काँग्रेस और काँग्रेस के मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए ममत्व रखनेवाला ‘खादी का भिखारी’

 


नीमचवाले कमल भाई मित्तल से मेरा सम्पर्क शून्यवत है। उनसे एक बार ही आमना-सामना और मिलना हुआ है। लेकिन कमल भाई और दादा श्री बालकवि बैरागी के ‘घरोपे’ के बारे में अपने मिलनेवालों से खूब सुना है। उन्हीं कमल भाई ने, दादा से जुड़ी अपनी कुछ यादें मुझे लिख भेजी थीं। इन यादों में दादा के ‘लोक आचरण’ के जाने-अनजाने कुछ पक्ष उजागर होते हैं। कमल भाई की इन्हीं यादों को, अधिकाधिक उन्हीं के ‘कहन’ में रखने की कोशिश की है। यूँ कहिए कि कमल भाई ने कुछ ईंटें भेजीं। मैंने उन ईंटों की दीवार बनाने के लिए रेती-सीमेण्ट से उन्हें जोड़ा। लेकिन दीवाल पर पलस्तर नहीं किया ताकि पढ़ते समय ईंटें ही नजर आएँ, रेती-सीमेण्ट नहीं। ये संस्मरण तीन किश्तों में हैं। यह तीसरी/अन्तिम किश्त है। - विष्णु बैरागी।  

 

काँग्रेस संगठन और काँग्रेस के छोटे, मैदानी कार्यकर्ताओं के प्रति दादा के मन में ममता कूट-कूट कर भरी थी। एक बार काँग्रेस के स्थापना दिवस पर दादा ने कहा कि इस अवसर पर काँग्रेस कार्यकर्ताओं का भोजन होना चाहिए। उन्होंने हमें ब्लेंक चेक देकर कहा - ‘जाओ! तैयारी करो! कोई कमी मत रखना! कंजूसी मत करना!’ चुनावों के दौरान नेताओं को खर्चा करते हुए तो मैंने खूब देखा था लेकिन काँग्रेस संगठन के लिए आयोजित समारोह का सम्पूर्ण खर्चा देते हुए किसी नेता को मैंने पहली बार देखा।

हम लोगों ने मोटा अनुमान लगा कर एक बड़ी रकम बैंक से निकाली। मैंने और ओम शर्मा ने तमाम साथियों से मिल कर सुुनियोजित तरीके से आयोजन किया। जरूरी खर्च में पाई भर की कटौती नहीं की और गैर जरूरी एक पाई भी खर्च नहीं की। हमने इफरात भी वापरी और कंजूसी भी। हममें से किसी को अनुमान नहीं था कि कितने लोग आएँगे। किन्तु मित्र-मण्डल ने अपने अनुभवों के आधार जो व्यवस्था की उसमें सब राजी-खुशी निपट गया। किसी को अपनी थाली में, किसी भी सामान की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। कार्यक्रम हमारे हिसाब से ऐतिहासिक रूप से सफल रहा। उस दिन गाँधी भवन में मानो बहार आ गई थी। आयोजन के दौरान दादा पूरे समय तक गाँधी भवन में मौजूद रहे। इतना खुश हमने उन्हें शायद ही कभी देखा हो।

आयोजन के बाद, बची रकम लौटाने के लिए मैं और ओम शर्मा दादा के पास गए। दादा खूब खुश हुए और बोले - ‘यह देखकर अच्छा लग रहा है कि काँग्रेस में तुम्हारे जैसे लोग अब भी बचे हुए हैं। वर्ना आज के जमाने में बचे हुए पैसे कौन लौटाता है?’ हमारे द्वारा बची रकम लौटाने की इस बात का जिक्र दादा ने बाद में, कई सभाओं में किया। 

जैसा कि मैंने कहा है, दादा, काँग्रेस और काँग्रेस के छोटे, मैदानी कार्यकर्ताओं की खूब फिकर करते थे। वे बार-बार कहते थे - ‘सरकार, मुझे, मेरे जीवन-यापन की आवश्यकताओं से अधिक दे रही है। किसी कार्यकर्ता को आर्थिक आवश्यकता हो तो मुझे जरूर बताना।’ 


खादी-दान का चक्षु-साक्षी हूँ मैं

दादा खादी के कपड़े ही पहनते थे। उनसे सुना कई बार था कि वे ‘माँगे हुए कपड़े’ पहनते हैं, खुद नहीं खरीदते। दादा की आर्थिक हैसियत को देखते हुए ऐसी बात पर विश्वास करना तनिक कठिन लगता है। कोई ताज्जुब नहीं कि लोग इस बात को पाखण्ड मानें। लेकिन मैंने दो अलग-अलग बार दादा को इस तरह कपड़े लेते हुए देखा है। एक बार डिकेन के नगर सेठ श्री सत्यनारायणजी गगरानी से और एक बार छोटी सादड़ी (राजस्थान) वाले उदयलालजी आँजना से। आँजनाजी इस समय राजस्थान सरकार में मन्त्री हैं। दादा से निरन्तर सम्पर्क में रहने के कारण धीरे-धीरे मालूम हुआ कि उन्हें इस तरह खादी के कपड़े देनेवाले उनके ‘प्रिय जन’ बड़ी तादाद में, पूरे देश में फैले हुए हैं। 

दादा में संग्रहवृत्ति नहीं थी। जिस अपनेपन से उन्हें कपड़े मिलते थे, उतने ही अपनेपन से वे उन्हें बाँट भी देते थे। नये कपड़े बनते ही वे अपने पुराने कपड़े, जरूरतमन्दों को देने के लिए मुझे दे दिया करते थे। मेरी दुकान ‘मित्तल जनरल स्टोर’, नीमच में, तिलक मार्ग पर, जाजू भवन के पास, दिगम्बर मांगलिक भवन के ठीक सामने, बालाजी मन्दिर के बाहर स्थित है। वहाँ कई याचक रोज आते हैं। मैं उन्हीं में से अपनी सूझ-समझ के मुताबिक किसी ‘सुपात्र’ को वे कपड़े दे दिया करता था। मेरे माध्यम से, इस तरह से कपड़े बाँटने का सिलसिला लगभग दो-तीन वर्षों तक चला। 

जरूरतमन्दों को दिए जानेवाले, दादा के पुराने कपड़ों को मैं ध्यान से देखता था और मुझे ताज्जुब होता था। सारे कपड़े (कुर्ते-पायजामे) ड्राई-क्लीन किए हुए, कलफदार, एकदम साफ-सुथरे, नए-नक्कोर जैसे होते थे। कोई भी कपड़ा फटा हुआ नहीं होता था। कुछ कपड़ों को देखकर तो आभास होता था कि वे दो-एक बार ही पहने होंगे। कुछ कुर्ते तो मँहगे सिल्क के होते थे। (दादा के इन कपड़ों को पहने हुए कुछ लोग आज भी मेरी दुकान के सामने कभी-कभार निकलते नजर आ जाते हैं।) बाँटे जानेवाले कपड़ों की ऐसी शानदार ‘कण्डीशन’ की बात मैैंं कभी-कभी दादा से करता तो वे मेरी मनोदशा शायद भाँप जाते। कहते - ‘मेरे प्रिय जन जितने प्रेम से ये मेरे लिए लाए थे, उतने ही प्रेम से ये वापस दिए जाने चाहिए। इस काम का यदि कोई पुण्य मिलना है तो वह मेरे उन्हीं प्रिय जनों को मिले।’ 


हमारे बच्चों का नामकरण

मुझे इस बात की खुशी और आत्म-सन्तोष आजीवन बना रहेगा कि उदारमना, सरल हृदय, सरस्वती-पुत्र, विदेशों में भारत का नाम ऊँचा करनेवाले, भारत गौरव, दादा ने मुझ सहित हम तमाम मित्रों को अपना परिवार माना। दादा से पहले सम्पर्क से लेकर उनकी मृत्युपर्यन्त हमारे परिवार ने दादा को अपने परिवार का वरिष्ठ सदस्य ही माना और उन्हें वही जगह, वही मान दिया। मेरे परिवार ने जब-जब भी दादा को याद किया, तब-तब दादा बराबर मेरे परिवार में पहुँचे। मेरे बेटे का नाम ‘सम्यक’ दादा ने ही रखा। इसी तरह ओम शर्मा की दोनों बेटियों के नाम सोम सुधा और सदाशा भी दादा ने ही रखे। 

कमल भाई मित्तल और बेटा सम्यक मित्तल।

अपने घर पर दादा का स्वागत करते हुए मित्तल परिवार।

 अपनी बेटियों सोम सुधा और सदाशा के साथ
शर्मा दम्पति (ओम शर्मा और इन्दु शर्मा)

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संस्‍मरणों की पहली किश्‍त यहॉं पढिए

संस्‍मरणों की दूसरी किश्‍त यहॉं पढिए



नीमच में, दादा के परम्-आत्मीय और पारिवारिक, भरोसेमन्द बने रहे श्री कमल भाई मित्तल (चित्र में दाहिने) अपने छोटे भाई प्रवीण मित्तल (चित्र में बाँये) के साथ ‘मित्तल जनरल स्टोर्स’ के नाम से किराना और जनरल आयटमों का व्यापार करते हैं। नीमच के तिलक मार्ग पर, जाजू भवन के पास, दिगम्बर मांगलिक भवन के ठीक सामने, बालाजी मन्दिर के बाहर इनकी दुकान है। इन्हें नीमच के व्यापारी समुदाय और अग्रवाल समाज में पहली पंक्ति में जगह हासिल है। वे मोबाइल नम्बर 94240 36448 तथा 70004 65156 पर उपलब्ध हैं। 


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