एक बार फिर करो प्रतिज्ञा



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की बाईसवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


एक बार फिर करो प्रतिज्ञा

एक बार फिर करो प्रतिज्ञा, चिर नवीन इस माटी से
एक बार फिर करो प्रतिज्ञा, बलिदानी परिपाटी से
एक बार फिर करो प्रतिज्ञा, चौराहों चौपालों से
एक बार फिर करो प्रतिज्ञा, जलते हुए सवालों से
भुजा उठाओ, गगन गुंजाओ, नई चुनौती आई है
एक बार फिर साबित कर दो, तरुणाई है, तरुणाई है।
आओ रे! आओ रे! आओ रे!

जननी पर मर मिटनेवालों, प्राण उँडेलो प्राणों में
आग बिछाकर अमन उगाओ, खेतों में, खलिहानों में।

ताशकन्द में जिस सावन को, सूर्यपुत्र ने न्यौता था
बार-बार जो शोणित में ही, अपने पाँव डुबोता था
उस सावन को फिर शिमला, में चन्द्रकिरण ने न्यौता है
(तो) पंथ बुहारो और निहारो ,अब आगे क्या होता है।
(तो) आओ रे! आओ रे! आओ रे!

स्वागत की तैयारी रक्खो, खन्दक और खदानों में,
आग बिछाकर अमन उगाओ, खेतों में, खलिहानों में।
जननी पर मर मिटनेवालों......।

लोहू में लथपथ धरती को, हम हँसकर लौटाते हैं
इसका मतलब कभी नहीं हम, सौदों में बिक जाते हैं
दुनिया के दिक्पालों, सुन लो, हम रण-रीत निभाते हैं
रजत बरस की न्यौछावर है, मर्दों की सौगातें हैं।
आओ रे! आओ रे! आओ रे!

सौंप रहे हैं पूरे मन से, आशंकित अनुमानों में
आग बिछाकर अमन उगाओ, खेतो में, खलिहानों में।
जननी पर मर मिटनेवालों......।

दस सदियों तक लड़नेवाली, भाषा शायद बदलेगी
माँ की कोख उजड़नेवाली, आशा शायद बदलेगी
इसीलिये लोहू को हमने, चुम्बन दिया सियाही का
शायद है बहिनाँ की राखी, भाग्य बदल दे भाई का 
आओ रे! आओ रे! आओ रे!

नहीं सजेगी अब यह राखी, फिर जंगी दूकानों में
आग बिछाकर अमन उगाओ, खेतों में, खलिहानों में।
जननी पर मर मिटनेवालों.....।

रण-मेलों में रंग जमाकर, जंग-जुझारे आये हैं
घोर निराशा में डूबे हैं, मन ही मन अकुलाये हैं
हर पीढ़ी को यह परिपाटी, मर-मर कर दुहरानी है
फिर से हमको अमन की कीमत, मँहगे मोल चुकानी है।
आओ रे! आओ रे! आओ रे!

यह कीमत ही रह पाती है, यायावर यश-गानों में
आग बिछाकर अमन उगाओ, खेतों में, खलिहानों में।
जननी पर मर मिटने वालों......।

अरबत-परबत अद्दी-नद्दी, नालों में, परनालों में
चलो घोल दो नया पसीना, इस पीढ़ी के छालों में
सावन हो तो कजरी गाओ, फागुन हो तो फाग उड़ें
ढम्मक ढमके ढोल-मंजीरा, और रास के राग उड़ें
छम्मक-छम्मक छम छमाछम, आने दो खुशहाली को
आज अमन का वादा दे दो, फिर गुलाब की डाली को
लेकिन जिस दिन अमन-चमन पर, कोई मेघा मँडराये
इधर-उधर से बादल लाकर, तुम पर बिजली बरसाये
उस दिन सारे गीत भूलकर, अंगारे बन जाना तुम
कजरी-ददरी छोड़-छाड़कर, केवल आल्हा गाना तुम
इंच-इंच पर अरिमुण्डों के, फिर से मेले जोड़ेंगे
जैसे तोड़ा है पुूरब को, पश्चिम को भी तोड़ेंगे
ताशकन्द के संग शिमला का, ले लेना भुगतान नया
अब की बार बना ही लेना, अपना हिन्दुस्तान नया।
आओ रे! आओ रे! आओ रे!

रक्त-ज्वार की कहाँ कमी है, इन जसवन्त जवानों में
आग बिछाकर अमन उगाओ, खेतों में, खलिहानों में
जननी पर मर मिटनेवालों.......।
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















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