यह अनुभव रोचक तो है ही, तनिक विचित्र भी है । रतलाम, पश्चिम रेल्वे का मण्डल मुख्यालय है । (ज्ञानदत्तजी पाण्डे, किसी जमाने में यहीं, वरिष्ठ मण्डल परिचालन प्रबन्धक हुआ करते थे ।) यह छोटी लाइन (मीटर गेज) और बड़ी लाइन (ब्राड गेज) का जंक्शन भी है । छोटी लाइन पर पहले यह हैदराबाद से अजमेर तक जुड़ा हुआ था । लेकिन गेज परिवर्तन के चलते अब छोटी लाइन की गाड़ियां केवल रतलाम-पूर्णा के बीच सिमट कर रह गई हैं । सो, छोटी लाइन की सात गाड़ियां अब रतलाम से ही शुरु होती हैं और रतलाम आकर समाप्त भी ।
मण्डल कार्यालय मुख्यालय होने के कारण, चलती रेलों में टिकिट जांचने वाले दल अपना काम प्रायः ही यहीं से शुरु करते हैं । ये जांच दल कभी तो स्थानीय (रतलाम मण्डल के) होते हैं तो कभी अन्तर मण्डलीय (दूसरे मण्डलों के) और कभी अन्तर क्षेत्रीय रेलों के । ये टिकिट जांचने वाले (टी सी) रेल्वे-गणवेश (यूनीफार्म) में न होकर सामान्यतः सादे कपड़ों में ही होते हैं । बीमा ग्राहकों की तलाश में मुझे प्रायः ही यात्राएं करनी पड़ती हैं । यात्राओं के दौरान ऐसे सादे कपड़ों वाले टी सी ने जब-जब भी, जांचने के लिए टिकिट मांगा, तब-तब मैं ने उसका पहचान पत्र (आई सी) मांगा । मेरी ऐसी प्रत्येक मांग पर लगभग प्रत्येक टी सी ने बुरा माना । मना तो किसी ने नहीं किया लेकिन मेरी मांग पर हर बार मुझे उन्होंने कुपित होकर, आग उगलती और मुझे भस्म कर देने वाली नजरों से देखा । वे बोलते तो कुछ नहीं लेकिन उनकी मुख-मुद्रा पर उनके मनोभाव बिना किसी कोशिश के आसानी से पढ़े जो सकते थे - ‘दो कौड़ी के पेसेंजर ! तेरी यह हिम्मत कि तू हमसे आई सी मांग रहा है ?’ लेकिन मैं ने एक हर बार उनकी ऐसी नजरों की अवहेलना ही की । मेरी इस मांग पर टी सी की प्रतिक्रिया तो अपनी जगह, लेकिन सहयात्रियों की प्रतिक्रिया मुझे हर बार असहज करती रही । वे कहते - ‘अच्छा हुआ जो आपने आई सी मांग लिया । वर्ना आजकल तो कोई भी चोर-उचक्का, कोई भी गुण्ड-बदमाश टी सी बन जाता है ।’ प्रत्युत्तर में मैं उनसे पूछता कि उन्होंने पहचान क्यों नहीं मांगी तो वे ‘हें, हें’ कर रह जाते ।
लेकिन अभी-अभी, 3 अगस्त रविवार को, भैया साहब (श्रीयुत सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) की मिजाजपुर्सी के लिए की गई इन्दौर यात्रा में आते-जाते एकदम प्रतिकूल अनुभव हुआ । जांचकर्ता टी सी से आई से मांगने पर उसने जेब से, प्रसन्नतापूर्वक आई सी ऐसे निकाला मानो वह मांगे जाने की प्रतीक्षा ही कर रहा हो । एक टी सी तो अपना पहचान पत्र हाथ में लिए ही यात्रियों से टिकिट मांग रहा था ।
यह बदलाव क्यों कर हुआ ? यात्रियों में से तो किसी को मालूम था नहीं । कोई टी सी ही बता सकता था । सो, एक टी सी से ही पूछ लिया । जवाब में उसने जो किस्सा सुनाया, उसने पहले तो मुझे हंसाया लेकिन उसकी व्यंजना का भान होते ही मेरी हंसी बन्द हो गई और मैं उलझन में पड़ गया ।
हुआ यूं कि, कोई महीने भर पहले एक किशोरी पूरे दो दिन, रतलाम स्टेशन से शुरु होने वाली, मीटर गेज रेलों में बैठे यात्रियों के टिकिट जांचती रही । किसी ने न तो आपत्ति जताई और न ही किसी ने उससे आई सी मांगा । वह जिस सहजता और अधिकार भाव से टिकिट जांच रही थी उससे हर किसी को लगा कि यह या तो दूसरे मण्डल से आई है या दूसरी क्षेत्रीय रेल्वे से । पहला दिन उसने ‘राजी-खुशी’ अपना काम किया । दूसरे दिन भी सब ठीक-ठाक ही चल रहा था कि एक वरिष्ठ टी सी को मामला गड़बड़ लगा । इस तरह कोई अकेला टी सी कभी भी जांच के लिए नहीं आता । आता है तो पूरा दल आता है और उसके आगमन की औपचारिक तथा आधिकारिक सूचना स्थानीय अधिकारियों को दी जाती है । लेकिन इस लड़की के बारे में कहीं, किसी को कोई भी सूचना या जानकारी नहीं थी । इस टी सी ने रेल्वे पुलिस को अपना सन्देह बताया । पुलिस ने लड़की से पूछताछ की तो मालूम हुआ कि वह टी सी होना तो कोसों दूर रही, वह तो कहीं भी, किसी भी नौकरी में नहीं है ।
पुलिस-पकड़ में पूछताछ में मालूम हुआ कि वह उत्तर प्रदेश के किसी गांव की है । उससे अता-पता लेकर उसके पिताजी से सम्पर्क करने पर मालूम हुआ कि वह अर्ध विक्षिप्त है और चार-पांच दिनों से घर से गायब है । उसके मां-बाप परेशान थे । रतलाम रेल्वे पुलिस से उन्हें अपनी बेटी की जानकारी मिली । उसके पिता अगले ही रतलाम पहुंचे, सबको धन्यवाद दिया और अपनी बेटी को ले गए ।
रेल्वे पुलिस ने अपनी इस सफलता से स्थानीय मीडिया को रू-ब-रू कराया तो लड़की ने बताया कि वह टी सी बनना चाहती रही है और यह मौका उसे रतलाम में मिल गया । पुलिस ने बताया कि उस लड़की ने न तो किसी से दुव्र्यवहार किया और न ही किसी यात्री से कोई रकम वसूली । बस, टिकिट चेक करती रही ।
टी सी ने तनिक झेंपते हुए बताया कि इस घटना के बाद से वह अपना आई सी या तो हाथ में ही रखता है या जेब में सबसे ऊपर ताकि किसी के मांगने पर वह तत्काल अपनी ‘आधिकारिकता’ साबित कर सके (और शायद यह भी साबित कर सके कि वह कोई पागल नहीं है) ।
टी सी की बात सुनकर पहले तो मुझे हंसी ही आई लेकिन अगले ही पल यह ‘कपूर’ हो गई । मैं तनिक उलझन में पड़ गया । वह ‘पगली’ क्या कर गई ? क्या वही मनोविकार से ग्रस्त थी ? क्या वह साबित नहीं कर गई कि, अपनी पहचान बताने को अपनी हेठी समझने वाले तमाम लोग उससे पहले ही, उसके जैसे ही मनोविकार से ग्रस्त थे ?
हम सामान्य रह कर, सामान्य व्यवहार करते रहें, इसका भान हमें पागल ही कराएंगे ? यदि हां तो पागल वे हैं या हम ?
eeहम सामान्य रह कर, सामान्य व्यवहार करते रहें, इसका भान हमें पागल ही कराएंगे ? यदि हां तो पागल वे हैं या हम ?
ReplyDeleteएक सार्थक प्रश्न....लेकिन उत्तर कौन देगा???. बहुत दिलचस्प पोस्ट.
नीरज
नीरज जी ने वाकई एक सार्थक प्रश्न किया है.. पागल वे हैं या हम ?
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट
wo duniya ki najar me pagal hain par hum ....humlog khud ki najar se khud ko dekhna hi nahi chahte
ReplyDeleteबैरागी जी , मेरी फितरत भी कुछ अप जैसी ही है तथा अनुभव भी लगभग अप जेसे ही हैं। किसी भी व्यक्ति की जब तक पहचान न हो जए तब तक कुछ भी दिखाना नहीं चाहिए। मैंने देखा है कि पढ़े लिखे सहयात्री भी अकसर अचरज में पड़ जाते हैं। थोड़ी सी सावधानी कभी संकट से भी बचा लेती है।
ReplyDeleteडा.बालकरण पाल मुंबई
kathin sawaal hai? paagal kaun hai wo pagli ya wo tc ya phir hum.bahut badhiya
ReplyDeleteबहुत रोचक प्रसंग. लेकिन बहुत संजीदा सवाल उठाते हुए. शानदार पोस्ट रही.
ReplyDeleteआप ने शिवराम का बहुचर्चित नाटक "जनता पागल हो गई है" नहीं देखा। मैं ने इस में बहुत दिनों एक भूमिका निभाई। कभी मौका मिला तो ब्लागजगत को प्रस्तुत करूँगा। उस मे एक पागल ही जनता मे चेतना का संचार करता है और तब व्यवस्था की तिकड़ी कहती है ...... "जनता पागल हो गई है"
ReplyDeleteवह नहीं, हम ही डरपोक पागल हैं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
रोचक प्रसंग सुनाया आपने. बधाई उस लडकी को. कहते हैं कि अच्छे लोग तो किसी का बुरा करनी भी निकलें तो भी कुछ अच्छा ही होता है. और इतने अच्छे लोगों को अर्ध-विक्षिप्त की उपाधि देना मुझे आश्चर्यचकित नहीं करता.
ReplyDeletepaagal bataakar jaan chudaai hai varnaa court men pataa nahi kyaa kya bakti aur vyavsthaa ki dhajjiyan bikher jaati to??????????
ReplyDeletekyaa vo vakai pagal thi ya.....???
ReplyDeleteवैरागी जी इस पोस्ट से जो समझा वह यही की हमारे देश की व्यवस्था ऎसे ही लोगो के हाथ में है जो कोई भी ओहदा पाकर उसका गलत इस्तेमाल करने से बाज नही आते, उन्हे या तो पागल लोग ठीक कर पाते हैं या वो जो उनसे भी ऊपर है,अच्छा व्यंग्य है,बहुत अच्छा लगा पढ़कर...
ReplyDelete"हम सामान्य रह कर, सामान्य व्यवहार करते रहें, इसका भान हमें पागल ही कराएंगे ? यदि हां तो पागल वे हैं या हम ?"
ReplyDelete-- विचारणीय प्रश्न । बहुत अच्छा विवरण लिखा है आपने । व्यंग्य भी, सत्य भी और यथार्थ भी ।
वाह, वैसे टिकेट चेकिंग आसान काम नहीं है। बतौर सीनीयर डिविजनल कमर्शियल मैनेजर मैने अकेले टिकेट चेकिंग का प्रयास किया था। और आइडेण्टिटी मांगने पर केवल मेरा मैटल पास निकला मेरे पास। काम चल गया पर उसके बाद कभी अकेले टिकेट चेकिंग का प्रयास नहीं किया। :-)
ReplyDeleteबहुत जमी यह पोस्ट।