व्यक्तित्व विकास और कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक दृष्टिकोण’ इन दिनों मुहावरे की तरह प्रचलन में है । लेकिन यह सब अब तक पूरी तरह व्यक्तिगत सन्दर्भों में ही प्रयुक्त किया जा रहा है । क्या इसे किसी ‘राष्ट्र’ के सन्दर्भ में प्रयक्त किया जा सकता है या किया जाना चाहिए ? मेरा उत्तर है - हाँ । यह जानते हुए भी कि इसे क्रियान्वित कर पाना अत्यधिक दुष्कर है, लगभग असाध्य की सीमा तक । लेकिन प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलने की इच्छा शक्ति वाला नेतृत्व मिल जाए तो कुछ भी सम्भव है ।
बाईस अक्टूबर से लेकर अब तक मैं ऐसी ही बातों में उलझा हुआ हूँ । उस दिन सवेरे जल्दी उठ गया था । चन्द्रयान-1 के प्रक्षेपण का जीवन्त प्रसारण देखने की उत्कण्ठा ने वैसे भी बराबर सोने नहीं दिया था । भारत का यह पहला उपग्रह है जो धरती की कक्षा से बाहर गया है । मैं इस क्षण का ‘चक्षुदर्शी साक्ष्य’ बनना चाहता था । सब कुछ समयानुसार ही हुआ । प्रक्षेपण के प्रारम्भिक क्षण तो देखे किन्तु आगे केवल ग्राफिक चार्ट देखकर ही सन्तोष करना पड़ा । बादल छाए हुए थे, सो चन्द्रयान-1 को आकाश में उड़ते हुए नहीं दिखया जा रहा था । इस ऐतिहासिक क्षण का साक्ष्यी बन कर अत्यधिक आत्मसन्तोष तो हुआ, प्रसन्नता उससे करोड़ों गुना अधिक हुई । हर्षजनित आवेग और रोमांच ने अनियन्त्रित कर दिया । कई मित्रों को नींद से उठा दिया, फोन पर बधाई दे-दे कर । दोपहर में कुछ जगह जाकर मिठाई खाई और खिलाई । पूरा दिन इस प्रसन्नता से सराबोर रहा । कोई काम नहीं कर पाया ।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि चैबीस अक्टूबर को इस मनोदशा पर लगाम लग गई और वे सारी बातें मन-मस्तिष्क में घुमड़ने लगीं जो मैं ने यहाँ शुरु में लिखी हैं । तेईस अक्टूबर का 'जनसत्ता' मुझे चैबीस को मिला । उसके सामवें पृष्ठ पर, प्रभाषजी जोशी का, लखनऊ में, ‘अखिलेश मिश्र स्मृति’ में, ‘सवालों के घेरे में भारत का संसदीय लोकतन्त्र’ विषय पर दिए गए व्याख्यान का विस्तृत समाचार छपा था । प्रभाषजी ने भारतीय अर्थ व्यवस्था का शवोच्छेदन करते हुए जो आँकड़े दिए वे किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति को यदि चिन्तित न भी करते हों तो असहज तो कर ही देते हैं । प्रभाषजी के अनुसार, वर्ष 2004 में जब ‘मनमोहन सरकार’ आई तक देश में कुल जमा नौ लोग खरबपति थे जो 2006 में बढ़कर 36 तथा 2008 के पूरा होने से पहले ही, अब तक 56 हो गए हैं । याने, चार साल में खरबपति 6 गुना हो गए । इसी प्रकार 1996 में जीडीपी में कारपोरेट जगत का हिस्सा मात्र दो प्रतिशत था जो 2008 में बढ़कर 22 प्रतिशत हो गया जबकि खेती में लगे 69 करोड़ लोगों का जीडीपी में हिस्सा 17.5 प्रतिशत ही रहा । किन्तु वास्तकिता और भी भयावह है । देश में 84 करोड़ लोग प्रतिदिन 20 रुपये से भी कम कमा पा रहे हैं, 24 करोड़ लोग नहीं जानते कि उन्हें दूसरी जून का भोजन मिल पाएगा भी या नहीं और 21 करोड़ लोग तो ऐसे हैं जो नहीं जानते कि उन्हें भोजन कब मिलेगा ।
प्रभाषजी के भाषण वाले इस समाचार ने मुझे अत्यधिक असहज कर दिया । कहाँ तो चन्द्रयान-1 की उपलब्धि और कहाँ हजारों लोगों की क्षुधापूर्ति की अनिश्चतता ? ‘अर्श और फर्श’ के बीच कितनी विसंगति ? कितना विरोधाभास ? उस पर तुर्रा यह कि दोनों ही बराबर के सच ! हम गर्व करें या शोकान्तिका पढें ? या, एक पर गर्व करते हुए दूसरे को ‘नियति की क्रूरता’ कह अपने आप को समझा लेने की शुतुरमुर्गी मुद्रा अपना लें ?
जिस प्रकार निषेध सदैव आकर्षित करते हैं उसी प्रकार विसंगतियाँ और विरोधाभास भी हमारे सामने दो स्थितियाँ प्रस्तुत करते हैं । पहली - निराश, हताश होकर, सब कुछ ‘ईश्वरेच्छा’ मान कर, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, यथास्थिति को जीते रहें । दूसरी - इन्हें चुनौती के रूप में लेकर इनसे दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में आएँ । व्यक्तिगत स्तर पर दूसरी बात पर अमल कर पाना सम्भवतः अधिक सरल और सम्भव है । किन्तु बात यदि समूचे राष्ट्र की हो तो यह ‘सरल और सम्भव’ स्वतः ही ‘दुरुह और असम्भव’ में बदलता अनुभव होता है । तब बात, अन्ततः राष्ट्रीय नेतृत्व पर ही थमती है ।
हमारे पास नेता तो ढेर सारे हैं लेकिन ‘जन-नेता’ कोई नहीं । एक भी ऐसा व्यक्तित्व नहीं है जिसके एक आह्वान पर सारा देश उसके पीछे चल पड़े । लेकिन यह दशा अचानक ही तो नहीं बनी । राजा-रजवाड़ों, सामन्तों-जमींदारों का जमाना होता तो ‘यथा राजा, तथा प्रजा’ कह कर काम चला लेते । लेकिन आज तो हम (जैसा भी है, लेकिन है तो) संसदीय लोकतन्त्र में जी रहे हैं जहाँ ‘राजा’ का स्थान ‘निर्वाचित जनप्रतिनिधि’ ने ले लिया है । याने, आज स्थिति ‘यथा प्रजा, तथा राजा’ वाली हो गई है । जैसे हम, वैसे हमारे नेता । हम ही ने ‘उन्हें’ चुनकर भेजा है ।
ऐसे में ‘सकारात्मक मानसिकता’ वाला ‘फण्डा’ मुझे ‘अपील’ करता लग रहा है । श्रीमद्भगवद् गीता के अनुसार हमारा नियन्त्रण केवल स्वयम् पर, वह भी प्रयत्न तक ही है, किसी अन्य पर और परिणाम पर नहीं ।
कल हम सब दीपावली मनाएँगे, लक्ष्मी-पूजन करेंगे, लक्ष्मी हमारे आवास में प्रवेश करे इस हेतु अपना समूचा आवास जगमगाता हुआ बनाए रख कर, सारे दरवाजे खुले रखेंगे । गोया, हम भी, अपनी-अपनी क्षमतानुसार, खरबपति बनने का प्रयास कर रहे होंगे ।
क्या ऐसा सम्भव है कि उस समय हम उन लोगों को याद रख सकें और उनके लिए कुछ करने के बारे में निर्णय ले सकें जो नहीं जानते कि उन्हें भोजन कब मिलेगा ?
हम दीपावली कैसे मनाएँगे - विसंगतियों, विराधाभासों के सामने नतमस्तक होकर या उन्हें चुनौती के रूप में स्वीकार कर ?