मेरे साथ ऐसा क्यों होता है ? मैं अभिधा में क्यों नहीं जी पाता ? व्यंजना में क्यों चला जाता हूं ? मेरे दुखों का कारण भी यही लगता है । मुझे दुखी होने के लिए किसी और की क्या आवश्यकता ? मैं खुद ही काफी हूं । शायद इसीलिए, डाक्टर समीर की जिस बात पर मुझे फूल कर कुप्पा हो जाना चाहिए था, उस पर रुंआसा हो गया ।
पहली अगस्त की सवेरे पत्नी अचानक अस्वस्थ हो गई । तत्काल ही डाक्टर सुभेदार साहब के आशीर्वाद नर्सिंग होम में भर्ती कराया । दिन भर की चिकित्सा के बाद रात होते-होते डाक्टर साहब ने घर जाने की अनुमति दे दी । डिस्चार्ज टिकिट के साथ ही मैं ने बिल मांगा तो डाक्टर समीर व्यास बोले - ‘आपसे क्या पैसे लेना ? आप तो अपने वाले हैं ।’ मुझे अच्छा तो लगा लेकिन यह तर्क ठीक नहीं था । मैं ने आग्रह किया कि बेशक वे परामर्श सेवाओं का मूल्य न लें लेकिन ‘वास्तविक लागत मूल्य’ तो लेना ही चाहिए और मैं ने भी देना ही चाहिए । लिखते-लिखते डाक्टर समीर रुक गए । बोले - ‘यही बात आपको सबसे अलग करती है । आप अपने वालों की चिन्ता करते हैं ।’ फिर उन्होंने जो किस्सा सुनाया, वह सीधा मुझसे जुड़ा हुआ था और जिसे सुनकर मैं रुंआसा हो आया ।
यह कम से कम ग्यारह वर्ष पुरानी घटना है । एक विवाह भोज में दूषित मावा प्रयुक्त होने से ‘गाजर का हलवा’ विषाक्त हो गया । आयोजन के आनन्द से मगन लोग अपने-अपने घर तो समय पर लौटे लेकिन जल्दी ही, एक के बाद एक, अस्पतालों में पहुंचने लगे । सरकारी और नगर के तमाम निजी अस्पताल छोटे पड़ गए । मैं और मेरा बड़ा बेटा वल्कल भी प्रभावित हो, आशीर्वाद नर्सिंग होम में भर्ती हुए । रात भर ग्लुकोज सलाइन चढ़ती रही । अगली सवेरे अपना बिल भुगतान कर बाप-बेटा घर लौट आए । बात आई गई हो गई ।
यह घटना सुनाने के बाद डाक्टर समीर बोले - ‘बैरागीजी ! उस रात भर्ती होने वालों में से केवल आपने बिल चुकाया । बाकी सारे लोग बड़ी ही सहजता से यह कह कर चले गए कि जिसने भोजन कराया था, वही बिल भुगतान करेगा ।’ प्रसन्नता का आवेग मुझ पर हावी होता उससे पहले ही मेरा गला भर आया । मुझे भली प्रकार पता था कि उस रात भर्ती होने वालों में ऐसे धनपति भी थे जो ‘मुझ जैसे सौ-दो सौ बैरागी’ खरीद सकते हैं । अस्पताल का बिल चुकाना उनके लिए बांये हाथ की कनिष्ठिका की हलकी सी हरकत से भी छोटी बात थी । फिर उन्होंने बिल क्यों नहीं चुकाया ? उन्होंने अपनी ओर से कैसे घोषणा कर दी कि मेजबान ही उनका बिल चुकाएगा ? निश्चय ही उनके मन में यही भाव रहा होगा - वे हमारे अपने वाले हैं सो वे चिन्ता तो करेंगे ही और भुगतान भी करेंगे ही ।
हम सब कहते हैं कि बांटने से सुख बढ़त है और दुख कम होता है । मेजबान ने अपनी खुशी में हमें शरीक होने के लिए बुलाया था । ऐसे निमन्त्रणों से दोनों का सम्मान बढ़ता है । अतिथियों को आयोजन का भरपूर आनन्द आए - यह कोशिश प्रत्येक मेजबान की होती ही है । वह अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं रखता । उत्कृष्ट व्यवस्थाएं, श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले स्वादिष्ट व्यंजन जुटाता है । इसके बाद भी यदि कोई अनहोनी हो जाती है तो इसे दुर्योग के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? ऐसे दुर्योग से उपजे कष्ट में हम मेजबान का वजन हल्का करें - यह प्रत्येक अतिथि की नैतिक और न्यूनतम जवाबदारी बनती है । वह यदि हमें अपनेपन के कारण आनन्द में शामिल कर रहा है तो यही अपनापन लौटाना हमारी जिम्मेदारी बनती है । लेकिन हम ऐसा नहीं करते । उल्टे, उसके दुखों से पल्ला झाड़कर दूर खड़े हो जाते हैं - जैसा कि इस मामले में हुआ ।
अतिथियों के प्राण संकट में पड़ जाने की कल्पना मात्र से ही मेजबान के प्राण कण्ठ में आ गए होंगे । उसे अपने सारे देवी-देवता याद हो आए होंगे । उसकी प्रत्येक सांस के साथ यही प्रार्थना रही होगी कि इस विषाक्त भोजन से किसी की मृत्यु न हो जाए । इस दुर्घटना के कारण वह आजीवन अपने आमन्त्रित अतिथियों के सामने संकोचग्रस्त मुद्रा में बना रहेगा । उसकी आत्मा से यह भार शायद ही कभी उतर पाए । जब-जब उसकी सन्तान के विवाह की वर्षगांठ आएगी, दुर्घटना की कसक उसके पूरे परिवार का आनन्द भंग कर देगी । बड़ी से बड़ी रकम इसकी भरपाई कभी नहीं कर पाएगी ।
इसके साथ ही साथ उसे यह बात भी याद आएगी कि जिन अपनेवालों को उसने अपनी खुशी में शरीक किया था, उनमें से एक भी उसके दुख में शरीक नहीं हुआ । यह विचार उसे जीवन में कितनी बार उदास कर देगा ?
डाक्टर समीर की बात सुनकर मुझे अपने व्यवहार पर आत्म सन्तोष तो हुआ लेकिन अपनेवाले के प्रति अपनेवालों का यह व्यवहार मुझे व्यथित कर गया । हम कैसे अपने वाले हैं जो केवल लेने में ही विश्वास करते हैं, देने में बिलकुल ही नहीं ?
लेकिन मैं ऐसा आपवादिक व्यवहार कैसे कर पाया ? जवाब में कोई बीस बरस पहले की घटना आंखों के सामने नाच उठी ।
वह घटना फिर कभी ।
insaan sukh baanta nahi botarne me laga rehta hai aur dukhon ko jitna sambhav ho sake agal-bagal,nate-rishtedaaron par transfer karne me juta rehta hai isliye ye sab hota hai.shayad ye system ban gaya hai,lekin is se aap jaise bairagiyan ko wichalit hone ki zarurat nahi hai.aap achhe insaan hain yehi kafi hai
ReplyDeleteबैरागी जी,
ReplyDeleteबहुत अच्छा प्रसंग सुनाया आपने. बड़प्पन बड़ी चीज़ तो है ही बड़ी दुर्लभ भी है. जिनको अपनों का ख्याल है उन्हें गैरों का भी होता है. सद्गुणों को फैलाते रहिये.
दिल को छू लेने वाला प्रसंग सुनाया.दुसरे का इंतज़ार है
ReplyDeleteयही आपका बड़प्पन है.
ReplyDeleteऔर यही चीज आपको हम जैसे दुसरे इंसानों से अलग और इस्पेशल बनती है.
आप बहुत सही कह रहे हैं,हम बहुत स्वार्थी होते जा रहे हैं। सच में, मेजबान हममें से कोई भी हो सकता था।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आप उन्हें आभार कहिए जिन से आप को ये संस्कार मिले। संस्कार हीनता ही इस बीमारी की जड़ है।
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