इस आख्यान को ‘खादी जन्म कथा’ का उपसंहार कहा जा सकता है । खादी की जन्म कथा सुनाने के ठीक बाद, नारायण भाई ने, 11 अगस्त 2008 को ही यह कथा सुनाई थी ।
बम्बई के एस्पलेनेड (जिसे अब शायद आजाद मैदान कहा जाता है) में गांधीजी की सभा चल रही थी । मैदान भरा हुआ था और लोगों का आना-जाना बना हुआ था ।
भीड़ के अन्तिम छोर पर, पीछे खड़ी एक महिला ने दूर खड़े एक सज्जन को इशारे से अपने पास बुलाया । उन सज्जन ने अपने आसपास देखा और इशारे से ही पूछा - आप मुझे बुला रही हैं ? महिला ने इशारे से उत्तर दिया - हां, आप को ही ।
असमंजस में पड़े, सकपकाते हुए वे सज्जन उस महिला के पास पहुंचे और फिर पूछा - आप मुझे ही बुला रही थीं ? महिला ने कहा - हां, आपको ही तो बुला रही थी । सुन कर सज्जन ने प्रयोजन पूछा । उत्तर में महिला ने अपने हाथों की, रुमाल में बंधी एक छोटी सी पोटली उन सज्जन के हाथों में रख दी और कहा - इसमें मेरी सोने की चूड़ियां और कानों की झुमकियां हैं । उसने अपना नाम और विले पारले का अपना पता बताते हुए उन सज्जन से अनुरोध किया कि वे उसकी यह पोटली उसके घर पहुंचा दें ।
सज्जन को कुछ समझ नहीं पड़ा । उन्होंने कहा कि न तो वे महिला को जानते हैं और न ही महिला उन सज्जन को । ऐसे में वे अपने गहने उन्हें कैसे सौंप सकती हैं । महिला ने कहा - क्यों कि मैं जानती हूं कि आप ये गहने मेरे घर पहुंचा देंगे । सज्जन ने पूछा - आप मुझे नहीं जानती फिर भी इतना विश्वास कैसे कर रही हैं ? उन्होंने पूछा - आपके घर पहुंचाने के बजाय यदि मैं ये गहने अपने घर लेकर चला जाऊं तो ? महिला ने कहा - आप ऐसा नहीं करेंगे । सज्जन ने पूछा - क्यों नहीं करुंगा ? महिला बोली - नहीं, आप ऐसा बिलकुल ही नहीं करेंगे । सज्जन को और आश्चर्य हुआ । पूछा - क्यों नहीं ले जाऊंगा ?
महिला बोली - आप ऐसा कर ही नहीं सकते ?
अब सज्जन को आनन्द आने लगा था । पूछा - आखिर आप को इतना विश्वास क्यों है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता ?
महिला बहुत ही सहजता से बोली - आप ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते । आपने खादी जो पहनी हुई है ।
नारायण भाई ने जैसे ही किस्सा पूरा किया, सभागार तालियों से गूंज उठा । हर कोई ताली बजा रहा था, सिवाय कुछ खादीधारियों के, जो सबसे पहली कतार में, नारायण भाई के ठीक सामने बैठे थे ।
आप ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते । आपने खादी जो पहनी हुई है ।
ReplyDeleteओह, खादी महिमा से मैं बहुत प्रभावित हुआ। यह तो कालान्तर में खादी को लतगर्द किया हम भारतीयों ने। वर्ना मेरे बचपन तक में बहुत इज्जत थी खादी की।
साठ के दशक तक खादी बहुत प्रतिष्ठा पाती थी। काश वे दिन वापस आयें!
बहुत खूब! अफ़सोस - कहाँ से कहाँ तक पहुँच गयी बापू की खादी.
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