कुछ अटपटा लेकिन तसल्लीदायक

इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं कीथी।


‘आइए! रोगी के लिए निर्धारित कुर्सी पर विराजिए।’ कह कर डॉक्टर सोनगरा खुद ही चौंक गए। कुछ आह्लादित, कुछ विस्मित हो, कुछ इस तरह कि मानो खुद से ही सवाल पूछ रहे हों, बोले - ‘अरे! मैं  ऐसी हिन्दी बोल सकता हूँ? मुझे याद है यह सब?’

वे (डॉक्टर सोनगरा नहीं, मेरे ‘वे’) आयु में तो मुझसे छोटे हैं किन्तु ज्ञान और बौद्धिकता में हिमालय। हिन्दी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान्। सो, वे मेरे प्रिय भी हैं और आदरणीय भी। उनके घर पर बैठ, उनकी मेजबानी का सुख-आनन्द ले रहा था। एक सज्जन पधारे। वे मेरे इन प्रिय-आदरणीय को सवैतनिक सेवा का प्रस्ताव लेकर आये थे। शर्त थी - सारा काम अंग्रेजी में करना पड़ेगा। मेरे इन प्रिय-आदरणीय का, हिन्दी में आधिकारिक हस्तक्षेप जताने की ललक में कह बैठा - ‘तब तो ये शायद ही आपके लिए उपयोगी हों। हाँ! हिन्दी में इनके मुकाबले का अपने कस्बे में कोई नहीं।’ मैं उनके घर बैठा था, प्रस्ताव उनसे किया गया था। मेरे बोलने का न तो प्रसंग था न ही औचित्य। उनके प्रति मोहग्रस्त हो, उन्हें हिन्दी का निष्णात विद्वान् साबित करने के मोहवश मैं आपराधिक मूर्खता कर बैठा हूँ, तब इसका अनुमान भी नहीं हुआ। मेरा इतना कहने के बाद किसी के लिए कुछ कहना शेष नहीं रह गया था। प्रस्ताव, चर्चा होने से पहले ही निरर्थक हो चुका था।

मैं घर लौटा तो उत्तमार्द्ध ने बताया कि उनका फोन आया था। कहा था कि आते ही उनसे बात करूँ। मैंने वही किया। वे अप्रसन्न, खिन्न, क्षुब्ध और कुपित थे। उन्हें इस बात से अपनी हेठी लगी कि मैंने अंग्रेजी पर उनके अधिकार को संदिग्ध बना दिया था। उनके कोप का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मैं कुछ कहता और क्षमा-याचना करता, इससे पहले ही उन्होंने फोन बन्द कर दिया। मुझे मर्मान्तक पीड़ा हुई - यह मैंने क्या कर दिया? जो मेरे आत्मीय हैं, उन्हीं को पीड़ा पहुँचा दी? उन्हीं की अवमानना कर दी? वह भी, उनके ही घर में, उनकी श्रीमतीजी की उपस्थिति में? मैं रात भर सो नहीं पाया। उनसे बात करने का साहस तो मुझमें रहा ही नहीं।

उसके बाद कैसे, क्या हुआ, यह अपने आप में स्वतन्त्र आख्यान है। किन्तु दो महीने से अधिक का समय हो गया, मैं उनसे बात करने का साहस अब तक नहीं जुटा पाया हूँ। उन्होंने बड़प्पन बरता, स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश की किन्तु मैं इस क्षण तक सहज नहीं हो पाया हूँ। अब तक अपराध-बोध से ग्रस्त ही हूँ।

किन्तु महत्वपूर्ण बात यह कि अंग्रेजी पर समुचित अधिकार न होने की बात वे एकाधिक बार मुझसे कह चुके थे। अंग्रेजी की अनिवार्यता की शर्तवाला ऐसा ही एक प्रस्ताव पहले उनके पास आया था तो उन्होंने सामनेवाले से साफ कहा था कि वे अंग्रेजी में न तो धाराप्रवाह बोल सकते हैं न ही लिख सकते हैं। हिन्दी में उनकी प्रतिष्ठा को दृष्टिगत रखते हुए उनकी यह बात मान ली गई थी। यह संयोग या दुर्योग रहा कि वह प्रस्ताव परवान नहीं चढ़ पाया।

यह प्रसंग मुझे याद आया तो मैं उलझन में पड़ गया - ‘जो बात वे खुद कहते रहे हैं, वही बात मैंने कही तो उन्हें बुरा क्यों लगा?’

मैंने खूब सोचा। उनकी नाराजी को कोई कारण मुझे नजर नहीं आ रहा था। बार-बार एक ही बात पर आकर मेरा मन ठहरता रहा - “हो न हो, उन्हें इस बात का बुरा लगा कि दूसरे के सामने उन्हें ‘अंग्रेजी में अज्ञानी’ साबित कर दिया गया।” और कोई कारण मुझे न तब अनुभव हुआ और न ही अब अनुभव हो रहा है।

यह बात मेरे मन से निकल ही नहीं पाई। हमें हिन्दी का ज्ञान न हो, यह तो हमारे लिए शर्म की बात हो सकती है। किन्तु हमें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं है, यह बात हमारे लिए लज्जाजनक कैसे हो सकती है? वह भी उस आदमी के लिए जो हिन्दी और संस्कृत पर अपनी आधिकारितकता के लिए पूरे कस्बे में ही नहीं, समूचे मालवांचल में जाना-पहचाना, सराहा जाता हो, सम्मानित किया जाता हो?

दो-ढाई महीनों से यह बात मुझे साल रही थी। सोचा, अंग्रेजी न जानने को लेकर जब आचंलिक स्तर पर हिन्दी का एक महारथी, सारस्वत-पुरुष अचेतन में इस तरह हीनता-बोध से ग्रस्त हो सकता है तो बेचारे एक औसत पढ़े-लिखे आदमी की मनोदशा क्या होगी? मेरी खुद की अंग्रेजी ऐसी नहीं कि मैं खुद को अंग्रेजी का जानकार कह सकूँ। किन्तु ‘अंग्रेजी अज्ञान’ को लेकर ऐसा हीनता-बोध मुझमें क्षणांश को भी नहीं उपजा। 

सो मैंने, पाँच दिन पहले, जेब पर लगाई जा सकनेवाली, प्लास्टिक की एक पट्टी बनवाई - ‘मुझे अंग्रेजी नहीं आती।’ दुकानदार ने कहा कि सामेवार को पट्टी मिल जाएगी। सोमवार की शाम को मुझे अपने डॉक्टर के पास जाना था। वहाँ जाने से पहले, दुकानदार से यह पट्टी बनाकर ली। अपनी कमीज पर लगाई और डॉक्टर की सेवा में उपस्थित हो गया। मेरी कमीज पर लगी पट्टी का असर डॉक्टर पर क्या हुआ, यह मैं शुरु में ही बता चुका हूँ।

दो दिनों से मैं यह पट्टी लगाए हुए पूरे कस्बे में आ-जा रहा हूँ। लोग हैरत से देख रहे हैं। छुटपुट पूछताछ हो रही है। लेकिन बात मुकाम पर पहुँचती लग रही है। अलग-अलग स्थानों पर दो युवकों और एक दुकानदार ने कहा कि मेरी इस ‘हरकत’ से उन्हें ताकत मिली है। हिन्दी के एक व्याख्याता ने मानो स्वीकारोक्ति की - ‘हम सब जानते हैं कि हम अंग्रेजी नहीं जानते लेकिन यह जताने पर तुले हुए है कि हम अंग्रेजी जानते हैं।लेकिन ऐसा जताने की कोई जरूरत नहीं है, यह  बात आपकी कमीज पर लगी यह पट्टी देख कर समझ में आई।’ 

नहीं जानता कि आनेवाले दिनों में क्या होगा। लेकिन आज तो मैं, पूरे कस्बे में ‘देखने की चीज’ बना हुआ हूँ।

मुझे तसल्ली तो हो ही रही है, मजा भी आ रहा है।

इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी।


मेहरबाँ कैसे कैसे

“कौन सा आयोजन कर रहे हैं? कब कर रहे हैं?”

“कोई आयोजन नहीं कर रहा।

“अकेले नहीं कर रहे तो आप कुछ लोग मिल कर कर रहे हैं?”

“नहीं। न तो मैं अकेला कोई आयोजन कर रहा हूँ और न ही हम कुछ लोग मिल कर कोई आयोजन कर रहे हैं।”

“तो फिर किसी संस्था के किसी आयोजन की तैयारी कर रहे हैं?”

“नहीं। किसी संस्था के किसी आयोजन की भी तैयारी नहीं कर रहा हूँ।”

“तो फिर यह लिस्ट किसलिए?”

“कौन सी लिस्ट?”

“यही। पतों और मोबाइल नम्बरों सहित नामों की लिस्ट। आपके टेबल पर पड़ी है।”

“अच्छा! वह लिस्ट? वह तो बस! यूँ ही।”

“वाह! यूँ ही कैसे? इस लिस्ट में कुछ नाम कटे हुए हैं और कुछ पर टिक का निशान लगा हुआ है!”

“यह लिस्ट मैंने नहीं बनाई।” 

“आपने नहीं बनाई? तो किसने बनाई?”

“पाठकजी ने बनाई।”

“पाठकजी ने? अपने पासवाले रमेशजी पाठक ने?”

“नहीं। रमेशजी पाठक ने नहीं।”

“तो फिर कौन से पाठकजी ने बनाई?”

“प्रोफेसर अभय पाठक ने।”

“क्यों? उन्होंने क्यों बनाई?” 

“मेरे कहने से बनाई।”

“क्यों? आप कोई आयोजन कर रहे हैं?”

“मैंने पहले ही कहा न! मैं कोई आयोजन नहीं कर रहा।”

“तो फिर आपने लिस्ट क्यों बनवाई?”

“कभी, कोई आयोजन करें तो किस-किस को बुलाएँ, इसलिए बनवाई।”

“अच्छा। इसका मतलब है कि पाठकजी कोई आयोजन नहीं कर रहे।”

“मुझे नहीं पता कि पाठकजी कोई आयोजन कर रहे हैं या नहीं।”

“नहीं। नहीं। मेरा मतलब है   कि पाठकजी ने यह लिस्ट अपने किसी आयोजन के लिए नहीं बनाई।”

“हाँ। मैंने पहले ही कहा है कि पाठकजी ने यह लिस्ट मेरे कहने से बनाई।”

“अच्छा। लेकिन इसमें तो कुल तेईस ही नाम हैं। आयोजन में इतने ही लोगों को बुलाएँगे?”

“यह तो तय नहीं कि कितने लोगों को बुलाएँगे लेकिन तेईस से ज्यादा ही लोगों को बुलाएँगे।”

“तो पाठकजी ने इतने ही नाम क्यों लिखे? और इसमें मेरा नाम तो है ही नहीं।”

“उनसे कहा था कि वे उन लोगों की सूची बनाकर दें जो उनके सम्पर्क में हैं।”

“अच्छा। लेकिन इसमें मेरा नाम क्यों नहीं है? मैं भी तो उनके सम्पर्क में हूँ!”

“आपका नाम मेरी लिस्ट में है।” 

“क्या मतलब? आप दो लोग मिल कर लिस्ट बना रहे हैं?”

“केवल दो नहीं। हम पाँच-सात लोग मिल कर लिस्ट बना रहे हैं।”

“पाँच-सात लोग मिल कर? क्यों भला?”

“हर आदमी के अपने-अपने सम्पर्क होते हैं। कई नाम ऐसे होते हैं जो सबकी लिस्ट में मिल जाएँगे। लेकिन सबके नाम सबकी लिस्ट में नहीं मिलेंगे। तो, इस तरह नाम छाँट कर एक बड़ी और व्यापक लिस्ट तैयार हो जाएगी।”

“अच्छा। तो इसका मतलब है कि आप लोग कोई आयोजन करनेवाले हो।”

“नहीं। हम लोग कोई आयोजन नहीं कर रहे।”

“तो फिर लिस्ट बनाने की हम्माली क्यों कर रहे हैं?”

“कहा ना? कभी, कोई आयोजन करना पड़े तो अधिकाधिक लोगों को बुलाया जा सके, इसलिए।”

“लेकिन किसी आदमी के यहाँ कोई काम पड़ता है तो वह अपने नाते-रिश्तेदारों को, व्यवहारवालों को, दोस्तों को, मिलनेवालों को ही बुलाता है।”

“हाँ। आपने ठीक कहा।”

“तो फिर इस लिस्ट का मतलब? आपने अभी कहा कि आप लोग जो लिस्ट बनाओगे उसमें ऐसे लोगों के नाम भी होंगे जिन्हें आप नहीं जानते और जिनसे आपका कोई लेना-देना, कोई व्यवहार नहीं है?”

“हाँ। ऐसे नाम तो होंगे ही। इसीके लिए तो सबसे अपनी-अपनी लिस्ट बनाने को कहा है।”

“आपकी बात समझ में नहीं आई।” 

“कौन सी बात समझ में नहीं आई?”

“यही कि अपने घर पर काम होने पर अपने नाते-रिश्तेदारों को, व्यवहारवालों को, मिलनेवालों को, दोस्तों को ही बुलाते हैं।”

“हाँ। ठीक तो है!

“तो फिर इस लिस्ट का मतलब?”

“यह लिस्ट हममें से किसी के यहाँ होनेवाले पारिवारिक काम के लिए नहीं है।”

“कमाल है! तो फिर किसलिए है?”

“कभी कोई साहित्यिक, ललित कलाओं से जुड़ा कोई आयोजन हो तो उसमें बुलाने के लिए।”

“हत्त-तेरे की! आप भी कमाल करते हो! पहले ही बता देते!”

“कमाल तो आप कर रहे हैैं। आप जो-जो सवाल पूछते रहे, वही-वही जवाब तो मैंने दिए!”

“नहीं। आपने घुमा-फिरा कर जवाब दिया।”

“नहीं। मैंने तो, जैसा आपने गाया, वैसा ही बजाया।”

“नहीं! नहीं! आप मेरे मजेे ले रहे थे।”

“आप खुद को ‘मजा लेनेवाली चीज’ समझते हैं?”

“फिर? आप फिर मेरे मजे ले रहे हैं।”

“नहीं। मैं तो आपके आरोप पर अपना स्पष्टीकरण दे रहा हूँ।”

“आप भी बस! आपसे तो बात करना ही बेकार है।”

“इतनी सी बात आपको इतनी सारी बातें करने के बाद समझ में आई?”

“फिर? आप कभी चुप भी रहेंगे?”

“मैं चुप रहूँगा तो आप इसी बात पर नाराज हो जाएँगे कि मैं आपके सवालों के जवाब क्यों नहीं दे रहा।”

“आप से तो भगवान बचाए। गुनहगार मैं ही हूँ।”

“इसमें गुनहार होने न होने की बात बीच में कहाँ आ गई?”

“येल्लो! मेरी मति मारी गई जो आपसे बहस कर रहा हूँ।”

“आप भले ही कर रहे हों, मैं तो बहस नहीं कर रहा। मैं तो आपके सवालों के जवाब दे रहा हूँ।”

“अच्छा। आप जीते। मैं हारा। अब तो आप खुश?”

“तो आप मुझे खुश करने के लिए अब तक यह सब कर रहे थे? मैं तो आपके आने से ही खुश हो गया था।”

“हे! भगवान! प्राण लेंगे क्या?”

“आपसे मिल कर, आपको देखकर मुझे सदैव ही खुशी होती है। आप ही बताइए, जिससे खुशी मिलती है, उसके प्राण लिए जाते हैं?”

“आपके हाथ जोड़े। मैं चलता हूँ। जितनी देर बैठूँगा, उतनी ही अपनी फजीहत करवाऊँगा। नमस्कार।”

“कहाँ चल दिए? आपने मेरी बात तो सुनी ही नहीं!”

“हें! तो मैं अब तक क्या कर रहा था?”

“अब तक आप मुझसे सवाल कर रहे थे। अपनी बात कहे जा रहे थे।”

“हे! भगवान! फिर मैं ही दोषी? चलिए। कहिए। क्या कहना है?”

“बस। यही कि ऐसी ही एक सूची आप भी बना कर दे दीजिएगा - आपके मिलनेवालों के नाम, पतों और मोबाइल नम्बरों सहित।”

“अरे! जब आप लोग.........नहीं। नहीं। दे दूँगा। जल्दी ही दे दूँगा। बनते कोशिश कल ही दे दूँगा। बस? नमस्कार।”

“नमस्कार। फिर आइएगा।

(वे थोड़ी ही देर पहले गए हैं। कुछ काम से आए थे। मेरी टेबल पर रखे कागजों को उलटना-पलटना और खोद-खोद कर पूछताछ करना उनकी आदत है। इसी के चलते उन्हें एक सूची नजर आ गई। उसके बाद जो हुआ, वही आपने पढ़ा। इस चक्कर में वही काम भूल गए जिसके लिए आए थे।)

अपन तो बिन्दास चलाते हैं अंकल!

लोग अलग-अलग, घटनाएँ भी अलग-अलग किन्तु सन्देश एक ही। कुछ इस तरह जैसे धर्म, पन्थ अलग-अलग लेकिन सबका सन्देश एक ही। घटनाओं, व्यक्तियों, प्रस्तुतियों की विविधता ही इसे रोचक बनाए रखती है। 
कल भी ऐसा ही हुआ।

बीमा-सम्भावनाएँ तलाशता हुआ एक जगह, जवान इकलौते बेटे के पिता से गपिया रहा था। पिता खुद के बजाय बेटे का बीमा कराना चाह रहा था। मैं जोर दे रहा था कि वह खुद का ही बीमा कराए क्योंकि घर के लिए रोटी वही कमा रहा है। बेटा तो अभी पढ़ रहा है। पढ़-लिख कर काम-धन्धे से लग जाए, खाने-कमाने लगे तो उसका बीमा करा ले। अभी बेटा जिम्मेदारी बना हुआ है। वे बेटे का ही बीमा कराना चाह रहे थे। बेटा बाहर था। कुछ ही देर में आनेवाला था। सो हम इधर-उधर की बातें करने लगे।

बात शुरु हुई थी एक जवान बेटे से और पहुँच गई उस जवान बेटेवाली पूरी पीढ़ी तक। वे अत्यधिक खिन्न और क्षुब्ध थे। उनके मतानुसार आज के नौजवान पूरी तरह बिगड़ चुके हैं। मनमानी करते हैं। बड़ों की इज्जत नहीं करते। आँख की शरम खो दी है इन्होंनें। किसी की परवाह नहीं करते। इनके माँ-बाप भी इन्हें कुछ नहीं कहते। 

मैंने हर बार टोका-रोका। कहा कि ये बच्चे अपनी मर्जी से दुनिया में नहीं आए हैं। इन्हें हम ही दुनिया में लाए हैं और ये ही हमारा आनेवाला कल हैं। हमें इन्हीं के कन्धों पर जाना है। हम अपने वक्त में ठहरे हुए हैं। यदि चलकर इनके वक्त में आएँ तो ये ही बच्चे हमें भले लगने लगेंगे। ये वैसे ही बने हैं और बन रहे हैं जैसा हमने इन्हें बनाया है और बना रहे हैं। ये ही हमारी सेवा करेंगे और हमारा नाम रोशन करेंगे। हमें इन पर भरोसा करना चाहिए। 

मेरी टोक-रोक का उन पर कोई असर नहीं हुआ। वे अपनी बातों पर अड़े हुए रहे। बोले - “दूसरी बातें छोड़ो। आपने इन्हें फटफटी (मोटर सायकिल) चलाते देखा? कभी देखो। अन्धे होकर चलाते हैं। किसी की परवाह नहीं करते। ऐसे तेज चलाते हैं जैसे जंगल में चला रहे हों। कोई मरता हो तो मर जाए। इन्हें परवाह नहीं। और इनके हार्न सुने? कान के परदे फट जाएँ। और, कोई सामने हो और बजाए तो ठीक। लेकिन ये तो बिना बात के ही बजाते रहते हैं। जैसे बिना बात के हार्न बजाने के इन्हें पैसे मिल रहे हों।”

यह बात मेरे मन की थी। मैं ने उत्साह से उनकी इस बात का समर्थन किया - “हाँ! आपकी यह बात तो ठीक है।” उन्होंने मुझे फौरन ही पकड़ लिया। मुझे निर्देश देते हुए सवाल किया - “तो फिर आप ही क्यों नहीं कुछ करते हो? आपका तो अफसरों के बीच उठना-बैठना है। उनसे कहो कि इन स्सालों को पकड़े। दो लप्पड़ लगाएँ। कम से कम हजार-पाँच सौ का जुर्माना ठोके। इन्हें होश में लाए। इनके माँ-बाप को लाइन हाजिर करे। उन्हें भी तो पता लगे कि उनके पूत क्या कर रहे हैं?”

मैंने सरकार का बचाव किया। बोला - “सरकार क्या-क्या करे? माँ-बाप यदि अपने बच्चों को समझाएँ तो शायद बात बन जाए।”

सरकार की तरफदारी पर वे भड़क गए। तैश में बोले - “सरकार क्या-क्या करे से क्या मतलब आपका? सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा? और सरकार क्यों नहीं करे? करना पड़ेगा। हम सरकार को टैक्स देते हैं। और माँ-बाप की तो आप बात ही मत करो। आजकल की हालत आप देख रहे हो? काम-धन्धे से ही फुरसत नहीं मिलती। घर चलाएँ, काम-धन्धा करें या बच्चों को समझाएँ?”

उनके गुस्से ने मेरी आवाज धीमी कर दी। धीमी आवाज में ही प्रतिवाद करने की कोशिश की - “लेकिन सबसे पहले खतरा तोे अपने बच्चे की जान पर ही आता है। माँ-बाप की जिम्मेदारी तो बनती है। और किसी बात के लिए नहीं, अपने बच्चे की सलामती के लिए ही सही, माँ-बाप ने टोकना, समझाना तो चाहिए। इतना फर्ज तो बनता है।” मानो मेरी हर बात खारिज पर तुल गए हों, कुछ इस तरह बोले - “माँ-बाप क्या समझाएँ? उन्हें तो एक-दूसरे से ही फुरसत नहीं। एक-दूसरे में मगन रहते हैं। एक-दूसरे से फुरसत मिले तो बच्चों से बात करें।”

हमारा यह सम्वाद और चलता लेकिन रोक लग गई। बी. कॉम. प्रथम वर्ष में पढ़ रहा उनका बेटा दनदनाता हुआ दरवाजे पर रुका। उसे देखकर मेरा ‘दुर्जन’ प्रसन्न हो गया। वह बजाज कम्पनी की पल्सर मोटर सायकिल पर दनदनाता हुआ आया था और उसने किसी फिल्मी नायक की तरह एकदम ब्रेक लगा कर गाड़ी रोकी थी। उसे देखकर उनका गुस्सा तिरोहित हो गया। एकदम प्रेमल हो गए। “आजा! आजा!! अभी तेरी ही बात कर रहे थे। तेरा बीमा करा रहे हैं। जहाँ बैरागीजी कहें वहाँ दस्तखत कर दे और जो कागज माँगें, ला दे।”

‘दुर्जन’ को धकेल कर मेरा बीमा एजेण्ट आगे आया। कागजी खानापूर्ति की। कागज-पत्तर और पहली किश्त की रकम जेब के हवाले की। 

‘बीमा एजेण्ट’ का काम पूरा होते ही मेरा ‘दुर्जन’ हरकत में आ गया। अज्ञानी बन कर बच्चे से पूछा - “ये तो वही बाइक है ना जो बहुत तेज स्पीड से चलती है?” “हाँ अंकल। वही है। पल्सर। जोरदार बाइक है।” उसने गर्व और उत्साह से जवाब दिया। मेरे ‘दुर्जन’ ने फिर अज्ञानी का अभिनय करते हुए दुष्टतापूर्वक (और दुराशयतापूर्वक) पूछा - “तो सिटी में चलाने में तो तकलीफ आती होगी। अपने यहाँ तो लोगों में ट्रेफिक सेंस है ही नहीं?” मेरी बात को जोरदार धक्के से परे हटाते हुए लापरवाही से बोला - “अरे! बिलकुल नहीं अंकल! कोई प्रॉब्लम नहीं आती। सत्तर-अस्सी से कम पर इसे चलाई तो फिर इसे चलाने का मतलब ही नहीं। अपन तो बिन्दास चलाते हैं।” मेरा ‘दुर्जन’ खुश हो गया। चहक कर बोला - “इतनी स्पीड से चलाता है तो गाड़ी के ओरिजनल हार्न से काम चल जाता है?” मेरा सवाल उसे मूर्खतापूर्ण लगा। तनिक अचरज से बोला - “कैसी बात कर दी अंकल आपने? ओरिजनल हार्न की आवाज से कोई हटता है? इसमें तो तेज आवाजवाला ‘लाउड हार्न’ लगाना ही पड़ता है। ऐसा कि दो किलो मीटर आगे जानेवाला भी सुन ले और हट जाए।”

मेरे ‘दुर्जन’ का अभीष्ट पूरा हो चुका था। जैसे कोई ‘परम ज्ञान’ मिल गया हो, इस तरह उपकृत मुद्रा में उसे धन्यवाद दिया और अपना सयानापन जताते हुए सलाह दी - “वाह! यार नीलेश! क्या बात कही! मजा आ गया। फिर भी, अपना ध्यान रखना भई। कहीं, कुछ ऊँचा-नीचा न हो जाए।” मेरी अनदेखी करते हुए, लापरवाही से ‘थैंक्यू अंकल’ कहते हुए वह, जिस तरह दनदनाता घर के दरवाजे पर आया था, उसी तरह, दनदनाते हुए अन्दर चला गया।

मैंने उसके पिता की ओर देखा। उनकी दशा देखकर मेरा ‘दुर्जन’ भी परास्त हो गया।

मेरा काम तो पहले ही चुका था। रही बात उनके बातों के जवाब की? तो यह काम उनका बेटा मुझसे बेहतर ढंग से कर चुका था।  

भ्रष्टाचार से मुक्ति : पहले आप

“माननीय बैरागीजी! यूपीए सरकार के टू जी, थ्री जी, सी डब्ल्यू जी, कोलगेट जैसे घपलों और भ्रष्टाचार पर आपकी क्या राय है? कृपया बताने का कष्ट करें।”

विधान सभा चुनावों के दौरान 2013 में यह सवाल मेरे उन कृपालु ने (फेस बुक पर) पूछा था जो आयु में मुझसे छोटे हैं। एक तो आयु और दूसरे उनकी संस्कारशीलता। इसलिए वे मेरा बहुत लिहाज करते हैं और शायद इसीलिए यह सवाल मुझसे आमने-सामने नहीं पूछ सके होंगे। इसका समानान्तर सच यह है कि मुझे वे मुझसे बेहतर मनुष्य लगते हैं इसलिए मैं उनका लिहाज करता हूँ और इसीलिए मैं भी आमने-सामने उत्तर नहीं दे पाया। फेस बुक पर ही दे पाया। (वैसे भी, जिस मंच पर सवाल पूछा गया हो, जवाब भी उसी मंच पर दिया जाना चाहिए।)

सवालों की सापेक्षिकता मुझे हर बार पेरशान करती है। हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों के व्यवहार की विसंगतियाँ और विराधोभास सदैव ही मुझे आकर्षित करते रहे हैं। अब भी करते ही हैं। कथनी और करनी में अन्तर कौन राजनेता और कौन राजनीतिक दल नहीं करता? किन्तु यह संयोग ही है कि केवल भाजपाई, भाजपा और संघ परिवार ही आदर्शों का बघार सबसे ज्यादा लगाते हैं और खुद के सिवाय बाकी सबको भ्रष्ट, बेईमान और अराष्ट्रवादी साबित करने को उतावली बरतते हैं। सो, उनकी विसंगतियों और विरोधाभासों पर बारीक-बारीक चुटकियाँ लेते रहता हूँ। मेरे इन कृपालु को मेरी ऐसी हरकतें पसन्द नहीं आतीं। इसीलिए उन्होंने मुझे घेरने की यह कोशिश की। 

मुझे अच्छा भी लगा और उनकी मासूमियत पर हँसी भी आई। मैंने सहज भाव से जवाब दिया - “यूपीए सरकार के टू जी, थ्री जी, सी डब्ल्यू जी, कोलगेट जैसे घपलों और भ्रष्टाचार पर मेरी राय बिलकुल वही है जो एनडीए सरकार के कार्यकाल में और भाजपा शासित राज्य सरकारों के कार्यकाल में हुए घोटालों, घपलों और भ्रष्टाचार पर रही है। मेरी इस राय पर आपकी राय क्या है, यह जानने की उतावली मुझे बनी रहेगी। कृपया याद रखकर सूचित अवश्य करें।”

मैं जानता था कि उनकी राय मुझे कभी नहीं मिलेगी। मिल भी नहीं सकती थी। इस सवाल-जवाब (और मेरे अनुत्तरित सवाल) के बाद उनसे दो-तीन बार मुलाकात हुई। उनकी दशा देखकर मैं दुःखी हो गया। वे एक बार भी सहज और सामान्य होकर नहीं मिले। बात करते हुए वे ‘नत दृष्टि’ रहे। ऐसा मैंने कभी नहीं चाहा था।

केवल भ्रष्टाचार-घपलों को लेकर ही नहीं, प्रायः प्रत्येक अनुचित के प्रति हमारा, ऐसा सापेक्षिक दृष्टिकोण और व्यवहार ही हमारे मौजूदा संकटों का एकमात्र कारण लगता है मुझे। भ्रष्टाचार केवल भ्रष्टाचार होता है। अनुचित केवल अनुचित होता है। उसके प्रति सापेक्षिक दृष्टिकोण और व्यवहार बरतना अपने आप में भ्रष्टाचार और अनुचित है - ऐसी मेरी सुनिश्चित धारणा है। ऐसे सवाल पूछकर हम क्या जताना चाहते हैं? या तो यह कि चूँकि मेरे पूर्ववर्तियों/विरोधियों ने भ्रष्टाचार और अनुचित किया है इसलिए मुझे भी भ्रष्टाचार और अनुचित करने दिया जाए या फिर यह कि इसी तर्क पर मेरे भ्रष्टाचार, मेरे अनुचित की अनदेखी की जाए, उसे सहजता से स्वीकार किया जाए और उसकी अनदेखी की जाए। 

यह सापेक्षिक दृष्टिकोण मेरे गले नहीं उतरता। मेरा नियन्त्रण केवल मुझ पर है। सामनेवाले को तो छोड़ दीजिए, मेरी उत्तमार्द्ध और मेरे बच्चों पर भी मेरा नियन्त्रण नहीं है। ऐसे में, जो भी करना है, मुझे ही करना है और मुझ से ही करना है। सामनेवाले के अनुचित को, भ्रष्टाचार को मैं तभी अनुचित और भ्रष्टाचार साबित कर पाऊँगा जब मैं खुद भ्रष्टाचार और अनुचित नहीं करूँ। यदि मैं भी उसके जैसा ही करता हूँ तो उसमें और मुझमें फर्क ही क्या है? उसके भ्रष्टाचार, उसके अनुचित को मैं कैसे गलत कह सकूँगा और कैसे उसका विरोध कर सकूँगा?

यदि हम सचमुच में सदाचारी, स्वच्छ देश और समाज चाहते हैं तो इसकी शुरुआत हमें खुद से ही करनी पड़ेगी। लेकिन हमारे तमाम नेता, तमाम राजनीतिक दल और उनके तमाम अन्ध-समर्थक इसका ठीक उलटा कर रहे हैं। वे दूसरे को सुधारने में दिन-रात लगे हुए हैं। वे या तो जानते नहीं या फिर जानबूझ कर जानना नहीं चाहते कि वे कभी सफल नहीं हो सकेंगे। यदि सामनेवाले को सुधरना होता तो आपके कहने की प्रतीक्षा करता? खुद ही सुधर जाता।

वे (और हम) सब जानते हैं कि सुधार की शुरुआत खुद से ही की जानी चाहिए। लेकिन उसके लिए अत्यधिक आत्म-बल, दृढ़ इच्छा शक्ति आवश्यक होती है। इसमें परिश्रम भी अधिक करना पड़ता है और काफी-कुछ छोड़ना पड़ता है। दूसरे को बिगड़ा हुआ कहना, उसे कटघरे में खड़ा करना, उसकी खिल्ली उड़ाकर उसकी अवमानना करना अधिक आसान और मजेदार होता है। सो, सब (‘सब’ याने हम सब) यही कर रहे हैं।

सुधरना तो सब चाहते हैं किन्तु बड़ी विनम्रता, शालीनता और संस्कारशीलता से कह रहे हैं - “हुजूर! पहले आप।” 

ऐसे मिलती है रेल

यह 1984 से 1989 के काल खण्ड की बात है। दादा (श्री बालकवि बैरागी) लोकसभा सदस्य थे। माधवराजी सिन्धिया केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में रेल्वे राज्य मन्त्री थे। गोरखपुर-बान्द्रा-गोरखपुर के बीच इन दिनों चल रही ‘अवध एक्सप्रेस’ तब कोटा तक ही आती थी। कोटा से रतलाम तक के अंचल के लोग इसे रतलाम तक बढ़ाने की माँग कर रहे थे लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। दादा के संसदीय क्षेत्र मन्दसौर का एक बड़ा हिस्सा इस रेल खण्ड से जुड़ा हुआ था। दादा भी चाहते थे कि अवध एक्सप्रेस रतलाम तक बढ़ जाए और उनके क्षेत्र के हजारों लोगों को गोरखपुर-मुम्बई के लिए रेल सुविधा मिल जाए।

दादा बार-बार पत्र लिखते और हर बार उन्हें रटा-रटाया उत्तर मिल जाता। कभी प्रशासनिक कारणों से, कभी तकनीकी कारणों से, कभी परिचालन के लिए अनुकूल न होना बताते हुए तो कभी आवश्यक व्यवसाय न मिलने की बात कह कर असर्थता जता दी जाती। ऐसे बाठ-दस पत्र दादा के पास इकट्ठे हो गए थे।

एक बार, दिल्ली जाने के लिए दादा को रतलाम से रेल में बैठना था। मैं अपने कुछ मित्रों के साथ स्टेशन पर उनसे मिलने गया। मेरे मित्रों में दो मित्र श्री बाबूलाल वर्मा और श्री ओम प्रकाश शर्मा भी शामिल थे। दोनों ही रेल कर्मचारी थे। रेल मण्डल कार्यालय में पदस्थ थे और रेल कर्मचारियों के संगठन के प्रभावी कार्यकर्ता थे। बातों ही बातों में दादा ने तनिक झुंझलाहट से सारी बात बताई। सुन कर ओमजी ने कहा कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। अवध को रतलाम तक बढ़ाया जा सकता है। दादा चौंके। विस्तार से पूछताछ की। ओमजी ने कहा - ‘हम लोग कुछ कागज तैयार करके विष्णु भैया को दे देंगे और इन्हें सारी बात समझा देंगे। कागज मिलने पर आप इनसे बात कर लेना।’ दादा को विश्वास नहीं हुआ। मुझे भी नहीं हुआ। लेकिन ओमजी का कहा मानने में नुकसान भी कुछ नहीं था।

दादा को विदा करने के बाद, उसके ठीक बादवाले रविवार को वर्माजी और ओमजी ने मुझे बुलाया। वे दोनों रतलाम रेल मण्डल का ‘वर्किंग टाइम टेबल’ लिए बैठे थे। यह टाइम टेबल रेल परिचालन से जुड़े कर्मचारियों (यथा रेल चालक, गार्ड, नियन्त्रक आदि) के लिए होता है जिसमें रेलों की गति, कब-कहाँ किन ट्रेनों का क्रासिंग होगा, यात्रा मार्ग के किस खण्ड में कौन सा परिचालन निर्देश प्रभावी होगा जैसी जानकारियाँ होती हैं। हम तीनों, रेल मण्डल कार्यालय के ठीक सामने स्थित के सर्किट हाउस में बैठे। कोई 6 घण्टों के निरन्तर परिश्रम से इन दोनों मित्रों ने रतलाम से कोटा के बीच, प्रत्येक स्टेशन पर रुकनेवाली यात्री गाड़ी का वर्किंग टाइम टेबल बना कर दे दिया। टाइम टेबल के अनुसार रतलाम-कोटा भाग के लोगों को अवध एक्सप्रेस का कनेक्शन सुनिश्चित था। टाइम टेबल मुझे थमा कर दोनों ने मुझे वह ‘गुरु-ज्ञान‘ दिया जो मुझे दादा को बताना था।

मैंने कागज दादा को भेजे। कागज मिलते ही दादा ने मुझे फोन किया। वर्माजी और ओमजी ने जो कुछ मुझे समझाया था, वह मैंने ज्यों का त्यों दादा को सुना दिया और दोनों की हिदायत भी सुना दी - ‘माधवरावजी चाहे जो कहें, चाहे जो कहें, आपको एक ही बात कहनी है कि अवध एक्सप्रेस को रतलाम तक बढ़ाने की अपनी माँग आप वापस लेते हैं और आपका काम, कोटा में अवध एक्सप्रेस मिलानेवाली एक ‘लिंक ट्रेन’ से चल जाएगा।’

चौथे दिन दादा का फोन आया। वे रोमांचित थे। उन्होंने जो कुछ सुनाया वह अपने हमारे ‘लोकतन्त्र‘ की दारुण-दशा उजागर करता है।

दादा ने जो कुछ कहा वह कुछ इस तरह था -

माधवरावजी से समय लेकर उनसे मिलने गया। कहा कि अवध को रतलाम तक बढ़ाना तो मुमकिन है नहीं। इसलिए मैं अपनी वह माँग वापस लेता हूँ। आप बस! इतना कर दीजिए कि कोटा में अवध का कनेक्शन देने/लेने के लिए रतलाम-कोटा के बीच एक ‘लिंक ट्रेन’ दे दीजिए। आपकी और रेल प्रशासन की सुविधा के लिए मैं सम्भावित ‘वर्किंग टाइम टेबल’ भी तैयार करके लाया हूँ। यह कहते हुए मैंने अपना पत्र और वर्किंग टाइम टेबल माधवरावजी को थमा दिया।

माधवराजी ने कागज पलटे और ठठा कर हँस पड़े। बोले - ‘बैरागीजी! इस बार आप नींव के पत्थरों से बातें करके आये हैं। लग रहा है कि आपकी इमारत बन ही जाएगी।’ कह कर उन्होंने रेल्वे बोर्ड के चेयरमेन से फोन पर बात की। थोड़ी देर में चेयरमेन आ गए। माधवरावजी ने मेरे दिए कागज उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा - ‘अवध एक्सप्रेस को रतलाम बढ़ाने की अपनी माँग बैरागीजी ने छोड़ दी है। कह रहे हैं कि उनका काम तो एक लिंक ट्रेन से ही चल जाएगा। वर्किंग टाइम टेबल साथ लेकर आए हैं। आप देख लीजिए।’ 

चेयरमेन साहब ने कागज लिए। उन्हें पाँच-सात बार पलटा। वर्किंग टाइम टेबल को बार-बार देखा। अच्छे भले वातानुकूलित दफ्तर में भी उनके ललाट पर पसीना छलक आया। वे अपनी असहजता छुपा नहीं पाए। बड़ी मुश्किल से बोले - ‘सर! अपन लिंक ट्रेन कैसे दे सकते हैं? अपने पास एक्स्ट्रा रेक है कहाँ? इसके बजाय तो अवध को रतलाम तक बढ़ा देते हैं। अवध दोपहर में कोटा पहुँचती है और अगले दिन जाती है। रात भर कोटा में ही खड़ी रहती है।’ 

कुछ इस तरह कि मानो अपनी मर्जी के खिलाफ, मजबूरी में कोई समझौता कबूल कर रहे हों, माधवरावजी बोले - ‘इन्हें तो अवध चाहिए ही नहीं थी। ये तो लिंक ट्रेन माँगने आये थे। लेकिन आप इंकार कर रहे थे। कोई बात नहीं। आपकी बात मान लेते हैं। अवध को रतलाम तक बढ़ा देते हैं। नोट शीट भिजवा दीजिए और बैरागीजी को आप खुद ही कह दीजिए कि आप अवध को कोटा से रतलाम तक बढ़ा रहे हैं।’

रेल्वे बोर्ड के चेयरमेन की शकल देखने लायक हो गई थी। वे न तो माधवरावजी से नजरें मिला पा रहे थे और न ही मुझसे। बड़ी मुश्किल से, मुझसे मुखातिब हुए और बोले - ‘सर! आप बेफिक्र रहिए। ऑनरेबल मिनिस्टर साहब के आदेश के मुताबिक हम जल्दी ही अवध को रतलाम तक एक्सटेंण्ड कर देंगे।’ मैंने कहा - ‘अब तो देर होनी ही नहीं चाहिए। वर्किंग टाइम टेबल बना-बनाया आपके हाथों में है और आवश्यक निर्देश मन्त्रीजी ने दे ही दिए हैं। अब देर किस बात की?’ चेयरमेन साहब का गला सूख गया था। खँखार कर बोले - ‘सर! बहुत सारी बाते हैं। बट आई होप, विदइन ए मन्थ अवध रतलाम पहुँच जाएगी।’

मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अवध रतलाम तक बढ़ा दी गई है। स्थितियों में कहीं कोई अन्तर नहीं आया था। जो-जो कारण इंकार करने के आधार बताए गए थे वे सब जस के तस थे। लेकिन एक सेकण्ड में अवध रतलाम तक बढ़ा दी गई।

अब बाकी बातें आप खुद समझ लें। लेकिन कहानी का एक ‘ट्विस्ट’ अभी भी बाकी है।

जिस दिन अवध पहली बार रतलाम आई थी, उस दिन माधवरावजी खुद अवध में आये थे। रतलाम रेल्वे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर 4 पर अच्छा-खासा जलसा हुआ। अपने ओजस्वी भाषण में माधवरावजी ने कहा कि अवध एक्सप्रेस को कभी का रतलाम तक बढ़ा दिया जाता लेकिन अब तक रतलाम में इसका वाशिंग प्लेटफार्म नहीं बना था। अब बन गया है तो अवध को रतलाम तक बढ़ा दिया गया है।

हकीकत यह थी जब माधवरावजी यह कारण बता रहे थे, उस क्षण तक रतलाम में अवध के लिए वाशिंग प्लेटफार्म बना ही नहीं था।

बूझिए कि अवध एक्सप्रेस को कोटा से रतलाम तक किसने बढ़ाया।

यन्त्रणा से मुक्ति

सोलह महीनों से अधिक हो गए मुझे तेजाब की नदी में तैरते-तैरते। अज्ञात अपराध-बोध से आकण्ठ ग्रस्त रहा इस दौरान। अपनी आस्थाओं, अपने मूल्यों, अपने विश्वास से विश्वास ही उठ गया था मेरा। ‘भलमनसाहत’, ‘नेकी’ जैसे जुमले मेरा मुँह चिड़ाते लगते रहे मुझे इस दौरान। दशा यह हो गई थी कि अपने आदर्शों, अपने  आशावाद पर मुझे शर्म आने लगी थी। खुद से ही नजरेें मिला पाना मुमकिन नहीं रह गया था। ये सोलह महीने मैं कैसे जी लिया? ताज्जुब है मुझे। लगा था कि अब शेष जीवन मुझे इसी तरह रहना है। निश्चय ही ईश्वर की कृपा मुझ पर बनी रही जो मैंने बुद्धि की बात नहीं सुनी। विवेक नियन्त्रित किए रहा और मैं आत्महत्या करने के, ईश्वर के प्रति अपराध से  बच गया। 

कोई एक सप्ताह पहले जब हकीकत मालूम हुई तो खुद से नजरें मिला पाया। सब कुछ पल भर में तिरोहित हो गया। मैं हलका हो गया। कुछ ऐसा और इतना मानो अन्तरिक्ष में भारहीनता की दशा में तैर रहा हूँ।

सन् 2007 की दूसरी छःमाही में उनसे सम्पर्क हुआ था। पहली ही मुलाकात में उन्होंने, सीधे-सीधे नहीं, भरपूर घुमाव देकर दो बातें जता दी थीं। पहली - वे मुझसे सम्पर्क बनाना, बढ़ाना और बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी - उनकी आर्थिक हैसियत बहुत अच्छी नहीं है। पहली बात मैं नहीं जानता था। दूसरी जानता था-उनके जताने से पहले ही। आर्थिक हैसियत मेरे लिए कभी कोई समस्या या विषय नहीं रही। मैंने सातवीं कक्षा तक, दरवाजे-दरवाजे जाकर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगा है। 1991 में एक बार फिर भिक्षा वृत्ति की कगार पर आ खड़ा हुआ था। मित्रों ने सम्हाल लिया। सो, आर्थिक हैसियत मेरे लिए कभी मुद्दा रही ही नहीं। इसलिए उनसे सम्पर्क बनाने, बढ़ाने और बनाए रखने में मुझे कहीं कोई असुविधा नहीं हुई।

कोई छः महीनों बाद ही, मार्च 2008 में उनकी बेटी का ब्याह तय हो गया। उनकी बातों से लगा कि वे मुझसे कुछ अधिक और अतिरिक्त की अपेक्षा रखते हैं। ईश्वर ने हमें बेटी नहीं दी। इसी भावना के अधीन मैंने अपनी सीमाओं से बाहर जाकर उनकी सहायता की। खुद से और खुद के सार्वजनिक सम्मान से अधिक चिन्ता उनकी और उनके सार्वजनिक सम्मान की की। चूँकि यह सब मैंने स्वेच्छा से ही किया था, सो यह खुद के सिवाय किसी और पर उपकार नहीं था। मेरे इस अति उत्साह से मेरे परिजन और मित्र विस्मित थे। वे मुझे बार-बार और निरन्तर रोकते-टोकते रहे। लेकिन मैं नहीं रुका। अपने मन की करता रहा। करके ही रहा। अपने परिजनों और मित्रों की नाराजी झेलकर यह सब किया मैंने। कुछ लोग तो अब तक नाराज हैं मुझसे।

सब कुछ राजी-खुशी, सानन्द, सोल्लास, निर्विघ्न निपट गया। बेटी, बाप के घर से अपने घर चली गई। मैं बहुत ही खुश था। मुझे किसी अच्छे काम में भागीदार होने का सौभाग्य दिया था ईश्वर ने।

सब कुछ ठीक-ठीक ही चल रहा था। पानी ठहरा हुआ था। सब कुछ धीर-गम्भीर, शान्त, आनन्ददायी।

किन्तु वक्त एक जैसा नहीं रहता। मार्च 2013 में एक दिन अचानक उन्होंने मुझे, मेरे ही घर में, मेरी उत्तमार्द्ध के सामने मुझे जी भर कर कोसा, उलाहने दिए, डाँटा-फटकारा। कोई बीस-पचीस मिनिट तक मेरी लू उतराई का समापन यह कह कर किया कि इन पाँच बरसों में उन्होंने हम लोगों को ‘अच्छी तरह से देख लिया’ और अब वे हमसे ‘भर पाए।’ 
मेरे लिए कुछ भी समझ पाना मुमकिन नहीं हो रहा था। मानों, बस! उन्हें कहना था। कह गए। 

वह दिन और कोई सप्ताह भर पहले तक का दिन। मैं, मैं नहीं रह गया। मुझे कोई कारण नजर नहीं आ रहा था कि वे मुझे यह सब सुना जाएँ। किसी भी स्त्री के लिए अपनी उपस्थिति में अपने पति की अवमानना देखना-सुनना सहज-सम्भव नहीं होता। सो, मेरी उत्तमार्द्ध मुझसे अधिक हतप्रभ, दुःखी, खिन्न, अप्रसन्न, आक्रोशित।

इन सोलह महीनों में मैं सचमुच में मानो जिन्दा लाश बन कर रह गया। अपने आप से नफरत हो गई। अज्ञात अपराध बोध चौबीसों घण्टों मन पर छाया रहा। परिजनों-मित्रों की नाराजी मोल लेकर की गई उनकी सहायता पर पछतावा होने लगा। तय कर लिया कि अब किसी की सहायता नहीं करनी। भाड़ में गई भल मनसाहत। भाड़ में गई नेकी। किसी का भला करने का जमाना नहीं रहा। पूरी दुनिया और अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा। घर से बाहर तभी निकलना जब मजबूरी हो। न किसी से मिलने को मन हो न किसी उत्सव समारोह में जाने का। 

लिखना-पढ़ना लगभग ठप्प ही हो गया। (अन्तिम ब्लॉग पोस्ट 03 मई 2013 को लिखी थी।) किसी से बात करने की इच्छा न हो। कोई मिलने आए तो उससे मिलने को जी न करे। एलआईसी दफ्तर जाना मजबूरी। लेकिन जाने का मन न करे। जाऊँ तो सबसे इस तरह नजरें चुराऊँ मानो मैंने सबका कोई बहुत बड़ा नुकसान कर दिया हो। 

मैं अपनी जगह दुःखी और मेरी चिन्ता करनेवाले मुझसे अधिक दुःखी। जब मुझे ही कुछ समझ नहीं पड़ रहा हो तो  मैं औरों को क्या बताऊँ, क्या समझाऊँ? मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी सबसे ज्यादा कुपित। मेरा लिखा हुआ पढ़ने को बेचैन रहनेवाला धर्मेन्द्र रावल लगभग रोज ही फोन करे - ‘कब तक निहाल हुए बैठे रहोगे। लिखना शुरु किया? नहीं किया? कब करोग? जल्दी करो।’ एलआईसी में मेरी चिन्ता करनेवाले राकेश कुमारजी समझा-समझा कर थक गए। जाने-अनजाने अनगिनत कृपालु लगातार पूछताछ करते रहे। अब भी कर रहे हैं। 

लेकिन जिस तरह मार्च 2013 में वक्त नहीं ठहरा। उसी तरह अभी-अभी कोई सप्ताह भर पहले ही वक्त फिर चंचल हो गया। 

‘उनके’ एक परिजन अकस्मात आए। उन्हें मालूम पड़ा तो दुःखी हो गए। उन्होंने बताया कि मेरी लू उतारनेवाले कृपालु अपनी आर्थिक दशा को लेकर सदैव हीनता-बोध से ग्रस्त रहते हैं। आर्थिक सन्दर्भों में उन्हें, जो भी उनसे तनिक बेहतर मिलता है, वे मान लेते हैं कि सामनेवाला उनका हक मारकर उनसे बेहतर बन गया है। आर्थिक सन्दर्भों में वे सदैव अतिरिक्त चौकन्ने और उग्र रहते हैं। इसी कारण उनकी उत्तमार्द्ध अपने माता-पिता की सम्पत्ति में से कुछ प्राप्त करने के लिए अपने भाइयों के साथ मुकदमेबाजी भी कर चुकी है। उनके इन परिजन ने जो बताया उससे लगा कि मैं बाकी सबसे अधिक अभागा रहा। 

उनकी बेटी के विवाह में मेरी भूमिका की, उनके परिजनों ने बड़ी प्रशंसा की। जब भी, कभी भी, किसी के भी सामने उनकी बेटी के विवाह की चर्चा हुई, तब-तब हर बार मेरी मुक्त-कण्ठ प्रशंसा हुई। उनके इन परिजन ने बताया - ‘आपकी प्रशंसा से वे उकता गए, अघा गए और अपनी आदत के मुताबिक इस सबको अपनी बेइज्जती मान बैठे और आपको निपटा गए।’ लेकिन ये परिजन यहीं नहीं रुके। उन्होंने अगली बात जो बताई वह मेरे लिए सर्वथा अकल्पनीय थी। इन परिजन ने बताया कि जैसा मेरे साथ किया गया उतना तो नहीें किन्तु कुछ-कुछ वैसा ही वे अन्य लोगों के साथ भी कर चुके हैं। जैसे ही उन्हें लगता कि जिन्होंने उनकी मदद की है उनके यहाँ कोई ऐसा प्रसंग आनेवाला है जिसमें उन्हें व्यवहार निभाना पड़ेगा। तो वे (इस व्यवहार निभाने में आनेवाले आर्थिक वजन से बचने के लिए) सामनेवाले से ‘तुम हमारे लिए मर गए और हम तुम्हारे लिए’ की सीमा तक झगड़ा कर लेते हैं। फिर, जैसे ही सामनेवाले के यहाँ प्रसंग पूरा हुआ नहीं कि महीने-बीस दिनों के बाद जाकर माफी माँग लेते हैं।

इन परिजन ने बताया - ‘उनकी बेटी के विवाह में आपने जो कुछ किया उसे वे कैसे भूल सकते हैं? लेकिन जैसा और जितना आपने किया, वह सब, वैसा का वैसा कर पाना उनके लिए, कम से कम आज तो सम्भव नहीं। उन्हें पता है कि आपके छोटे बेटे का विवाह कभी भी हो सकता है। तब वे क्या करेंगे? यही सोच कर उन्होंने आपको निपटा दिया होगा और आपसे भर पाए होंगे। आप देखना, आपके छोटे बेटे के विवाह के महीना-बीस दिन बाद वे आकर आपसे माफी माँग लेंगे।’ 

पता नहीं, इन परिजन ने कितना सच कहा। लेकिन ऐसी कुछ बातें मैं पहले भी सुन चुका था। उनका साला खुद आकर, उसके साथ हुए ऐसे ही दो-एक किस्से मुझे सुना गया था। इन परिजन की इन बातों ने मानो मुझे मेरी जिन्दगी लौटा दी। मुझे पहली बार अपने निर्दोष होने की प्रतीति हुई। मैं हलका हो गया। बहुत हलका। अन्तरिक्ष में भारहीनता की स्थिति में तैरता हुआ। अब मैं खुद से नजरें मिला पा रहा हूँ। मुझे भोजन में स्वाद आने लगा है। मुझे लग रहा है मानो मैं अभी, पाँच-सात दिन पहले ही पैदा हुआ हूँ।

इन परिजन से बात होने के अगले ही क्षण से मैं जड़ से चेतन हो गया था। उसी दिन से लिखना शुरु कर सकता था। किन्तु जानबूझकर रुक गया।

आज गुरु पूर्णिमा है। अपने ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी को आज के दिन मैं अपनी इस शुरुआत से प्रणाम कर रहा हूँ। वे निश्चय ही प्रसन्न होंगे और मुझे क्षमा कर, मेरा यह प्रणाम स्वीकार करेंगे। राकेश कुमारजी को भी मैं प्रणाम करता हूँ। वे मेरी चिन्ता मुझसे अधिक करते हैं। उन्हें भी अच्छा लगेगा। वे मुझ पर कुपित तो नहीं किन्तु मुझसे खिन्न अवश्य हैं। यह शुरुआत उनकी इस खिन्नता को कम करेगी, यह आशा करता हूँ।

और रहा धर्मेन्द्र! तो तय है कि यह पोस्ट पढ़ते ही उसका फोन आएगा। कहेगा -‘बहुत हो लिए निहाल। अब लिखते रहना।’