‘सुब्बा राव’ नहीं, ‘सुब्ब राव’ थे वे

सारी दुनिया के ‘सुब्बा रावजी’, मेरे ‘भाई साहब’ और देश की जवान पीढ़ी के ‘भाईजी’, ‘सुब्ब रावजी’ नहीं रहे। कल रात फेस बुक पर उनकी एक तस्वीर देखी थी - जयपुर के किसी अस्पताल के पलंग पर लेटे हुए, नाक में नलियाँ लगी हुईं। चरम नियमित-अनुशासित-संयमित, सदैव मैदान में सक्रिय रहनेवाले सुब्ब रावजी के बीमार हो, बिस्तर पर पड़ जाने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती थी! लेकिन वे रोगी दशा में बिस्तर पर थे। सदैव ‘तन कर’ चलनेवाले, ‘चुस्त-दुरुस्त’ शब्द-युग्म के मानवाकार सुब्ब रावजी को इस दशा में देख पहली ही बात जो मन में उठी, वह थी - ‘भाई साहब अब नहीं लौटेंगे।’ रात का सोचा, सुबह हकीकत में बदल गया। दिन की शुरुआत ही सुब्ब रावजी के निधन के समाचार से हुई।   

मैं उन्हें ‘सुब्ब राव’ लिखता था। सब मुझे टोकते और ‘सुब्ब’ को सुधार कर ‘सुब्बा’ करने की कहते। जवाब में मैं कहता - “आप ‘सुब्बा’ को ‘सुब्ब’ कर लो क्योंकि वे ‘सुब्ब राव’ हैं, ‘सुब्बा राव’ नहीं।” यह बात खुद भाई साहब ने ही मुझे बताई थी। नाम तो उनका सलेम नंजुदैया राव था। लेकिन परिवार की सबसे छोटी सन्तान होने के कारण ‘सुब्ब राव’ हो गए। कर्नाटक में परिवार की सबसी छोटी सन्तान को लाड़ में ‘सुब्ब’ या ‘सुब्बु’ ही कहते हैं। (यहाँ दिए गए पत्रों में उनके हस्ताक्षर ध्यान से देखिए - उन्होंने ‘सुब्बराव’ ही लिखा है।) 

भाई साहब से मेरा परिचय दादा श्री बालकवि बैरागी के कारण ही हुआ था। वे दादा से दो बरस बड़े थे। अ. भा. काँग्रेस सेवादल के सहायक संगठक थे। दादा, ‘सेवादल’ के निष्ठावान, आज्ञाकरी स्वयम्सेवक और भाई साहब के ‘परम् भक्त’ थे। सुब्ब रावजी ने सेवादल के लिए दादा से अनेक गीत लिखवाए जिनमें ‘हम सिपाही सेवादल के, दम लेंगे हम देश बदल के’, ‘हम भारत माँ के पूत, अमन के दूत’, ‘हम भारत के मतवाले हैं, हम अमर तिरंगेवाले हैं’, ‘नौजवानों आओ रे, लो, कदम मिलाओ रे’, ‘हम हैं सिपहिया सेवादल के’ गीत प्रमुख हैं। (ये सारे गीत, दादा के गीत संग्रह ‘गौरव गीत’ में संग्रहीत हैं।) अक्टूबर 1961 में मुम्बई में सेवादल की अखिल भारतीय रैली हुई थी। उसके लिए सुब्ब रावजी ने दादा से विशेष गीत लिखवाया था जिसे दादा ने ‘विविध भारती’ शीर्षक दिया था। तत्कालीन प्रधान मन्त्री जवाहरलालजी ने इस रैली का निरीक्षण किया था। इस दौरान दादा को वह गीत गाना था। देश भर से आये स्वयं सेवकों की टुकड़ियाँ, गीत में उल्लेखित क्रम से प्रदेशवार खड़ी थीं। प्रदेशों से आये स्वयं सेवकों की संख्या असमान थी - किसी प्रदेश से ज्यादा तो किसी प्रदेश से कम। इसलिए, प्रत्येक टुकड़ी के सामने से, नेहरूजी की जीप के गुजरने का समय असमान था। दादा को जिम्मेदारी दी गई थी कि टुकड़ी के सामने से नेहरूजी के गुजरते समय में उस प्रदेश के उल्लेखवाला छन्द पूरा हो जाए। गीत के सारे छन्द समान पंक्तियों के हैं। दादा ने अपने कौशल से यह समय साधा था। समान पंक्तियो को, अधिक संख्यावाली टुकड़ी के लिए अधिक समय तक गा कर और कम संख्यावाली टुकड़ी के लिए कम समय में पूरा गाकर नेहरूजी का निरीक्षण पूरा करवाया था। दादा के इस कौशल की प्रशंसा नेहरूजी ने तो, मंच पर दादा की पीठ थपथपा कर की ही थी लेकिन सुब्ब रावजी ने दादा के इस कौशल की प्रशंसा अनगिनत अवसरों पर, अनगिनत बार की। वे दादा को ‘मिरेकलस पर्सन’ (चमत्कारी आदमी) कहते थे - ‘बैरागीजी से कहो कि इस थीम पर गीत चाहिए तो वे अगली साँस पर गीत थमा देते हैं।’ 

सुब्ब रावजी और दादा में एक बात समान थी। दोनों ही ‘पत्राचार व्यसनी’ थे। अपने ठिकाने पर हों या प्रवास में, इनका पत्र-लेखन निरन्तर रहता था। पोर्टेबल टाइपरायटर, सुब्ब रावजी के गिनती सामान का स्थायी हिस्सा बरसों तक बना रहा। अपनी यात्राओं के रास्ते के शहरों/कस्बों के अपने मिलनेवालों को पूर्व सूचना देते थे। सुब्ब रावजी जब-जब भी रतलाम होते हुए निकले, तब-तब हर बार उन्होंने खबर की। वे बोतल-बन्द, खरीदा हुआ पानी नहीं पीते थे। गरम करके ठण्डा किया हुआ पानी ही पीते थे। मुझ जैसे तमाम लोग उनकी यह सेवा करने की राह तकते थे। 


कुछ बरस पहले (‘कुछ’ नहीं, शायद ‘कई’ बरस पहले) उनका एक ‘युवा शिविर’ रतलाम में हुआ था। फरवरी का महीना था। सात फरवरी सुब्ब रावजी की जन्म तारीख है। भावना हुई कि उन्हें कुछ भेंट किया जाए। किन्तु ऐसे सन्त व्यक्ति को क्या भेंट दी जाए? मेरी टयूब लाइट जली और मैं उनके लिए एक हजार पोस्ट कार्ड (उनका नाम-पता छपवा कर) ले गया। उस शाम, रतलाम के शहीद चौक पर उनकी प्रार्थना-सभा थी। प्रार्थनाओं के बाद लोगों ने अपनी-अपनी भंेट देनी शुरु की। मेरा नम्बर आया। मैंने पेकेट थमाया। हजार पोस्ट कार्डों का वजन! उन्हें पेकेट भारी लगा। पूछा - ‘इतना भारी क्या है?’ मैंने कहा - ‘खुद ही देख लीजिए। आपकी तबीयत खुश हो जाएगी।’ उन्होंने पेकेट खोला तो छपे-छपाए पोस्ट कार्ड देखकर सचमुच में बच्चों की तरह खुश हो गए। पेकेट हवा में उठाकर, सभा के श्रोताओं को दिखाते हुए बोले - ‘मेरे काम की गिफ्ट तो विष्णु ही लाया है।’ अब खुश होने की बारी मेरी थी।

उनकी खुशी ने मुझे आनन्द-रस से लबालब कर दिया था। कुछ बरस पहले की बात है।  मालूम हुआ कि उज्जैन के पास किसी गाँव में उनका शिविर लगनेवाला है। मैंने अपने आत्मन् विनोद भैया (डॉक्टर विनोद वैरागी) का उपयोग कर एक हजार पोस्ट कार्ड और पाँच सौ अन्तरदेशीय पत्र पहुँचाए। डाक सामग्री मिली तो खुश हुए। मुझे फोन लगाया और बोले - ‘तुम मेरा इतना ध्यान रखते हो! अब तो जब भी पोस्टेज की जरूरत होगी, तुम्हें खबर कर दूँगा।’ मैंने हाँ भरने में न तो देर की न ही कंजूसी। खूब जानता था कि वे  ऐसा कभी करेंगे ही नहीं।

दादा के निधन पर पहले उनका फोन आया और बाद में पत्र। जो कुछ कहा था, वही लिख भेजा था -

प्रिय विष्णु भाई,

क्षति मात्र आपकी या एक परिवार की नहीं। क्षति हम सबकी। क्षति भारत माता की है। इस दुख में मैं आप सबके साथ हूँ। 

जैसे सब व्यवस्थित रहा हो। सुबह बहुत दिनों बाद बालकविजी की मीठी आवाज सुना फोन पर। वे बोले भीलवाड़ा शिविर में नहीं आया पर उज्जैन शिविर में जरूर आऊँगा। उज्जैन (सेवाधाम) शिविर है। मई 23 से 30 तक। मैं कल सुबह उज्जैन पहुँच रहा हूँ।

क्या कवि था! क्या ओजस और क्या प्रतिभा! सुबह बात हुई, रात को दुखद खबर आ गई। 

उनके लिए तो अच्छी मौत। न कोई तकलीफ पाए न ही किसी को तकलीफ दी। पुण्य पुरुष की मौत। धन्य है।

घर पर सबको प्यार।

प्यारा भाई,

सुब्बराव


17 जुलाई 2018 को वे रतलाम आए थे। लॉ कॉलेज के सभागार में कोई आयोजन था। जानकारी मिली तो मैं मिलने पहुँचा। यादव सा‘ब (श्री माँगीलालजी यादव) का साथ चलना पहले से ही तय था। आयोजन के दिए समय से कुछ पहले हम दोनों पहुँचे। वहाँ लगभग सन्नाटा था। मैंने यादव सा’ब से कहा - ‘भगवान करे, सुब्ब रावजी समय पर नहीं पहुँचें। यहाँ तो कुछ भी नहीं है। वे समय के बहुत ही पाबन्द हैं। कहीं ऐसा न हो कि वे समय पर आ जाएँ और उल्टे पाँवों लौट जाएँ। कमोबेश ऐसा ही हुआ। वे समय पर आ गए। वही हुआ। प्रतीक्षा कर पाना उनके लिए दूभर हो रहा था। हम कुछ लोगों ने बड़ी ही मुश्किल से उन्हें रोके रखा। मुझे देखकर खुश हुए थे। बोले थे - ‘जानता था, तुम आओगे ही। तुम्हारे घर आना है। पता नहीं कब छुट्टी मिलेगी। लेकिन आऊँगा जरूर।’

अपने कहे मुताबिक वे आए। रात के दस बज चुके थे। बहुत ही थके हुए थे। आँखें झपक रही थीं। बोल पाना मुश्किल हो रहा था। फिर भी देर तक दादा की बातें करते रहे। इस दौरान मैं अपने मोबाइल से उनकी मुद्राएँ कैद करता रहा।  खूब सारे किस्से सुनाए। जो बात फोन पर कह चुके थे और पत्र में लिख चुके थे, मुँदी आँखों वही बात दोहराते रहे - ‘नुकसान तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी हुआ है। हम सबका हुआ है। भारत माता का हुआ है।’ 

मैंने खूब मनुहार की लेकिन पानी के सिवाय कुछ नहीं लिया। जाने लगे तो मैंने एक लिफाफा उन्हें थमाया। कहा - ‘यह एन व्हाय पी (राष्ट्रीय युवा परियोजना) के लिए है। सुनते ही उनकी मुँद रही आँखों में चमक आ गई। बोले - ‘इसके लिए जितना भी दो, जितना भी करो, कम है। सरकार ने अपनी सूची से इसे निकाल दिया है। मेरा रेल-पास भी निरस्त कर दिया है। लेकिन कमी कुछ भी महसूस नहीं हुई। सब काम बराबर चल रहा है। लोग खूब मदद कर रहे हैं। यही देश की ताकत है।’ 

अब ‘सुब्ब रावजी’, ‘भाई साहब’, ‘भाईजी’ हमारे बीच नहीं हैं। उनसे बहुत ज्यादा मुलाकातें भी नहीं हुईं। लेकिन उनका मुस्कुराता चेहरा नजरों में बना हुआ है। गाँधी के बाद सम्भवतः वे इकलौते ऐसे भारतीय थे जिन्होंने गाँधी को जीया। 

मेरा मन कहता है, गाँधी आज होते तो सुब्ब रावजी की सूरत में ही होते।

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‘मंगते से मिनिस्टर’ की अन्तर्कथा

यह मेरी, 22 अक्टूबर 2019 को, फेस बुक पर प्रकाशित हुई पोस्ट है। आज श्री राजशेखरजी व्यास ने इसे, दो बरस पहले की याद के रूप में साझा किया। उसका नोटिफिकेशन आया तो यह पोस्ट फिर से देखी तो लगा कि दादा की अप्रकाशित आत्म-कथा ‘मंगते से मिनिस्टर’ को लेकर और हमारे परिवार की भिक्षा-वृत्ति को लेकर इसमें कुछ ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियाँ हैं जिन्हें ‘नेट’ पर सुरक्षित किया जाना चाहिए। मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी कहते हैं कि ब्लॉग के जरिए ‘नेट’ पर दी गई सामग्री ‘ब्रह्म’ की तरह अजर-अमर-अनश्वर हो जाती है। इसी धारणा के आधार पर यह पोस्ट यहाँ दे रहा हूँ ताकि सन्दर्भ की आवश्यकता होने पर आसानी से हासिल की जा सके।

दादा श्री बालकवि बैरागी के चाहनेवाले, प्रशंसक सचमुच में अनगिनत हैं। देश-विदेश में फैले इन आत्मीयों के पास दादा से जुड़े किस्से भी अनगिनत हैं। सबके अपने-अपने संस्मरण हैं जिनके जरिये वे समय-समय पर दादा के प्रति अपनी भावनाएँ व्यक्त करते रहते हैं। इन संस्मरणों, यादों के माध्यम से दादा के व्यक्तित्व और कृतित्व के जाने-अनजाने पक्ष सामने आते रहते हैं।

इसी क्रम में दादा की आत्मकथा को लेकर विभिन्न जानकारियाँ सामने आ रही हैं। इनमें से अधिकांश जानकारियाँ या तो आधी-अधूरी हैं या सुनी-सुनाई।

कुछ ऐसी ही स्थिति मुझे श्रीयुत जयप्रकाशजी मानस Jayprakash Manasकी, 17 अक्टूबर 2019 की, ‘अपने दिनों को मैं कभी नहीं भूला’ शीर्षक पोस्ट में और पोस्ट पर आई श्री राजशेखरजी व्यास Rajshekhar Vyasकी टिप्पणी में नजर आई। मानसजी की पोस्ट की लिंक टिप्पणी में दे रहा हूँ।

मानसजी की पोस्ट में दिए ब्यौरों से ध्वनित होता है मानो मेरी माँ (मेरी माँ का नाम पोस्ट में दापू बाई लिखा है जो वास्तव में धापू बाई है) ने दादा को किसी प्रसंग या अवसर पर कटोरा भेंट किया जो दादा के लिए ‘बड़ी चीज’ और उनके जीवन का ‘पहला खिलौना’ था।

बातें तो सच हैं लेकिन ‘कहन’ के अन्तर ने समूचा चित्र बदल दिया।

दादा ने विपन्नता के चरम को जीया। अपनी विपन्नता का उल्लेख वे कुछ इस तरह करते थे - ‘मेरी माँ ने मुझे सबसे पहला जो खिलौना दिया, वह था - भीख माँगने का कटोरा जो हमारे परिवार की आजीविका का साधन था।’ मुझे लगता है, मानसजी के पोस्ट के उद्धरण में और दादा की इस बात में यथेष्ट अर्थान्तर है।

इसी तरह इस उद्धरण में कहा गया है - ‘पिताजी द्वारकादासजी अपंग थे। माँ उन्हें लाठी के सहारे भीख माँगने निकलती थी। पिताजी सारंगी बहुत बढ़िया बजाते थे। वो बजाते, मैं और माँ गाते और घर-घर भीख माँगते।’ इस अंश में वर्णित सारे तथ्य सही हैं किन्तु उनकी प्रस्तुति सर्वथा काल्पनिक है। यह विवरण पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने चित्र बनने लगता है जिसमें एक अपंग आदमी, अपनी पत्नी का सहारा लिए, सारंगी बजा रहा है और उसकी पत्नी और बेटा गा-गा कर संगत करते हुए भीख माँग रहे हैं। ऐसा लगता है, किसी ने, विवरण को प्रभावी बनाने की सदाशयता से तथ्यों को अपनी कल्पना से एक सिलसिला दे दिया।

मेरे पिताजी सारंगी सचमुच में बहुत बढ़िया बजाते थे। मेरी माँ घर-घर जाकर रोटियाँ माँगती थी। कभी-कभी दादा भी उनके साथ जाते थे। लेकिन ये सारी बातें अलग-अलग समय पर, अलग-अलग घटती थीं। मनासा के कुछ कृपालु श्रेष्ठि परिवार अपनी धार्मिकता के अधीन मेरी माँ को रोटियाँ देते थे। ये घर गिनती के थे। माँ इन्हीं घरों पर जाकर रोटी माँगती थी। ये परिवार भी मेरी माँ की प्रतीक्षा करते थे और यथासम्भव गरम-गरम रोटी देने की कोशिश करते थे। पिताजी का सारंगी बजाना और मेरी माँ का भीख माँगना सर्वथा भिन्न-भिन्न सन्दर्भों की, भिन्न-भिन्न बातें हैं। पिताजी ने सारंगी वादन कस्बे के संगीत जलसों में और मन्दिरों में किया। मौज में आकर, घर के बाहर चबूतरे पर बैठकर प्रायः ही सारंगी बजाया करते थे। सड़कों पर कभी भी सारंगी वादन नहीं किया। भीख माँगने के निमित्त तो कभी नहीं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि भीख माँगने के लिए ये तीनों कभी एक साथ निकले हों।

नवीं कक्षा की पढ़ाई के लिए दादा, रामपुरा में भर्ती हुए थे। मनासा-रामपुरा की दूरी, जैसाकि मानसजी की पोस्ट में बताया गया है, 20 मील, याने कि 32 किलो मीटर है। दादा के पास बस किराए के पैसे कभी नहीं रहे। वे प्रति सोमवार सुबह रामपुरा के लिए पैदल निकलते और प्रति शनिवार रामपुरा से मनासा के लिए पैदल लौटते। इस पदयात्रा के दौरान भीख माँगने की बात सही नहीं है।

दादा 1967 में विधायक और 1969 में राज्य मन्त्री बने। उससे काफी पहले, दादा ने माँ का रोटियाँ माँगना छुड़वा दिया था। इसके लिए दादा को घर और बाहर, दोनों स्तर पर संघर्ष करना पड़ा। माँ रोटी माँगना छोड़ना चाहती थी लेकिन पिताजी इसे हमारे परिवार का धर्म मानते थे। दादा को सचमुच में धरना देना पड़ा था। लेकिन जिन घरों से माँ रोटियाँ माँग कर लाती थी, उन श्रेष्ठि परिवारों ने भी दादा पर दबाव बनाया। कहा कि दादा उन्हें धर्मपालन करने और पुण्य लाभ अर्जित करने से वंचित कर रहे हैं। तब दादा ने जो जवाब दिया था, उसका कोई उत्तर उन परिवारों के पास नहीं था। दादा ने कहा था कि यदि वे सचमुच में धर्मपालन कर पुण्य अर्जित करना चाहते हैं तो वे सब हमारे घर आकर रोटियाँ दे जाएँ।

इसके बाद से माँ का रोटी माँगना बन्द हो गया। मुझे खूब अच्छी तरह याद है, उस दिन मेरी माँ बिलख-बिलख कर रोई थी। बड़ी देर तक रोती रही थी। उसके आँसू थम नहीं रहे थे और हिचकियाँ बन्द नहीं हो रही थीं। उस दिन मेरी माँ ने दादा को एक-एक पल में हजारों-हजारों बार असीसा था। बार-बार कह रही थी - ‘नन्दा! तूने मेरा जनम सुधार दिया।’ इस समय जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तब मेरी आँखे बह रही हैं। टाइप करने में मुझे बहुत ज्याद असुविधा और तकलीफ हो रही है।

मानसजी द्वारा उद्धृत आलेख की यह सूचना भी सही नहीं हैं कि दादा के सांसद बनने के बाद भी मेरी माँ पड़ोसियों के यहाँ अनाज बीनती थी। दादा ने माँ को सारे कामों से मुक्ति दिला दी थी। घर के दैनन्दिन कामों के सिवाय माँ को कोई काम नहीं रह गया था। वस्तुतः विधायक बनने के कुछ बरस पहले से ही दादा ने (कवि सम्मेलनों की आय से) आय-कर चुकाना शुरु कर दिया।

यह बात बिलकुल सच है कि दादा अपने कपड़े नहीं खरीदते थे। मंच हो या निजी चर्चाएँ, दादा इस बात का उल्लेख करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। दादा की इस मनःस्थिति की जानकारी सार्वजनिक हो चुकी थी जिसके चलते उनके चाहनेवाले, दादा के माँगे बिना ही उन्हें खादी खरीद कर देने लगे थे। लेकिन जब भी उन्हें कपड़ों की आवश्यकता होती वे निस्संकोच माँग लेते थे। लोग पूछते थे - ‘आप ऐसा क्यों करते हैं?’ दादा ठहाका लगा कर जवाब देते - ‘इससे मेरा दिमाग दुरुस्त रहता है।’

राजशेखरजी की यह जानकारी सही नहीं है कि दादा ने अपनी आत्म-कथा नहीं लिखी। सच तो यह है कि राजशेखरजी की इस टिप्पणी ने मुझे विस्मित किया। राजशेखरजी का जिक्र दादा के मुँह मैंने अनेक बार सुना है। जिस आत्मीयता और प्रेम भाव से वे राजशेखरजी का जिक्र करते थे उससे मेरी यह धारणा इस क्षण भी बनी हुई है कि राजशेखरजी दादा के ‘प्रियात्मन’ रहे हैं।

दादा ने अपनी आत्म-कथा लिखी थी। उसका शीर्षक ‘मंगते से मिनिस्टर’ भी उन्होंने ही दिया था। मैं उनकी आत्म-कथा लेखन का साक्षी रहा हूँ। दादा ने अपनी यह आत्म-कथा बिना किसी कागजी तैयारी के लिखी थी। वे टाइप रायटर पर कागज चढ़ाते और शुरु हो जाते। वे इस तरह टाइप करते मानो सब कुछ उन्हें मुँह जबानी याद हो। इसके लिए उन्होंने कभी ‘रफ वर्क’ नहीं किया, टिप्पणियाँ याकि नोट्स नहीं लिखे। टाइप करने के बाद उसे जाँचते और आवश्यक होने पर हाथ से सुधार करते। लेकिन ऐसे सुधार भी नाम मात्र के ही होते।

यह आत्म-कथा उन्होंने राइस पेपर पर, चार प्रतियों में टाइप की थी। पंचशील प्रिण्टिंग प्रेस के मालिक बापू दादा जैन ने उसकी नीले रंग की क्लाथ बाइण्डिंग कराई थी। ठीक-पृष्ठ संख्या तो मुझे अब याद नहीं किन्तु अच्छी-खासी, मोटी पाण्डुलिपि थी। मैं अनुमान करता हूँ कि ढाई सौ पृष्ठ तो रहे ही होंगे।

उनकी प्रबल इच्छा तो थी कि उनकी आत्म-कथा प्रकाशित हो। किन्तु प्रकाशकों के चक्कर काटना उनकी प्रकृति में नहीं था। उनके मित्रों ने ही इसके लिए कोशिशें की। कम से कम तीन प्रकाशकों से उनकी बात हुई। इन तीनों मुलाकातों का मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ। यह संयोग ही था कि तीनों को ‘मंगते से मिनस्टिर’ के वे अंश असुविधाजनक लगे थे जिनमें दादा ने डी. पी. मिश्रा सरकार गिराने के लिए श्रीमती विजयालक्ष्मी सिन्धिया की भूमिका का ब्यौरा बहुत बारीकी से और बहुत विस्तार से दिया था। प्रकाशकों का कहना था कि ये ब्यौरे मानहानि के दायरे में आ सकते हैं और यदि श्रीमती सिन्धिया ने मुकदमा लगा दिया तो उनकी (प्रकाशकों की) मुश्किल हो जाएगी। वे इस ब्यौरे को निकलवाना चाहते थे। लेकिन दादा ने हर बार इंकार कर दिया और कहा कि किताब यदि छपेगी तो इसी मूल स्वरूप में छपेगी। फलस्वरूप किताब छपी ही नहीं। यह शायद ऐसी बिरली किताब होगी जो छपी तो नहीं लेकिन जिसका जिक्र व्यापक स्तर पर इस तरह हुआ मानो छप गई हो और लोगों ने पढ़ ली हो। बहुत बाद में दादा ने इसी शीर्षक से एक लेख जरूर लिखा था लेकिन मानसजी की पोस्ट में उद्धृत आलेख, दादा के उस लेख का हिस्सा नहीं है।

राजशेखरजी की यह बात सौ टका सही है कि दादा ने इसका दूसरा भाग लिखने से पहले ही इसका नामकरण ‘मन्त्री से मनुष्य’ कर दिया था। यह किताब लिखी ही नहीं गई।

प्रेमी लोग दादा को जिस श्रद्धा और आदर-भाव से याद करते हैं वह देख-देख कर मैं हर बार विगलित होता हूँ और इन सबको प्रणाम करने के लिए मेरे हाथ अपने-आप जुड़ जाते हैं, माथा झुक जाता है। यह सब देख-देख कर मुझे प्रायः ही लगता है हम लोग तो केवल कहने भर को दादा के परिजन हैं। वास्तविक परिजन तो वे ही हैं जो निस्वार्थ भाव से, आदर-श्रद्धा से दादा को अपने अन्तर्मन से याद करते हैं। हमसे पहले वे सब ही दादा के परिजन हैं और उन्हीं का दादा पर पहला हक है। हम परिजनों से पहले।
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Neerja Bairagi, Lalit Bhati और 165 अन्य लोग
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हर बरस तम से लड़ाई



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की सैंतीसवीं/अन्तिम कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


हर बरस तम से लड़ाई

हर बरस तम से लड़ाई
हर बरस यह दीप-माला
हर बरस हर पल अँधेरा
हर बरस इक पल उजाला।

किन्तु फिर भी ये बधाई
किन्तु फिर भी ये बताशे
लग रहे हैं रस्म केवल
लग रहे हैं बस तमाशे।

क्या कहें इस आत्म-सुख को!
धन्य है यह नष्ट पीढ़ी
कह रहा अन्याय जिसको
‘अधमरी, अति भ्रष्ट पीढ़ी।’
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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भाई देवदार!



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की छत्तीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


भाई देवदार 

शेखी मत बधार
भाई देवदार!
दिखाई दे रहा है कि
तू आसमान तक ऊँचा उठ गया है
और अपने आसपास वाली दूब को
गाली-गलौज पर जुट गया है।

पर
कभी थाह ली तूने अपनी जड़ों की?
शायद नही-
तेरी ऊँचाई को उठाये खड़ी हैं
तेरी जड़ें।
याने कि पाताल-फोड़ नीचाई!
हर ऊँचाई की
होती है एक नीचाई
देवदार मेरे भाई!
दूब की ऊँचाई ने अगर
आसमान नहीं छुआ
तो तुझे घमण्ड किस बात का हुआ?
उसकी नीचाई भी
पाताल-फोड़ नहीं है
आकाश है तेरा
और उस नन्हीं दूब का पिता
धरती है दोनों की माँ।
बाप को तमाचा मारने के लिए
माँ की
वह भी धरती-जैसी माँ की
छाती चीर देना
शायद तुझ-जैसे ‘ऊँचे’ लोगों का ही है काम -
तो मेरे भाई!
ऐसी बुलन्द ऊँचाई को
दूब का दूर से ही राम-राम।

भाई देवदार!
शेखी मत बघार
तू भाग्य से हो गया यदि ऊँचा और पूज्य
तो याद रख
दूब ही से सजती है पूजा की थाली
अपनी नीचाई को याद रख
और मत दिया कर
पूजा की सामग्री को गाली।
कहीं खराद पर चढ़ रहे हैं
तेरे लिये भी आरे और कुल्हाड़े
तुझे लादने को जुट रहे हैं
कहीं खाली गाड़े।

साल-छः माह में
दूब फिर उग आयेगी।
पर भाई देवदार!
तेरी नीचाई
तेरी ऊँचाई को
हमेशा हमेशा के लिये
खा जायेगी ।

इसीलिये कह रहा हूँ
भाई देवदार!
शेखी मत बघार।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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चौराहे सूने हो सकते हैं



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की पैंतीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


चौराहे सूने हो सकते हैं

वे
पहले उदास हुए, फिर निराश
और अब करीब-करीब हताश।
उन्होंने खुद
पत्थरों से कुचल लिए हैं अपने ही वे हाथ
जो तने थे कभी
तुम्हारी हिमायत में।
जिस पर बनाया था
व्यवस्था ने एक अस्थायी तिल
उस अंगुली को काट फेंका है
लोगों ने खुद-ब-खुद।

जिन गलीचों पर तुम
मन्त्रणाएँ कर रहे हो
वे शीशे के बने हैं,
तुम्हारा नंगापन
निखार देते हैं वे नामुराद शीशे।
खून न थमा है, न जमा है
वह अनवरत प्रवाहित है
दूर कर लो अपना भ्रम।
चौराहे सूने हो सकते हैं
पर निर्जन नहीं हैं।

देहरी से दालान की दूरी
दम भर की होती है।
उत्तेजना और प्रकाश की गति में
ज्यादा फर्क नहीं होता।
भीड़ जब भाड़ बनती है,
तो ईंधन के पास
कोई तर्क नहीं होता।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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उमड़-घुमड़ कर आओ रे



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की सैंतीसवी/अन्तिम कविता  

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


उमड़-घुमड़ कर आओ रे

लगता है नादान पड़ौसी, फिर से हिम सुलगायेगा
लगता है मेरे उपवन से, फिर पतझर टकरायेगा
लगता है फिर बलिदानों की, महा दिवाली जागेगी
लगता है फिर घायल झेलम, ताजा लोहू माँगेगी
लगता है ये पेकिंगवाला दुनिया को मिटवायेगा
लगता है दिल्ली के हाथों, पिण्डी को पिटवायेगा

उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे!
और
आनन गरजो, फानन बरसो, फिर तूफान उठाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।

आओ रे! आओ रे! आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।

सूख नहीं पायी है स्याही, ताशकन्द के वादों की
देखो बदल गई है नीयत, बेगैरत जल्लादों की
भूल गये हैं इतनी जल्दी, वे वामन के वारों को
छेड़ रहे हैं इसीलिये फिर, चेरी और चिनारों को
ललिता का सिन्दूर पुँछा पर, पिण्डी का मन भरा नहीं
(तो) साबित कर दो अभी हमारा, लाल बहादुर मरा नहीं।

लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!

ललिता की बेंदी का सपना, सच करके दिखलाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।

उमड़-उमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।

बजें नगाड़े एक बार फिर, राख झड़े अंगारों की
इच्छोगिल में एक बार फिर, प्यास बुझे तलवारों की
कान लगाकर सुनो तुम्हें फिर, हाजीपीर बुलाता है
फिर दयाल का स्वागत करने, वो बाँहे फैलाता है
वो भूपेन्दर भटक रहा है, सरहद के गलियारों में
हाँक हमीदा मार रहा है, पेटन के अम्बारों में

लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!

उनने सींच दिया है लोहू, फसलें हमें उगाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।
 
उमड़-घुमड़ कर जाओ रे!
महाकाल बन आओ रे!
प्रलप-घटा-से छाओ रे।।

अभी अधूरा रक्त-यज्ञ है, आहुति अभी अधूरी है
अभी विजय से वीर जुझारों, एक चरण भर दूरी है
अभी-अभी तो शुरु हुआ है, रण-ऋतु का बलि-मेला रे
अरे! अभी तो खर्च हुआ है, अपना एक अधेला रे
कोरे बहुत पड़े हैं शूरों! पृष्ठ अभी इतिहासों के
वक्त इन्हें लिख लेगा तुम तो, ढेर लगा दो लाशों के।

लो आओ रे! आओ रे! आओ रे!

सूख रहा है यश का सागर, उसमें ज्वार उठाना हे
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।

उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।

कैसे सहती हैं सन्तानें, उफ्! बन्दा बैरागी की
रीती माँग लिये बैठी है, गुमसुम कविता ‘त्यागी’ की
हाय! शहीदों की सौगातें, सौदों में जब बँटती हैं
लाल किले की लाली घटती, माँ की छाती फटती है
जिस दिन अपना पावन नेजा, पिण्डी पर पहरायेगा
विजयघाट का अमर विजेता, चैन उसी दिन पायेगा।

लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!

एक चरण पूजा बैरी ने, दूजा भी पुजवाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।

उमड़-घमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय घटा-से छाओ रे।।

क्यों इतने गुमधुम बैठे हो, क्यों इतने अकुलाये हो
आसमान पर तुम लोहू से, हस्ताक्षर कर आये हो
तुमने जेट मसल डाले हैं, तुमने पेटन फाड़े हैं
बाँहों से ही जकड़-पकड़ कर, परबत-राज उखाड़े हैं
तुमने लावा मथ डाला है, इन फौलादी हाथों से
तुमने सूरज चबा लिया है, दो दुधियाले दाँतों से

लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!

रंग बदल दो फिर अम्बर का, फिर से भूमि कँपाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।

उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।

राजघाट को राजी कर लो, शान्ति घाट को समझा दो
बुझने आये हैं जो शोले, आज उन्हें फिर भड़का दो
ऐसे घुटन-भरे मौसम में, तुम कैसे जी लेते हो
नीलकण्ठ हो फिर भी इतना, विष कैसे पी लेते हो
कोई माँ को गाली दे और, पालो भाई-चारा तुम
(तो) फिर कैसे इस धरती पर, लोगे जनम दुबारा तुम।

लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!

गाली का बदला गोली से, लेकर के दिखलाना हैं
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।

उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओे रे।।

जिस दिन ये कमला की जायी, अम्बर भर हुँकारेगी
लाल किले से बिफर-बिफर कर, नागिन-सी फुँकारेगी
जिस दिन ये भौंहें तानेगी, जिस दिन तेवर बदलेगी
फेंक चूड़ियाँ, लेकर खाँडा, रणचण्डी बन मचलेगी
जिस दिन ये ऋतुराज-दुलारी, खुद बारूद बिखेरेगी
जिस दिन ये दुश्मन को उसके, घर में जाकर घेरेगी
जिस दिन खुद ‘राजू-संजू’ को, केसरिया पहिनायेगी
तिलक लगाकर सिर चूमेगी, औ’ ममता बिसरायेगी
एक पड़ेगा जब पिण्डी पर, इक पेकिंग पर छायेगा
कौन बचायेगा दुनिया को, कौन सामने आयेगा
जिस दिन इसका एक इशारा, ये यौवन पा जायेगा
जिस दिन सारा देश तड़प कर, अपनी पर आ जायेगा
उस दिन दुनिया खूब सोच ले, जो भी होगा कम होगा
मानवता भी मिटी अगर तो, हमें न कुछ भी गम होगा।

लो, आओ रे! आओ रे! आओ रे!

अरि-शोणित की गढ़-गंगा में जननी को नहलाना है
मेरे देश के लहू लपक जा, फिर लोहा अजमाना है।

उमड़-घुमड़ कर आओ रे!
महाकाल बन जाओ रे!
प्रलय-घटा-से छाओ रे।।
आनन गरजो, फानन बरसो.....।।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















नाक की शोक शैली



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की चौंतीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


नाक की शोक-शैली

सुना है मैंने कि
ईश्वर मर गया।
व्यवस्था की छाती पर
कील ठोकने वाले हाथ
बँधे रह गये अपनी ही छाती पर।
सिहासनों को रौंदनेवाले पाँव
रख दिये गये प्लास्टर के कोटरों में।

आकाश के ललाट पर
मिट्टी मारनेवाला माथा
लुढ़क गया अनजानी दिशा में।
उमंगों का इन्द्र-धनुष
तनने के पहले ही टूट गया
काल-पुरुष की चुटकी से एक तीर
अलक्ष्य ही छूट गया।

यह सब हुआ सरे आम सडकों पर
ठीक उनकी नाक के नीचे
जिनकी नाक, बकौल उनके
नाक नहीं हमारा भविष्य है।
अब वे सुरक्षित रखने के लिए
हमारा भविष्य
तोड़ रहे हैं हमारा वर्तमान
जो कि नितान्त हमारा है।

तुम नहीं कर सकते कोई शोक-सभा
बन्द कर दिये हैं उन्होंने
तुम्हारे प्रार्थना-स्थल
चूँकि तुम कहोगे
‘ईश्वर’ मर गया
और उनका कहना है कि
जब तक वे जीवित हैं
ईश्वर मर नहीं सकता
और मर भी गया हो तो
उसका मातम
कोई कर नहीं सकता।

तुम्हें अगर कोई शोक,
कोई मातम
करना भी हो तो
उनकी शैली में करो
वरना ‘ईश्वर’ की तरह
सड़कों पर
अधूरी मौत मरो।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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मेघ मल्हारें बन्द करो



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की छत्तीसवी कविता  

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


मेघ मल्हारें बन्द करो

ऋतु-चक्र बराबर चला नहीं
अंकुर को अम्बर मिला नहीं
सपना फूला या फला नहीं
दुर्भाग्य देश का टला नहीं

लगता है सपना टूट गया
इन शोलों और शरारों का
ये मेघ मल्हारें बन्द करो।
मौसम है रक्त मल्हारों का।।

जो नहीं किया है अब तक, वो कर दिखलाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको, अब खून बहाना होगा।।

सूरज जब स्याही उगले और, चन्दा उगने काजल
हर तारा हो आवारा, हर दीप-शिखा हो पागल
ऊषा जब संयम खो दे और, किरनें सँवला जायें
जब सारी सूरजमुखियाँ, अकुला कर कुम्हला जायें
जब शर्त बदे अँधियारा, साँसों में समा जाने की
तो साँसों को सुलगा कर, उजियारा लाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।

कजरारे मेघ हटाओ, रतनारे मेघ बुलाओ
अब जल-तरंग को छोड़ो, और ज्वाल-तरंग बजाओ
ओ कोमल सुर के गायक, अब तीव्र स्वरों में गाओ
अवरोह अभी तक गाया, अब आरोहों पर आओ
हर सुर हो जाय बजारू और आरतियाँ ही गावे
(तो) बेशक वर्जित हो लेकिन धैवत धधकाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।

कुछ लोग क्रान्ति को बन्ध्या, कुछ बाँदी मान रहे हैं
कुछ रक्तपात की अन्धी, आजादी मान रहे हैं
यह शैली है जीवन की, यह चपला का चिन्तन है
यह इज्जत है यौवन की, यह शोणित का दर्शन है
जब सारा गणित गलत हो, हर समीकरण विचलित हो
तो अग्नि गणित का अभिनव अभियान चलाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।

यूँ ऊसर में क्या मरना, यूँ दलदल में क्या जीना
यूँ भूख-गरीबी सहकर, क्या शोषण का विष पीना
ओ सोये ज्वालामुखियों!  ओ बुझते हुए अँगारों!
ओ ठण्डे-ठार अलावों! ओ आहत क्रान्ति-कुमारों!
जब आग, आग को तरसे और आश्वासन ही बरसे
(तो) बेशक अपना ही घर हो, लावा बरसाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।

आसन्न क्रान्ति के रोड़े, हट जायें बहुत अच्छा है
ये पीढ़ीखोर कुहासे, छँट जायें बहुत अच्छा है
कुछ पाषाण-कलेजे, फट जायें बहुत अच्छा है
दस-पाँच करोड़ निकम्मे, कट जायें बहुत अच्छा है
जब कुर्सी करे दलाली, हो जाय छिनाल व्यवस्था
तो सारे वेश्यालय को, फिर देश बनाना होगा।
शायद है जवानों, तुमको.....।।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















आज के दिन



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की तैंतीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


आज के दिन

काँपता रहा पीपल का पत्ता
अडिग रहा तना
अविचलित रहीं जड़ें
उखडी हवाएँ देती रहीं थपेड़े
और सोचती रहीं मन ही मन
कि इस पीपल को
छेड़ें या नहीं छेड़ें?
पर बन्दूक की नली में पलता मौसम
‘सब कुछ ठीक है’
कहता रहा।
और वह वासुदेव
जी हाँ, वह पीपल
इस ‘सब कुछ ठीक है’ को
चुपचाप सहता रहा।

इस कम्पन को
उन्होंने माना अपनी विजय
इस अडिगन, अविचलन और चुप्पी को
वे समझते रहे कायरता
पीपल के अखण्ड-स्वधर्म-सूत्र को
तौलते रहे वे बन्दूक से
याने कि सत्ता की सनातन भूख से।

मैं हूँ वह थरथराता पत्ता
तुम हो अडिग तने
तुम्हारी संकल्प-सिंचित अस्मिता है
इस पीपल की जड़।
और ‘वे’?
‘वे’ केवल ‘वे’ हैं
हर युग के अपने-अपने ‘वे’।

मेरा हर कम्पन
बताता है हवा का रुख
और उनको है ये दुख
कि मैं स्थिर क्यों नहीं हो जाता?
सड़ाँध-भरी बन्दूक का
जयगान क्यों नहीं गाता?

अडिग रहो तुम,
अविचलित रहे तुम्हारी अस्मिता
थरथराता रहूँ मैं
तभी तो पूज्य रहेगा यह वासुदेव।

लिख लो मेरा वचन
आज के पावन क्षणों पर
कि
स्वस्तिक हमेशा बनेंगे तनों पर
मत्थे हमेशा टिकेंगे जड़ों पर
और टूटता पत्ता भी
प्रहार करता रहेगा
बन्दूक के जबड़ों पर।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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एक गीत ज्वाला का



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की पैंतीसवी कविता  

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


एक गीत ज्वाला का

बीज हुआ तैयार फसल कल, अनुशासन की आयेगी
शायद अब भँवरों की पीढ़ी, पूरे सुर में गायेगी
यह सच है सपनों का सिंचन, खून पसीना करता है
यह सच है शीतल बादल, मिट्टी को मीना करता है
पर आग और पानीवाला ही, बादल बादल कहलाता है
महाप्रलय और महासृजन का ऐसा ही कुछ नाता है
तो
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी
मर नहीं जाये पानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला
जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

यह कैसी चुप्पी है बोलो, यह कैसा सन्नाटा है
अन्तर में सरगम है लेकिन, कण्ठ नहीं गा पाता है
कब तुम तोड़ोगे यह चुप्पी, कब तुम खुलकर गाओगे
कब तक इन ज्वालामुखियों को, अन्तर में हुलराओगे
कब तक तुम स्वीकार करोगे, मौसम की मनमानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

तुम ही तो लाये हो नवयुग, तुम ही इसे सम्हालोगे
है मुझको विश्वास निरन्तर, इसको और उजालोगे
(पर) याद रखो शोणित का लावा, जब ठण्डा पड़ जाता है
(तो) जीवन का सब दर्प हवा में, बन कपूर उड़ जाता है
पौरुष रहे प्रचण्ड तुम्हारा, ऊष्मा रहे सयानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

पश्चिम का कायर बेटा ही, अँधियारा कहलाता है
जो उससे डरता है उसको, ज्यादा और डराता है
ओ प्राची के किरन-कुमारों, अँधियारे से नहीं डरो
आत्मघात कर लेगा कल यह, मत ऐसी उम्मीद करो
तुम सुलगो तो सुलगे इसकी, नालायक रजधानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

बाग हमारा, फूल हमारे, हम ही इसके माली हैं
(पर) कोयल भी चुप, कौए भी चुप, यह कैसी रखवाली है
काँटों के नाखून अभी भी, पैने हैं और पूरे हैं
फागुन की राहों में अब भी, हँसते लाख धतूरे हैं
सम्भवतः कुछ और लगेगी फूलों की कुर्बानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।

रहे खौलता खून निरन्तर, शिरा-शिरा में आग रहे
साँसों में संकल्प घुले हों, आँखों में सौभाग्य रहे
युद्ध तुम्हारा चले बराबर, चुप्पी और अँधियारों से
इससे ज्यादा और कहूँ क्या, इन गुमसुम अंगारों से
जीवन का मतलब है जलना, बुझना है बेईमानी रे
जिन्दाबाद तुम्हारी ज्वाला, जिन्दाबाद जवानी रे।
बुझ नहीं जाये आग तुम्हारी।।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















फिर से मुझे तलाश है



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की बत्तीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


फिर से मुझे तलाश है

खुद सूरज ने मान लिया है,
नहीं हुआ उजियारा
इससे तो अच्छा था यारों,
गैरों का अँधियारा!

भला-बुरा जो भी होता था,
तम में तो होता था,
सुर-बेसुर जो भी रोता था,
गम में तो रोता था!
   
पिछली मावस के खाते में,
अपना काजल डाले,
उस सूरज को सूरज कैसे
मानें धरतीवाले।

धरती कोई गगन नहीं है,
कोई भी चमका ले,
ऐरे-गैरे नक्षत्रों से,
अपना काम चला ले!

यहाँ प्राण बोना पड़ता है,
तब लगती है लाली,
ऋतुएँ नहीं बदल पाती हैं,
बातें खाली-माली!

कण-कण फिर अँधियारे में है,
कण-कण पुनः उदास है,
किसी अजन्मी ज्योति-किरण की,
फिर से मुझे तलाश है!

सम्भवतः फिर ऊषा आये,
सम्भवतः फिर रात ढले,
इसी भूमिका की खातिर,
फिर नन्हा-सा दीप जले!
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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