जमाईराज (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की तेरहवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की तेरहवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



जमाईराज

अस्सी बरस के ससुर, पचहत्तर बरस की सास, सत्तावन बरस की पत्नी और पैंसठ बरस के खुद जमाईराज। जमाईराज यानी नन्दा महाराज। शादी को हो गए चालीस साल से ऊपर। यही कोई दो-तीन बरस और ज्यादा। अपने आपा-धापी भरे जीवन में चार दिन भी ऐसे नहीं निकाल पाए कि ससुराल में जाकर दो-एक दिन ‘जमाईराज’ बनकर रहें, ‘जमाईराज’ वाला ठसका दिखाएँ। रात को ससुराल की मुँहबोली साली-सलहजों के मुँह से सुरीली गालियाँ सुनें। जूनी-पुरानी पहेलियों को बूझें। खुले आँगन में खटिया पर लेटकर आकाश के तारे गिनते-गिननते सो जाएँ। इस साल नहीं तो अगले साल, और अगले साल नहीं तो अगले-अगले साल तो जरूर ही ऐसा समय निकालेंगे। सोचते-सोचते चालीस-बयालीस बरस बीत गए। घर-गिरस्ती में जब-जब नन्दा महाराज को थोड़ा सा वक्त मिलता, वे शीलाजी से कहते कि इस बार जरूर दो-चार दिन तेरे पीहर में बिताना है, पक्का।

शीलाजी हर बार हँसकर टाल देतीं। कहती, शादी की पचासवीं सालगिरह पर चलेंगे। अभी क्या जल्दी है! तब तक बापूजी हो जाएँगे नब्बे के आस-पास। जीजी निकल आएँगी बयासी की। आप हो जाएँगे बहत्तर के और मैं चलूँगी चौंसठ में।

नन्दा महाराज शीलाजी के इस कटाक्ष की पीड़ा को खूब समझते थे। मन-ही-मन सोचते भी थे कि अब भला उम्र का वह कौन सा रोमांच शेष है, जिसे ससुराल में जाकर ‘जमाईराज’ की तरह जिया जाए। जवानी चली गई, अधेड़पन गुजर गया। प्रौढ़ावस्था बीत रही है। चौथे आश्रम की देहरी पर देह पहुँच गई। पर ससुराल का सुख देखने की ललक अब भी बची बैठी है। लोग क्या कहेंगे? लेकिन मन के किसी कोने में बैठा ‘जमाई’ जीत गया। शीलाजी ने बार-बार समझाया कि ‘छोटा सा गाँव है। बापूजी के पास ले-देकर डेढ़ कमरे का एक अधपक्का झोंपड़ा है। एक खटिया भी उसमें बिछने की गुंजाइश नहीं। एकाएक बेटा भी पास के शहर में अपनी बीबी को लेकर अलग बैठा अपना घर-संसार जैसे-तैसे चला रहा है। जीजी का बुढ़ापा। घर में सिवाय जीजी के कोई है नहीं, जो चूल्हे-चौके और पानी-परेण्डी में उसका हाथ बँटा ले। आप तीन दिनों की कह रहे हो, पर आप, मैं, जीजी और बापूजी तीन घण्टों में ही तंग हो जाएँगे। लोग हँसेंगे, सो अलग। बापूजी और जीजी चाय तक पीते नहीं। आपसे मिलनेवाले चार लोग भी आ गए तो उनकी चाय कौन बनाएगा। आपका भोजन, नाश्ता, चाय, दूध, तरह-तरह का नखरा कैसे सधेगा? कौन साधेगा? जब वहाँ भी मरना-खपना मुझी को है तो क्यों इतनी मगजपच्ची कर रहे हो? जब जाने के दिन थे, तब तो.....!’

पर नन्दा महाराज का ‘जमाईराज’ जरा ज्यादा ही जाग्रत हो चुका था। कह बैठे, ‘भागवान! जैसा होगा, देखा जाएगा। स्वर्गवास हो या नरकनिवास, भाग्य का भोग, भोग लेंगे। परेशान होने की कौन सी बात है? अपने बाल-बच्चे, नाती-पोते हँसेंगे तो हँस लेंगे। बुढ़ापे में ही सही, पर मैं तेरे पीहर का और तू मेरी ससुराल का मजा तो लूट। चलना पक्का है तैयारी कर।

और तैयारी करनी भी क्या थी! चार दिन का मामला पचास किलोमीटर का सफर और रोज बदलो, तो भी पाँच जोड़ी कपड़ों का कुल बोझा। दो घण्टों का सफर।

नन्दा महाराज ने सुसराल के गाँव के पी. सी. ओ. पर सूचना देकर बापूजी को खबर करवा दी-‘शाम का भोजन वहीं करेंगे। शीलाजी सहित पहुँच रहे हैं।’

बच्चों ने समझाने की कोशिश की। पोते-पोती ने विनोद किया। मुहल्लेवालों ने आश्चर्य किया। ये उमर और ससुराल-यात्रा! जमाईराज कहलवाने का चस्का! हे राम! 

इधर तो गाँव में गाय, बैल, भैंस, पाड़े और पशु सारा दिन जंगल-खेतों में चरकर शाम को प्रविष्ट हो रहे थे, गोधूलि गगन तक गहरा रही थी कि पास के शहर के बस, स्टैंड पर से एक तिपहिया टेम्पो नन्दा महाराज और शीलाजी को लेकर उधर गाँव में प्रविष्ट हुआ। ‘गोधूलि’ से लथपथ  ‘जमाईराज’ और ग्राम सुता बापूजी के दरवाजे पर उतरे। जीजी ने स्वागत किया। छोटा सा गाँव, सँकरी सी गली। ‘जमाईराज पधारे! जमाईराज पधारे! ,शीला आई! शीला आई! जीजा सा’ आ गए! जीजा सा’ आ गए!’ जैसी चहल-पहल से पूरा गाँव भर गया। बस्ती में बात फैलते देर ही कितनी लगती है!

देखते-देखते डेढ़ कमरा और पाँच फुटा आँगन तरह-तरह की उम्र के लोगों से भर गया। लड़के-लड़कियाँ, औरत-मर्द, कच्चे-पक्के लोग यानी जीजी परेशान, बापूजी अवाक्, शीलाजी सकपकाईं। नन्दा महाराज न रोने के, न हँसने के। कुशल-क्षेम, पूछताछ, निरख-परख में घण्टों लग-गए। चाय बने तब बने, पर पानी पिला-पिलाकर जीजी और शीलाजी के पसीने छूट गए। घर में ले-देकर चार गिलास। उन्हीं को भरो, पिलाओ, धोओ, भरो, पिलाओ और बस, गाँव के मेहमानों को सँभालो। नन्दा महाराज ने शीलाजी को देखा तो अपने आप पलकें झुक गईं। अपराध-बोध से ग्रस्त नन्दा महाराज बोलते भी तो क्या बोलते? शीलाजी अगर खुलकर बोल पाती तो यही कहतीं कि ’क्यों मेरे माँ-बाप का मखौल करवा रहे हो? बारात लेकर तोरन पर आना और पाँव पसारकर ससुराल में फैल-पसरकर सोना अलग-अलग बातें हैं।’

लाड़-प्यार, आव-आदर और सत्कार-श्रद्धा में कहीं कोई कमी नहीं थी। पर इस सबकी भी एक उम्र होती है। वह न तो नन्दा महाराज के पास थी, न शीलाजी के पास। साठ-साठ, पैंसठ-पैंसठ साल के बेटी-दामाद का लाड़ भी कैसे लड़ाया जाए। जैसे-तैसे रात का भोजन दस बजे बाद शुरु होने का शकुन बना। तब तक गाँव की महिलाएँ गालियाँ गाने को जुट गईं। घर-आँगन में लोकाचार और दस्तूर की खिलखिलाहटें शुरु हो गईं। माता-पिता तुल्य बेटी-जमाई को आजकल की लड़कियाँ कैसे गालियाँ गाएँ? कैसी पहेलियाँ बूझें? एकाध लोकगीत शुरु हुआ ही था कि गाँव का टेलीफोनवाला भागकर आया। बापूजी से कहा, ‘जीजा सा’ का पी. पी. फोन है। जल्दी पी.सी.ओ. पर भेज दो, वरना लाइन कट जाएगी।’

नन्दा महाराज नंगे पाँव भागे। अपरिचित गलियों में पाँच-सात जगह रात के अँधेरे में ससुराल की दीवारों से टकराए। घर से बच्चों ने फोन करके पूछा था कि यात्रा सकुशल तो रही न? सब कैसे हैं? नन्दा महाराज ने राहत की साँस ली। चलो, घर का कुशल-क्षेम मिल गया। पर मन-ही-मन सोचा, अगर चार दिनों में दस-बीस दोस्तों ने ‘ऐसा कुशल समाचार’ लिया तो उनका आधा समय तो घर से पी. सी. ओ. के बीच ही निकल जाएगा। जैसे-तैसे वापस घर आए गीत-गालियों का दस्तूर थम गया था। लोग चिन्तित थे कि आधी रात किसका फोन आ गया। क्या समाचार है? लोग अमंगल की आशंकाओं में डूबते-उतराते बैठे रहे। यह उनकी पहली रात थी। पर सवेरे पाँच बजे तक फोनवाले ने नन्दा महाराज को चार बार और जगाया। रात भर न वह सो सका, न नन्दा महाराज। जीजी, बापूजी और शीलाजी के तो सोने का  सवाल ही नहीं था। जीजी ने सारी रात टेलीफोन को कोसने में काटी। कैसा जंजाल है? ये शहर के लोग रात भर सोते नहीं हैं, वहाँ तक तो ठीक है, पर थके-हारे लोगों को सोने भी नहीं देते। रात-रात भर पूछते क्या हैं? जीजी रह-रहकर कुढ़ रही थी।

सवेरा होने पर नन्दा महाराज-दूसरे चक्कर में उलझ गए। सूर्याेदय से पहले उठने की उनकी आदत थी। वे करवटें बदल ही रहे थे कि उन्हें लगा उनकी खटिया पर दो-एक लोग सिरहाने-पायताने बैठ गए हैं। पहले तो वे समझे कि शायद शीलाजी उन्हें जगाने के लिए आई होंगी ,पर जब उनकी नाक में-बीड़ी के धुएँ की तीखी गन्ध घुसी तो वे छटपटाकर उठने को हुए, तभी दो जोड़ी हाथों ने उनके शरीर को दबाते हुए कहा, ‘आप तो आराम करो जीजा सा’। पोढ़ो! आप तो पोढ़े रहो।’ नन्दा महाराज के लिए यह सर्वर्था नया अनुभव था कि लोग उनकी शय्या पर बैठकर बीड़ी पिएँ और कमरा तीखी बदबू से भरा रहे। वे सो कैसे सकते थे? जैसे-तैसे उठकर बैठे। न मुँह से गायत्री निकली, न विष्णु सहस्रनाम, न वाणी-वन्दना, न गणेश-स्तवन।

अचकचाकर उन्होंने दोनों सज्जनों से पूछा, ‘आप?’

उनमें से एक भाई बोले, ‘कुछ नहीं जीजा सा’, रात को सुना कि आप और शीला जीजी आए हुए हैं, तो बस हम यों ही घूमने चले आए। घूमना का घूमना और मिलना का मिलना।’ और उन्होंने कश लेकर बीड़ी नन्दा महाराज की ओर बढ़ा दी। यह पराकाष्ठा थी। नन्दा महाराज का सवेरा एक तरह से ‘सुधर’ गया था। न बोलने के, न चुप रहने के। मन में आया कि पूछें, ‘क्या मैं कोई चौपाटी हूँ, कोई नदी-नाला या बाग-बगीचा, वन-उपवन या डूँगर-पहाड़ हूँ, जो आप घूमने चले आए? वह भी मेरी खाट पर!’

पर हद तो तब हो गई, जब-उन्होंने खाट पर बैठे-ही-बैठे शीलाजी को आवाज देकर कहा, ‘शीला बे’न! जीजा सा! उठ गए हैं। इनकी चाय ले आओ। दो जने हम भी हैं।’

नन्दा महाराज का माथा भन्ना गया। न हाथ धोए, न मुँह, न कुल्ला किया, न दातौन। और स्नान-ध्यान पूरा-का-पूरा बाकी पड़ा है। ये लोग चाय के पीछे पड़े हुए हैं। 

शीलाजी ने भीतरवाले कमरे से ही स्थिति स्पष्ट कर दी। बोलीं, ‘बापूजी दूध लेने गए हैं। वे आएँगे, तब चाय बनेगी। यहाँ कोई फ्रिज वगैरह तो है नहीं, जो रात को दूध लिया, रख लिया और सुबह उठते ही गैस पर चाय बना ली। अपने जीजा सा’ से कहो कि आँगन के कोने में पड़ा डब्बा उठाएँ, पानी भरें और जंगल-मैदान होकर आ जाएँ। बाकी बातें बाद में होंगी। सबेरा शुरु तो करें।’

‘अरे तेरी सी....!’ दोनों के मुँह से एक साथ निकला, ‘अभी तो जीजा सा’ ने कुछ भी नहीं किया है। चलिए, हम आपको दिशा-मैदान की जगह दिखा देते हैं। वापस आएँगे, तब तक चाय बन-बना जाएगी। चलिए पधारिए।’

नन्दा महाराज का बस चलता तो वे अपना माथा कूट लेते। ‘जमाईराज’ बनने पर दिशा-मैदान जाते वक्त भी ससुरालवाले इतना लिहाज पालते होंगे, इसका अनुमान उन्हें नहीं था। पर ‘जमाईराज’ की फजीहत बहुत बाकी थी। शीलाजी इधर तो डिब्बे में पानी डाल रही थीं और उधर टेलीफोनवाला पी. पी. कॉल की सूचना देने को आँगन तक आ गया था, ‘जीजा सा’! चलिए! आपका पी. पी. कॉल है। फिर लाइन कट जाएगी।’

नन्दा महाराज का मन हुआ कि पानी का भरा हुआ वह डिब्बा फोनवाले के मुँह में ठूस दें। वे निरीह नजरों से शीलाजी को देख रहे थे। शीलाजी की आँखों में अपना नटखट बचपन लौट आया था। डिब्बा थमाते हुए बोलीं, “अभी तो पहला ही सवेरा है। ऐसे तीन सवेरे और बाकी हैं। जाइए ‘जमाईराज’! यह डिब्बा टेलीफीन बूथ में ही खाली कर लेना।”

लोगों का आना-जाना शुरु हो गया था। बीस-पच्चीस घरों से नन्दा महाराज को चाय के न्योते मिल गए थे। साँझ-सवेरे के भोजन के निमन्त्रणों पर बहस और जद्दोजहद हो रही थी। नन्दा महाराज अनागत स्थितियों के सम्भावित तनावों का अनुमान लगाकर मानसिक उठा-पटक में उलझे-अटके अपनी दिनचर्या को तरतीब देने की कोशिश कर रहे थे। स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ कैसे पूर पड़ें, यह अलग व्यथा-कथा है। पर नन्दा महाराज के होश फाख्ता हो गए, जब उन्होंने देखा कि गाँव की स्वागत मण्डली ने शरारत करते हुए उस गाँव की एँडी-बेंडी बैण्ड टुकड़ी को ढोल, मशक और ढोलक-ताशों के साथ बापूजी के दरवाजे पर भेज दिया है। आते ही उन्होंने ‘घर आया मेरा परदेसी’ वाली धुन पूरे जोर-शोर से बजानी शुरु कर दी। सामनेवाली गली से गाँव का भाँड अपनी विरुदावली गाता हुआ नजर आया। थोड़ी ही देर में वही ढोलवाला ढोल बजाता दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया, जिसने कि नन्दा महाराज की बारात के स्वागत में चालीस-बयालीस साल पहले ढोल बजाया था। सभी की अपनी-अपनी माँग थी। कोई एक जोड़ा कपड़ा चाहता था तो कोई भरपूर नेग-दस्तूर। अगर एक-एक कपड़ा भी नन्दा महाराज और शीलाजी देने लगते तो उनके अपने तन-बदन के कपड़े उतर जाते। गाँव के लोग हँसते थे। बापूजी परेशान। जीजी किस-किसको समझाए और शीलाजी इस साँसत से कैसे छूटें? ‘जमाईराज’ जिन्दगी में पहली बार अपनी तरफ से ससुराल में पधारे थे। नेग-दस्तूर सभी के बनते थे।

यहाँ तक तो ठीक ही कहा जा सकता था, पर नन्दा महाराज तब हक्के-बक्के रह गए, जब- उन्होंने देखा कि बापूजी के दरवाजे पर दो अध-नंगे लाँब-तड़ाँग मुस्टण्डे साधुनुमा आदमी एक गजराज (हाथी) को खड़ा करके उसके आस-पास खड़े हो गए। हाथी इशारा पाते ही पहले चिंघाड़ा, फिर महावत के आदेश पर उसने अपनी सूँड उठाकर ‘जमाईराज’ का अभिवादन किया। सारे गली-मुहल्ले के कच्चे-बच्चे मेला लगाकर तमाशबीन की तरह खड़े हो गए। कोलाहल से वातावरण भर गया। शीलाजी ने जीजी की तरफ देखा। जीजी ने बापूजी को इशारा किया। नन्दा महाराज कुछ समझें, तब तक महावत हाथी से नीचे उतरा और पासवाली चबूतरी पर बैठ गया। आती-जाती बहू-बेटियाँ ठिठक गईं। हाथी ने रास्ता रोक दिया था। गली खचाखच भर चुकी थी। दोनों मुस्टण्डों ने जमाईराज को ‘जय सीताराम’ किया। फिर जीजी से बोले, ‘महालक्ष्मी! ये ऐरावत गजराज महन्तजी ते भेजा है। कहलवाया है कि जमाईराज और शीला बेटी की सवारी आज अपने ऐरावत पर निकलेगी। ये लोग पहली बार ससुराल में आए हैं। रसोई में आज ऐरावत के दस टिक्कड़ शुद्ध घी-गुड़ में सेंक देना और तीन मूर्ति हम हैं ही। रसोई बनाकर, भगवान के भोग की थाली सजाकर प्रेम से भोजन प्रसाद दे दें। फिर जमाईराज की सवारी सजेगी। महावत का नारियल-टीका और हम दो साधुओं की दक्षिणा के साथ-साथ महन्तजी की भेंट-पूजा का व्यवस्था भी कर दें। जय सीताराम!!’ और दोनों बाबा लोग वहीं आँगन में. आसन बिछाकर गाँजा-सुलफा खींचने बैठ गए। 

जमाईराज को जब पता चला कि इस गाँव में तो है ही, पर आस पास के दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह किलोमीटर के गाँवों में भी किसी के घर मेहमान आने की सूचना महन्तजी को मिलती तो वे अपने हाथी और उसके साथ महावत और दोनों चेलों को वहाँ भेज देते हैं। आखिर हाथी का खर्चा चले कैसे? ऐरावत का पेट पाले कौन?  

नन्दा महाराज ने अनुमान लगाया कि यह हाथी अगर बापूजी के दरवाजे पर इसी तरह चिंघाड़ता खड़ा रहा और इसके टिक्कड़ और तीन मूर्तियों का भोग, भगवानजी का बाल-भोग, महन्तजी की सेवा-पूजा, बाबाओं की दान-दक्षिणा होती रही तो टोटल दो-चार हजार का झटका लगेगा। अभी तो सुबह का खाना भी नहीं बना है। मिलने आनेवालों की चाय बना-बनाकर शीलाजी तंग आ चुकी हैं। जीजी इस उम्र में कितनी देर झूठे कप-गिलास धोएँगी? बापूजी दूध-दलिये का इन्तजाम कब तक करते रहेंगे? महावत हाथी को बार-बार संकेत करता और हाथी चिंघाड़ मारता, सूँड उठाकर ‘जय सीताराम’ करता। बाबा गाँजे की दम मारते और भाँड विरुदावली गाता। बैण्डवाला अपनी पीपाड़ी बजाए ही जाता।

‘जमाईराज’ इस चक्रव्यूह से कैसे निकलें? किस कुण्डली में उन्हें, ससुराल में चार दिन का स्वर्ग-सुख प्राप्त करने का विचार आया? रास्ता सूझ नहीं रहा था। मन मुरझा रहा था। उमंग मर चुकी थी। उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। ‘जमाईराज’ का अन्तर्यामी अपने आपको चमरौंधे से जुतिया रहा था। न बापूजी कहनेवाले हैं कि जाइए, न जीजी कहनेवाली हैं कि पधारो। गाँववाले भला अपने जमाईराज से कैसे कहेंगे कि विदा हो जाइए? लोकाचार आखिर लोकाचार है! संस्कृति अन्ततः संस्कृति है। सभ्यता सजीव है। रिश्ता अन्ततः रिश्ता है। गाँव की अपनी गरिमा है। यह कोई शहर नहीं है कि मेरा मेहमान, मेरा मेहमान। उसका आया, उसके घर। यह गाँव है। यहाँ शीलाजी सभी की बेटी हैं। नन्दा महाराज अकेले बापूजी के ही नहीं, सारे गाँव के जमाईराज हैं। सभ्यता, संस्कृति और सम्बन्धों से अलग हटकर भी गाँव की एक नाक होती है। सवाल ‘गाँव की नाक’ का आड़े आ जाता है। नेग की जगह नेग है, दस्तूर की जगह दस्तूर है। बहन-बेटी भाइयों से लेती हैं और भतीजों को देती हैं। लेने और देने के बहाने अलग-अलग हैं।

ऐसे ऊहापोह भरे क्षणों में नन्दा महाराज को टेलीफोनवाला आता दिखाई पड़ गया। वह पी. पी. कॉल की सूचना देने ही आ रहा था। नन्दा महाराज की जान में जान आ गई। लपककर घर में गए। शीलाजी को संकेत किया कि ‘पोटली बाँधकर चलने की तैयारी कर लो। मैं टेलीफोन पर जा रहा हूँ। आधे घण्टे में तिपहिया आकर दरवाजे पर खड़ा हो जाएगा। नेग-दस्तूर का तिलक छापा जो भी करना-कराना हो, निपटा लेना। मेरी तो-यह ससुराल है, पर तुम्हारा तो पीहर है। जैसा ललाट वैसा टीका। चन्दन-कुंकुम, चाँटा-चुंबन जो भी करना हो, करके इस भीड़ को निस्तारो। मैं पद्रह मिनट में आता हूँ।

शीलाजी अपने बेबस बालम पर एक मीठी नजर फेंकती हुई बोलीं, “वापस ‘जमाईराज’ अपनी ससुराल कब पधारेंगे? अगला प्रोग्राम आज ही बना लो वरना उधर लाइन कट जाएगी।”

चार दिन के लिए योजित यात्रा पर पहले ही दिन सुबह के भोजनकाल में ही पूर्णविराम लग गया।

गाँव के लोगों-ने-उस दिन बापूजी के घर से दो हाथियों को विदा होते देखा। एक हाथी  आँगन से महन्तजी के दरवाजे की तरफ गया, दूसरा हाथी बापूजी के डेढ़ कमरेवाले घर के भीतर से शीलाजी के साथ अपने घर के लिए निकला।

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‘बिजूका बाबू’ की बारहवीं कहानी ‘अन्तराल’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की चौदहवीं कहानी ‘पीढ़ियाँ’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली 
 
 

 

 

 

 


  

 


 

 

 


3 comments:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (3-10-21) को "दो सितारे देश के"(चर्चा अंक-4206) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा


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  2. बढ़िया प्रस्तुति

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