दादा श्री बालकवि बैरागी देश के उन गिनती के लोगों में शामिल हैं जो तीनों विधायी सदनों (विधान सभा, लोक सभा और राज्य सभा) के सदस्य रहे। विधान सभा के सदस्य दो बार (1967 से 1972 और 1980 से 1984) रहे और दोनों ही बार मन्त्रि मण्डल के सदस्य रहे। । शेष दोनों के सदस्य एक-एक बार रहे। लोक सभा के 1984 से 1989 और राज्य सभा के 1998 से 2004 तक।
काँग्रेस पार्टी द्वारा दादा को राज्य सभा का सदस्य बनाना खुद दादा के लिए अचम्भा था। उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था कि उन्हें राज्य सभा का सदस्य बना दिया जाएगा। काँग्रेस पार्टी ने जब उनके नाम की घोषणा की तो सुन कर दादा (सचमुच में) चौंके थे। दादा, राजनीति में तो थे किन्तु सत्ता की राजनीति में पल भर भी नहीं रहे। सत्ता में और पार्टी में उन्हें जब भी, जो भी पद मिले वे या तो खुद पार्टी अपनी ओर से दिए या पार्टी में दादा के हितचिन्तकों ने दिलवाए। पद के लिए उन्होंने कभी न तो माँग की और न ही कभी, कोई अभियान चलाया। सो, राज्य सभा के लिए दादा का नाम जब घोषित हुआ तो दादा अचरज में पड़ गए। स्वाभाविक ही दादा ने इस रहस्य की वास्तविकता जाननी चाही। तब, जो वास्तविकता सामने आई उसने दादा को विगलित कर दिया।
दादा जब राज्य सभा के लिए चुन लिए गए तो उनके चाहनेवालों ने, उनके प्रशंसकों ने बधाइयों का ढेर लगा दिया। तब दादा ने, अपने स्वभाव (और अपनी परम्परा) के अनुसार एक छन्द में सबको धन्यवाद दिया। वह छन्द यह था -
आभार
छन्द को सबने सहजता से ही लिया और इसकी भरपूर प्रशंसा की। लेकिन यह छन्द पढ़ कर मैं सहज नहीं रह पाया। मुझे यह छन्द, दादा की खुद के बारे में उनकी, बार-बार की जानेवाली घोषणा (कि ‘मैं काँग्रेस का कवि’ नहीं, ‘काँग्रेसी कवि’ हूँ।’) के अनुकूल नहीं लगी। मुझे लगा, इस छन्द में दादा ‘काँग्रेस का कवि’ से बहुत आगे बढ़कर ‘सोनिया गाँधी का कवि’ हो गए हैं। यह छन्द पढ़ते ही मैं दादा से मिल कर ‘आप ऐसा क्यों लिख बैठे?’ का जवाब जानने को असहज, उतावला हो बैठा।
दादा से मेरा मिलना थोड़े दिनों के बाद ही हो पाया। इस छन्द की, सोनिया केन्द्रित, सोनिया प्राधान्य वाली पंक्तियों से मैं ने केवल विस्मित था बल्कि तनिक क्षुब्ध और खिन्न भी था।
दादा से मैं मिला तो मैं कुछ पूछता उससे पहले ही दादा ने मुझसे पूछ लिया - ‘क्या बात है? तू इतना भन्नाया हुआ क्यों है?’ मैंने तनिक आवेश में अपनी बात कही और पूछा - ‘आपने सोनियाजी की अतिरेकी प्रशंसा की वह तो अपनी जगह। लेकिन आपने तो अपने प्रशंसकों को भी काम पर लगा दिया!’ दादा ने पूछा - ‘मैंने किसे, किस काम पर लगा दिया?’ मैंने कहा - ‘आपने साफ-साफ लिखा है और चाहा है कि आपको बधाई देनेवाले, सोनियाजी को भी एक धन्यवाद पत्र लिख दें। यह भला क्या बात हुई? अपने नेता के प्रति आप निष्ठा जताएँ वहाँ तक तो ठीक है। लेकिन आपके चाहनेवाले भी आपके नेता को धन्यवाद दें, यह आग्रह क्यों?’
मेरी बात सुनकर दादा, अपने स्वभावानुसार ठठा कर हँसे और बोले - ‘अच्छा! ये बात है!’ फिर मेरी पीठ पर धौल मारते हुए बोले - “यह बात तो बताऊँगा ही। लेकिन सबसे पहले तो मुझे अच्छा भी लगा और तसल्ली भी हुई कि तू मेरी ‘पब्लिक इमेज’ की इतनी चिन्ता करता है। (अपनी पब्लिक इमेज की) इतनी चिन्ता तो शायद मैं खुद भी नहीं करता हूँ।”
फिर उन्होंने जो कुछ कहा, बताया, वह लगभग इस तरह था -
“मैं लोक सभा में गया, उससे पहले राजीवजी प्रधान मन्त्री बन चुके थे। इन्दिराजी की शहादत हो चुकी थी। लोक सभा में अपनी उपस्थिति को लेकर राजीवजी अतिरिक्त सजग, सतर्क और चिन्तित रहते थे। बहुत जरूरी होने पर ही वे लोक सभा से गैर हाजिर रहते। इसी कारण हम लोगों (लोक सभा सदस्यों) का उनसे मिलना होता रहता था। मुझे वे ‘कविराज’ सम्बोधित करते थे। जब भी मिलते? बड़े प्रेम और आत्मीयता से मिलते। लेकिन जब भी मिलते, एक बात हर बार कहते - ‘अरे कविराज! आपको कहाँ लोक सभा में फँसा दिया? आप जैसे इंटेलेक्चुअल आदमी को गाँव-गाँव जाकर भाइयों! माताओं-बहनों करना पड़े, यह अच्छी बात नहीं है। आपको तो राज्य सभा में होना चाहिए। आप अभी से राज्य सभा के लिए तैयार हो जाइए और वहीं की तैयारी कीजिए।’ उनकी यह बात मुझे अच्छी तो लगती थी किन्तु इस बात को कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया। हर बार यही माना कि मेरे प्रति प्रेमादरवश ही वे यह कह रहे हैं और कहते ही भूल जाते होंगे।
“1989 में मेरा, लोक सभा का कार्यकाल पूरा हो चुका था। जैसी कि मेरी आदत तू जानता ही है, लोक सभा सदस्यता समाप्त होते ही मैं अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर नीमच लौट आया था। लेकिन दिल्ली से बुलावा आता रहता था। मुझे जाना पड़ता था। ऐसी प्रायः प्रत्येक दिल्ली यात्रा में राजीवजी से मुलाकात हो ही जाती थी। जब भी मिलते, अपनी बात हर बार वे मुझे राज्य सभा में ले जाने की बात करते और मैं भी हर बार उन्हें धन्यवाद देता और भूल जाता।
“यह देश का दुर्भाग्य ही रहा कि 1991 में उनकी हत्या हो गई। वे देश के लिए शहीद हो गए। देश के लिए उन्होंने जो कुछ किया, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। वे देश को सूचना प्रौद्यौगिकी की ऐसी ऐतिहासिक देन दे गए कि देश आज सरपट दौड़ रहा है। वे जीवित रह जाते तो आई.टी. के मामले में भारत विश्व का सिरमौर होता। लेकिन विधि के विधान के आगे सब नत मस्तक हैं।
“मई 1998 में जब पार्टी ने मेरा नाम राज्य सभा के लिए घोषित किया तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। राज्य सभा की सदस्यता के लिए लोग क्या-क्या तिकड़में लगताते हैं, कितनी उठापटक करते हैं, तुम लोग इसका अन्दाज भी नहीं लगा सकोगे। कुर्सी-दौड़ के मामले में तू मुझे, मुझसे ज्यादा जानता है। इसलिए, जब मेरा नाम सामने आया तो अचरज से उबरते ही पहला सवाल जो मेरे मन में आया कि मेरा नाम कैसे और क्यों आया? मैं बड़ी उलझन में पड़ गया। दिल्ली में मेरा कोई गॉड फादर तो था नहीं जो मेरे लिए उठापटक करता! फिर यह कैसे हो गया?
“मैंने सिलसिले के अन्तिम छोर से तलाश की। तलाशते-तलाशते जब मैं मूल पर पहुँचा तो मैं हक्का-बक्का रहा गया। जिस बात पर मैंने एक बार भी विश्वास नहीं किया, जिस बात को मैंने हर बार ‘कहने के लिए कह दिया’ मान कर अनदेखी, अनसुनी कर दी थी, वही बात इसके मूल में थी। मैं हतप्रभ हो गया। जड़ हो गया। कोई आदमी, वह भी प्रधान मन्त्री के पद पर बैठा आदमी अपनी कही बात के प्रति इतना चिन्तित, इतना ईमानदार हो सकता है! सच कह रहा हूँ बब्बू! वास्तविकता जानते ही मुझे रोना आ गया।
“मुझे बताया गया कि राजीवजी के बलिदान के बाद जब राजीवजी का कम्प्यूटर खोला (डी-कोड किया) गया तो राजीवजी की लिखी बातें सामने आईं। उन्हीं में एक बात थी - ‘कविराज को राज्य सभा का सदस्य बनाना।’ कहने को तो और भी बहुत कुछ है लेकिन तेरी बात का जवाब इतने में ही मिल जाता है। बस! इसीलिए मैंने वह सब लिखा।”
पहली नजर में मुझे मेरे सवालों का जवाब मिल चुका था। मुझे और कुछ नहीं पूछना चाहिए था। किन्तु मुझे अब भी कुछ बाकी लग रहा था। मैंने कहा - ‘सोनियाजी ने राजीवजी की इच्छापूर्ति की। यह उनकी जिम्मेदारी भी बनती थी। सोनियाजी ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी। इसके लिए आप उन्हें धन्यवाद दें, यह तो समझ में आता है। लेकिन आपके प्रशंसक भी उन्हें धन्यवाद क्यों दें?’ इस बार दादा ने मुझे हैरत से देखा। उनकी ‘वह नजर’ मुझसे सहन नहीं हुई। मैंने जरूर कुछ ऐसा पूछ लिया था जो दादा को न केवल अनपेक्षित बल्कि अनुचित भी लगा था। लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि मैंने ऐसा क्या पूछ लिया। घबराहट में मेरी नजरें नीची हो गईं। लगभग कराहते हुए दादा बोले - ‘इतना सब सुनने के बाद भी तू यह सवाल कर रहा है? तुझे मैं नादान तो मान सकता हूँ किन्तु तू कह रहा है कि मैं तुझे कमअकल भी मानूँ। तेरी सूझ-समझ को क्या हो गया? तेरी सामान्य अकल कहाँ चली गई?’ दादा की ये बातें मानों चाबुक की तरह मेरी पीठ पर बरसीं। मुझे तब भी समझ नहीं पड़ा कि मैंने क्या गड़बड़ कर दी। मैं, ‘नतनयन,’ चुप ही बना रहा। गहरी साँस लेते हुए दादा बोले - “बेवकूफ! पूछने से पहले यह तो सोचा होता कि राजीवजी ने क्या ऐसा वादा मुझ अकेले से किया होगा? याने, ऐसे लोगों की लिस्ट लम्बी नहीं हो सकती थी? अब, यदि लिस्ट लम्बी हो और सीटें गिनती की हों तो भाई मेरे! उम्मीदवारी का अन्तिम फैसला तो सोनियाजी को ही करना था ना? तो, जाहिर है कि इच्छा तो राजीवजी की ही थी, किन्तु पहला मौका मिलते ही सोनियाजी ने मुझे उम्मीदवार बनाया। यह कोई कम और छोटी बात है? मान लेता हूँ कि वे कभी न कभी मुझे उम्मीदवार जरूर बनातीं। लेकिन यह ‘कभी न कभी’ कब आता? आता भी या नहीं? इसलिए, राजीवजी की इच्छापूर्ति की शुरुआत के पहले चरण में ही सोनियाजी का मुझे चुनना अपने आप में बड़ी बात हो गई। इसीलिए मैंने अपने प्रशंसकों से यह आग्रह किया ताकि सोनियाजी भी अनुभव कर सकें कि उनका निर्णय सही था।”
अब मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा था। मुझे लगा, दादा ने जो कुछ लिख-कहा, वह न्यूनतम का भी न्यूनतम था। वे यह नहीं लिखते तो शायद उनका आभार प्रदर्शन अधूरा ही रहता।
मुझे तब भी लगा था और अब भी लग रहा है, दादा की सार्वजनिक छवि की चिन्ता करते हुए मैं दादा के प्रति क्रूर हो गया था।
लेकिन तब रू-ब-रू क्षमा नहीं माँग पाया था। उसकी आवश्यकता ही नहीं हुई थी। दादा ने मानो मेरे चेहरे पर उभर आई क्षमा याचना को पढ़ लिया था और हँस कर एक बार फिर मेरी पीठ पर धौल मार कर स्वीकार कर मुझे क्षमा कर दिया था।
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दादा के आभार-पत्र की फोटू, भवानीमण्डी (राजस्थान) के जाने-माने, अग्रणी वकील श्री कैलाशजी जैन ने उपलब्ध काराया है। दादा से उनका (पत्राचार से लिया गया) ‘धाँसू’ साक्षात्कार यहाँ पढ़ा जा सकता है।