मन्त्री का भाई कण्डक्टर


नेपाल के नव निर्वाचित उपराष्ट्रपति श्री परमानन्द झा के भाई घनानन्द झा, दरभंगा के हसनचक में सायकिल की दुकान चला रहे हैं - यह समाचार पढ़ कर ‘जेठ में सावन की फुहार’ जैसा तो लगा लेकिन रोमांच तनिक भी नहीं हुआ । कोई तीस बरस पहले मैं इसी दौर से गुजर चुका हूं और मैं ऐसे समाचारों का नायक रह चुका हूं ।


यह 1969 से 1972 के कालखण्ड की बात है । ग्वालियर रियासत की भूतपूर्व राजमाता, (अब दिवंगत) श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया के व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि पूर्ति हेतु, कांग्रेसी विधायकों से थोक दल बदल करवा कर बनी, श्रीगोविन्द नारायणसिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार का पतन हो चुका था । म.प्र.उच्च न्यायालय ने, राजनीति के लौहपुरुष कहे जाने वाले पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र का चुनाव अवैध घोषित कर दिया था । संविद सरकार के पतन के बाद कांग्रेस में नेतृत्व का संघर्ष चल रहा था । श्रीश्यामाचरण शुक्ल ने, कांग्रेस विधायक दल के नेता का चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी थी । मिश्रजी ने पण्डित कुंजीलालजी दुबे को उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार बनाया था । आन्तरिक मतदान में श्यामाचरणजी को विधायक दल का बहुमत मिला । वे कांग्रेस विधायक दल के नेता निर्वाचित हुए और इसी आधार पर मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री भी बने । शुक्लजी ने अपने मन्त्रि मण्डल में दादा (श्री बालकवि बैरागी) को सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री के रूप में शामिल किया ।


तब मैं, 1968 में बी.ए. पास करने के बाद बेकार था । हमारा कोई पारिवारिक धन्धा कभी नहीं रहा । सो, कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । सरकारी नौकरी करने की इच्छा एक पल भी मन में नहीं उठी । यद्यपि भिक्षा वृत्ति हमारी जीविका थी लेकिन मां बार-बार कहती रहती थी - ‘चाकरी कर लेना लेकिन नौकरी मत करना ।’ सो, सरकारी नौकरी करने के बारे में एक बार भी, गलती से भी मन में विचार नहीं आया । लेकिन कुछ न कुछ तो करना ही था ।


उन्हीं दिनों दादा के कुछ मित्रों ने भागीदारी में यात्री बस शुरु की । तब मन्दसौर जिले का विभाजन नहीं हुआ था और मन्दसौर हमारा जिला मुख्यालय था । बस मालिकों ने मनासा से मन्दसौर मार्ग का परमिट लिया । नई बस के लिए ड्रायवर और कण्डक्टर की तलाश हुई । मालिकों की नजर मुझ पर पड़ी । एक काम में दो बातें सध रही थीं - पहली, किसी अपने वाले को काम मिल रहा था और दूसरी, कण्डक्टर बिलकुल घर के आदमी की तरह होगा । सो, मुझे काम मिल गया - कण्डक्टरी का । वेतन तय हुआ, 5 रुपये रोज ।


कण्डक्टरी कभी की नहीं थी, सो शुरु-शुरु के कुछ दिन बहुत ही गड़बड़ वाले बीते । कभी किसी से पैसे कम ले लिए तो किसी को कम लौटाने पर अच्छी खासी बहस भी हुई । लेकिन बात बन गई और काम चल पड़ा ।


मेरी बस के परमिट का रूट मनासा से सीधे मन्दसौर का नहीं था बल्कि भादवाता, नीमच, जीरन, कुचड़ौद, मल्हारगढ़, नारायणगढ़, पीपल्या, बोतलगंज होते हुए वाला था । सामान्य से लगभग दुगुनी दूरी वाला । नीमच तब मनासा का सब डिविजनल मुख्यालय हुआ करता था लेकिन वहां सीआरपी का छोटा-मोटा मुख्यालय होने के कारण उसका अपना महत्व और अपनी अदा शुरू से रही मन्दसौर से ज्यादा और मन्दसौर से अधिक रही । मन्दसौर से तो दैनिक अखबार निकलते ही थे, नीमच से भी दैनिक अखबार निकलते थे ।


जब मैं ने कण्डक्टरी शुरु की तो लोग मुझे विचित्र नजरों से देखते थे । शायद दो कारणों से । पहला - मैं मन्त्री का भाई था और दूसरा, मैं बी.ए. पास था । इन दोनों बातों के कारण अखबारों में ‘बी.ए.पास कण्डक्टर’ और ‘मन्त्री का भाई कण्डक्टर’ जैसे समाचार या तो प्रमुखता से या फिर ‘बाक्स न्यूज’ के रूप में छपे । मैं, बस के पिछले दरवाजे पर, फाटक खुली रखकर, पूरी ताकत और पूरे गले से, रास्ते के गांवों के नाम ले ले कर यात्रियों को पुकारता (जैसे - नीमच ! नीमच !!, जीरन ! जीरन!!) और लोग मुझे हैरत से देखते । मुझे उनकी हैरत पर हैरत होती ।


लेकिन मेरे कण्डक्टर बनते ही हवाओं में - ‘मन्त्री बनते ही बैरागी ने मोटर खरीद ली’ या फिर ‘नाम तो औरों का है लेकिन मोटर तो बैरागी की ही है’ जैसी बातें गूंजने लगीं । लोग घुमा-फिरा कर कुरेदते, मैं वास्तविकता बताता । वे मुझे सलाह देते कि मैं लोगों की बातों पर ध्यान न दूं लेकिन मेरे पीठ फेरते ही वे भी मुझे झूठा लबार कहते ।


अफवाह गाढ़ी बनती और दादा के राजनीतिक विरोधी चिन्दी का थान बनाते उससे पहले ही मुझे मन्दसौर से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक अखबार के सम्पादन का काम मिल गया । यह मेरी पसन्द का काम था । सो, मैं बस की पिछली फाटक को नमस्कार कर चला आया । मैं चला तो आया लेकिन ‘टर’ मेरे साथ बना रहा । पहले मैं ‘कण्डक्टर’ था, अब ‘एडीटर’ बन गया था ।


इस कण्डक्टरी ने मुझे कुछ अच्छी बातें दीं - चलती बस में तेजी से लिख लेना, हिचकोले खाती बस में नोटों को गिन लेना और उन्हें व्यवस्थित जमा लेना । देहाती यात्रियों के सम्वादों के जरिए मुहावरों और लोकोक्तियों की व्यंजना की ताकत मैं ने इस कण्डक्टरी के दौर में ही जानी-समझी ।


सो, बात वहीं पर खतम कर रहा हूं कि नेपाल के नवनिर्वाचित उप राष्ट्रपति के भाई द्वारा सायकिल की दुकान चलाने की खबर ने मन को तसल्ली तो दी, लेकिन रोमांचित बिलकुल नहीं किया । मैं तो बरसों पहले ही ऐसी कथा का नायक जो रह चुका हूं !

5 comments:

  1. इस कमेन्ट के जरिये आपको नमन कर रहा हू... इससे पहले आपकी एक और पोस्ट ने मुझे भावुक कर दिया था वो था रेलवे स्टेसन में आपका थाली को छोड़ आना..... इस नायक एक बार पुनः सलाम

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  2. बैरागी जी, आप बालकवि के कंडक्टर भाई हैं, पढ़कर सुखद अनुभव हुआ। अपने विद्यार्थी जीवन में उन के बहुत संपर्क में रहा। कोटा, व बारां जिले में उन से साल में कम से कम एक-दो बार जरूर मिलना होता था। अब तो मिले ही बरसों हो गए हैं। आप ने उन की स्मृतियाँ ताजा कर दीं। आप की कथा से बहुत से यथार्थ सामने आ गए हैं। आप के लिखने की गति बढ़ेगी तो लोगों को आप के अनुभवो का निचोड़ देखने को मिलेगा।

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  3. कंडक्टर से एडीटर तक का आपका सफ़र कितना संघर्षपूर्ण रहा होगा, इसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है. आपके अनुभव से बहुत कुछ सीखा जा सकता है.

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  4. salaam sirjee mujhe laga tha balkavijee ke parivaar se hain,mera anumaan sahi nikla aur aaj aapko padhkar aapka samman aur badh gay hai.aap jaise log hi aaj ke mantriyon ke rishtedaron ke liye prerna ban sakyte hain

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  5. माफ़ कीजिये बैरागी जी, आपकी पहली पोस्ट को आपकी बहुत सी नयी पोस्ट्स के बाद पढा. बहुत ही अच्छा लगा. मैंने शारीरिक श्रम को कभी बुरा नहीं समझा मगर फ़िर भी कभी ऐसा मौका ही नहीं मिल सका. आपको मिला और आपने उसको पूरी गरिमा के साथ निभाया - यह आपकी परिपक्वता ही है. यह किस्सा जानकर आपके प्रति आदर और भी बढ़ गया.

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