‘बापू कथा’ के तीसरे दिन, 11 अगस्त 2008 को, कथा के अन्तिम सोपान में नारायण भाई देसाई ने ‘खादी-जन्म’ की यह कथा सुनाई थी ।
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद, अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले के परामर्श के अनुसार, देश को जानने के लिए गांधी, भारत यात्रा पर निकले हुए थे । इस अभियान के सबसे लम्बे प्रवास, पूर्वी उत्तर प्रदेश से दक्षिण भारत के दौरान यह प्रसंग उपस्थित हुआ ।
गांधीजी आन्ध्र प्रदेश में थे । ‘बा’ साथ ही थीं । गांधी से मिलने के लिए लोग आ जाते थे और ‘बा’ बस्ती में घूम कर महिलाओं से मिलती थीं । इसी दौरान ‘बा’ को ऐसा मकान मिला जिसमें तीन महिलाएं रह रही थीं लेकिन वे बाहर, बहुत ही कम आती-जाती थीं । दुभाषिये की मदद से ‘बा’ ने उनसे पूछा - तुम्हें पता है, तुम्हारी बस्ती में गांधीजी आए हुए हैं ? तीनों महिलाओं ने ‘हां’ में सर हिलाया । ‘बा’ ने पूछा - तुम उनसे मिलने गई हो ? महिलाओं ने इंकार कर दिया । ‘बा’ ने पूछा - तुम्हें आने से कोई रोकता है ? महिलाओं ने कहा - कोई नहीं रोकता । ‘बा’ ने पूछा - तो फिर घर का काम बहुत ज्यादा होता होगा । महिलाओं ने बताया कि उनके पास कोई काम नहीं है । अब ‘बा’ को तनिक आ”चर्य हुआ । उन्होंने पूछा - फिर आती क्यों नहीं ? तीनों महिलाएं चुप रहीं । ‘बा’ ने अपना सवाल एक बार, दो बार, तीन बार, फिर बार-बार पूछा लेकिन महिलाओं ने एक बार भी कोई जवाब नहीं दिया - सिर नीचा किए चुप ही बनी रहीं । ‘बा’ ने जोर देकर कारण पूछा तो साहस कर एक महिला ने बताया कि वे कैसे आएं - उन तीनों के बीच एक ही साड़ी है । एक पहन कर बाहर जाती है, बाकी दो घर में ही रहती हैं । ‘बा’ हक्की-बक्की रह गईं ।
शाम को ‘बा’ ने यह किस्सा गांधीजी को सुनाया तो वे असहज हो गए । बोले कुछ भी नहीं । उस समय मद्रास के लिए निकलने की तैयारी हो रही थी ।
मद्रास में भी गांधी की दिनचर्या शुरु तो हुई लेकिन गांधी असहज ही बने हुए थे । शाम को जब गांधी लोगों के बीच आए तो उनका पहनावा बदल गया था । अब तक वे काठियावाड़ी पोषाख पहनते थे - घेरदार अंगरखा, बड़ा-मोटा पग्गड़ और लम्बी धोती । लेकिन आज गांधी ने वह पोषाख छोड़ दी थी । उनके शरीर पर केवल एक धोती थी, वह भी घुटनों तक की और शेष शरीर निर्वस्त्र था । गांधी, कमर से ऊपर पूरी तरह निर्वस्त्र थे । लोगों में हचलच मच गई ।
लोग पूछते उससे पहले ही गांधी ने, आन्ध्र पदेश की घटना सुनाई और कहा कि वे तत्काल और कर ही क्या सकते थे । उन्होंने जितने कपड़े पहन रखे थे उतने कपड़ों से चार लोगों का शरीर ढांका जा सकता था । सो, उन्होंने अनावश्यक वस्त्रों का त्याग कर दिया ।
इसके बाद उन्होंने कहा - मैं ‘उन’ लोगों के लिए कुछ करना चाहता हूं । आप लोग मदद करेंगे ? लोगों ने ‘हां’ कहा । तब गांधी बोले - ‘लेकिन उन्हें दीन नहीं बनाना है ।’ उन्होंने कहा कि वे ऐसा कोई तरीका चाहते हैं जिसमें लेने वाला दीन और देने वाला उद्दण्ड न बने । गरीब की गरीबी का असम्मान न हो ।
दरिद्र-नारायण के आत्मसम्मान की रक्षा के इसी विचार ने खादी को जन्म दिया । तय हुआ कि लोगों को कपड़े तो दिए जाएंगे लेकिन उनसे सूत कतवाया जाएगा जिससे कपड़ा बुनवाए जाएगा । यह प्रक्रिया तय होते ही अनायास ही खादी की पहचान और परिभाषा तय हो गई - हाथ कती, हाथ बुनी ।
कहा जा सकता है कि खादी का मायका दक्षिण भारत में है । शायद इसीलिए, खादी के प्रति रुझान और खादी के उपक्रम उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक हैं ।
(गांधी ने इसीलिए सदैव ही खादी के लिए ‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’ वाली बात कही । बाद में यही खादी कांग्रेस की पहचान बनी । खादी की अनगढ़ता और खुरदरापन कांग्रेसियों को असुविधाजनक लगता था । शायद इसीलिए गांधी कहा करते थे - ‘खादी को ऐसे प्यार करो जैसे कोई मां अपनी कुरूप सन्तान को करती है ।)
आभार विष्णुजी । अत्यन्त सरल ढंग से गांधीजी ने खादी का एक आयाम और रखा - " कातो,समझ-बूझकर कातो।जो काते से पहने,जो पहने सो काते"
ReplyDeleteखादी के ही सन्दर्भ में बरसों बाद विनोबा ने कहा-" अ-सरकारी = असरकारी "
आप का लेख अच्छा है। जानकारी के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत प्रेरक प्रसंग है, धन्यवाद.
ReplyDeleteवर्णन नहीं है पर आशा है कि उन महिलाओं के जीवन में आशाजनक परिवर्तन आया होगा!
बहुत अच्छी जानकारी !!
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