‘नागरिक’ को मिल गया नल कनेक्शन


न तो गुस्सा न ही शिकायत। न ही उपहास। बात कोई अनूठी भी नहीं। ऐसा केवल रतलाम में ही नहीं हुआ। सब जगह होता होगा। लिखने का भी कोई मतलब नहीं। लिख कर भी क्या होगा? एक आदमी हो तो सुधारने की कोशिश की जा सकती है। लेकिन व्यवस्था को बदलने की कोशिश करना तो दूर, ऐसी कोशिश करने की सोचना भी निरी मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं। 


अपने रतलाम के एक ‘नागरिक’ को अपने घर के लिए नल कनेक्शन चाहिए था। वह नगर निगम दफ्तर गया। जल विभाग में मिला। सबने भाव खाया। किसी ने भाव नहीं दिया। बार-बार ‘हुजूर! माई बाप!’ किया लेकिन किसी पर कोई असर नहीं। अहसान करते हुए, अकड़कर जवाब दिया - ‘कम से कम तीन सप्ताह लगेंगे और रोड़ कटिंग तथा दूसरे खर्चों का लगभग दस हजार खर्च आएगा।’ ‘नागरिक’ ने कहा कि रकम पर वह सहमत है लेकिन कनेक्शन जल्दी चाहिए। लेकिन तीन सप्ताह से नीचे उतरने को कोई तैयार ही नहीं हुआ।

निराश, रुँआसी मुद्रा में ‘नागरिक’ बाहर आया। नगर निगम की सीढ़ियों पर खड़ा-खड़ा दाढ़ी खुजला रहा था कि एक आदमी सामने आया। बोला - ‘कनेक्शन फटाफट हो जाएगा और रुपये भी चार हजार से अधिक नहीं लगेंगे।’ ‘नागरिक’ को भरोसा नहीं हुआ। उसे ठगी की कई घटनाएँ याद आ गईं। लगा, कोई उसे दस लाख की लॉटरी खुलने की खबर देकर रकम जमा कराने के लिए उससे बैंक खाता नम्बर पूछ कर उसकी रकम हड़पने की कोशिश कर रहा है। उसने अविश्वास से देखा। ‘आदमी’ ने कहा - ‘पहले कनेक्शन करवा लो। पैसे बाद में देना।’ अब ‘नागरिक’ के पास इंकार करने का कोई कारण नहीं था।

‘नागरिक’ के साथ ‘आदमी’ बाजार गया। नल कनेक्शन का सामान खरीदा। अपने एक सहायक के साथ ‘नागरिक’ के घर आया। दिन-दहाड़े, चौड़े-धाले सड़क खोदी, वाटर सप्लाय की मेन लाइन तलाश की और कुछ ही घण्टों में नल कनेक्शन कर दिया। ‘नागरिक’ पूरा भुगतान करने लगा तो ‘आदमी’ बोला - ‘मुझे पाँच सौ और इस हेल्पर को दो सौ दे दो। फिर आगे की बात बताता हूँ।’ ‘नागरिक’ ने आँख मूँदकर कहना माना।

अपनी मजदूरी लेकर ‘आदमी’ ने कहा - ‘अपने मोहल्ले के किसी आदमी से शिकायत करा दो कि तुमने अवैध नल कनेक्शन कर लिया है। शिकायत के दो दिन बाद नगर निगम चले जाना। अवैध नल कनेक्शन लेने का गुनाह कबूल करके कनेक्शन को वैध कराने की अर्जी दे देना। बत्तीस सौ रुपयों में कनेक्शन वैध हो जाएगा।’ ‘नागरिक’ ने अविश्वास से देखा तो ‘आदमी’ ने उसकी पीठ थपथपा कर भरोसा दिलाया।

‘नागरिक’ ने वैसा ही किया जैसा ‘आदमी’ ने बताया था। अपनी शिकायत करवाई और चौथे दिन नगर निगम पहुँच गया। अपना गुनाह कबूल किया। कनेक्शन को वैध कराने की अर्जी लगाई। थोड़ी लिखा-पढ़ी हुई। उससे बत्तीस सौ रुपये माँगे गए। ‘नागरिक’ ने फौरन दे दिए। हाथों-हाथ पूरी रकम की रसीद दे दी गई और उसका नल कनेक्शन वैध हो गया।

किस्सा यहीं खतम हो जाना चाहिए था। लेकिन नहीं हुआ। 

बत्तीस सौ की रसीद घड़ी करके ‘नागरिक’ जेब में रखकर निकलने ही वाला था कि उसे ‘नेक सलाह’ दी गई - ‘एक अर्जी लिख दो कि तुम्हें यह कनेक्शन नहीं चाहिए। सील-ठप्पे लगवा कर अर्जी की पावती लो और  हर महीने के डेड़ सौ रुपये देना भूल जाओ। चैन की नींद सो जाओ।’ ‘नागरिक’ को बात समझ में नहीं आई। सलाहकार ने कहा - ‘अरे! तुम अर्जी दे जाओ। हमें कनेक्शन काटने की फुरसत नहीं। ठाठ से पानी वापरो और जब रकम वसूल करनेवाले आएँ तो अर्जी की, सील-ठप्पेवाली पावती बता देना। कहना कि तुमने तो कनेक्शन कटवा लिया। अब पैसा किस बात का?’

‘नागरिक’ की आँखें फट गई - ‘अरे बाप रे! ऐसा भी होता है?’ लेकिन ‘नागरिक’ बोला - ‘नहीं भैया! मुझे तो नल कनेक्शन चाहिए था। जो खर्चा बताया था उसके चालीस परसेण्ट में ही हो गया। यही बहुत है। पानी की चोरी नहीं करूँगा।’ और इस तरह अपने ‘नागरिक’ को नल कनेक्शन मिल गया। 

जैसे हमारे इस ‘नागरिक’ के दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें।
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कमरे में दुनिया और बाजार में अकेलापन

कल शाम जब उपाध्यायजी से मिलने गया तब तक कल्पना भी नहीं थी कि मैं यह सब लिखूँगा। नहीं, ‘लिखूँगा’ कह कर ठीक नहीं कर रहा। यहाँ ‘लिखना पड़ेगा’ लिखना चाहिए था मैंने। अब दुरुस्त कर लेता हूँ - उपाध्यायजी से मिलने तक कल्पना भी नहीं थी कि यह सब लिखना पड़ेगा।

उपाध्यायजी याने डॉक्टर प्रोफेसर प्रकाश उपाध्याय। मेरे रतलाम की यशस्वी पहचानों में से एक। मृदुभाषी, सुरुचिसम्पन्न उपाध्यायजी जाने-माने साहित्यकार हैं। कबीर पर साधिकार बात करते हैं। मालवी लोक जीवन के गहरे जानकार। एक सरकारी कॉलेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। अच्छे-भले सामाजिक प्राणी हैं। कस्बे की अधिकांश गतिविधियों में उनकी मौजूदगी नजर आती है। घर-गृहस्थी के काम-काज निपटाते हुए यदा-कदा, आते-जाते दीख जाते हैं। जो भी देखता है, मान ही लेता है कि उपाध्यायजी उसे ही देखकर मुस्कुरा रहे हैं। मेरा उनसे नियमित मिलना तो नहीं होता किन्तु उनके बारे में इधर-उधर से जानकारी मिलती रहती है। उनसे मिलने का कोई मौका छोड़ता नहीं। उनसे मिलना और बतियाना सदैव ही सुखकर होता है। जब भी उनसे मिलता हूँ, समृद्ध होकर ही लौटता हूँ।

अभी, तीन दिन पहले, शनिवार को सुभाष भाई जैन के यहाँ बैठा था।  ओमजी (उपभोक्ता न्यायालय के नामित
न्यायाधीश) भी बैठे थे। बातों ही बातों में ओमजी ने बताया कि उपाध्यायजी की एंजियोप्लास्टी हुई है। सुनकर अच्छा नहीं लगा। साधु पुरुषों को ऐसी यन्त्रणा झेलनी पड़े, यह सूचना ही अपने आप में यन्त्रणादायी होती है। विश्वास नहीं हुआ। उपाध्यायजी की जिन्दगी सीधी लकीर की तरह है - नियमित, संयमित, अनुशासित। भला उन पर ईश्वर की यह कुदृष्टि क्यों? उसी क्षण तय किया कि जल्दी से जल्दी उपाध्यायजी से मिलना है।

कल, सोमवार की शाम को उनके घर पहुँच गया। पहले फोन कर दिया था। दरवाजा उपाध्यायजी ने ही खोला। बिलकुल सहज, सामान्य। सदैव की तरह ताजादम। चेहरे पर वही मोहिनी मुस्कान। रोग, पीड़ा की छोटी सी खरोंच भी चेहरे पर नहीं। लगा, ओमजी ने गलत जानकारी दे दी या फिर मैंने ही कुछ गलत सुन लिया।

मैं अधीर था। खुद को रोक नहीं पाया। बैठते-बैठते ही पूछ लिया - ‘सच्ची में आपकी एंजियोप्लास्टी हुई है?’ उपाध्यायजी की हँसी बिखर गई। बोले - ‘बैठिए तो! बताता हूँ।’ उसके बाद उपाध्यायजी ने जो कुछ सुनाया, उसी के कारण मुझे यह सब लिखना पड़ा।

उपाध्यायजी ने बताया, मई 2018 की एक शाम वे अपने स्कूटर पर बाजार जा रहे थे। एक नौजवान ने टक्कर मार दी। बाँये कन्धे में फ्रेक्चर हो गया। इलाज शुरु हुआ। उसी दौरान एक रात घबराहट हुई। सीधे सरकारी अस्पताल पहुँचे। वहाँ समाधान नहीं हुआ। एक निजी अस्पताल पहुँचे। वहाँ भी समाधान नहीं हुआ। डॉक्टर सुभेदार साहब के यहाँ पहुँचे। उन्होंने जल्दी से जल्दी इन्दौर जाने की सलाह दी। इन्दौर मेदान्ता में पहुँचे। जाँच का निष्कर्ष निकला - एंजियोप्लास्टी करनी पड़ेगी। दो स्टेण्ट लगाए। कुछ दिनों बाद रतलाम लौट आए। जिन्दगी पहले ही संयमित, नियमित थी। इसलिए डॉक्टर के निर्देश-पालन के लिए अतिरिक्त कुछ नहीं करना पड़ा। अब सब सामान्य है। ठीक-ठीक चल रहा है।

सुनकर तसल्ली तो हुई लेकिन यह सूचना मुझ तक पहुँचने में दस महीने लग गए! इसी बात ने मुझे विचार में डाल दिया। उपाध्यायजी घर-घुस्सू आदमी नहीं हैं। लोगों से मिलना-जुलना उन्हें अच्छा लगता है। किसी समागम में शामिल होने का, लोकाचार निभाने का मौका नहीं छोड़ते। रतलाम बहुत बड़ा कस्बा नहीं। अधिकाधिक पन्द्रह मिनिट में कस्बे के एक छोर से दूसरे छोर पर पहुँचा जा सकता है। मैं बीमा एजेण्ट हूँ। लगभग दिन भर घर से बाहर रहता हूँ। मुख्य बाजार हो या दूर-दराज का मुहल्ला, कस्बे के हर हिस्से में मेरा आना-जाना होता ही है। रोज ही दस-बीस लोगों से मिलता हूँ। कई लोग ऐसे हैं जो मेरे और उपाध्यायजी के सम्पर्क क्षेत्र में समान (कॉमन) हैं। लेकिन उपाध्यायजी की यह जानकारी मुझे कहीं नहीं मिली! इसी बात ने मुझे चौंकाया और विचार में डाल दिया।

हम कहाँ आ गए हैं? क्या हो गए हैं? उपाध्यायजी के और मेरे, समान (कॉमन) परिचितों से बात करते हुए हमने कभी किसी अपनेवाले के बारे में बात करने की जरूरत ही अनुभव नहीं की! अपनी और अपने काम की बातें करते रहे! अपने मतलब तक ही सिमटे रहे! हमारी बातों में किसी तीसरे, ‘अपनेवाले’ का जिक्र आया ही नहीं! इण्टरनेट ने हमें, अपने घर में बैठे, बन्द कमरे में होते हुए भी सारी दुनिया से जोड़ दिया लेकिन घर से बाहर, दुनिया के बीच बैठकर भी हम अपने आप में ही रहने लगे! दुनिया अंगुलियों की पोरों पर आ सिमटी है। कोई भी सूचना हो, कुछ ही पलों में हर-एक के पास पहुँच जाती है। लेकिन उपाध्यायजी की यह सूचना, गाँव की गाँव में मुझ तक दस महीनों में पहुँची! यह एकान्त हमने बुना या हम अनायास ही इस एकान्त के शिकार हो गए?

उपाध्यायजी से मिल कर लौटे हुए मुझे लगभग सोलह घण्टे हो गए हैं। लेकिन यह विचार पीछा नहीं छोड़ रहा। इस समय भी, जब मैं यह सब लिखने को विवश हुआ और लिख चुका।
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एक आदमी के दो एड्रेस प्रूफ दीजिए

यह ‘बाबू राज’ का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसकी शिकायत भी नहीं की जा सकती क्योंकि सुननेवाला कोई नहीं है।

मामला भारत सरकार के एक उपक्रम के कार्यालय का है। इसके एक आवेदन में, आवेदक को दो पते देने की व्यावहारिक सुविधा उपलब्ध कराई गई है - एक पता पत्राचार का और दूसरा पता स्थायी या आवासीय पता। जाहिर है, आवेदन फार्म का प्ररूप बनाते समय यह व्यावहारिक सुविचार सामने आया होगा कि कोई आदमी रहता कहीं और होगा और काम कहीं और करता होगा। मुझे यह प्रावधान सराहनीय लगा। 

सरकार ने डाक विभाग को दयनीय दशा में ला खड़ा कर दिया है। किसी भी शहर में डाकियों के पूरे पदों पर भर्ती नहीं है। मेरे रतलाम में ही कई डाकियों को दो-दो, तीन-तीन बीटों की जिम्मेदारी दी हुई है। ऐसे में वे चाह कर भी अपना रोज का काम रोज पूरा नहीं कर पाते। सब तरह के लोग सब जगह होते हैं। कस्बे के बाहरी इलाके के कुछ डाकिए सप्ताह में एके दिन डाक बाँटते हैं। ऐसे में, उक्त प्रावधान लोगों को अत्यधिक अनुकूल और सुविधाजनक है। कस्बे के बाहरी इलाकों में रहनेवाले लोग अपने काम-काजी स्थल का पता दे कर अपनी चिट्ठियाँ प्राप्त करने की सुनिश्चितता हासिल कर सकते हैं। 

लेकिन इस दफ्तर के बाबू ने इस सराहनीय भावना और व्यवस्था की ऐसी-तैसी कर रखी है। उसका कहना है कि आवेदक जो भी पता देना चाहे, खुशी-खुशी दे। लेकिन आवेदक को ऐसे प्रत्येक पते का दस्तावेजी प्रमाण देना पड़ेगा। उदाहरण के लिए मैं यदि अपना पत्राचार का पता बाजार में अपनी बैठकवाले किसी व्यापारिक संस्थान का देना चाहूँ तो मुझे अपने उस पते का दस्तावेजी प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ेगा। ऐसा कर पाना मेरे लिए सम्भव ही नहीं। मेरे आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, ड्रायविंग लायसेंस, पासपोर्ट आदि में मेरा स्थायी आवासीय पता अंकित है। बाजार में स्थित मेरे मित्र के व्यापारिक संस्थान पर तो मेरी बैठक है जहाँ प्रतिदिन डाक वितरित होती ही है। जबकि, मेरे आवासीय इलाके का डाकिया कभी-कभी (दूसरी बीट की डाक निपटाने के कारण) मजबूरी में गैरहाजिर रह जाता है।

भारत सरकार के उपक्रम का यह बाबू इन सारी बातों को व्यक्तिशः तो मानता और कबूल करता है। लेकिन आवेदन को आगे बढ़ाने के मामले में अड़ जाता है। बड़ी ही विनम्रता से कहता है - ‘मैं पता लिखने से मना तो तो नहीं कर रहा ना? लेकिन मैं तो सरक्यूलर से बँधा हुआ हूँ जो कहता है कि मैं वही पता लिखूँ जिसका दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध कराया गया है। आप सरक्यूलर देख लो।’ वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं। उसे समझाने की कोशिश की - ‘भाई मेरे! प्ररूप की भावना को समझने की कोशिश करो। एक आदमी के दो-दो पतों के दस्तावेज कैसे हो सकते हैं? स्थायी पते का दस्तावेजी सबूत दे तो रहे हैं! पत्राचार के पते का दस्तावेजी प्रमाण कैसे जुटाया जा सकता है?’ बड़ी विनम्रमा से बाबू जवाब देता है - ‘देखो सा‘ब! मैं तो सरक्यूलर से बँधा हुआ हूँ। आप सरक्यूलर अमेण्ड करवा दो। आपका काम भी हो जाएगा और मेरा भी।’

ऐसे में, इस दफ्तर के इस आवेदन में लोगों को दोनों ही जगह एक ही पता लिखना पड़ रहा है। सरक्यूलर को अमेण्ड करवाने के मुकाबले यह बहुत-बहुत आसान है। सरकार अव्वल तो लोगों की सुविधा का ध्यान रखती नहीं। गलती से यदि रख भी लिया तो ‘बाबू’ उसकी ऐसी-तैसी कर देता है। 

यही ऐसी-तैसी यहाँ हो रही है।
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