रतलाम के भुट्टा बाजार में बहुत सम्हल कर चलना पड़ता है। वहाँ दो तरफा बचाव करना पड़ता है - खुद किसी से न टकराएँ और कोई दूसरा आपसे न टकराए। लेकिन लाख सावधानी बरतने के बाद भी टक्कर हो जाए तो भी घबराने की बात नहीं। सामनेवाला मुस्कुराते हुए ‘कोई बात नहीं सेठ! चलता है।’ कहते हुए आपको और खुद को झंझट-मुक्त कर देता/लेता है।
मैं इसी भुट्टा बाजार से निकल रहा था। बहुत डरते-डरते, फूँक-फूँक कर, लगभग ‘मुर्दाना धीमेपन’ (डेड स्लो) से स्कूटर चलाते हुए। ऐसे सँकरे बाजार से निकलते समय मैं ताँगे का घोड़ा हो जाता हूँ - दोनों आँखों को अदृष्य कनटोपों से ढकते हुए। केवल सामने देखना, इधर-उधर बिलकुल नहीं देखना। ज्ञान पुस्तक भण्डार, मेरे अन्नदाता अशोक भाई की दुकान है। उन्हें नमस्कार करने के लिए नजर घुमाई तो ‘वह’ भी नजर आ गई। अशोक भाई की दुकान से दस-बीस कदम पहलेे, सड़क किनारे बैठी ‘वह’ माथा झुकाए अपना काम किए जा रही थी। अपना काम याने कंघियाँ बनाना। उसे यह काम करते देख कर मेरे हाथों ने यन्त्रवत स्कूटर का ब्रेक दबा दिया। अब मैं उसके सामने खड़ा था। वह लकड़ी की कंघियाँ बना रही थी। लेकिन उसके उत्पाद को ‘कंघियाँ’ कहना आभिजात्य व्यवहार हो जाएगा और उसकी मेहनत अपनी सार्थकता और पहचान ही खो देगी। उसके देसीपन की हत्या हो जाएगी।
वह वस्तुतः ‘काँगसियाँ’ बना रही थी। ऐसी कंघियों को मालवा में ‘काँगसी’ ही कहा जाता है। ये काँगसियाँ’ भैंसों के सींगों और लकड़ी से बनती हैं। प्रत्येक काँगसी अलग-अलग बनाई जाती है। साँचे में नहीं ढलती। कोई भी दो काँगसियाँ कभी भी एक जैसी नहीं होती। इस लिहाज से प्रत्येक काँगसी ‘नायाब’ होती है। इनका आकार और बनावट ऐसी होती है कि मुट्ठी में आसानी से पकड़ी जा सकें। इनके दोनों हिस्सों में, बाल सँवारने के लिए ‘दाँते’ बनाए जाते हैं - एक ओर बारीक, सघन दाँते, दूसरी ओर मोटे, तनिक छितरे हुए दाँते। पकड़वाला, बीच का हिस्सा सीधा रहता है जबकि दोनों छोरों के चारों सिरे, बाहर की ओर तिरछे निकलते हुए। बाहर निकले हुए ये सिरे, मुट्ठी की पकड़ को आसान भी बनाते हैं और फिसल कर छूट जाने की आशंकाएँ भी न्यूनतम हो जाती हैं।
उसका काम मुझे, एक झटके में मनासा की पुरबिया गली में खींच ले गया।
मनासा। मेरा पैतृक गाँव। पुरबिया गली में तीन-चार परिवार यही काम करते थे - ‘काँगसियाँ’ बनाने का। वे परिवार भैंसों के सींगों की काँगसियाँ बनाते थे। भैंसों के सींगों को खड़े दो भागों में चीरते। फिर गरम करके उनकी गोलाई दूर कर, उन्हें सीधा-सपाट करते, और इस तरह काटते कि एक सींग में अधिकाधिक काँगसियाँ बन सकें। रास्ते से काफी उँचाई पर बने अपने मकानों के ढालिये में ये परिवार दिन-भर इसी में काम में लगे रहते थे। परिवारों का एक भी सदस्य, आदमी हो या औरत खाली हाथ या फुरसत में नजर नहीं आता था। कोई सींग चीर रहा है, कोई छोटी सी भट्टी गरम कर रहा है, कोई सींगों को गरम करने के लिए थप्पी जमा रहा है, कोई सींग तपा रहा तो दूसरा उसके पास, तपाये हुए सींग को दबा कर सीधा करने के लिए लकड़ी का भारी गट्टा लिए खड़ा है। एक, सीधे किए सींग के टुकड़े बना रहा है तो दूसरा उन्हें छोटी टोकनी में जमा रहा है। तीसरा उस टुकड़े की एक ओर मोटे दाँते बना रहा है तो दूसरा, टुकड़े की दूसरी ओर बारीक दाँते बना रहा है। मोटे दाँतों के लिए लम्बी, बड़े आरों वाली करवत (आरी), बारीक दाँतों के लिए बारीक आरों वाली, छोटी सी करवत। दाँते बारीक बनाने हों या मोटे, सम्पूर्ण तन्मयता माँगता था - पहला दाँता बनाया, उसे बाँये हाथ के अंगूठे से दबाया और उससे सटता हुआ दूसरा दाँता बनाया। ऐसा करते समय बाँये हाथ के अंगूठे को करवत की चपेट में आने से बचाने के लिए उस अंगूठे पर चमड़े का खोल चढ़ा लिया जाता था।
दोनों भागों के दाँते बनाने के बाद बारीक और मोटे दाँतों को विभाजित करनेवाले मध्य भाग पर, यथा सम्भव, कभी सीधी तो कभी सर्पिल लकीरों की सजावट की जाती। तैयार काँगसियों को बिक्री के लिए आकर्षक बनाने के लिए इन पर ‘तेल का हाथ’ फेरा जाता जिससे काँगसियाँ चमकदार हो जाती थीं। इन काँगसियों को टोकरी में, करीने से गोलाई में सजाकर, धूल से बचाने के लिए कपड़े से ढक कर रखा जाता था। टोकरियों में सजी ऐसी काँगसियों को, गाँव-गाँव, गली-गली फेरी लगाकर बेचती महिलाएँ मैंने देखी हैं। लेकिन नहीं जानता कि वे महिलाएँ इन्हीं परिवारों की होती थीं या दूसरी महिलाएँ इनसे खरीद कर ले जाती थीं। लेकिन गाँवों में इन ‘सेल्स वीमेन’ की प्रतीक्षा की जाती थी। दाँतों की लम्बाई, सघनता और तीखेपन से काँगसियों की गुणवत्ता आँकी जाती थी और दाम तय होता था।
उस समय, गाँव की महिलाएँ न तो नित्य स्नान कर पाती थीं न ही रोज बाल सँवार पाती थीं। स्नान करना और बाल सँवारना भी छोटे-मोटे त्यौहार हो जाता था। काँगसी के बड़े दाँतों से बाल सँवारे जाते और छोटे दाँतों का उपयोग मुख्यतः जुँएँ-लीखें निकालने में किया जाता। इन कामों में जो काँगसी पास हो जाती, उसकी ‘सेल्स वुमन’ को अगली बार अधिक ग्राहकी मिलती।
लेकिन अन्य अनेक हस्त शिल्प कला आधारित कुटीर उद्योगों की तरह यह कुटीर उद्योग भी खत्म हो गया। मेरे मनासा की अब पुरबिया गली में अब ये काँगसियाँ नहीं बनतीं।
एक पल में पूरा एक जमाना मेरी आँखों से गुजर गया। अशोक भाई को नमस्कार करना भूल, मै ‘उसके’ ऐन सामने खड़ा हो गया। हाथ का काम रोक कर उसने झटके से सर उठाया। मेरी ओर देखा और भँवें उचका कर, आँखों से बोली - ‘क्या चाहिए?’ मैंने जवाब दिया - ‘कुछ नहीं चाहिए। तुमसे बात करनी है।’ उसे अच्छा नहीं लगा। उसे ग्राहकी की दरकार थी लेकिन मैं उसका ‘टेम’ खराब करने आ पहुँचा था। करवत (आरी) चलाता हाथ रुक गया। बोली - ‘क्या बात करनी है?’
इसके जवाब में हमारी बात कुछ इस तरह से हुई -
‘कितनी उमर है?’
‘पचहत्तर बरस।’
‘इतनी उमर में काम क्यों करना पड़ रहा है?’
‘हाथ-पाँव चलते रहने से हारी-बीमारी दूर रहती है।’
‘बेटा-बहू देख-भाल नहीं करते?’
‘तो कौन करता है? तुम?’
मैं अचकचा गया। पत्थरमार बोलने में ये तो मुझसे भी सवाई है! अगला सवाल पूछने की हिम्मत हवा हो गई। फिर भी पूछा - ‘कच्चा माल कहाँ से लाती हो?’
‘तुम भी यह धन्धा शुरु कर दो। मालूम हो जाएगा।’
(याने वह अपना ‘ट्र्रे्डड सीक्रेट’ नहीं बताना चाहती। कहीं डर तो नहीं गई कि मैं सचमुच में उसकी ‘कम्पीटीशन’ में न आ जाऊँ? लेकिन अपनी टुच्ची सोच पर खुद ही झेंप आ गई।)
‘नाम क्या है?’
‘धापू।’
सुनकर मेरा रोम-रोम बह निकला। मेरी माँ का नाम भी धापू है। यह अभी 75 की है और मेरी माँ का देहावसान 72 वर्ष की आयु में हुआ। मैं असंयत हो गया। आँखें बहने लगीं। गला रुँध गया। मेरी दशा देख हैरत से बोली - ‘क्या हुआ?’ जवाब देने में मुझे थोड़ी देर लगी - ‘कुछ नहीं। मेरी माँ का नाम भी धापू है।’ सुन कर वह खुश हो गई। पता नहीं क्यों। केवल जवाब देने के लिए बोली - ‘अच्छा है।’
मैं उससे ‘इस जमाने में भी वह क्यों काँगसियाँ बना रही है?’ ‘दिन भर मेें कितनी बना लेती है?’ ’कितनी बिक जाती हैं?’ जैसी सरसरी बातें जानना चाहता था। लेकिन उसका नाम मालूम होते ही मेरी सारी जिज्ञासाएँ पवन-परियाँ हो गईं। मेरे पास बात करने के लिए कुछ भी नहीं रह गया। लेकिन मेरे पाँव सड़क में गड़े हुए थे। हिलने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। मैं कुछ देर और उसे देखते रहना, उससे बातें करना चाहने लगा था। बात करने के लिए मेरे पास कोई विषय नहीं था। लेकिन निश्चय ही ईश्वर मेरी मदद कर रहा था। मेरे मुँह से निकला -
‘कितने में दी एक काँगसी?’
उसने अविश्वास से मुझे देखा। बोली -
‘तुमने तो कहा था कि तुम्हें तो बस बात करनी थी!’
‘हाँ। करनी तो बात ही थी। पर बात करते-करते सोचा एक काँगसी ले ही लूँ।’
वह खुश हो गई। बगल में रखी टोकरी की ओर इशारा कर बोली -
‘छाँट लो।’
‘तुम ही दे दो। अपनी पसन्द से। जो तुम्हें अच्छी लगे।’
‘देखो! मुझे समझ में आ गया है कि तुम जबरदस्ती काँगसी खरीद रहे हो। कौन वापरेगा?’
‘तुम्हारी लाड़ी।’
(मालवा में बहू को लाड़ी कहते हैं। मुझे नहीं पता कि यह जवाब मेरे मुँह से कैसे निकला।)
मेरा जवाब सुन कर उसकी आँखों में चमक आ गई। झुर्रियों का खिंचाव मानो तनिक कम हो गया। उसके चूड़े का लाल रंग गहरा गया। आवाज का कड़कपन उड़न-छू हो गया। तनिक लाड़ से बोली -
‘लाड़ी! किसकी लाड़ी? तुम्हारे छोरे की लाड़ी या तुम्हारी लुगाई?’
‘घर में धणी-लुगाई हम दो ही हैं। दोनों छोरे बाहर नौकरी कर रहे हैं। इसलिए मेरी लुगाई याने तुम्हारी लाड़ी इसे वापरेगी।’
इस बार वह खुद को नियन्त्रण में नहीं रख पाई। पानीदार नारीयल की तरह फूट गई और मानो उससे आचमन कर लिया हो। मीठे स्वर में बोली -
‘मेरी लाड़ी? नहीं बाबूजी! अपनी लाड़ी ही अपनी लाड़ी होती है। बाकी सब तो मुँह देखी बातें हैं। लेकिन आज तुम्हारी बातों ने जी ठण्डा कर दिया। सबको पच्चीस रुपयों में देती हूँ। तुमसे बीस ले लूँगी। लेकिन बीस से कम बिलकुल नहीं लूँगी। भाव-ताव मत करना। जमे तो लो। नहीं जमे तो मत लो।’
मेरे जमने, न जमने का तो कोई सवाल ही नहीं था। उसे बीस रुपये दिए। उसने टोकरी की काँगसियाँ टटोलीं। छाँट कर एक मुझे थमा दी। उससे बात करने का बहाना तलाशते हुए मैंने कहा -
‘ढंग-ढांग की तो दी है ना? घर में डाँट तो नहीं खानी पड़ेगी?’
इस बार तनिक अधिक खुल कर हँसती हुई बोली -
‘तुम्हारी लाड़ी होगी तो डाँट देगी। मेरी लाड़ी होगी तो नहीं डाँटेगी।’
आधे-अधूरे किन्तु मुदित मन मैंने अपना स्कूटर बढ़ाया। अशोक भाई की दुकान के आगे रुका। उनसे नमस्कार किया। जवाब में सवाल आया - ‘आपने काँगसी खरीदी? भाव-ताव तो नहीं किया।?’ मैंने बताया कि मुँह-माँगी रकम चुकाई। तसल्ली की साँस लेते हुए अशोक भाई ने कहा - ‘भगवान ने आपको अक्कल दे दी जो आपने भाव-ताव नहीं किया। करते तो आपका मुँह लबूर (नोंच) देती। हमारे बाजार की बड़ी कड़क काकी है।’ फिर पूछा - ‘लेकिन जब आपने भाव-ताव नहीं किया तो इतनी देर तक क्या बातें करते रहे?’
इस बार फिर मेरे मुँह से बिना सोचे-विचारे जवाब निकला - ‘जब माँ से बात हो और बात अपने गाँव की गली में खड़े होकर हो तो इतनी देर, देर नहीं होती अशोक भाई!’ अशोक भाई के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। मैं उन्हें उलझन में छोड़ कर चला आया।
आते समय आँखों के सामने धापू की शकल नाच रही थी और मन में जिज्ञासा - देश के कितने गाँवों-कस्बों में, कितनी काँगसियाँ, अपनी सार्थकता हासिल करने के लिए माथों की बाट जोह रही होंगी?
(यह पोस्ट निश्चय ही बहुत बड़ी लगेगी। लेकिन मुझे तनिक भी बड़ी नहीं लग रही।
काँगसियाँ बनने से पहले लकड़ी के टुकड़े
टोकरी में बिक्री के लिए तैयार काँगसियाँ