मैं सार्वजनिक उपक्रमों का पक्षधर हूँ। मेरी धारणा है कि ये हम सामान्य लोगों को निजी क्षेत्र की मनमानियों और शोषण से बचाते हैं। यह भी जानता हूँ ‘सरकारी’ होने के कारण भ्रष्टाचार और लापरवाही इनका स्वभाव बने हुए हैं। इसके बाद भी मैं इनका पक्षधर हूँ। अन्धा पक्षधर। किन्तु ऐसा भी नहीं कि विवेक को ताक पर रख दूँ। इसीलिए, ‘इनसे भी’ लड़ता हूँ और ‘इनके लिए भी’ लड़ता हूँ। मैं ‘प्रेमी’ की तरह अपनी प्रेमिका पर अधिकार भी जताता हूँ और उसकी चिन्ता भी करता हूँ। इसीलिए, बीएसएनल का अनपेक्षित व्यवहार मुझे ‘प्रेमिका की बेवफाई’ जैसा लगा और मैं छटपटा उठा।
मेरे साथी अभिकर्ता कैलाश शर्मा ने किराए के मकान से खुद के मकान में रहना शुरु किया तो उसे अपना फोन नई जगह स्थानान्तरित कराना ही था। पहली अगस्त को कैलाश ने अपने मकान में अपनी गृहस्थी जमाई। इससे पहले कि वह फोन स्थानान्तरित करने का आवेदन दे पाता, केंसरग्रस्त अपने एक प्रियजन के लिए उसे अचानक ही इन्दौर जाना पड़ा। फोनवाला काम वह मेरे जिम्मे कर गया। दो अगस्त को राखी की छुट्टी थी। तीन अगस्त को मैंने बीएसएनएल कार्यालय जाकर, कैलाश का आवेदन लगाया। कुछ परिचित वहाँ निकल आए। मैंने उनसे व्यक्तिशः अनुरोध कर काम जल्दी से जल्दी कराने का अनुरोध किया क्योंकि अपने परिवार से सम्पर्क बनाए रखने के लिए कैलाश का यही माध्यम था।
सबने भरपूर गर्मजोशी दिखाई और भरोसा दिलाया कि मैं चिन्ता न करूँ क्योंकि पहली नजर में यह काम ‘हाथों-हाथ’ होने जैसा है। वहीं मुझे भाई राकेश देसाई मिल गए। मुझे पता नहीं था कि वे उसी कार्यालय में बड़े अधिकारी हैं। यह काम यद्यपि उनके क्षेत्राधिकार का नहीं था फिर भी, अपनी सीमाओं से परे जाकर, आगे रहकर उन्होंने मेरी मदद की। मुझे विश्वास हो गया कि तीन अगस्त की शाम होते-होते कैलाश के नए मकान पर फोन लग ही जाएगा और इस गम्भीर परिस्थिति में कैलाश अपने परिवार से सतत् सम्पर्क में रह सकेगा।
किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। एक दिन, दो दिन, तीन दिन निकल गए। फोन नहीं लगा। तलाश किया तो कभी ‘लाइनमेन को कह दिया है’ तो कभी ‘अरे! क्या बात करते हैं? अब तक नहीं लगा? अभी दिखवाते हैं। आप जाइए।’ जैसे प्रभावी जुमले सुनने को मिले। लाइनमेन से मैं दो बार मिला और चार-पाँच बार उससे फोन पर बात की। पहले दिन तो उसके साथ जाकर उसे कैलाश का नया मकान भी दिखाया।
इस बीच मैं भी अपने काम में उलझ गया। कैलाश का इन्दौर आना-जाना बराबर बना हुआ था। चूँकि उसकी ओर से कोई शिकायत या उलाहना नहीं मिला तो मुझे लगा, फोन लग गया होगा।
सत्रह अगस्त को, बीमा कार्यालय में कैलाश से, तसल्ली से मुलाकात हुई। वह इन्दौर से लौट आया था। केंसरग्रस्त उसके प्रियजन की दशा बेहतर थी। बातों ही बातों में पता लगा कि फोन अब तक, याने आवेदन के पन्द्रहवें दिन तक उसके नए मकान पर नहीं लगा है, वह भी इतनी भाग-दौड़ और कई लोगों से ‘भाई-दादा’ करने के बाद भी! मैं हत्थे से उखड़ गया और वह व्यवहार कर बैठा जिसे मैं खुद अनुचित मानता हूँ।
मैंने, रतलाम में पदस्थ, बीएसएनएल के सबसे बड़े अधिकारी का नम्बर लेकर फोन लगाया। उनकी महिला सहायक ने फोन उठाया। उन्होंने पूरा मामला जानना चाहा। मैंने कहा - ‘आपको ही सब बता दूँगा तो अधिकारी से क्या बात करूँगा?’ मैंने आपे से बाहर होते हुए कहा - ‘मुझे आपसे बात नहीं करनी। अपने अधिकारी से मेरी बात कराइए।’ उस भद्र महिला ने मेरी अशिष्टता की अनदेखी करते हुए कहा कि पूरी बात जानना और ग्राहक से बात कराने से पहले पूरा मामला अधिकारी को बताना उसकी ड्यूटी में शरीक है। मैंने पूरी बात बताई और कहा - ‘मैंने आपको पूरी बात बता दी। अब अधिकारी से मेरी बात कराइए।’ महिला ने विनम्रता से कहा कि अधिकारी अभी दूसरे फोन पर व्यस्त हैं इसलिए मैं ‘थोड़ी देर बाद’ फिर फोन लगा लूँ। मैंने उबलते हुए, पूरी कड़वाहट से पूछा - ‘थोड़ी देर बाद’ याने कितनी देर बाद?’ महिला ने पूर्ववत् विनम्रता से कहा - ‘थोड़ी देर बाद।’ मैंने फोन रखते ही, एक सेकण्ड से भी कम समय बाद ही फिर फोन लगा दिया। उधर से वही ‘थोड़ी देर बाद’ की बात कही गई। गुस्से में उबलते हुए मैंने, इस ‘थोड़ी देर बाद’ को अपनी सुविधा से व्याख्यायित करते हुए, पाँच-सात बार, फोन लगा दिया - हर बार एक सेकण्ड से भी कम समय में।
अन्ततः अधिकारी से बात हुई। मैंने पूरा किस्सा सुनाया और कहा कि फोन लगना न लगना एक बात है किन्तु विभाग ने एक बार भी आवेदक से सम्पर्क नहीं किया और न ही यह बताया कि उसका फोन लगेगा या नहीं और लगेगा तो कब तक लगेगा। मैंने दोहरी शिकायत की - काम न होने की और इस बारे में सम्वादहीनता बरतने की। अधिकारी ने शान्त और संयत स्वरों में मेरी हर बात से सहमति जताई और कहा - ‘आप ठीक कह रहे हैं। हम आज ही शर्माजी को स्थिति से अवगत करा देंगे।’ अधिकारी से बात समाप्त करने से पहले मैंने उनका नाम जानना चाहा। उन्होंने कहा - ‘मैं बिड़वई बोल रहा हूँ।’
केवल बीएसएनएल के व्यवहार से ही नहीं, अपने इस व्यवहार से भी मैं दुःखी भी था और क्षुब्ध भी। खुद से नजरें मिला पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। सो, बात समाप्त करते ही मैं वहाँ से घर चला आया। मैंने वह सब किया और कहा था जिसे मैं खुद अनुचित, अशालीन और अशिष्ट मानता हूँ। संस्कारों से अपने इस स्खलन से मैं मर्माहत था और अपनी ही नजरों में गिरा हुआ भी। लेकिन आगे जो हुआ उसने मुझे उलझन में डाल दिया।
केवल बीएसएनएल के व्यवहार से ही नहीं, अपने इस व्यवहार से भी मैं दुःखी भी था और क्षुब्ध भी। खुद से नजरें मिला पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। सो, बात समाप्त करते ही मैं वहाँ से घर चला आया। मैंने वह सब किया और कहा था जिसे मैं खुद अनुचित, अशालीन और अशिष्ट मानता हूँ। संस्कारों से अपने इस स्खलन से मैं मर्माहत था और अपनी ही नजरों में गिरा हुआ भी। लेकिन आगे जो हुआ उसने मुझे उलझन में डाल दिया।
कोई आधे घण्टे बाद ही कैलाश का फोन आया। वह घर से ही बोल रहा था और मुझे धन्यवाद दे रहा था। याने, उसके नए मकान पर फोन लग गया था। मुझे अच्छा तो लगा किन्तु दुःख भी हुआ। जो काम आधे घण्टे में हो गया वह पूरे पन्द्रह दिनों तक क्यों नहीं हो पाया? क्या अपने काम कराने के लिए प्रत्येक आदमी को बिड़वईजी से बात करनी पड़ेगी और ऐसी भाषा-शैली में बात करनी पड़ेगी? यदि बिड़वईजी से ही बात करनी है तो फिर कहाँ है व्यवस्था? जो कुछ हुआ वह सब मेरे व्यवहार, मेरी भाषा-शैली, लहजे, मेरे संस्कार-स्खलन को वाजिब ठहरा रहा था। मैं हतप्रभ था।
मैंने तत्काल ही बिड़वईजी को और उनकी सहायक श्रीमती व्यास को (उनका नाम मुझे बिड़वईजी से ही मालूम हुआ) धन्यवाद दिया और अपने व्यवहार के लिए क्षमा-याचना की। दोनों ने उदारतापूर्वक कहा - ‘आप क्षमा मत माँगिए। आपने ऐसा कुछ भी नहीं किया-कहा।’ यह उन दोनों का ‘बड़ापन’ हो न हो, ‘बड़प्पन’ तो था ही।
काम तो हो गया किन्तु जिस तरह से हुआ उससे लग रहा है कि किस्सा खत्म नहीं हुआ। लगता है, ‘महबूब’ के सितम जारी रहेंगे। सितम करना और करते रहना शायद महबूब की फितरत भी होती है और पहचान भी।
काम तो हो गया किन्तु जिस तरह से हुआ उससे लग रहा है कि किस्सा खत्म नहीं हुआ। लगता है, ‘महबूब’ के सितम जारी रहेंगे। सितम करना और करते रहना शायद महबूब की फितरत भी होती है और पहचान भी।
सोच रहा हूँ, बिडवईजी यह सब पढ़ लें और महबूब की फितरत और पहचान बदलने का यश हासिल कर लें।