अन्धा शेर (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की अठारहवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की अठारहवीं कहानी
 
यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



अन्धा शेर

इस कहानी को लिखने की जितनी भी कोशिशें प्रखर बाबू ने कीं उतनी ही विफलता उनके हाथ लगी। हर बार वे कोशिश करते और हार-थककर कलम रख देते। कागज सरका देते। दिमाग में बात पकती, बाहर आने को कसमसाती। शिराओं में झनझनाती, पर उनके कागज कोरे-के-कोरे रह जाते। जब से उनके मस्तिष्क में यह कहानी शोभाराम ने डाली है, तभी से वे इसे लिखने की छटपटाहट में विकल बैठे हुए हैं। महीनों से सहज नहीं हो पाए। पहला मानसिक संघर्ष तो उनके मन में इसी बात को लेकर रहा कि वे इस कहानी का शीर्षक क्यो दें? कई शीर्षक उनके मानस-पटल पर उभरे जैसे-कोशिश, प्रयत्न, संकोच, धर्मसंकट, शशोपंज, गर्भपात, भ्रूण-हत्या वगैरह-वगैरह, पर वे किसी भी शीर्षक को तय नहीं कर पाए। एक शीर्षक ‘लिहाज’ भी ध्यान में आया, पर फिर कुछ सोच-साचकर, कागजों को कोरा ही सरकाकर अपना पठन-पाठन करने लगे। कहानी बनी नहीं। बन तो गई पर बाहर नहीं आई। इस कथानक पर उन्होंने अपनी पत्नी से भी बहस की। पत्नी बेचारी क्या करती? वे जब-जब लिखने को बैठते, वह समय भाँपकर चाय का प्याला आगे रख देती। बच्चों को कमरे में जाने से रोक लेती। वातावरण को अनुकूल रखती। टेलीफोन का चोंगा परे रख देतीं। कोई भी मिलने-जुलनेवाला आता तो बाहर से ही उसे रुखसत कर देती। तब भी  महीनों हो गए, प्रखर बाबू कहानी पर कलम नहीं चला पाए। पत्नी ने एक दिन बड़ा चोटिल विनोद भी कर लिया। कह पड़ी, ‘लगता है, गर्भाधान ही नहीं हुआ, वरना नौ महीने दस दिन में तो जटिल-से-जटिल प्रकरण में भी प्रसव हो जाता है। अब इस प्लाट को लेकर कोई सीजेरियन तो करने से रहा! कहानी साल भर से ठक-ठक कर रही है, पर दरवाजा ही नहीं-ख़ुला देवता! लगता है, सरस्वती ने दरवाजे पर ताला लगा दिया है।’ और प्रखर बाबू हँसकर रह जाते। कलम चलती नहीं।

इस बीच शोभाराम उनसे पचास बार मिल लिया होगा। जब-जब मिलता, पूछता, ‘प्रखर भाई! बनी कुछ बात?’ और प्रखर बाबू शोभाराम को आश्वस्त करते कि ‘बनेगी, बनेगी, शोभाराम। बात जरूर बनेगी।’ शोभाराम का एक ही आग्रह था कि कहानी में उसका नाम शोभाराम ही रखा जाए। कोई काल्पनिक नाम उसके चरित्र को नहीं दिया जाए।

कथानक का दूसरा पक्ष कुछ ज्यादा ही उलझानेवाला था। प्रखर महाशय ने शोभाराम को वचन दे रखा था कि वे उसका नाम शोभाराम ही लिखेंगे। पर कहानी में एक और पात्र करीब-करीब केन्द्र में था। वह था डा. खरे जैसा अतिप्रतिष्ठित और लोकप्रिय चरित्र। शोभाराम के कारण डॉ. खरे को भी यह जानकारी-मिल गई थी-कि प्रखर बाबू उनको और शोभाराम को लेकर किसी कहानी का ताना-बाना बुन रहे हैं। इस सूचना से डॉ. खरे खुश थे। चाहते वे भी थे कि कहानी में उनका जिक्र हो। वे देखना यह चाहते थे कि उनके चरित्र को लेकर कहानीकार चित्रण कैसा करता है। अगर उनका चरित्र विकृत हो गया तो वे न तो शोभाराम को छोड़ेंगे और न प्रखर बाबू को। दोनों की ऐसी-तैसी करके ही दम लेंगे। 

कहानी में अगर उसके बीज तत्व पर नजर डाली जाए तो विशेष कुछ भी नहीं था। न बात न बात का नाम। पर अगर इस बीज को सही जमीन मिल गई और उस बीज को शब्द का सिंचन सही-सही मिल गया तो कहानी जरूर बनाई जा सकती है। ऐसा प्रखर महाशय सोचते रते थे।

वह बीज आखिर था कौन सा? उसकी प्राणवत्ता आखिर थी कैसी? पच्चीस-तीस साल पहले सरकारी नौकरी पर आए थे। जैसा कि उनका सरनेम खरे है, वे उसके अनुरूप सचमुच में भी खरे निकले। खरे यानी खरे-खट्ट। न किसी से लगाव, न किसी से दुराव। मरीज का इलाज करना और अपने काम से काम रखना। अपनी फीस लेना और मरीज को तन्दुरुस्त रखने को पूरी कोशिश करना। उनके विभाग में कहीं किसी जिला अधिकारी से उनका कुछ कहना-सुनना हो गया और सरकार ने उनका तबादला इस शहर से बहुत दूर, प्रदेश के दूसरे छोर पर कर-दिया। वैसे भी खरे साहब इस प्रदेश के रहनेवाले नहीं थे। वे पड़ोसी, प्रदेश के निवासी थे और आज भी हैं पर इस शहर में जनता से उनका लाग-लगाव इलाज को लेकर कुछ ऐसा हो गया कि गाँववाले नहीं चाहते थे कि वे यहाँ से चले जाएँ। गाँव के लोगों ने भाग-दौड़ की। कई दिनों तक हलचल रही, पर डॉ. खरे का तबादला स्थगित नहीं हुआ, सो नहीं ही हुआ। गाँववालों ने डॉ. खरे को पटा-पुटू कर उनसे इसी शहर में ही अपना निजी अस्पताल खोलने का आग्रह किया, और डॉ. खरे ने इसे मान भी लिया। सरकार की नाक पर चूना लगाता हुआ डॉ. खरे का अस्पताल धड़ल्ले से चल निकला। इस शहर में इस तरह निजी डॉक्टरों के नाम पर डॉ. खरे पहले एम. बी. बी. एस. डॉक्टर रहे। पर एक बदलाव लोगों ने देखा। धीरे-धीरे डॉ. खरे ने खुद को शहर में जमते-जमाते यह भी समझ लिया कि अब वे यहाँ न तो सरकारी नौकर हैं, न पड़ोसी प्रान्त से आए कोई परदेशी। अब वे यहीं के नागरिक हैं, यहीं के निवासी हैं और यहाँ रहना उनकी स्थायी नियती है। उनके और उनके बाल-बच्चों तथा परिजनों के जीवन के सभी सोलह संस्कार यहीं होंगे। वे केवल नागरिक ही नहीं, निवासी भी हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक बदलाव था और इसका प्रभाव डॉक्टर खरे के रोजमर्रा के अपनत्व पर पड़ना एक सहज बात थी। खरे साहब का अस्पताल कुछ ऐसा चला कि बस, पूछिए ही नहीं।

शोभाराम इस अस्पताल में एक दिन खुद बीमार होकर दाखिल हुआ। खरे साहब ने शोभाराम को जाँचा-परखा, देखा-भाला और कहा, ‘शोभाराम! जब तक मैं जिन्दा हूँ, तू मरेगा नहीं। चिन्ता मत कर। अपने परिवारवालों को तंग मत कर।’ और उसे अस्पताल में भर्ती कर लिया।

सात-आठ दिन शोभाराम डॉक्टर खरे के इलाज में रहा। जब वह जाने लगा तो उसने चाहा कि खरे साहब अपना बिल वसूल कर लें। खरे साहब उसकी पीठ ठोकते हुए बोले, ‘अच्छा तो तुझे भगवान ने किया है। मैंने तो बस, ईश्वर के आदेश का पालन किया है। कोई पैसा-वैसा नहीं। तेरा मन  पड़े, उतना पैसा रेडक्रॉस के डिब्बे में डाल देना। जा, अपनी खेती-बाड़ी देख।’

शोभाराम के लिए यह पहला अनुभव था। उसने डॉ. खरे से कहा, ’डॉक्टर साहब! जब मैं आया था तब आपने कहा था कि जब तक मैं जिन्दा हूँ तब तक आप मुझे मरने नहीं देंगे। अब अगर यही बात है तो एक बात मेरी भी सुन लो।’ शोभाराम का इतना कहना भर था कि डॉ. खरे के अस्पताल की सारी हलचल ठप हो गई।

खरे साहब ने कहा, ‘बोल भाई! मुझे दूसरा मरीज देखना है, जल्दी कर।

शोभाराम बोला, ‘जब तक आप जिन्दा हैं तब तक अगर मैं मरूँगा नहीं, तो डॉक्टर साहब! यह भी बात पक्की मान लो कि जब तक मैं जिन्दा हूँ तब तक इस अस्पताल की शान के खिलाफ अगर कहीं कोई आवाज शोभा के कान में भी पड़ी तो शोभा जान पर खेल जाएगा!’ और शोभाराम अपने  घरवालों के साथ अपने ट्रैक्टर पर बैठकर अपने गाँव के लिए रवाना हो गया।

भीतर की बात यह थी कि डॉ. खरे को शोभाराम की पब्लिसिटी वैल्यू की जानकारी हो चुकी थी। वे समझ गए थे कि इस अस्पताल को यशस्वी रखने के लिए जहाँ उपचार और उनका डॉक्टरी अनुभव जरूरी है, वहीं कुछ ऐसे लोग भी जरूरी हैं जो इन बातों की चर्चा यहाँ-वहाँ करते रहें। इस मायने में शोभाराम एक महत्वपूर्ण आदमी था। 

शोभाराम चूँकि इसी अंचल का रहनेवाला था इसलिए अकसर प्रखर बाबू से उसका मिलना-जुलना होता रहता था। शहर से यही कोई चार-पाँच किलो मीटर दूर के एक छोटे से गाँव का निवासी शोभाराम अत्यन्त बड़बोला और वाचाल आदमी था। उसके बारे में तरह-तरह की कहावतें बन गईं थीं। प्रचलित बात यह थी कि विक्रम पंचांग पर संवत-मिती लग सकती है पर शोभाराम की बात पर कहीं कोई संवत-मिती नहीं लगती है। अगर उसने बोलना शुरु कर दिया तो फिर पूर्णविराम का कोई सवाल ही नहीं है। बातचीत की शैली उसकी इतनी दिलचस्प और अपनेपन से भरी हुई थी कि सुननेवाला बस, उसी का होकर रह जाता था । एक तरह से वह सभाजीत आदमी था। जहाँ शोभाराम होता वहाँ बस वह-ही-वह हुआ करता था। उसके गाँव को उसपर गर्व था। गाँव में कोई भी मेहमान किसी के भी यहाँ आता तो उसे शोभाराम से अवश्य मिलाया जाता। अगर शोभाराम को पता भी चल जाता कि अमुक परिवार में कोई अतिथि आया हैं, तो शोभाराम अपने घर से चाय की केतली, गरमागरम चाय से भरकर, कप-बसी बजाता हुआ मेहमान के सामने जाकर खड़ा हो जाता था। बात-बात में अपनी जनेऊ को कुरते से बाहर खींचकर कसम खाना शोभाराम की आदत थी। सुर उसका हमेशा ऊँचा रहता था। वह कभी लो वॉल्यूम में बोला ही नहीं। बातों में दृष्टान्तों और लोक-कथाओं तथा बोध-कथाओं के टुकड़े वह ऐसे फिट कर-देता था कि जो भी सुनता, वह सुनता ही रह जाता। वह खुद भी कहता था कि मैं बात शुरु करना तो जानता हूँ, पर बात को समाप्त कहाँ करना है, यह मैं सीख नहीं पाया। मैं अगर कुछ पढ़-लिख जाता और बात को खत्म करने की कला सीख लेता तो देश का उच्च कोटि का कथाकार होता। मेरा ब्राह्मण होना सार्थक हो जाता। पर अब किया भी क्या जा सकता है।

इसके बाद शोभाराम का डॉ. खरे साहब के अस्पताल पर रोज का आना-जाना हो गया। मरीजों की भीड़ में स्वस्थ शोभाराम चुपचाप बैैठा-बैठा ही इस बात का अध्ययन करता रहता कि आज डॉ. खरे ने किस मरीज के साथ किस तरह का सलूक किया। हालाँकि शोभाराम का इससे लेना-देना कुछ था नहीं। वह अपने घर का खाता-पीता एक भद्र और भला आदमी था, पर गहरे मन से चाहता था कि डॉ. खरे का अस्पताल खूब चले और भगवा डॉक्टर खरे के हाथ की यश-रेखा को और अधिक लम्बी और गहरी करे। अपनी खेती-बाड़ी और लेन-देन को लेकर शोभाराम का तीन-चौथाई दिन इस शहर में ही निकलता था। वह अजार-बजार के काम निपटाकर थोड़ा-बहुत वक्त अस्पताल के आस-पास ही बिताता था।

गाँव से चला और गाँव में वापस जाता तो साइकिल को रोककर वह अपने गाँव के खेड़ापति हनुमान के मन्दिर पर ठहरता। अपनी शैली में हनुमानजी से दो बातें करता और फिर अपनी दिनचर्या को आगे बढ़ता। जब वह शहर में नहीं आता तो उसका सारा दिन इन हनुमानजी महाराज के मन्दिर की चबूतरियों पर ही बीतता। यह शोभाराम का नियम नहीं, उसकी जीवन-शैली थी। वहाँ पर भी वह आते-जाते लोगों को रोक लेता। उनसे गप लड़ाता और अपना मुख्य श्रोता हनुमानजी को मानकर जनेऊ निकालकर शपथ उठाता और अपनी बातों की प्रामाणिकता सिद्ध करता रहता था। इन बातों में वह दो-चार बार डॉ. खरे और उनके अस्पताल की प्रशंसा अवश्य करता।

धीरे-धीरे शोभाराम ने डॉ. खरे में आते बदलाव को सतह पर आते देखा। बदलाव बेशक बहुत धीमा था, पर उसका असर जन-चर्चाओं में शोभाराम के कहे के खिलाफ तो पड़ता ही था। कई बार ऐसा भी हो गया कि डॉक्टर साहब ने अपने मरीज के हित में, उस पर अपना अधिकार मानते हुए, इलाज करते-करते मरीज के मानवीय असहयोग पर दो-एक तमाचे रसीद कर दिए। पहले ऐसा यदा-कदा होता था, फिर महीने में दो-चार बार होने लगा। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि दूसरे प्रतिद्वन्द्वी डॉक्टरों ने इस तरह मार खाए मरीजों को पुलिस थाने की ओर धकेल दिया। डॉ. खरे की प्रतिष्ठा पर चोट करने की कोशिश की। होते-होते डॉ. खरे की छवि कुछ इस तरह की बन चली कि वे जब-तब अपने मरीजों और मरीजों के साथ आनेवाले पारिवारिक सदस्यों के साथ चिढ़कर दुर्व्यवहार और मार-पीट कर बैठते हैं। एक दिन, आधी रात को आए मरीज के साथी ने जब बार-बार डॉ. खरे के दरवाजे की घण्टी बजाई तो डॉ. खरे ने खीजकर उस घण्टी बजानेवाले का स्वागत ही डण्डे से किया। सारा सीन देखकर, ट्रेक्टर-ट्राली में जो मरीज पड़ा हुआ था वह ट्राली से कूदकर अँधेरी रात में सामनेवाली सड़क पर सरपट दौड़ लगाकर भाग गया।

डॉ. खरे ने गुस्से से कहा, ‘इसी मरीज के लिए तू इतनी घण्टियाँ घनघना रहा है? देख! वो तो तुझसे भी ज्यादा कुलाँचे भर रहा है!’ और उस मरीज को कोई चार-पाँच सौ गज दूरी से पकड़कर वापस अस्पताल लाया गया। इलाज तो खैर हुआ ही सही, पर इस तरह की घटनाओं ने शोभाराम को विचलित कर दिया। अपने ही मरीजों और उनके साथ आनेवाले परिजनों के साथ डॉ. खरे का यह व्यवहार शोभाराम के लिए, और खासकर उसके भीतर के ब्राह्मण जीव के लिए अधर्म के दायरे में आता था। शोभाराम कहा करता था कि ‘जैसा भी हो, मरीज जिए या मरे पर मरीज आखिर डॉक्टर साहब को फीस देता है और उस फीस से डॉक्टरों की रोटी चलती है। माना कि मरीज किसी डॉक्टर का अन्नदाता नहीं होता, पर मरीज भी मनुष्य तो होता ही है।

कुछ इसी तरह का सिलसिला चलता रहा। एक दिन शोभाराम ने शाम को शहर से अपने गाँव जाते समय अपने साथ साइकिल पर चल रहे दूसरे ग्राम-बन्धु से अपनी शैली में डॉ. खरे के लिए कह दिया कि-‘कुछ भी हो, डॉ. खरे आदमी खरा है, भला है, भद्र है। और इस इलाके का शेर है।’

साथी ने कहा, ‘डॉक्टर शेर तो है, पर यार शोभाराम! यह कैसा शेर है, जो जब-तब अपने ही मरीजों पर हाथ उठा देता है?’ बात में कहीं कोई गाँठ या कुटिलता नहीं थी। मन दोनों के साफ थे। पर शोभाराम के मुँह से निकल गया, ‘भैया! यह डॉ. खरे शेर तो है, पर यह शेर, अन्धा शेर है। जब इस शेर को कुछ सूझता नहीं है तो यह अपने ही लोगों पर आ पड़ता है। और अन्धा शेर हमला करता है तो फिर पहचानता नहीं है कि सामनेवाला उसका क्या लगता है।’ बातें करते-करते रास्ता कट गया। शोभाराम अपने घर और वह अपने घर। 

चलते-फिरते बात डॉ. खरे तक पहुँची कि शोभाराम ने खरे साहब को ‘अन्धा शेर’ कह दिया है। वे मरीज देख रहे थे। उन्होंने मरीज को छोड़ा और अपने सफाई कर्मचारी शंकर को आवाज दी ‘शंकर!’

डॉ. खरे की आवाज में शेर की दहाड़ थी। शंकर काँपता हुआ आया। खरे साहब ने कहा, ‘जा, ड्राइवर से कह कि वह जीप स्टार्ट करे। जैसा भी  हो, जहाँ भी हो, उस शोभा को पकड़कर मेरे सामने ला। कहना कि मैंने उसे तत्काल बुलाया है।

शंकर न जाने क्या-क्या सोच बैठा। 

दस मिनट का ही तो रास्ता था। जीप ठीक शोभाराम के घर के सामने रुकी। गाँव के लोग जीप के आस-पास इकट्ठे हो गए। आखिर शोभाराम के यहाँ अस्पताल की जीप क्यों आई ? शोभाराम भीतर खाना खा रहा था।

शंकर ने बाहर से ही आवाज लगाई, ‘शोभाराम दादा! ओ ऽ शोभाराम दादा!!’

‘कौन?’ शोभाराम ने भीतर से ही पूछा।

‘मैं शंकर भंगी। चलो, डॉक्टर साहब बुला रहे हैं।’ शंकर बोला।

शोभाराम ने भीतर से ही कहा, “क्या ‘भंगी-भंगी’ कर रहा है! जानता नहीं है कि सरकार ने भंगी को भंगी कहने पर रोक लगा दी है? कहना ही है तो खुद को ‘मेहतर’ कह, ‘सफाई कामगार’ कह। ठहर जा, आता हूँ।”

पाँच-सात मिनट में शोभाराम बाहर आया। मन-ही-मन सोचता रहा कि एक ब्राह्मण के घर बुलाने भेजा भी तो डॉक्टर साहब ने किसे भेजा! उसका सवर्ण झनझना पड़ा। बोला, ‘क्या बात है?’

शंकर बोला, ‘अपने देवी-देवता मना लो, पण्डितजी! आज डॉक्टर साहब आपका खाया-पिया निकाल देंगे। बहुत बड़बड़ करते रहते हो।’ उसने आखिर तक नहीं बताया कि बात क्या है। कहा कि बस चलो, और इसी वक्त चलो।

गाँववालों ने समझा कि आज मामला आर-पार का ही होकर रहेगा। या तो शोभाराम अस्पताल में मिलेगा या फिर पुलिस थाने में। खरे साहब की नाराजी के दो ही मतलब निकलने लगे थे। 

शोभाराम ने जीप को हनुमानजी के मन्दिर के पास रुकवाया। हनुमानजी से साफ-साफ शब्दों में कहा, ‘अंजनीलाल! अगर सब ठीक-ठाक रहा तो मैं वापस आते समय आपके सामने सुन्दरकाण्ड का पूरा पाठ करूँगा और घर जाकर रात को सत्यनारायण की कथा करवाऊँगा। और अगर बात बिगड़ गई तो.....।’ और यह पहला अवसर था, जब शोभाराम अपना वाक्य पूरा नहीं कर सका। वह मन्दिर से बाहर निकल आया। जीप में बैठा। और जीप दस-बारह मिनट में डॉ. खरे के अस्पताल के सामने आकर खड़ी हो गई। अस्पताल में मरीजों की भारी भीड़ थी। 

डॉ. खरे ने सारा काम रोक लिया। शोभाराम से पूछा, “क्यों शोभाराम! तूने मुझे ‘अन्धा शेर’ कहा?”

एक क्षण को शोभाराम सकपकाया। सारी बात उसके दिमाग में कौंध गई। उसने मन-ही-मन चौपाई पढ़ी-‘नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरन्तर हनुमत बीरा। भूत पिशाच निकट नहीं आवै, महाबीर जब नाम सुनावै।’

डॉ. खरे दहाड़े, ‘बोलता क्यों नहीं है? कहा या नहीं?’

‘हाँ, मैंने कहा कि आप अन्धे शेर हैं।’ शोभाराम ललाट का पसीना पोंछते हुए बोला।

‘क्यों कहा?’ डॉ. खरे का सीधा सवाल था। भीतर वाले मरीज बाहर आ गए थे और सड़क पर जाते हुए लोग ठहरकर अस्पताल के आँगन में जुट गए थे।

‘कहा इसलिए कि आप पर जब-जब चिढ़ और गुस्से का अन्धापन सवार होता है तब-तब आप यह भी नहीं देखते हो कि आपका हाथ किस पर उठ रहा है? आप जिसके साथ बदसलूकी कर रहे हैं, वह अपना है या पराया? और शेर तो आप हैं हीं। क्या आप शेर नहीं हैं? आपने कभी सोचा कि कहीं सामनेवाले का भी हाथ उठ गया तो क्या होगा?’

डॉ. खरे शोभाराम का मुँह देखते रह गए। 

शोभाराम ने फिर कहा, ‘आप एक काम करो डॉक्टर साहब! यह बाहरवाला बोर्ड बदलवा दो। इसपर पेंटर से लिखवा दो-‘डॉ. खरे का पुलिस थाना!। लोग अस्पताल मानकर यहाँ पच्चीस साल से आ रहे हैं। आपने धीरे-धीरे इसे अस्पताल से थाने में बदल दिया है। जैसे प्राइवेट अस्पताल होते हैं, एक प्राइवेट थाना भी सही।’

डॉ. खरे का गुस्सा काफूर हो गया। बोले, ‘अच्छा शोभाराम! जा, एक पान लाकर मुझे खिला।’ और भीड़ बिखर गईं। शोभाराम सामने पान की दुकान पर चला गया। ।

डॉ. खरे के व्यवहार में कुछ बरसों से एक बदलाव यह भी आ गया था कि वे जिसपर बिगड़ जाते उस पर हाथ उठा देते, पर जिससे खुश होते उससे एक पान मँगवाकर आधा खुद खाते और आधा सामनेवाले को भी खिलाते।

शोभाराम ने अपने गाँव लौटतेे समय हनुमानजी के सामने बैठकर सुन्दरकाण्ड का पाठ किया। रात हो सत्यनारायण की कथा करवाई। डॉ. खरे का अस्पताल पहले भी चल रहा था और आज भी चल रहा है। यह जरूर है कि यदा-कदा उनके कान पर ‘अन्धा शेर’ जैसा नाम पड़ जाता है।

मात्र इतनी सी बात पर कहानी किस तरह लिखी जाए? प्रखर बाबू बार-बार सोचते रहे कि उनके और डॉ. खरे के पारिवारिक और निजी रिश्तों को देखते हुए उन्हें यह लिखना भी चाहिए या नहीं। लिखेंगे तो डॉ. खरे क्या सोचेंगे। कहानी का नायक कौन होगा - शोभाराम या डॉ. खरे? कथानक के अथ और इति कैसे होंगे? वे विचारमग्न हो गए। आज तक सरपट चलनेवाली उनकी कलम रह-रहकर ठिठकने लगी। वे शीर्षक ही तय नहीं कर पाए। खैर, शीर्षक तो बाद में भी बन जाएगा, पर कहानी पाठकों को कैसी लगेगी? जनजीवन पर इसका प्रभाव क्या होगा? कहीं लिहाज टूट तो नहीं जाएगा? आखिर किसी कहानी का धर्म क्या होता है? कहानी, कहानी रहेगी या नहीं? वह कहीं उपदेश तो नहीं बन जाएगी? वे सोचते-सोचते शून्यलोक में चले गए।

उनको चेत तब आया जब पत्नी ने कहा, ‘अब उठो भी। नहा-धोकर खाना खा लो। बात नहीं बनती है तो रखो कलम। सरकाओ कागजों को। क्या लिखने का ठेका आपने ही ले रखा है?’

प्रखर बाबू ने इतना ही कहा, ‘भली मानस! तुझे क्या पता कि मैं किस पीड़ा से गुजर रहा हूँ! तुझे क्या पता कि मेरा मानसिक उद्वेलन किस बात को

लेकर है! तू कब समझेगी कि मेरी सरस्वती आज मुझपर किस व्यंग्य से देख रही है!’ और उन्होंने कागजों को सरकाते-हुए कहा, ‘चलो, फिर कभी लिखेंगे, पहले सरस्वती माता को पहले जैसी ही ममतालु हो जाने दो।’

और प्रखर बाबू नहाने के लिए उठ गए।

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‘बिजूका बाबू’ की सत्रहवी कहानी ‘गंगोज’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की उन्नीसवी कहानी ‘पुल पर एक शाम’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली 
 


 

 

 

     

     

     

     

 

 



  

 


   

  

  

 

 

 

   

 

 



  

      

   

 

       

     

 



  


 

 

 



 

   

 


   

 

 

    

 

     

   

    

      

 

    

     

      

    

     


 


   


    

 

 


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