बापू कथा: चौथी शाम (12 अगस्त 2008)


आज नारायण भाई बहुत सतर्क होकर बोले । सारे प्रसंग थे ही ऐसे । बापू के चर्चित मतभेदों में से तीन पर उन्होंने काफी कुछ कहा लेकिन सर्वाधिक विस्तार दिया डाक्टर भीमराव अम्बेडकर से हुए मतभेद-प्रकरण को । आजादी के 61 वर्ष पूरे होते समय भी, अगड़ों-पिछड़ों, दलितों-सवर्णों की समस्या का लगभग जस का तस रहना ही इसका कारण रहा होगा । सुभाष-गांधी मतभेद प्रकरण पर उससे कम और भगतसिंह प्रकरण पर सबसे कम बोले । लेकिन शुरुआत की उन्होंने ‘सत्याग्रह‘ के तात्विक विवेचन से ।

नारायण भाई के मुताबिक सत्याग्रह में पे्रम की ताकत, आत्मा की ताकत और स्वैच्छिक कष्ट सहन करने की ताकत जैसे तीन प्रबल तत्व निहित हैं । प्रेम सदैव ही देने की चीज होती है, लेने की नहीं । ‘अंग्रेजों ! भारत छोड़ो’ के नारे में भी अंगे्रजों के प्रति पे्रम था । उन्होंने अंग्रेजों को कहा था कि जितना अधिक समय आप भारत में रहेंगे उतना ही अधिक आपका नुकसान होगा क्योंकि आपकी नैतिक प्रतिष्ठा जनमानस में दिन-प्रति-दिन कम होती जाएगी । नुकसान में कमी होना भी लाभ ही होता है । इसलिए आपका हित इसी में है कि आप जल्दी से जल्दी भारत छोड़ दें । देश्‍ को अंग्रेजों से मुक्त कराने में भी बापू ने अंग्रेजों के हितों की यह चिन्ता इसी प्रेम भाव के अधीन की ।

प्रेम, वेदना का वाहक है जिसे आत्मा की ताकत के दम पर ही सहन कर, साधक बना जा सकता है । आत्मा सबमें समान रूप से विद्यमान होती है । इसी कारण, एक की पीड़ा दूसरे की आत्मा तक पहुंचती है ।स्वैच्छिक कष्ट सहन (वालण्टरी सफरिंग) के विचार को पश्चिम के लोगों ने ‘नकारात्मक’ (निगेटिव) माना क्योंकि वहां तो सारे उपक्रम ही ‘सफरिंग’ को समाप्त करने के लिए होते हैं । ऐसे में भला ‘सफरिंग’ को स्वैच्छिक रूप से कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? लेकिन बापू के अनुसार - यह ताकत होती है, ‘आपको कष्ट न देते हुए मैं अपनी वेदना आप तक पहुंचा रहा हूं’ की अनुभूति कराने की ताकत।

‘सत्याग्रह’ को नारायण भाई ने ‘सामाजिक क्रान्ति या परिवर्तन के लिए प्रेरक तत्व’ कहा जो ‘मानवता को गांधी की अनुपम देन’ है । नारायण भाई ने इसे ‘गांधी की देन’ कहा । कुछ लोग इसे ‘गांधी की खोज’ कहते हैं जो उचित नहीं है । नारायण भाई के मुताबिक, यह (सत्याग्रह) तो समाज में पहले से ही विद्यमान था लेकिन इससे परिचित कोई नहीं था । गांधी ने तो इसे केवल व्यक्त किया । परिवर्तन के लिए इससे पहले तक दो ही पे्ररक तत्व थे -‘लोभ’ और ‘भय’ ।

मतभेद और गांधी

79 वर्ष का दीर्घ जीवन और उसमें भी अन्तिम 50 वर्ष अत्यन्त सक्रियता वाले । इतने लम्बे समय में मतभेद तो होंगे ही और हुए भी । लेकिन गांधी ने ‘मतभेद’ को कभी भी ‘मनभेद’ में बदलने नहीं दिया । इस बिन्दु पर गांधी की मानसिकता एक प्रसंग से नारायण भाई ने रेखांकित की । ईसाई समुदाय की एक महिला ने कहा - ‘बापू ! आपने ईसा के तीन सन्देशों को अपनाया है ।’ बापू ने पूछा - ‘कौन-कौन से ?’ महिला ने कहा - ‘परस्पर प्यार करो, पड़ौसी से प्यार करो और दुश्‍मन को प्यार करो ।’ बापू ने कहा - ‘तब तो मैं ने ईसा के तीनों सन्देशों को नहीं अपनाया ।’ महिला ने जिज्ञासा भरी नजरों से देखा । बापू ने कहा -‘परस्पर प्यार करो और पड़ौसी से प्यार करो वाले सन्देश तो मैं जानता हूं लेकिन दुश्‍मन को कैसे प्यार करूं ? मैं तो किसी दुश्‍मन को जानता ही नहीं !’ नारायण भाई ने कहा - ‘बापू का किसी से मनभेद न होने का रहस्य इसी सूत्र में है ।’



मतभेद और मनभेद को लेकर नारायण भाई ने एक रोचक प्रसंग और सुनाया । तब, 1922 में बापू को पहली बार लम्बी (6 माह की) जेल हुई थी और उन्हें यरवदा जेल में रखा गया था । उन्हें अपेण्डीसाइटिस हो गया जो उस समय प्राणलेवा रोग माना जाता था । उसके लिए आपरेशन किया जाना था । तब के कानूनों के मुताबिक अस्पताल का सिविल सर्जन ही जेल प्रभारी होता था । उसने कहा - ‘आपरेशन करना पड़ेगा । अपने रिश्तेदारों, नजदीकी लोगों को बुला लो । लेकिन समय बहुत कम है ।’ जाहिर था कि ‘बा’ को साबरमती से पूना बुला पाने का समय नहीं था । तब डाक्टर ने सुझाव दिया कि बम्बई, पूना में यदि कोई हो तो उन्हें बुला लो । बापू बोले - ‘पूना में मेरे तीन नजदीकी लोग हैं । मैं उनके नाम देता हूं । उन्हें बुला लें ।’ उन्होंने पहला नाम लिया नरसिंह चिन्तामण केलकरजी का जिनसे बापू के राजनीति मतभेद सारा देश जानता था । दूसरा नाम लिया श्रीनिवासजी शास्त्री का जिनसे बापू के प्रबल वैचारिक मतभेद थे । तीसरा नाम उन्होंने बताया, खादी भण्डार के सेवक का । लेकिन वे उसका पूरा नाम नहीं जानते थे । केवल पहला नाम बता पाए - हरि ।


हरि को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि बापू ने उसे अपने नजदीकी लोगों में शामिल किया है । उसने कहा कि बापू ने कोई और ‘हरि‘ बताया होगा क्यों कि बापू से उसका घनिष्ठ तो क्या नाम मात्र का भी सम्बन्ध कभी नहीं रहा । लेकिन बापू ने नाम तो उसी का बताया था ।

आपरेशन सम्पन्न होने के बाद केलकरजी और शास्त्रीजी ने अपने अलग-अलग लेखों में इस घटना का वर्णन किया और अत्यन्त विस्मयपूर्वक लिखा - ‘इस आदमी ने हम पर इतना विश्वास जताया !’

अम्बेडकर-गांधी मतभेद

इन दोनों युग-पुरुषों के मतभेदों को लेकर लोगों ने दोनों को एक दूसरे का दुश्मन साबित करने के जिए क्या-क्या नहीं कहा और क्या-क्या नहीं लिखा । लेकिन हकीकत उस सबसे कोसों दूर थी । नारायण भाई ने इस विषय पर एकाधिक प्रसंगों के रोचक संस्मरण सुनाए ।

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक । गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे - अम्बेडकर और गांधी । गांधी का एक ही एजेण्डा था - स्वराज । उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी । अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी । वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनि”िचत करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे । परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई । अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं । उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है ।

बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया । उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । इसी क्रम में उन्होंने यह कहकर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी । सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे । सो, सबको अब गांधी के भा’षण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।



गांधी उठे । उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया - ‘थैंक् यू सर ।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए । बैठक समाप्त हो गई । इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया ।



बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते तो भी मुझे अचरज नहीं होता ।’

गोल मेज परिषद् की इस बैठक से बापू बम्बई लौटे तो उनके स्वागत के लिए बन्दरगाह पर दो लाख लोग एकत्रित थे । तब एक अंग्रेज ने कहा - किसी पराजित सेनापति का ऐसा स्वागत कहीं नहीं हुआ । बैठक की परिणति पर पत्रकारों ने बापू से प्रतिक्रिया चाही तो बापू ने कहा - ‘खाली हाथों लौटा हूं, मैले हाथों नहीं ।’


दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मण्डलों का निर्णय प्रधानमन्त्री पर छोड़े जाने की घोषणा पर बापू ने तत्काल कहा - वे मेरे शव पर ही ऐसा कर सकेंगे ।

उस दिन सोमवार था जो बापू के मौन का दिन होता था और शाम की प्रार्थना के बाद बापू का लिखा हुआ भाषण पढ़ा जाता था । प्रार्थना के बाद सुशीला बहन ने भाषण पढ़ना शुरु किया तो पढ़ते-पढ़ते ही मालूम हुआ कि उस दोपहर से बापू ने अपना उपवास शुरु कर दिया है । नारायण भाई ने कहा - बापू ने अपने जीवनकाल में 30 बार उपास किए लेकिन यह पहला उपवास था जिसकी घोषणा वे 6 माह पहले ही कर चुके थे ।

अनशन का समाचार फैलते ही पहली ‘हरकत’ हुई कि देश भर के प्रमुख हिन्दू मन्दिरों के दरवाजे, दलितों के लिए खुलने लगे । बापू का अनशन समाप्त हुआ तो अम्बेडकर उनसे मिलने पहुंचे और कहा - ‘बापू ! आप हमारा विरोध तो कर रहे हैं लेकिन हमें दे क्या रहे हैं ?’ जवाब देने से पहले बापू ने अम्बेडकर की इस बात के लिए विशेष प्रशंसा की कि और धन्यवाद दिया कि उन्होंने घुमा फिराकर बात करने के बजाय सीधे-सीधे अपनी बात कही । बापू ने कहा - 'आप जन्म से अस्पृश्य हैं और मैं स्वेच्छा से अस्पृश्य बना हूं ।’ बात का मर्म अनुभव कर अम्बेडकर ने कहा - ‘ये सारी बातें आप यदि गोल मेज बैठक में कह देते तो आपको, हम सबको इतना कष्ट नहीं देखना पड़ता ।’ बापू का उत्तर था - ‘तब अस्पृश्यता के विरोध का ऐसा वातावरण कैसे बनता ?’ और इसके बाद बापू ने कहा था कि केवल कानून बना लेने से कुछ नहीं होगा, सवर्ण समाज का दिमाग बदलना होगा ।


अम्बेडकर की चिन्ता थी कि जब तक बापू जीवित हैं तब तक तो ठीक है लेकिन बापू के न रहने के बाद क्या होगा ? इसलिए सुनिश्चित संवैधानिक व्यवस्था होनी ही चाहिए । उन्होंने मुसलमानों के लिए आरक्षित निर्वाचन मण्डलों का उदाहरण दिया (जो गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने से पहले ही किया जा चुका था) तो बापू ने पूछा - ‘मुसलमान तो आजीवन मुसलमान ही रहना चाहेंगे लेकिन क्या दलित भी आजीवन दलित ही रहना चाहेंगे ?’

जब सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की बात आई तो अम्बेडकर ने 70 क्षेत्रों की मांग की । तब बापू ने कहा - इतने से काम नहीं चलेगा । जितनी आपने मांगी है, उसकी दुगुनी से एक अधिक याने 141 होनी चाहिए ।

इतने सारे उदाहरणों के बाद नारायण भाई ने कहा - अन्ततः डाक्टर अम्बेडकर ने कहा -‘बापू आपके साथी और चेले मुझे उतना नहीं समझते जितना आप समझते हैं । आप-हम ज्यादा नजदीक हैं ।’

नेहरू के मन्त्रि-मण्डल में अम्बेडकर


नेहरु अपने मन्त्रि-मण्डल के सदस्यों की सूची को अन्तिम रूप दे रहे थे तो संयोगवश बापू भी दिल्ली में ही थे । नेहरु ने अपनी सूची बापू के पास भेजी । बापू ने पूरी सूची देखी और सबसे अन्त में अपने हाथों से डाक्टर अम्बेडकर का नाम जोड़ दिया । नेहरु को आश्चर्य हुआ । उन्होंने कहा - ‘बापू ! अम्बेडकर ने आजीवन कांग्रेस का विरोध किया है और आपने उनका नाम मन्त्रियों की सूची में लिखा ?’ बापू ने प्रतिप्रश्न किया - ‘तुम भारत की सरकार बना रहे हो या कांग्रेस की ?’ और सारी दुनिया ने डाक्टर अम्बेडकर को स्वाधीन भारत के प्रथम कानून मन्त्री के रूप में देखा ।

सम्विधान सभा के सभापति अम्बेडकर

सम्विधान सभा के गठन की तैयारियां चल रहीं थीं । बापू ने नेहरु से इस बाबत जानना चाहा । नेहरु ने बताया कि किसी विदेशी विशेष‍ज्ञ की सेवाएं लेने के लिए पत्राचार चल रहा है । यह विशेषज्ञ कोई अंग्रेज था । बापू ने पूछा - ‘इस काम के लिए तुम्हें देश में कोई आदमी नहीं मिला ?’ नेहरु ने पूछा - ‘देश में कौन है ?’ ‘और कौन ? अपने अम्बेडकर हैं तो !’ बापू ने जवाब दिया । यह जवाब उसी ‘गांधी’ ने दिया था जिसके लिए अम्बेडकर ने गोल मेज परिषद् में कहा था कि गांधी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । और सारा पत्राचार स्थगित हो गया । डाक्टर भीमराव अम्बेडकर, सम्विधान सभा के सभापति बना दिए गए ।


अम्बेडकर-गांधी मतभेद प्रकरण के समापन में नारायण भाई ने बड़ा ही मार्मिक प्रसंग सुनाया जिससे अनुभव किया जा सकता था कि इन दोनों महामानवों के बीच कितनी आत्मीयता रही होगी ।


तब बापू का निधन हो चुका था । अखबारों का पुलिन्दा उठाए, अपने आप में मगन, प्यारेलालजी कनाट प्लेस में चले जा रहे थे । पीछे से आती एक कार उनसे लगभग टकराती हुई निकली । प्यारेलालजी भन्ना गए । लेकिन वे कुछ कहते उससे पहले ही कार रुकी । फाटक खोलकर अम्बेडकर उतरे । प्यारेलालजी को एक निमन्त्रण पत्र थमाया और कहा - ‘यह मेरे विवाह का निमन्त्रण है, आपको आना है ।’ फिर बोले - ‘आज बापू होते तो कितने खुश होते । वे मुझे और मेरी पत्नी को आशीर्वाद देने जरूर आते क्यों कि मेरी पत्नी सवर्ण है और बापू ने उन्हीं जोड़ो को आशीर्वाद देने का निर्णय लिया था जिनमें एक हरिजन और दूसरा सवर्ण हो ।’


सुभाष-गांधी मतभेद

इन दोनों के मतभेद जग जाहिर रहे । किसी ने किसी से कुछ भी नहीं छुपाया । आजादी की लड़ाई के साधनों की शुचिता पर दोनों में आधारभूत मतभेद थे । आजादी हासिल करने के लिए सुभाष को हिंसा और विदेशी सहायता से परहेज नहीं था जबकि गांधी इन दोनों के खिलाफ थे । सुभाष स्वभाव से ही उग्र और आतुर थे - उन्हें आजादी जल्दी से जल्दी चाहिए थी जबकि गांधी स्वभाव से शान्त तथा ‘व्यावहारिक आदर्शवादी’ (प्रेक्टिकल आयडियोलिस्ट) । गांधी का कहना था जिस देश की मदद से आजादी हासिल करोगे, उसके गुलाम बन जाओगे ।

विट्ठल भाई पटेल और सुभाष ने जिनेवा में अपने संयुक्त हस्ताक्षरों से दिए वक्तव्य में कहा कि अहिंसा का रास्ता अपने समापन बिन्दु (सेचुरेशन पाइण्ट) पर आ गया है । अब रास्ता और नेतृत्व बदल दिया जाना चाहिए ।

इस वक्तव्य के सार्वजनिक होने के बाद, कांग्रेस के हरिपुरा सम्मेलन में गांधी के सुझाव से सुभाष को कांग्रेसाध्यक्ष बनाया गया । लेकिन एक साल बीतते न बीतते अध्यक्ष और कार्यकारिणी में गम्भीर मतभेद उभर आए ।

अगले चुनाव में सुभाष, पट्टाभि सीतारमैया को हराकर प्रचण्ड बहुमत से जीते । तब बापू ने कहा - ‘पट्टाभि की हार, मेरी हार है ।’ त्रिपुरी कांग्रेस सम्मेलन के समय गांधी राजकोट में उपवास पर थे । यदि उन्हें सुभाष का रास्ता रोकना होता तो यह बात वे चुनाव से पहले भी कह सकते थे । कांग्रेस कार्यसमिति का बहुमत तब भी सुभाष के पक्ष में नहीं था । तय हुआ कि अध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी का गठन बापू की राय से करें । सुभाष बापू के पास पहुंचे और सलाह मांगी । बापू ने पूछा - इस मामले में सम्विधान क्या कहता है ? (कांग्रेस का सम्विधान सन 1919 में तिलक महाराज के आग्रह पर गांधीजी ने ही बनाया था जो गांधीजी की वैचारिकता के प्रबल और जगजाहिर विरोधी थे।) सुभाष ने कहा - ‘सम्विधान कहता है कि अध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी का गठन करेगा ।’ बापू ने कहा - ‘तो फिर करो । मुझसे क्या पूछते हो ?’



नारायण भाई ने कहा - जिस सुभाष से गांधी के मतभेद की बात कही जाती है, उस सुभाष की देशभक्ति पर गांधी को कभी भी सन्देह नहीं रहा । सुभाष की मृत्यु पर जब गांधी ने, सुभाष की मां को शोक सन्देश का तार भेजा तो अंग्रेजों ने उन्हें ‘फासिस्टों का समर्थक’ कहा । तब बापू ने कहा - ‘शो मी ए पेटियोट्रिक मेन देन सुभाष’ ( सुभाष से बड़ा और कोई देशभक्त हो तो मुझे बताओ ।)


नारायण भाई ने अनूठी सूचना दी - बापू को राष्ट्रपिता का अलंकरण भारतीय संसद ने बाद में दिया । सुभाष तो बरसों पहले ही उन्हें राष्ट्रपिता का सम्बोधन दे चुके थे ।

भगतसिंह प्रकरण

इस प्रकरण पर नारायण भाई बहुत कम बोले । उन्होंने कहा - ‘इन दोनों की कभी भेंट नहीं हुई ।’ ‘बापू चाहते तो भगतसिंह को फांसी से बचा सकते थे’ जैसी सारी बातें मिथ्या हैं । केवल भगतसिंह ही नहीं, उनके दोनों साथियों (सुखदेव और राजगुरु) को भी फांसी न हो, इसके लिए बापू ने कम से कम 6 बार प्रयत्न किया और ये तमाम बातें दुनिया जाने न जाने, इतिहास में दर्ज हैं । आक्रोशित भीड़ ने जब बापू को घेर लिया और लोगों ने बीच बचाव किया तो बापू ने उन्हें रोका और कहा कि यदि उन्हें लगता है कि मैं ने भगतसिंह के प्राण नहीं बचाए तो उन्हें ऐसा मानने दो । मैं ने जो भी किया है उसे मैं और मेरा ईश्वर जानता है । उनसे कहा गया कि वे बताते क्यों नहीं कि उन्होंने क्या किया ? बापू ने कहा कि अपने किए का बखान कर वे अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनेंगे ।

क्रान्तिकारियों से अपने मतभेद बापू ने कभी नहीं छुपाए । उनका पहला मतभेद साधनों को लेकर था और दूसरा मतभेद था कि वे (बापू) किसी दल विशेष के बजाय देश के प्रति आग्रही थे । लेकिन क्रान्तिकारियों के साहस और देश के लिए प्राण न्यौछावर कर देने के जज्बे के कायल थे ।


पुत्र हरिलाल से मतभेद

बापू पर यह आरोप अब तक लगता है कि उन्होंने सारी दुनिया की चिन्ता की लेकिन अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं किया । हरिलाल गांधी का नाम ऐसे प्रसंग में बार-बार लिया जाता है । हरिलाल उनके सबसे बड़े बेटे थे । लेकिन बापू ने अपने बेटे और देश के किसी भी बेटे में भेद नहीं किया ।

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद, भारत से एक व्यक्ति को फीनिक्स आश्रम भेजा जाना था जो प्रशिक्षित होकर भारत लौटता । हरिलाल को अपेक्षा थी कि बापू उन्हें ही भेजेंगे । लेकिन बापू ने किसी और का नाम दिया । ऐसा बाद में दो बार और हुआ । हरिलाल इससे क्षुब्ध और क्रुध्द हुए । जबकि वास्तविकता यह थी कि जिन-जिन के नाम प्रस्तावित किए गए वे सब हरिलाल से अधिक शिक्षित थे (हरिलाल मेट्रिक भी नहीं कर पाए थे) और हरिलाल को फीनिक्स आश्रम में काम करने की शर्त भी मंजूर नहीं थी ।

नारायण भाई ने कहा - हरिलाल और बापू में कुछ समानताएं थीं । दोनों स्पष्ट वक्ता और अपनी बात पर डटे रहने के धनी । लेकिन मतभेदों के बावजूद दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था । ‘बा’ कहती - ‘हरिलाल ! आ जाओ ।’ हरिलाल कहते - ‘बा ! मैं तुम्हारे आश्रम में आने के काबिल नहीं रहा ।’ गांधी के अन्तिम संस्कार के समय हरिलाल भी भीड़ में, अनजाने-अचीन्हे मौजूद थे ।


गांधी के मतभेद सिद्धान्तों के कारण थे, बैर भाव के कारण नहीं । गांधी सद्गुणों को द्वार और दुर्गुणों को दीवार मानते थे । द्वार से प्रवेश किया जाता है और दीवार से टकराया जाता है । हरिलाल और बापू के मतभेद लगभग ऐसे ही थे ।

पुत्र बना पिता : सत्याग्रह का क्लासिकल उदाहरण

इस प्रसंग पर आने के साथ ही नारायण भाई का वाणी प्रवाह मानो बाधित होने लगा । लगा, उन्हें बोलने में तनिक असुविधा और असहजता हो रही है ।

9 अगस्त 1942 को, बम्बई के शिवाजी पार्क की मीटींग में गांधी नारा देने वाले थे - ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो ।’ लेकिन सवेरे-सवेरे ही उन्हें, महादेव भाई सहित बन्दी बना लिया गया । पुलिस वारण्ट में कहा गया था कि कस्तूरबा चाहें तो वे भी खुद को गिरफतार करा सकती हैं । इस समय नारायण भाई मौजूद थे । उन्होंने इस गिरफतारी को लेकर, पति-पत्नी के बीच हुए वार्तालाप को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया । बापू ने अन्तिम निर्णय बा पर ही छोड़ा । लेकिन यह भी कहा कि यदि वे गिरफतारी नहीं देती हैं तो उस दशा में बापू की जगह वे शिवाजी पार्क की सभा को सम्बोधित करें । अन्ततः बा ने निर्णय लिया कि वे शिवाजी पार्क की सभा को सम्बोधित कर, बापू का अधूरा काम पूरा करने के लिए, उनके साथ जेल जाने का सुख छोड़ेंगी ।


बापू और महादेव भाई को तत्काल गिरतार कर आगा खां महल जेल भेज दिया गया । उधर बा भी शिवाजी पार्क नहीं जा सकीं । उन्हें भी पहले ही पकड़ कर (सुशीला बहन के साथ) आर्थर रोड़ जेल भेज दिया गया । लेकिन कुछ ही दिनों बाद, इन दोनों को भी आगा खां महल भेज दिया गया । अब बा और बापू साथ-साथ थे । आगा खां महल के चारों ओर ग्यारह फीट ऊंची, कंटीले तार की बागड़ खींच दी गई तथा 76 बन्दूकधारी पुलिस जवान तैनात कर दिए गए ।


वह 15 अगस्त 1942 का दिन था । सुशीला बहन, बापू की मालिश कर रही थीं । अचानक ही बा ने उन्हें पुकारा । सुशीला बहन ने अनसुनी कर दी । थोड़ी देर में बा ने फिर आवाज लगाई और कहा कि महादेव को कुछ हो रहा है । सब भाग कर पहुंचे । देखा - महादेव भाई को एंठन हो रही है । सुशीला बहन ने अपनी दवा की पेटी खोली लेकिन उसमें महादेव भाई के लिए कोई दवाई नहीं थी । थोड़ी ही देर में महादेव भाई के प्राण पखेरु उड़ गए । उनकी निष्प्राण देह सामने थी ।

कानून के मुताबिक, महादेव भाई के रिश्तेदारों और नजदीकी लोगों को तुरन्त खबर दी जानी चाहिए थी । लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई । और तो और, बापू, बा, सुशीला बहन आदि को उनके दाह संस्कार में शामिल होने से भी रोक दिया गया । गतिरोध की स्थिति बन गई । अन्ततः आगा खां महल में ही दाह संस्कार करने पर सरकार सहमत हुई । बापू ने कहा - जिन्दगी भर वह मेरा पुत्र था । आज मैं उसका पुत्र हूं । मैं उसका अन्तिम संस्कार करूंगा । उधर बापू मुखाग्नि दे रहे थे, इधर बा विलाप कर रही थीं - महादेव ! तुम कहां चले गए । यह तो तुम्हारा मन्दिर था । तुम इस मन्दिर में ही चले गए । अब मैं भी इस मन्दिर से बाहर नहीं जाने वाली आदि, आदि ।



नारायण भाई का गला भर आया था । वाणी भर्रा रही थी, जबान साथ देने से इंकार करती लग रही थी । एक-एक शब्द बोलने में मानो उन्हें असाध्य श्रम करना पड़ रहा था । अपने पिता का मृत्यु प्रसंग इस प्रकार सुनाना ! सोच कर ही प्राण कण्ठ में आ जाते हैं । लेकिन नारायण भाई जल्दी ही ‘पुत्र से कथाकार’ बने । संयत होकर बोले - लेकिन इसके कोई दो महीने बाद सुशीला बहन ने बापू से कहा - ‘महादेव भाई की मौत वाले दिन तुम पर बावरापन छा गया था ।’ बापू ने पूछा - ‘कैसे ?’ सुशीला बहन ने कहा - ‘‘तुम महादेव भाई की आंखों में देखते हुए बार-बार कह रहे थे - ‘महादेव ! उठो !, महादेव ! उठो !’’ बापू ने कहा - ‘वह बावरापन नहीं, श्रद्धा थी ।’ सुशीला बहन हैरत में पड़ गई । पूछा - ‘श्रद्धा कैसे ।’ उसके बाद नारायण भाई ने जो कुछ कहा वह सुनकर सभागार में पहले तो सन्नाटा छा गया और अगले ही क्षण तालियों की गड़गड़हाट मानो सभागार की छत फोड़ने का उतावली होने लगी । महादेव भाई के अनुसार बापू ने कहा - ‘उसने जिन्दगी भर मेरी एक भी बात नहीं टाली । मेरा कहा नहीं लांघा । मुझे लगा कि मेरी आंख से आंख मिलते ही, मेरी आवाज सुनकर महादेव फौरन उठ खड़ा होगा ।’


महादेव भाई की मृत्यु के बाद, दाह संस्कार को लेकर सरकार के दुराचरण को लेकर एक बार किसी ने बापू से पूछा कि उस समय उन्होंने सत्याग्रह क्यों नहीं किया । बापू का उत्तर, सत्याग्रह की दृष्टि से ‘क्लासिकल उदाहरण’ था । उन्होंने कहा - ‘जनहित (पब्लिक कास्ट) के लिए तो मैं सत्याग्रह कर सकता था लेकिन अपने पुत्र के लिए मैं सत्याग्रह नहीं कर सकता था ।’

‘बा’ की विदाई

महादेव भाई की मृत्यु वाले दिन से ही बा बीमार हो गई थीं । उनकी तबीयत फिर कभी भी पूरी तरह नहीं सुधर पाई ।

जेल में रहले के दौरान बा को कमरे से बाहर, कांटेदार तारों की बागड़ और चारदीवारी से घिरे खुले मैदान में ले जाया जाता । वहां तुलसी का एक पौधा था जिसे देख कर बा के चेहरे पर प्रसन्नता आ जाती । ऐसे ही एक बार, जब बा को बाहर लाया गया तो जेलर ने उन्हें सूखी लकड़ियों से भरी एक गाड़ी बताई और बताया कि ये लकड़ियां बा के दाह संस्कार के लिए मंगवाई गई थीं । नारायण भाई ने कहा - अंग्रेज सरकार क्रूर ही नहीं, नीच भी थी ।

वह दिसम्बर 1943 की बात है । बा की तबीयत लगातार गिर रही थी । उन्होंने शर्माजी नामके वैद्यजी को बुलाने का आग्रह किया क्यों कि वे उनका इलाज करते रहे थे । बापू ने जेलर को लिखा कि अंग्रेज सरकार की एक कैदी की तबीयत ज्यादा खराब है और उसे फलां-फलां वैद्यजी की चिकित्सा की आवश्यकता है, उन्हें बुलवा लें । लेकिन सरकार की ओर से दो माह तक कोई जवाब नहीं आया । 21 मई 1944 को शर्माजी आये तब तक बा की तबीयत लाईलाज हो चुकी थी । शर्माजी ने रात भर वहीं रुकने की आवश्यकता जताई लेकन जेलर ने यह कह कर मना कर दिया कि जेल में कैदियों के सिवाय और कोई नहीं रह सकता । फलस्वरूप, वैद्यजी पूरी रात, जेल के बाहर अपनी कार में ही बैठे रहे - क्या पता, कब जरूरत पड़ जाए ?


वह रात निकल गई । 22 मई को सवेरे बापू ने बा से पूछा - ‘मैं घूम आऊं ?’ बा बोल नहीं पा रही थीं । आंखों से इंकार कर दिया - अनुमति नहीं दी । बापू वहीं, बा के पास बैठ गए । बा ने इशारा किया - ‘मेरे पास मत बैठो, अपने कमरे में जाओ ।’ बापू अपने कमरे में चले गए । नारायण भाई के लिए कथा सुनाना असम्भव सा होने लगा । उनका गला एक बार फिर रुंधने लगा । शब्द गले में अटकने लगे । बार-बार खांसी आने लगी । पता नहीं, सचमुच में खांसी आ रही थी या वे अपने आप को संयंत करने के लिए खांसी की मदद ले रहे थे ।

लम्बी सांस लेकर नारायण भाई फिर शुरु हुए । थोड़ी ही देर में बापू को भास हुआ - ‘वह मुझे बुला रही है ।’ वे तेजी से बा के पास आए । बा की आंखें मुंद रही थीं । बापू ने बा का सिर अपनी छाती पर रखा और मानो बा इसी क्षण के लिए रुकी हुई थीं । बापू की छाती पर सिर रखते ही बा ने प्राण त्याग दिए । नारायण भाई ने रुंधे कण्ठ से, अपनी पूरी शक्ति लगा कर, धीर-गम्भीर किन्तु मन्द स्वर में कहा - ‘यह बा की आजीवन इच्छा थी जिसे ईश्वर ने पूरा किया - वे बापू की छाती पर सिर रख कर ही विदा हुईं ।’

बा की उत्तरक्रियाओं के दौरान जब गीता पाठ की बात आई तो बापू ने कहा - गीता पाठ बेसुरा नहीं होना चाहिए । यदि बेसुरा हुआ तो मैं आधे में ही रुकवा दूंगा । जिसका पूरा जीवन सुरीला रहा उसे मरणोपरान्त भी बेसुरा नहीं सुनने दूंगा ।

और नारायण भाई ने विगलित, विह्वल स्वरों में कहा - उस दिन देवदास वहीं थे । उन्हीं ने गीता पाठ किया जिसे सुन कर बापू ने कहा - देवदास ! फीनिक्स में तुम जो गीता पाठ करते थे वह तुम नहीं भूले । आज भी तुमने बिलकुल वैसा ही सुरीला पाठ किया ।


नारायण भाई ने कहा - बा के देहावसान के बाद बापू की दिनचर्या में एक बदलाव आया । प्रतिदिन प्रार्थना के बाद वे गीता के किसी एक अध्‍याय का पाठ करते थे । लेकिन बा के देहावसान के बाद प्रत्‍येक माह की 22 तारीख को वे प्रार्थना के बाद पूरा गीता पाठ करने लगे ।

कट्टरता की कोख

यह नारायण भाई के आज के आख्यान का अन्तिम हिस्सा था जिसे मेरे मतानुसार सबसे पहले प्रस्तुत किया जाना चाहिए था । लेकिन ‘बापू-कथा’ की यह प्रस्तुति वस्तुतः मेरे नोट्स मात्र हैं जिनमें मैं ने अपनी बुध्दि नहीं लगानी चाहिए । न तो मैं ने क्रम बदलना चाहिए और न ही अपने विचार मिला कर कोई घालमेल करना चाहिए ।


नारायण भाई ने कट्टरता का भाष्य जिस तरह किया, उसके लिए इस समय मुझे कोई शब्द नहीं मिल रहे हैं । धर्मनिरपेक्षतावादियों और प्रगतिशील वामपंथियों की असहज, दुरुह, नकली, यान्त्रिक शब्दावली के कारण कट्टरता को समझना और समझाना मानो किसी लुप्त भाषा के ग्रन्थ का भाष्य करना हो गया है । ऐसे तमाम लोगों को कम से कम एक बार नारायण भाई का यह आख्यान जरूर सुनना चाहिए । मैं कबूल करता हूं कि कट्टरता के मायने आज मैं पहली बार समझ पाया हूं ।

नारायण भाई ने कहा - धर्म आदमी और आदमी को मिलाने के लिए होता है । प्रत्येक धर्म में सम्प्रदाय होते हैं । ये सम्प्रदाय अच्छे भी हो सकते हैं । जैसे संगीत के घरानों के सम्प्रदाय । सम्प्रदाय के साथ जब जड़ता जुड़ जाती है तो सम्प्रदायवाद बनता है जिससे आग्रह पैदा होते हैं जो ‘सिर के मुताबिक टोपी’ के स्थान पर ‘टोपी के मुताबिक सिर’ की मांग करते हैं ।

सम्प्रदायवाद में आवेश या जुनून शामिल हो तो कट्टरता पैदा होती है । कट्टरता में तत्व की अपेक्षा संकेतों, प्रतीकों, चिह्नों को महत्व दिया जाता है । कट्टरता में ये संकेत, प्रतीक, चिह्न बड़े तथा प्रमुख हो जाते हैं और धर्म छोटा तथा गौण हो जाता है ।

कट्टरता में पुरातन के प्रति प्रेम होता है । तत्कालीन परिस्थितियों और वर्तमान परिस्थितयों के अन्तर की उपेक्षा कर दी जाती है और ‘जैसी व्याख्या मैं करता हूं, उसे मानो’ का आग्रह होता है ।



कट्टरता प्रत्येक देश में होती है लेकिन बहुसंख्य लोग उसे स्वीकार तो नहीं करते लेकिन उसका विरोध भी नहीं करते वरन् चुप रह कर उसे बढ़ावा देते हैं ।


कट्टरता अपने मन से, अपने स्वार्थ से तय की हुई विधि होती है जो राजनीतिक, आर्थिक भी हो सकती है ।

धर्म मनुष्य को मनुष्य के पास लाता है और जो मनुष्य को मनुष्य से दूर ले जाए वह अधर्म होता है । यह अधर्म वस्तुतः कट्टरता से ही उपजता है ।

गांधी इस देश की इसी कट्टरता के शिकार हुए ।


विशेष: आज आयोजकों ने घोषणा की है कि वे इस ‘बापू कथा’ की समूची रेकार्डिंग सीडी या डीवीडी में उपलब्ध कराएंगे । मैं प्रयत्न करूंगा कि एक सेट प्राप्त कर श्री रवि रतलामी के सौजन्य से आप सब तक पहुंचा सकूं । लेकिन यह सब इसी पर निर्भर करता है कि कल ही यह सामग्री मिल जाए ।

(कल, नारायण भाई, भारत विभाजन से उपजी स्थितियों की चर्चा करेंगे और पूर्णाहुति करेंगे । यह मुझ पर ईश्वर की कृपा ही है कि मैं नारायण भाई के व्याख्यान आप तक लगातार चौथे दिन भी पहुँचा पा रहा हूं । मैं कोशिश करूंगा कि बापू कथा की अन्तिम शाम भी आप तक पहुंचा सकूं ।

यह आयोजन, इन्दौर में, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्व. श्री जयन्ती भाई संघवी की स्मृति में, बास्केटबाल काम्पलेक्‍स में किया जा रहा है ।)

4 comments:

  1. विष्णु जी,
    बहुत ही अच्छे से लिखा है आपने. लगता है जैसे हम वहीं बैठे सुन रहे हो.
    आपने ऑडियो उपलब्ध कराने की जो आशा बांधी है उससे दिल की खुशी और भी बढ़ गयी.
    बहुत बहुत धन्यवाद.

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  2. विष्णुजी ,
    पाँचों दिन की आपकी रपट का प्रिन्ट आउट नारायण भाई को मिल सकता है ? काश वे पढ़ पाते।

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  3. मेरी बहुत इच्छा थी कि नारायण भाई को अपने यहाँ बुलाकर यह कथा करवाऊँ। यह हो नहीं सका। परन्तु आपने विस्तार से यह कथा सुनवाकर मुझपर बहुत एहसान किया है। आपका बहुत धन्यवाद।
    घुघूती बासूती

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  4. पढ़ने के उपरांत इस स्थिति में नहीं कि कुछ कह सकूं। केवल इतना ही कि आप की रिपोर्ट ऐसी है तो नारायण भाई से सुनने का क्या तात्कालिक असर होता होगा? इस श्रंखला के उपसंहार में इस पर भी थोड़ा प्रकाश डालें।

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