पार्टी हाईकमान याने.....


मौसम चुनाव का। एक पद पर अनेक दावेदार। प्रत्येक दावेदार खुद को पार्टी हाईकमान का अधिकृत उम्मीदवार बताए। ऐसे में लोगों को लगने लगता है कि पार्टी हाईकमान की नींद हराम हो जाती होगी।

नादान, नासमझ लोग! भावुक हो कर परेशान हो जाते हैं। टसुए बहाने लगते हैं। उधर पार्टी हाईकमान है कि इन सारी बातों से बेखबर, बेफिकर।

प्रत्येक पार्टी का अपना हाईकमान होता है। अलग-अलग। लेकिन चाल, चलन, चेहरा, चरित्र, व्यवहार, भाषा सबकी एक जैसी। सबके सब एक जैसे। बिलकुल हमाम के नंगों की तरह।पार्टी का एक भी आदमी ऐसा नहीं जो पार्टी हाईकमान के बारे में कुछ जानने का दम भर सके। जानता तो पार्टी हाईकमान भी किसी को नहीं किन्तु पार्टी के लोग एक दूसरे की फिकर करते हुए, सबकी विस्तृत कुण्डलियाँ पार्टी हाईकमान को पहुँचा चुके होते हैं। सो, पार्टी हाईकमान को जिसके भी बारे में जानना होता है, जान लेता है। सो, कहा जा सकता है कि पार्टी हाईकमान किसी को भी नहीं जानते हुए सबको जानता है।

पार्टी हाईकमान का अपना कोई रूप-रंग, स्वरूप, आकार नहीं होता। वह एकाकार भी हो सकता है और अनेकाकार भी। वह सबके लिए समान रूप से उपलब्ध है। साकार भी और निर्गुण-निराकार भी। जिसे जिस नजर से देखना हो, देख ले। कोई भी पार्टी हाईकमान कभी गलती नहीं करता। इसीलिए सफलता के साफे सदैव हाईकमान को बँधते हैं और असफलता के ठीकरे स्थानीय नेतृत्व के माथे फूटते हैं।

पार्टी हाईकमान को अपने समर्पित, ईमानदार, चरित्रवान, निष्ठावान कार्यकर्ता की बहुत चिन्ता होती है। बिलकुल वैसी ही जैसी कि किसी सुहागन को अपने माथे की बिन्दिया की। अपने ऐसे कार्यकर्ताओं का मान-सम्मान, सार्वजनिक छवि और प्रतिष्ठा को बनाए और बचाए रखने के लिए वह ऐसे कार्यकर्ता को कभी भी, किसी भी पद पर नहीं बैठाता। आज पद पर बैठाया और कल वह भ्रष्ट, बेईमान, घपलेबाज हो जाए तो? इसलिए जब भी ऐसा कोई मौका आता है तब किसी बेईमान, भ्रष्ट, घपलेबाज, गबन करने में माहिर आदमी को पद परोसता है। इस तरह वह बेईमानों और भ्रष्टों की संख्या में इजाफा नहीं होने देता और ईमानदारों की संख्‍या में कमी नहीं होने देता।

इस नेक काम के लिए वह ऐसे कार्यकर्ता की भी उपेक्षा, अनदेखी कर देता है जो दस-दस बरसों से पार्टी के लिए सदन में और मैदान में जूझता रहता है, पार्टी को जिन्दा बनाए रखता है, गाँठ का पैसा खर्च कर पार्टी का झण्डा ऊँचा फहराए रखता है। पार्टी हाईकमान अच्छी तरह जानता है कि ऐसे कार्यकर्ता पार्टी की धरोहर, पार्टी की इज्जत बढ़ानेवाले होते हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं के कुर्तों पर एक भी दाग न लगे इसलिए, ‘काजल की कोठरी’ में किसी को भेजने का मौका आने पर पार्टी हाईकमान, आठ-दस साल पहले दफन हो चुके आदमी को, कब्र खोदकर ला खड़ा कर देता है या फिर कोयले की दलाली में काले किए हाथ, दिल, दिमागवाले आदमी को।


पार्टी हाईकमान खूब जानता है कि कितनी ही मेहनत क्यों न की जाए, पानी की तरह रुपया बहाया जाए, ईमानदार, सद्चरित्र, भला आदमी चुनाव नहीं जीत सकता। ये सारे गुण इज्जत दिला सकते हैं सत्ता नहीं। सो, पार्टी हाईकमान को ‘गुनाह बेलज्जत’ करते हुए ऐसे आदमी को उम्मीदवार बनाना पड़ता है जिसकी इज्जत दो कौड़ी की नहीं होती।


पार्टी हाईकमान की अपनी मजबूरियाँ हैं। इस मजबूरी के कारण ही मतदाता भी मजबूर हो जाता है - कम बेईमान, कम भ्रष्ट, कम घपलेबाज को चुनने के लिए।
हमें अपने लोकतन्त्र पर गर्व करना चाहिए कि ये दोनों मजबूरियाँ यत्नपूर्वक, ईमानदारी से निभाई जा रही हैं। आगे भी निभाई जाती रहेंगी।
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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 30 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

बिगाड़ के खाद से सुधार की फसल


जयन्त बोहरा और अशोक ताँतेड़ यह सब पढ़कर खूब खुश होंगे। दोनों को गुदगुदी होगी और कोई ताज्जुब नहीं कि दोनों एक दूसरे को बधाई भी दें। दोनों ने, सोलह नवम्बर की शाम को ही भविष्यवाणी कर दी थी कि मैं यह सब लिखूँगा।


पन्द्रह नवम्बर की सुबह ही सुरेश (चोपड़ा) का फोन आ गया था-‘आपको और भाभीजी को कल शाम का भोजन हमारे साथ करना है।’ कारण तो मुझे पता था (बधाई पत्र जो भेज चुका था!) किन्तु सुरेश के मुँह से सुनना अच्छा लगता। सो पूछा - ‘क्या बात है?’ ‘कल हमारे विवाह के 25 बरस पूरे हो रहे हैं। बच्चों ने पार्टी रखी है। आप दोनों को आना ही है।’ मैंने बधाइयाँ दीं और वादा किया - ‘कल की शाम तुम्हारे और अरुणा के नाम। पक्का रहा।’


अगली (सोलह नवम्बर की) सुबह साढ़े पाँच बजे सुरेश का एसएमएस आया - ‘कोई भेंट नहीं लाएँ। फूल भी नहीं।’ मैंने फोन किया । पूछा - ‘यह आग्रह खानापूर्ति है या इसमें ईमानदारी ही है?’ ‘नहीं। खानापूर्ति बिलकुल नहीं। पूरी ईमानदारी से अनुरोध कर रहा हूँ। कोई भेंट स्वीकार नहीं करेंगे। गुलदस्ता या बुके भी नहीं।’ मैंने कहा-‘ऐसा तो नहीं कि तुम सबके उपहार स्वीकार कर लो और तुम्हारा कहना मान कर, खाली हाथ आनेवाले मुझ जैसे लोग अकारण ही हीनताबोध या अपराधबोध के शिकार हो जाएँ।’ सुरेश ने खातरी बँधाई - ‘सच मानिए। परिवार का कोई भी व्यक्ति, कोई भी उपहार स्वीकार नहीं करेगा।’ इतने अच्छे निर्णय के लिए मैंने सुरेश को बधाई दी और कहा - ‘ईश्वर तुम्हारे संकल्प की रक्षा करे।’


पत्नी के साथ, निर्धारित समय पर आयोजन स्थल पहुँचा तो पहले रमेश भाई (सुरेश के बड़े भाई) ने और उनके पीछे-पीछे सुरेश और अरुणा ने अगवानी की। दोनों के गले में सेवन्ती की सुन्दर मालाएँ महक रही थीं। मैं कुछ भी बोलता उससे पहले ही सुरेश ने कहा - ‘ये मालाएँ घर की ही हैं। किसी आगन्तुक ने नहीं पहनाई हैं।’ हम सब हँसे।


आयोजन की गहमा-गहमी शुरु हो चुकी थी। आमन्त्रित अतिथियों से हॉल भरने लगा था। बच्चों की किलकारियाँ वातावरण को जीवन्त बना रही थीं। आगमन के इसी क्रम में जयन्त (बोहरा) और अशोक (ताँतेड़) भी थोड़ी देर में आए। अलग-अलग। मेरी तरह तथा कुछ और आमन्त्रितों की तरह वे दोनों भी खाली हाथ ही आए थे। मुझे अच्छा लगा। खाली हाथ आनेवाला मैं अकेला नहीं था।


सुरेश और अरुणा को सजी-धजी कुर्सियों पर बैठाया गया। दोनों बच्चे, रिमझिम (21 वर्ष) और उज्ज्वल (11 वर्ष) साथ बैठे। दोनों पक्षों के वरिष्ठों ने जोड़े को आशीर्वाद दिया। इस बीच रिमझिम ने माइक सम्हाल लिया। वह बी ई की छात्रा है। मालूम हुआ कि उसी दिन उसकी परीक्षा थी। थोड़ी देर पहले ही मन्दसौर से लौटी है। विवाह के लिए सुरेश-अरुणा के परस्पर ‘देखने’ से लेकर बच्चों के इस अवस्था तक के घटनाक्रम को सुन्दर सम्वादों और फिल्मी गीतों के समन्वय से प्रस्तुत किया जाने लगा। मुझे अच्छा भी लगा और आश्चर्य भी हुआ कि चुने गए सारे गीत मेरे जमाने के थे। लग रहा था मानो मैं अपने विद्यार्थी काल में पहुँच गया हूँ। सारे गीत कोई पैंतीस-चालीस साल पहले के समय के। मीठे, भावपूर्ण और होश गुमा देनेवाले। बाद में मालूम हुआ कि गीतों का चयन खुद अरुणा ने किया था जिसके लिए हम सबने उसे अतिरिक्त बधाइयाँ दीं - ढेर सारी।


लेकिन सब कुछ प्रियकर नहीं था। बीच-बीच में आमन्त्रित भाई लोग, भात में कंकर मिलाते रहे। बहुरंगी, चमचमाती पन्नियों में पेक किए, छोटे-बड़े आकार के भेंट-पेकेट लेकर आए ये अतिथि, सुरेश और अरुणा से मानो हाथापाई कर रहे हों - अपनी भेंट स्वीकार करने के लिए। इंकार करने में सुरेश-अरुणा को सचमुच में अत्यधिक परिश्रम करना पड़ रहा था। यह सब करते हुए उनके चेहरे पर खीज और झुंझलाहट क्षणिक बिजली की तरह तैर जाती। इंकार करते हुए मुस्कुराते रहने के लिए उन्हें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ रहा था। मानना पड़ेगा कि दोनों अपने संकल्प पर कायम रहे और एक भी अतिथि की भेंट स्वीकार नहीं की। कई लोग गुलदस्ते लेकर आए थे जिन्हें दोनों ने अनमनेपन से स्वीकार किया।


भेंट स्वीकार करने के लिए आमन्त्रित अतिथियों ने जब-जब, सुरेश-अरुणा से ‘कुश्ती लड़ी’ तब-तब, हर बार मुझे झुंझलाहट हुई। जी किया कि जाकर, भेंट स्वीकार करने के लिए कुश्ती लड़ रहे लोगों को धक्के देकर सुरेश-अरुणा के सामने से हटा दूँ, प्रताड़ित करूँ और वहाँ से भगा दूँ। अस्वीकृत भेंट हाथ में लिए कई लोग, सुरेश-अरुणा पर नाराज हो रहे थे। एक को तो मैंने कहते हुए सुना - ‘ये भेंट नहीं ले रहे हैं तो बताओ, मुफ्त में भोजन कैसे करें?’ जयन्त और अशोक भी झुंझला तो रहे थे किन्तु मेरे मुकाबले बहुत ही कम। खुद झुंझलाते हुए वे मेरी झुंझलाहट पर हँस रहे थे। दोनों ने कहा - ‘आपको तो आपके लिए मसाला मिल गया है। उम्मीद करें कि इस सब पर आपका लिखा हुआ पढ़ने को मिलेगा।’ तब तो मैंने इंकार कर दिया था किन्तु तब से लेकर इस क्षण तक समूचा घटनाक्रम मैं भूल नहीं पाया।


भोंडे प्रदर्शन से हम सब परेशान हैं। कोई निमन्त्रण पत्र आता है तो खोल कर देखने से पहले ही मन में विचार आता है कि इस प्रसंग पर दी जाने वाली भेंट का आँकड़ा या स्वरूप कैसा हो। आयोजन में सम्भावित आमन्त्रितों की कल्पना कर, अपनी भेंट को लेकर अनायास ही मन में तुलना होने लगती है। ऐसे समय पर मैं प्रायः ही हीनताबोध से ग्रस्त हो जाता हूँ। ऐसा ही कुछ-कुछ सबके साथ होता ही होगा। तब, आयोजन का आनन्द, उसमें शामिल होने का सुख अपने आप ही कम होने लगता है। आत्मीयता की ऊष्मा पर औपचारिकता का पाला पड़ने लगता है। हम सब इससे त्रस्त हैं और मुक्ति चाहते हैं। किन्तु जब-जब भी ऐसी मुक्ति के अवसर मिलते हैं तो न तो खुद पहल करने की हिम्मत जुटा पाते हैं और न ही किसी की ऐसी अच्छी पहल को सफल होने देते हैं। हम न तो खुद ‘कुछ’ करते हैं और न ही किसी और को ‘कुछ’ करने देते हैं। इसके बावजूद हम दुनिया को दोष देते हैं कि दुनिया हमें आराम से जीने नहीं देती। गोया मैं ही गुनहगार, मैं ही फरियादी, मैं ही जज फिर भी न्याय नहीं मिल रहा लेकिन मेरा दोष बिलकुल ही नहीं। दुनिया दोषी।


हम ऐसे समाज के रूप में विकसित/स्थापित हो रहे हैं जहाँ हममें से कोई भी, कुछ भी खोना नहीं चाहता और चाहता है कि उसे सब कुछ मिल जाए। बिगाड़ से परेशान हम लोग सुधार को खारिज कर रहे हैं, बिगाड़ को न केवल निरन्तर किए जा रहे हैं अपितु उसे सशक्त तथा अधिक प्रतिष्ठित भी कर रहे हैं।


हम सचमुच में विचित्र लोग हैं। बिगाड़ के पक्षधर/संरक्षक बने रह सुधार की तलाश में निकले लोग।

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पार्टी निष्ठा का वाजिब दाम


सोमेश भिया परेशान थे। बैठ नहीं पा रहे थे। दस बाय दस का कमरा छोटा पड़ रहा था चहलकदमी के लिए। बार-बार दरवाजे की ओर देख रहे थे। ऐसे, मानो किसी के आने की प्रतीक्षा कर रहे हों। दस-बीस बार मोबाइल जेब से निकाल कर देख चुके थे। न तो घण्टी आ रही थी और न ही कोई मिस काल नजर आ रहा था। उन्हें पूरा जमाना दुश्मन नजर आ रहा था। एक भी कारण नहीं मिल रहा था जिससे वे राहत हासिल कर पाते। तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि किसकी गति तेज है-उनकी चहलकदमी की या दिल की धड़कन की?
हिम्मत करके मैंने पूछा-‘सब ठीक तो है? परिवार या रिश्तेदारी में किसी की तबीयत तो खराब नहीं? कोई बुरी खबर मिली है क्या?’ सोमेश भिया झुंझला कर बोले-‘ऐसा कुछ होता तो तसल्ली होती। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। सब राजी-खुशी, सकुशल हैं।’
‘फिर?’
‘फिर क्या? अब तक न तो कोई आया है न ही कोई सम्पर्क कर रहा है। सबके सब या तो एक साथ समझदार हो गए हैं या दुश्मन।’
‘किसकी बात कर रहे हैं आप?’
‘अरे! पार्टीवालों की। और किसकी?’
‘क्यों? कोई पार्टी मीटिंग है जिसके बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे हैं?’
‘तुम पिटोगे। जख्मों पर मरहम लगा रहे हो या मेरे मजे ले रहे हो?’
उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि मुझे कुछ भी पता नहीं है। मैंने ‘बड़ी-बड़ी विद्या की कसम’ जैसी दो-चार कसमें खाईं तब उन्हें मेरे सवालों की ईमानदारी पर विश्वास हुआ। बोले-‘तुम्हें पता ही है कि मैंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में फार्म भरा है।’ यह बात मुझे ही क्या, सारे शहर को मालूम थी। मैंने कहा -‘तो?’ सोमेश भिया अकुलाते हुए बोले-‘इससे पहले हर बार ऐसा हुआ कि मेरा फार्म विड्रा करने के लिए पार्टीवाले लाइन लगा कर घर के बाहर खड़े होते थे। मान-मनौव्वल करते थे। मैं अपने खर्चे की और गुडविल की बात करता। वे अपना प्रस्ताव रखते। मैं अपना आँकड़ा बताता। थोड़ी हील-हुज्जत होती थी। फिर होता यह कि वे थोड़ा ऊपर आते, मैं थोड़ा नीचे उतरता और आखिरकार ‘न तुम्हारी, न मेरी’ पर आकर बात बन जाती। वे मेरा विड्रावल फार्म लेकर चले जाते और पार्टी के प्रति मेरी निष्ठा वाजिब भाव पर बनी रहती।’
मालूम तो मुझे भी था किन्तु सोमेश भिया के मुँह से सुनना अच्छा लगा। बोला-‘तो इसमें इतना बेचैन होने की बात क्या है?’
सामेश भिया बोले-‘दो बज रहे हैं। नाम वापस लेने का समय तीन बजे तक का है। मैं चुनाव लड़ना नहीं चाहता। चाहता क्या, लड़ ही नहीं सकता। जानता हूँ मेरे पास न तो पैसे हैं और न ही लोग मुझे वोट देंगे।’
‘तो नाम वापस ले लीजिए।’
‘बेवकूफ हो तुम। ऐसे कैसे वापस ले लूँ। एक बार मान लूँ कि इस बार भुगतान नहीं मिलने वाला। लेकिन कम से कम एक बार तो कोई मनुहार करे! मैं कह तो सकूँ कि वरिष्ठों के आग्रह और पार्टी हित के चलते मैंने नाम वापस ले लिया।’
‘तो फिर चुनाव लड़ ही लीजिए। जो होगा, देखा जाएगा।’
‘तुम दोस्त हो या दुश्मन? यह रिस्क नहीं ले सकता। मेरी बँधी मुट्ठी खुल जाएगी और साल-दो साल में मिलने वाले ‘निष्ठा मूल्य’ से हमेशा के लिए हाथ धोने पड़ जाएँगे। लोग हँसेंगे सो अलग।’
‘मैं किसी काम आ सकता हूँ?’ मैंने पूछा।
‘कर सको तो इतना करो कि पार्टी के किसी बड़े और जिम्मेदार आदमी से पाँच-सात लोगों की मौजूदगी में मुझे फोन करवा दो। मैं नाम वापस ले लूँगा।’
मैं चल पड़ा हूँ। तीन बजे से पहले-पहले मुझे सोमेश भिया की इच्छा पूर्ति करनी है। वरना तीन बज गए तो सोमेश भिया के बारह बज जाएँगे। हमेशा-हमेशा के लिए।
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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 29 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

शहर का लोकतान्त्रिक भ्रम


भले ही सारा शहर अच्छी तरह जानता हो कि वे चारों अनेक धन्धों में भागीदार हैं पर वे शहर मे एक साथ कहीं नजर नहीं आते। चारों अलग-अलग पार्टियों के कर्ता-धर्ता। कोई भी अपनी पार्टी का अध्यक्ष नहीं किन्तु कौन अध्यक्ष बने, यह वे ही तय करते। सो, वे अपनी-अपनी पार्टी में अध्यक्षों के अध्यक्ष। अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता जताने के लिए ही वे शहर में एक साथ नजर नहीं आते। सो, आज भी बन्द कमरे में ही साथ-साथ बैठे थे।


वे अपने आप में लघु भारत थे - एकता में अनेकता के सच्चे प्रतीक। वे उन भिन्न-भिन्न धर्माचार्यों की तरह थे जिनके रास्ते भले ही अलग-अलग होते हैं किन्तु अन्तिम लक्ष्य ईश्वर होता है। इसी लिहाज से इनका व्यावसायिक हित ही इनका राष्ट्र या ईश्वर था। इसीलिए, अपनी-अपनी पार्टी की राजनीति करते हुए इनमें से प्रत्येक, अपनी चैकड़ी के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देता था।


सदा बेफिकर और अलमस्त रहने वाले वे चारों आज चिन्तित थे। उन्हें अपने शहर के महापौर पद के लिए उपयुक्त आदमी तय करना था, कुछ इस तरह कि चुनाव भी वास्तव में होते हुए नजर आए और जीते भी वही जिसे ये चारों चाहें। पिछड़े वर्ग से या सुरक्षित वर्ग से किसी को या किसी महिला को उम्मीदवार बनाना होता तो कोई दिक्कत नहीं थी। किसी को भी बिजूका बनाया जा सकता था। किन्तु इस बार महापौर पद अनारक्षित हो गया था-सबके लिए खुला। याने कि सामान्य वर्ग के लिए। यही कठिनाई थी। इस वर्ग में तो उम्मीदवारों की भरमार थी। इस भरमार में से अपने लिए अनुकूल, ‘सूटेबल ब्‍वाय’ का चयन करने में चारों को पसीने छूट रहे थे।


‘बोलो! क्या कहते हो? लड़वा दें रामप्रसाद को?’


‘आदमी तो अच्छा है। पढ़ा-लिखा भी है। रुपये-पैसे से मोहताज भी है, अपने पर निर्भर है। लेकिन स्साला खुद्दार है। उसका स्वाभिमान जाग जाए तो किसी के बाप का नहीं रहता। कोई और नाम बताओ।’


‘तो फिर सलीम कैसा रहेगा? माइनारिटी का है। अपना सप्लायर भी है। काम धन्धे के लिए अपने पर ही निर्भर है।’


‘हाँ। आदमी तो कहना माननेवाला है। किन्तु तुम तो जानते हो, अपने यहाँ से कोई अल्पसंख्यक जीत ही नहीं सकता।’


‘देखो। सरकार भले ही हमारी पार्टी की है लेकिन पक्की बात है कि हमारे समाज के आदमी को उम्मीदवार बनाया जाएगा। चुनाव में हमारे समाज की निर्णायक भूमिका सारा शहर जानता है। सो, तुम हमारे समाज के किसी आदमी को अपना उम्मीदवार बनाओ। उसके जीतने की गुंजाइश ज्यादा रहेगी।’


‘क्या बात कही है पार्टनर! इसीलिए तो तुम्हें मानते हैं। लेकिन पार्टी लाइन और पार्टी अनुशासन आड़े नहीं आएगा?’


‘तू भी यार! क्या बेवकूफों जैसी बातें करता है? पार्टी अनुशासन तो अन्धों का हाथी है। अपनी सुविधानुसार उसे परिभाषित किया जा सकता है। तुम तो आदमी का नाम बताओ।’


‘है एक आदमी। पार्टी के प्रति निष्ठावान। ईमानदार भी है। उस पर कोई दाग भी नहीं है। रुपये-पैसे के नाम पर पूरी तरह से चन्दे पर निर्भर। बस! वह हाँ कर दे और पार्टी मान जाए।’


‘कौन है इस जमाने में ऐसा?’


‘अरे वही! अपना सुजान! गोली-बिस्किट की दुकानवाला। तकदीर का मारा है वर्ना एम। ए. फर्स्‍ट डिविजन में पास है। वो भी 68 बेच का जब डिग्री की इज्जत होती थी।’


‘अरे हाँ! बढ़िया रहेगा। वह हमारे समाज का भी है। उससे हाँ करवाना तो बाँये हाथ का खेल है। पार्टी हाईकमान को तुम सम्हालना। वहाँ मेरे मिलनेवाले भी हैं। मैं भी समझाऊँगा कि सुजान को उम्मीदवार बनाने पर तुम्हारी पार्टी का महापौर बनने का सपना पूरा हो सकता है।’


‘तो फिर सुजान तय रहा?’


‘मेरी ओर से तो पक्का।’


‘तुम दोनों कुछ नहीं बोल रहे? बोलो। क्या कहते हो?’


‘हमें बीच में क्यों घसीटते हो। हमारी पार्टियों को तो बस उम्मीदवार खड़ा करने की खानापूर्ति करनी है। पार्टी की मान्यता बनी रहे, इतने वोट पूरे प्रदेश में प्राप्त करना है। तुम जो करो वो तो हमें शुरु से ही मंजूर है।’‘तो फिर सुजान पक्का। चलो। शुरु हो जाओ। काम पर लग जाओ।’


चारों काम पर लग गए हैं। शहर को लग रहा है कि वो अपना महापौर चुन रहा है।

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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 23 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


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पत्राचार का अवसान



‘आपका पोस्टकार्ड मिला। आपका काम तो कर ही रहा हूँ लेकिन मैंने बरसों बाद पोस्टकार्ड देखा। मेरे छोटे बेटे ने तो पोस्टकार्ड ही पहली बार देखा।’ उधर से शास्त्री पुष्पोद्भवजी शर्मा मोबाइल पर बोल रहे थे। अपने मित्र की दो बेटियों की विस्तृत जन्म पत्रिकाएँ बनवाने के लिए उनसे बात हुई थी। यह काम मेरे ‘बकाया कामों की सूची’ में शामिल था। सो, मैंने पोस्टकार्ड लिख कर तकादा किया था।


नहीं जानता कि पोस्टकार्ड को लेकर शास्त्रीजी ने परिहास किया था अथवा कुछ और। किन्तु मुझे लगा, वे समूची पत्राचार विधा के अवसान की सूचना दे रहे हों। मेरे लिए यह पीड़ादायक और आश्चर्यजनक था।


पत्राचार के संस्कार मुझे दादा से मिले। अपनी अवस्था के उन्यासीवें वर्ष में वे अभी भी कम से कम पचास पत्र रोज लिखते हैं। कभी-कभी यह आँकड़ा सौ तक भी पहुँच जाता है। पत्र भेजने वाले ने यदि अपना पता लिखा है तो दादा का उत्तर-पत्र उसे निश्चित रूप से मिलता ही है। यह पत्र व्यवहार उनकी पहचान बन चुका है। निजी खर्च के नाम पर उनके खाता-बही में बस यही एक मद है। उनके पत्रों की संख्या को देखकर डाकघरवालों ने हमारे घर के पास ही डाक का डिब्बा लगवा दिया था।


हम घरवाले कभी-कभी उनके पत्राचार की आदत की खिल्ली उड़ाया करते थे। हम बच्चों में से कोई भी बाहर जाने के लिए निकलता तो दादा आवाज लगा कर दस-बीस पत्र थमा देते-‘ये डाक के डिब्बे में डाल देना।’ बाद-बाद में ऐसा होने लगा कि हम बच्चे लोग घर से निकलने से पहले उनसे पूछ लेते -‘चिट्ठियाँ डालनी हैं क्या?’ यह सवाल कभी-कभी उपहास भाव से पूछ लिया जाता। दादा ने कभी बुरा नहीं माना। डाँटा-फटकारा भी नहीं। एक बार मैंने पूछ लिया-‘क्या मिलता है आपको इतने पत्र लिख कर?’ अपने पास बैठाकर तब उन्होंने मुझे समझाया था कि यह एकमात्र तरीका है जिसके माध्यम से घर से बाहर निकले बिना ही सारी दुनिया से जुड़ा हुआ रहा जा सकता है। फिर उन्होंने कहा-‘डाक विभाग तो अपना अन्नदाता विभाग है। कवि सम्मेलन के निमन्त्रण, पारिश्रमिक के मनी आर्डर, बैंक ड्राट सब कुछ डाक से ही आते हैं। इसी से अपना घर चल रहा है।’ इसके बाद मैंने कभी भी उनकी इस आदत का उपहास नहीं उड़ाया। हाँ, ‘सब राजी खुशी है तो पत्र लिखने का क्या मतलब?’ धारणा वाले घर में अब हम दो ‘मूर्ख’ हो गए थे।


‘पत्र मित्रता’ उन दिनों अतिरिक्त पहचान और प्रतिष्ठा दिलाती थी। अपने परिचय में ‘हॉबी’ में जब ‘पत्र मैत्री’ बताता तो मैं सबसे अलग गिना जाता। मन्दसौर और रामपुरा में कॉलेज के दिनो में मेरे नाम आने वाले पत्रों की संख्या सबके लिए अचरज और ईर्ष्‍या का विषय होती। रामपुरा के नन्दलाल भण्डारी छात्रावास में हमारी सेवा करने वाले ‘नानाजी’ (उनका नाम नानूरामजी था) छात्रावास की डाक लेकर लौटते तो मेन गेट से ही मुझे ‘ले! तेरा पोस्ट आफिस आ गया’ कह कर झोला मुझे थमा देते।


बीमा एजेण्ट के रूप में मुझे जो भी थोड़ी बहुत सफलता और पहचान मिली है उसके पीछे पत्राचार का बड़ा हाथ है। मेरे प्रत्येक पॉलिसीधारक के घर में मेरे लिखे पत्र मेरी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जन्म दिन और विवाह वर्ष गाँठ पर भेजे मेरे बधाई पत्र कई घरों में केलेण्डरों पर चिपके नजर आते हैं। यह पत्राचार ही है जिसके कारण मुझे साल में कुछ बीमे घर बैठे मिल जाते हैं। डाक विभाग आज मेरा अन्नदाता विभाग बन गया है। जहाँ भी जाता हूँ, मेरे पत्रों की प्रशंसा सुनने को मिलती है। लोग कहते हैं-‘हम लिखें या न लिखें, आप जरूर हमें पत्र लिखते रहिए।’ मुझे तकलीफ भी होती है और हँसी भी आती है। कहता हूँ - ‘पत्र व्यवहार या पत्राचार दो पक्षों से ही सम्भव हो पाता है। मैं अपनी ओर से क्या लिखूँगा और कब तक लिख सकूँगा? व्यवहार के लिए कम से कम दो पक्ष होने चाहिए।’


लेकिन देख रहा हूँ कि मुझे मिलने वाले पत्रों में कमी आ रही है। गए दो वर्षों में स्थिति यह नाम मात्र की बन कर रह गई है। दीपावली प्रसंग पर मैं प्रति वर्ष लगभग आठ सौ पत्र भेजता हूँ। तीन वर्ष पहले तक लगभग सौ के उत्तर आ जाते थे। एक वर्ष पहले यह संख्या तीस के आसपास आ गई। इस वर्ष तो दस लोगों ने भी उत्तर नहीं दिए। हाँ, एसएमएस की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। इस साल लगभग अस्सी एसएमएस मिले अवश्य किन्तु अधिकांश फारवर्ड किए हुए। सो, एसएमएस तो अस्सी आए किन्तु सन्देश दस भी नहीं थे।


कहाँ तो हस्तलिखित पत्र और कहाँ एसएमएस! जड़ और चेतन वाली तुलना याद आ जाती है। विभिन्न हस्तलिपियों में लिखे वाक्यों पर हाथ फेरते हुए लगता मानो लिखने वाले के हाथ अपने हाथों में लेकर उससे बात कर रहा हूँ। कागज पर उभरी पंक्तियाँ प्राणवान होकर बोलती लगतीं। एक बार पढ़ने से जी नहीं भरता तो उलट-पुलट कर दूसरी बार, तीसरी बार, बार-बार पढ़ता। कोई पत्र छोटा, एक पन्ने का तो कोई पत्र पाँच-छः पन्नों का।


लेकिन अब सब कुछ अतीत हुआ जा रहा लग रहा है। एसएमएस और इण्टरनेट पर मिलने वाले सन्देश गतिवान तो हैं किन्तु प्राणवान नहीं। इनमें जिन्दगी नहीं धड़कती। मैं आज भी आठ-दस पत्र रोज लिखता हूँ। आने-जाने वाले हैरत से पूछते हैं -‘आप अभी भी पत्र लिखते हैं! हम से तो नहीं लिखा जाता। आदत ही नहीं रही।’
लगता है, अपनी तीसरी पीढ़ी की सन्तानों को सुनाने के लिए मेरे पास लोक कथाओं के नाम पर पत्राचार के अनुभव होंगे। पोस्टकार्ड, अन्तरदेशीय पत्र, लिफाफा, बुक-पोस्ट, रजिस्टर्ड पत्र, स्पीड पोस्ट, मनी आर्डर, डाक टिकिट, बेरंग पत्र जैसे उल्लेख उन्हें चकित करेंगे।


तब हमारी शुभ-कामनाएँ, बधाइयाँ, उलाहने, शिकायतें या तो इण्टरनेट पर मिलेंगी या फिर शून्य में अदृश्य तैरती रहेंगी।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अथ अतिक्रमण आख्यान


भैयाजी के साथ यह बड़ा आराम है। वे पार्टी में हैं जरूर किन्तु उनका कोई हाईकामन नहीं। सो, हाईकमान को अपना फैसला जब और जो लेना हो ले लेगी, भैयाजी ने तो फैसला ले लिया। वे चुनाव लड़ेंगे ही।
चुनाव में कुछ ऐसी भी रस्में निभानी पड़ती हैं जिनकी न तो कोई उपयोगिता होती है न ही जिनमें किसी का विश्वास होता है। चुनाव घोषणा-पत्र जारी करना उनमें से एक है। बेफिकर होकर जारी कर दो। कोई नहीं पढ़ता। और पढ़ ले तो याद कौन रखता है? इस खानापूर्ति के लिए भैयाजी ने मुझे बुलवा भेजा। मैं शुरु होता उससे पहले भैयाजी ने समझाया - ‘देखो! मुद्दे तो सब रखना किन्तु इस तरह कि पढ़नेवाला उनका मतलब नहीं निकाल सके। अपने लिखे का मतलब अपने मनमाफिक निकालने की सुविधा अपने पास ही रहनी चाहिए।’
काम कठिन था। एकदम इंकार कर देने काबिल। किन्तु यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। अपनी सूझ-बूझ और क्षमता से जैसा भी बन पड़ा, लिख कर पेश किया। उम्मीद के खिलाफ भैयाजी ने बहुत ही ध्यान से उसे देखा ही नहीं, पढ़ा भी। मेरी ओर देखे बिना बोले-‘अच्छा है। लेकिन इसमें से अतिक्रमण हटाने वाली बात हटा दो।’ मैंने बुदबुदाते हुए कहा-‘किन्तु यह तो मूल समस्या है। इसे खत्म किए बिना सौन्दर्यीकरण, सुगम यातायात, सड़कों को उनके मूल चैड़े स्वरूप में लाना आदि काम कैसे हो सकेंगे?’ भैयाजी को अच्छा नहीं लगा। मुझ पर और मेरी बुद्धि पर तरस खाते हुए बोले-‘तुम बुद्धिजीवियों के साथ यही दिक्कत है। आदर्श बघारते हो, हकीकत बिलकुल नहीं समझते। पहले तो इसे घोषणा-पत्र में से हटाओ। फिर बताता हूँ।’ मैंने पालतु-पशु की तरह उनका कहा माना और टुकुर-टुकुर भैयाजी की ओर देखने लगा।
मेरी दशा देख भैयाजी हँस पड़े और उसके बाद उन्होंने मुझे ‘अथ अतिक्रमण कथा’ के रूप में अपनी बात कुछ इस तरह कही -
अतिक्रमण ऐसी मानवीय क्रिया है जो ईश्वरीय होने की बराबरी करती है। सच तो यह है कि ईश्वर और मृत्यु के बाद अतिक्रमण ही सबसे बड़ा सच है। यह सच्चा समाजवादी कारक भी है। छोटा-बड़ा, गरीब-अमीर, शहरी-ग्रामीण, हर जाति, समाज, वर्ग का आदमी इसे समान अधिकार से, समान प्रसन्नता से और समान एकाग्रता से करता है। इससे वही बच जाता है जिसे या तो यह करने का अवसर नहीं मिलता और यदि अवसर मिलता है तो करने का साहस नहीं जुटा पाता। वर्ना, इससे कोई नहीं बच पाता। इसके बारे में सबकी राय भी एक जैसी है। हर कोई इसके विरुद्ध चिल्लाता है, इसे हटाने की माँग करता है किन्तु साथ ही साथ चाहता और कोशिश करता है कि उसके द्वारा किए गए अतिक्रमण पर किसी की नजर न पड़े। इससे सबकी रोजी-रोटी चलती है। इसे करने वाला तो लाभान्वित होता ही है, इसे हटाने की मुहीम चलाने वाला भी लाभान्वित होता है। जैसे ईश्वर सत्य और जगत् मिथ्या है, वैसे ही अतिक्रमण सत्य और बाकी सब मिथ्या है। यह व्यक्ति के पौरुष भाव को भी तुष्ट करता है। वैसे देखो तो बलात्कार और अतिक्रमण में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु इसमें बलात्कार से अधिक सुख और सुरक्षा है। इसमें फरियाद करनेवाला, एफआईआर दर्ज करवानेवाला पक्ष नहीं होता क्योंकि सबके सब आरोपी होते हैं। इसमें बहुमत सदैव आपके साथ होता है। यह स्थायी है, जैसाकि पहले कहा, बिलकुल ईश्वर की तरह। इसे हटाने की मुहीम यदा-कदा चलती जरूर है किन्तु वह मुहीम ही अस्थायी होती है। आज चली, कल बन्द और अतिक्रमण फिर जस का तस।
एक बात और। यह भ्रम दूर कर लेना कि अतिक्रमण जमीन पर ही किया जाता है। यह तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किया जा सकता है, किया जाता है और किया जा रहा है। सो, कहाँ-कहाँ का अतिक्रमण हटाया जाए? अरे! अतिक्रमण तो पूजनीय क्रिया है-सबको काम दे, सबसे काम ले और सबको काम पर लगाए रखे। नेताओं के लिए तो यह सर्वाधिक मुफीद तत्व है। इसका कोई निदान नहीं सो प्रत्येक नेता इसे हल करने का आश्वासन पूरे आत्म विश्वास से देता रहता है। जानता है कि इस आश्वासन को याद भी नहीं करना पड़ेगा। यह तो ‘सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय’ क्रिया है। इसकी ओर तिरछी निगाह से देखकर पाप के भागीदरी मत बनो।
भैयाजी की बातें मुझे न केवल समझ में आ गई बल्कि साहस और स्फूर्ति का संचार भी कर गई। अपने घर के आगे, खाली पड़ी नगर निगम की जमीन मुझे बुला रही है।
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(मेरे कस्‍बे के नगर निगम चुनाव के सन्‍दर्भ में लिखी गई मेरी यह टिप्‍पणी, सम्‍पादित स्‍वरूप में दैनिक भास्‍कर, रतलाम में प्रकाशित हुई है।)
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रुढ़ी बन रही परम्परा


एक परम्परा हमारे देखते-देखते रुढ़ी बन रही है। हमारे देखते-देखते ही नहीं, शायद हम सब मिल कर अत्यन्त प्रेपूर्वक और यत्नपूर्वक इसे रुढ़ी बना रहे हैं।


यह परम्परा है - सगाई जिसे अंग्रेजी में ‘एंगेजमेण्ट’ कहा जाता है। दो अलग-अलग परिवारों की परस्पर सहमति से, इन दोनों परिवारों के लड़के-लड़की का विवाह तय करने के निर्णय को सामाजिक/सार्वजनिक रूप से प्रकट करने के लिए जो समारोह किया जाता है उसे कहीं ‘सगाई’ तो कहीं ‘तिलक’ कहा जाता है। संस्कृत में इसके लिए ‘वाग्दान समारोह’ शब्द युग्म प्रयुक्त किया जाता है। यह समारोह तब किया जाता है जब सम्बन्ध तय होने और विवाह होने के बीच सुदीर्घ अन्तराल हो। यह सम्भवतः इसलिए किया जाता रहा होगा ताकि कोई पक्ष बाद में इससे इंकार न कर दे और दूसरे पक्ष को सामाजिक अवमानना का शिकार न होना पड़े। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सामाजिक/सार्वजनिक साक्ष्य में दोनों परिवार ऐसे सम्बन्ध के लिए परस्पर वचनबद्ध होते थे।


आज परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है। आज तो सम्बन्ध तय होने के साथ ही विवाह का दिनांक भी तय हो जाता है। ऐसे में, सम्बन्ध तय होने और विवाह होने में बहुत ही कम समय रहने लगा है। कभी-कभी तो यह अन्तराल एक पखवाड़े से भी कम का होता है। ऐसे में ‘सगाई’ या कि ‘तिलक’ अथवा ‘वाग्दान’ स्वतः ही अनावश्यक हो गया है। किन्तु हम बिना साचे-विचारे, परम्परा निर्वहन के नाम पर उत्साहपूर्वक इसे आयोजित और सम्पादित करते हैं।


स्थिति यह हो गई है कि विवाह के विस्तृत (पारिवारिक स्तर पर दिए जाने वाले) निमन्त्रण पत्रों में दिए गए कार्यक्रमों में सगाई और फेरों की सूचना एक साथ दी जा रही है।


यह न केवल आपत्तिजनक अपितु अनुचित भी है। सगाई कोई संस्कार नहीं है। गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित हो रहे मासिक ‘कल्याण’ का, सन् 2006 में प्रकाशित 492 पृष्ठीय ‘संस्कार-अंक’ (वर्ष 80, अंक 1) मैंने यथासम्भव पूरी सतर्कता से, सचेष्ट होकर पढ़ा है। इसमें सर्वत्र 16 संस्कारों का उल्लेख किया गया है जिनमें ‘वाग्दान’ का उल्लेख कहीं नहीं है। जहाँ-जहाँ ‘उप संस्कार’ उल्लेखित किए गए हैं, उनमें भी ‘वाग्दान’ का उल्लेख कहीं नहीं है। ऐसे सन्दर्भों में ‘कल्याण’ की अपनी आधिकारिकता है जिसे चुनौती दे पाना असम्भवप्रायः ही होगा।


जहाँ विवाह सम्बन्ध तय होने के साथ ही विवाह तिथि भी तय कर ली गई हो वहाँ सगाई या कि तिलक या वाग्दान के लिए अलग से समारोह आयोजित करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। वस्तुतः यह ऐसा आयोजन बन कर रह जाता है जो न केवल दोनों (वर, वधू) पक्षों पर अपितु दोनों पक्षों के रक्त सम्बन्धियों और व्यवहारियों पर भी अतिरिक्त आर्थिक बोझ डालता है। परम्परा के नाम पर यह आयोजन भोंडे प्रदर्शन का तथा अपव्यय का सबब बनता जा रहा है। मैं ऐसे अनेक विवाहों में शामिल हुआ हूँ जिनमें शाम को लग्न होने थे और दोपहर में सगाई समारोह आयोजित किए गए। मेरे पूछने पर हर बार मुझे ‘परम्परा’ की दुहाई सुनने को मिली। मैंने जब इसकी तार्किकता पर सवाल किए तो मेरी बात मानी तो सबने किन्तु आयोजन की अनिवार्यता पर सबके सब कायम रहे।


कुछ समाजों/जातियों में तो इस आयोजन के नाम पर वधू पक्ष से अच्छी-खासी वसूली की जाती है और वर पक्ष अपने सम्बन्धियों/व्यवहारियों को तगड़ा नेग दिलाता है। मैं मेरे कस्बे में एक ऐसे सगाई समारोह में शामिल हुआ हूँ जिसका आयोजन इतना भव्य, भड़कीला और खर्चीला था जिसमें मुझे जैसे मध्यमवर्गीय व्यक्ति के यहाँ दो विवाह निपटाए जा सकते थे। सब कुछ पूरी तरह से चकाचौंध भरा, फिल्मी प्रभाववाला था।


मुझे लगता है कि हम केवल कपड़ों और शेखी बघारने में ही प्रगतिशील हुए हैं, वास्तविक आचरण में नहीं। दहेज की तरह ही ‘सगाई’ भी अब एक बुराई के रूप में स्थापित होती जा रही है जिसे परम्परा के नाम पर हम सब बड़े यत्नपूर्वक ढोए जा रहे हैं। इसमें, पैसेवालों को तो कोई अन्तर नहीं पड़ रहा किन्तु गरीब की मौत हो रही है।


क्या हम इस (कु) परम्परा को रुढ़ी बनने से रोक पाएँगे?
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मोहन भागवत के लिए ठीक समय


मोहन भागवत, अब तक के सर संघ चालकों के मुकाबले तनिक अधिक मुखर, अधिक साहसी तथा अधिक पारदर्शी नजर आ रहे हैं। वे कहते अवश्य हैं कि भाजपा के माँगने पर ही संघ अपनी राय देता है किन्तु सारा जमाना देख रहा है कि वे भाजपा के बिना माँगे और बिना चाहे ही, भाजपा का भविष्य तय कर रहे हैं। यह ठीक समय है कि भागवत इस पार्टी को सम्भ्रम की दशा से उबार लें।फिलहाल भाजपा (और संघ के अन्य समस्त आनुषंगिक संगठनों) की दशा ‘संघ की नाजायज औलाद’ या फिर ‘संघ की रखैल’ जैसी बनी हुई है। ऐसा करके संघ कोई भी जिम्मेदारी उठाए बगैर, सारे राजनीतिक सुख भोगता है। किन्तु पारदर्शिता के इस जमाने में स्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं।


भारतीय लोकतन्त्र को सेहतमन्द बनाए रखने के लिए मजबूत प्रतिपक्ष बेहद जरूरी है जिसकी पूर्ति फिलहाल केवल भाजपा के जरिए ही होती नजर आती है। इसलिए, भाजपा का मजबूत होना समय की माँग है। इसके लिए सबसे पहली जरूरत है कि भाजपा की सार्वजनिक स्थिति सुस्पष्ट हो। यह ‘दो-टूक’ रूप से तथा आधिकारिक रूप सेस्पष्ट हो जाना चाहिए कि संघ ही भाजपा है और भाजपा ही संघ है। इसके अपने नुकसान हो सकते हैं किन्तु भारतीय जनमानस की एक बड़ी उलझन दूर होगी और जो लोग भाजपा को लेकर ऊहापोहग्रस्त होकर भाजपा से छिटके हुए हैं, उन्हें निर्णय लेने में आसानी होगी।


मोहन भागवत जिस तरह से खुलकर खेल रहे हैं उससे अब केवल यह आधिकारिक घोषणा ही बाकी रह गई है कि संघ ही भाजपा है और भाजपा ही संघ है। यह घोषणा अब कर ही देनी चाहिए। इससे भाजपा की (और संघ की भी) सार्वजनिक विश्वसनीयता बढ़ेगी और भाजपा की सांगठनिक ताकत भी।


‘भई गति साँप छँछूदर केरी’ की दशा में जी कर भाजपा वैसे भी अविश्वसनीय और अछूत बनी हुई है। आज स्थिति यह है कि भाजपा से कोई भी राजनीतिक गठबन्धन करते समय प्रत्येक राजनीतिक दल भाजपा को सन्देह की दृष्टि से देखता है।


इससे भाजपा एक गम्भीर आरोप से भी बच सकेगी। राजनाथ सिंह घोषित कर चुके हैं कि भाजपा अपनी मूल नीति नहीं बदलेगी। इसकी मूल नीति है - एक जन, एक संस्कृति, एक राष्ट्र। यह नीति अन्य राजनीति दलों के खाँचे में फिट नहीं बैठती है। इसलिए, जब-जब भी गठबन्धन का अवसर आता है तब-तब, हर बार, केवल भाजपा को ही अपनी मूल नीति छोड़नी पड़ती है। यही कारण था कि एनडीए के गठन के समय भी भाजपा को अपने तीनों मुख्य मुद्दे (राम मन्दिर, धारा 370 तथा समान नागरिक संहिता) छोड़ने पड़े थे। इतिहास साक्षी है कि भाजपा के सिवाय किसी भी दल ने अपना कोई भी मुद्दा नहीं छोड़ा था। जाहिर है कि इन मुद्दों के कारण ही भाजपा ‘राजनीतिक अछूत’ बनी हुई थी। तब यही हुआ था कि भाजपा सत्ता में तो आ गई थी किन्तु राम मन्दिर न बना पाने का आरोप लगातार झेलती रही जिसका खामियाजा उसे, बाद में होने वाले प्रत्येक चुनाव में झेलना पड़ा और शर्मिन्दगी भी उठानी पड़ी। ऐसे में, यदि संघ, भाजपा को सुस्पष्ट रूप से ‘टेक ओव्हर’ करता है तो भाजपा इस दशा से उबरेगी। तब, भाजपा से गठबन्धन करने वाला राजनीतिक दल भली प्रकार जानकर गठबन्धन करेगा, भाजपा को राजनीतिक अछूत मान कर नहीं। और तब भाजपा को अपने मुद्दे छोड़ने के आरोप भी नहीं झेलने पड़ेंगे।


अनुभव यह हो रहा है कि भाजपा के माध्यम से संघ सब कुछ हासिल तो करना चाहता है किन्तु खोना कुछ भी नहीं चाहता। इसी बिन्दु पर मोहन भागवत को साहस दिखाना चाहिए। जिस प्रकार सबको खुश करने की कोशिश में आप किसी को भी खुश नहीं रख सकते उसी प्रकार बिना कुछ खोए आप कुछ हासिल भी नहीं कर सकते। मोहन भागवत इतने नादान नहीं हैं कि यह छोटी सी बात न समझते हों।


यह ठीक समय है कि मोहन भागवत रणनीतिक साहस बरतें और भारतीय राजनीति को नए तेवर दें।


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सुनो! नेता


बेशर्मी को अपना गहना कैसे बनाया जाए, यही सिखा रहे हैं हमारे नेता इन दिनों। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इसका एक ही मतलब है कि वे हम, जन-सामान्य को नासमझ, जड़, निरा मूर्ख और अविवेकी ही मानते हैं।


कम से कम उम्र और कम से कम समय में हजारों करोडों का भ्रष्टाचार का वैश्विक कीर्तिमान रचने वाले अनूठे भारतीय राजनेता मधु कौड़ा के तेवर और वक्तव्य दर्शनीय और संग्रहणीय हैं। वे कह रहे हैं कि यदि वे दोषी साबित हो गए तो राजनीति छोड़ देंगे। अनूठा और साहसी काम करेंगे वे ऐसा करके? सचमुच? यद्यपि, हमारे कानून और लम्बी कानूनी प्रक्रिया अपराधियों और दोषियों के लिए अपेक्षा से कई गुना अधिक राहत उपलब्ध करती है। तदपि, यदि कोड़ा दोषी साबित हो गए तो वे इस दशा में रहेंगे कि राजनीति में रह सकें? तब तो वे बरसों-बरस जेल में रहने को विवश रहेंगे। वही उनका स्थायी पता भी बन जाएगा। तब वे कैसे कर सकेंगे राजनीति? कैसे रह सकेंगे राजनीति में? क्या जेल में ही कोई पार्टी बना कर, कैदियों का कोई विधायी सदन और जेल को पृथक राज्य बनाएँगे? निश्चय ही ऐसा कुछ नहीं कर पाएँगे। जाहिर है कि तब वे चाह कर भी राजनीति में नहीं रह पाएँगे, राजनीति नहीं कर पाएँगे। ऐसे में यह कहने का क्या मतलब है कि यदि दोषी साबित होंगे तो राजनीति से सन्यास ले लेंगे? अपने अपराधों को बेशर्मी से अपना आभूषण कैसे बनाया जाता है, यही बता रहे हैं मधु कौड़ा।


एक और नमूना। चुनावों में जब भी कोई औंधे मुँह गिरता है, मतदाता धूल चटाते हैं तो औंधे मुँह पड़ा नेता कहता है - ‘मैं मतदाता का आदेश शिरोधार्य करता हूँ।’ यह बात भी नेता ऐसे कहता है मानो वह मतदाताओं पर उपकार कर रहा हो। ऐसे कहता है मानो वह चाहे तो हार कर भी कुर्सी पर बैठ सकता है किन्तु ऐसा करेगा नहीं। मात खाने वाले राजनीतिक दल कहते हैं - ‘हम जनता के फैसले का सम्मान करते हुए अब विपक्ष में बैठकर अपनी भूमिका निभाएँगे।’ अब इनसे कौन पूछे कि भैया आपको यही काम तो लोगों ने सौंपा है! यह नहीं करोगे तो और क्या करोगे? सौंपी गई जिम्मेदारी निभाने का वादा और दावा ऐसे कर रहे हो मानो मतदाताओं और उनकी भावी पीढ़ियों पर उपकार कर रहे हो। सच बात तो यह है कि ऐसा कहते हुए तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है। कुर्सी पर बैठने को मचल रहे नितम्बों की कसमसाहट को छुपाने में बड़ी वेदना हो रही है। तुम मतदाताओं को गरियाना, लतियाना चाहते हो। धिक्कारना, प्रताड़ित करना चाहते हो। तुम्हारा बस चले तो तुम मतदाताओं को गोली मार दो - ‘स्साले तुम्हारी यह हिम्मत और औकात कि लतियाकर हमें गद्दी से धकेल दिया?’


किन्तु तुम लालची और अवसरवादी ही नहीं, डरपोक भी हो। अपने मन की बात साफ-साफ कहने की हिम्मत तुममें नहीं है। कह दो तो सम्भावनाओं का खेत ऊसर हो जाए! हमेशा-हमेशा के लिए खारिज किए जा सकते हो। सो, तुम भेड़ियों की तरह शालीन, विनम्र और भद्र बनते रहते हो। बेशर्मी को अपना गहना बनाते रहते हो।
मजे की बता यह है कि मतदाता तुम्हारे इस स्वांग को भली प्रकार जानते हैं और तुम भी यह जानते हो कि मतदाता सब जानते है। फिर भी यह खेल चलता चला आ रहा है और चलता रहेगा-सनातन से प्रलय तक।


सच मानो! खोखले, आदर्श सम्वादों और इस मुखमुद्रा में तुम अत्यधिक भोंडे और हास्यास्पद लगते हो। यही वह क्षण होता है जब मतदाता तुम से सन्तुष्ट और खुश होता है। वर्ना, शेष समय और अवसरों पर तो मतदाता सदैव खरबूजा ही बना हरने को अभिशप्त है।

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.....तो राज ठाकरे की ठुकाई हो जाती

‘मराठी माणुस’ के लिए कुछ कर गुजरने के नाम राज ठाकरे की मूर्खतापूर्ण और निन्दनीय हरकतें देश भर के अखबारों और चैनलों पर छाई हुई हैं। उनकी इन हरकतों में ईमानदारी कितनी है और मतलबपरस्ती कितनी-यह बताने की जरूरत नहीं। कांग्रेसस का पैदा किया और संरक्षित किया जा रहा यह नराधम देश के लिए कितना घातक बना हुआ है, यह सब अनुभव कर रहे हैं। ‘राज ठाकरे की ये हरकतें अनायास ही गो। ना. सिंह की याद दिला देती हैं।’ कहा जमनालाल ने।


जमनालाल याने जमनालाल राठौर। मेरे तकलीफ के दिनों का साथी। मैं अपने महापुरुषों की सूची बनाऊँगा तो उसके प्रथम क्रम पर इसी का नाम होगा। इसके बारे में मौका मिलने पर विस्तार से लिखूँगा। फिलहाल इतना ही कि इस पोस्ट का जनक जमनालाल ही है। भोपाल के ‘भेल’ इलाके में लोक कथा की तरह गाहे-ब-गाहे सुनने को मिल सकने व वाला यह किस्सा उसी ने कल रात मुझे सुनाया।



यह घटना अगस्त/सितम्बर 1967 के आसपास की है। श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया के निर्देशन, सहयोग और संरक्षण में कांग्रेस के लगभग 40 विधायकों ने दलबदल कर तत्कालीन लौह पुरुष और राजनीति के चाणक्य, पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को औंधे मुँह गिराकर मध्यप्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी जिसे ‘संविद सरकार’ (संयुक्त विधायक दल सरकार) के नाम से पहचाना गया। ‘संविद’ की नेता तो खुद श्रीमती सिन्धिया बनीं थी और मुख्यमन्त्री बने थे, दलबदलुओं के नेता श्री गोविन्द नारायण सिंह जिन्हें पत्रकारिता के हलकों में ‘गो। ना. सिंह’ के नाम से अधिक जाना-पहचाना जाता था।



तब भोपाल में ‘भेल’ (बी।एच.ई.एल. याने भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स) नहीं हुआ करता था। तब यह भारत-ब्रिटेन सहयोग वाला उद्यम एच.ई.एल. (हेवी इलेक्ट्रिकल्स इण्डिया लिमि.) हुआ करता था जब कि ‘बी.एच.ई.एल.’ के नाम से हरिद्वार, हैदराबाद और त्रिचनापल्ली में तीन संयन्त्र कार्यरत थे। इनमें से हरिद्वार वाला संयन्त्र भारत-सोवियत रूस सहयोग का उपक्रम था। शेष दो के बारे में अब इस समय मुझे कुछ याद नहीं आता। कालान्तर में भोपाल वाले एच.ई.एल. को बी.एच.ई.एल. में विलीन कर दिया गया। सो, भोपाल स्थित आज का ‘भेल’ (बी.एच.ई.एल.) तब का एच.ई.एल. हुआ करता था। प्रबन्धन से लेकर श्रमिक स्तर तक के अधिकांश कर्मचारी दक्षिण भारतीय थे।



इसी एच।ई.एल. के एक कार्यक्रम में भाग लेकर गो.ना.सिंह पिपलानी से लौट रहे थे। एच.ई.एल. भोपाल के सर्वोच्च अधिकारी भी उनके साथ ही थे। अचानक ही गो.ना. सिंह को एक बड़ी झुग्गी-बस्ती नजर आई। उन्होंने पूछा - ‘यह कौन सी बस्ती है?’ उत्तर मिला - ‘अन्ना नगर।’ गो. ना. सिंह अपनी किस्म के अलग ही व्यक्ति थे-विकट जीवट और प्रबल इच्छा शक्ति के धनी। उनकी कार्य शैली अटपटी थी-अंग्रेजी में जिसे ‘अनप्रिडिक्टबल’ कहते हैं। उन्होंने कार रुकवाई। पूछा - ‘अन्ना नगर? वह भी मध्यप्रदेश में? क्या मतलब?’ उन्हें बताया गया कि एच.ई.एल. में काम करने के लिए दक्षिण भारत के विभिन्न प्रान्तों से आए मजदूरों ने यह बस्ती बसाई है। इसमें कर्नाटक, तमलिनाडु (जिन्हें तब क्रमशः कर्नाटक और मद्रास कहा जाता था),केरल,आन्ध्र प्रदेश से आए लोग शामिल थे। अन्ना दुराई तब दक्षिण भारत के प्रतीक और पर्याय पुरुष हुआ करते थे। सो, उन्हीं के नाम पर इस बस्ती का नामकरण कर दिया गया था।



सुनकर गो। ना. सिंह को अटपटा लगा। उन्होंने एच.ई.एल. के सर्वोच्च अधिकारी से कुछ ऐसा कहा - ‘मैं मान लेता हूँ कि इंजीनीयर और तकनीकी लोग आपको मध्य प्रदेश में नहीं मिले होंगे। लेकिन ऐसी क्या बात हो गई कि आपको मजदूर भी दक्षिण भारत से बुलवाने पड़े? क्या आपको मध्यप्रदेश में मजदूर भी नहीं मिले?’ सर्वोच्च अधिकारी यूँ ही इस पद पर नहीं पहुँचे थे। कब बोलना और कब चुप रहना, यह खूब अच्छी तरह जानते थे। सो, उन्होंने चुप रह कर ही जवाब दिया। वैसे भी, गुस्से से रतनार हो चुके, गो. ना. सिंह के ‘विशाल नयन’ वह सब कह रहे थे जो गो. ना. सिंह मुँह से नहीं कह रहे थे।



कोई दूसरा मौका होता तो बात आई गई हो चुकी होती। किन्तु बात गो। ना सिंह की और उनके गुस्से की थी। जमनालाल ने कहा - ‘इस बात का असर बिजली की माफिक हुआ। गो. ना. सिंह ने एक अक्षर भी लिख कर नहीं दिया किन्तु इस घटना के बाद, पहली बार ऐसा हुआ कि एच.ई.एल. के विभिन्न पदों पर भर्ती के लिए प्रदेश के तमाम जिलों के रोजगार कार्यालयों के माध्यम से उपयुक्त उम्मीदवारों को सूचना भेजी गई और उसके बाद जो भी भर्ती हुई उसमें लगभग आधे लोग मध्य प्रदेश के लिए जाने लगे।’ लेकिन इससे जमनालाल का क्या सम्बन्ध? मेरी बात सुनकर जमनालाल ने अत्यन्त भावुक होकर, आर्द्र नेत्रों से कहा - ‘सम्बन्ध है मेरे भाई! तू जानता है, उन्हीं दिनों मैंने बी.एससी. पास की थी। नौकरी की जरुरत थी। बी.एच.ई.एल. का कोई विज्ञापन अखबारों में नहीं छपा था। छपता भी तो मुझ तक शायद ही पहुँचता। मुझे तो मन्दसौर स्थित रोजगार कार्यालय से ही सूचना मिली थी और उसी की बदौलत मैं एच.ई.एल. की नौकरी हासिल कर सका।’



सुन कर मैं सन्न रह गया। पता नहीं, गो। ना. सिंह को जीते-जी, अपने इस ‘करम’ की जानकारी हुई भी या नहीं। हुई हो तो भी उन्होंने प्रदेश के इतने सारे लोगों को रोजगार दिलाने का श्रेय लेने की कोई कोशिश, कभी नहीं की। उन्होंने इसे अपनी जिम्मेदारी मान कर, चुपचाप अपना काम किया। न जाने कितने जमनालाल उन्हें आज इसी तरह से याद करते होंगे। आपको बता दूँ कि जमनालाल ने 1999 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली। उस समय वह सीनीयर मैनेजर के रूप में काम कर रहा था। मालवा के जिस छोटे से गाँव भाटखेड़ी से जमनालाल आया था, उस गाँव का कोई भी बाशिन्दा आज तक इतने बड़े पद पर नहीं पहुँच पाया है।



किस्सा सुना कर जमनालाल ने कहा - ‘आज गो। ना सिंह होते तो राज ठाकरे की वो ठुकाई करते कि राज ठाकरे की बोलती बन्द हो जाती। काम करने वाले और काम करने का ढोंग करने वाले में क्या अन्तर होता है, यह ऐसी ही घटनाओं से मालूम हो सकता है। गो. ना. सिंह ने न तो हिन्दी की दुहाई दी और न ही दक्षिण भारतीय भाषाओं का विरोध किया। उन्होंने सबको यथावत रखते हुए अपने प्रदेश के लोगों को समाहित करने की बात की और उसमें कामयाब भी हुए।’



थोड़े लिखे को बहुत समझिएगा और इसमें जो कमी लगे उसे अपनी ओर से पूरी कर लीजिएगा।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।



यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

यह सब करे गरीब आदमी


8 नवम्बर 2009, रविवार। आगरा में मेरी यह दूसरी सुबह थी। भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया’ (लियाफी) के चा चौदहवें राष्ट्रीय अधिवेशन के दूसरे दिन की कार्रवाई में शामिल होने के लिए मेरे चारों एजेण्ट साथी निकल चुके थे। आलस्यवश मैं पीछे रह गया था। वैसे भी मुझे किसी कार्रवाई में भागीदारी तो करनी नहीं थी, उपस्थिति मात्र दर्ज करानी थी। सो, समय पर न पहुँचकर भी मैं विलम्बित नहीं था।

धौलपुर हाउस से मैंने रिक्शा लिया। चैराहा पार कर रकाबगंज में कुछ ही मीटर दूरी पार की थी कि छिपी टोला के नुक्कड़ पर, सामने पूड़ी-कचौड़ी और दूध की दो दुकानें नजर आईं। ‘सुन्दर दूध भण्डार’ पर रिक्शा रुकवाया। रिक्शाचालक ने कहा तो कुछ नहीं किन्तु उसकी खिन्नता चेहरे पर चस्पा हो गई थी।

दुकान खुले शायद बहुत देर नहीं हुई थी। पास वाला ‘जावेद पान भण्डार’ अभी नहीं खुला था। उससे लगी, जूतों की दुकानवाला आया ही था। उसने अपने हाथ का अखबार पास खड़े एक आदमी को थमाया। आदमी अखबार देखने लगा और दुकानदार दुकान खोलने का उपक्रम करने लगा।

‘सुन्दर दूध भण्डार’ पर तीन ग्राहक खड़े थे। दुकान के प्रवेश वाले हिस्से के दाहिने कोने पर भट्टी लगी हुई थी। एक लड़का पूड़ियों की मसालेदार लोइयाँ बना कर पूड़ियाँ बेल रहा था, दूसरा तल रहा था। एक अन्य कारीगर कचौड़ियों की लोइयाँ बना कर उन्हें हथेली के गद्दे पर रखकर, दूसरे हाथ के अँगूठे से दबाकर, कचौड़ी के आकार में फैला कर थाल में रख रहा था। भट्टी पर चढ़ी कढ़ाई में पूड़ियाँ तली जा रही थीं। कढ़ाई के सामने दो थालों में पूड़ियाँ और कचौड़ियाँ अलग-अलग रखी हुई थीं और बड़े भगोने में आलू की सब्जी। दूसरे कोने पर पर बनी भट्टी पर बढ़े कड़ाह में रखे दूध पर मलाई की मोटी तह जमी हुई थी जिसके नीचे दूध उबल रहा था। कड़ाह के चारों ओर, दूध की सतह से तनिक ऊपर, मलाई की मोटी तह चिपकी हुई थी। कड़ाह के सामने बैठा कर्मचारी मिट्टी के सकोरों को पोंछ रहा था। ग्राहकों के लिए दूध तैयार करने के लिए एक छोटी भगोनी और एक बर्तन में शकर उसके पास रखी हुई थी।

मैंने खुद के लिए और रिक्शाचालक के लिए दो-दो पूड़ियों और एक-एक सकोरा दूध के लिए टोकन लिए। दुकानदार ने पूड़ियों का पहला दोना मुझे थमाया तो मैंने रिक्शाचालक की ओर बढ़ा दिया। उसे सम्पट नहीं बँधी। उसे विश्वास ही नहीं हुआ। उसने हाथ जोड़ते हुए इंकार कर दिया। मैंने कहा कि उसके लिए ही लिया है तो वह हक्का-बक्का होकर मेरी तरफ देखने लगा और इसी दशा में रोबोट की तरह, हाथ बढ़ाकर दोना लिया। पूड़ियाँ और आलू सब्जी निपटा कर मैंने दूध का पहला सकोरा लेकर उसी तरह रिक्शाचालक को थमाया।

अपने लिए दूध का सकोरा लेकर मैंने दूध सुड़कना शुरु किया ही था कि मेरे अचेतन ने मानो कुछ कहा। मैंने अपने आसपास देखा तो पाया कि दुकान के कर्मचारी, पहले से खड़े तीनों ग्राहक और अखबार पढ़ रहा आदमी, सब के सब मुझे और रिक्शाचालक को घूर रहे हैं। दूध हलक से नीचे उतारना मेरे लिए कठिन हो गया। जैसे-तैसे सकोरा खाली किया। रिक्शाचालक पहले ही निपट चुका था। मैं अपना प्रयुक्त सकोरा, दुकान के सामने रखे कूड़ादान में डालने लगा तो रिक्शाचालक लगभग विगलित स्वरों में बोला-‘बाबू साहब! भगवान आपका भला करे।’ इस वाक्य का मुझे अन्देशा था। किन्तु ‘दुआ’ में अनकही आशंका छुप नहीं सकी। वह चाह कर भी नहीं पूछ सका - ‘नाश्ते की रकम मेरी मजदूरी में से काटोगे तो नहीं?’ आसपास के लोगों की नजरें झेल पाना मेरे लिए कठिन होता जा रहा था। रिक्शे में चढ़ते हुए मैंने कहा - ‘इसकी कोई जरूरत नहीं। जल्दी चलो।’ लेकिन मेरी बात अनसुनी कर वह बोला -‘जरूरी तो नहीं बाबू साहब! पर गरीब आदमी दुआ देने के सिवाय और कर ही क्या सकता है?’

मैंने अनसुनी कर दी लेकिन अखबार पढ़ रहे आदमी ने रिक्शावाले की बात लपक ली। उससे एक दिन पहले, शनिवार को, आगरा के एक हिस्से में लोगों ने दुकानें लूट ली थीं और पुलिसवालों की जोरदार पिटाई कर दी थी। ये लोग, दाल, प्याज, आलू जैसी रोजमर्रा की चीजों की बढ़ती कीमतों से त्रस्त थे और मँहगाई को नियन्त्रित करने की माँग करते हुए सड़कों पर उतरे थे। यह समाचार प्रमुखता से अखबारों में छपा था। रिक्शावाले की बात सुनकर, अखबार पढ़ रहा आदमी तल्खी से तथा पूरे जोर से बोला - ‘क्यों? गरीब को करने के लिए और काम मालूम नहीं? गरीब को कई सारे काम करने पड़ते हैं। गरीब आदमी नेता को वोट दे, उसके लिए जिन्दाबाद के नारे लगाए, उसके जुलूसों में शामिल हो, उसकी झिड़कियाँ सहे, उसके वादों पर भरोसा करे, जिन्दा रहने के लिए उसके सामने गिड़गिड़ाए, उसके तलुए चाटे और फिर भी जिन्दा रहने के लिए जरूरी चीजें नहीं मिले तो आत्महत्या करले। इतने सारे काम हैं गरीब को करने के लिए और यह स्साला कह रहा है कि गरीब आदमी और कर ही क्या सकता है?’

तब तक कुछ लोग और दुकान पर पहुँच गए थे। आदमी की बातें सुनकर सब हँसने लगे। किन्तु मैं नहीं हँस पाया। रिक्शाचालक भी तनिक खिसिया गया। उसे लगा, उस आदमी ने उसे झिड़क दिया है। अपनी दुआ पर इस तरह डाँटा जाना उसे अरुचिकर लगा और उसे असहज कर गया।

रिक्शा चल पड़ा। कुछ ही मिनिटों में मैं अपने मुकाम, तार घर ग्राउण्ड पर पहुँच गया। रिक्शा से उतर कर मैंने रिक्शाचालक को भुगतान किया। उसने रुपये गिने ही नहीं। मुझे एक बार फिर धन्यवाद दिया। पाण्डाल में पहुँच कर अपने साथियों को तलाश कर उनके पास अपनी जगह बनाई। कार्रवाई शुरु हो चुकी थी। हमारे राष्ट्रीय अध्यक्षजी हमारी समस्याएँ गिनवा रहे थे। लोग खुश तथा होकर उत्तजित होकर बीच-बीच में ‘लियाफी जिन्दाबाद’ के नारे लगा रहे थे। किन्तु मुझे यह सब नहीं सुनाई दे रहा था। मुझे तो, रकाबगंज में छिपीटोला के नुक्कड़ पर स्थित सुन्दर दूध भण्डार के पास खड़े आदमी की, तल्खी में डूबी, गरीब आदमी द्वारा किए जाने वालों कामों की सूची सुनाई पड़ रही थीं।

मैं सोच रहा था, गरीब आदमी को इन कामों से मुक्ति दिलाने के लिए भी कभी, कहीं, कोई अधिवेशन होगा?

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ताजमहल और मेरा मन


ताजमहल बिलकुल नहीं बदला होगा। वैसा का वैसा ही होगा जैसा कोई सत्ताईस बरस पहले रहा होगा, जब मैं ताज देखने नहीं गया था।

वह शायद 1982 था। मेरी अवस्था 35 के आसपास रही होगी। दवाइयाँ बनाने वाली फर्म में भागीदार था। थोक विक्रेता नियुक्त करना और सरकारी अस्पतालों में से आर्डर लाना मेरी जिम्मेदारी था। यात्राएँ करनी पड़ती थीं। लगातार डेड़-डेड़ महीने तक की। घर से निकलता तो इस तरह कि रविवार का उपयोग यात्रा में हो जाए और सोमवार की सवेरे अगले मुकाम पर पहुँच जाऊँ। इसी तरह सोमवार की सवेरे आगरा पहुँचा था। उतरते ही मालूम हुआ - आगारा के बाजार सोमवार को बन्द रहते हैं। दुखी तो हुआ किन्तु कर ही क्या सकता था? होटल में डेरा डाला। नित्यकर्म से मुक्त होकर अखबार की दुकान पर गया। ढेर सारे अखबार और पत्रिकाएँ खरीद लीं। दिन भर जो गुजारना था!

चाय-अखबार का दौर शुरु हो गया। दस बजते-बजते सेवक ने आकर पूछा - ‘ताज देखने जाएँगे साहब?’ उसकी आरे देखे बगैर उत्तर दिया-‘नहीं।’ ‘पहले देख रखा होगा।’ तय कर पाना मुश्किल हुआ था कि वह तसल्ली कर रहा है या सवाल? इस बार भी मेरा जवाब ‘नहीं’ था। उसे हैरत हुई थी। पूछा - ‘अरे! फिर भी नहीं देखेंगे?’ मेरा जवाब वही था। इस बार उसे परेशानी हुई थी। पूछा - ‘क्यों साहब?’ मैंने कहा - ‘मन नहीं है।’ मुझे नहीं, मानो दुनिया के नौंवे अजूबे को देख रहा हो, कुछ इसी तरह मुझे देखते हुए वह चला गया।

कोई घण्टा भर बाद वह फिर हाजिर था, मेरे लिए चाय लेकर। उसने फिर वे ही सवाल किए। मेरे जवाब भी वे ही थे। अन्तर इतना रहा कि उसके सवालों में जिज्ञासा के साथ तनिक खिन्नता भी थी। दोपहर लगभग एक बजे मैंने कमरे मे ही भोजन मँगवाया। भोजन किया और लम्बी तान कर सो गया।

अपराह्न कोई तीन बजे उठा। चाय के लिए घण्टी बजाई। सेवक हाजिर हुआ। थोड़ी देर बाद चाय लेकर लौटा। लेकिन केवल चाय लेकर नहीं। सवाल भी साथ थे। उसने पूछा - ‘सच में ताजमहल नहीं देखा?’ मेरा जवाब वही रहा। ‘फिर भी देखने नहीं जाएँगे?’ मेरा इंकार इस बार उसे बर्दाश्त नहीं हुआ। वह मानो उबल पड़ा। तुर्शी से बोला - ‘फिर तो साहब आप बिलकुल सही जगह आए हैं। आगरा इस काम के लिए भी पहचाना जाता है। भर्ती हो जाओ और अपना ईलाज करवा लो।’ मैं हँस दिया। मेरी हँसी ने मानो साँड को लाल कपड़ा दिखा दिया। ‘बेवकूफ’, ‘जाहिल’ और ऐसी ही गालियाँ देने लगा। गालियों के अनवरत क्रम के बीच उसने कहा था - ‘फॉरेन के टूरिस्ट ताज देखने आते हैं और एक ये हैं कि कह रहे हैं कि ताज नहीं देखेंगे!’ इस बार वह आक्रामक लग रहा था। मेरी हँसी पलायन कर गई और डर ने डेरा डाल लिया। घबरा कर मैंने होटल के मैनेजर को पुकारा। नहीं, पुकारा नहीं, चिल्ला कर पुकारा। वह आया। सब कुछ सुन-देख कर उसने सेवक को भगाया। मुझसे माफी माँगी। लेकिन वह भी अपने आप को रोक नहीं पाया। पूछ बैठा - ‘वाकई में आपने अब तक ताज नहीं देखा है और इसके बाद भी आप ताज देखने नहीं जाएँगे?’ मैंने कहा - ‘हाँ, देखा भी नहीं है और देखूँगा भी नहीं।’ उसने तनिक विगलित होकर पूछा था - ‘भला क्यों साहब?’ मैंने अनुभव किया था कि अपनी बेगम मुमताज के प्रति शाहजहाँ जितना जजबाती रहा होगा, उससे कहीं अधिक जजबाती आगरा के लोग ताजमहल के प्रति हैं। मैंने चलताऊ जवाब दिया था - ‘मेरी मुमताज के बिना ताज देखना मुझे नहीं सुहाता।’ तसल्ली तो उसे शायद नहीं हुई थी किन्तु मेरा जवाब उसे ‘तहजीबी’ लगा होगा। वह भी मुझे नौवें अजूबे की तरह देखते हुए ही लौटा था।

इस बार पूरे तीन दिन आगरा रहा - सात, आठ और नौ नवम्बर। भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों के एक मात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया’ (लियाफी) के चौदहवें साधारण सम्मेलन में भाग लेने के लिए। चार एजेण्ट मित्र और साथ थे। चारों के चारों आयु में मुझसे कम से कम बीस बरस छोटे। भरपूर समय मिला था। ताज देखा जा सकता था। चारों ने कार्यक्रम बनाया। मैं उनके साथ भी नहीं गया। उन्होंने मेरे इंकार पर विश्वास ही नहीं किया। वे तो मानकर ही चल रहे थे कि उनके बनाए कार्यक्रम में मैं शामिल हूँ ही। सवाल-दर-सवाल और मनुहार-दर मनुहार। किन्तु मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। खिन्नमना होकर उन्होंने भी वही सवाल किया ‘क्यों?’ उनके सवाल पर तो नहीं किन्तु अपने जवाब पर ही मुझे ताज्जुब हुआ। शब्दों का अन्तर रहा होगा किन्तु मेरा जवाब वही रहा जो सत्ताईस बरस पहले, उस होटल मैनेजर को दिया था - ‘मेरी मुमताज के बिना ताज देखना मुझे नहीं सुहाता।’

मेरा जवाब सुनकर चारों, कनखियों से एक दूसरे को दखेकर हँस दिए और हँसते-हँसते ही चल दिए। किन्तु उनके जाने के बाद देर तक मैं अकबकाया बैठा रहा। अपना, ‘वही का वही’ जवाब मुझे ही चौंका गया। तब भी जवाब मन से निकला था और इस बार भी मन से ही निकला था, बिना सोचे-विचारे।

ताजमहल तो जड़ है। वह तो नहीं बदल सकता। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं हो सकती। किन्तु मैं और मेरा मन? ये तो सजीव हैं। जड़ नहीं। फिर?

क्या मैं भी जड़ हो गया हूँ? मेरा मन ताजमहल हो गया है?

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नौकरी और काम


कोई तीन महीनों से देख रहा हूँ, सुमित रात में देर से लौट रहा है। पहले वह साढ़े सात और आठ बजे के बीच लौट आता था। इन दिनों रात साढ़े ग्यारह बजे से पहले नहीं लौट रहा। हाँ, उसके जाने के समय में कोई बदलाव नहीं हुआ है। वही, सवेरे साढ़े नौ और दस बजे के बीच, जब मैं चाय पीकर अखबारों को पढ़ने का दूसरा दौर पूरा कर रहा होता हूँ। सवेरे का अभिवादन यथावत बना हुआ है। शाम का नमस्कार अब कभी-कभार ही हो पाता है। साढ़े ग्यारह बजते-बजते मैं सोने की तैयारी करने लगता हूँ। सो, रात की राम-राम उससे तभी हो पाती है जिस रात वह साढ़े ग्यारह बजे से पहले लौट आता है।


आज वह साढ़े आठ बजे ही लौट आया। मुझे आशंका हुई, उसकी तबीयत तो खराब नहीं? राजी-खुशी पूछने के निमित्त अपने पास बैठा लिया। वह फौरन बैठ गया। ऐसे, मानो उसे पता था कि मैं उसे बैठने को कहूँगा। बैठते ही बोला-‘बातें बाद में। पहले चाय पीऊँगा।’ चाय तो बाद में आनी थी। बातें पहले ही शुरु हो गईं।


सुमित, साधारण बीमा क्षेत्र में काम कर रही एक निजी बीमा कम्पनी के स्थानीय शाखा कार्यालय का प्रभारी है। चार जिलों का प्रभारी। भौगोलिक क्षेत्राधिकार भरपूर विस्तृत। अन्तिम गाँव कोई ढाई सौ किलोमीटर दूर। सुमित को वहाँ तक महीने में कम से कम दो बार तो जाना ही होता है। लगभग डेड़ सौ किलोमीटर की यात्रा उसे प्रतिदिन अपनी मोटर सायकिल पर करनी पड़ती है। सुमित सहित उसके कार्यालय में चार कर्मचारी पदस्थ थे। तीन ने नौकरी छोड़ दी। तीन माह हो गए हैं, नई नियुक्तियाँ अब तक नहीं हुईं। सो, इन दिनों ‘पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर’ बन, चारों का काम सुमित को ही करना पड़ रहा है। बीमे का काम भी ऐसा कि कल पर नहीं छोड़ा जा सकता। आज का काम आज ही निपटाना पड़ता है। इसीलिए सुमित को लौटने में देरी हो रही है। मैंने पूछा-‘तीन लोगों का अतिरिक्त काम करने का कोई अतिरिक्त भुगतान मिलेगा?’ ‘सवाल ही नहीं उठता।’ कहते हुए सुमित ने बताया कि इस तरह काम करने में उसे आनन्द आ रहा है। अपनी योग्यता और क्षमता प्रमाणित करने का अनूठा अवसर मानता है वह इसे। ‘स्टाफ की नियुक्ति आज नहीं तो कल हो ही जाएगी। मुझे क्या फर्क पड़ना? रात सात बजे लौटूँ या बारह बजे। केवल आराम करने और नींद निकालने के वक्त में ही तो थोड़ी कतर-ब्यौंत करनी पड़ रही है। अपनी योग्यता और क्षमता दिखाने के ऐसे मौके प्रायवेट सेक्टर में हर किसी को नहीं मिलते। मुझे मिला है तो इसे एन्जॉय भी कर रहा हूँ और एक्सप्लायट भी। जिस दिन स्टाफ आ जाएगा, उस दिन से आराम मिल जाएगा।’ ‘थकान’ उसके लिए ‘शारीरिक स्थिति’ नहीं, ‘मनःस्थिति’ है - ‘शरीर तभी थकता है, जब मन थके।’


चाय कब आई, कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला। उठते हुए सुमित बोला - ‘आज टूर पर नहीं जाना पड़ा सो जल्दी घर आ गया। शानदार चाय के साथ आपने इतनी चिन्ता से पूछ-परख कर ली तो ताजगी आ गई। फ्रेश होकर खाना खाने के बाद आज पढ़ने का मजा आ जाएगा।’


जो कुछ कहा, उससे कहीं अधिक और काफी-कुछ ऐसा और इतना अनकहा छोड़ गया कि उसके जाने के बाद, देर तक वही सब सुनता रहा। यही सुमित यदि सरकारी नौकरी में होता तो? तो भी वह इसी तरह, आधी-आधी रात तक बैठ कर, चार लोगों का काम करता? रोज का काम रोज निपटाता? और सबसे बड़ा सवाल - इतनी प्रसन्नता और बिना थकान के करता? निश्चय ही नहीं। उसे जैसे ही मालूम पड़ता कि उसके सिवाय बाकी तीनों कर्मचारी छुट्टी पर हैं, वह भी शायद देर से दफ्तर पहुँचता। अपने काम से काम रखता। बाकी तीनों कर्मचारियों में से किसी का भी काम नहीं निपटाता। निपटाता तो वही जिसमें उसका अपना कोई फायदा होता या काम किसी अपनेवाले का होता। पूरे दफ्तर का काम तो दूर रहता, खुद का रोज काम भी नहीं निपटाता और समय से पहले नहीं तो दफ्तर बन्द होने के समय तक तो निकल ही जाता। ‘साहब ने बुलाया है’ या फिर ‘मीटिंग में जाना है’ जैसे पारम्परिक बहाने बना कर दफ्तर से गायब हो जाता। यदि टूर करना उसकी ड्यूटी में होता तो वह प्रायः ही टूर पर निकल जाता, उस दिन दफ्तर आता ही नहीं और कोई ताज्जुब नहीं कि घर पर आराम करते हुए ही टूर कर लेता।


हाथ-मुँह धोकर, ताजादम हो कर सुमित भोजन करने के लिए निकला तो मुझे जस का तस बैठा देख कर पूछा - ‘आपको भोजन नहीं करना?’ ‘हाँ, करता हूँ।’ कह कर मैंने पूछा - ‘नौकरी में ऐसा कब तब और कैसे चलेगा?’ सुमित ठिठक गया। तनिक हैरत से मुझे देखा और चलते हुए बोला - ‘क्या बात करते हैं अंकल? प्रायवेट सेक्टर में नौकरी नहीं होती। वहाँ तो काम होता है। मैं नौकरी कहाँ कर रहा? अभी तो काम कर रहा हूँ। हाँ, दो-तीन प्रमोशन मिल जाएँगे, तब नौकरी करने की सोचूँगा।’


एक बार फिर सुमित काफी कुछ अनकहा छोड़ गया। मैं सुन रहा था कि हमारे सरकारी दफ्तरों में लोग काम नहीं करते, नौकरी करते हैं। और नौकरी करनेवालों में से नौकरी भी कितने करते हैं?
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001।

ये अनूठे ‘अपनेवाले’



‘आप तो अपनेवाले हैं’ जैसी ‘भावनात्मक भयादोहन’ (इमोशनल ब्लेकमेलिंग) करने वाली दुहाई देकर, अपनेवालों का, मुफ्तखोरी की सीमा छूने वाला, आर्थिक, सामाजिक शोषण करनेवालों को लेकर, 8 अगस्त 2008 की ये, अपने वाले शीर्षक मेरी पोस्ट डॉ.सत्यनारायण पाण्डे ने बरबस ही याद दिला दी। यह अलग बात है कि मैं उन विरले आपवादिक लोगों में से एक हूँ जिन्हें अपनेवालों को स्नेह, सहयोग, संरक्षण ‘अकूत’ मिला है। मैं तो जीवित ही ऐसे अपनेवालों की कृपा से रह पाया हूँ। मेरा, 1991 से लेकर अब तक का जीवन तो पूरी तरह से ‘उधार का जीवन’ ही है। अपनेवालों ने ही मुझे जीवित बनाए रखा हुआ है।

डॉक्‍टर पाण्डे मूलतः मन्दसौर जिले के गरोठ कस्बे के निवासी हैं। मेरे प्रति न केवल प्रेम अपितु आदर-सम्मान भाव भी रखते, बरतते हैं। मैं भी मूलतः मन्दसौर जिले से ही हूँ। किन्तु यह वैसा और उतना बड़ा कारण नहीं कि डॉ. पाण्डे मुझ पर इतनी स्नेह वर्षा करें। यह उनकी संस्कारशीलता ही है। यहाँ दिया गया चित्र उन्हीं डॉ. पाण्डे के परिवार का है।

अपने बेटे विपुल का बीमा कराने के लिए उन्होंने मुझे घर बलाया। विपुल ने अभी-अभी बी ई किया है। अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त एक भारतीय आई.टी. कम्पनी में उसका चयन हुआ है। उसी के ‘आय कर नियोजन’ के लिए डॉ. पाण्डे उसका बीमा करवा रहे थे।

निर्धारित समय पर मैं पहुँचा। पूरा परिवार मेरी अगवानी में उपस्थित था। मेरी योग्यता, पात्रता, अपेक्षा से कहीं अधिक ऊष्मापूर्ण आतिथ्य दिया। आहार को परास्त करता स्वल्पाहार। आकण्ठ तृप्ति ऐसी कि डकार को भी रास्ता नहीं मिला। मैंने कहा-‘मैं इस सबके लिए नहीं, बीमे के लिए आया हूँ।’ डॉ। पाण्डे सस्मित बोले-‘आप मुझे ही बता रहे हैं? आप भूल रहे हैं कि आप अपनी ओर से नहीं आए हैं। मैंने ही आपको बुलाया है।’ यह सब चल ही रहा था कि उनके एक ऐसे मित्र आए जो मुझे, बरसों से जानते थे।

मैंने कागज-पत्तर बिछाए। विभिन्न योजनाएँ बताईं। डॉ। पाण्डे ने मेरी सलाह चाही। मैंने अपनी पसन्द और उसकी विशेषताएँ, कमियाँ बताईं। जल्दी ही अन्तिम निर्णय ले लिया गया। विपुल के हस्ताक्षर करवाए, आवश्यक अभिलेख प्राप्त किए। सबसे महत्वपूर्ण बात थी - पहली किश्त की रकम का भुगतान। डॉ.पाण्डे ने चेक-बुक निकाली ही थी कि उनके साथी ने पूछा -‘दादा! आप कमीशन कितना देंगे?’ प्रश्न असुविधाजनक अवश्य था किन्तु नया और अनपेक्षित नहीं। किन्तु मैं कुछ बोलता उससे पहले ही डॉ. पाण्डे ने कोहनियों तक हाथ जोड़े और कहा -‘आपको इसलिए नहीं बुलाया है। कमीशन देने वाले ढेरों एजेण्ट चक्कर लगा रहे हैं। आपको खास तौर से बुलाया है। वह बात बाद में करेंगे। अभी तो आप चेक लीजिए।’ बात यहीं समाप्त हो गई। चेक लेकर, अपने कागज-पत्तर समेट कर मैं डॉ. पाण्डे की ओर प्रश्न-दृष्टि से देखने लगा। वे बोले-‘बाद में, फोन पर बात करेंगे।’ याने, अब मुझे वहाँ से चल देना चाहिए। वैसे भी बीमा एजेण्टों को ‘समझाइश’ दी जाती है कि नए बीमे का भुगतान मिलते ही जगह छोड़ देनी चाहिए। अधिक देर बैठ कर बातें करने लगे और इसी बीच बीमा कराने वाले का विचार बदल गया तो? ‘आत्म हत्या करने का और बीमा कराने का निर्णय एक जैसा है। टल गया तो टल गया।’ जैसे वाक्य हम बीमा एजेण्टों को प्रत्येक प्रशिक्षण शिविर में कहे जाते हैं। सो, मैं नमस्कार कर चला आया।

मैं आ तो गया किन्तु मन में उलझन बनी हुई थी-वह खास बात क्या होगी जिसे डॉक्‍टर पाण्‍डे ने आमने-सामने नहीं कही? प्रश्न एक और सम्भावित उत्तर असंख्य, किन्तु एक पर भी विश्वास नहीं होता। झुंझलाकर खुद से कहा-‘क्यों पेरशान हो रहे हो? इस सवाल को निकाल फेंको अपने मन से। डॉ.पाण्डे जब कहेंगे तभी तो मालूम हो सकेगा?’ अपने इस ‘विवेकी परामर्श’ पर मुझे प्रसन्न होना चाहिए था। किन्तु नहीं हो सका क्योंकि प्रश्न मन से निकल ही नहीं

धैर्य की अच्छी-खासी परीक्षा हो गई तब आया डॉ. पाण्डे का फोन। उन्होंने जो कुछ कहा वह सब मेरे लिए कल्पनातीत था। उनकी कही ‘खास बात’ के सामने, कमीशन की रकम का बड़े से बड़ा आँकड़ा भी क्षुद्र ही नहीं, हेय और त्याज्य बन जाए। उन्होंने कुछ ऐसा कहा-‘आप मेरे अपने इलाके के हैं और उम्र में मुझसे बड़े हैं केवल यही कारण नहीं है। आपकी जीवन शैली और जीवन दर्शन मुझे भाता है। आप जिस तरह से जोखित लेते हैं और अपने जीवन मूल्यों के लिए कीमत चुकाते हैं, वह सब मुझे न केवल अच्छा लगता है बल्कि यह भी लगता है कि हम सबने भी ऐसा ही करना चाहिए। अब, यदि वह सब नहीं कर पाएँ तो क्या किया जाए? तब यही किया जाए कि जो लोग वाजिब बातों के लिए कीमत चुका रहे हैं, उनके साथ खड़ा हुआ जाए, उनकी मदद की जाए, उन्हें ताकतवर बनाया जाए ताकि वे अच्छे बने रह सकें। मुझे मालूम है कि कमीशन की रकम अच्छी-भली है और मुझे जैसे मध्यमवर्गीय व्यक्ति को ललचाने के लिए पर्याप्त है। किन्तु वह इतनी बड़ी भी नहीं कि आत्मा की बोलती बन्द कर दे। मैं आपको कैसे समर्थन दूँ, कैसे आपके साथ खड़ा रहूँ, कैसे आपको ताकतवर बनाऊँ-यह सवाल मेरे मन में लगातार उठता रहता है। ऐसे में जब विपुल का बीमा कराने का विचार आया तो लगा कि यही वह मौका है जब मैं वह सब कर सकूँ जो मैं आपके लिए सोचता रहा हूँ। इसीलिए आपको खास तौर पर बुलाया। मुझे यह परेशानी नहीं है कि कमीशन की रकम कितनी बड़ी या छोटी है। मुझे इस बात की खुशी है कि मैं आपकी सहायता करने का अवसर पा सका। यह सब आपके सामने कह पाना सम्भव नहीं था इसलिए उस वक्त चुप रहा। अब फोन पर कह रहा हूँ। मेरी भावनाओं को समझने की कोशिश कीजिएगा और कमीशन की रकम वापसी की बात भूल जाइएगा।’

इसके बाद वही हुआ जिसके लिए मैं ‘बदनाम’ हूँ। मेरा गला रुँध चुका था, इतना कि डॉ. पाण्डे को धन्यवाद दे पाना भी सम्भव नहीं हो पाया। खुद डॉ.पाण्डे उधर भावातिरेकी हो गए थे। साफ लग रहा था कि वे जल्दी से जल्दी अपनी बात समाप्त करना चाह रहे हैं। बात जल्दी ही समाप्त हो भी गई किन्तु ऐसा पहली बार हुआ कि फोन के दोनों छोरों पर बात करने वालों ने नमस्कार किए बिना बात बन्द कर दी।

मुझसे कमीशन न लेने के मामले में डॉ. पाण्डे न तो अकेले हैं और न ही पहले। डॉ. सुभेदार दम्पति तो मुझे घर आकर ऐसे झनझना गए कि लगभग ग्यारह वर्ष बाद भी वह जस की तस बनी हुई है। ऐसे कृपालुओं की सूची बनाना मुझे थका देगा। जितना स्नेह, सहयोग, संरक्षण मुझे मिला है उतना क्या किसी बीमा एजेण्ट को मिला होगा और मिलेगा? किन्तु डॉ. पाण्डे ने जो कुछ कहा उसने मुझे विगलित और विचलित कर दिया। इतना कि गंगा जल जैसा पावन और हिमालय को बौना करने वाला यह शुभ्र, धवल, ज्वाजल्य संस्मरण लिखने के लिए सहज होने में मुझे पूरे नौ दिन लग गए।

जब डॉ. पाण्डे यह सब कह रहे थे तो मुझे मेरे अग्रजवत एक कृपालु की याद आती रही जिन्होंने अपने बेटे का बीमा मुझसे केवल इसलिए नहीं करवाया क्योंकि वे मुझे कमीशन माँग नहीं पाते। उन सज्जन की धन-सम्पन्नता के सामने डॉ. पाण्डे तो बैरागी से भी गये बीते हैं। शायद ऐसे ही प्रसंगों पर पैसे की व्यर्थता और क्षमताविहीनता को बोध होता है।

डॉ. पाण्डे को धन्यवाद दे पाना मेरे लिए अभी भी सम्भव नहीं हो पाया है। उन्हें पत्र लिखना चाहा। किन्तु पाँच बार ऐसा हुआ कि लिखना शुरु किया और लिख नहीं पाया। एक बार फोन पर बात अवश्य की किन्तु वह कुछ भी नहीं कह पाया जो कहना चाहता था। ‘बड़ा होना अच्छा है किन्तु बड़प्पन उससे भी अच्छा है’ वाला मुहावरा अब तक पढ़ा और सुना ही था, साकार होते देखने के प्रसंग आपवादिक ही आए। यह उन सबमें प्रमुख हो गया।अभी भी तय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या कहूँ। यही कह पा रहा हूँ कि डॉ.पाण्डे जैसे संरक्षक प्रत्येक व्यक्ति को मिले और ईश्वर, मुझ जैसा बड़भागी प्रत्येक को बनाए।

धन-सम्पत्ति के लिए बेटे द्वारा माँ-बाप की हत्या कराने की सुपारी देने वाले समय में समूचा प्रसंग बिलकुल ही ‘फिट’ नहीं बैठता। सरासर झूठ लगता है। ऐसे में मोबइल नम्बर 94250 91185 पर डॉ.पाण्डे से बात कर तसल्ली की जा सकती है।

(चित्र में बांये से - विपुल पाण्डे, डॉक्टर पाण्‍‍डे, श्रीमती विमला पाण्‍‍डे औ‍र प्रांजलि पाण्‍डे)

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