैं। लेकिन वे सब केवल ‘पार्टी लाइन’ के अधीन ‘क्रीत दास भाव’ से उनका समर्थन करते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कही गई अपनी अनगिनत बातों पर हमारे मौजूदा प्रधान मन्त्री मोदी ने जिस तरह से पलटियाँ खाई हैं और उनके तमाम समर्थक जिस तरह से मौन हैं, वह हमारे सामने है।

प्रत्येक गणतन्त्र दिवस हमारे आत्म निरीक्षण का अवसर बन कर सामने आता है। हम स्वतन्त्र, सार्वभौम, लोकतान्त्रिक गणराज्य हैं। यही हमारी पहली चिन्ता और पहली जिम्मेदारी है। सरकारें क्षण भंगुर हैं। देश चिरंजीवी, चिरन्तन है। हमारी सरकारें कर्तव्यच्युत न हों, यह हमारी जिम्मेदारी है। अपनी पार्टी के ‘राज’ का अन्ध समर्थन करते रहे तो ‘राज्य’ खो बैठेंगे। ‘राज्य’ हमारा माथा है और ‘राज’ उसे ढँकनेवाली टोपियाँ। सर है सलामत तो टोपी हजार। ‘गण’ (याने कि ‘हम, भारत के लोग’) अपने ‘राजा’ पर, वस्तुपरक भाव से (आब्जेक्टिवली) नजर रखें और पथभ्रष्ट होने पर उसे रोकें-टोकें। यह गुंजाइश रखंे कि ‘हमारा राजा’ मनुष्य है, गलती कर सकता है। यदि ‘राजा’ हमारी पार्टी का है तो हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। विरोधी कुछ कहे, उससे पहले हम ही उसे टोकें। 

कुर्सी पर बैठते ही प्रत्येक ‘राजा’ मुगालते में आ जाता है कि अब उसे कोई हटा नहीं सकता। उसे याद दिलाते रहें कि इस कुर्सी पर कल कोई और था, कल कोई और होगा। पदान्ध-मदान्ध हो रहे अपने राजा को राहत इन्दौरी का यह शेर जोर-जोर से, बार-बार सुनाएँ, सुनाते रहें -

आज जो सहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े  है?

गणतन्त्र दिवस की इस मंगल वेला में हम अपनी गरेबाँ में झाँकें। ‘राज’ या ‘राजा’ की नहीं, ‘राज्य’ की चिन्ता करें। ‘राज्य’ बना रहेगा तो ‘अपना राजा’ और ‘अपना राज’ बनता रहेगा। ‘राज्य’ ही नहीं रहेगा तो कौन सा राजा और किसका राज?

गणतन्त्र दिवस की शुभ-कामनाएँ। अमर रहे गणतन्त्र हमारा।
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खाता-बही यहाँ जिन्दा है


सुरेश भाई को इस तरह देख कर झटका लगा। विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं इक्कीसवीं सदी में यह देख रहा हूँ। याद नहीं आता कि ऐसा दृष्य इससे पहले कब देखा था। मेरी दशा देख कर सुरेश भाई मुस्कुरा कर बोले - ‘विश्वास नहीं हो रहा न? मुझसे तो कम्प्यूटर पर काम हो नहीं पाता। मैं अब भी इसी तरह काम करता हूँ।’

सुरेश भाई याने रतलाम के चाँदनी चौक स्थित ‘चौधरी ब्रदर्स’ वाले सुरेश चौधरी। बिजली के सामान की, पीढ़ियों पुरानी दुकान है। इतनी पुरानी कि बस! नाम ही काफी है। काम लम्बा-चौड़ा है। चार भाई, सुरेश, जयन्ती, राजेन्द्र और जवाहर मिल कर सम्हालते हैं। सबने अपना-अपना काम बाँट रखा है। बड़े ग्राहक दुकान पर नजर नहीं आते। नजर आएँ भी कैसे? भाई लोग उनके दफ्तरों में पहुँच कर उनके काम जो कर देते हैं! देहात के ग्राहकों का जमावड़ा दिन भर लगा रहता है। मैं महीने-दो महीने में मिलने चला जाता हूँ। लेकिन सुरेश भाई को इस तरह, पारम्परिक ढंग से काम करते कभी नहीं देखा।

मैं जब एक औद्योगिक इकाई में भागीदार था तो हमारे यहाँ रजिस्टरों के आकारवाली केश-बुक और लेजर काम में आते थे। पारम्परिक खाता बहियाँ देखे मुझे बरसों हो गए। मनासा से निकलने के बाद रतलाम में भी दुकानों पर लाल रंग की खाता-बहियों में काम करते किसी को नहीं देखा। सुरेश भाई को देखा तो मुझे मानो ‘नास्टेल्जिया’ ने घेर लिया।

सुरेश भाई न केवल पारम्परिक खाता-बही में हिसाब-किताब रखते हैं, लिखने के लिए भी वे बॉल-पेन के बजाय स्याहीवाला पेन ही वापरते हैं। कहते हैं कि हर बरस स्याहीवाला नया पेन खरीदते हैं। स्याही की दावात जरूर दो-ढाई बरस में खरीदनी पड़ती है। स्याही सोखनेवाला कागज (स्याही सोख्ता याने कि ब्लाटिंग पेपर) तनिक कठिनाई से मिलता है। इसलिए उसे अतिरिक्त सावधानी से वापरते हैं।

मैं पहुँचा तब सुरेश भाई का काम पूरा होने को था। मैंने फटाफट ये फोटू लिए। आप भी देखिए और अपना गुजरा जमाना तो याद कीजिए ही, अपने बच्चों को भी इसके बारे में बताइए।  




खाता बही में प्रविष्टियाँ करते हुए सुरेश भाई

पेन में स्याही भरते हुए सुरेश भाई

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