मेरी तो हो गई दीवाली


लोगों को दीपावली की रात को लक्ष्मी मिलती है । मुझे तो दीपावली की ऐन सवेरे-सवेरे ही मिल गई ।
'अनवरत' से प्रेरित हो, मैं अपने ब्लाग की ‘मुख-मुद्रा’ बदलना चाहता था । इसी तरह, मुझ पर कृपा वर्षा करने वालों के ब्लागों की सूची भी मैं अपने ब्लाग पर देना चाहता था । लेकिन यह कैसे किया जा सकता है, नहीं जानता था । रविजी (श्री रवि रतलामी) के अतिरिक्त रतलाम में और कोई भी ऐसा नहीं जो इसमें सहायता दे सके । रविजी से एक-दो बार बात हुई अवश्‍य थी लेकिन ‘हाँ, कभी भी कर लेंगे’ वाला स्थायी भाव बना हुआ था । इस बीच अचानक ही रविजी भोपाल निवासी हो गए । मैं रह गया एकाकी, निरुपाय ।

कुछ दिनों पूर्व रविजी ने सूचित किया था कि वे 21 अक्टूबर को रतलाम आ रहे हैं - एक कोर्ट पेशी पर । सोचा था, उस दिन उन्हें साँस लेने का भी अवकाश नहीं दूँगा, उनका तेल निकाल दूँगा । लेकिन जिन जज महोदया के यहाँ सुनवाई होनी थी, वे उस दिन अवकाश पर थीं । सो, रविजी आए तो थे टहलते हुए लेकिन लौट गए हवा के पैरों । भेंट भी नहीं हो पाई ।

दीपावली की सवेरे मोबाइल की घण्टी बजी । पर्दे पर रविजी का नाम उभर रहा था । नमस्कार और दीपावली अभिनन्दन के बाद उन्होंने चैंकाया - ‘रतलाम से ही बोल रहा हूँ । अपना तेल निकजवाने कब आऊँ ?’ और तय हो गया कि वे दस मिनिटों में मेरे निवास पर पहुँच रहे हैं ।

वे आए और बिना किसी औपचारिकता के, मेरी मनोकामना पूरी करन में जुट गए । कोई घण्टा-सवा घण्टा लगा और मेरा ब्लाग बिलकुल वैसा ही सामने था जैसा मैं चाह रहा था । उसकी ‘मुख मुद्रा’ बदल गई थी और कृपालुओं के ब्लागों के नाम सूचीबध्द हो चुके थे । जो कृपालु नियमित रुप से मेरे ब्लाग पर दृष्टिटपात करते हैं, उन्होंने इस परिवर्तन को अवश्‍य ही अनुभव किया होगा ।

सो मेरी यह दीपावली, मनोकामना पूरी करने वाली रही । जो इच्छा की थी, पूरी हुई । अब तक मेरा ब्लाग सपाट था, बंजर जमीन की तरह । अब उस पर कई ब्लागों के वट वृक्ष तने खड़े हैं, मुझे छाया देते हुए, मेरी रखवाली करते हुए ।

जैसी दीपावली मेरी हुई, ईश्‍वर वैसी सबकी करे । जिसने जो कामना की हो, वह पूरी हो ।

यदि कोई क़पालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्‍लाग का सन्दर्भ अवश्‍‍य दीजिएगा । यदि इस सामग्री को मुद्रित स्वरूप प्रदान करते हैं तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे उपलब्‍‍ध कराने की कष्ट उठाइएगा । मेरा पता है - पोस्‍‍ट बाक्‍‍स नम्‍‍बर-19, रतलाम-457001 (मध्य प्रदेश)

लक्ष्मी-पति बनाम लक्ष्मी-पुत्र

इस दीपावली, मैं एक विचित्र किन्तु रोचक दुर्घटना का शिकार होता रहा - पूरे दिन भर । कल मेरी पूछ-परख नाम मात्र को ही हुई, मानो मजबूरी में या फिर औपचारिकतावश करनी पड़ रही हो । इसके विपरीत, मेरी पत्नी कल अतिरिक्त रूप से व्यस्त रही । इतनी व्यस्त कि अस्तव्यस्त हो गई । यह सब मेरे नाम के कारण हुआ ।
जूते खोलने के श्रम से बचने के लिए जो मिलनेवाले, मेरे दरवाजे में भी नहीं घुसते थे वे, झुक-झुक कर, अपने जूतों के फीते खोलने का दुरुह श्रम कर मेरे ड्राइंग रूम को पार कर, ठेठ रसोई तक में जाकर मेरी पत्नी का अभिवादन कर रहे थे, चरण स्पर्श कर रहे थे, आशीर्वाद/शुभ-कामनाएँ लेने को टूटे जा रहे थे ।
मैं हैरान था । मेरे खाते में ‘कैसे हैं ?’ या फिर ‘हेप्पी दीवाली’ जैसे शब्द-युग्म आ रहे थे । मैं विस्मित, क्षुब्ध और चकित था । समझ नहीं पा रहा था कि त्यौहार वाले दिन मेरे ही घर में मेरी अनदेखी क्यों की जा रही है ?
अपने ही घर में अपनी ही उपेक्षा (वह भी ‘घर की लुगाई’ के मुकाबले) भला कोई कब तक सहन कर सकता है ? सो, जब धैर्य ने साथ छोड़ दिया तो एक मित्र से पूछ ही लिया - ‘भैया ! आज अपनी भाभी की इतनी पूछ-परख क्यों ? मैं दिखाई क्यों नहीं पड़ रहा हूं ?’ मित्र ने मुझे ऐसे घूरा मानो ऐसा ‘निरा-मूर्ख’ जीवन में पहली बार देख रहा हो । मुझ पर तरस खाते हुए जवाब दिया - ‘मिथ्या दम्भ ने आपकी अकल को ढँक लिया है इसीलिए छोटी सी बात भी इतने बड़े भेजे में नहीं आ रही है । अरे भाई ! दीपावली के दिन तो 'विष्‍णु' की नहीं, ‘विष्‍णु-भार्या’ की पूछ-परख होती, । आपका क्या है, बीमा एजेण्ट हो । कभी भी, कहीं भी, रास्ते चलते मिल जाते हो । आज ‘विष्‍णु’ का नहीं, ‘विष्‍णु प्रिया’ का दिन है । तीन सौ चैंसठ दिन आपको नमन करते हैं, एक दिन तो ‘विष्‍णु-पत्नी’ को नमस्कार कर लेने दो ।’
सुनकर पहले तो मैं अचकचाया । बात हजम नहीं हुई। ‘आहत-अहम्’ का मामला था । सो, मैं ने उन्हें मालवा की एक लोक-कथा सुनाई ।
श्रीलक्ष्मीनाराण मन्दिर में विग्रह स्वरूप में विराजित भगवान विष्‍णु दीपावली की सवेरे से ही अपने भक्तों के आचरण को सस्मित देखे जा रहे थे । रोज उनकी कृपा की याचना करने वाले भक्त आज कुछ माँगे बिना ही, केवल प्रणाम कर लौट रहे थे । मनुष्‍य के मन की राई-रत्ती खबर रखने वाले भगवान विष्‍णु ने, दर्शनार्थ आए भक्तों के एक समूह को रोक कर पूछ ही लिया - ‘आज आप लोग मुझसे कुछ नहीं माँग रहे, अपने निवास को अपनाने का आग्रह नहीं कर रहे ?’ तनिक साहस सँजो कर एक भक्त ने उत्तर दिया - ‘भगवन् ! आज आप क्षीर सागर में ही विश्राम करें । आज हमें आपकी अर्ध्‍दांगिनी चाहिए । उन्हें भेज दीजिएगा ।’ अन्तर्यामी सहास्य बोले - ‘‘भेज तो दूँगा लेकिन एक बात याद रखना । मेरी यह ‘सदा-सौवना भार्या’ यदि अमावस्या की अँधेरी-काली रात में दुनिया भर के दरवाजों में झाँक-झाँक कर देखती है तो इसका कारण यह नहीं है कि मैं बूढ़ा हो गया हूं । यह पूर्ण पतिव्रता और स्वामीनिष्‍ठ है । यदि तू इसे ‘स्वामी भाव’ से अपने यहाँ रखना चाहता है तो अपना भ्रम दूर कर लेना । यह मेरे पास नहीं रहती तो तेरे पास क्या रहेगी ? ध्यान से विचार कर, सोच ! यह ‘स्वामी’ की खोज में दर-दर नहीं भटकती । यह पुत्रविहीना, पुत्र की तलाश में घर-घर भटकती है । तू ‘पुत्र-भाव’ से इसकी कामना करेगा तो यह आजीवन तुझ पर कृपा वर्षा करती रहेगी । तू भले की ‘कुपुत्र’ बन जाए, यह कभी भी ‘कुमाता’ नहीं बनेगी ।’
यह लोक-कथा सुन, मेरी पत्नी की ओर लपक रहे मेरे मित्र ‘हें ! हें !’ करते मेरे पास बैठ कर दीपावली की मिठाई के साथ न्याय करने लगे ।
मेरा आहत अहम् तुष्‍ट हो चुका था ।

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अभिनन्‍दन

दीपावली

एवं

नव वर्ष

के

मंगल प्रसंग पर

हार्दिक अभिनन्दन

एवम्

आत्मीय शुभ-कामनाएँ ।


जातियों, धर्मों, वर्गों, वर्णों

से ऊपर उठकर

हम भारतीय

बन सकें ।

अर्श और फर्श की विसंगत दीपावली

व्‍यक्तित्‍व विकास और कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक दृष्टिकोण’ इन दिनों मुहावरे की तरह प्रचलन में है । लेकिन यह सब अब तक पूरी तरह व्यक्तिगत सन्दर्भों में ही प्रयुक्त किया जा रहा है । क्या इसे किसी ‘राष्‍ट्र’ के सन्दर्भ में प्रयक्त किया जा सकता है या किया जाना चाहिए ? मेरा उत्तर है - हाँ । यह जानते हुए भी कि इसे क्रियान्वित कर पाना अत्यधिक दुष्‍कर है, लगभग असाध्य की सीमा तक । लेकिन प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलने की इच्छा शक्ति वाला नेतृत्व मिल जाए तो कुछ भी सम्भव है ।
बाईस अक्टूबर से लेकर अब तक मैं ऐसी ही बातों में उलझा हुआ हूँ । उस दिन सवेरे जल्दी उठ गया था । चन्द्रयान-1 के प्रक्षेपण का जीवन्त प्रसारण देखने की उत्कण्ठा ने वैसे भी बराबर सोने नहीं दिया था । भारत का यह पहला उपग्रह है जो धरती की कक्षा से बाहर गया है । मैं इस क्षण का ‘चक्षुदर्शी साक्ष्य’ बनना चाहता था । सब कुछ समयानुसार ही हुआ । प्रक्षेपण के प्रारम्भिक क्षण तो देखे किन्तु आगे केवल ग्राफिक चार्ट देखकर ही सन्तोष करना पड़ा । बादल छाए हुए थे, सो चन्द्रयान-1 को आकाश में उड़ते हुए नहीं दिखया जा रहा था । इस ऐतिहासिक क्षण का साक्ष्यी बन कर अत्यधिक आत्मसन्तोष तो हुआ, प्रसन्नता उससे करोड़ों गुना अधिक हुई । हर्षजनित आवेग और रोमांच ने अनियन्त्रित कर दिया । कई मित्रों को नींद से उठा दिया, फोन पर बधाई दे-दे कर । दोपहर में कुछ जगह जाकर मिठाई खाई और खिलाई । पूरा दिन इस प्रसन्नता से सराबोर रहा । कोई काम नहीं कर पाया ।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि चैबीस अक्टूबर को इस मनोदशा पर लगाम लग गई और वे सारी बातें मन-मस्तिष्‍क में घुमड़ने लगीं जो मैं ने यहाँ शुरु में लिखी हैं । तेईस अक्टूबर का 'जनसत्ता' मुझे चैबीस को मिला । उसके सामवें पृष्‍ठ पर, प्रभाषजी जोशी का, लखनऊ में, ‘अखिलेश मिश्र स्मृति’ में, ‘सवालों के घेरे में भारत का संसदीय लोकतन्त्र’ विषय पर दिए गए व्याख्यान का विस्तृत समाचार छपा था । प्रभाषजी ने भारतीय अर्थ व्यवस्था का शवोच्छेदन करते हुए जो आँकड़े दिए वे किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति को यदि चिन्तित न भी करते हों तो असहज तो कर ही देते हैं । प्रभाषजी के अनुसार, वर्ष 2004 में जब ‘मनमोहन सरकार’ आई तक देश में कुल जमा नौ लोग खरबपति थे जो 2006 में बढ़कर 36 तथा 2008 के पूरा होने से पहले ही, अब तक 56 हो गए हैं । याने, चार साल में खरबपति 6 गुना हो गए । इसी प्रकार 1996 में जीडीपी में कारपोरेट जगत का हिस्सा मात्र दो प्रतिशत था जो 2008 में बढ़कर 22 प्रतिशत हो गया जबकि खेती में लगे 69 करोड़ लोगों का जीडीपी में हिस्सा 17.5 प्रतिशत ही रहा । किन्तु वास्तकिता और भी भयावह है । देश में 84 करोड़ लोग प्रतिदिन 20 रुपये से भी कम कमा पा रहे हैं, 24 करोड़ लोग नहीं जानते कि उन्हें दूसरी जून का भोजन मिल पाएगा भी या नहीं और 21 करोड़ लोग तो ऐसे हैं जो नहीं जानते कि उन्हें भोजन कब मिलेगा ।
प्रभाषजी के भाषण वाले इस समाचार ने मुझे अत्यधिक असहज कर दिया । कहाँ तो चन्द्रयान-1 की उपलब्धि और कहाँ हजारों लोगों की क्षुधापूर्ति की अनिश्‍चतता ? ‘अर्श और फर्श’ के बीच कितनी विसंगति ? कितना विरोधाभास ? उस पर तुर्रा यह कि दोनों ही बराबर के सच ! हम गर्व करें या शोकान्तिका पढें ? या, एक पर गर्व करते हुए दूसरे को ‘नियति की क्रूरता’ कह अपने आप को समझा लेने की शुतुरमुर्गी मुद्रा अपना लें ?
जिस प्रकार निषेध सदैव आकर्षित करते हैं उसी प्रकार विसंगतियाँ और विरोधाभास भी हमारे सामने दो स्थितियाँ प्रस्तुत करते हैं । पहली - निराश, हताश होकर, सब कुछ ‘ईश्‍वरेच्छा’ मान कर, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, यथास्थिति को जीते रहें । दूसरी - इन्हें चुनौती के रूप में लेकर इनसे दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में आएँ । व्यक्तिगत स्तर पर दूसरी बात पर अमल कर पाना सम्भवतः अधिक सरल और सम्भव है । किन्तु बात यदि समूचे राष्‍ट्र की हो तो यह ‘सरल और सम्भव’ स्वतः ही ‘दुरुह और असम्भव’ में बदलता अनुभव होता है । तब बात, अन्ततः राष्‍ट्रीय नेतृत्व पर ही थमती है ।
हमारे पास नेता तो ढेर सारे हैं लेकिन ‘जन-नेता’ कोई नहीं । एक भी ऐसा व्यक्तित्व नहीं है जिसके एक आह्वान पर सारा देश उसके पीछे चल पड़े । लेकिन यह दशा अचानक ही तो नहीं बनी । राजा-रजवाड़ों, सामन्तों-जमींदारों का जमाना होता तो ‘यथा राजा, तथा प्रजा’ कह कर काम चला लेते । लेकिन आज तो हम (जैसा भी है, लेकिन है तो) संसदीय लोकतन्त्र में जी रहे हैं जहाँ ‘राजा’ का स्थान ‘निर्वाचित जनप्रतिनिधि’ ने ले लिया है । याने, आज स्थिति ‘यथा प्रजा, तथा राजा’ वाली हो गई है । जैसे हम, वैसे हमारे नेता । हम ही ने ‘उन्हें’ चुनकर भेजा है ।
ऐसे में ‘सकारात्मक मानसिकता’ वाला ‘फण्डा’ मुझे ‘अपील’ करता लग रहा है । श्रीमद्भगवद् गीता के अनुसार हमारा नियन्त्रण केवल स्वयम् पर, वह भी प्रयत्न तक ही है, किसी अन्य पर और परिणाम पर नहीं
कल हम सब दीपावली मनाएँगे, लक्ष्मी-पूजन करेंगे, लक्ष्मी हमारे आवास में प्रवेश करे इस हेतु अपना समूचा आवास जगमगाता हुआ बनाए रख कर, सारे दरवाजे खुले रखेंगे । गोया, हम भी, अपनी-अपनी क्षमतानुसार, खरबपति बनने का प्रयास कर रहे होंगे ।
क्या ऐसा सम्भव है कि उस समय हम उन लोगों को याद रख सकें और उनके लिए कुछ करने के बारे में निर्णय ले सकें जो नहीं जानते कि उन्हें भोजन कब मिलेगा ?
हम दीपावली कैसे मनाएँगे - विसंगतियों, विराधाभासों के सामने नतमस्तक होकर या उन्हें चुनौती के रूप में स्वीकार कर ?

अनूठा देनदार


कल की मेरी पोस्ट पर श्रीयुत अज्ञात (एनोनीमस) ने अपनी टिप्पणी के चैथे बिन्दु में वह बात कह दी है जिसे विषय बना कर मैं कल की पोस्ट लिखना चाहता था । मेरी तकदीर अच्छी है कि वे केवल सूत्र प्रस्तुत कर रह गए । अज्ञातजी को धन्यवाद कि उन्होंने न केवल मेरे लिए ठोस भूमिका बना दी बल्कि मेरी कल की पोस्ट की कुछ तथ्यात्मक भूलों की मरम्मत भी कर दी ।


अपनी रकम वसूली के लिए लोगों को लेनदार के दरवाजे पर जाकर तकादे करने पडते हैं । वित्तीय संस्थाएं अपनी बकाया वसूली के लिए ‘रिकवरी एजेण्ट‘ नियुक्त करती हैं जो ‘रिकवरी‘ के नाम पर डकैती या फिरौती वसूली करते नजर आते हैं । लेकिन भाजीबीनि इस मामले में ‘अनूठा देनदार’ है । अपने ग्राहकों को भुगतान करने के लिए यह दर-दर भटकता है और अखबारों में विज्ञापन देता है - आईए ! अपनी रकम ले जाइए और हमें कृतार्थ कीजिए ।

भाजीबीनि की योजनाओं में ‘मनी बेक पालिसी‘ सम्‍भवत: सर्वाधिक लोकप्रिय योजना है । इसके अन्तर्गत ग्राहक को प्रति पांच वर्ष बाद एक सुनिश्चित रकम मिलने का प्रावधान है । कुछ मनी बेक योजनाओं में यह अवधि चार वर्ष भी होती है । यह रकम प्राप्त करने के लिए ग्राहक को न तो कोई पत्र लिखना होता है और न ही भाजीबीनि कार्यालय के चक्कर काटने पडते हैं । भाजीबीनि पर्याप्त समय पूर्व (इन दिनों, लगभग एक माह पूर्व) ही अपने ग्राहकों को इस रकम का चेक भेज देता है । यह चेक पंजीकृत डाक से या स्पीड पोस्ट से भेजा जाता है । भाजीबीनि के रेकार्ड में ग्राहक का जो पता होता है, उसी पते पर चेक भेजा जाता है । ऐसा प्रायः ही होता है कि बीमा लेते समय ग्राहक का जो पता होता है वह चार-पांच वर्ष बीतते-बीतते बदल जाता है । ऐसे में, कई बार चेक, अवितरित होकर, भेजने वाले कार्यालय के पास लौट आता है । ऐसी दशा में कार्यालय, सम्बन्धित एजेण्ट को, अवितरित चेक पहुंचाने की जिम्मेदारी देता है । एजेण्ट को अपने ग्राहक का अता-पता मालूम होता है । सो, अवितरित होकर लौटने के बाद भी अधिकांश चेक सम्बन्धित ग्राहक तक, ठीक समय पर पहुंच ही जाता है ।


इतना सब होने के बाद भी कई लोग चेक को भूल जाते हैं । कई बार ऐसा होता है कि पंजीकृत डाक, परिवार के किसी सदस्य ने प्राप्त कर ली और वह लिफाफा रख कर भूल गया । ऐसे तमाम मामलों वाले चेक, बासी (स्टेल) होकर अपनी वैधता खो देते हैं । उधर, बैंक से मिलने वाले स्टेटमेण्ट के कारण भाजीबीनि कार्यालय को जल्दी ही मालूम हो जाता है कि ग्राहक के पास चेक पहुंचने के बाद भी वह बैंक में जमा नहीं हुआ है और ग्राहक की रकम, कार्यालय में जमा पडी रह गई है । ऐसे चेकों की संख्या हजारों तक और रकम का आंकड़ा (कम से कम) लाखों तक तो पहुंच ही जाता है ।


भाजीबीनि की जिस शाखा से मैं सम्बध्द हूं वहां ऐसे बासी चेकों की रकम 20 लाख रुपयों से अधिक हो गई है । मेरे कस्बे में भाजीबीनि की तीन शाखाएं हैं । उनमें से एक शाखा में यह रकम 25 लाख रुपये हो गई है । तीसरी शाखा की रकम का आंकडा न तो मुझे मालूम है और न ही मैं ने जानने की कोशिश की है ।

जैसा कि मैं ने अपनी पोस्ट में कल बताया था, देश भर में भाजीबीनि की 2048 शाखाएं हैं । मेरे कस्बे की दो शाखाओं के, बासी चेकों की रकम के आंकड़े के आधार पर यदि प्रति शाखा 15 लाख रुपयों का औसत मान लें तो 2048 शाखाओं का आंकड़ा 30,720 लाख रुपये बैठता है । इसे और अधिक आसान शब्दावली में कहा जाए तो यह रकम 30 अरब 72 लाख रुपये होती है । कृपया इसे ‘निगम’ का अधिकृत आंकड़ा बिलकुल न मानें, मेरे कस्बे की दो शाखाओं के आंकड़ों के आधार पर यह मेरा अनुमान है ।

कानून का तकाजा तो केवल इतना ही है कि बीमा कम्पनी, सम्बन्धित ग्राहक को, कम्पनी के पास उपलब्ध (ग्राहक के) पते पर चेक भेज दे । यदि चेक अवितरित होकर लौट आता है तो बीमा कम्पनी की जिम्मेदारी यहीं समाप्त हो जाती है । समझदार और चतुर व्यापारी ऐसी रकम को अपने व्यापार में प्रयुक्त करता रहेगा और ग्राहक को दूसरी बार याद दिलाने के बारे में सोचेगा भी नहीं ।


लेकिन भाजीबीनि ऐसे मामलों में यहीं पल्ला झाड कर नहीं रह जाता । चेक के बासी हो जाते ही वह अतिरिक्त रुप से सक्रिय हो जाता है । प्रत्येक शाखा का दावा विभाग ऐसे बासी चेकों की सूची लेकर ताक में बैठा रहता है कि कोई एजेण्ट आए और उसके सामने सूची रख कर अधिकाधिक ग्राहकों का भुगतान उसके जिम्मे किया जाए । जरूरी नहीं कि जिन ग्राहकों की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है वे उस एजेण्ट के ग्राहक हों या वह बीमा उसी एजेण्ट ने बेचा हो । ‘निगम’ की प्रत्येक शाखा का प्रयास होता है कि ऐसे अवितरित चेकों की रकम का भुगतान जल्दी से जल्दी कर दिया जाए । इसके पीछे कोई कानूनी आग्रह या बाध्यता बिलकुल ही नहीं है । इसके पीछे है ‘निगम‘ की मानसिकता - ‘ग्राहक का पैसा ग्राहक को मिलना ही चाहिए और जल्दी से जल्दी मिलना चाहिए ।’ इस मानसिकता के चलते ही ‘निगम’ का दावा भुगतान प्रतिशत 98 तक पहुंच पाया है, जैसा कि अज्ञातजी ने अपनी टिप्पणी में बताया है । प्रत्येक शाखा के दावा विभाग का प्रयास होता है कि उसकी सूची जल्दी से जल्दी ‘निरंक‘ की स्थिति में आ जाए ।


ऐसा भुगतान कराने में हम एजेण्टों को बडा आनन्द आता है । कोई सात-आठ वर्ष पूर्व मैं लगभग पौने चार लाख रुपयों का ऐसा ही भुगतान एक सज्जन को कराने का निमित्त बना था । वे सज्जन रतलाम के ‘श्री सज्जन मिल्स लि.’ के कर्मचारी थे और सेवा निवृत्त होकर, उत्तराखण्ड स्थित अपने पैतृक गांव चले गए थे । उन्हें तो पता भी नहीं था कि उनकी पालिसी परिपक्व हो चुकी है । उनका सरनेम तनिक असामान्य था और मैं अपने स्वभावानुसार, उनके अटपटे सरनेम का अर्थ जानने के लिए उनसे एक बार मिला था । दावा विभाग ने जब उनका नाम मेरे सामने रखा तो मुझे यह तो याद आ गया कि मैं उनसे मिला था, लेकिन यह याद नहीं कर पाया कि कहां मिला था । अपनी लिखा पढ़ी का काम करते हुए एक रात लगभग तीन बजे अकस्मात ही सज्जन मिल में हुई उनसे मुलाकात याद हो आई । मारे प्रसन्नता के मैं सवेरे तक सो नहीं पाया । साढ़े दस बजे तक का समय मैं ने बहुत ही बेचैनी में गुजारा । कार्यालय खुलने पर मालूम हुआ कि वे तो सेवा निवृत्त होकर अपने गांव चले गए । किसी को भी उनके गांव का नाम और उनका पता नहीं मालूम । एक सज्जन ने उनके एक भानजे का फोन नम्बर दिया । वह चण्डीगढ़ में था । उसने अपने मामा का फोन नम्बर दिया । मैं ने उन सज्जन से बात की तो वे फोन पर ही रोने लगे । उन्होंने कहा - ‘उत्तराखण्ड के दूर-दराज के गांव में बैठे एक रिटायर्ड आदमी के लिए पौने चार लाख रुपयों का महत्व आप तभी अनुभव कर सकेंगे जब आप मेरे गांव आएं ।‘ उन्होंने अपने गांव के निकटतम भाजीबीनि कार्यालय से विमुक्ति पत्र (डिस्चार्ज वाउचर) प्राप्त किया और पालिसी सहित भिजवाया । उस पालिसी से मेरा कोई लेना-देना नहीं था । उन्होंने जब वह पालिसी ली थी तब तो मैं भाजीबीनि का एजेण्ट भी नहीं था । जब उन्हें उनका भुगतान मिला तो उन्होंने मुझे फोन पर प्राप्ति सूचना दी । उनसे बोला नहीं जा रहा था । आंसुओं में भीगे और हिचकियों में सने उनके आशीष आज भी मुझे मेरे माथे पर सुरक्षा-छत्र की तरह अनुभव होते हैं । स्थानीय स्तर पर ऐसे पचासों किस्से प्रत्येक एजेण्ट के पास सुनने को मिल जाएंगे ।


लेने के लिए कोई पचास चक्कर लगाए यह नई और बड़ी बात नहीं । लेकिन देने के लिए कोई इतनी चिन्ता करे, इतनी सक्रियता बरते - यह असमान्य और अनूठी बात है ।

मुझे लगता है, दुनिया की बड़ी से बड़ी बीमा कम्पनियों से टक्कर लेने वाला ‘भारतीय जीवन बीमा निगम’ अपने नाम के ‘भारतीय‘ शब्द की व्‍यंजना को पूरी तरह सार्थक करता है । हम भारतीय आज भी अपना कर्ज चुकाने को सर्वोच्च वरीयता देते हैं । हममें से प्रत्येक, जल्दी से जल्दी कर्ज मुक्त हो जाना चाहता है । एक मालवी कहावत के अनुसार जिन नौ तरह के लोगों को रात में नींद नहीं आती उनमें वह व्यक्ति भी शरीक होता है जिसके माथे पर कर्ज होता है । ‘कर्ज युक्त‘ बने रहना पाश्‍चात्य अवधारणा है (जहां दिवालिया होना भी एक कानूनी-तकनीकी खानापूर्ति होती है) जबकि ‘कर्ज मुक्त‘ रहना, भारतीय अवधारणा है । इस लिहाज से भारतीय जीवन बीमा निगम न केवल एक जिम्मेदार वित्तीय उपक्रम बनकर सामने आता है अपितु वह ‘भारतीयता‘ को साकार और सार्थक भी करता है । जरा कल्पना कीजिए - कोई निजी बीमा कम्पनी ऐसा भुगतान करने के बारे में कभी सोचेगी भी ?


कहिए ! है न यह अनूठा देनदार ?

मैं इस अनूठे देनदार का एक छोटा सा, बहुत ही छोटा सा मुनीम हूं ।

मुझे अपने सेठ पर गर्व है ।

भारत सरकार का कुबेर : भाजीबीनि

भारतीय जीवन बीमा निगम देश के सबसे बड़े वित्तीय उपक्रमों में अग्रणी है । इसे लेकर आए दिनों अखबारों में ‘कुछ न कुछ’ छपता ही रहता है । इस ‘कुछ न कुछ’ में आलोचना और उपहास अधिक होता है । लेकिन जिस संस्था के ग्राहकों की संख्या 23 करोड़ से भी अधिक हो, उसे लेकर ऐसा छपना न तो अनूठी बात है और न ही अनपेक्षित । लेकिन यह देखकर दुख अवश्‍य होता है कि इसकी विशेषताओं, उपलब्धियों और अनोखेपन को लेकर कभी कुछ नहीं छपा । यह शायद इसलिए कि हर कोई यह मानकर चलता है कि चूँकि इस संस्था को इतना अच्छा, इतना अनूठा, इतनी उपलब्धियों वाली तो होना ही चाहिए और यदि यह ऐसी ही है तो इसमें कहने की क्या बात है ? इस मायने में यह घर का जोगी जोगडा, आन गांव का पीर' वाली कहावत का शिकार हो रहा है । लेकिन ‘बाजारवाद और मार्केटिंग’ के इस समय में यदि अच्छी बातें सामने नहीं लाई जाएँ तो नकारात्मक छवि के प्रगाढ़ होने का खतरा बढ़ता ही जाता है । चूँकि मैं इसी संस्थान से सम्बध्द हूँ और इसीने मुझे यह स्थिति दी है कि मैं ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ की चिन्ताओं से मुक्त होकर अपने शौक पूरे कर सकूँ इसलिए मुझे लगता है कि इसकी अच्छाइयाँ, अनूठापन, उपलब्धियाँ मैं ने उजागर करनी ही चाहिए ।


अनेक सन्दर्भों में अनूठा यह उपक्रम देश का एकमात्र ऐसा वित्तीय संस्थान है जिसके निवेश पर भारत सरकार ने शत प्रतिशत ग्यारण्टी दे रखी है । इसीलिए यह संस्थान अपनी विशाल धनराशि को भारत सरकार के निर्देशों के अनुरूप ही निवेश करने को बाध्य है । सराकर के इस कड़े नियन्त्रण के कारण, बीमाधारकों की रकम के दुरुपयोग की आशंका शून्यवत हो जाती है । इसे अपनी धनराशि अनिवार्यतः केन्‍द्रीय और राज्‍यों की शासकीय परियोजनाओं, योजनाओं, उपक्रमों में ही निवेश करनी पड़ती है । स्टाक मार्केट में भारतीय जीवन बीमा निगम, बहुत बड़ा निवेशक है जबकि इसके द्वारा निवेश की जाने वाली रकम इसके सकल फण्ड का बहुत ही छोटा हिस्सा होती है । लेकिन यह छोटा सा हिस्सा भी इतना बड़ा और इतना भारी होता है कि स्टाक मार्केट जब भी स्थानीय कारणों से संकट में आता है तो सरकार भारतीय जीवन बीमा निगम को मैदान में उतार कर बाजार के मिजाज को बनाए रखती है ।

1956 में भारत सरकार द्वारा 50 करोड रुपयों की पूँजी से यह शासकीय उपक्रम शुरु हुआ था । प्रतिवर्ष, अपनी अतिशेष (सरप्लस) रकम का 95 प्रतिशत भाग ग्राहकों के बोनस के लिए रखकर शेष 5 प्रगतिशत रकम इसे अनिवार्यतः भारत सरकार को देनी ही होती है । अपनी स्थापना से लेकर अब तक यह उपक्रम इस 5 प्रतिशत रकम के रूप में एक पंचवर्षीय योजना की रकम के बराबर का योगदान भारत सरकार को कर चुका है । भाजीबीनि के बीमाधारक ग्राहकों को यह जानकर अतिरिक्त आत्म सन्तोष और गर्व होगा कि प्रीमीयम के रूप में चुकाई गई उनकी रकम सीधे-सीधे राष्‍ट्र निर्माण में प्रयुक्त होती है ।

देश भर में इसकी 2048 शाखाएँ काम कर रही हैं । देश का यह ऐसा एकमात्र वित्तीय संस्थान है जिसके धन संग्रहण के आँकड़े प्रतिदिन भारतीय संसद को नियमित रूप से अनिवार्यतः सूचित किए जाते हैं । इसके दैनिक संग्रहण आँकड़े के बारे में जनसामान्य को कोई जानकारी नहीं है । यह जानकर लोगों को अविश्‍वसनीय आश्‍चर्य होता है कि यह उपक्रम लगभग डेड़ सौ करोड़ रुपये प्रतिदिन संग्रहण करता है । इस आँकड़े को एक विशेष सन्दर्भ में देखने पर इसका महत्व अनुभव हो सकेगा । देश में कोई भी बीमा कम्पनी प्रारम्भ करने के लिए एक सौ रुपयों की ग्यारण्टी मनी जमा करानी पड़ती है । अर्थात्, भाजीबीनि प्रतिदिन डेड़ बीमा कम्पनी की ग्यारण्टी मनी संग्रहण करता है ।
किसी भी वित्तीय संस्थान की साख उसकी भुगतान स्थिति से ही बनती-बिगड़ती है । यह जानकर हर

कोई अविश्‍वास ही करेगा कि दावों के भुगतान के मामले में यह उपक्रम बरसों से अन्तरराष्‍ट्रीय स्तर पर प्रथम बना हुआ है । दुनिया की कोई भी बीमा कम्पनी अब तक इसके रेकार्ड को छू नहीं पाई है । यह उपक्रम प्रतिवर्ष, इसे मिलने वाले दावों में से 95 से 97 प्रतिशत दावों का भुगतान करता है । लम्बित दावों का प्रतिशत सामान्यतः केवल 3 से 5 तक रहता है । यहाँ यह तथ्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कई दावे इसे मार्च महीने में (अर्थात् वित्तीय वर्ष के अन्त में) प्राप्त होते हैं जो सामान्यतः लम्बित ही रहते हैं । हम भारतीय जब एक बार पलक झपक रहे होते हैं तब यह ‘निगम‘ एक दावे का भुगतान कर रहा होता है ।
इसकी टोपी का एक पंख सबसे शोख, चटकीले और गहरे रंग का ऐसा है जो इसे एक बार फिर सबसे अलग और सबसे ऊपर स्थापित करता है । निगमित क्षेत्र में यह सर्वाधिक आय कर चुकाने वाला संस्थान् है ।
ऐसी और कई विशेषताओं और अनूठेपन के कारण इस संस्थान् को ‘भारत सरकार का कुबेर‘ कहने में मुझे कोई संकोच नहीं होता ।
लेकिन अपने ग्राहकों की देनदारियाँ चुकाने के मामले में जो अनूठापन इसे दुनिया भर की समस्त वित्तीय संस्थाओं में सिरमौर बनाता है और जिसे प्रस्तुत करने के लिए ही मैं ने यह पोस्ट लिखनी शुरु की थी, वह अब आज नहीं, कल ।
तब तक, यदि आपने अब भारतीय जीवन बीमा निगम की इन विशेषताओं पर गौर नहीं किया हो तो अब गौर कर इस पर गर्व कीजिए और यदि आपने इसकी कोई बीमा पालिसी ले रखी है तो अतिरिक्‍त गर्व कीजिए कि देश की विभिन्‍न योजनओं को पूरा करने में आप भी परोक्षत: भागीदार हैं

नरेश गोयल की जमीन

कल रात मैं ने, जेट एयरवेज के चेयरमेन नरेश गोयल को, पत्रकारों से बात करते देखा । जो कुछ वे कह रहे थे वह सुन-सुन कर मुझे अपने देहातीपन पर गर्व होने लगा जो अब तक हो रहा है । नरेश गोयल ने जो भी किया और जो भी कहा, वह उनकी शालीनता और बड़प्पन वास्तव में था या नहीं लेकिन वह सब कुछ ‘भारतीयता’ था और इसके सिवाय कुछ भी नहीं था ।
लोगों को नौकरी पर रखना और निकाल देना, पश्चिम के लिए एक तकनीकी औपरचारिकता की प्रक्रिया मात्र होती है । लेकिन यह ‘पूर्व’ ही है जहाँ किसी को नौकरी पर रखा जाता है तो तत्काल ही वह नियोक्ता के परिवार में शामिल हो जाता है । नरेश गोयल जाने-अनजाने, चाहे-अचाहे यही साबित कर रहे थे । सम्भव है, वह सब कहना, वह सब करना उनकी व्यावसायिक-व्यापारिक विवशता रही हो या सरकारों का दबाव या हवाई सेना की (न की गई) कार्रवाई का आतंक । लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि अन्ततः भारतीय संस्कार और भारतीय मानसिकता ही उनकी कदम वापसी की प्रशंसनीय कार्रवाई का माध्यम बनी ।
पत्रकारों से बात करने हुए यह ‘बिजनेस टायकून‘ हताश लस्त-पस्त और अत्यधिक दयनीय दखाई पड़ रहा था । हवा में उड़ने वाले इस ‘सुपरमेन’ को खड़े रहने के लिए जमीन नहीं मिल रही थी । अपनी कदम वापसी के लिए उनके तर्क वही थे जो एक औसत मध्यवर्गीय, ईश्‍वरभीरू भारतीय के होते हैं । नरेश गोयल अपनी दिवंगत माँ की कसम खा रहे थे, कर्मचारियों को अपने बच्चे घोषित कर रहे थे और कर्मचारियों की बर्खास्तगी के समाचार अखबारों में पढ़ने के बाद न सो पाने का हवाला दे रहे थे । लेकिन सबसे बढ़कर और सबसे पहले जो उल्लेखनीय बात थी वह नरेश गोयल का, कर्मचारियों से माफी माँगना । इसके लिए सचमुच में अत्यधिक साहस चाहिए और नरेश गोयल ने यह साहस दिखाया ।निस्सन्देह नरेश गोयल का यह निर्णय मानवीय और अत्यन्त प्रशंसनीय है । लेकिन पश्‍िचमी पगडण्डियों पर छलांगे मार रही भारतीय कुबेर-सन्तानों को संकट की इस घड़ी में भारतीयता की जड़ों ने ही थामे रखा और बाजार में खड़े रह पाने की जमीन तथा ताकत दी ।
कोई ताज्जुब नहीं कि भारतीय अर्थ व्यवस्था के अमरीकी पैरोकारों ने नरेश गोयल को इस दशा में फटी आँखों देखा हो ।


कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्‍मन, दौर-ए-जहाँ हमारा


आइए ! गर्व से कहें - हम भारतीय हैं ।

एक अपराध-बोध से मुक्ति

गए दो दिनों से मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा हूँ । एक अपराध-बोध से मुक्ति मिल गई है मुझे । तनिक अलंकारिक भाषा का उपयोग करुँ और शब्दाडम्बर रचूँ तो कह सकता हूँ-दशहरे से एक दिन पहले, नवमी की दोपहर ही मैंने रावण मार दिया ।

वस्तुतः परसों दोपहर मैं ने केबल कनेक्शन से मुक्ति पा ली । पहले डेड़ सौ और गए कोई एक साल भर से एक सौ अस्सी रुपये प्रति माह मुझे केबल कनेक्शन के लिए भुगतान करना पड़ता था । यह भुगतान करते हुए, केबल संचालक के कारिन्दे से हर बार मेरा झगड़ा होता था । मुझे इस भगुतान की रसीद आज तक नहीं मिली । मुझे क्या, मेरे मोहल्ले में किसी को नहीं मिली । यही स्थिति कस्बे के तमाम केबल कनेक्शनधारियों की होगी क्यों कि बीमे के कारण मेरा उठना-बैठना लगभग पूरे कस्बे में होता है और मैं ने पाया है कि भुगतान तो प्रत्येक कनेक्शनधारी करता है लेकिन पावती एक को भी नहीं मिलती ।

कनेक्शन के किराए की रकम पर मेरा कोई विवाद कभी नहीं रहा । रसीद न मिलना ही विवाद का एकमात्र कारण रहा । मुझे अच्छी तरह पता है कि प्रत्येक कनेक्शन के किराए की रकम पर राज्य सरकार को टैक्स मिलता है । मेरे कस्बे की आबादी कोई तीन-सवा तीन लाख है और कनेक्शनधारियों की संख्या किसी भी हालत में 25 हजार से कम नहीं होगी । लेकिन सरकारी रेकार्ड में मुश्‍िकल से दो-ढाई हजार कनेक्शन चल रहे हैं । इन दो-ढाई हजार को भी रसीद नहीं मिलती है । केबल संचालक, सरकार को जो आँकड़ा दे देता है (या उसका दिया गया जो आँकड़ा सरकारी अमला स्वीकार कर लेता है) उसकी रसीदों का सत्यापन कोई नहीं करता । ऐसे में इस निष्‍कर्ष पर पहुँचने के लिए कि मामला बड़े आर्थिक घपले का है, किसी अतिरिक्त अकल या समझ की जरूरत नहीं होती । यह घपला कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता । जिला आबकारी अधिकारी से लेकर केबल संचालक के कारिन्दे तक की पूरी श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी इसमें बराबर की भागीदार है । मुझे वेदना इसी बात की होती थी कि मैं भी ऐसी ही एक कड़ी हूँ ।

इस वेदना से मुक्ति पाने के लिए मैं ने केबल संचालक, स्थानीय चैनल संचालकों, आबकारी निरीक्षक, आबकारी अधिकारी, जिला कलेक्टर-याने, यथासम्भव प्रत्येक पायदान पर गुहार लगाई लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई । मुझ जैसे ही कुछ मित्रों से कहा तो उन्होंने मुझसे सहमति तो जमाई लेकिन साथ चलने कोई नहीं आया । प्रत्येक ने कहा - ‘मुद्दा वाजिब है, आप लगे रहो ।’ मैं अपने आप को बड़ा ‘तीस मार खाँ’ मानता हूँ लेकिन स्वीकार करता हूँ कि इस मामले मैं ने घुटने टेक दिए । एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह से लड़ा जा सकता है लेकिन व्यवस्था से लड़ पाना अत्यधिक दुसाध्य, लगभग प्राणलेवा है ।

मुझे यही त्रास और अपराध-बोध था कि मैं अकारण की ‘कर चोरी’ में भागीदार हूँ । लेकिन इससे भी बड़ा त्रास यह तथ्य था कि मेरी यह भागीदारी एक ऐसे उपक्रम (केबल कनेक्शन) के लिए है जिसके बिना भी जीवन आसानी से जीया जा सकता है । एक सर्वथा अनावश्‍यक सुविधा के लिए मैं इस ‘चोट्टेपने’ में भागीदारी करता रहा । ‘इंसानी फितरत‘ के तहत मैं अपने आप से यही कह कर तसल्ली कर लेता हूँ कि इस ‘चोट्टेपने’ में पूरा देश भागीदार है ।

तीन दिन पहले, वासु भाई गुरबानी ने जब मेरी मनोदशा जानी तो उन्होंने कहा - ‘दादा ! आप डीटीएच क्यों नहीं ले लेते ?’ इसके बारे में मैंने सुना और पढ़ा था लेकिन मैं कबूल करता हूँ कि इसकी ठीक-ठीक जानकारी मुझे नहीं थी । जब उन्होंने इसके बारे में विस्तार से बताया तो मेरा अपराध-बोध और गहरा गया - यह सब मैं ने अब तक क्यों नहीं जाना ? वासु भाई खुद डीटीएच उपकरणों का व्यापार करते हैं । तीन दिन पहले, शारदीय महाष्‍ठमी की शाम उनसे बात हुई और अगले ही दिन, नवमी की दोपहर उन्होंने मेरे निवास की छत पर अपनी छतरी तान दी ।

अब मैं केबल कनेक्शनधारी नहीं हूँ । अकारण ही ‘कर चोरी’ का हिस्सा नहीं हूँ । हालाँकि इसके लिए मुझे एक मुश्‍त सवा चार हजार रूपये चुकाने पड़े हैं जिसका असर मेरे अगले तीन माह के बजट पर पड़ेगा लेकिन अपराध-बोध की मानसिक यन्त्रणा से मुक्त होने के सुख के मुकाबले वह काफी कम ही होगा ।

हाँ, इससे मुझे एक अतिरिक्त लाभ भी होगा । यूनुस भाई (अरे वही अपने ‘रेडियोवाणी’ वाले) की आवाज भी शायद इस डीटीएच की वजह से सुन सकूँगा । कोई सवा महीने पहले रविजी ने बताया था कि इस सुविधा के कारण वे यूनुस भाई के कार्यक्रम सुनते रहते हैं

सो, मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा हूँ - ‘आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है तुमने मुझे उड़ते हुए’ की तर्ज पर ।

जैसी राहत मुझे मिली है, भगवान करे, सबको मिले ।

मालवा में ‘बासी दशहरा’ मनाने की परम्परा है । सो, मेरी इस ‘मुक्त मनःस्थिति’ और अन्तर्मन से आप सबको विजय पर्व के हार्दिक अभिनन्दन ।

हाँ, यह मैं ही हूं

मै हर्षातिरेक में गोते लगा रहा हूँ ।

दिल्ली और मुम्बई के अखबार, रतलाम में चैबीस घण्टे बाद मिलते हैं । 3 अक्टूबर का ‘जनसत्ता’ (दिल्ली) मुझे अभी-अभी मिला है । सम्पादकीय पृष्‍ठ सबसे पहले देखता हूँ । वही खोलने के लिए अखबार फैलाया तो सातवें पृष्‍ठ पर, तीन कालम में फैले समाचार-शीर्षक ‘ब्लाग के जरिए बढ़ रहा है संगीत का जुनून’ ने नजर पकड़ ली । ‘जनसत्ता‘ का पन्ना आठ कालम वाला नहीं, 6 कालम वाला होता है । याने, आधे पृष्‍ठ की चैड़ाई में है यह शीर्षक । समाचार भी अच्छे-खासे आकार का है - कोई एक चैथाई पन्ने की स्पेस वाला । संगीत जगत से जुड़े चार ब्लागर इसमें मुखर हैं - सर्वश्री यूनुस खान (रेडियोनामा), संजय पटेल (श्रोता बिरादरी, सुरपेटी), सागर नाहर और अशोक पाण्डे (कबाड़खाना) । ब्लाग के जरिए संगीत (और खास कर पुराने फिल्मी गीतों, गायकों, संगीतकारों, गीतकारों) को लगातार लोक जीवन में बनाए रखने के इन चारों के जुनून का विस्तृत ब्यौरा इस समाचार में दिया गया है । समाचार की उल्लेखनीय बात यह है कि इसे समाचार एजेन्सी ‘भाषा’ ने प्रसारित किया है । याने, यह समाचार किसी एक अखबार तक सिमट कर नहीं रह गया है, देश के अनेक अखबारों में छपा होगा ।

यह सब देख कर ही मैं मुदित और मगन हूँ ।

मेरा ब्लाग जीवन अभी अठारह माह का भी नहीं है लेकिन इसने मुझे थकने से बचने का रास्ता दिया है । जब भी कहीं, जहाँ भी कहीं, ब्लाग की चर्चा होती है, मुझे लगता है, न केवल मेरे परिवार की चर्चा हो रही है बल्कि मेरी ही चर्चा हो रही है ।

ब्लाग हमारे वर्तमान का उजला और अपरिहार्य भविष्‍य है । आने वाले दिनों में इसके बिना जी पाना असम्भव नहीं तो तनिक कठिन जरूर होगा । अच्छी बात यह है कि यह जीवन के प्रत्येक पहलू को छू रहा है - किसी एक विषय या विधा में कैद नहीं है । यह अपने आप में ऐसी विधा बन कर सामने आ रहा है जहाँ जिन्दगी अपनी सम्पूर्णता में धड़क रही है ।

सो, इन चारों ब्लाग-सपूतों ने आज मुझे हर्षातिरेक से ओतप्रोत कर दिया है । इनके इस पूरे समाचार में मैं कहीं नहीं हूँ ।

लेकिन यदि मैं नहीं हूं तो फिर कौन है ?