‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’
की एकसौदोवी/अन्तिम कविता
यह कविता संग्रह
पाठकों को समर्पित किया गया है।
सुलझ नहीं पाती है गुत्थी
(स्व. श्री लालबहादुर शास्त्री के प्रति)
ऐसा ही लगता है मानो प्रभु के घर भी
खत्म हो गई है वह मिट्टी
जिससे निर्मित होते थे तुम जैसे मानव।
पता नहीं हँस-हँस कर कैसे
जीवन बिता लिया तुमने
घोर असंगत और अँधेरे अवमूल्यन तक में!
सुलझ नहीं पाती है गुत्थी।
तुमको यदि आदर्श मान कर।
शुरु करें हम जीवन जीना
एक साँस भी लेना
शायद दुष्कर हो जायेगा।
दूर-दूर तक घटाटोप है, घना अँधेरा
किन्हीं अजानी स्याह सुरंगों में मनुष्यता
चीख रही है लुटी-लुटी सी
और किरन की कोर तलक को
तरस रहे हैं प्राण पखेरू।
पता नहीं इन चिन्ताओं से
मुक्ति मिलेगी कब मनुष्य को।
कब हम तोल सकेंगे खुद को
देव-तुला पर, जिस पर तोल दिया था
तुमने अपना जीवन
बिना किसी संकोच, झिझक के
और खरे उतरे शत-प्रतिशत।
रथ शताब्दी का पहुँच गया
अन्तिम मुड़ाव पर।
नई सदी दस्तक देती है
देव-भूमि के सिंहद्वार पर।
क्या उत्तर देंगे उस क्षण को
जब कि सदी चाहेगी दर्शन
उस मिट्टी से निर्मित थे तुम?
मूर्ति विहीन महा मन्दिर में
मिट्टी तक का पता नहीं है।
ऐसा ही लगता है मानो प्रभु के घर भी
खत्म हो गई है वह मिट्टी
जिससे निर्मित होते थे
तुम जैसे मानव।
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संग्रह के ब्यौरे -
मैं उपस्थित हूँ यहाँ: छन्द-स्वच्छन्द-मुक्तछन्द-लय-अलय-गीत-अगीत
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
एक्स-30, ओखला इण्डस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली-110020
वर्ष - 2005
मूल्य - रुपये 95/-
सर्वाधिकार - लेखकाधीन
टाइप सेटिंग - आर. एस. प्रिण्ट्स, नई दिल्ली
मुद्रक - आदर्श प्रिण्टर्स, शाहदरा
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