अंगारों से



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की तेईसवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


अंगारों से

हर कोयल को हक आता है, अपने सुर में गाने का
हर कोंपल को हक आता है, अम्बर तक उठ जाने का
हर पीढ़ी को पूरा हक है, अपने सपन सजाने का
अंगारों को पूरा हक है, जलने और जलाने का।

बेशक आग लगाओ रे अंगारों, मावस के गलियारों में
देखो आग लगा मत देना, पूनम के पखवारों में।

जिन काँटों ने घाव दिये हों, उनसे दो-दो हाथ करो
उनसे उनकी ही भाषा में, खुलकर सीधी बात करो
उस बिजली पर खूब सोच लो, जिसने रंग बिगाड़े हों
उन भंँवरों के पंख नोच लो, जिनने बाग उजाड़े हों
उस माली को माफी मत दो, जिसने गन्ध चुराई हो
जिसके होते हर क्यारी में नागफनी उग आई हो।
हाँ रे हाँ, मेरे अंगारों......।

माली को परखा जाता है, बेमौसम पतझारों में
देखो आग लगा मत देना, पूनम के पखवारों में
बेशक आग लगाओ रे, अंगारो मावस के गलियारों में।

दसों दिशाएँ जब डूबी हों, अंधियारे के ज्वारों में
तब ही ध्रुव ढूँढा जाता है, लाख-करोड़ सितारों में
उस दिन जो चिनगारी चमके, वो ज्वाला बन जाती है
कालान्तर में उसकी लपटें, अम्बर तक छा जाती हैं
यह सच है लावण्य लपट, का युग के चुम्बन पाता है
यह सच है उस पुण्य प्रभा पर, यौवन बौरा जाता है।
ओ रे ओ, मेरे अंगारों........।

खूब नहाओ उस मंगलमय, लावे के फव्वारों में।
लेकिन आग लगा मत देना पूनम के पखवारों में।
बेशक आग लगाओ रे, अंगारों मावस के गलियारों में।

कोमलता के कारण काजल, आँखों तक आ जाता है
पी जाता है वह पौरुष को, ऊष्मा को खा जाता है
काला तिल खुद आमन्त्रण है, छोटे-बढ़े डिठौने को
इसका अर्थ नहीं कजराई, खा जाए हर कोने को
आज समूचा क्षितिज किसी ने, पोत दिया है काजल से
शायद इसको धोना होगा, गर्म लहू के बादल से।
ओ रे ओ, मेरे अंगारों......।

कालिख के मालिक को बेशक, चुन देना दीवारों में
लेकिन आग लगा मत देना पूनम के पखवारों में
बेशक आग लगाओ रे, अँगारों मावस के गलियारों में।

लडने को तो अँधियारे से, हर कोई लड़ जाता है
(पर) उजले मुँहवाला तारा ही, निर्णायक यश पाता है
नैतिक युद्ध नहीं होते हैं नारों और हथियारों से
ऐसे युद्ध लड़े जाते हैं, चारित्रिक आधारों से
जले पलीता उससे पहिले, खुद को देखो दर्पण में
उजले मुँहवाला जीवन ही, अर्पण करो समर्पण में
वरना ओ रे ओ, मेरे अंगारों......।

वरना फिर क्या फर्क रहेगा, तुममें और बटमारों में
देखो आग लगा मत देना पूनम के पखववारों में
बेशक आग लगाओ रे, अंगारो मावस के गलियारों में।

कहाँ गये ‘दिनकर’ के वंशज, ‘भारतेन्दु’ के लाल कहाँ
‘महाप्राण’ की महिमावाले, महिमा-मण्डित भाल कहाँ
जो ‘नवीन’ के सुर में फूटा, वो विप्लव भूचाल कहाँ
जिसे ‘सुमन’ ने लाली दी वो, जलती हुई मशाल कहाँ
अनाचार का ताण्डव कब तक, होगा यहाँ अँघेरे में
कौन सूरमा बदलेगा, इस सबको स्वर्ण सवेरे में
सड़ी घुटन और बेचैनी में, जीने से इनकार करो
अन्तर का अँधियार जलाकर, खुद को कुछ तैयार करो।
पर उत्तेजन को शक्ति समझकर, लड़ना केवल मरना है
पहिले इतना तो तय कर लो, मरना या तम हरना है
भाषण क्रान्ति अगर लाते तो, बरसों पहिले आ जाती
गद्दारों की वंश-बेलि को, नोच-नोच कर खा जाती
(पर) जिसका श्रेय तुम्हें जाना है, वह तो तुमको जायेगा
कोई धरती का बेटा ही, क्रान्ति-दूत बन आयेगा।
ओ रे ओ, मेरे अंगारों.......।

उसका चित्र नहीं पाओगे, इन बासी अखबारों में
देखो रे आग लगा मत देना, पूनम के पखवारों में
बेशक आग लगाओ रे, अंगारों मावस के गलियारों में।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















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