कौव्वा तो कल ही उड़ गया

कहने को भले ही आत्मा अनश्वर है किन्तु लगता है, इस मामले में भ्रष्टाचार ने आत्मा को मात दे दी है। भ्रष्टाचार का लालच मनुष्य की आत्मा को मार देता है। फिर भले ही यह मारना निमिष भर के लिए हो या खुद से झूठ बोल कर किया गया हो। मुझे तो लगने लगा है कि आत्मा भले ही एक बार मर जाए, भ्रष्टाचार कभी नहीं मरता।

भ्रष्टाचार को लेकर मुझे लगभग प्रतिदिन ही कोई न कोई, एक से एक रोचक किस्सा सुना देता है। सेवा निवृत्त प्राचार्य और मेरे कक्षापाठी के अग्रज श्रीयुत सुरेशचन्द्रजी करमरकर ने मुझे ऐसा ही एक रोचक किस्सा लिख भेजा है।

करमरकरजी इन्दौर से रतलाम आ रहे थे। एक तो रेल यात्रा का पूरा समय फुरसत का और करमरकरजी की आदत बतियाने की। सो, इन्दौर से रतलाम आ रहे एक सज्जन से बतरस होने लगी। बात जल्दी ही भ्रष्टाचार से होती हुई पुलिस के भ्रष्टाचार पर आ गई। उन्होंने इन्दौर यातायात पुलिस का एक किस्सा सुनाया।

इन्दौर में हेलमेट पहनने पर सख्ती बरती जा रही है। एक दिन वे सज्जन बिना हेलमेट पहने निकल गए। बंगाली चौराहे पर यातायात पुलिस के जवान ने धर लिया। जुर्माने से शुरु हुई बात न्यायिक प्रकरण से होती हुई पचास रुपयों पर आकर ठहर गई। पचास रुपये देकर सज्जन ने कहा कि आगे और किसी जवान ने पकड़ लिया तो? जवान ने लापरवाही से कहा - ‘कह देना, कि कौव्वा उड़ गया।’ सज्जन को विश्वास तो नहीं हुआ किन्तु कोई चारा भी नहीं था।

योग की बात कि अगले ही चौराहे पर फिर यातायात जवान ने धर लिया। सज्जन ने कहा - ‘कौव्वा उड़ गया।’ जवान ने तुरन्त ही सज्जन को छोड़ दिया। भ्रष्टाचार में बरती गई ईमानदारी ने सज्जन को प्रभावित किया।

योग-संयोग की बात कि ये सज्जन अगले दिन फिर बिना हेलमेट के निकल पड़े और एक चौराहे पर धरा गए। सज्जन ने कलवाला मन्त्र दुहरा दिया - ‘कौव्वा उड़ गया।’ जवान जोर से हँसा और बोला - ‘वो तो कल ही उड़ गया भैयाजी!’ और एक बार फिर बात चालान, मुकदमे से होती हुई पचास रुपयों पर निपट गई। इस दिन का मन्त्र दिया गया - ‘जंगली इमली।’ सज्जन खुश और निश्चिन्त होकर बढ़ लिए।

कामकाज के सिलसिले में इन सज्जन को बिजलपुर इलाके में जाना पड़ा। वहाँ भी चेकिंग चल रही थी। पकड़ाने पर सज्जन बोले - ‘जंगली इमली।’ यातायात पुलिस का जवान हँस कर बोला - ‘वो तो नवलखा थाने के इलाके में ही पाई और खाई जाती है बाबूजी! यह बिजलपुर थाने का इलाका है। बोलो, चालान बनवाओगे या यहाँ का कोड वर्ड लोगे?’

आगे क्या लिखना, क्या कहना, क्या सुनना? आप खुद ही तय कर लीजिए कि अनश्वर कौन है - आत्मा या भ्रष्टाचार?

हिन्दी का पठान

किसी से धोबीपाट खाकर, चारों कोने चित्त होकर भला कोई खुश होता है? नही ना? किन्तु मैं हुआ हूँ।

हिन्दी की पक्षधरता को लेकर मैं खुद पर गुमान करने लगा था। किन्तु इस सक्रान्ति पर मेरा यह भ्रम दूर हो गया। मुझे धरती पर ला पटककर मेरी यह ‘सुखद दुर्दशा’ करनेवाले हैं महेन्द्र जैन। इनसे मिलकर, इनसे बात कर और इनकी हकीकत जानकर मुझे आत्म-ज्ञान हो गया कि हिन्दी के मामले मैं बोलता अधिक हूँ जबकि महेन्द्र भाई करते अधिक हैं।

स्टेशनरी सामान और नाना प्रकार की कलमों (पेनों) के अग्रणी व्यापारी महेन्द्र भाई की दुकान पर, जन सामान्य के आधुनिक काम-काज का अधिकांश सामान मिल जाता है। अपने मोबाइल के ‘पुनर्भरण’ (रीचार्ज) के लिए गया तो मेरा मोबाइल नम्बर पूछा। मैंने अपना नम्बर अंग्रेजी में बताया तो वे अपरिचित नजरों से मुझे देखने लगे। पूछा तो ऐसे जवाब दिया मानो किसी सदमे में डूबा कोई आदमी बोल रहा हो। बोले - ‘आप तो अंग्रेजी में बता रहे हैं?’ मैंने कहा - ‘हाँ।’ महेन्द्र भाई ने प्रतिप्रश्न किया - ‘आप तो हिन्दी का झण्डा उठाए घूमते हो?’ मैंने फिर कहा - ‘हाँ।’ महेन्द्र भाई बोले - ‘लेकिन मैं तो अंग्रेजी नहीं समझता। मुझे तो हिन्दी में अपना नम्बर बताइए।’ मैं अचकचा गया। मुझे लगा, महेन्द्र भाई के हाथ में कलम नहीं, या तो आईना है या फिर कोड़ा। या तो मुझे मेरी वास्तविकता अवगत करा रहे हैं या फटकार रहे हैं।

मैंने हिन्दी में अपना मोबाइल नम्बर बताया, अपना काम कराया, भुगतान किया लेकिन लौटा नहीं। बैठ गया। महेन्द्र भाई के सामने। इस विश्वास के साथ कि मुझे यहाँ से निश्चय ही कुछ न कुछ महत्वपूर्ण मिलेगा।

महेन्द्र भाई एम. कॉम. हैं किन्तु परीक्षा सहित अपना सारा काम हिन्दी में ही किया। यदि विवशतावश कभी कोई अंग्रेजी शब्द या वाक्य लिखना पड़ा तो वह भी नागरी लिपि में ही लिखा। दुकान का नाम यद्यपि ‘पेन सेण्टर’ हैं किन्तु लिखवाया नागरी लिपि में ही। सारी लिखत-पढ़त, बिल और हस्ताक्षर आदि के लिए हिन्दी ही प्रयुक्त करते हैं।

चूँकि व्यापार के अपने क्षेत्र में अग्रणी हैं तो सरकारी कार्यालय और संस्थान् भी इनके ग्राहकों में शामिल हैं। अब तो चूँकि सब इन्हें ‘अच्छी तरह’ जान गए हैं इसलिए अब कोई ‘लफड़ा’ नहीं होता किन्तु शुरु-शुरु में होता रहता था। एक सरकारी बैंक का वाकया इन्हें भुलाए नहीं भूलता। इनका बिल देखकर बैंक प्रबन्धक ने कहा कि बिल और विशेष कर अंक हिन्दी में होने के कारण बिल का भुगतान नहीं हो पाएगा। प्रबन्धक ने सलाह दी कि दूसरा बिल ला दें जिसमें कम से कम अंक तो अंग्रेजी में ही हों। महेन्द्र भाई ने कहा कि उन्हें तो अंग्रेजी में अंक लिखना आता ही नहीं। प्रबन्धक ने कहा - ‘तब तो बिल भुगतान करना मुश्किल होगा।’ महेन्द्र भाई ने ठण्डी आवाज में कहा - ‘मेरे इस बिल का भुगतान, आप तो क्या कोई नहीं रोक सकेगा। वह तो आपको करना ही पड़ेगा और आप ही करेंगे। किन्तु आप जो भी कह रहे हैं, मझे लिख कर दे दें और उससे पहले, आपने बाहर जो लिखवा कर टाँग रखा है कि आपको हिन्दी में काम करने में प्रसन्नता होगी, वह पहले हटवा दें। आपका लिखा मिलने पर मैं ऐसी व्यवस्था करा दूँगा कि आपको भविष्य में ऐसा कहने का मौका नहीं मिलेगा।’

महेन्द्र भाई की, बरफ जैसी ठण्डी आवाज और प्रबन्धक को आर-पार देखती तीखी-गहरी आँखों का असर यह हुआ कि प्रबन्धक ने सारे काम छोड़कर महेन्द्र भाई के बिल का भुगतान हाथों-हाथ कराया। वह दिन और आज का दिन, महेन्द्र भाई को उस बैंक में तो ठीक, किसी और बैंक में या दफ्तर मंे आज तक ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। इस घटना की जानकारी चारों ओर किसी अफवाह की तरह फैली और फिर हुआ यह कि जहाँ-जहाँ महेन्द्र भाई पहुँचे उससे पहले इस घटना की जनकारी पहुँच गई। घटना के ब्यौरे में हिन्दी का मुद्दा दूसरे नम्बर पर रहा। पहले नम्बर पर रहा - हिन्दी के प्रति महेन्द्र भाई का स्पष्ट, कठोर और अविचल आग्रह।

सुनकर मुझे वही आनन्द हुआ जैसा कि अपने कुनबे के, अब तक अज्ञात, अपने से बेहतर सदस्य से मिलने पर होता है। मैंने कहा - ‘उधारी वसूल करने के लिए पठानों का उपयोग करने की बातें मैंने सुनी ही सुनी हैं। सुनता रहा हूँ कि जो उधारी डूबती लगती थी, उसकी उगाही किसी पठान के जिम्मे करने पर वह वसूल हो जाती थी। इसीलिए ‘पठानी वसूली’ शब्द-युग्म चलन में आया। यह घटना सुनने के बाद अब मैं आपको ‘हिन्दी का पठान’ कहूँगा।’

यदि आपको लगता है कि हिन्दी के इस ‘पठान’ का यह आचरण सराहनीय है तो इन्हें मोबाइल नम्बर 098272 00059 पर बधाई देने में न तो देर करें और न ही कंजूसी।

दुर्घटना का आनन्‍द

तकनीक की निरन्तर प्रगति के लाभ प्राप्त करते रहने के लिए परम्परा को समानान्तर रूप से थामे रखना जरूरी है? और यह भी कि जब तक किसी तकनीक की पूरी जानकारी न ले ली जाए तब तक उस पर निर्भर न रहा जाए? कल शाम से ये दो प्रश्न ही मुझे ‘शाश्वत सत्य’ लग रहे हैं।

कोई चार दिन पहले मेरा कम्प्यूटर खराब हो गया था। छुटपुट खराब तो पहले भी था किन्तु चार दिन पहले तो उसने साथ देना बिलकुल ही बन्द कर दिया। अचानक ‘हेंग’ हो गया, करसर निष्क्रिय हो गया। बन्द करने की प्रक्रिया भी अप्रभावी हो गई। सीधे, बिजली के बटन से बन्द करना पड़ा। फिर चालू किया तो बात नीले पर्दे के निरन्तर (मानो स्थायी) दर्शन से आगे नहीं बढ़ी।

मरम्मत के बाद कल शाम जब कम्प्यूटर लौटा तो काफी-कुछ बदल हुआ मिला। कुछ ऐसा मानो बिलकुल अनजान हो। पचासों फाइलें नजर नहीं आ रही हैं। बीमा का काम करनेवाला साफ्टवेयर गुम है। अखबारों में प्रकाशित सामग्री की स्केन प्रतियोंवाला फोल्डर और ब्लॉग के लिए संग्रहित सामग्रीवाला फोल्डर खोजने पर नहीं मिल रहे हैं। ग्राहक सेवा और नियमित कामकाज से जुड़ी कोई सौ-डेड़ सौ फाइलें उड़ गई हैं। रविजी (श्री रवि रतलामी) को एक बार फिर कष्ट देना पड़ेगा - यूनीकोड में लिखने के लिए उन्होंने जो, हिन्दी इण्डिक वाला औजार स्थापित करवाया था, वह कहीं नहीं है। याने अब मैं ब्लॉग पर और फेस बुक पर सीधे हिन्दी में टिप्पणी नह कर सकता। पहले कृति में टाइप करूँ, उस सामग्री को यूनीकोड में कन्वर्ट करूँ और कॉपी/पेस्ट का सहारा लूँ। यह पोस्ट उसी तरीके से प्रकाशित करने की कोशिश करूँगा। पहले ‘ऑफिस 2003’ में काम कर रहा था, अब ‘ऑफिस 2007’ में काम करना पड़ेगा।

यह तो वह सब है जो पहली नजर में सामने आया है। और क्या-क्या सामान गया है, यह काम करते-करते ही मालूम हो सकेगा। अपने सीमित ज्ञान के आधार पर जितना कुछ कर पा रहा हूँ, करने की कोशिश कल शाम से ही कर रहा हूँ। यह देख कर अच्छा लग रहा है कि कुछ फाइलें प्राप्त करने में कामयाबी मिली।

जब-जब भी ऐसे किसी इलेक्ट्रानिक उपकरण या तकनीक का उपयोग शुरु किया था तब-तब हर बार सलाह दी गई थी कि या तो सारी सामग्री का कागजी रेकार्ड समानान्तर रूप से रखूँ या फिर प्रतिदिन ‘बेक-अप’ लेता रहूँ। तकनीक से मिली सुविधा और इसकी तेज गति ने आलसी बना दिया, कागजी रेकार्ड रखना ही छोड़ दिया और बेक-अप लेना तो आज तक नहीं आया। ‘नीम हकीम खतरा ए जान’ वाली कहावत मुझ पर लागू हो गई है।

लेकिन अब जो होगा सो देखा जाएगा। मुझे मानो एक बार फिर शुरु से शुरुआत करनी है।

कम्प्यूटर के खराब होने के कारण चार दिन बड़े आराम से निकले थे। अब कई दिनों तक ‘आराम हराम’ वाली स्थिति बनी रहेगी।

इसके साथ ही साथ मुझे यह भी लग रहा है कि ‘विस्मरण’ भी किसी वरदान से कम नहीं है। यदि याद आ जाता या रह जाता कि कितनी फाइलें उड़ी हैं तो कितनी घबराहट होती? अब, जैसे-जैसे याद आता जाएगा, वह सब लिखता जाऊँगा और एक के बाद एक फाइलें बनाता जाऊँगा।

इसका भी अपना एक आनन्द होगा। अब उसी अनुभव की तैयारी के लिए खुद को तैयार कर रहा हूँ।


राष्ट्रवादी होने का मतलब

वास्तविकता तो भगवान ही जाने किन्तु वे खुद को राष्ट्रवादी कहते तो हैं ही, ऐसा कहने का कोई मौका नहीं छोड़ते। नहीं मिलता है तो मौका बना लेते हैं। जैसे - ‘बहुत दिनों से आपने चाय नहीं पिलाई। चलिए! राष्ट्रवादी को चाय पिलाइए।’


वे एक सरकारी दफ्तर में अनुभाग अधिकारी हैं। मँहगी जमीनवाली पॉश कॉलोनी में, तीन हजार वर्ग फीट के प्लॉट पर बने भव्य ‘सुदामा निवास’ में रहते हैं। बड़ा बेटा इंजीनीयरिंग के पहले साल में है। छोटा बेटा, इसाई मशीनरी संचालित, अंग्रेजी माध्यम के मँहगे स्कूल में, नौंवी कक्षा में पढ़ रहा है। पत्नी के नाम पर एक जनरल स्टोर है - सुदामा निवास में ही। घर में दो कारें और दो मोटर सायकिलें हैं। इससे अधिक और कुछ हो तो पता नहीं। मुझे तो इतना ही मालूम है।


गणतन्त्र दिवस की पूर्व सन्ध्या पर मैं घर के बाहर खड़ा था। वे जाते हुए नजर आए। व्यस्त थे। बोले - ‘अपन तो राष्ट्रवादी हैं। पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को अपने घर पर राष्ट्र-ध्वज फहराते हैं। आप भी सुबह आइए।’ मैंने कहा - ‘कल की कल देखेंगे। फिलहाल मुमकिन हो तो आधा कप चाय पी लीजिए।’ मेरी बात पूरी बाद में हुई, वे फटफटी से पहले ही उतर गए।


चूँकि उनकी आदत से परिचित था सो वे कुछ बोलते उससे पहले ही मैंने, ‘आक्रमण ही श्रेष्ठ बचाव है’ पर अमल करते हुए कहा - ‘आप तो राष्ट्रवादी हैं। राष्ट्र के लिए क्या कर सकते हैं?’ बोले - ‘आप भी क्या सवाल करते हैं! देश के लिए जान भी दे सकता हूँ।’ मैंने कहा - ‘जान देने की जरूरत जब आएगी तब देखी जाएगी। फिलहाल तो आप यदि कर सकें तो दो-चार कुछ छोटे-छोटे काम कर दें।’ ‘कहिए! कहिए! देश का कोई काम छोटा नहीं होता।’ उत्साह से जवाब दिया उन्होंने। मैंने सन्देह से देखा और बोला - ‘मुझे नहीं लगता कि आप ये छोटे काम कर पाएँगे।’ वे बुरा मान गए। बोले - ‘आप मेरे राष्ट्रवादी होने पर शक कर रहे हैं?’ मैंने कहा - ‘आप तो बुरा मान गए। मैं भला आपके राष्ट्रवादी होने पर शक कैसे कर सकता हूँ? आपके बारे में आप जो कहेंगे वह तो मुझे मानना ही है।’ वे खुश हो गए। बोले -‘हाँ। अब ठीक है। बताइए।’ मैंने कहा - ‘आपने अपनी कोठी के सामने की सरकारी जमीन की 6 फीट की पट्टी पर अतिक्रमण कर रखा है। उसे हटा लीजिए।’ वे चिहुँक गए। आँखें तरेर कर बोले - ‘आप अपने घर बुलाकर मेरा मजाक उड़ा रहे हैं? वह अतिक्रमण है? आसपास के तमाम लोगों ने जमीन घेर रखी है। मैं तो सबके साथ चल रहा हूँ।’ मैंने कहा - ‘चलिए। छोड़िए। मुझे पता है कि आपकी दोनों कारें आपके या आपके किसी परिजन के नाम पर नहीं हैं। इन्हें अपने नाम पर करवा लीजिए।’ खुद पर काबू करते हुए बोले - ‘आज आपके इरादे नेक नहीं लग रहे। आप जानते हैं कि मैं ऐसा नहीं कर सकता फिर भी आप कह रहे हैं। कारें किसी के भी नाम हो, क्या फर्क पड़ता है? हैं तो देश में ही?’


दो सवाल हो गए थे और वे अपने राष्ट्रवादी होने का नारा बुलन्द नहीं कर पाए थे। मेरा आत्म विश्वास बढ़ गया। मैंने थोड़ी हिम्मत और की। बोला - ‘अच्छा, एक काम तो आप कर ही सकते हैं। भाभीजी के जनरल स्टोर से कोई भी सामान बिना बिल के नहीं बिके, यह तो आप कर ही सकते हैं।’ अब वे तनिक असहज हुए। आवाज का ‘दम’ अचानक ही कम हो गया। बोले - ‘वह सब तो टैक्स प्लानिंग के हिसाब से होता है। वकील साहब और सैल्स टैक्स-इनकम टैक्स के इन्सपेक्टरों-अफसरों की सलाह से होता है।’ उनसे सहमत होने का और उन पर दया दिखाने का पाखण्ड करते हुए मैंने कहा - ‘हाँ। यह बात तो है। जब वकील, इन्सपेक्टर और अफसर सलाह देते हैं तो आप कर ही क्या सकते हैं? चलिए, इसे भी छोड़ें। लेकिन बबलू को बिना लायसेन्स के मोटर सायकिल चलाने से तो आप रोक ही सकते हैं। अभी तो चौदह साल का ही है और आप जानते हैं कि अठारह साल से कम के बच्चे का, बिना लायसेन्स गाड़ी चलाना अपराध है।’ अब उनका स्वर सामान्य से भी नीचा हो गया था। बोले - ‘हाँ, गैरकानूनी तो है किन्तु क्या किया जाए? एक तो उसका स्कूल दो किलोमीटर दूर है और दूसरा, उसके सारे दोस्त मोटर सायकिलों से ही स्कूल आते हैं। मेरी तो कोई बात नहीं किन्तु बच्चों का मामला है। आप तो जानते ही हैं कि वे जल्दी बुरा मान जाते हैं। दोस्तों के बीच उसकी इज्जत का सवाल है।’ मैंने लापरवाही से कहा - ‘चलिए। इसे भी छोड़िए। लेकिन आप उससे यह तो कह ही सकते हैं कि वह अपनी मोटर सायकिल पर तीन सवारी न बैठाए। यह भी गैरकानूनी है और अपराध है।’ ‘आपकी यह बात भी सही तो है किन्तु आप तो जानते ही हैं कि आजकल के बच्चे किसी नहीं सुनते। माँ-बाप की भी नहीं। कहने का कोई फायदा नहीं।’


चाय कब की खत्म हो चुकी थी। वे जाने को कसमसाने लगे थे किन्तु ‘अच्छा! चलता हूँ’ कहने का मौका नहीं पा रहे थे। मैंने कहा - ‘आप जब भी मिलते हैं तो मुझे खुद पर गर्व हो आता है कि मैं आप जैसे राष्ट्रवादी से मिला।’ उन्हें मानो टॉनिक मिल गया। एक झटके में ताजादम हो गए। मैंने कहा - ‘कहने को तो आप सेक्शन ऑफिसर हैं किन्तु मैंने देखा है कि आपको पूरे दफ्तर का काम करना पड़ता है। इस चक्कर में आपको कई बार नाजायज व्यवहार करना पड़ता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि काम करने के नाम पर आप आम लोगों से, अपनी ओर से कुछ नहीं माँगें? बिना माँगें वे जो दे दें, वह कबूल कर लें और कोई कुछ नहीं दे तो उसे, उसका काम हो जाने के बाद चला जाने दें?’ इस बार वे अचानक ही आक्रामक हो गए। बोले - ‘आप क्या समझते हैं मैं अपने लिए लेता हूँ? मुझे तो ऊपरवालों को देने के लिए लोगों से लेना पड़ता है। और फिर! क्या मैं अकेला ही लेता हूँ? सारी दुनिया इसी पर चल रही है। आप को मैं ही मैं नजर आ रहा हूँ! घण्टे भर से आप मुझसे ऊलजलूल बातें किए जा रहे हैं, कुछ तो भी कहे जा रहे हैं। मैं तो आपको बुद्धिजीवी मानकर आपकी बातें सुने जा रहा हूँ। कोई और होता या मैं आपकी इज्जत नहीं करता तो देखते कि क्या हो जाता।’


मैं तत्काल कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद जब वे सामान्य होते लगे तो बोला - ‘याने आप देश के लिए कुछ नहीं कर सकते?’ वे भड़ाक् से उठ खड़े हुए। बोले - ‘सबसे पहले यही तो बात हुई थी? मैंने कहा था ना कि मैं देश के लिए जान दे सकता हूँ। लेकिन लगता है आपने सुना ही नहीं। सारी दुनिया जानती है कि मैं राष्ट्रवादी हूँ। विश्वास न हो तो सुबह मेरे घर आइएगा। कल छब्बीस जनवरी है। मेरे घर पर झण्डावन्दन होगा। आपको पता लग जाएगा।’और मेरे नमस्कार करने से पहले ही वे अपनी मोटर सायकिल पर बैठ गए, मेरी ओर देखा भी नहीं और फुर्र हो गए।


सोच रहा हूँ कि कल उनके घर जाऊँ या नहीं? वे तो राष्ट्रवादी हैं! देश पर जान देने के लिए एक पाँव पर बैठे हैं और कृतघ्न राष्ट्र है कि उन्हें मौका ही नहीं दे रहा।

सपनों का आनन्द लेने की कोशिश

सपनों को लेकर काफी कुछ कहा गया है। कोई उन्हें मनुष्य का जन्मना साथी कहता है तो कोई उन्हें मनुष्य जीवन को पूर्णता प्रदान करनेवाला अदृष्य कारक। सपनों पर आधारित कहावतें प्रचुरता से मिलती हैं। कोई नींद में सपने देखता है तो कोई जागती आँखों। कोई सपनों में डूबा रहता है तो ऐसे लोग भी मिल जाते हैं जिनकी नींद सपने उड़ा देते हैं। यूँ तो सपने नींद में आते हैं किन्तु, भारतीय जीवन बीमा निगम के, भोपाल स्थित क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र के प्राध्यापक भालेरावजी के अनुसार सपने तो वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते।

सपनों को लेकर दो-एक किताबें मैंने पढ़ी थीं जिनमें सपनों के अर्थ बताए गए थे। कुछ बुजुर्गों को सपनों का भाष्य करते भी देखा-सुना है मैंने। कुछ लोग सपनों के आधार पर भविष्यवाणियाँ करने का साहस करते भी मिले। इन सबमें मुझे कभी रुचि नहीं रही। कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया इन बातों को।

इन्हीं सपनों को लेकर कोई तीन महीने पहले तक मेरे परिचितों/मित्रों में से कुछ मुझसे ईर्ष्या करते थे, कुछ मुझे झूठा कहते थे और कुछ मुझे बीमार समझ कर मुझसे सहानुभूति रखते थे - मुझे सपने जो नहीं आते थे। लेकिन अब स्थिति एकदम बदल गई है। यह अलग बात है कि स्थिति के इस बदलाव की सूचना मैंने अब तक किसी को नहीं दी। जरूरत ही अनुभव नहीं हुई क्योंकि, जैसा मैंने कहा है, मैं इन बातों को गम्भीरता से नहीं लेता।। पहली बार यहाँ जग-जाहिर कर रहा हूँ-केवल कहने के लिए।गए तीन महीनों से दो सपने मुझे बार-बार आ रहे हैं।


पहले सपने में हर बार मेरी ट्रेन छूट जाती है। स्टेशन बदल जाते हैं, अंचल/इलाके बदल जाते हैं, कभी अकेला होता हूँ तो कभी कुछ लोगों के साथ। किन्तु समाप्ति वाला दृष्य हर बार एक ही होता है - मुझे ट्रेन का आखिरी डिब्बा ही नजर आता है। आखिरी याने सचमुच में आखिरी - गार्ड के डिब्बे के भी पीछे लगा हुआ। मैं ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ता हूँ लेकिन पकड़ नहीं पाता। डिब्बे का हेण्डिल भी पकड़ नहीं पाता। मैं कुछ दूर तक दौड़ता हूँ लेकिन ट्रेन की गति मेरे दौड़ने की गति से तेज रहती है और मैं प्लेटफार्म पर ही रह जाता हूँ - जाती हुई ट्रेन को देखते हुए।

दूसरे सपने में मेरा स्कूटर (एक्टिवा) या तो खो जाता है या कोई चुरा ले जाता है। मैं किसी से मिलने या किसी कार्यालय में काम से जाता हूँ और लौटता तो हूँ तो अपना स्कूटर मुझे नजर नहीं आता। जहाँ रख कर गया था, वहाँ खाली जगह मिलती है। मैं घबराकर इधर-उधर देखता हूँ, कोई आसपास दिखाई देता है तो उससे पूछता हूँ। कोई कुछ नहीं बताता। मैं भी अधिक कोशिश नहीं करता और चाबी जेब में रखकर चुपचाप चला आता हूँ। दो-तीन बार तो मेरे घर से ही मेरा स्कूटर चोरी हो गया। तब हर बार मेरी नींद टूट गई और मैंने दरवाजा खोलकर अपना स्कूटर देखकर तसल्ली की।

मेरे, पाश्चात्य शैली वाले शौचालय का फ्लेश टैंक लगभग 6 महीनों से खराब था। दसियों कारीगरों/मिस्त्रियों/दुकानदारों से निवेदन किया। आश्वस्त सबने किया किन्तु दुरुस्त करने कोई नहीं आया। अन्ततः बड़ी ही मुश्किल से एक कारीगर महरबान हुआ। उसने समस्या दूर की। सब कुछ ठीक चल रहा है। किन्तु कोई एक पखवाड़े से आ रहे सपने में फ्लेश टेंक बार-बार काम करना बन्द कर रहा है।

पहले दो सपनों से या तो घबराहट होती ही नहीं है और यदि होती है तो कुछ ही देर के लिए। जल्दी ही सामान्य हो जाता हूँ। किन्तु तीसरे सपने से हर बार घबराहट हुई। इतनी कि इस सपने से ही डर लगने लगा है।

मेरे लिए यह सर्वथा नया अनुभव है। मैं कोशिश कर रहा हूँ कि इसका आनन्द लूँ।

जीवन अंकुर : सम्भवतः दुनिया में प्रथम और एक मात्र

अपने बच्चों की उच्च शिक्षा और सुदृढ़ भविष्य की सुनिश्चितता के लिए चिन्तित पालकों के लिए, भारतीय जीवन बीमा निगम आज, 23 जनवरी 2012 को, एक रामबाण बीमा पॉलिसी बाजार में पेश कर रहा है। इस अनूठी पॉलिसी का नाम है - जीवन अंकुर।

बीमा अभिकर्ता के रूप में मेरा बाईसवाँ वर्ष चल रहा है और अपने अब तक के ज्ञान, सूचनाओं और विश्वास के आधार पर कहने का साहस कर रहा हूँ कि ऐसी बीमा पॉलिसी दुनिया में किसी और बीमा कम्पनी के पास नहीं है। भारतीय जीवन बीमा निगम सहित तमाम बीमा कम्पनियों की तमाम बीमा पॉलिसियों में, पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद, पॉलिसी में नामित व्यक्ति को दावा राशि का भुगतान करने के बाद पॉलिसी समाप्त हो जाती है। किन्तु ‘जीवन अंकुर’ में पहली बार यह प्रावधान किया गया है कि पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद, नामित को पॉलिसी की रकम का भुगतान जारी रहने के दौरान यदि नामित व्यक्ति की भी मृत्यु हो जाए तो, स्वर्गवासी पॉलिसीधारक के विधिसम्मत उत्तराधिकारी को दावे की रकम का भुगतान किया जाए।

यह पॉलिसी, बच्चों की आर्थिक सुरक्षा के लिए अभिकल्पित (डिजाइन) की गई है। इसमें, बीमा सुरक्षा पिता/माता को प्रदान की जाती है जबकि भुगतान बच्चे को किया जाता है। पॉलिसी में नामित (नामिनी) के रूप में बच्चे का नामांकन अनिवार्य किया गया है।18 से 50 वर्ष की आयुवाले समस्त माता-पिता, अपने, 17 वर्ष तक की आयुवाले बच्चे/बच्चों के लिए यह पॉलिसी ले सकते हैं। पॉलिसी (और किश्त भुगतान) की न्यूनतम अवधि 8 वर्ष तथा अधिकतम अवधि 25 वर्ष है। न्यूनतम अवधि का निर्धारण, 18 में से बच्चे की वर्तमान आयु कम करके किया जाता है। उदाहरणार्थ यदि किसी बच्चे की आयु 3 वर्ष है तो पॉलिसी (और किश्त भुगतान) अवधि 15 वर्ष हो सकती है। ग्राहक चाहे तो यह अवधि कम की जा सकेगी किन्तु यह अवधि 8 वर्ष से कम नहीं होगी। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि यदि कोई पिता अपने 17 वर्षीय बच्चे के लिए यह पॉलिसी लेना चाहता है तो उसे 8 वर्ष के लिए ही यह पॉलिसी मिल सकेगी। यहाँ 18 में से बच्चे की आयु (17 वर्ष) करने पर एक वर्ष की अवधि की सुविधा पिता को नहीं मिल सकेगी। इसी प्रकार, यदि कोई बच्चा अभी पहले ही वर्ष में है तो उसका पिता अधिकतम 25 वर्ष की अवधि के लिए यह पॉलिसी ले सकता है किन्तु यदि वह चाहे तो इससे कम की अवधि भी तय कर सकता है किन्तु यह अवधि 8 वर्ष से कम नहीं होगी। जाहिर है कि बच्चे की अधिकतम आयु 25 वर्ष होते-होते पॉलिसी परिपक्व हो जाएगी।

पॉलिसी अवधि के दौरान पात्र पिता/माता के जीवन पर बीमा धन के बराबर जोखिम सुरक्षा उपलब्ध रहेगी। पॉलिसी अवधि पूरी होने पर, पॉलिसीधारक को बीमा धन की रकम तथा पॉलिसी अवधि के लिए घोषित निष्ठा आधिक्य (लॉयल्टी एडीशन) की रकम का भुगतान कर दिया जाएगा।

किन्तु पॉलिसी अवधि पूरी होने से पहले ही यदि पॉलिसीधारक की मृत्यु हो जाती है तो बीमा धन की रकम का भुगतान नामित (नामिनी) बच्चे को तत्काल किया जाएगा। यदि मृत्यु दुर्घटना से हुई है तो मूल बीमा धन के बराबर रकम का अतिरिक्त भुगतान भी किया जाएगा।

यहीं से पॉलिसी की उल्लेखनीय विशेषताएँ शुरु होती हैं।

पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद उपरोक्तानुसार भुगतान कर देने के बाद, पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद आनेवाली, पॉलिसी की वार्षिक तारीख से पॉलिसी परिपक्व होने से पहले वर्ष तक की, पॉलिसी की वार्षिक तारीख पर, प्रति वर्ष, बीमा धन की दस प्रतिशत रकम का भुगतान, नामित बच्चे को किया जाता रहेगा और पॉलिसी परिपक्वता दिनांक को सम्पूर्ण बीमा धन तथा पॉलिसी अवधि के निष्ठा आधिक्य (लॉयल्टी एडीशन) की रकम का भुगतान, नामित बच्चे को एक बार फिर किया जाएगा।

पॉलिसी पूरी होने से पहले यदि नामित बच्चे की मृत्यु हो जाए तो पॉलिसीधारक अपने दूसरे बच्चे को अथवा अन्य किसी व्यक्ति को नामित (नामिनी) बना सकता है जो, पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद उपरोक्तानुसार रकम प्राप्त करने का अधिकारी होगा। पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद, पॉलिसी में उल्लेखित बीमा धन की रकम प्राप्त करने के बाद और प्रति पॉलिसी वर्ष पर, बीमा धन की दस प्रतिशत रकम प्राप्त करना शुरु करने के बाद यदि नामित बच्चे अथवा नामित अन्य व्यक्ति की भी मृत्यु हो जाए तो पॉलिसीधारक के विधिसम्मत उत्तराधिकारी को शेष अवधि के लिए उल्लेखित वार्षिक किश्तों की रकम तथा परिपक्वता पर बीमा धन और निष्ठा आधिक्य (लॉयल्टी एडीशन) की रकम का भुगतान किया जाएगा। याने, पॉलिसीधारक की मृत्यु के बाद, पॉलिसी में नामित बच्चा जीवित रहे तो वह लाभान्वित होगा और दुर्भाग्य से वह भी जीवित न रह पाया तो पॉलिसीधारक के विधिसम्मत उत्तराधिकारी को शेष सारी रकम का भुगतान सुनिश्चित रूप से मिलेगा ही मिलेगा। यही व्यवस्था, इस पॉलिसी को दुनिया की सारी बीमा कम्पनियों की तमाम पॉलिसियों से अलग बनाती है।

इसे उदाहरण से इस प्रकार समझा जा सकता है -

अपने तीन वर्षीय बेटे के लिए मैंने एक लाख रुपयों की यह पॉलिसी ली। मेरी इच्छा रही कि जब मेरा बेटा, 17 वर्ष की उम्र में बारहवी पास कर उच्च शिक्षा के लिए किसी कॉलेज का दरवाजा खटखटाए तब उसके लिए मेरे पास यह रकम उपलब्ध हो। इसलिए मैंने पॉलिसी की अवधि 14 वर्ष तय की। 14 वर्षों बाद मुझे मूल बीमाधन एक लाख रुपये तथा 14 वर्षों की, निष्ठा आधिक्य (लॉयल्टी एडीशन) की रकम (अनुमानित 60 हजार रुपये) मिल जाएगी।

यदि इन 14 वर्षों के दौरान मेरी मृत्यु हो जाती है तो मूल बीमाधन की रकम एक लाख रुपयों का भुगतान मेरे बेटे को हो जाएगा। यदि मेरी मृत्यु दुर्घटना से होती है तो एक लाख रुपयों का अतिरिक्त भुगतान (याने कुल दो लाख रुपये) मेरे बेटे को कर दिया जाएगा। मान लें कि पॉलिसी लेने के चार वर्षों बाद मेरी मृत्यु हुई। याने पॉलिसी के 10 वर्ष बाकी रहे। चूँकि मेरी मृत्यु हो चुकी है इसलिए प्रीमीयम तो बन्द हो ही जाएगी किन्तु मेरी मृत्यु के बाद आनेवाली, पॉलिसी की प्रत्येक वार्षिक तारीख पर मेरे बेटे को 10 हजार रुपयों का भुगतान मिलेगा और जिस दिन पॉलिसी पूरी होगी उस दिन मूल बीमाधन एक लाख रुपये तथा 14 वर्षों की, निष्ठा आधिक्य (लॉयल्टी एडीशन) की रकम (जो मैंने 60 हजार अनुमानित बताई है) का भुगतान मेरे बेटे को किया जाएगा।

किन्तु, पॉलिसी अवधि पूरी होने से पहले और पॉलिसी की प्रत्येक वार्षिक तारीख को उपरोक्तानुसार भुगतान लेते हुए यदि मेरे बेटे की भी मृत्यु हो जाती है तो शेष वर्षों के लिए, मेरे कानूनी वारिस को, पॉलिसी की प्रत्येक वार्षिक तारीख को दस हजार रुपयों का भुगतान मिलेगा और पॉलिसी पूरी होने की तारीख पर उपरोक्तानुसार लगभग 1 लाख 60 हजार रुपयों का भुगतान मिलेगा।

पॉलिसी पूरी होने से पहले, मेरे जीते जी यदि मेरे बेटे की मृत्यु हो जाए तो मैं अपने किसी अन्य बच्चे को या अपने किसी रिश्तेदार को नामित (नामिनी) बना सकता हूँ जो मेरे बेटे के अनुसार ही, उपरोक्तानुसार समूचा भुगतान प्राप्त करने का अधिकारी होगा और पॉलिसी पूरी होने से पहले उसकी मृत्यु हो जाने की दशा में मेरा कानूनी वारिस उपरोक्तानुसार भुगतान प्राप्त कर सकेगा।

इस पॉलिसी के लिए न्यूनतम बीमाधन एक लाख रुपये है। अधिकतम की कोई सीमा नहीं है किन्तु वह आपकी आय और आयु से सम्बद्ध होगी। किश्त भुगतान वार्षिक, छःमाही, तिमाही, मासिक (वेतन बचत योजना और ई सी एस) आधार पर किया जा सकता है। चुकाई गई किश्तों की रकम पर आय कर की छूट मिलेगी और पॉलिसी से प्राप्त होनेवाली रकम पूरी तरह आयकर से मुक्त होगी।

हाँ, भारतीय जीवन बीमा निगम के ग्राहकों को पहली बार अपनी किश्त के अतिरिक्त ‘सेवा शुल्क’ चुकाना पड़ेगा। सेवा शुल्क की दर इस समय 10.3 प्रतिशत है। इस पर भा. जी. बी. नि. का कोई नियन्त्रण नहीं है क्यों कि इसे बढ़ाना, कम करना, आगे जारी रखना न रखना - सब कुछ केन्द्र सरकार के नियन्त्रण में है।

यदि आपकी आयु 50 वर्ष के भीतर है और आपके बच्चे/बच्चों की आयु 17 वर्ष से कम है तो अपनी आर्थिक क्षमतानुसार यह पॉलिसी लेने पर विचार अवश्य कीजिए।

आपकी कोई जिज्ञासा हो तो अवश्य सूचित कीजिएगा। ब्लॉग पर तो मैं उपलब्ध हूँ ही। आप चाहें तो ई-मेल पर अथवा मोबाइल नम्बर 098270 61799 पर भी मुझसे पूछताछ कर सकते हैं।

एक ठिठुरता वक्तव्य

यह पूरा सप्ताह बड़े कष्ट में बीता। ठण्ड ने परेशान कर दिया। आयु के पैंसठवें वर्ष में चल रहा हूँ किन्तु याद नहीं आता कि ऐसी ठण्ड कभी भोगी-भुगती हो। मुमकिन है, आयुवार्धक्य और इसी कारण, शरीर की कम होती प्रतिरोधी क्षमता इसका एक बड़ा कारण हो। किन्तु इस बार ठण्ड ने अत्यधिक परेशान कर दिया। आज बादलों के छाए रहने से ठण्डक कम लग रही है किन्तु इतनी कम भी नहीं कि असावधान और निश्चिन्त हुआ जा सके।

इस पूरे सप्ताह ऐसा हुआ कि लिखने को जी किया किन्तु लेप टॉप खोलने और बैठकर काम करने की हिम्मत ही नहीं हुई। हर बार लगा कि अंगुलियॉं काम नहीं कर रही हैं और बैठ पाना सम्भव नहीं हो रहा। इसी कारण मेरा, बीमा का काम भी स्थगित रहा। टेबल पर काम का ढेर लग गया है। यह जानते हुए कि यह प्रकृति-चक्र का ही हिस्सा है और सृष्टि के लिए अनिवार्य भी, मैं ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि ठण्ड से तनिक राहत दे। मेरे लिए न सही, उन सबके लिए जो नाम मात्र के लिहाफ के सहारे, खुले में रातें गुजारने को विवश हैं।

केवल मेरा कस्बा ही नहीं, समूचा मालवा इस बार अत्यधिक ठिठुर गया। मेरे कस्बे में पारा 4.2 डिग्री तक लुड़क गया। अखबारों ने जब-जब भी गिरते पारे का आँकड़े दिया तब-तब, हर बार मेरे मानस में, बन्द आँखोंवाले, हाथ-पाँव सिकोड़े हुए गर्भस्थ शिशु का चित्र ही सामने आया। लगा कि पारा भी इसी तरह सिकुड़ गया है।

इस बीच, मेरे यहाँ काम करनेवाली महिला (उसका नाम हम दोनों नहीं जानते। उसकी बेटी मधु के माध्यम से उसे ‘मधु की माँ’ के नाम से ही जानते हैं) ने मुझे प्रतिदिन चमत्कृत तो किया ही, अपनी ही नजरों में मुझे शर्मिन्दा भी किया। जमा देनेवाले इस पूरे सप्ताह वह प्रतिदिन तय समय पर आती रही। इससे अधिक उल्लेखनीय और चकित कर देनेवाली बात यह रही कि उसके चेहरे पर और व्यवहार में ठण्ड का असर रंच मात्र भी नजर नहीं आया। मैं रजाई में ही होता था और वह मेरी उत्तमार्द्ध से बात करती हुई, चहकती हुई चपलता से अपना काम निपटाती थी। ऐसे क्षणों में मैं हर बार अपराध-बोध से ग्रस्त हुआ। जीवन का अनिवार्य हिस्सा हो जाने पर अभाव भी इतने सहज-साथी हो जाते हैं? ईश्वर तो सबका ध्यान रखता है। किन्तु लगता है, हम मनुष्यों ने काफी-कुछ गड़बड़ कर दिया है।


मौसम अभी भी सर्द ही है। काम करने की इच्छा पर मौसम के तेवर अभी भी भारी पड़ रहे हैं। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ - मौसम के तनिक कम कष्टदायक होने की।

माफी: चाहना और माँगना


यह शुद्धरूपेण ‘ठिलवईगिरी’ है। काम की कोई बात नहीं है इसमें। जिसे और कोई काम न हो, फुरसत के सिवाय और कोई साथी न हो, वही इसे पढ़े। और पढ़े भी तो अपनी जोखिम पर। पढ़ने के बाद कोई पछतावा हो तो मुझे जिम्मेदार न माना जाए।


ये हैं हरीश वर्मा। मेरे प्रिय। इतने प्रिय कि दो-तीन दिन नजर न आएँ तो मुझे बेचैनी होने लगती है। ऐसा लगने लगता है कि या तो मैं बीमार हो गया हूँ या फिर वे। इसका मतलब यह बिलकुल मत लगाइएगा कि इसके पीछे मेरा या हरीश का कोई स्वार्थ है। सब कुछ पूरी तरह निस्वार्थ। निर्मल आनन्द के लिए।

अब याद नहीं आता कि हरीश से पहली मुलाकात कब हुई थी और कब ये मेरे लिए ऐसे ‘फालतू की जरूरत’ बन गए। बैंक ऑफ बड़ौदा में नौकरी करते हैं। मेरा खाता भी इसी बैंक में है, शायद 1991 से। किन्तु यह तय है कि खाता खोलने के लिए या खाता खोलने के कारण इनसे मुलाकात नहीं हुई। यह ‘दुर्घटना’ उससे पहले ही हो चुकी थी।

अन्धे व्यक्ति की पत्नी की दशा बखानने के लिए मालवी में एक कहावत है - ‘आँधा वना आँख बरे। आँधा वना घड़ी नी हरे।’ याने, पति का अन्धा होना यद्यपि दुखदायी और सामाजिक स्तर पर अवमाननाकारक है किन्तु उसके बिना, पल भर भी काम नहीं चलता। वह नजर न आए तो चैन नहीं पड़ता। हरीश के मामले में आप मेरी दशा ऐसी ही, अन्धे की पत्नी जैसी मान सकते हैं।

हरीश की सामाजिकता मुझे शुरु से ही चकित और विस्फारित करती रही। कहते हैं कि पति-पत्नी आजीवन साथ रहने के बाद भी एक दूसरे को समझ नहीं पाते। किन्तु हरीश के मामले में मैं तनिक भाग्यशाली हूँ। कुछ बरस जरूर लगे (क्योंकि दुनिया में मुफ्त में कुछ नहीं मिलता) किन्तु अन्ततः मुझे हरीश वर्मा समझ में आ गए - इतने कि अब मैं इनसे दुखी नहीं होता। बरसों बाद समझ पड़ी कि मैं जिसे ‘दिल की लगी’ समझ लेता था, हरीश के लिए तो वह ‘दिल्लगी’ होती थी। कुछ भी काम बताता, कोई मदद माँगता तो मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाई बोलता - ‘अरे! सर! हो जाएगा। आप बेफिकर रहो।’ मैं हरीश की बात पर भरोसा करता, बेफिकर रहता, चौबीसों घण्टे विश्वास किए रहता कि हरीश को अपना ‘वादा’ याद होगा और मेरा काम अब हुआ कि तब। किन्तु किसी विरहणी नायिका की तरह बरसों तपने के बाद सूझ पड़ी की कि ‘यार ने वादा किया है पाँचवें दिन का, किसी से सुन लिया होगा कि दुनिया चार दिन की है’ वाला शेर तो हरीश का चाल-चलन देख कर ही लिखा गया था। इस तपस्या के कारण मेरे जाले झड़ गए और अब मुझे हरीश से निर्मल आनन्द की प्राप्ति होती है। हरीश ने मुझे तत्व-ज्ञान दे दिया - अपेक्षा ही दुखों का मूल है।




हरीश की सामाजिकता आज भले ही अतीत की बात हो चुकी हो किन्तु जब तक हावी रही तब तक खुद हरीश को पता नहीं पड़ा कि वह कितनी बड़ी कीमत चुका रहा है। हालत यह कि भाई अपने घर के सिवाय और कहीं भी मिल जाए - किसी न किसी के काम में व्यस्त। उधर, अपने घर के छुटपुट काम कराने के लिए इनकी पत्नी सन्ध्या आस-पड़ौस के बच्चों की खुशामद कर रही होती। पिताजी आत्मारामजी वर्मा इतने नियमित और अनुशासन के पक्के कि मैं उन्हें (उनके सामने ही) ‘अंग्रेजों के जमाने का जेलर’ कहने लगा। लेकिन जलवा हरीश का! ‘अंग्रेजों के जमाने का यह जेलर’ भी, हरीश के भविष्य को लेकर चिन्तित रहना छोड़ कर अन्ततः ईश्वर का भरोसा करने पर मजबूर हो गया। दो बच्चों का बाप हरीश, खुद बच्चा बना हुआ, दौड़-दौड़ कर सारे जमाने के काम करता रहा। हरीश का यह ‘बच्चापन’ ही मुझे सदैव आकर्षित करता रहा, लुभाता रहा।



लेकिन अब यह सब बीते कल की बात है। हरीश का बेटा एम.बी.बी.एस. कर स्नातकोत्तर अध्ययनरत है। बेटी प्रिया भी उच्च शिक्षा के लिए निकलनेवाली है। देख रहा हूँ कि गए कुछ बरसों से हरीश के भीतर का बच्चा, सयानों की तरह व्यवहार करने लगा है। बच्चे जब बड़े होते हैं तो केवल खुद ही बड़े नहीं होते। वे अपने माँ-बाप को भी बड़ा बना देते हैं - बूढ़े होने के रास्ते पर चलने की तैयारी करनेवाले बड़े।किन्तु वो कहते हैं ना कि आदमी की फितरत कभी नहीं बदलती। इसलिए, जब भी मौका मिलता है, हरीश का ‘बच्चापन’ सारे तटबन्ध तोड़कर निर्मल आनन्द की बरसात कर देता है।




इन दिनों ‘माफी माँगना चाहता हूँ’ का जुमला हरीश के होठों की ‘स्थायी नागिरिकता’ हासिल किए हुए है। इतनी सहजता से कि खुद हरीश भी यह बात नहीं जानता। उसके आसपासवाले हम सब इन दिनों इस जुमले के मजे ले रहे हैं। ग्राहकों से लेन-देन करते समय, हरीश का ‘माफी माँगना चाहता हूँ’ कहना, ‘प्रति ग्राहक, कम से कम दो बार’ सुनने को मिल रहा है। हरीश कहता तो ग्राहक से है और कहता है अपने केबिन में बैठ कर किन्तु सब इस तरह सुनते हैं मानो वे सब यह सुनने की बाट जोह रहे हों और हरीश उन्हीं से कह रहा हो। जैसे ही हरीश का जुमला पूरा होता है, सहकर्मियों की सामूहिक हँसी दफ्तर का तनाव कम कर देती है।



दो दिन पहले मुझे बैंक से कुछ रकम निकालनी थी। मुझे हरीश के काउण्टर ही भेजा गया। योग की बात थी कि और कोई ग्राहक नहीं था। मुझे भुगतान तो कुछ ही सेकेण्डों में मिल गया किन्तु हरीश से देर तक बात होती रही। इस बीच वह पाँच-सात बार ‘माफी माँगना चाहूँगा सर!’ बोल चुका था। मैंने कहा - ‘आप जिस तरह से, साँस-साँस में, ‘माफी माँगना चाहता हूँ’ कहते हैं उसके लिए तो आपका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्ड्स में दर्ज हो सकता है।’ सुनकर हरीश ठठा कर हँस दिया। किसी दुधमुँहे शिशु की निश्छल हँसी। मुझे अच्छा लगा। मैंने छेड़ते हुए, तनिक दुष्टता से कहा - ‘आप बहुत धूर्त हैं। लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं। कहते हैं - ‘माफी माँगना चाहूँगा।’ सामनेवाला मुगालते में आ जाता है कि आप माफी माँग रहे हैं। जब कि आप माँगते नहीं, माँगने की चाहत भर जताते हैं। कभी माफी माँगिए भी तो सही!’ सुन कर हरीश ने दोनों कान छूते हुए, जबान निकाल कर, अविलम्ब, तत्क्षण ही, बिना सोचे (वो, जिसे अंग्रेजी में ‘बिना थॉट’ कहते हैं, उसी तरह) कहा - ‘अरे! आपको ऐसा लगा सर! इसके लिए मैं आपसे माँफी माँगना चाहूँगा।’ मैं हँसता, उससे पहले पूरा हॉल, हरीश के सहकर्मियों और ग्राहकों के ठहाकों से गूँज उठा। निर्मल आनन्द की जोरदार फुहार पूरे हॉल को सराबोर कर गई।



अब, ऐसे हरीश वर्मा को लेकर कुछ लिखना भी कोई लिखना होता है? और होता है तो क्या मतलब ऐसा लिखने का? यह ठिलवईगिरी नहीं तो और क्या है? इसीलिए मैंने कहा था कि यदि इसे कोई पढ़े तो अपनी जोखिम पर पढ़े। मैंने तो पहले ही सावधान कर दिया था। कोई पत्थर फेंकर सर माँडे तो इसमें मेरा क्या दोष?

भ्रष्टाचार का आतंक

भ्रष्टाचार को लेकर एक अत्यन्त कारुणिक संस्मरण बार-बार मेरी आँखें गीली कर देता है।

यह 1993 की बात है। बीमा अभिकर्ता बने मुझे तीसरा वर्ष चल रहा था। नया-नया अभिकर्ता बना था और अत्यधिक जरूरतमन्द था। सो, खूब मेहनत करता था। लोगों को गृह ऋण (होम लोन) देने के लिए भारतीय जीवन बीमा निगम ने ‘भाजीबीनि गृह वित्त’ (एलआईसी हउसिंग फायनेन्स लि., जिसे इन दिनों ‘एल आई सी एच एफ एल’ के संक्षिप्त नाम से पहचाना/पुकारा जाता है) नाम से अपनी स्वतन्त्र कम्पनी शुरु की ही थी। इस कम्पनी के जरिए अधिकाधिक लोगों को गृह ऋण दिलाने हेतु हम अभिकर्ताओं को कहा जाता था। गृह ऋण पर अभिकर्ताओं को किसी भी रूप में कमीशन तो नहीं मिलता था किन्तु ऋण स्वीकृती की शर्तों में, आवेदक को, ऋण राशि के बराबर बीमा कराने की शर्त होती थी। यह नया बीमा ही हम अभिकर्ताओं के लिए लालच होता था। सो, मैं भी ऐसे आवेदकों को हाथों-हाथ लेकर गृह ऋण दिला रहा था।


इसी क्रम में, एक शासकीय प्राथमिक विद्यालय के एक शिक्षक को 46 हजार रुपयों का गृह ऋण स्वीकृत हुआ। शिक्षकजी को ऋण मिल गया। मकान, म. प्र. गृह निर्माण मण्डल का था। मकान की कीमत मिलते ही गृह निर्माण मण्डल ने शिक्षकजी के पक्ष में मकान की रजिस्ट्री करा दी। हमारी कम्पनी ने ऋण की ग्यारण्टी के रूप में रजिस्ट्री अपने पास रख ली। शिक्षकजी अपने खुद के मकान में आ गए। ऋण की मासिक किश्तों (ईएमआई) का भुगतान शुरु हो गया।


सब कुछ सामान्य चल रहा था कि कोई आठ माह बाद एक दिन सवेरे-सवेरे वे शिक्षक अचानक ही मेरे घर आए। परस्पर कुशल-क्षेम पूछताछ के बाद मैंने उनके आने का प्रयोजन पूछा तो उन्होंने प्रति-प्रश्न किया - ‘मेरे लोन में क्या गड़गड़ है?’ बात मेरी समझ में नहीं आई। मुझे लगा, कम्पनी ने कोई पत्र भेजा होगा। मैंने पत्र लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा - ‘बताइए। कौन सा पत्र आया है?’ वे बोले - ‘नहीं। कोई पत्र-वत्र नहीं आया है।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर।’ उत्तर में शिक्षकजी ने जो कुछ कहा, उसने मुझे हिला दिया। बोले - ‘ मैं एक शिक्षक हूँ। मुझे अपने सौ-पचास रुपयों के मेडिकल बिलों की रकम लेने के लिए चाय-पानी करनी पड़ती है। आपने मुझे हजार-पाँच सौ का नहीं, पूरे 46 हजार का लोन दिलाया है और इसके लिए किसी ने मुझसे चाय भी नहीं माँगी। इसी बात से मुझे खटका बना हुआ है। इस जमाने में ऐसा कहीं होता है? दो महीनों से मैं बीमार चल रहा हूँ। पता नहीं कब, क्या होनी-अनहोनी हो जाए। मेरे मरने के बाद मेरे बच्चों को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। इसलिए आप साफ-साफ बता दो कि मेरे लोन मामले में मुझे कितना भुगतान करना है। जो भी करना है, मैं कर देता हूँ ताकि मेरे बच्चे मकान का पूरा सुख उठा सकें।’


शिक्षकजी की बात सुनकर पहले क्षण तो मुझे खुद पर और अपनी संस्था पर गर्व हो आया। किन्तु अगले ही क्षण, शिक्षकजी की मनःस्थिति का अनुमान कर मेरा जी भर आया। तनिक संयत होकर मैंने कहा - ‘सर! आठ महीने हो गए हैं। कम्पनी की ओर से किसी के आने की बात तो दूर रही, आपके पास कोई पत्र भी नहीं आया है। सब कुछ ठीक चल रहा है। आप मन में कोई शंका न पालें। आपको इस लोन के लिए किसी को, कुछ भी नहीं देना है। बस! लोन की मासिक किश्तें समय पर चुकाने की सावधानी अवश्य बरतिएगा ताकि आप ‘डिफाल्टर’ न हों और आपको चक्रवर्ती ब्याज न देना पड़े।’


शिक्षकजी को मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। जब उन्होंने चौथी बार अपनी शंका जताई तो मुझे डर लगा। मैंने उन्हें सावधन किया - ‘सर! यदि कभी कोई आदमी आकर आपसे कम्पनी के नाम से कोई रकम माँगे तो दे मत दीजिएगा। मुझे फौरन खबर कीजिएगा। कही ऐसा न हो कि आप बिना बात के हजार-दो हजार के नीचे आ जाएँ।’ मेरी इस चेतावनी ने उन पर बिजली सा असर किया। अविश्वास से बोले - ‘ क्या सच्ची में मुझे इतने बड़े लोन के लिए कभी भी, किसी को भी, कुछ भी नहीं देना है?’ मैंने अपनी बात एक बार फिर दुहराई। पूरा विश्वास उन्हें तब भी नहीं हुआ। खरी-पक्की करते हुए बोले - ‘साफ कह रहा हूँ। मैंने अपनी ओर से आपसे पाँच बार पूछ लिया और रकम देने की बात कह दी। आपने हर बार मना कर दिया। अब अगर किसी ने मुझसे पैसे माँगे तो मैं उसे लेकर आपके पास आ जाऊँगा। आप जानना और वो जाने। मैं एक पाई भी नहीं दूँगा।’ मैंने कहा कि ऐसा ही होगा और यदि उन्हें कोई रिश्वत देनी पड़ी तो वह मैं अपनी जेब से दूँगा। वे चले तो गए किन्तु उन्हें मेरी बात पर आकण्ठ विश्वास नहीं हुआ है - यह मैं उनके चेहरे पर साफ-साफ देख पा रहा था।


उनके ऋण वापसी की अवधि, उनकी सेवा निवृत्ति के दिनांक के आधार पर अठारह वर्ष निर्धारित हुई थी। गए साल वे ऋण-मुक्त हो गए। उनके मकान की रजिस्ट्री उन्हें मिल गई। इन्दौर से रजिस्ट्री लेकर अपने घर जाने से पहले वे मेरे घर आए। बोले - ‘सब कुछ बिलकुल वैसा ही हुआ जैसा आपने कहा था। मेरा लोन पूरा हो गया है। रजिस्ट्री मेरे हाथ में है। इन्दौर से रतलाम के रास्ते भर मैं इस रजिस्ट्री को उलटता-पुलटता रहा। पर आप सच मानिए, मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा कि मुझे बिना रिश्वत के इतना बड़ा लोन मिला था। आपसे बस यह कहने आया हूँ कि रजिस्ट्री मिलने के बाद अब मुझे तसल्ली हुई है कि लोन को लेकर मेरे बच्चों को कोई तकलीफ नहीं होगी।’


वे धन्यवाद देकर चले गए। उनके जाने के बाद मैं देर तक सिसकता रहा। खुशी के मारे नहीं। केवल इसलिए कि सब कुछ साफ-सुथरा और सुस्पष्ट होने के बाद भी एक व्यक्ति पूरे अठारह वर्षों तक भ्रष्टाचार की छाया से कितना आतंकित रहा!

भ्रष्टाचार लाइव - 30 वर्ष पूर्व

मेरी 6 जनवरी की भ्रष्टाचार लाइव शीर्षक पोस्ट पढ़कर, सेवानिवृत्त प्राचार्य और मेरे कक्षापाठी के अग्रज श्रीयुत सुरेशचन्द्रजी करमरकर ने मुझे पोस्ट कार्ड में एक संस्मरण लिख भेजा है। वही संस्मरण बिना किसी घालमेल के प्रस्तुत है


यह कोई 30 वर्ष पूर्व की बात है। रावटी के लोकसन्त ‘बापाजी’ द्वारा आयोजित एक भण्डारे में, बापाजी के, रतलाम निवासी एक सत्संगी का बेटा दिल्ली से (जो वहाँ इंजीनीयर के पद पर नौकरी कर रहा था) आया। उसकी शिक्षा रतलाम में ही हुई थी। बापाजी के भण्डारे के साथ ही साथ, माता-पिता से मिलना, जन्मस्थली के प्रति प्रेम और बालसखाओं, सहपाठियों से मिलने का उछाह भी उसे रतलाम खींच लाया था। वह आया तो था एक दिन की छुट्टी लेकर किन्तु आने के बाद उपरोल्लेखित सारे कारकों/कारणों ने मानो उसके पैर बाँध लिए। कुछ दिन और रतलाम ही रह जाने की इच्छा बलवती हो गई। उसने दो-तीन सरकारी डॉक्टरों से अपनी समस्या बताई और मदद माँगी। करमरकरजी भी उसके साथ थे। एक भी डॉक्टर ने मदद नहीं की। झूठा प्रमाण-पत्र देने से सबने मना कर दिया।


उन दिनों दिल्ली में पीलिया फैला हुआ था। करमरकरजी के नेक परामर्श पर अमल करते हुए उसने चौथे डॉक्टर से कहा कि वह दिल्ली से आया है, वहाँ होटल का भोजन करता है। रतलाम आने के बाद से उसे कमजोरी अनुभव हो रही है, भूख नहीं लग रही, आँखों के सामने अचानक ही अँधेरा छाने लगता है आदि-आदि। डॉक्टर ने उसकी सामान्य जाँच की, दो-तीन बार पेट दबाया और पूछा - ‘तुम दिल्ली से आये हो?’ लड़के ने उत्तर में ‘हाँ’ कहा तो डॉक्टर ने कहा - ‘तुम्हें तो जाइण्डिस का इन्फेक्शन है।’ लड़का कुछ कहता उससे पहले करमरकरजी ने कहा कि उन्हें भी ऐसा ही लगा था किन्तु यह लड़का मान नहीं रहा। दिल्ली जाने की जिद कर रहा है। सुनकर डॉक्टर ने कहा कि इस समय तो लड़के के दिल्ली जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। लड़के को तो कमसे कम आठ दिन रतलाम में ही आराम करना चाहिए। कह कर डॉक्टर ने दवाइयों की फेहरिस्तवाला पर्चा थमा दिया। माँगने पर बीमार होने का प्रमाण-पत्र भी बना दिया।


डॉक्टर की फीस चुकाकर, दवाइयों की फेहरिस्तवाला पर्चा और डॉक्टर का प्रमाण पत्र लेकर दोनों आए। पर्चा जेब में रखा और प्रमाण-पत्र, आरएमएस से दिल्ली पोस्ट कर दिया।

लड़का पूरे आठ दिन माता-पिता, मित्रों के साथ प्रेमपूर्वक रतलाम में रहा। लड़का, उसके माँ-बाप और उसके तमाम मित्र - सब खुश।


इस संस्मरण का भाष्य कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है।

इसलिए है चीन हमसे आगे

सुशील भाई छाजेड़ गए दिनों चीन गए थे। लौटे तो अपने अनुभव बताने लगे। सार यह था कि कहने भर को चीन साम्यवादी लगता है वरना सब कुछ पूँजीवादी व्यवस्था जैसा अनुभव होता है। सुनकर मुझे, 2 अक्टूबर 2011 को, ‘हम लोग’ द्वारा आयोजित, ‘इक्कीसवीं सदी का नौजवान और गाँधी’ विषय पर दिया गया, केन्द्रीय लोक सेवा आयोग के सदस्य और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल का व्याख्यान याद आ गया। उन्होंने बताया था कि अमरीका दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश है, यह तो सारी दुनिया जानती है किन्तु बहुत कम लोग जानते होंगे कि उसके माथे सबसे बड़ा कर्जा चीन का है। गोया, किसी साम्यवादी व्यवस्था द्वारा किसी पूँजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने का यह अनूठा उदाहरण है।


पुरुषोत्तमजी की यह बात मुझे तब अजीब लगी थी किन्तु सुशील भाई की वजह से उसका बड़ा कारण समझ में आया। माध्यम बनी - वह थैली (केरी बेग) जो सुशील भाई साथ में लाए थे। उस थैली पर सब कुछ चीनी में भाषा में लिखा था। बस, संस्थान् के नामवाली एक पंक्ति अंग्रेजी में थी। याने, जिसे समझना हो वह या तो चीनी भाषा का ज्ञान प्राप्त करे या फिर किसी चीनी की या चीनी भाषा जाननेवाले किसी व्यक्ति की सहायता ले।


सुशील भाई घूमने-फिरने नहीं, शुद्ध रूपेण व्यापारिक यात्रा पर गए थे। सुशील भाई का अंग्रेजी ज्ञान भी इतना और ऐसा नहीं है कि वे धाराप्रवाह अंग्रेजी में अपनी बात कह सकें। जाहिर है, सुशील भाई की सारी व्यापारिक बातें किसी हिन्दी दुभाषिये की मदद से ही हुई। अपनी भाषा के दम पर कोई देश, अपनी शर्तों पर किस तरह व्यापार कर सकता है, इसका यह अप्रतिम उदाहरण है। अंग्रेजी न जानने के भय से व्यापार से हाथ धोने की हिम्मत वही देश कर सकता है जिसे अपनी भाषा पर, अपनी संस्कृति पर आत्माभिमान और विश्वास हो। चीन यह खतरा लेते हुए यदि सफलता के झण्डे गाड़ रहा है तो इसका एक रहस्य-सूत्र निश्चय ही अपनी मातृ भाषा का सम्मान भी है।


यहाँ दिया चित्र सारी कहानी खुद कह रहा है। चित्र में पहली थैली, सुशील भाई की, चीन से लाई हुई है और दूसरी थैली, इन्दौर के एक व्यापारिक संस्थान की। चीनी थैली में सब कुछ चीनी में है जबकि इन्दौरी थैली पर हिन्दी का एक अक्षर भी नहीं।
सच ही कहा है कि जो देश अपनी भाषा की अवहेलना करता है, वह गूँगा हो जाता है।


हम गूँगे ही नहीं, बहरे भी हो गए हैं। नहीं होते तो सुन रहे होते और इस सुने हुए को गुन रहे होते - ‘‘निज भाषा निज संस्कृति, अहै उन्नति मूल।’’

भगवान की देन बनाम प्लानिंग

एक दशक से अधिक समय पूर्व लागू हुई आर्थिक नीतियों के प्रभाव देश के और हमारे सामाजिक तथा निजी जीवन के विभिन्न आयामों पर विभिन्न तरीकों से अनुभव किए जा रहे हैं। किन्तु, इन नीतियों का कोई सम्बन्ध ‘परिवार नियोजन’ से भी है? क्या हम भी ‘कम जनसंख्या, अधिक सुदृढ़ आर्थिक दशा’ की दिशा में चल पड़े हैं?

गए दिनों सामने आए दो प्रसंगों को मिला कर देखा तो अकस्मात ही ये प्रश्न मेरे मन में कौंधे।

पाँच वर्ष की एक पोती के दादा बने हुए मेरे मित्र एक दिन बदहवास मिले। पूछताछ की तो लगा, ‘कोई पूछे तो सही मुआमला क्या है’ की तर्ज पर वे सवाल की राह ही देख रहे थे। जमाने के बदलने को कोसते हुए बोले - ‘अब यही बाकी बचा था कि बेटे से यह सब सुनें!’ उनका इकलौता बेटा अपने माता-पिता की खूब चिन्ता और देखभाल करता है। शिकायत का कोई मौका नहीं देता। सुविधाओं और व्यवस्थाओं के मामले में माता-पिता की अव्यक्त इच्छा को हकीकत में बदलने में देर नहीं करता। ऐसे बेटे के लिए उनसे ऐसी शिकायत सुनना मुझे भी असहज कर गया।

चूँकि उन्हें बेटे से कभी कोई शिकायत नहीं होती। सो, हिम्मत कर, हौले से उन्हें सहलाया - ‘बताने जैसी बात हो तो बता दें।’ बोले - ‘छुपाने जैसा है ही क्या?’ मालूम हुआ कि पोते का मुँह देखने की ललक से उन्होंने बेटे से कहा कि गुड़िया अकेली है। साथ में खेलने के लिए उसके भाई-बहन के बारे में सोचे। अव्वल तो उन्हें अपने आज्ञाकारी बेटे से ‘पलट जवाब’ की उम्मीद नहीं थी। और यदि जवाब मिलना ही था तो ‘ऐसे जवाब’ की तो उम्मीद बिलकुल ही नहीं थी। बेटे ने कहा कि अकेली गुड़िया की शिक्षा का खर्च इतना आ रहा है कि वह और उसकी पत्नी, दूसरे बच्चे के बारे में सोचने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे। किन्तु यदि पिताजी दूसरे बच्चेे की शिक्षा के खर्च की जिम्मेदारी लें तो गुड़िया के भाई-बहन के बारे में विचार किया जा सकता है। यही जवाब ‘दादाजी’ को नागवार गुजरा और वे मिजाज नासाज कर बैठे।

दूसरा प्रसंग इससे भी अधिक कठोर और रूखा है।

मेरे इन मित्र के बेटे के विवाह को चौथा साल चल रहा है। कहाँ तो मेरे मित्र और उनकी पत्नी, बेटे के विवाह की पहली वर्ष गाँठ से पहले ही ‘दादा-दादी’ का दर्जा पाने की हुमस लिए बैठे थे और हालत यह कि चौथी वर्ष गाँठ सामने आ रही है और सब कुछ शादी के ठीक बाद वाले पहले दिन जैसा!

दूर-देस (बैंगलोर) से बेटा इस बार छुट्टी लेकर आया तो दोनों ने अपनी हुमस के अब तक ‘कुँवारी’ रहने पर क्षोभ व्यक्त किया। कहा कि उनके तमाम मित्र नाती-पोतों के साथ खेल रहे हैं और वे हैं कि मेलों-प्रदर्शनियों में झूले-पालने देख-देख कर उसाँसें छोड़ रहे हैं। तनिक कड़ी आवाज में इजहार-ए-हसरत किया तो बेटे के जवाब ने ‘सपनों के नशेमन पे बिजलियाँ’ गिरा दीं। नीची नजर, धीमी आवाज में बेहद अदब से बेटे ने सूचित किया कि वह उसकी पत्नी को एमबीए करा रहा है। अभी-अभी आखिरी सेमेस्टर की परीक्षा हुई है। केम्पस होनेवाला है। परिणाम और प्लेसमेण्ट की बाट जोही जा रही है। पहले यह सब हो जाए तब ‘बच्चा प्लान करने पर विचार करेंगे।’ मित्र ने तनिक कड़क कर कहा - ‘बच्चे तो भगवान की देन होते हैं! प्लान नहीं होते।’ नजर, आवाज और अदब को यथावत रखते हुए बेटे ने कहा - ‘पापा! आप सही कह रहे हैं। लेकिन वैसा आपके जमाने में होता था। अब वैसा नहीं होता। अब तो बच्चे प्लानिंग से ही पैदा होते हैं।’


मित्र से बोलते नहीं बना। आप बीती सुनाकर मुझसे पूछा - ‘है कोई जवाब आपके पास?’ सच कहूँ, मुझसे भी बोलते नहीं बना। प्रत्येक काल खण्ड का अपना सच होता है। हमारे काल का खण्ड का सच ‘भगवान की देन’ था तो हमारे बच्चों के काल खण्ड का सच ‘प्लानिंग’ का है।

इन दो प्रसंगों से ही मेरे मन में सवाल कौंधे थे। मेरा, परम्परावादी मन जवाब में मुझसे ‘नहीं’ कहलवाना चाह रहा है और हिम्मत है कि साथ नहीं दे रही।

बातें और बातों का असर

जिन्हें हम ‘छोटी-छोटी बातें‘ मान कर अनदेखी कर देते हैं वे वाकई में छोटी-छोटी बातें होती हैं?

शर्माजी के यहाँ बैठा था। तिवारीजी आ गए। हाथों में निमन्त्रण-पत्रों की गड्डी लिए। उनके बेटे के विवाह के निमन्त्रण-पत्र थे। अत्यन्त विनम्रतापूर्वक शर्माजी को निमन्त्रण-पत्र दिया (कुछ इस तरह मानो किसी देवता को फूल चढ़ा रहे हों) और कहा - ‘आपको आना ही है। अवश्य पधारिएगा।’ शर्माजी ने भी उतनी ही विनम्रता और शिष्टता से कहा - ‘हाँ! हाँ! क्यों नहीं? अपना ही काम है।’

अब तिवारीजी मेरी ओर मुड़े। पूछा - ‘आप घर पर कब मिलेंगे? मुझे आपके यहाँ भी हाजिर होना है।’ मैंने कहा - ‘फालतू की औपचारिकता में न पड़ें। मैं भुक्त-भोगी हूँ। जानता हूँ कि निमनत्रण-पत्र बाँटना कितना कठिन, श्रमसाध्य और समय-खाऊ काम है। मेरा कोई ठिकाना नहीं। उत्तमार्द्ध नौकरी में है और मैं बीमा एजेण्ट! दिन भर घर पर ताला मिल सकता है। इसलिए मेरा निमन्त्रण-पत्र यहीं दे दीजिए। मैंने मान लिया कि आप मेरे घर पधार गए हैं।’ तिवारीजी ने अविश्वास भाव से मेरी ओर देखा। मैंने अपनी बात दुहराई। तिवारीजी गद्गद हो गए। एक बार फिर वही, देवता को फूल चढ़ानेवाली विनम्र मुद्रा अपनाई और मुझे निमन्त्रण-पत्र दिया। वही अनुरोध दुहराया - ‘आपको आना ही है। अवश्य पधारिएगा।’ मैंने भी शर्माजी का सम्वाद दुहरा दिया।

तिवारीजी के जाने के बाद शर्माजी ने पहले अपना फिर मेरा निमन्त्रण-पत्र देखा। चेहरे पर खिन्नता के भाव उभरे। मुझसे पूछा - ‘आप जाएँगे तिवारीजी के यहाँ?’ मैंने कहा -‘हाँ। जाऊँगा। जाना ही पड़ेगा। बहुत प्रेम रखते हैं। आप नहीं जाएँगे?’ मलिन-मुद्रा और खिन्न स्वरों में शर्माजी बोले - ‘सोचना पड़ेगा।’ दोनों की मैत्री को मैं जानता था। सो पूछा - ‘आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? सोचने की बात कहाँ से आ गई?’ शर्माजी ने अपना निमन्त्रण-पत्र मेरे सामने कर दिया - ‘आपने निमन्त्रण देखा?’ मैंने तो मेरे नामवाला निमन्त्रण-पत्र ही नहीं देखा था! शर्माजी का निमन्त्रण-पत्र देखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था! मैंने प्रति-प्रश्न किया - ‘क्यों? क्या बात है?’ शर्माजी ने कहा - ‘दोनों निमन्त्रण-पत्र देखिए।’ मैंने ‘आज्ञा-पालन’ किया। मुझे कोई खास बात नजर नहीं आई। शर्माजी बोले - ‘जरा ध्यान से देखिए।’ मैंने फिर से ‘आज्ञा-पालन’ किया। ध्यान से देखा। इस बार अन्तर नजर आया। छोटा सा। मेरेवाले निमन्त्रण-पत्र पर ‘सपरिवार’ लिखा था जो शर्माजी के निमन्त्रण-पत्र पर नहीं था। मैंने कहा - ‘हाँ। एक शब्द का अन्तर है।’ शर्माजी मानो मेरे ऐसा कहने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। बोले - ‘यही तो! तिवारीजी की और मेरी दोस्ती, आपकी-उनकी दोस्ती से कम नहीं है। लेकिन मुझे सपरिवार निमन्त्रण नहीं है। उन्होंने इतना भी ध्यान नहीं रखा कि जब मुझे अकेले को निमन्त्रित कर रहे हैं तो मेरे ही घर में, मेरी मौजूदगी में अपको ‘सपरिवार’ वाला निमन्त्रण तो नहीं देते! आपके घर जाकर दे देते।’

मैं उलझन में पड़ गया। कौन, किसे, किस तरह, किस स्तर पर निमन्त्रित करे, यह उसका निर्णय होता है। अपनी-अपनी मानसिकता होती है। आयोजन को लेकर व्यवस्थाओं और परस्पर पूर्व व्यवहार के सन्दर्भ भी ऐसे निर्णय के आधार होते हैं। मुझे इसमें कभी हैरानी और आपत्ति नहीं हुई। शर्माजी की खिन्नता ने मुझे जिज्ञासु बना दिया। मैंने पूछा - ‘आपके यहाँ भी कुछ आयोजन हुए हैं। आपने सबको सपरिवार ही निमन्त्रित किया?’ जवाब आया - ‘नहीं। सबको सपरिवार तो बुला ही नहीं सकते। बुलाते भी नहीं। एक-एक नाम पर भरपूर विचार होता है और तय होता है कि किसे सपरिवार बुलाना है और किसे नहीं।’ मैंने फिर पूछा - ‘तिवारीजी को भी सपरिवार निमन्त्रित नहीं किया?’ सहजता से शर्माजी ने कहा - ‘हाँ। तिवारीजी को भी सपरिवार निमन्त्रित नहीं किया।’ मुझे अचरज हुआ। पूछा - ‘तो आपको बुरा क्यों लग रहा है?’ ‘बुरा इसलिए लग रहा है कि मेरे ही घर में, मेरी मौजूदगी में वे आपको सपरिवार निमन्त्रित कर गए जबकि मेरा निमन्त्रण तो अकेले का है। यह मुझे अच्छा नहीं लगा।’ शर्माजी का तर्क मेरी समझ में नहीं आया। मैंने कहा - ‘मुमकिन है, तिवारीजी ने सोचा हो कि बैरागीजी के परिवार में दो ही लोग (पति-पत्नी) हैं। एक को बुला लिया तो घर पर दूसरे के लिए, अकेले का भोजन बनाना पड़ेगा। ऐसा ही कुछ सोच कर हम दोनों को न्यौता दे दिया होगा। फिर, चूँकि आपने अपने यहाँ उन्हें सपरिवार नहीं बुलाया, इसीलिए उन्होंने भी आपको सपरिवार नहीं बुलाया। यह तो व्यवहार की बात है! इसमें बुरा माननेवाली बात कहाँ से आ गई?’ खिन्नता बनाए हुए शर्माजी बोले - ‘आपकी बात बराबर सही है। व्यवहार भी यही कहता है। किन्तु तिवारीजी को ध्यान रखना चाहिए था। उन्होंने आज जो किया, वह अच्छा नहीं किया। उन्होंने ऐसा नहीं करना चाहिए था। जाने-अनजाने उन्होंने मेरे ही घर में मेरी बेइज्जती कर दी।’

मुझे कुछ भी सूझ-समझ नहीं पड़ी। कौन सही है, कौन गलत? क्या उचित है, क्या अनुचित? दोनों के सम्बन्धों पर इस घटना के क्या प्रभाव होंगे? मैं उलझन में पड़ गया था। मुझे लौटना था। नमस्कार कर लौट आया।


अभी भी कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। यही बात मन में कौंध रही है - जिन्हें हम ‘छोटी-छोटी बातें‘ मान कर अनदेखी कर देते हैं वे वाकई में छोटी-छोटी बातें होती हैं?

भ्रष्टाचार लाइव

यदि यह भ्रष्टाचार है तो आज मैंने ‘भ्रष्टाचार लाइव’ देखा।

मेरे एक परिचित के परिवार में अचानक ही एक विवाह तय हो गया - आज ही। लड़केवाले आए थे। लड़के के साथ। दोनों परिवार पूर्व परिचित तो थे किन्तु इस तरह सम्बन्धी बन जाएँगे, यह दोनों में से किसी ने, कभी नहीं सोचा था। दोनों के लिए यह कल्पनातीत ही था।

सुबह लगभग नौ बजे लड़केवाले आए। बिना किसी पूर्व सूचना के। चाय-नाश्ते पर ही उन्होंने अपना मन्तव्य प्रकट किया। बात ही बात में बात मुकाम पर पहुँचती नजर आई तो मेरे परिचित ने पण्डितजी को बुलवा लिया। लड़का-लड़की की देखा-देखी और मिलना-जुलना, चाय-नाश्ते के समानान्तर हो चुका था। दोनों ही राजी थे। लड़के की पत्रिका उपलब्ध थी। पत्रिका की बात आई तो मैंने (अपनी ‘गन्दी आदत’ के अनुसार) टोका कि अब पत्रिका मिलान करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि बात मुकाम पर पहुँच गई है और ऐसे में यदि पत्रिका मिलान नहीं हुआ तो फिर पण्डितजी से ‘कोई रास्ता’ निकालने को कहा जाएगा जो अन्ततः मन समझाने के बहाने के सिवाय और कुछ नहीं होगा। किन्तु लड़की की माँ नहीं मानी।

पत्रिकाएँ देख कर पण्डितजी ने कहा - ‘मिठाई मँगवाइए। अट्ठाईस गुण मिल रहे हैं।’ अब बाकी था तो केवल विवाह का मुहूर्त। आए तो लड़केवाले थे किन्तु अब जल्दी हुई लड़कीवालों को। पण्डितजी ने पंचांग के पन्ने पलटे। उनके ललाट पर पाँच सिलवटें आ गईं। देख कर लड़की की माँ व्याकुल हो गई। रहा नहीं गया। पूछा - ‘कोई गड़बड़ तो नहीं?’ पण्डितजी ने निश्चिन्त किया - ‘घबराइए बिलकुल नहीं। कोई गड़बड़ नहीं है। बात बस इतनी ही है कि श्रेष्ठ मुहूर्त 15 जनवरी को आ रहा है-नौ दिनों के बाद। उसके बाद देव प्रबोधिनी एकादशी का मुहूर्त आ रहा है।’ सुनकर लड़की के पिता (मेरे परिचित) गड़बड़ा गए। उनकी शकल बता रही थी कि वे पन्द्रह जनवरी को कन्यादान कर देना चाह रहे थे किन्तु इतने कम समय में यह सम्भव नहीं होगा। लड़केवाले प्रतीक्षा करने को तैयार थे। तभी मानो ‘पोकरण परमाणु विस्फोट’ हुआ। लड़की की माँ ने घोषणा की - ‘हो जाएगा। सब इन्तजाम हो जाएगा। शादी इसी पन्द्रह जनवरी को कर लेते हैं।’

इसके बाद जो कुछ हुआ उसका कोई मतलब नहीं। लड़केवालों को विदा किया। दोनों ओर विवाह की तैयारियाँ फौरन ही शुरु हो गईं। किन्तु सबसे बड़ी समस्या सामने आई - मेरे परिचित की श्रीमतीजी की छुट्टियों की। वे सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं। विद्यालय में कुल तीन का स्टॉफ है। तीनों महिलाएँ हैं। उनमें से एक पहले से ही अवकाश पर चल रही है और दूसरी की ड्यूटी, नौ जनवरी से जातिगत जनगणना में लग गई है। आज तो जरूर वह अध्यापक स्कूल में है (जिन्हें परिचित की श्रीमतीजी ने अपने, देर से आने का समाचार करवा दिया था) किन्तु नौ जनवरी से, विद्यालय का पूरा भार परिचित की श्रीमतीजी के कन्धों पर ही आ जाएगा! ऐसे में छुट्टी कैसे मिल सकेगी? किन्तु परिचित निश्चिन्त थे। बोले - ‘जब ईश्वर यह योग बना रहा है तो छुट्टी भी मिल ही जाएगी।’ मुझे विश्वास नहीं हुआ। परिचित बोले - ‘चलिए! आज आप भी एक खेल देख लीजिए।’

हम दोनों, परिचित की श्रीमतीजी के संकुल कार्यालय पहुँचे। प्राचार्यजी से दुआ-सलाम के बाद परिचित ने सारी बात बताई और आग्रह किया कि उनकी श्रीमतीजी को कल से ही, कम से कम पन्द्रह दिनों का अवकाश दे दिया जाए। प्राचार्यजी से ऐसे हड़बड़ाए जैसे जीवित साँप उन पर फेंक दिया हो। बोले - ‘कैसे मिल सकता है? मिल ही नहीं सकता। कुल तीन का तो स्टॉफ है। एक पहले से छुट्टी पर है और दूसरी की ड्यूटी जातिगत जनगणना में लग गई है। स्कूल बन्द नहीं कर सकते। छुट्टी तो नहीं मिल सकती।’ परिचित ने पूरे धैर्य और शान्त-भाव से सारी बात सुनी और उठते हुए बोले - ‘आपकी आप जानो। आपका स्कूल खुले या बन्द हो, मेरी बेटी की शादी तो होगी। मेरी पत्नी छुट्टी पर जाएगी। आप स्कूल की व्यवस्था कर लेना। पत्रिका छपेगी या नहीं किन्तु आपको अभी से 15 जनवरी का निमन्त्रण है। समय और स्थान टेलीफोन से बता दूँगा। बच्ची को आशीर्वाद देने जरूर आइएगा।’ कह कर, प्राचार्यजी की ओर देखे बिना निकल आए।

मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। बौड़म की तरह परिचित की शकल देख रहा था। वे निर्विकार मुद्रा में थे - सर्वथा अविचलित।

रास्ते में उन्होंने स्टेशनरी की एक दुकान से छपे हुए एक फार्म की चार-पाँच प्रतियाँ खरीदीं। वहाँ से सीधे, जिला चिकित्सालय में पदस्थ एक डॉक्टर के यहाँ पहुँचे। वे उनके पूर्व परिचित थे। पूरी बात उन्हें बताई और फार्म उनके सामने रख दिए। डॉक्टर साहब ने नाम, उम्र पूछी और फार्म की कुछ प्रतियों पर हस्ताक्षर कर अपनी मुहर लगा कर मित्र को लौटा दीं। परिचित ने पूछा - ‘कितना?’ डॉक्टर साहब बोले - ‘बेटी की शादी है इसलिए केवल तीन सौ।’ परिचित ने सौ-सौ के तीन नोट डॉक्टर साहब को दिए। वहाँ से श्रीमतीजी के स्कूल पहुँचे। फार्मों पर उनक हस्ताक्षर करवाए। एक आवेदन लिखवाया। आवेदन और फार्म लेकर फिर से संकुल प्राचार्य के पास पहुँचे। श्रीमतीजी का आवेदन और फार्म उन्हें देते हुए बोले - ‘मेरी पत्नी की तबीयत अचानक खराब हो गई है। डॉक्टर ने पन्द्रह दिनों के आराम की कहा है। ये रहा मेरी पत्नी का आवेदन और डॉक्टर का सर्टिफिकेट।’ और पूर्वानुसार ही, प्राचार्यजी की ओर देखे बिना, शान्त-संयत और निर्विकार मुद्रा में निकल आए। मैंने देखा, हाथों में कागज लिए प्राचार्यजी बदहवास हालत में खड़े थे। वे हाथ हिलाकर मेरे परिचित को बुला रहे थे किन्तु उनके मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे। और मैं? मैं समझ ही नहीं पाया कि यह सब क्या हो गया?

प्राचार्यजी के दफ्तर के बाहर आकर परिचित ने मेरी ओर देखा। मुस्कुराए और बोले - ‘चलिए! व्यवस्थित मेरीज हॉल तो कोई मिलेगा नहीं। कोई छोटा-मोटा मेरीज हॉल बुक कर लेते हैं।’

मैं उनके पीछे-पीछे यन्त्रवत चलने लगा। मुझे न तब समझ पड़ रहा था और न अब समझ पड़ रहा है कि मैंने यह सब क्या देखा?

अब ‘इसके लिए’ भी ‘चाय-पानी’?

अफसरशाही से सारा देश दुखी और परेशान है। इतना और ऐसा कि, आजादी के पैंसठ बरस बाद भी, व्यथित और क्षुब्ध स्वरों में, ‘इससे तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था।’ वाला वाक्य एक-दो दिनों में सुनने को मिल जाता है। यह अकारण नहीं है। ‘जन सेवा’ के नाम पर भारी-भरकम वेतन राशि पानेवाले हमारे अधिकारीगण, अपने अधिकारों के प्रति तो चौबीसों घण्टे सजग, सन्नद्ध और चिन्तित रहते हैं किन्तु लोगों के काम करने के प्रति न केवल उतने ही उनींदे, आलसी और निश्चिन्त रहते हैं बल्कि लोगों के प्रति सामान्य शिष्टाचार निभाना भी भूल गए हैं।

एक यन्त्रणादायक अनुभव से गुजरने के बाद ही मैं यह सब कहने को विवश हुआ हूँ।

घर से निकल रहा था कि सड़क पर पड़ा, एक बिजली-बिल दिखाई दिया। सरसरी नजर डाली। यह मेरा बिल था! किन्तु आँकड़ा देख कर सुधबुध खो बैठा। पाँच हजार रुपयों से अधिक का बिल था। मुझे लगा, यह मेरा नहीं, किसी छोटे-मोटे कारखाने का बिल होगा। सो, ध्यान से एक बार फिर देखा। नहीं, यह मेरा ही बिल था। इतनी बड़ी रकम एक साथ चुकाना मेरे लिए कठिन बात थी। सो, मानो मेरी पूँछ में आग लग गई हो, कुछ ऐसी ही दशा में, सारे काम छोड़कर बिजली कम्पनी के कार्यालय पहुँचा। कुछ जाने-पहचाने चेहरे दिखाई दिए। मेरी बौखलाहट देख मुस्कुरा दिए। मैं कुछ कहता उससे पहले ही पूछा - ‘बड़ा बिल आ गया है?’ उनकी मुस्कुराहट देख और पूछने से पहले ही उन्हें सवाल करते देख अनुमान हुआ कि मुझ जैसे बदहवासों से मिलना उनके लिए रोज की सामान्य बात है। उन्होंने मुझे और मेरे बिल को हाथों-हाथ लिया। सरसरी नजर डालते हुए बोले - ‘आपकी मीटर रीडिंग नहीं हुई होगी।’ मेरे मुहल्ले की डायरी मँगवाई, पन्ने पलटे और अपने अनुमान की पुष्टि कर दी - ‘तीन महीनों से आपके मीटर की रीडिंग नहीं ली गई थी।’ मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। अगस्त 1977 से जून 1991 के तक मैं किराये के मकानों में रहा। किन्तु जुलाई 1991 से मेरे नाम का बिजली कनेक्शन रहा है। इससे पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ!

परिचितों ने ढाढस बँधाया। मुझे पानी पिलाया। चाय का आग्रह किया किन्तु ‘पाँच हजार’ का आतंक मुझे असहज किए हुए था। मना कर दिया। वे अनुभवी थे। मेरे कहे बिना ही वह सब कर दिया जो मेरे आर्थिक हित सुरक्षित करने के लिए किया जाना था। फिर भी आँकड़ा पाँच हजार के पार था। मेरी घबराहट कम नहीं हो रही थी। किन्तु वे इससे अधिक और कर ही क्या सकते थे? अब केवल एक काम बाकी था - बिल की रकम जमा कराना। वह तो मेरा ही काम था!

लौटते-लौटते विचार आया - इस घटना की जानकारी सम्बन्धित सक्षम अधिकारी को अवश्य देनी चाहिए ताकि व्यवस्था सुचारू हो और मैं ही नहीं, तमाम लोग ऐसी ‘दुर्घटना’ से कम्पनी कार्यालय के काटने से बच सकें। मुझे एक कमरा बताया गया। अनुमति प्राप्त कर अन्दर गया। एक भद्र महिला कुर्सी पर विाजित थीं। देख कर पहला भाव मन में आया - ‘महिला है। अधिक सहृदय व्यवहार मिलेगा।’ किन्तु उनके पहले ही वाक्य से यह भाव हवा हो गया।

उनके सामने 6 कुर्सियाँ, व्यवस्थित रूप से रखी हुई थीं। सबकी सब खाली। मैंने अपना परिचय दिया और कहा - ‘मेरी मीटर रीडिंग तीन महीनों से नहीं हुई और पाँच हजार का बिल आ गया। मेरे लिए यह रकम भारी है।’ मानो कोई मशीन बोल रही हो, इस तरह से जवाब आया - ‘लिख कर दे दीजिए। मैं मीटर रीडर को हटा दूँगी।’ मैंने कहा - ‘यह बिल मुझे, मेरे घर के सामने, सड़क पर मिला है।’ वे फिर से यन्त्रवत बोलीं - ‘यह भी लिख कर दे दीजिए। मैं बिल बाँटनेवाले को बदल दूँगी।’ मैंने कहा कि मेरी रुचि मीटर रीडर या बिल बाँटनेवाले को बदलने में नहीं, अपितु नियमित रूप से मीटर रीडिंग होने में और बिल वितरण व्यवस्थित होने में है। मैं चाहता हूँ कि मेरा बिल मुझे व्यक्तिगत रूप से मिले और यदि मेरे घर पर ताला लगा हो तो बिल, दरवाजे के नीचे से सरका दिया जाए। उत्त्र में उन्होंने जो कुछ कहा उसका आशय था कि अव्वल तो मुझे पता ही नहीं है कि मेरी समस्या क्या और न ही मुझे अपनी समस्या बताना आता है। दूसरी बात यह कि मीटर रीडिंग प्रति माह नियमित रूप से कराने और बिल वितरण व्यवस्थित कराने की सुनिश्चितता कर पाना उनके लिए सम्भव नहीं हो सकेगा। वे तो केवल काम न करनेवालों पर कार्रवाई कर सकती हैं, उन्हें हटा सकती हैं या फिर दण्डित कर सकती हैं।

उनके स्वरों की शुष्कता और यान्त्रिकता ने मुझे स्तब्ध कर दिया था। मैं उम्मीद कर रहा था कि उन्हें सगर्व यह भान होगा कि वे ऐसी उपभोक्ता सेवा से जुड़ीं हैं जिस पर कस्बे की पूरी आबदी निर्भर है और जिस (सेवा) पर उनकी कम्पनी का एकाधिकार है। निश्चत रूप से प्रशासकीय पद पर हैं किन्तु उनका पहला काम अपने उपभोक्ताओं की चिन्ता करना है। पता नहीं क्यों मैंने यह भी सोचने की मूर्खता कर ली थी कि जिस प्रकार मैं अपने पॉलिसीधारकों को अपना ‘अन्नदाता’ मानता हूँ उसी प्रकार वे भी अपने उपभोक्ताओं को अपना ‘वेतनदाता’ मानती होंगी, उनके प्रति (कृतज्ञता भाव न सही) विनय भाव तो रखती ही होंगी। किन्तु वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। वहाँ तो एक वरिष्ठ नागरिक को कुर्सी पर बैठने का आग्रह भी नहीं था! उन्हें अपने अधिकार भली प्रकार मालूम थे। वे जानती थीं (और सामनेवाले को जता रही थीं) कि अपने अधीनस्थों को दण्डित कर सकती हैं। नहीं जानती थीं तो बस यही कि वे अपने उपभोक्ताओं के लिए वहाँ बैठाई गईं हैं और उन्हीं उपभोक्ताओं के प्रति जिम्मेदार भी हैं। उनके कमरे से निकलते समय मुझे बरबस ही हँसी आ गई। अच्छा हुआ कि उपभोक्ता उनके अधीनस्थ नहीं हैं। वर्ना, वे उपभोक्ताओं को भी दण्डित करना शुरु कर देतीं। मुझे इस विचार ने भी गुदगुदा दिया कि उन्होंने मुझे कुर्सी पर बैठने का आग्रह भी शायद इसीलिए नहीं किया क्योंकि वह दण्ड नहीं था।

इसी के समानान्तर मुझे लग रहा है कि अधिकारियों को (और उपभोक्ता सेवाओं से जुडे़ अधिकारियों को तो विशेष रूप से) शिष्टाचार बरतने और नागरिकों से नम्रता से पेश आने हेतु विशेष प्रशिक्षण दिए जाने चाहिए। अपना वेतन जुटानेवाले नागरिकों/उपभोक्ताओं से वे (अधिकारी) मन ही मन भले ही घृणा करें किन्तु शिष्टाचार का दिखावा तो कर ही सकते हैं!


अब इसके लिए भी ‘चाय-पानी’ करनी पड़ेगी?

‘आकाश’ : वास्तविकता या अति आशावाद?

मेरा बेटा वल्कल, सूचना प्रौद्योगिकी स्नातक (आई. टी., बी. ई.), एम. बी. ए. (ई-गवर्नेन्स) है और जैसा कि चलन है, एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी कर रहा है। कल शाम मुझे उसका एक मेल मिला। ‘आकाश’ की बुकिंग, 14 दिनों में लाख हो जाने का समाचार वह कल शाम को ही पढ़ चुका था। वल्कल का यह मेल इस अप्रत्याशित बुकिंग को लेकर ही है।

सूचना प्रौद्योगिकी ज्ञान की मेरी दुनिया बहुत ही छोटी और सीमित है। रवि रतलामीजी यदि मेरे ब्लॉग-जनक हैं तो वल्कल मेरे ब्लॉग का रखरखाव करनेवाला। वह मेरी, अकस्मात उपजीं, वल्कल की भाषा में, ‘छोटी-मोटी’ समस्याएँ (जिनके उपजते ही मेरे हाथ-पाँव फूल जाते हैं) हल करता रहता है।

वल्कल के इस मेल की विषय वस्तु मेरे लिए ‘अजूबा’ ही है। किन्तु इसकी जिस बात ने मुझे आकर्षित, सुखद रूप से विस्मित और आश्वस्त किया वह है - भ्रष्टाचार, स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी, जन सामान्य से जुड़ी राष्ट्रीय समस्याओं तथा देश की आधी आबादी की स्थिति का उल्लेख और इनके प्रति व्यक्त उसकी चिन्ता। इसके साथ ही साथ, ‘सूचना के अधिकार’ को लेकर उसका आशावादी भरोसा।
आशावादी और नौजवानों को देश का भविष्य माननेवाला होते हुए भी मुझे लगता रहता है कि हमारे नौजवान ‘पेकेज केन्द्रित’ हो कर रह गए हैं। वातानुकूलित कमरों में (लकड़ी के खाँचों में) बन्द ये नौजवान केवल कम्प्यूटर के पर्दे पर जिस तरह से खुद को व्यक्त करते हैं, वह सब मुझे प्रायः ही ‘फैशन’ से अधिक नहीं लगता। (यह लिखते समय मैं, अण्णा हजारे के आन्दोलन में सड़कों पर उतरे नौजवानों को भीली-भाँति देख रहा हूँ।) ऐसे में, मेरी इस ‘खूसट धारणा’ को भंग करने वाले, वल्कल के इस मेल ने मेरे भरोसे और आशावाद को बढ़ाया ही है।
चूँकि ‘आकाश’ और इसकी उपयोगिता के बारे में मेरी जानकारी ‘शून्य’ है, इसलिए वल्कल का यह मेल यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसमें केवल वैयाकरणिक त्रुटियाँ और वाक्य रचना सुधारी गई हैं। बाकी सब ‘जस का तस’ है।
मेरी उत्सुकता केवल यही है कि वल्कल की बातें ‘अति आशावाद’ हैं या वास्तविकता?
(मेल में उल्लेखित ‘बबली’, मेरे साले की बिटिया ‘नवनी’ का घरेलू नाम है जिसका विवाह 17 फरवरी को हो रहा है।)


यह टट्टू है बड़े काम का


पापा,


प्रणाम,

आज यह समाचार पढ़ कर तबीयत खुश हो गई। ऐसा इसलिए नहीं कि मैं भी इन 14 लाख लोगो में शामिल हूँ, बल्कि इसलिए कि अब digital divide के दिन गिनती के रह गए हैं। यह आँकड़ा 14 करोड़ भी हो सकता था यदि बुकिंग केवल ऑनलाइन नहीं होती। मात्र ढाई-तीन हजार रुपये दे कर लोग इन्टरनेट से न केवल जुड़ जायेंगे बल्कि कहीं से भी जुड़ने की आजादी पा लेंगे। यह वो ‘जादू का पटिया’ है जो आने वाले समय में व्यवस्था की खड़ी हुई खटिया को बैठने लायक बना देगा।


इसके बारे में आपने अभी तक जो भी पढ़ा, शायद कुछ भी समझ नहीं आया हो, तो पहले यह बता दूँ कि आज की तारीख मे ‘आकाश’ सब से सस्ता टेबलेट है। टेबलेट, लैपटॉप और मोबाइल के बीच का ‘टट्टू’ है जिसे खरीदने वालों और बनाने वालों, दोनों की होड़ लगी हुई है।

इस ‘टट्टू’ को बनाने वाली कम्पनी को भी आशा नहीं थी की लोग इसको इस तरह, ‘हाथों हाथ’ नहीं, ‘सर माथे पर’ ले लेंगे। इसके चलते स्कूली शिक्षा इतनी सस्ती हो सकती है जिसकी आप और हम कल्पना भी नहीं कर सकते। शानदार बात यह है कि सस्ती होने के बावजूद शिक्षा का स्तर अधिक व्यापक और उन्नत हो जाएगा। गांवो में शिक्षा का प्रचार और स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियों का प्रसार भी काफी आसान हो जायेगा, खास कर जीवन रक्षा सम्बन्धी परामर्श जो अभी गाँवों मे या तो है ही नहीं, और यदि है तो गिनती के लोगो की पहुँच में ही।


‘टट्टू’ के सस्ता होने के एक बड़ा फायदा देश की उस आधी आबादी को भी मिलेगा जिसके सपने, ललक और जिज्ञासा को ‘फालतू’ कह कर चूल्हे तक ही सीमित कर दिया जाता है। इस ‘टट्टू’ में वह क्षमता है जो बिनी किसी और की सहायता से इस आधी आबादी के लिए ज्ञान खोज लाएगा।


ITR के लिए तो यह ‘टट्टू’, ‘राम का हनुमान’ साबित होगा। इसकी मदद से ‘ITR का राम’ अब गरीब को भी सहजता से मिलेगा। कम्प्यूटर न होने की लाचारी और बिजली कम होने की बीमारी से यह ‘टट्टू’ निजात दिलाएगा। ‘टट्टू’ बड़े काम है। इसकी और खूबियाँ कभी फुर्सत से।

अभी हाल ही में मेरी एक मान्यता टूटी। अभी तक मैं ये समझता था कि मँहगे मोबाइल लोग बस दिखाने के लिए रखते हैं, यह जाने बिना कि वे इस से क्या कर सकते हैं।


बबली के विवाह की खरीददारी के सिलसिले में एक दूकान पर मैंने दूकान वाले के पास iPhoe4 देखा। इसकी कीमत कुछ 30-35 हजार के बीच है। दूकान से निकलते वक्त, जूते की लेस बाँधते हुए मैंने ऐसे ही कहा - ‘मोबाइल तो बड़ा एडवांस्ड है आपका! आपका है या आपके बालक का?’ कहने भर की देर थी, दुकानदार छूटते ही बोला ‘साब! यह तो मेरी आँखें है।’ पहले क्षण तो कुछ समझ में नहीं आया कि वे क्या कर रहे हैं। किन्तु इतनी देर मे उन्होंने अपना मोबाइल मेरी तरफ किया और बोले ‘ये देखो साब! मैं अपनी पाँचों दूकानों पर इस से निगरानी करता हूँ कि काम हो रहा है या नहीं।’ मैंने पूछा - ‘फोन करके?’ वो बोले - ‘नहीं, देख कर।’ दूसरे जूते की लेस बाँधने का उपक्रम छोड़ कर मैं उनके थोडा नजदीक गया। तब तक वे अपने मोबाइल की एक एप्लीकेशन शुरु कर चुके थे। उन्होंने बताया कि उनकी दो दुकानें उज्जैन में और तीन इन्दौर में हैं। इतनी ही देर में मोबाइल की स्क्रीन पर पाँच कैमरों से आई हुई तस्वीरें दिखने लग गई। ये सभी तस्वीरें लाइव टेलीकास्ट थीं, उनकी पाँच दुकानों की, जिनमें दुकान पर खड़े उनके कर्मचारी और आए ग्राहक दिख रहे थे। मैं भी खुद को देख पा रहा था।

मैंने बहुत ही खुश मन से उनकी प्रशंसा की और बोला कि मैं उनसे सीखने आता रहूँगा। मन ही मन यह भी सोचा कि काश! यह दुकानदार किसी जिले का कलेक्टर या एसपी होता तो, या तो भ्रष्टाचार होने नहीं देता और अगर होने देता तो आटे और नमक का अनुपात तो बनाये रखता!


आपका बेटा,
‍वल्‍कल

यह अनारकली क्या करे?

‘नईदुनिया’ ने मेरे कस्बे के उन लोगों में मुझे भी सम्मिलित किया जिनसे, वर्ष 2012 के लिए उनकी ‘शुभेच्छा’ पूछी गई थी। (इसकी चर्चा मैंने, पहली जनवरी को प्रकाशित अपनी पोस्ट यदि यह नया साल है तो........ में की थी।) मैंने कहा कि मेरी नीयत भली और नेक होने के बावजूद अपनी साफगोई के कारण मैं अनेक लोगों का दिल दुखाने का अपराध करता रहा हूँ। इस बात की पीड़ा मुझे गत वर्ष से ही नहीं, कई बरसों से बनी हुई है। इस वर्ष मैं कोशिश करूँगा कि लोगों का दिल दुखाए बिना अपनी स्पष्टवादिता बनाए रख सकूँ।

पोस्ट पर आई, श्रीयुत करमरकरजी और कविताजी रावत की टिप्पणियों ने तो चकित किया ही था किन्तु मुझे आश्चर्य हुआ यह जानकर कि लोगों ने मेरी इस ‘शुभेच्छा’ से असहमति जताई। शब्दावली सबकी अलग-अलग थी किन्तु अन्तिम परामर्श एक ही था - ‘जैसे हो, वैसे ही बने रहो।’

सबसे पहला फोन आया पड़ौस से, भैया साहब, सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़ का। बोले - ‘हमें आप पर और आपकी स्पष्टवादिता पर गर्व है। परेशान मत होइए। कोई आपको गलत नहीं समझता और दुःखी नहीं होता। सब आपको जानते भी हैं और समझते भी हैं। आप तो अपने हिसाब से बिन्दास चलते रहें।’ चूँकि भैया साहब मेरे प्रति ‘मुग्ध-भाव’ रखते हैं, इसलिए मैंने उनकी बरत अनसुनी कर दी।

फोन बन्द किया ही था कि मेरे साथी अभिकर्ता प्रदीप का फोन आया - ‘ये क्या पढ़ रहा हूँ दादा? आप अपने आप को बदल रहे हो! क्या कर रहे हो। हें! आप, आप नहीं रहोगे और हम जैसे बन जाओगे? ऐसा गजब मत करो दादा! आपसे तो हमें ताकत मिलती है और आप ही बदल जाओगे?’

अभिकर्ता कैलाश तो एक कदम आगे निकला। फोन पर कहा - ‘दादा! कहीं जाना मत। मैं आ रहा हूँ।’ दस मिनिट की दूरी सात मिनिट में पूरी कर, आते ही बोला - ‘क्या हो गया सरजी? हममें से किसी ने कुछ कह दिया? कुछ कहा-सुना हो तो आज नये साल के पहले दिन माफ कर दो सरजी और वादा करो कि जैसा छपा है वैसा कुछ भी नहीं करोगे। ये भी कोई बात हुई?’

एक उठावने (तीसरे) में गया तो लगा कि मेरा ही उठावना हो जाएगा। एक से एक नेक परामर्श, भरपूर आश्वासन, तसल्लियाँ और दिलासे मिले मुझे। विश्वास दिलाया कि वैसा कुछ भी नहीं है जैसा मैं लोगों के बारे में सोच कर बैठा हूँ। मुझे अपना छोटा भाई जैसा स्नेह देनेवाले, ब्याज का धन्धा करनेवाले वयोवृद्ध सज्जन (जिन्हें मैं ‘दाऊजी’ सम्बोधित करता हूँ) ने (मानो, मेरी वास्तविकता उजागर कर रहे हों, कुछ इस तरह) कहा - ‘क्यों लोगों को बेवकूफ बना रहा है? क्यों बदमाशी कर रहा है, पोलिटिक्स खेल रहा है लोगों के साथ? तू खुद जानता है कि तू तो क्या तेरे फरिश्ते भी तुझे अब नहीं बदल सकते। जो कोई नहीं कर सका वह तू करेगा? पके हाँडे में मिट्टी लगाएगा? बदमाश कहीं का।’ वे चुप हुए ही थे कि सवाल आया - ‘अच्छा! उन लोगों के नाम बताएँ जो आपकी बातों की वजह से आपसे नाराज हुए?’ ऐसे सवाल के लिए मैं कतई तैयार नहीं था। मेरे बोल नहीं फूटे। मेरी यह दशा देख कर, मुझ पर पोलिटिक्स करने का आरोप लगानेवाले ‘दाऊजी’, निःशब्द हँसी हँसते हुए (मामला ‘उठावने’ का जो था) अपनी मूँछों पर हाथ फेरने लगे।

मुझे हैरत हुई। मेरा आकलन इस सीमा तक गलत हो सकता है? ऐसा तो हो नहीं सकता। निश्चय ही सारे लोग शालीनता, संस्कारशीलता और शिष्टाचार के अधीन ही ऐसी बातें कर रहे होंगे। मुझे अपराध-बोध से मुक्ति दिलाने के लिए, मुझे आत्म ग्लानि से छुटकारा दिलाने के लिए, मेरा हौसला बढ़ा रहे होंगे।

घर पहुँच कर अधलेटा हुआ ही था कि झालानी यातायात वाले भाई विनोद झालानी का फोन आया। वे मेरे प्रति अतिशय प्रेमादर भाव रखते हैं। गजलों के शौकीन हैं। बात कम करते हैं, शेर अधिक उद्धृत करते हैं। बोले - ‘आज आपका वक्तव्य पढ़कर आनन्द भी आया और हँसी भी आई। आनन्द इसलिए कि आपको अपने बोलने की हकीकत मालूम है। और हँसी इसलिए कि आप गालिब को झूठा साबित करने की हसरत पाल रहे हैं। चचा गालिब तो आखिरी उम्र तक मुसलमान नहीं हो सके। देखते हैं, आपका क्या होता है।’ मैं कुछ कहता उससे पहले ही बोले - ‘आपको क्या करना है और क्या नहीं, यह तो आप ही जानो पर एक शेर सुन लो। शायर का नाम मत पूछना। शेर आप पर फिट बैठता है -

सच बोलता हूँ तो घर में पत्थर आते हैं,

झूठ बोलता हूँ तो खुद पत्थर हो जाता हूँ।’

और मैं कुछ कहूँ, धन्यवाद दूँ, उससे पहले ही फोन बन्द कर दिया।

दिन भर ऐसी ही बातों में व्यतीत हुआ। एक ने भी मेरी शुभेच्छा पूरी होने की कामना नहीं जताई। या तो मना किया या अविश्वस किया या फिर उपहास को स्पर्श करता परिहास किया।

मुझे अचानक ही फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ में पृथ्वीराज कपूर (अकबर) का वह सम्वाद याद हो आया जो उन्होंने मधुबाला (अनारकली) से कहा था - ‘अनारकली! सलीम तुझे मरने नहीं देगा और हम तुझे जीने नहीं देंगे।’

क्या होगा इस अनारकली का? यह अनारकली क्या करे?

यदि यह नया साल है तो........

पटाखे छूटने की आवाजें आने लगी हैं। मेरे मोहल्ले में भी एक घर के सामने दो बच्चे पटाखे छोड़ रहे हैं। गोया, ‘नया साल’ आ गया।

‘उत्सव प्रेमी’ होने के नाम पर हम एक वर्ष में कितने नव वर्ष मनाते हैं? कम से कम तीन तो मनाते ही हैं। एक - दीपावली पर, दो - चैत्र प्रतिपदा पर (नव सम्वत्सर) और तीन - पहली जनवरी पर। मैं इनमें से दूसरेवाला नव वर्ष मनाता हूँ और अपने अन्नदाताओं, मित्रों, परिचितों को दीपावली पर अभिनन्दन पत्र भेजता हूँ। जो जानते हैं वे मुझे पहली जनवरी पर बधाइयाँ नहीं देते। जो नहीं जानते और बधाइयाँ देते हैं, उन्हें पलट-बधाइयाँ और शुभ-कामनाएँ अर्पित कर देता हूँ। नितान्त औपचारिक।

लगता है, मेरे आसपासवालों को मेरी मानसिकता की जानकारी अब अधिक होने लगी है। इसीलिए इस बार मुझे गए साल की अपेक्षा कम एसएमएस आए हैं। अब तक एक को भी जवाब नहीं दिया। कल (घड़ी में भले ही पहली जनवरी हो गई हो किन्तु मैं तो ‘उदय तिथि’ में विश्वास करता हूँ सो कल), पहली जनवरी को ही सबसे बात करूँगा और पलट बधाइयाँ दूँगा। मुझे एसएमएस लिखना अब तक नहीं आ पाया है।

एक पत्रकार ने जानना चाहा कि वह कौन सा काम था जिसे मैं गत वर्ष करना चाह रहा था किन्तु कर नहीं पाया। यह भी जानना चाहा कि सन् 2012 में कौन सा काम करने का इरादा किया है। मैंने कहा कि मैं तो खुद को मजदूर ही मानता हूँ जिसकी कोई छुट्टी नहीं होती और हर दिन काम करना ही त्यौहार होता है। किन्तु पत्रकार मित्र ने कहा कि इस जवाब से उनका काम नहीं चलेगा।जवाब देने में मुझे तनिक कठिनाई हुई, सोचना पड़ा। अचानक ही मुझे अपना सबसे बड़ा संकट याद आ गया। मुझे बीमा अभिकर्ता बनानेवाले नितिन भाई वैद्य मुझे, 1991 से बराबर कहते चले आ रहे हैं कि मैं बोल कर अपने लिए दुश्मन बना लेता हूँ इसलिए मैंने चुप रहने का अभ्यास करना चाहिए। नितिन भाई की यह बात मुझे हर बार सच अनुभव हुई है। स्थिति यह है कि मेरे प्रशंसक तो असंख्य है किन्तु अपने पास बैठाने को कोई तैयार नहीं होता। सब बिदकते हैं।


कहने के लिए यही बात मुझे ठीक लगी। मैंने कहा कि मेरी नीयत भली और नेक होने के बावजूद अपनी साफगोई के कारण मैं अनेक लोगों का दिल दुखाने का अपराध करता हूँ। इस बात की पीड़ा मुझे गत वर्ष ही नहीं, कई बरसों से बराबर बनी रहती है। इस वर्ष मैं कोशिश करूँगा कि लोगों का दिल दुखाए बिना अपनी स्पष्टवादिता बनाए रख सकूँ।

पत्रकार मित्र को कहते समय तो मैंने सचमुच में कहने के लिए कहा था। किन्तु अब लग रहा है कि यह तो मुझे वाकई में करना चाहिए। ‘करना चाहिए नहीं’, करना ‘ही’ चाहिए और केवल एक वर्ष के लिए नहीं, हमेशा के लिए ही करना चाहिए।

पहली जनवरी से नया साल माननेवाले तमाम कृपालुओं को हार्दिक बधाइयाँ, अभिनन्दन और शुभ-कामनाएँ।


सबसे विनम्र अनुरोध कि ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना करें कि मैं वैसा ही कर सकूँ जैसा करने के जिए मैंने पत्रकार मित्र को कहा था। और यदि वैसा न कर सकूँ तो कृपया ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना करें कि मैं चुप रहना सीख सकूँ।