इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं कीथी।
‘आइए! रोगी के लिए निर्धारित कुर्सी पर विराजिए।’ कह कर डॉक्टर सोनगरा खुद ही चौंक गए। कुछ आह्लादित, कुछ विस्मित हो, कुछ इस तरह कि मानो खुद से ही सवाल पूछ रहे हों, बोले - ‘अरे! मैं ऐसी हिन्दी बोल सकता हूँ? मुझे याद है यह सब?’
वे (डॉक्टर सोनगरा नहीं, मेरे ‘वे’) आयु में तो मुझसे छोटे हैं किन्तु ज्ञान और बौद्धिकता में हिमालय। हिन्दी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान्। सो, वे मेरे प्रिय भी हैं और आदरणीय भी। उनके घर पर बैठ, उनकी मेजबानी का सुख-आनन्द ले रहा था। एक सज्जन पधारे। वे मेरे इन प्रिय-आदरणीय को सवैतनिक सेवा का प्रस्ताव लेकर आये थे। शर्त थी - सारा काम अंग्रेजी में करना पड़ेगा। मेरे इन प्रिय-आदरणीय का, हिन्दी में आधिकारिक हस्तक्षेप जताने की ललक में कह बैठा - ‘तब तो ये शायद ही आपके लिए उपयोगी हों। हाँ! हिन्दी में इनके मुकाबले का अपने कस्बे में कोई नहीं।’ मैं उनके घर बैठा था, प्रस्ताव उनसे किया गया था। मेरे बोलने का न तो प्रसंग था न ही औचित्य। उनके प्रति मोहग्रस्त हो, उन्हें हिन्दी का निष्णात विद्वान् साबित करने के मोहवश मैं आपराधिक मूर्खता कर बैठा हूँ, तब इसका अनुमान भी नहीं हुआ। मेरा इतना कहने के बाद किसी के लिए कुछ कहना शेष नहीं रह गया था। प्रस्ताव, चर्चा होने से पहले ही निरर्थक हो चुका था।
मैं घर लौटा तो उत्तमार्द्ध ने बताया कि उनका फोन आया था। कहा था कि आते ही उनसे बात करूँ। मैंने वही किया। वे अप्रसन्न, खिन्न, क्षुब्ध और कुपित थे। उन्हें इस बात से अपनी हेठी लगी कि मैंने अंग्रेजी पर उनके अधिकार को संदिग्ध बना दिया था। उनके कोप का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मैं कुछ कहता और क्षमा-याचना करता, इससे पहले ही उन्होंने फोन बन्द कर दिया। मुझे मर्मान्तक पीड़ा हुई - यह मैंने क्या कर दिया? जो मेरे आत्मीय हैं, उन्हीं को पीड़ा पहुँचा दी? उन्हीं की अवमानना कर दी? वह भी, उनके ही घर में, उनकी श्रीमतीजी की उपस्थिति में? मैं रात भर सो नहीं पाया। उनसे बात करने का साहस तो मुझमें रहा ही नहीं।
उसके बाद कैसे, क्या हुआ, यह अपने आप में स्वतन्त्र आख्यान है। किन्तु दो महीने से अधिक का समय हो गया, मैं उनसे बात करने का साहस अब तक नहीं जुटा पाया हूँ। उन्होंने बड़प्पन बरता, स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश की किन्तु मैं इस क्षण तक सहज नहीं हो पाया हूँ। अब तक अपराध-बोध से ग्रस्त ही हूँ।
किन्तु महत्वपूर्ण बात यह कि अंग्रेजी पर समुचित अधिकार न होने की बात वे एकाधिक बार मुझसे कह चुके थे। अंग्रेजी की अनिवार्यता की शर्तवाला ऐसा ही एक प्रस्ताव पहले उनके पास आया था तो उन्होंने सामनेवाले से साफ कहा था कि वे अंग्रेजी में न तो धाराप्रवाह बोल सकते हैं न ही लिख सकते हैं। हिन्दी में उनकी प्रतिष्ठा को दृष्टिगत रखते हुए उनकी यह बात मान ली गई थी। यह संयोग या दुर्योग रहा कि वह प्रस्ताव परवान नहीं चढ़ पाया।
यह प्रसंग मुझे याद आया तो मैं उलझन में पड़ गया - ‘जो बात वे खुद कहते रहे हैं, वही बात मैंने कही तो उन्हें बुरा क्यों लगा?’
मैंने खूब सोचा। उनकी नाराजी को कोई कारण मुझे नजर नहीं आ रहा था। बार-बार एक ही बात पर आकर मेरा मन ठहरता रहा - “हो न हो, उन्हें इस बात का बुरा लगा कि दूसरे के सामने उन्हें ‘अंग्रेजी में अज्ञानी’ साबित कर दिया गया।” और कोई कारण मुझे न तब अनुभव हुआ और न ही अब अनुभव हो रहा है।
यह बात मेरे मन से निकल ही नहीं पाई। हमें हिन्दी का ज्ञान न हो, यह तो हमारे लिए शर्म की बात हो सकती है। किन्तु हमें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं है, यह बात हमारे लिए लज्जाजनक कैसे हो सकती है? वह भी उस आदमी के लिए जो हिन्दी और संस्कृत पर अपनी आधिकारितकता के लिए पूरे कस्बे में ही नहीं, समूचे मालवांचल में जाना-पहचाना, सराहा जाता हो, सम्मानित किया जाता हो?
दो-ढाई महीनों से यह बात मुझे साल रही थी। सोचा, अंग्रेजी न जानने को लेकर जब आचंलिक स्तर पर हिन्दी का एक महारथी, सारस्वत-पुरुष अचेतन में इस तरह हीनता-बोध से ग्रस्त हो सकता है तो बेचारे एक औसत पढ़े-लिखे आदमी की मनोदशा क्या होगी? मेरी खुद की अंग्रेजी ऐसी नहीं कि मैं खुद को अंग्रेजी का जानकार कह सकूँ। किन्तु ‘अंग्रेजी अज्ञान’ को लेकर ऐसा हीनता-बोध मुझमें क्षणांश को भी नहीं उपजा।
सो मैंने, पाँच दिन पहले, जेब पर लगाई जा सकनेवाली, प्लास्टिक की एक पट्टी बनवाई - ‘मुझे अंग्रेजी नहीं आती।’ दुकानदार ने कहा कि सामेवार को पट्टी मिल जाएगी। सोमवार की शाम को मुझे अपने डॉक्टर के पास जाना था। वहाँ जाने से पहले, दुकानदार से यह पट्टी बनाकर ली। अपनी कमीज पर लगाई और डॉक्टर की सेवा में उपस्थित हो गया। मेरी कमीज पर लगी पट्टी का असर डॉक्टर पर क्या हुआ, यह मैं शुरु में ही बता चुका हूँ।
दो दिनों से मैं यह पट्टी लगाए हुए पूरे कस्बे में आ-जा रहा हूँ। लोग हैरत से देख रहे हैं। छुटपुट पूछताछ हो रही है। लेकिन बात मुकाम पर पहुँचती लग रही है। अलग-अलग स्थानों पर दो युवकों और एक दुकानदार ने कहा कि मेरी इस ‘हरकत’ से उन्हें ताकत मिली है। हिन्दी के एक व्याख्याता ने मानो स्वीकारोक्ति की - ‘हम सब जानते हैं कि हम अंग्रेजी नहीं जानते लेकिन यह जताने पर तुले हुए है कि हम अंग्रेजी जानते हैं।लेकिन ऐसा जताने की कोई जरूरत नहीं है, यह बात आपकी कमीज पर लगी यह पट्टी देख कर समझ में आई।’
नहीं जानता कि आनेवाले दिनों में क्या होगा। लेकिन आज तो मैं, पूरे कस्बे में ‘देखने की चीज’ बना हुआ हूँ।
मुझे तसल्ली तो हो ही रही है, मजा भी आ रहा है।
इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी।