‘बाइज्जत बरी’ की तलाश


सामाजिक सरोकारों और राष्ट्रीय चिन्ताओं से दुबले होनेवाले लेखकों और उपदेशकों के लिए भ्रष्टाचार सर्वाधिक आसान और बारहमासी विषय है। जब चाहे, जो चाहे, जितना चाहे लिख लो, कह दो। इसके बाद भी सब कुछ आधा-अधूरा। इतना कि धरती को कागज, समन्दर के पानी को स्याही और धरती की धुरी को कलम बनाया जाए तो भी कम पड़ जाए। भ्रष्टाचार याने गले का वह हार जिसका बोझ सहा भी न जाए और जिसे उतार फेंकने को भी जी न चाहे। हर कोई इससे दुःखी है, मुक्ति पाना चाहता है किन्तु इस मुक्ति के लिए किसी अवतार की प्रतीक्षा में बैठा है।

इसकी व्यापकता, प्रभाव और आकर्षण से बच पाने का दावा कौन कर सकता है? ईश्वर की उपस्थिति पर भले ही एक बार सन्देह किया जा सकता है किन्तु भ्रष्टाचार की उपस्थिति से नहीं। गोया, मनुष्य ने अपने लिए एक और ईश्वर का निर्माण कर लिया है - बहुत ही सुविधाजनक और मनमाफिक व्याख्यायित करने, कोसने के लिए।

चूँकि हम राजनीति से संचालित और प्रेरित देश हैं, शायद इसीलिए आज राजनीति और भ्रष्टाचार परस्पर पर्यायवाची, समानार्थी या कि एक सिक्के के दो पहलू बन कर रह गए हैं। हालत यह हो गई है कि हमारे तमाम राजनीतिक शिखर पुरुष या तो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं या भ्रष्टाचार करनेवालों को बचाने में। गोल गुम्बदवाली इमारत में वे दाहिनी ओर बैठे हों या बाँयी ओर या फिर सामने, कहीं भी -  अपनी तरफ उठी तीन अंगुलियों की अनदेखी कर, सामनेवाले पर एक अंगुली ताने रहते हैं और शुतुरमुर्ग की तरह मान लेते हैं कि पूरा देश उन्हें सच मान रहा है। जब भी, दाहिनी, बाँयी, सामने या किसी ओर दिशा में बैठा हमारा कोई रहनुमा रंगे हाथों पकड़ा जाता है तो सामनेवाला खुश हो जाता है। उपदेश देने लगता है - ‘जो खुद काँच के घरों में बैठे हैं, वे दूसरों के घरों पर पत्थर न फेंके।’ खुद को काँच के घर में बैठे रहने की सूचना देने का यह अत्यन्त शालीन तरीका है।

ऐसे में मुझे अचानक ही, श्री बालकवि बैरागी की एक कहानी याद आ रही है - किसी व्यसन की तलब की तरह। यह कहानी दैनिक भास्कर में बरसों पहले छपी थी और इसका शीर्षक था - बाइज्जत बरी।

कहानी कुछ इस तरह थी -

किसी बड़े कस्बे के पास स्थित एक छोटे से गाँव में एक बूढ़ी माँ और उसका नौजवान बेटा रहते थे। दो वक्त की रोटी जुटा कर जीवित बने रहना, दोनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती औरी इकलौता काम था। बेरोजगारी से मुक्ति पाने के लिए हाथ पैर मारते-मारते बेटा, कस्बे के एक अफीम तस्कर का ‘केरीयर’ (वाहक) बन गया - तस्कर द्वारा सौंपी गई अफीम, निर्देशित मुकाम पर, निर्देशित व्यक्ति तक पहुँचानेवाला। एक तो तस्कर और पुलिस की मिली-भगत और दूसरी - खुद को चतुर-चालाक, सक्षम और कुशल साबित करने का उत्साह। सो, बूढ़ी माँ का वह इकलौता जवान बेटा, जल्दी ही, तस्कर का सबसे विश्वसनीय ‘वाहक’ बन गया।

किन्तु व्यापार तो व्यापार होता है। फिर, तस्करी का व्यापार तो और अधिक खास! पुलिस का काम केवल पैसों से नहीं चलता। दिखाने के लिए और कागजों का पेट भरने के लिए कुछ पकड़ा-धकड़ी करनी ही पड़ती है और इसमें भी दोनों की मिली-भगत काम में आती है। सो, पुलिस का आँकड़ा पूरा करने के लिए तस्कर ने अपने उस श्रेष्ठ ‘वाहक’ को, पुलिस को पकड़वा दिया। नौजवान को यह सब पहले ही बता दिया गया था। अपनी इस गिरफ्तारी को भी उस नौजवान ने अपने काम का हिस्सा ही माना और राजी-खुशी पुलिस अभिरक्षा में चला गया। जाते-जाते अपनी बूढ़ी माँ से कह गया कि वह सेठ के काम से, कुछ महीनों के लिए बाहर जा रहा है और माँ अपने भरण-पोषण की चिन्ता न करे, सेठ सारी व्यवस्थाएँ कर देगा। बूढ़ी माँ ने जमाना देखा था। उसने वह सब भी सुन-समझ लिया जो बेटे ने नहीं कहा था।

दिन बीतते गए। बूढ़ी माँ के यहाँ दाना-पानी समय पर, बराबर पहुँचता रहा। मुकदमा चलता रहा। तारीखें लगती रहीं। अन्ततः, तस्कर ने अपने श्रेष्ठ ‘वाहक’ को बाइज्ज्त बरी करवा ही दिया।

जेल से छूट कर बेटा जब अपनी माँ के पास पहुँचा तो साँझ ढल रही थी। सूरज अस्ताचलगामी हो चला था। बूढ़ी माँ, आँगन में बने तुलसी चौरे पर दिया जला रही थी। बेटे ने माँ को आवाज लगाई और चहकते हुए कहा - ‘माँ! मैं बाइज्जत बरी होकर आ गया।’
अपना क्रम जारी रखते हुए बूढ़ी माँ ने पहले तुलसी माता को, फिर सूरज देवता को प्रणाम किया। फिर बेटे से मुखातिब हुई। बोली - ‘बेटा! अस्त होते सूरज देवता और जगर-मगर हो रही तुलसी माता को साक्षी मान कर, अपने आत्मा राम से पूछ कर बता कि तू वास्तव में बाइज्जत बरी हो कर आया है? यदि तेरा जवाब हाँ हो तो ही घर में आना।’

बूढ़ी माँ की बात सुन कर बेटे के चेहरे का उल्लास पलायन कर गया, बढ़ते पाँव ठिठक गए, माँ के पाँव छूने को बढ़े हाथ कोहनियों में सिमट आए। उसने सूरज देवता को देखा, तुलसी माता को देखा, पल भर को अपनी आँखें मूँदीं और उल्टे पाँवों, कस्बे की ओर लौट गया। बूढ़ी माँ का झुर्रियों भरा चेहरा इन्द्रधनुष बन गया था - एक रंग आ रहा था, दूसरा जा रहा था। आँखों में आँसू और होठों पर गर्वीली मुस्कान। उसने सूरज देवता और तुलसी माता को माथा नवाया और गहरी निःश्वास ले, अपनी झोंपड़ी में चली गई।

यह कहानी मुझे लगातार ‘हाण्ट’ कर रही है। जी करता है - कचहरी के बाहर, पक्षकारों को बुलाने के लिए हाँक लगानेवाले, लाल पट्टाधारी दफ्तरी की तरह आवाज लगाऊँ - ‘है कोई बाइज्जत बरी?’ लेकिन आवाज लगा नहीं पा रहा। कैसे लगाऊँ? दूसरों से क्या पूछूँ? खुद से शुरुआत की तो पाया - मैं तो खुद ही बाइज्जत बरी नहीं! 

मेरी तो हिम्मत नहीं हो रही। आप ही तलाश कीजिएगा और कोई ‘बाइज्जत बरी’ मिल जाए तो बताइएगा।

रेखांकन : सरोजकुमार

पहले जब पढ़ा था
तुम्हें मैंने,
अनेक
शब्द, वाक्य, पैरेग्राफ
रेखांकित कर डाले थे,
माला के मनकों सा
उन्हें खूब
फेरा भी!

किन्तु, आज
जब से तुम्हें
दुहराकर उठा हूँ मैं-
खोज रहा हूँ
रबर का कोई टुकड़ा
.....   .....   .....
रेखाएँ
गलत
खींच डाली थीं

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

उन्होंने कार्टूनिस्ट को भोजन पर बुलाया

अम्बेडकर-नेहरू के कार्टून को लेकर जो कुछ हुआ, वह हमारी मानसिक और वैचारिक दरिद्रता तथा संकीर्णता का द्योतक तो है ही, इस बात का भी द्योतक है कि राष्ट्रीय स्तर पर हमारी सामाजिक-सामूहिक चेतना परास्त हो चुकी है। इस मामले में सरकार और काँग्रेस ने जो फुर्ती-चुस्ती और आतुरता बरती उससे तय करना मुश्किल हो रहा था कि वह परेशान अधिक है या खुश? वोट की राजनीति करने के अतिरेकी हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों को भले ही कुछ नजर नहीं आया हो किन्तु मुझे तो इसमें आपातकाल की और आपातकाल में लागू की गई सेंसरशिप की आहट सुनाई दी।


कहीं एक सूक्ति पढ़ी थी (जो मैंने कभी न कभी यहाँ अवश्य ही प्रयुक्त की होगी) - ‘यह तो अच्छा है कि हम अपने पुरखों पर गर्व करें। किन्तु अधिक अच्छा यह होगा कि पुरखे हम पर गर्व कर सकें।’ कार्टून प्रकरण में हमारे व्यवहार को देखकर हमारे ‘पुरखे’ निश्चय ही चकित, क्षुब्ध, व्यथित, हतप्रभ और आक्रोशित हो रहे होंगे। वे खुश हो रहे होंगे कि यह दिन देखने से पहले ही वे दिवंगत हो गए। हमने ‘राजा के प्रति राजा से अधिक वफादार’ होने की कहावत को जिस ‘सीनाजोरी’ से साकार किया है, वह ‘अविस्मरणीय’ बन कर रह गया है। जिस कार्टून पर खुद अम्बेडकर और नेहरू को कोई आपत्ति नहीं हुई, जिसमें उन्हें कुछ भी अनुचित नहीं लगा, वही कार्टून पूरे देश के लिए बवाल बना दिया गया। होना तो यह चाहिए था कि अपने आदर्श पुरुषों के सन्देशों और आचरण को आत्मसात कर हम अपना जीवन उज्ज्वल-निर्मल-धवल बना कर उनके ‘सच्चे अनुयायी’ बन, उनकी आत्माओं को शान्ति देते। किन्तु यहाँ तो एकदम उल्टा हो गया! हमने तो अपनी दुर्बलता और वैचारिक दरिद्रता-संकीर्णता उन पर थोप दी। अपना कद बड़ा करने के लिए हमने अपने आदर्श पुरुषों का कद घटाने का अविवेक कर दिया। चूँकि, अम्बेडकर के बारे में मेरी जानकारियाँ ‘अत्यल्प’ से भी कम हैं इसलिए नहीं जानता कि आज वे होते तो क्या करते किन्तु नेहरूजी के बारे में जितना कुछ पढ़ा, उसके आधार पर निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि आज वे होते तो, अपने ‘इतिहास प्रसिद्ध क्षण भंगुर आक्रोश’ के अधीन (कार्टून में, उनके हाथ में दिखाए गए चाबुक से) वे काँग्रेसियों की चमड़ी उधेड़ देते।


इसके साथ ही साथ मुझे 1969-70 की एक घटना याद आ गई। कुछ इस तरह, मानो, प्रलयंकारी वर्षा के दौरान, धरती फाड़ देनेवाली बिजली की चमक और गड़गड़ाहट के बीच, बीहड़-वन में अचानक ही बाँस का कोई घूँपा धरती चीर कर उग आया हो।


तब दादा (श्री बालकवि बैरागी) मध्य प्रदेश सरकार में सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री बने ही बने थे।  उन्हीं दिनों, दैनिक स्वदेश में, मुख पृष्ठ पर एक कार्टून छपा। कार्टून में किसी जन सभा का एक मंच दिखाया गया था जिसमें एक व्यक्ति, माइक पर बोलता हुआ और पीछे, कुर्सियों पर बैठे दो व्यक्ति आपस में बात करते दिखाए गए थे। कार्टून के नीचे कुछ इस तरह (केप्शन) लिखा गया था - ‘ऐसे एक-दो और कवियों को मन्त्री बना लेना चाहिए। सभाओं में भीड़ जुटाने में, बड़े काम आते हैं।’


तब, दैनिक स्वदेश की ‘दशा’ आज जैसी नहीं थी। यथेष्ठ प्रसार संख्यावाला अखबार हुआ करता था और चूँकि ‘संघ/जनसंघ’ की वैचारिकता उसका आधार थी, इसलिए वह काँग्रेस विरोधियों का सर्वाधिक प्रिय अखबार हुआ करता था। सरकार के मन्त्री भी उसे, विशेष रूप से, ध्यान से पढ़ते थे। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, श्री माणकचन्दजी वाजपेयी ‘स्वदेश’ के सम्पादक थे उन दिनों। वाजपेयीजी को ‘वाजपेयीजी’ के नाम से कम और ‘मामाजी’ के नाम से अधिक जाना जाता था।  


जिस दिन ‘वह’ कार्टून छपा था, उस दिन मैं भोपाल में ही था। शाहजहानाबाद स्थित, सरकारी आवास ‘पुतलीघर’ के विशाल बगीचे में बैठ कर हम दोनों भाई, सुबह की पहली चाय पी रहे थे। अखबारों का ढेर सामने टेबल पर रखा था। दादा ने सबसे पहले ‘स्वदेश’ निकाला और जैसे ही उनकी नजर कार्टून पर पड़ी, उनका चिरपरिचित आसमानफाड़ ठहाका हवाओं में गूँज उठा। अखबार मुझे देते हुए, चहकते हुए बोले - ‘भई! बब्बू! आज तो मजा आ गया। अपने होने को, अपने सामनेवाला कबूल कर ले? वह भी राजनीति में? तो और क्या चाहिए?’ मैंने कार्टून देखा और दादा से सहमत हुआ।


उन दिनों, टेलीफोन सुविधा आज जैसी नहीं थी। तब, अपने नगर से बाहर बात करने के लिए टंªक-कॉल बुक करना पड़ता था। दस बजे के आसपास जैसे ही दादा के निज सहायक, निरखेजी आए तो दादा ने कहा - ‘निरखेजी। सबसे पहले, ‘स्वदेश’ वाले मामाजी से बात कराइए।’ निरखेजी ने विषय-वस्तु को भाँपने के लिए ‘स्वदेश’ देखा और कहा - ‘सर! आपको बधाइयाँ। आज अपोजीशन ने आपका नोटिस लिया।’


निरखेजी ने ‘पीपी’ (पर्टिक्यूलर परसन - याने व्यक्ति विशेष से बात करने की श्रेणीवाला) ट्रंक कॉल बुक किया। मामाजी तब तक कार्यालय नहीं पहुँचे थे। कोई साढ़े ग्यारह बजे के आसपास, मामाजी उपलब्ध हुए।  दादा ने लगभग ऐसा कुछ कहा - ‘मामाजी! आपके कार्टूनिस्ट को मेरी ओर से धन्यवाद दीजिएगा कि उन्होंने मुझे अपने कार्टून का विषय बनाया। आपको भी धन्यवाद कि आपने यह कार्टून छापा। आप एक कृपा करें। अपने कार्टूनिस्ट को, मेरे खर्चे पर भोपाल भेजें। मुझे महत्व और यह सम्मान देने के लिए, मैं उनके साथ भोजन करके उन्हें धन्यवाद देना चाहता हूँ।’


चूँकि बात समाप्त कर, दादा अपने काम में लग गए, मुझसे कुछ नहीं कहा इसलिए मुझे नहीं पता कि दूसरी ओर से मामाजी ने क्या कहा। मैं अगले ही दिन चला आया था इसलिए मुझे यह भी नहीं पता कि मामाजी ने अपने कार्टूनिस्ट को भोपाल भेजा या नहीं और दादा, अपनी भावनानुसार कृतज्ञता ज्ञापित कर पाए या नहीं। किन्तु आज यह सब याद आ गया। यह भी खूब अच्छी तरह से याद आ रहा है कि दादा के एक भी प्रशंसक या किसी मन्त्री ने  इस कार्टून पर आपत्ति नहीं जताई थी। सबने प्रसन्नता, आत्मीयता से ही इसका आनन्द लिया था। बाद में दादा ने बताया था कि तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री श्यामाचरणजी शुक्ल ने, इस कार्टून के लिए दादा को बधाई दी थी।


यह सब पहले भी याद आता रहा है, बार-बार, विभिन्न अवसरों-प्रसंगों पर। यह सब सुना-सुना कर इसका खूब आनन्द भी लिया है। किन्तु आज जब यह सब आ रहा है तो मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।

यही है हमारा हासिल? 

सपनों का धन्धा: सरोजकुमार


सिनेमा मनभावन है
उसमें जैसी सुन्दरी है, वैसी
मेरी बगल में नहीं है,
उसमें जैसा रोमांस है-
मेरे जीवन में नहीं है,
उसमें जैसे गाने हैं
मेरे कण्ठ में नहीं हैं,
उसमें जो संसार है
मेरा ही सपना है,
उसी में समा जाने को आता हूँ!
परदे पर बार-बार
मैं ही इतराता हूँ!

सिनेमावालो,
तुम मुझे
और और मुगालते दो
मैं तुम्हें
और और धन्धा दूँगा!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि। 

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

आर्मीनिया: सरोजकुमार

प्रकृति नहीं माँगती क्षमा
न गिनाती है उपकार
नहीं देती कोई आदेश
न रखती है अपेक्षा!

कोई महाशक्ति हो
तो बनी रहे
अपने मोहल्ले की,
काँपें, थर्राएँ, दुम हिलाएँ
उसके दोस्त और दुश्मन
अपनी बला से!

धरती काँपी
किसी के डर से नहीं
अपने ही स्पन्दन से,
आर्मीनिया ढह गया
हमारी औकात कह गया!

प्रकृति कहीं भी
दुहरा सकती है आर्मीनिया
बिना किसी पूर्व सूचना के,
हमारे सूचना यन्त्रों की
जादुई आँखों के बावजूद!

आसमान में पतंग उड़ा लेने का
मतलब
यह नहीं है, कि आँधियाँ
हमारे कहने में हैं
और आसमान कब्जे में!
प्रयोगशाला में नाथे गए
नथुनों के अलावा
असंख्य नथुने हैं प्रकृति के
और वह कहीं भी
घुसा सकती है सींग
अपने कौतुक में!

इसे अपनी पराजय समझ कर
निराश होने की
जरूरत नहीं;
यह प्रकृति की
विजय भी नहीं है!

खेल है यह प्रकृति का,
और प्रकृति अपने खिलौनों से
खिलौनों द्वारा बनाए नियमों से
नहीं खेलती!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

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आत्मीयता और अहम् बनाम बड़ापन और बड़प्पन

आत्मीयता और अहम् साथ-साथ रह ही नहीं सकते। रहें तो ‘केर-बेर को संग‘ जैसी दशा में - एक अपनी मस्ती में डोलता रहे और दूसरा लहू-लुहान होता रहे। इसमें यदि ‘अपेक्षा’ का बघार लग जाए तो सब कुछ ध्वस्त होना लगभग तय। दो अलग-अलग मामलों में यही अनुभव किया मैंने।


पहला मामला भाऊ का। यह संयोग ही था कि तीन हिस्सों वाले इस मामले के प्रत्येक हिस्से का मैं चश्मदीद गवाह रहा।


भाऊ मेरे कस्बे के अग्रणी व्यापारी हैं। नामी शो-रूम है उनका। दैनन्दिन जीवन में प्रयुक्त होने वाले, बहुराष्ट्रीय कम्पनी के उत्पादों की विस्तृत श्रृंखला के एकमात्र अधिकृत थोक विक्रेता। लगभग पचीस कर्मचारियों की फौज। सब के सब व्यस्त। साँस लेने की फुरसत भी मुश्किल से मिलती है कर्मचारियों को। कभी ट्रक से माल उतारना है तो इस उतरे माल को फुटकर विक्रेताओं तक पहुँचाने के लिए, उनकी माँग और आवश्यकतानुसार पेकिंग कर, ठेले या टेम्पो या लोडिंग रिक्शा से उन तक पहुँचाना है। दिन भर गहमागहमी बनी रहती है भाऊ के शो रूम पर।


पुराने आदमी हैं भाऊ। इस जमाने में भी ‘परिवार’ से आगे बढ़कर ‘कुटुम्ब’ की सोचते हैं। इसीलिए, अपने एक चचेरे भाई विवेक को अपने साथ रखे हुए हैं। भाऊ के कर्मचारियों में एक वही रिश्तेदार है। सो, उसकी चिन्ता भी करते हैं लेकिन इसी कारण सबसे ज्यादा डाँट भी उसे ही पड़ती है। गुस्सा आदमी को बेभान कर देता है। सो, विवेक का डाँटते समय भाऊ, कभी-कभी ध्यान नहीं रख पाते कि वे सबकी उपस्थिति में डाँट खाना, विवके को मर्माहत कर जाता है। किन्तु विवेक भी क्या करे?  आर्थिक स्थितियों से उपजी विवशता के अधीन सर झुकाए, जबान बन्द किए रहता है। भाऊ उससे खुश कम और खिन्न अधिक रहते हैं। किन्तु (दुहरा रहा हूँ) वे विवेक की चिन्ता खूब करते हैं।


कस्बे में एक नया जनरल स्टोर खुला। भाऊ के यहाँ से सामान जाना ही था। पहली बार का मामला था। सो, भाऊ ने नए ग्राहक की अतिरिक्त चिन्ता करते हुए, अपने घर के आदमी, विवेक को भेजा। लौट कर विवेक ने नए ग्राहक का हस्ताक्षरयुक्त (सामान का) चालान सौंपा। भाऊ ने नए ग्राहक के मिजाज और व्यहार का जायजा लेने के लिए विवेक से पूछताछ की। विवेक बोला - ‘सेठ तो लिा नहीं। दो लड़कियाँ सारा काम देख रही हैं। लेकिन दोनों ही बद्तमीज हैं। सीधे मुँह बात नहीं करतीं और जबरन ही मीन-मेख निकाल कर झगड़े पर उतारू रहती हैं।’ सुनते ही भाऊ का पारा चढ़ गया। अपनी बात कह कर विवेक साँस लेता, उससे पहले ही भाऊ पिल पड़े। बोले - ‘जरूर तूने ही कुछ उल्टा-सीधा कहा होगा। बिना बात के भला कोई क्यों झगड़ा करेगा? तुझे भेजा था कि घर का आदमी है। तू ढंग-ढांग से व्यवहार करेगा। लेकिन तू तो पहली ही डीलिंग में भट्टा बैठा कर आया है।’ विवेक कुछ नहीं बोला। हर बार की तरह इस बार भी नीची नजर किए चुप रह गया।


अगले पखवाड़े फिर उस स्टोर पर सामान जाना था। भाऊ ने इस बार अपने दो कर्मचारियों को भेजा। वे सामान दे कर लौटे तो भाऊ शो रूम पर नहीं थे। दोनों ने, चालान और पहलेवाले बिल के भुगतान का चेक मैनेजर साहब को सौंप दिया।


तीसरे पखवाड़े फिर सामान जाना था। लोडिंग रिक्शा तैयार था। भाऊ ने उन्हीं दो कर्मचारियों की तरफ चालान बढ़ाया और कहा - ‘भाग कर जाओ और भाग कर आओ। और भी जगह सामान पहुँचाना है।’ दोनों ने एक साथ इंकार कर दिया। बोले - ‘नहीं भाऊ! उस दुकान पर हम नहीं जाएँगे। वहाँ जो दो लड़कियाँ काम देखती हैं वे बहुत ही बेकार हैं। सीधे मुँह बात नहीं करतीं। कुछ तो भी बोल देती हैं। पता नहीं घर से झगड़ कर आती हैं या सेठ से नाराज हैं। बिना बात के झगड़ा करती हैं।’


भाऊ सन्न रह गए। कर्मचारियों के जवाब से कम और इस वार्तालाप के समय विवेक की उपस्थिति से ज्यादा। विवेक लगातार भाऊ को देखे जा रहा था। और भाऊ? विवेक की आँखों की ताब झेलना भाऊ के लिए मुश्किल हो गया था। मानो विवेक की आँखें पूछ रही हों - ‘बोलो! भाऊ! अब क्या कहोगे? अब तो मेरी बात पर भरोसा हुआ?’ भाऊ इधर-उधर देख कर बचने की कोशिश कर रहे थे। विवेक की आँखों में उलाहना साफ पढा जा सकता था - ‘मुझे अकारण ही डाँटने के लिए खेद प्रकट करोगे? ‘सारी’ बोलोगे?’ अपनी चूक भाऊ को याद आ रही है और तब विवेक को डाँटने को लेकर वे अपराध भाव से ग्रस्त भी हैं - यह मैं साफ-साफ अनुभव कर पा रहा था। किन्तु विवेक से क्षमा माँगना या खेद प्रकट करना उनके लिए मुमकिन  नहीं हो पा रहा था। गलती करने का अहसास तो उनके चेहरे पर था किन्तु इनसे पहले, अहम् वहाँ विराजित था। अपने पर आश्रित, उम्र में अपने से छोटे, अपने चचेरे भाई से क्षमा माँगना उन्हें अपनी हेठी लग रहा था। उन्होंने जैसे-तैसे दोनों कर्मचारियों को भगाया - ‘भागो! स्सालों! कुछ तो भी कहते रहते हो। जाओ! अपना काम करो और हमेशा याद रखो के ग्राहक कभी गलती नहीं करता। हम ही गलती करते हैं। इस तरह, ग्राहकों से उलझते रहे तो कर लिया धन्धा।’


दोनों कर्मचारी तो चले गए किन्तु भाऊ कहाँ जाते? वे तो अपनी कुर्सी पर ही बैठे थे। उनकी मुसीबत यह थी कि उनके पासवाली कुर्सी पर ही विवेक भी बैठा था जो उन्हें लगातार घूरे जा रहा था।


अन्ततः विवेक ने ही नजरें फेर कर भाऊ को राहत दी। मैंने देखा - बड़ापन तो यकीनन भाऊ के पास था किन्तु बड़प्पन विवेक के पास था। उसका चेहरा मानो हजारों दीपों की रोशनी से दिपदिपा रहा था।


मुझे नहीं पता कि घटनाक्रम के इस तीसरे हिस्से के बाद, दोनों भाइयों के बीच स्थितियाँ सामान्य हुईं या नहीं।


यह तो हुई भाऊ के अहम् की बात। किन्तु अहम् के साथ अपेक्षा के आने पर क्या दशा होती है, यह जाना मैंने श्रीकान्त भाई से।


श्रीकान्त भाई का किस्सा फिर कभी।    

कविता: सरोजकुमार

कविता नहीं है मेरी विवशता
हवा और पानी की तरह!

कविता नहीं है मेरा धर्म
बहाई या इस्लाम की तरह!

कविता नहीं है मेरी रोटी
तनखा या घूस की तरह!

कविता नहीं है मेरा शौक
टेनिस या शराब की तरह!

कविता नहीं है मेरी दोस्त
बानी या बलवीर की तरह!

कविता है मेरी कोशिश
पहाड़ों पर चढ़ाई की तरह!

कविता है मेरा सपना,
पेड़ पर फूलों की तरह!

कविता है मेरी सुविधा,
कुएँ की रस्सी की तरह!

कविता है मेरी रचना,
बया के घोंसले की तरह!

कविता है मेरी दुश्मन,
कमरे के दर्पण की तरह!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

तुम कहीं के भी कवि क्यों न हो : सरोजकुमार

हो सकता है मेरे यहाँ दिन हो
तुम्हारे यहाँ रात हो!
मेरे यहाँ वसन्त हो
तुम्हारे यहाँ पतझर!
मेरे यहाँ प्रजातन्त्र
तुम्हारे यहाँ तानाशाही!
मेरे यहाँ गरीबी
तुम्हारे यहाँ ऐश्वर्य!
मरती हों औरतें मेरे यहाँ कुएँ में गिरकर
तुम्हारे यहाँ गोलियाँ खाकर!
इससे क्या फर्क पड़ता है?
वसन्त जब भी होगा और जहाँ भी
फूल खिलेंगे
कशिश जब भी होगी और जहाँ भी
कवि पैदा होंगे!

कोई फर्क नहीं पड़ता
तुम्हारी चमड़ी के रंग
और जीने के ढंग से,
तुम्हारी आस्थाओं और ईश्वर से!
यह काफी है तुम्हें जानने के लिए
कि तुम कवि हो
और अगर हो, तो
कहीं के भी क्यों न हो,
तुम्हारी अनुभूतियों के आलम्बन
और सम्वेदनाओं के मूलधन
अनजाने नहीं हैं,
कविता का पहला प्यार पीड़ा है!

आग जहाँ भी होगी,
आग होगी,
ईंधन के हिसाब से,
आग की जात नहीं बदलती!

नदी जहाँ भी होगी,
नदी होगी,
किसी देश की नदी
पहाड़ पर नहीं चढ़ती!

तुम्हारी कविताएँ
जितनी तुम्हारी हैं, उतनी हमारी भी,
कविता की कोई
मेकमोहन रेखा नहीं होती!
कविता का समूचा जुगराफिया
एकमात्र इंसान है-
जिसकी सम्प्रभुता में
प्रभुता नहीं प्यार है!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

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जिन पर मुनाफा हावी नहीं हो सका

‘पाव आनी सेठ’ अपनी किस्म के अनूठे तो थे किन्तु एक मात्र नहीं थे। यादवजी, ‘पाव आनी सेठ’ की बात समाप्त करते, उससे पहले ही मुझे सैलानावाले, भेरुलालजी शर्मा ‘किरण’ याद आ गए। ऐसे ही किन्हीं एक सेठजी की बात उन्होंने  बताई थी किन्तु तब मैंने ध्यान नहीं दिया था।
किरणजी को फोन लगाया तो, उन्होंने रतनलालजी संघवी के बारे में बताया।

संघवीजी थे तो कपड़ों के व्यापारी किन्तु तमाम व्यापारियों से अलग हटकर। वे मानो ‘गृहस्थ सन्त’ थे। कहते हैं कि व्यापार और सन्तोष के बीच हमशा छत्तीस का आँकड़ा बना रहता है। किन्तु संघवीजी ने इस लोक मुहावरे को झूठा साबित कर रखा था। महावीर के अनुयायी संघवीजी ने ‘अपरिग्रह’  अपना रखा था। दीपावली से नया साल लगते ही वे तय कर लेते कि आजीविका हेतु  इस साल उन्हें कितना व्यापार (टर्न ओवर) करना है। व्यापार का स्वनिर्धारित आँकड़ा पूरा होते ही संघवीजी, वर्ष की शेष अवधि के लिए दुकान पर ताला लगा देते। कभी-कभी तो एक दिन के व्यापार का आँकड़ा तय कर लेते और जैसे ही आँकड़ा पूरा होता, दुकान ‘मंगल’ कर घर चले आते। साख के मामले में तय करना मुश्किल था कि किसकी साख ज्यादा है - संघवीजी की या उनकी पेढ़ी की। उनकी दुकान पर मोल-भाव करते शायद ही किसी को देखा गया हो। कालान्तर में उन्होंने दीक्षा ले ली - जैन साधु बन गए। उनकी बेटी उनसे पहले ही दीक्षा लेकर साध्वी हो चुकी थी। संघवीजी इन दिनों राजस्थान मे कहीं विराजित हैं। वृद्धावस्था के कारण उनका ‘विचरण’ बन्द हो गया है जो ‘साधु’ के लिए अनिवार्य होता है। अब वे ‘ठाणापति’ (‘स्थानपति’ अर्थात् एक स्थान पर स्थापित) हो गए हैं।


संघवीजी की दुकान आज भी सैलाना में चल रही है। उनके बेटों ने काम काज सम्हाला हुआ है। किन्तु ‘व्यापार के लिए जीवन नहीं, जीविका के लिए व्यापार’ का सूत्र संघवीजी के साथ ही चला गया है।

किरणजी से बात करते-करते ही मुझे झब्बालालजी जैन (तरसिंग) याद आ गए।  उनकी याद आते ही खुद पर झुंझलाहट हो आई। उनकी याद तो सबसे पहले आनी चाहिए थी। उनके छोटे पुत्र सुभाष भाई जैन मेरे मित्र से आगे बढ़कर मेरे संरक्षक बने हुए हैं - बरसों से। उनके मुँह से उनके पिताजी के बारे में खूब सुना। एक बार उनके दर्शन भी किए। उन पर प्रकाशित पुस्तिका में एक बार उन पर लिखा भी। किन्तु या तो मैं ‘कस्तूरी मृग’ हो गया या फिर ‘अपनेवाले की अनदेखी करने का अपराधी’ बन गया।

रतलाम जिले के ग्राम सुखेड़ा के मूल निवासी झब्बालालजी, रतलाम में ‘स्टेशन दलाल’ का काम किया करते थे - व्यापारियों के सामान/माल को रेल से बाहर भेजने और बाहर से आए सामान/माल को रेल कार्यालय से प्राप्त कर व्यापारियों तक पहुँचाने का काम। वे भी ‘गृहस्थ सन्त’ ही थे। ‘व्यापारिक-आचरण’ इतना साफ-सुथरा, इतना पारदर्शी, इतना विश्वसनीय कि विवाद की किसी भी स्थिति में रेल अधिकारियों के लिए झब्बालालजी की कही बात ‘अन्तिम सत्य’ हुआ करती थी। रेल्वे का ‘अभिलेखीय तथ्य-सत्य’ (रेकार्डेड फेक्ट-ट्रुथ) उनके कहे के सामने अनदेखा कर दिया जाता था।

महावीर का ‘अपरिग्रह’ झब्बालालजी के रहन-सहन और आचरण में साफ नजर आता था। व्यापार उनके जीवन का ‘साधन’ था, ‘साध्य’ नहीं। उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था कि उनका व्यापार (टर्न ओवर) जिस वर्ष पन्द्रह हजार का आँकड़ा छू लेगा, उसी दिन वे व्यापार से मुक्ति लेकर साधु बन जाएँगे।

एक दीपावली पर हिसाब करते हुए उन्हें मालूम हुआ कि पन्द्रह हजार का आँकड़ा तो कुछ महीनों पहले ही पार हो चुका! यह जानकारी होते ही उन्होंने अपनी जीवन संगिनी को अपना निर्णय बताकर, सन्यास के लिए उनकी अनुमति माँगी। तत्काल तो नहीं किन्तु अन्ततः अनुमति मिल ही गई। अपने गुरु महाराज के सामने उपस्थित हो, अपना निर्णय और पत्नी की अनुमति की बात कही। गुरु महाराज ने अनुमति नहीं दी। कहा कि अभी झब्बालालजी के बच्चे छोटे हैं। जब तक वे सयाने नहीं हो जाएँ तब तक गुरु महाराज अनुमति नहीं देंगे। गुरु महाराज ने परिहास किया - ‘जिस दिन पन्द्रह हजार का संकल्प लिया था, उस दिन के पन्द्रह हजार का मूल्यांकन आज तो कहीं अधिक होगा। इसलिए, उस दिन के पन्द्रह हजार जिस दिन आज के पन्द्रह हजार बन जाए, उस दिन आना।’ झब्बालाजी खिन्न-मन लौटे। व्यापार में उनका मन फिर कभी नहीं लगा। अन्ततः कुछ बरसों बाद गुरु महाराज को उन्हें सन्यास धारण करने की अनुमति देनी ही पड़ी और उनका नामकरण किया - झब्बा मुनि। उनके इसी स्वरूप में उनके दर्शन, रतलाम में ही किए थे मैंने।

जब तक शरीर ने साथ दिया, झब्बा मुनिजी विचरणरत रहे। वृद्धावस्था के कारण आगर (जिला-शाजापुर) में ‘ठाणापति’ बने। कुछ बरस पहले ही उनका देहावसान हुआ है।

जब व्यापार खूब चल रहा हो, अपेक्षा से अधिक मुनाफा हो रहा हो तब संयमित रह पाना असम्भव नहीं तो दुरुह तो होता ही है। किन्तु ऐसे दुरुह क्षणों में संयमित रह कर, व्यापार को खुद पर हावी न होने देनेवाले लोग ही व्यापार को स्थापना और प्रतिष्ठा दिलाते हैं।

यही भारतीयता है और यही है ‘लक्ष्मी’ और ‘पूँजी’ की विभाजन रेखा।

(यह पोस्ट समाप्त करते-करते ही मुझे ‘कारु मामा’ स्मरण हो आए हैं। ‘खिलन्दड़’ किस्म के ‘कारु मामा’ के बारे में जानकर आपको निश्चय ही अच्छा लगेगा। किन्तु उन पर लिखने से पहले उनका चित्र हासिल करने की कोशिश करूँगा।)

मेहँदी : सरोजकुमार

आँगन के पार
मेहँदी लगा देने से
दीवार सी उठ आई है!
हरे-भरे पौधों की
हो गई है हिफाजत!

आँगन हो लड़की
मेहँदी लग जाए
तो रक्षा हो जाती है,
दो पाए
चौपाए
मुँह नहीं मार पाते!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

पहली बार सुनी ऐसी बातें

कभी-कभी कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं जिनका महत्व, प्रथमदृष्टया या कि सतही तौर पर बहुत ही सीमित तबके के लिए अनुभव होता है किन्तु जब उनके ‘मर्म’ का भान होता है तो मालूम हो पाता है कि हमारी पहली अनुभूति वस्तुतः हमारे सीमित सोच का ही परिणाम थी। सच तो यह है कि कोई भी अच्छी बात सबके लिए समान रूप से अच्छी ही होती है फिर भले ही वह किसी खास वर्ग को लक्ष्यित कर कही गई हो।

राकेश कुमारजी की बातें मुझे ऐसी ही लगीं और इसीलिए उन्हें यहाँ देने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ।

राकेश कुमारजी, भारतीय जीवन बीमा निगम के, मध्य क्षेत्र (जिसमें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल हैं) के प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक (रीजनल मार्केटिंग मैनेजर) हैं। भारतीय जीवन बीमा निगम के हम अभिकर्ताओं के एक मात्र, मान्यता प्राप्त, राष्ट्रीय संगठन ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) की मध्‍य क्षेत्रीय इकाई (सेण्ट्रल झोनल कौंसिल) का, अभिकर्ताओं का एक ‘महा अधिवेशन, 11 फरवरी 2012 को भोपाल में सम्पन्न हुआ था। अभिकर्ताओं की भागीदारी के सारे अनुमानों (दो हजार की उपस्थिति के अनुमान के मुकाबले छः हजार से अधिक अभिकर्ताओं की उपस्थिति) को ध्वस्त कर देनेवाले इस ऐतिहासिक अधिवेशन की विशेषता यह थी कि इसमें, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में स्थित, भारतीय जीवन बीमा निगम की समस्त 148 शाखाओं के अभिकर्ताओं ने भागीदारी की थी। इस ‘यादगार अधिवेशन’ को ‘अभिलेखीय यादगार’ बनाने के लिए प्रकाशित स्मारिका के विमोचन समारोह में राकेश कुमारजी आए थे। वहीं उन्होंने ये बातें कहीं।

उन्होंने बताया कि नौकरी की तलाश में उन्होंने अनेक संस्थाओं में आवेदन किया था और परीक्षाएँ दी थीं। प्रत्युत्तर में उन्हें, भारतीय विदेश सेवा में ‘अनुभाग अधिकारी’ (सेक्शन ऑफिसर) जैसे प्रतिष्ठित पद सहित, नाबार्ड, भारतीय जीवन बीमा निगम आदि से भी सेवा प्रस्ताव मिले थे। वे तय नहीं कर पा रहे थे कि कौन सी नौकरी में जाएँ। उन्होंने अपने पिताजी से पूछा तो तनिक विचार करने के बाद पिताजी ने कहा कि राकेश कुमारजी को भारतीय जीवन बीमा निगम की नौकरी करनी चाहिए। राकेश कुमारजी ने कारण पूछा तो पिताजी ने उत्तर दिया - ‘क्यों कि बाकी सारी सरकारी नौकरियों के लोगों के बारे में तो खबरें छपीं किन्तु एलआईसी के किसी भी आदमी के, चोरी और भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े जाने की खबर पढ़ने में नहीं आई।’

भाजीबीनि के तमाम अधिकारी हम अभिकर्ताओं से एक ही माँग करते हैं - ‘बीमा लाइए।’ कहा तो राकेश कुमारजी ने भी यही किन्तु मेरे, बाईस वर्षों के अब तक के अनुभवों को परे सरकाते हुए, सर्वथा अनूठे ढंग से। राकेश कुमारजी ने अभिकर्ताओं को ‘व्यवसायी’ बनकर नया बीमा लाने की सलाह दी, ‘व्यापारी’ बन कर नहीं। दोनों शब्दों का बारीक अन्तर, व्यक्ति के जीवन में आमूलचूल बदलाव ला देनेवाला है।

राकेश कुमारजी ने कहा - ‘लक्ष्य को आँकड़ों में मत बदलिए। प्रतियोगिता में सफल होने की माला पहनने के लिए काम नहीं करें। ऐसा करने में, अन्तिम क्षणों में आत्मघाती चूक हो सकती है। आँकड़ा छूने के लालच में गुणवत्ता ओझल हो जाती है और ऐसे में, अन्तिम दो-चार पॉलिसियाँ आपकी एजेन्सी बर्खास्त करा सकती हैं।’

दूसरी बात राकेश कुमारजी ने कही - ‘किसी एजेण्ट के अपमान में हिस्सा कभी न बनें। ऐसा करके आप खुद का सम्मान सुरक्षित करेंगे।’

तीसरी बात - ‘बीमा छोड़ने का, लोगों के बीमा प्रस्तावों को निरस्त करने का साहस रखिए। अधिकाधिक लोगों से मिलिए और अपात्रों को खारिज कीजिए। लोगों को बखूबी पता होता है कि उनका बीमा नहीं हो सकता। ऐसे लोग खुद चलकर आपके पास आते हैं। उनसे कहिए कि आप उनका बीमा नहीं करेंगे। आपका एक इनकार, सबका भला करेगा - आपका, एलआईसी का और खुद उस व्यक्ति के परिवार का क्योंकि उसकी शीघ्र मृत्यु की दशा में वास्तविकता सामने आएगी ही और उसके परिजनों को दावे की रकम नहीं मिल पाएगी।’

चौथी बात - ‘अपने व्यवहार में गरिमा बनाए रखिए। इससे, लोगों को आपसे दुर्व्यवहार करने में असुविधा होगी।’

पाँचवीं बात - ‘आपका व्यवसाय ऐसा है कि आपको अधिकाधिक लोगों से बात करनी पड़ती है। किन्तु ‘किससे बात नहीं करनी है’ यह जरूर सीखें।’


छठवीं बात - ‘आप व्यवसायी हैं, भिखारी नहीं। बीमा बेचिए, भीख मत माँगिए और सामनेवाला मना करे उससे पहले खुद उसे मना करके उठ आइए।’

सातवीं बात - ‘ईश्वर ही ऐश्वर्य है। इसलिए, खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर काम कीजिए। जीवन का आनन्द लीजिए और आनन्द के लिए ही काम कीजिए।’

बाईस वर्षों की अपनी एजेन्सी में मैंने अनेक अधिकारियों के उद्बोधन सुने किन्तु इस किसम का यह पहला ही उद्बोधन था जिसमें बीमा ‘एजेन्सी के लक्ष्य’ को ‘जीवन की बेहतरी’ से और ‘ईश्वर’ से जोड़ा गया था, जिसमें ‘व्यापार’ के मुकाबले ‘व्यवसाय’ को वरीयता दी गई थी और ‘ईश्वर प्राप्ति’ को ‘ऐश्वर्य प्राप्ति’ कहा गया था।

जैसाकि मैंने शुरु में कहा था, ये सारी बातें राकेश कुमारजी ने हम बीमा अभिकर्ताओं के लिए कही थीं किन्तु मुझे ये बातें सब पर लागू होती लगीं - यह भेद किए बिना कि वह कौन से व्यवसाय में लगा हुआ है।

ऐसी ही बातें मनुष्य जीवन को निर्मल बनाती हैं और उदात्त भी।

उड़ंची : सरोजकुमार


तुम्हें कोई उड़ंची दे सकता है,
आकाश नहीं!
अपनी पतंग तो
तुम्हें ही उड़ाना पड़ेगी!

उसकी काँप,
उसके ठुड्डे
उसका मंजा,
उसकी ठुमकी
उसका हुचका!
सबका अपना गणित है!

उड़ंची वाली
शुरुआती उड़ान
पतंगबाजी नहीं है!
पतंग के दाँव, उसके पेंच
उसकी ढील, उसकी खेंच
सबका अपना व्याकरण है!

उड़ंची, ऊँचाइयों का
आश्वासन नहीं है!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि। 

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

‘पाव आनी सेठ’ याने लक्ष्मी बनाम पूँजी याने भारतीयता

‘‘आपने तो बिलकुल पाव आनी सेठ की तरह बात कर दी!’’ माँगीलालजी यादव बोले।

‘‘पावानी सेठ? ये कौन हैं? आज पहली बार इनका नाम सुना!’’ मैंने पूछा।

‘‘पावानी नहीं। ‘पाव आनी।’ याने ‘आने’ का पाव हिस्सा। याने ‘आने’ के चार पैसों में से एक पैसा।’’ यादवजी ने जवाब दिया।

‘‘यह उनका वास्तविक नाम तो नहीं ही होगा। उनका यह नाम कैसे पड़ा? उनके बारे में मुझे विस्तार से बताइए।’’

मेरे ‘प्रश्नाग्रह’ के उत्तर में यादवजी ने बड़ी रोचक और गम्भीर बात बताईं। लेकिन वे सब यहीं कह दूँगा तो मेरी बात तो रह ही जाएगी। इसलिए पहले वह बात जिसके कारण उपरोक्त सम्वाद की स्थिति बनी।

मेरी भानजी रीती अभी-अभी, बेटे की माँ बनी है। उसके सूरज पूजन के प्रसंग के लिए मेरी उत्तमार्द्ध को रीती और उसके नवजात बेटे के लिए कुछ कपड़े खरीदने थे। वैशाख की चिलचिलाती धूप और थपेड़े मारती लू के बीच कौन बाजार जाकर दुकान-दुकान घूमे? सोचकर उन्होंने कहा - ‘अपने यहाँ भी एक छोटा-मोटा मॉल है। वहीं से खरीद लेते हैं।’ उत्तमार्द्ध के अन्तिम निर्णय से असहमति जताना कितना कठिन और कितना घातक दुस्साहस होता है - यह बताने की बात नहीं। फिर भी, जोखिम उठाते हुए मैंने (जाहिर है, बहुत ही मन्द स्वरों में) कहा - ‘अपने पास दुपहिया-रथ है और मैं आपका सारथी हूँ ही। मॉल में जाकर, उसके आतंक के तले, मनमाने दामों पर (भुनभुनाते हुए) खरीदी करने से अच्छा तो यही है कि माणक चौक चलें। वहाँ अपने किसी देशी दुकानदार से खरीदी करें। मुमकिन है कि कपड़े कुछ मँहगे मिलें और शायद तनिक हलकी गुणवत्ता वाले भी। किन्तु आपको भाव-ताव करने का ‘सुख’ मिलेगा और जो भी मुनाफा होगा, अपने ही कस्बे के किसी व्यापारी को होगा। रतलाम का पैसा रतलाम में ही रहेगा। और सबसे बड़ी बात, हमारी ‘बाजार संस्कृति’ को बल मिलेगा।’

ईश्वर कृपालु था कि वे मेरी बात मान गईं।

हम माणक चौक पहुँचे। उत्तमार्द्ध को बीच बाजार छोड़ कर मैं यादवजी से मिलने, उनकी दुकान पर चला गया। मुझे देख कर खुश तो हुए पर चौंके भी। पूछा - ‘इतनी तेज घूप में यहाँ क्या कर रहे हैं? मैंने सारी बात बताई तो उत्तर में यादवजी ने वही कहा - ‘आपने तो बिलकुल पाव आनी सेठ की तरह बात कर दी!’

किराना के व्यापारी रहे, ‘पाव आनी सेठ’ का वास्तविक नाम तो अब यादवजी को याद नहीं। पचास बरस से भी अधिक की बात हो गए ‘पाव आनी सेठ’, किन्तु उनकी बातें यादवजी को याद हैं। व्यापार में उन्होंने न केवल अपने मुनाफे का प्रतिशत तय कर रखा था अपितु उसे निभाते भी थे। तब देश में दशमलव प्रणाली शुरु हुई ही थी। तब रुपये में सोलह आने, एक आने में चार पैसे हुआ करते थे और इसी मान से एक रुपये में चौंसठ पैसे हुआ करते थे। ‘सोलहों आना सच’ वाली कहावत इसी आधार पर बनी थी। ‘पाव आनी सेठ’ ने अपना मुनाफा - एक रुपये पर एक पैसा,  तय कर रखा था। याने - चौंसठ पैसों पर एक पैसा। याने डेड़ प्रतिशत। इसी कारण वे पूरे रतलाम में ‘पाव आनी सेठ’ के नाम से ही जाने-पहचाने गए। उनका यह नाम उनके मूल नाम को आत्मसात कर गया। उनकी दुकान पर कोई भाव-ताव नहीं करता था।


यादव साहब के मुताबिक ‘पाव आनी सेठ’ कभी-कभार शाम को, ‘घूमने’ या ‘मिलने-जुलने’ के नाम पर बाजार में आते और सड़क किनारे खोमचे लगाने वालों से कभी पानी-पताशे, दही बड़े या मनपसन्द नमकीन खाते। उन्हें ऐसा करते देख लोग हैरान होते तो वे हँस कर कहते - ‘ये भी अपने ही गाँव में व्यापार लेकर बैठे हैं। इनका व्यापार चले, यह हम सबकी जिम्मेदारी है। इसलिए, महीने-बीस दिन में इनसे भी पैसे-दो पैसे की खरीदी करनी चाहिए।’

यादवजी की बात सुनकर मुझे रोमांच हो आया। व्यापार का एक मात्र लक्ष्य तो ‘लाभ’ ही होता है! भला, इसके लिए ऐसा सिद्धान्त कैसे बनाया जा सकता है? जितना लाभ ले सको, लो। यह मत देखा कि लाभ कैसे मिल रहा है? लेकिन ‘पाव आनी सेठ’ की बात सुनकर लगा - भारतीय संस्कृति में जिसे ‘लक्ष्मी’ कहा जाता है, वह ऐसे ही, नीति और नैतिकता आधारित मुनाफे से आती होगी। लाभ के प्रतिशत/अनुपात का निर्धारण करना और आत्म संयम बरतते हुए उसका पालन करना ही ‘व्यापार’ को पवित्रता प्रदान करता है। यह मानसिकता ही ‘लक्ष्मी’ और ‘पूँजी’ का अन्तर बताती है। मेरे कस्बे के पूँजीपतियों की चर्चा, इतने आदरपूर्वक करते हुए किसी को नहीं देखा जबकि पचास बरस से भी पहलेवाले ‘पाव आनी सेठ’ को आज भी आदरपूर्वक, उदाहरण के रूप में याद किया जा रहा है।



अचानक ही, एनडीटीवी पर आनेवाले, ‘जायका इण्डिया का’ कार्यक्रम का, लखनऊ में फिल्माया अंक याद आ गया। स्थापित, पुरानी पेढ़ी के एक दुकानदार से विनोद दुआ ने जब मुनाफे के बारे में पूछा तो उस दुकानदार ने कहा था - ‘तिजारत में मुनाफा इतना, खाने में हो नमक जितना।’ ‘पूँजी’ के मुकाबले ‘सन्तोष-धन’ व्यापार का आधार, यही  भारतीयता है। तब, ‘जीवन यापन’ हेतु व्यापार होता था। व्यापार के लिए जिन्दगी होम नहीं की जाती थी।

‘बाजार’ आज हमारी संस्कृति नहीं रह गया। ‘दानव’ बन कर हमें लील रहा है। हम खुद को ‘उपभोक्ता’ समझ रहे हैं जबकि हकीकत में तो बाजार को चलाने और बनाए रखने के लिए उत्पाद बन कर रह गए हैं।

सोच रहा हूँ, ‘पाव आनी सेठ’ आज होते तो क्या करते? वे आज भी ‘पाव आनी’ पर ही व्यापार करते? शाम को सड़क किनारे लगे खोमचे पर, खड़े होकर पानी-पताशे और दही बड़े खाते? अपने से छोटे व्यापारियों की चिन्ता करते?

मुझे भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्पराओं और भारतीय लोक मानस पर पूरा-पूरा भरोसा है। मैं आशावादी हूँ। ‘आत्मा ही परमात्मा है’ जैसे सनातन सूत्र पर विश्वास करता हूँ। इसीलिए कह पा रहा हूँ - ‘हाँ! ‘पाव आनी सेठ’ आज होते तो वे आज भी अपने निर्णय पर कायम रहकर ही व्यापार करते।’

‘पाव आनी सेठ’ का जिक्र आने का सबब आज भी बन रहा है, यही आधार है मेरी ‘हाँ’ का। 

ग्रीनरूम के दोस्त : सरोजकुमार

मंच पर लगाए हैं
अलग-अलग चेहरे,
ग्रीनरूम के भीतर
दोस्त हम सभी गहरे!

रिहर्सली मुद्राएँ,
नपी-तुली आवाजें
दर्शक हैं नासमझ
अन्धे और बहरे!

हम सबमें कुण्ठाएँ
लुके-छिपे संस्कार,
बाहर बैठाए हैं
रौबदार पहरे!

चुप्पी में कहते हैं,
बुर्कों में रहते हैं:
हवा भी बहे नहीं
झण्डा भी फहरे!

जीते चौराहों पर,
सभ्य शिष्ट आहें भर:
आखिर हम आदमी
समझदार ठहरे!
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सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

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मछली तन्त्र : सरोजकुमार

जिसका हो समुन्दर
क्या है कोई मछली?
जिसकी हो झील
क्या है कोई मछली?
जिसकी हो नदी
क्या है कोई मछली?
जिसका हो पोखर
क्या है कोई मछली?

न समुन्दर! न झील!
न नदी! न पोखर!

हाँ, मछलीघर जरूर है
सौन्दर्यबोध की
एक शहरी खुराफात!
मछलियों के नाम पर!

पर कितनी सुखद है
मछलियों के लिए
ये वाहियात खबर -
कि समुन्दर, कि झीलें,
कि नदी, कि पोखर
ये तमाम.....

मछलियों के हैं
मछलियों द्वारा हैं
मछलियों के लिए हैं!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

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भारत की नई राष्ट्रीय पहचान : अंग्रेजों की चाय

विश्व बैंक के गौरव पुरुष, ‘एलपीजी’ (लिबरलाइजेशन-उदारीकरण, प्राइवेटाइजेशन-निजीकरण और ग्लोबलाइजेशन-वैश्वीकरण) के अग्रणी सच्चे सपूत और सम्भवतः किसी सुनिश्चत उद्देश्य की प्राप्ति हेतु, भारतीय योजना आयोग के उपाध्यक्ष बनाए गए मोण्टेक सिंह अहलूवालिया की सूचना यदि सच में बदल गई तो (जो कि बदलनी ही है) अंग्रेजी, अंग्रेजीयत और क्रिकेट के बाद सम्भवतः यह चौथी ‘अंग्रेजी चीज’ होगी जिसे हम पूर्वानुसार ही, आधिकारिक रूप से,  या तो माथे पर बैठा लेंगे या फिर ‘स्थापित भारतीय  परम्पराओं का निर्वहन’ करते हुए, उदारतापूर्वक आत्मसात कर लेंगे। स्थिति दोनों में से कोई भी हो, हम यह करेंगे - आत्माभिमान की कीमत पर ही, स्वयम् को धन्य और गद्गद अनुभव करते हुए, अत्यन्त आदरपूर्वक, साष्टांग दण्डवत करते हुए। बाबा नागार्जुन को याद करते हुए - ‘हम ढोएँगे पालकी।’ इस बार भी यह पालकी होगी तो ‘रानी’ की ही किन्तु किसी ‘जैविक रानी’ की नहीं, ‘वानस्पतिक रानी’ की।

यह ‘रानी’ है - चाय। जिसके बिना हमारी सुबह गुनगुनी  नहीं होती, दिन राजी-खुशी नहीं गुजरता और शाम सुरमई नहीं होती। मोण्टेक सिंह अहलूवालिया ने मुदित भाव से, देश को उपकृत करने की मुद्रा में सदाशयतापूर्वक अग्रिम सूचना दी है कि अप्रेल 2013 तक, चाय को भारत का ‘राष्ट्रीय पेय’ घोषित कर दिया जाएगा। देश के संघीय ढाँचे की रक्षा के नाम पर राष्ट्रीय एकता को परे सरकाया जा सकता है और राष्ट्रीय प्रतीक के नाम हमारा राष्ट्र-ध्वज तिरंगा एक बार मतभेद और विवाद का विषय हो सकता है किन्तु इसमें रंच मात्र भी सन्देह नहीं कि चाय हमारी राष्ट्रीय एकता की वास्तविक संवाहक और सच्चा राष्ट्रीय प्रतीक बन गई है। काश्मीर से कन्याकुमारी तक और गौहाटी से चौपाटी तक, समान रूप से उपलब्ध है - चौबीसों घण्टे। ‘अहर्निशं सेवामहे’ की तर्ज पर। छोटे से छोटे गाँव में, राजस्थान की ढाणियों और आदिवासियों के फलियों-टापरों में, पीने का पानी एक बार भले ही न मिले, चाय जरूर मिल जाएगी। भारतीयता भले ही पूरे भारत में नजर न आए, चाय अवश्य नजर आ जाएगी। भारतीय समष्टि में व्याप्ति के मामले में चाय ने तो ईश्वर को भी मात दे दी है। ईश्वर के अस्तित्व को नकारनेवाले नास्तिक भी चाय के आराधक बने मिल जाएँगे।


अंग्रेज, शासक या प्रशासक बन कर भारत में नहीं आए थे। वे ‘व्यापारी’ बन कर आए थे। भारत को ‘चाय की देन’, उस ‘अंग्रेज व्यापारी’ की ही है। हमारे पैतृक मकान के चबूतरे पर हर शाम, मुहल्ले की चौपाल लगती। उसी में, पिताजी से, बीसियों बार सुना था कि अंग्रेजों ने किस तरह हम भारतीयों को चाय की लत लगाई।
रोज सवेरे, मुहल्लों-गलियों के एक सिरे पर, बड़े-बड़े तपेलों/भगानों में, बादामी रंग का गरम-गरम पेय लेकर अंग्रेजों के भारतीय कारिन्दे (निश्चय ही वे ‘ब्रुक बॉण्ड टी कम्पनी’ के कारिन्दे होते थे) पहुँच जाते। ‘लो! मुफ्त में चाय ले लो। गरम-गरम चाय ले लो!’ की हाँक लगा-लगा कर सबको बुलाते। लोग अपने-अपने बर्तन लेकर जाते और मुफ्त में, गरम-गरम, मीठी-मीठी चाय भर ले जाते। यदि किसी घर से कोई नहीं आता या आ नहीं पाता तो उनके घर जाकर उन्हें चाय देते। लोग इसे ‘अंग्रेजी चाय’ कहते थे। कुछ लोग पीते, कुछ नहीं पीते। बच जाती तो ढँक कर रख दी जाती और जब जी चाहता, गरम करके पी लेते। किसी को बुखार आ जाता तो ‘इसे अंग्रेजी चाय पिलाओ’ की सलाह दी जाती और ताज्जुब कि यह कारगर दवा भी बन जाती।

अंग्रेज तो चले गए किन्तु  काफी कुछ नष्ट-भ्रष्ट-ध्वस्त कर गए। निस्सन्देह इस सबमें हम ‘अंग्रेजों के मानसिक गुलाम आजाद भारतीयों’ ने तब भी पूरा-पूरा योगदान दिया और अब भी दिए जा रहे हैं - अत्यन्त गौरवपूर्वक, निष्ठापूर्वक, सम्पूर्ण तन्मयता से। देव-आराधना करने की, निर्लिप्त नयन, मुदित मन और प्रसन्न वदन मुद्रा में। जो अंग्रेज हमें ‘चौबीसों घण्टे चाय की चुस्कियों का चस्का’ लगा गए वे अंग्रेज तो तब भी निर्धारित समय पर, निर्धारित विधि से बनी चाय पीते थे और आज भी वैसे ही पी रहे हैं। बस! ये तो हम (उनके उपनिवेशी देशों के लोग) ही हैं जिनके चाय बनाने की न तो कोई एक समान मानक-विधि है और न ही पीने का कोई निर्धारित समय। जैसे चाहो, वैसे बना लो और जब चाहे, पी लो। हालत यह हो गई कि चाय आज केवल एक पेय नहीं रह गई। आवभगत का पैमाना बन गई है।

मेरा एक मित्र भोपाल से नीमच जा रहा था। उसकी रेल, रात एक बजे रतलाम पहुँचने वाली थी और रतलाम से नीमच तक उसे कार से जाना था। उसने कहा कि वह भोजन मेरे यहाँ करेगा। मुझे उसकी इस अनौपचारिकता पर प्रसन्नता तो हुई किन्तु रात एक बजे भोजन? मैंने कहा कि मैं उसके लिए शुजालपुर (रात लगभग नौ बजे) या उज्जैन (रात लगभग ग्यारह बजे) में उसके भोजन की व्यवस्था करवा देता हूँ। उसने मना कर दिया। कहा कि वह भोजन तो मेरे यहाँ ही करेगा।

वह आया। उसने भोजन किया। हम दोनों थोड़ी देर बतियाते रहे। रात लगभग ढाई-पौने तीन बजे वह नीमच हेतु प्रस्थित हो गया।
अगली सुबह से मैं उसके पहुँचने की सूचना की प्रतीक्षा करने लगा। शाम तक उसकी कोई खबर नहीं आई तो मैंने ही फोन लगा कर पूछताछ की। वह अत्यधिक खिन्न, अप्रसन्न और कुपित था। उसने कहा - ‘तू ने आधी रात को भोजन तो कराया पर चाय के लिए एक बार भी नहीं पूछा।’ मुझे धक्का लगा। ऐसी बात के लिए तैयार नहीं था। मैंने कहा - ‘मुझे लगा रात ढाई-पौने तीन बजे चाय के लिए पूछना ठीक नहीं रहेगा। डर भी लगा कि कहीं तू मेरी मजाक न उड़ाए। बस! इसीलिए नहीं पूछा।’ वह बोला - ‘ठीक होता या नहीं, यह तो मेरे सोचने की बात थी। तूने कम से कम एक बार पूछना तो था। तू भोजन नहीं कराता तो एक बार चल जाता लेकिन चाय की नहीं पूछना तो सरासर बेइज्जती करना है।’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था।

चाय हमारे जीवन का नहीं, हमारे शरीर की जैविक संरचना का हिस्सा बन गई लगती है। हमारा जीवन और समाज इसीसे पूर्णता प्राप्त कर पा रहा है। शहरी क्षेत्रों में सड़क किनारे सर्वाधिक अतिक्रमण  चाय की गुमटियों/ठेलों का ही मिलेगा। शहरों को जोड़ने वाली सड़कों के विराने को, चाय की होटलों  ही गुलजार बनाए हुए हैं। हमारे चौड़े-चिकने, फोर/सिक्स-लेन हाई-वे पर तो चाय की दुकानें, सुहागन के माथे की बिन्दी की तरह शोभायमान लगती हैं। चाय उत्पादन से लेकर पी गई चाय के कप-प्लेट धोने तक, देश के करोड़ों लोग इससे रोजगार हासिल किए हुए हैं। ‘गोल गुम्बद वाली इमारत’ में दिन भर एक दूसरे की छिछालेदारी करनेवाले हमारे नेता, अपनी सारी नफरत यदि शाम को चाय की प्याली से उठते धुँए के साथ शून्य मे विसर्जित कर देते हैं तो राजनीतिक नायिकाओं का एक साथ बैठकर एक प्याला चाय पीना, सरकार बदल देता है। चाय के दम पर पूरे देश के सरकारी दफ्तरों में काम हो पा रहा है। ‘चाय-पानी’ न हो तो एक कागज भी न सरके।

चाय, केवल चाय नहीं है। इसे होठों से लगाएँ या इससे नफरत करें, हकीकत तो यही है कि अंग्रेजों की यह ‘विचत्र देन’ हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गई है।

चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने की बात पर थोड़ा-बहुत हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा होगा लेकिन होगा वही जो होना है। जिस तरह हमने हिन्दी को अंग्रेजी की और भारतीयता को अंग्रेजीयत की ‘लौंडियाँ’ बना दिया है, हॉकी को क्रिकेट की उतरन पहनने वाला खेल बना दिया है, उसी तर्ज पर अपने मट्ठा, शिकंजी जैसे देशी पेयों को चाय के क्रीत दास बना देंगे।

इसलिए, सच्चे भारतीय की तरह व्यवहार कीजिए और गगनभेदी स्वरों में चाय की अगवानी कीजिए -

आओ रानी! हम ढोएँगे पालकी।
यही बनी है राय, वतन अहवाल की।




मुखौटे : सरोजकुमार

लाभ-शुभ के गणित में
चिपकाए रहा मुखौटे!
धीरे-धीरे उन पर,
आती गई चमड़ी
जिस्म में उतर गए मुखौटे!

अब मुक्त होने की कोशिश में
खिंचती है चमड़ी
रिसता है लहू!
धोता हूँ शरीर
चमचमाते हैं मुखौटे!
मुखौटों में भर गई जिन्दगी
जिन्दगी में भर गए मुखौटे
अब न चेहरे खरे
न मुखौटे खोटे!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.