मर्मान्तक पीड़ा झेलते हुए यह पोस्ट लिख रहा हूँ। यह मेरे धन्धे की विशेषता भी है और विवशता भी कि मुझे जीवन के इन्द्रधनुष के सारे रंगों का आनन्द तो मिलता ही है, उस काले रंग की पीड़ा भी मिलती है जो उसमें है ही नहीं।
अपने परिचय में मैंने ‘पैसे’ का जो बखान किया है, वह इस घटना ने साकार कर दिया है। एक अच्छे-भले परिवार के चार सदस्यों को अकेला कर दिया। यह पैसा ही तो है - आदमी को अकेला करने में माहिर और खुद अकेला रहने को अभिशप्त।
इस परिवार में दो भाई हैं। अब ‘हैं’ को ‘थे’ कहना पड़ सकता है। दोनों भाइयों को एक-एक लड़का। बड़े भाई के बेटे का विवाह हो गया है और वह एक बेटे का बाप है। दोनों भाई और यह बेटा मिल कर पैतृक व्यवसाय देख रहे हैं। परिवार पर लक्ष्मीजी टूटमान हैं। दोनों हाथों से समेटे नहीं समेटी जा रही। छोटे भाई का बेटा अविवाहित है किन्तु टेक्स्टाइल इंजीनीयरिंग में विशेषज्ञता हासिल कर, लाखों में खेल रहा है। दोनों भाइयों का अपना-अपना दो मंजिला मकान। मकान नहीं, उन्हें ‘प्रासाद’ कहना चाहिए। जितने रहनेवाले, उनसे अधिक साफ-सफाई करनेवाले।
पहली ही नजर में स्पष्ट है कि दोनों भाइयों के पास जो कुछ है वह उनके बेटों का ही है। किसी को, कहीं किसी सन्देह की आशंका ही नहीं। सब रामजी राजी हैं।
किन्तु या तो किसी की नजर लग गई इस परिवार को या फिर आवश्यकता से अधिक पैसे ने अपनी ‘जात’ बता दी। बिना किसी बात के, बैठे-बिठाए ‘मेरा क्या’ जैसा अकल्पनीय प्रश्न उठ गया। एक के मन में उठा तो शेष तीनों के मन में भी उठ गया। केवल प्रश्न ही नहीं उठा, मिथ्या अहम् ने भी असर दिखा दिया। हर कोई कहने लगा कि सारी मेहनत तो वही करता है। बाकी तीन तो केवल ऐश करते हैं।
बिगड़ी बात को पटरी पर लाने में पसीना आ जाता है किन्तु बात को बिगड़ते देर नहीं लगती। यहाँ भी यही हुआ। बात बिगड़ी तो बिगड़ती ही चली गई और ऐसी चली कि घर से निकल कर सड़कों पर होती हुई बाजारों में तैरने लगी। जिसने भी सुना, परेशान हुआ। इस परिवार ने सदैव ही सबकी सहायता ही की। पूरे कस्बे में इनके प्रति भरपूर सद्भावनाएँ। किन्तु अहम् की टेकरियों ने सद्भावनाओं के हिमालय को छोटा कर दिया। बात को सुधारने की कोशिश जिसने भी की, अपनी फजीहत करा कर लौटा। लोगों को ताज्जुब और दुःख इस बात का कि बात न बात का नाम और जूतों में खीर बँट गई। बँटी सो बँटी, पुरखों के नाम की दुहाइयाँ भी बेअसर हो गईं। हालत यह कि चारों में से प्रत्येक समझौते को तो तैयार किन्तु प्रत्येक की शर्त यही कि बाकी तीनों उसकी शर्तों पर सहमत हों। अच्छे-अच्छे समझौता विशेषज्ञों के घुटने टिकवा दिए चारों ने।
और दीपावली से पहले ही चारों अलग हो गए। पहले दो चौके चलते थे। अब चार चल रहे हैं। चौके तो तीन ही चल पा रहे हैं क्योंकि छोटे भाई का अविवाहित बेटा तो होटलों में ही भोजन कर रहा है। खराब बात में अच्छी बात यह है कि धन्धे पर कोई असर नहीं होने दिया। पेढ़ी पर सब मिलते हैं और काम-काज पूर्वानुसार ही देख रहे हैं लेकिन एक दूसरे की ओर देखने से बचते/कतराते हैं। ढंग से बात नहीं करते। हँसने की कोई बात आ जाती है तो इनसे हँसते नहीं बनता। अपने-अपने जिम्मे का काम तो बराबर करते हैं किन्तु लगता है, मशीनें काम कर रही हैं। सयानों, परिपक्वों, अनुभवियों को आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे। अहम् के मारे लोग कितने दिन साथ-साथ बैठ पाएँगे?
चारों को कितना घाटा हुआ, नहीं जानता किन्तु चारों ही मुझसे भी कतरा रहे हैं। खुलकर बात नहीं करते। प्रत्येक चाहता है कि मैं उसे ही सही मानूँ और बाकी तीनों को दोषी मानूँ भी और ऐसा ही सबको बताऊँ भी। मुझसे नहीं होता यह। हो ही नहीं सकता। हो भी कैसे? मैंने नम्रतापूर्वक किन्तु दृढ़तापूर्वक सबको, अलग-अलग कह दिया कि मैं उनका चाहा नहीं कर पाऊँगा। वे चाहेंगे तो मैं उनसे मिलना बन्द कर दूँगा।
इनकी पेढ़ी की दीपावली पूजा, इनके कर्मचारियों की दीपावली कराती थी। इस बार सब कुछ खानापूर्ति जैसा हुआ। पेढ़ी के अलावा, घर पर जो पूजा होती थी, वह इस बार चारों ने अलग-अलग की। मुझे लगता है, जब चारों साथ थे तब सबके सब ‘श्रीयुत’ थे। आज चारों के पास पैसा तो है किन्तु लग रहा है कि लक्ष्मी किनारा कर गई है।
मुझे हफीज जलन्धरी के कुछ शेर याद आ रहे हैं -
दौलत जहाँ की मुझको तू, मेरे खुदा न दे
पूरी हो सब जरूरतें, इसके सिवा न दे
औकात भूल जाऊँ अपनी जहाँ पहुँच
हरगिज मुझे वो मरतबा, मेरे खुदा न दे
धड़के तमाम उम्र मेरा दिल तेरे लिए
वर्ना तू धड़कनों को कोई सिलसिला न दे
यह सब लिखते हुए मेरे आँसू बहे जा रहे हैं। मैं ईश्वर से याचना कर रहा हूँ - इनके अपराध क्षमा कर। इस परिवार पर अपनी कृपा, करुणा की बरसात कर। इनके अहम् के हिमालय को पिघला। इनके पुरखों की मंगल कामनाओं को साकार कर। ये तेरे ही बच्चे हैं। ये परायों में अपने तलाश रहे हैं। इन्हें सद्बुद्धि दे। और यदि यह सब न कर सके तो इतनी कृपा तो कर कि ऐसा और किसी के साथ मत कर।
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