चौमासा इस बार (मत करो आवारागर्दी )



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ 
की इकानब्बेवी कविता


यह कविता संग्रह
पाठकों को समर्पित किया गया है।


चौमासा इस बार
(मत करो आवारागर्दी )

बरसों बाद आये हो मेरे सावन!
भादों भरे मेरे पाहुन पावन!!
तो आओ बैठो
क्षितिज से क्षितिज तक
खुला है सारा आँगन।

खुले मन से मन की बात करो
बेशक दिन और रात करो
बरसना चाहो तो
मुक्त बरसो-उन्मुक्त बरसो
पर मत करो आवारागर्दी
मत कोई उत्पात करो।

डराओ मत
पहले से ही सहमे बैठे
धरती माँ के घर-परिवार को
समझो प्यास से तड़फती
दर-ब-दर दरकती
एक-एक दरार को।

मैं समझ गया कि
राह नहीं भूले 
पर कहीं भटक गये
हो न हो 
किसी रामटेक पर
यक्षप्रिया के गवाक्षों में
अटक गये थे।
देखो न?
जब तक तुम नहीं आये
तुम पर हँसता रहा अकाल
खुले नहीं मेरे बाजार
हाँ, दूकानें खुलती जरूर थीं
पर चलती नहीं थी।

चलती भी कैसे?
लाचार था, आकाश पर
आश्रित धरती का बेटा
उसके सिक्के सारे थे
तुम्हारे पागल बादलों की जेबों में।

बदल गये उन सिक्कों के
सन्- सम्वत्
जेबों की जेबों में मर गये।
पता नहीं
तुम्हारे होते हुए
तुम्हारे बादल बच्चे
ऐसा कैसे कर गये?

पर अब तुम आये हो तो
स्वागत है तुम्हारा
लेकिन अब ऐसा मत करना
दुबारा।

अब अतिथि की शालीनता को पालो
और अपनी गैर हाजिरी की
कसर यूँ मत निकालो
कि तुम्हारा मेजबान
मेरा हलधर डर जाये
और तुम्हारे बिना भी
जिन्दा रह सकने वाला
तुम्हारी खातिरदारी में ही
मर जाये।
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जैसा कि दादा श्री बालकवि बैरागी ने ‘आत्म-कथ्य’ में कहा है, इस संग्रह ‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की कई रचनाएँ अन्य संग्रहों में पूर्व प्रकाशित हैं। इसलिए यहाँ, उन सब कविताओं को एक बार फिर से देने के बजाय उनकी लिंक यहाँ दी जा रही हैं। सम्बन्धित कविता की लिंक क्लिक करने पर कविता पढ़ी जा सकती है।

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अट्ठाईसवी कविता ‘हम हैं सिपहिया भारत के’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनतीसवी कविता ‘आह्वान’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तीसवी कविता ‘दो-दो बातें’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकतीसवी कविता ‘गोरा-बादल’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बत्तीसवी कविता ‘मेरे देश के लाल हठीले’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तैंतीसवी कविता ‘हम बच्चों का है कश्मीर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौंतीसवी कविता ‘नई चुनौती जिन्दाबाद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पैंतीसवी कविता ‘नये पसीने की नदियों को’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छत्तीसवी कविता ‘अन्तर का विश्वास’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सैंतीसवी कविता ‘मधुवन के माली से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़तीसवी कविता ‘देख ज़माने आँख खोल कर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनचालीसवी कविता ‘छोटी सी चिनगारी ही तो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चालीसवी कविता ‘ऐसा मेरा मन कहता है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकतालीसवी कविता ‘काफिला बना रहे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बयालीसवी कविता ‘माँ ने तुम्हें बुलाया है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तरालीसवी कविता ‘रूपम् से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चव्वालीसवी कविता ‘उमड़ घुमड़ कर आओ रे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पैंतालीसवी कविता ‘मेघ मल्हारें बन्द करो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियालीसवी कविता ‘एक गीत ज्वाला का’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सैंतालीसवी कविता ‘जो ये आग पियेगा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़तालीसवी कविता ‘फिर चुपचाप अँधेरा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनपचासवी कविता ‘तरुणाई के तीरथ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचासवी कविता ‘अधूरी पूजा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इक्यावनवी कविता ‘अंगारों से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बावनवी कविता ‘एक बार फिर करो प्रतिज्ञा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तरेपनवी कविता ‘अग्नि-वंश का गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौपनवी कविता ‘चिन्तन की लाचारी’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचपनवी कविता ‘कोई इन अंगारों से प्यार तो करे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छप्पनवी कविता ‘इस वक्त’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सत्तावनवी कविता ‘उनका पोस्टर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अट्ठावनवी कविता ‘घर से बाहर आओ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनसाठवी कविता ‘मरण बेला आ गई त्यौहार है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की साठवी कविता ‘चलो चलें सीमा पर मरने’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इसठवी कविता ‘आई नई हिलोर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बासठवी कविता ‘हौसला हमारा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिरसठवी कविता ‘युवा गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौंसठवी कविता ‘हिन्दी अपने घर की रानी’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियासठवी कविता ‘ज्ञापन: अतिरिक्त योद्धा को’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सड़सठवी कविता ‘बन्द करो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़सठवी कविता ‘क्रान्ति का मृत्यु-गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनसत्तरवी कविता ‘ठहरो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सत्तरवी कविता ‘आस्था का आह्वान’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकहत्तरवी कविता ‘समाजवाद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बहत्तरवी कविता ‘रात से प्रभात तक’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिहत्तरवी कविता ‘सीधी सी बात’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौहत्तरवी कविता ‘आत्म-निर्धारण’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचहत्तरवी कविता ‘आलोक का अट्टहास’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियोत्तरवी कविता ‘माँ ने कहा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अठहत्तरवी कविता ‘महाभोज की भूमिका’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उन्यासीवी कविता ‘चिन्तक’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अस्सीवी कविता ‘गन्ने! मेरे भाई!’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इक्यासीवी कविता ‘जीवन की उत्तर-पुस्तिका’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बयासीवी कविता ‘पर्यावरण प्रार्थना’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिरयासीवी कविता ‘एक दिन’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौरियासीवी कविता ‘एक और जन्मगाँठ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पिच्यासीवी कविता ‘जन्मदिन पर-माँ की याद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियासीवी कविता ‘पेड़ की प्रार्थना’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सित्यासीवी कविता ‘रामबाण की पीड़ा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इट्ठ्यासीवी कविता ‘पर जो होता है सिद्ध-संकल्प’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उन्नब्बेवी कविता ‘उठो मेरे चैतन्य’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इठ्यानबेवी कविता ‘वंशज का वक्तव्य: दिनकर के प्रति’ यहाँ पढ़िए






संग्रह के ब्यौरे -
मैं उपस्थित हूँ यहाँ: छन्द-स्वच्छन्द-मुक्तछन्द-लय-अलय-गीत-अगीत
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
एक्स-30, ओखला इण्डस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली-110020
वर्ष - 2005
मूल्य - रुपये 95/-
सर्वाधिकार - लेखकाधीन
टाइप सेटिंग - आर. एस. प्रिण्ट्स, नई दिल्ली
मुद्रक - आदर्श प्रिण्टर्स, शाहदरा



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
 



























सदुपयोग (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की ग्यारहवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की ग्यारहवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



सदुपयोग

आज फिर वही हुआ।

गए कई हफ्तों से यही होता आ रहा है और आज फिर वही हो गया। अवधलाल आया और ‘भास्कर’ का, केवल अखबारवाला हिस्सा चुपचाप दरवाजे की दरार के नीचे से सरका गया। इस अखबार का हर पाठक जानता है कि बुधवार के दिन ‘भास्कर’ अपने साथ ‘मधुरिमा’ परिशिष्ट भी लाता है। परिशिष्ट भी बिना किसी मूल्य के। पर गए कई बुधवारों से अवधलाल यही कर रहा है। वह ‘मधुरिमा’ परिशिष्ट रख लेता है। सिर्फ रोज जैसा अखबार सरकाकर चल देता है। 

अवधलाल यानी अवधलाल मिश्रा। अवधलाल मिश्रा यानी बकौल अवधलाल, या तो अवधलाल मिसरा या फिर ए. एल. मिसरा। एक दिलचस्प नौजवान। उससे मिलो तो लगे कि किसी जिन्दा ही नहीं, जिन्दादिल आदमी से मिल रहे है। दिन में पता नहीं वह क्या काम करता है, पर बड़ी भोर से सुबह नौ बजे तक अपने शहर के कुछ विशेष इलाकों में तरह-तरह के दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ, उपन्यास, पुस्तकें आदि बाँटता-बेचता है। एक हँसमुख और करीब-करीब दिलफेंक फण्टूश लड़का। मन से नटखट, तन से गोरा-चिट्टा। तीखे नाक-नक्श और घुँघराले बालों को करीने से सजाए-सँवारे, चपल, चंचल, चतुर और दुनियादारी से चौकन्ना। सलीके की पतलून, पतलून में डाला हुआ साफ-सुथरा शर्ट। शर्ट के बढ़िया कॉलर। सामनेवाले दोनों बटन खुले रखकर अपनी सिन्दूरी छाती पर छुआ-छुई खेलते दस-पाँच बालों को दिखाता हुआ। गले में बारीक रुद्राक्ष की पतली धातु में गठी माला दूर से दिखाई दे, इस तरह पहनी हुई। कसे हुए पतले होंठों पर रचा हुआ सुहागपुरी पान और अल्हड़ चाल। ऐसा ही कुछ है अवधलाल। राजधानी के विधायक होस्टलों में अखबार बाँटने का काम उसी के जिम्मे।

तरह-तरह के विधायक, अलग-अलग रुचियों के विधायक, अलग-अलग दलों के विधायक, अलग-अलग दिलों के विधायक, अलग-अलग तेवरों के विधायक, अलग-अलग बोलियों, भाषाओं, धर्मों और कर्मांवाले विधायक। पर सबके सब विधायक तो बस विधायक-ही-विधायक।

ऐसे माहौल में ही चन्दू सेठ का परिचय इस अवधलाल से हो गया। समय-समय पर चन्दू सेठ को अपने छोटे-बड़े कामों से अपने क्षेत्र के विधायकजी से मिलने राजधानी जाना-आना पड़ता था। सेठ अपने विधायकजी के यहाँ ही रुकते थे। सेठ की दिलचस्पी साहित्य, इतिहास या राजनीति में उतनी नहीं थी, पर तरह-तरह के अखबार देखना और पढ़ना चन्दू सेठ का शौक था। इसी शौक ने चन्दू सेठ की जान-पहचान अवधलाल से करवा दी।

विधायकजी के कमरे में कुछ अखबार तो सौजन्य प्रतियों के तौर पर बिना पाई-पैसे के आ जाते थे। पर ये राजधानी के, अपने आपको बड़ा कहनेवाले अखबार भला किस-किसको घास डालें? सबके अपने-अपने फेवरेबल और फेवरेट विधायक होते हैं या हो जाते हैं। सो चन्दू सेठ के विधायकजी के साथ भी यही किस्सा था। जब-जब चन्दू सेठ राजधानी में आते, वे आठ-दस अखबार कायदे से खरीदते। बीस-बाईस रुपए रोज के अखबार। इस अतिरिक्त सप्लाई के लिए अखबारवाले को कहना जरूरी पड़ता था। चन्दू सेठ ने एक दिन खुद को बड़ी भोर जगाया और ज्यों ही उन्हें किवाड़ों की दरार से अखबार भीतर आने की सरसराहट सुनाई पड़ी, उन्होंने दरवाजा खोला और अखबारवाले को भीतर बुला लिया। बुलाकर सोफे पर बैठाया और पूछा -

‘क्या नाम है?’

‘अवधलाल।’

‘खाली अवधलाल?’

“जी नहीं, अवधलाल मिश्रा। आप मुझे ए. एल. मिश्रा भी कह सकते हैं। पर अगर आप हमें  ‘अवधलाल मिसरा’ कहेंगे तो हमे समझने में और आपको बोलने में भी आसानी रहेगी। हमें खाली ‘मिसरा’ मत कहिएगा। या तो ‘अवधलाल’ कहें या फिर ‘अवधलाल मिसरा’ कहें। वैसे आप हमें ‘ए. एल.’ भी कह लें तो चलेगा।” अवधलाल ने पूरी भूमिका के साथ स्वयं को स्पष्ट कर दिया।

‘कौन-कौन से अखबारों के हॉकर हो?’ सेठ ने पूछा।

“हॉकर नहीं, ‘डिस्ट्रीब्यूटर’ हैं। हॉकर हल्ला करके बेचते हैं, डिस्ट्रीब्यूटर वितरण करते हैं। हॉकर हाथों-हाथ पैसा लेते हैं। डिस्ट्रीब्यूटर महीने भर का बिल एक साथ देते हैं और अपना बिल ‘कलेक्ट’ करते हैं। ‘कलेक्ट’ करने का मतलब ‘वसूल करना’ नहीं होता है। ‘कलेक्शन इज़ समथिंग एल्स।’ हॉकर जिन्दगी भर हॉकर रहेगा डिस्ट्रीब्यूटर इस तरह महीने में एक-दो दिनों के लिए ‘कलेक्टर’ हो जाता है।” और अवधलाल ने हँसते हुए चन्दू सेठ को रोककर पूछा, “आपको बड़ी सुबह कम-से-कम उस आदमी को तो चाय पिला ही देना चाहिए, जिसे आपने उसका काम रोककर अपने कमरे में बुला लिया है। आपके विधायकजी से मुझे यह सब ‘कलेक्टरी’ के दिन कहना पड़ेगा।”

और चन्दू सेठ अवधलाल का मुरीद हो गया। जब-जब चन्दू सेठ राजधानी में होता, अवधलाल के पच्चीस-तीस रुपए तक के अखबार खुदरा के  बदले एक ही साथ थोक में, बिक जाते। इस मनोविज्ञान का लाभ अवधलाल ने यह उठाया कि वह चन्दू सेठ को कभी गुजराती तो कभी अंग्रेजी तो कभी उर्दू तक के अखबार थमा जाता। चन्दू सेठ उन भाषाओं से अपनी अनभिज्ञता प्रकट करता तो अवधलाल ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करता, ‘सारे होस्टल में ले-दे कर एक आप ही तो पढ़े-लिखे और ज्ञानी-मानी सज्जन हैं और ये अखबार आप भी नहीं लेंगे तो वाणी माता कितनी दुःखी होंगी?’ और चन्दू सेठ के घुटने टिक जाते। 

चन्दू सेठ ने एक दिन पूछ लिया, ‘कहाँ के हो, अवधलाल? क्या रीवा के हो?’

‘जी हाँ।’ अवधलाल का उत्तर था।

‘क्या ब्राह्मण हो?’ चन्दू सेठ ने पूछा।

‘जी हाँ।’ अवधलाल का उत्तर था। “मिसरा और क्या होते हैं? क्या आप हमें ‘वो’ समझते हैे?” अवधलाल थोड़ा असहज हो गया, ‘हमारा सारा गाँव ही पण्डितों का है। पट्टी-की-पट्टी ब्राह्मणों की है। एक से एक प्रकाण्ड। आखिर हमारी जात-पाँत में आपकी दिलचस्पी क्यों है?” अवधलाल का अगला सवाल था।

‘हमारे विधायकजी एक ब्राह्मण कन्या के लिए तुम जैसे वर की तलाश चुपचाप कर रहे हैं। उनके एक कार्यकर्ता की सयानी बिटिया उनकी एक समस्या है। उस कन्या की शादी, योग्य वर से करवा देना भी हमारे विधायकजी के घोषणा-पत्र का एक अंग है।’ चन्दू सेठ ने अवधलाल की आँखों में आँखें डाल दीं।

‘चलिए श्रीमान! अब अपने-घोषणा-पत्र को बन्द कर लीजिए हमें हमारी मजदूरी करने दें। मेहरबानी है आपकी।’ और अवधलाल कमरे से बाहर निकल गया। 

जैसे-जैसे दिन बीतते गए, अवधलाल का मनोबन्धन उस कमरे से प्रगाढ़ होता चला गया। अब अवधलाल जब-तब चन्दू सेठ के आगमन के बारे में विधायकजी से भी पूछने लगा।

एक दिन विधायकजी ने अपनी अलमारी के ऊपर पड़े कई किलो रद्दी अखबार की ओर इशारा करते हुए अवधलाल से कहा, ‘मिसराजी! आप ये रद्दी उठा लीजिए। जो भी वाजिब भाव बने, उतने पैसे दे देना।’ 

अवधलाल खिलखिलाकर हँस पड़ा। अपने हाथ और बगल में दबे उसी दिन के ताजा अखबारों की तरफ इशारा करते हुए बोला, ‘विधायकजी! हमसे ये आजवाले अखबार तक तो बिक नहीं रहे हैं और आप हैं कि हमसे पुराने अखबार बेचने की बात कर रहे हैं। कौन लेगा इन अखबारों को आजकल तो थैलियाँ और लिफाफे भी पॉलीथिन के बनने लगे। अब कोई नहीं खरीदता रद्दी-फद्दी। हाँ, इनका कुछ वजन जरूर मैं हलका कर दूँगा। अवधलाल लेता है, देता नहीं। पैसे-वैसे की बात हमसे मत करें।’

विधायकजी की बाँछें खिल गईं। चलो, एक जिन्दादिल आदमी ने बात खुलासे से तो की!

और अवधलाल ने स्टूल सरकाकर ऊपरवाले अखबार नीचे उतारे। छाट-छाँटकर उनमें से ‘भास्कर’ के, ‘मधुरिमा’ परिशिष्टवाले अंक निकाले। उनका अलग से बण्डल बाँधा और विधायकजी को धन्यवाद देते हुए यों कहकर चल पड़ा, ‘सर! कामवाली बाई से ये रद्दी अखबार एक कोने में जमवा लेना। धन्यवाद।’

विधायकजी देखते रह गए।

कुछ दिनों बाद चन्दू सेठ फिर राजधानी में थे। राजधानी में भी विधायकजी के कमरे में ही। और आज फिर वही हुआ, जो कई हफ्तों से होता आ रहा था। ‘भास्कर’ तो अवधलाल सरका गया, पर बुधवार होते हुए भी ‘मधुरिमा’ परिशिष्ट उसने नहीं डाला। 

चन्दू सेठ को अभी तीन-चार दिन और राजधानी में ठहरना था। कम-से-कम अगले सोमवार तक रुकना जरूरी था। महीना समाप्त होने वाला था। चन्दू सेठ को याद आया कि इसी एक या दो तारीख को अवधलाल अखबारों का बिल लेकर ‘कलेक्टरी’ करने जरूर आएगा। विधायकजी के सामने ही बिल में काट-छाँट करके पैसे देना ठीक रहेगा। चाहे ‘मधुरिमा’ निःशुल्क हो, पर अखबार का हिस्सा तो है ही 

और दो तारीख को अवधलाल बाहैसियत ‘कलेक्टर’ विधायकजी के कमरे में था। चन्दू सेठ ने एक भरपूर नजर अवालाल पर डाली। आज अवधलाल के नक्शे कुछ और ही थे। बिलकुल तरोताजा और लहक-महक से सराबोर, अमलतास, कचनार की लहलहाता-महमहाता। चन्दू सेठ ने अवधलाल को सादर बैठाया। विधायकजी से निवेदन किया कि गए कई हफ्तों से अवधलाल ‘भास्कर’ के साथ ‘मधुरिमा’ परिशिष्ट नहीं दे रहा है। उतना पैसा कम करके बिल चुका देना उचित होगा।

अवधलाल मानो रँंगे हाथों पकड़ लिया गया हो। सकपकाकर बोला, ‘मधुरिमा’ वैसे भी बिल में अलग से तो शामिल है नहीं। उसका पाई-पैसा लगता ही कहाँ है, जो आप हमारा पैसा काट रहे हैं। वैसे भी, उसमें होता ही क्या है जो आप उसे पढ़ें! हम तो आपको अखबार भर का बिल दे रहे है।’ “तब फिर हमारी ‘मधुरिमा’ तुम कहाँ फेंकते हो? दूसरे कमरों में ‘मधुरिमा’ सहित क्यों देते हो ‘भास्कर’? आखिर हमारे यहाँ ही यह सेंधमारी क्यों? गए कई हफ्तों से तुम हर बुधवार को यह चोट कर रहे हो। उस दिन भी विधायकजी ने तुमसे रद्दी अखबार निकालने की कही तो तुम उनमें से केवल ‘मधुरिमा’ भर लेकर चलते बने, बाकी सारा गट्ठर तुमने नीचे ही फेंक दिया। मिस्टर अवधलाल! आज बात जरा खुलकर हो जाए, वरना अब हम विधायकजी से भास्करवालों को टेलीफोन करवाएँगे और आपकी ‘कलेक्टरी’ की ऐसी-तैसी करवाकर छोड़ेंगे।” यह चन्दू सेठ का बगली दाँव था।

अवधलाल थोड़ा लजाया। मूँछों और हलकी दाढ़ी की मसमसाहट से मसमसाता उसका चेहरा एकाएक लाल पड़ गया। होंठों पर सुहागपुरी पान की लाली कुछ ज्यादा ही गहरी हो गई। विन्ध्याचल की समूची मासूमियत आँखों में भरकर बोला, ‘ऐसा है सर! वो हम ये मानते हैं कि यह कमरा हमारा अपना ही घर है। आप-हमारे अपने एक तरह से गार्जियन हैं। हमारे हितैषी और भला चाहनेवाले हैं। हमने तो कई जगह इन दिनों आपका पता ही अपने पते के तौर पर दे रखा है।  विधायकजी को हम अपना आशीर्वाददाता जनक मानते हैं और चन्दू सेठ! आपको अपना बड़ा भाई। बात यह है कि यह ‘मधुरिमा’ हम एक मन्दिर में चढ़ाते हैं। यह परिशिष्ट हमारी पूजा में काम  आता है। अब अगर आपकी एक वस्तु का सदुपयोग आपके बाल-बच्चे कर लें तो आपको भला क्या आपत्ति हो सकती है?”

विधायकजी और चन्दू सेठ के लिए चकित होने के लिए इतना बहुत था। ‘भास्कर...मधुरिमा...मन्दिर...पूजा....सदुपयोग....’

यह वह समय था, जब कामवाली बाइयाँ विधायकों के कमरों का झाड़ू-बुहारा, बरतन-पानी करने के लिए आस-पास बरामदों और कमरों में आने-जाने लगी थीं। अवधलाल प्रणाम करके जाने लगा। विधायकजी की कामवाली बाइयाँ कमरे में प्रविष्ट हुईं। दोनों ने पहले अवधलाल को देखा फिर चन्दू सेठ को, फिर विधायकजी को और फिर कनखियों से एक-दूसरे को। वे काम में लगने ही वाली थी कि चन्दू सेठ ने एक बाई से चाय बनाने के लिए कहा। और अवधलाल से कहा, “बैठो पण्डित। अपना पैसा भी लो और चाय भी पियो। तुम्हारा अपना घर है। पर अब बुधवार को ‘भास्कर’ के साथ ‘मधुरिमा’ भी होना चाहिए और जरूर होना चाहिए। ठीक है ना?!”

‘जी, ठीक है। अब नागा नहीं होगा।’ अवधलाल बोला।

झाड़ू लगाती हुई बाई ने अपनी कमर सीधी की। खड़ी हुई और बोली, ‘यहाँ नहीं तो और कहीं होगा, पर ये नागा तो जरूर होगा। यहाँ नहीं तो वहाँ।’

अवधलाल बिना चाय पिए उठने लगा। तब तक चाय लेकर दूसरी बाई भी आ गई।

चन्दू सेठ को बात में रस आने लगा। मन-ही-मन सोचा-हो न हो, शहद का कोई छत्ता है। मधुमक्खियाँ उड़ा दो तो रस टपके। उसने बाई लोगों से कहा, ‘क्या बात है, बाई? मिसराजी कुछ छिपा रहे हैं?’

बात को सिरा मिल गया था। एक बाई फूट पड़ी, ‘काहे का अवधलाल! काहे का मिसरा! काहे का पण्डत! काहे का मरद! और काहे का जवान! इसकी डॉक्टरी जाँच करवाओ, बाबूजी! हमारी झुग्गियों में ये स्साला बुधवार-बुधवार चोरों की तरह आता है और उस विधवा पण्डतानी की जवान छोरी को रंग-बिरंगा अखबार देकर सिर लटकाए लौट जाता है। माँ-बेटी बिचारी ‘मिसराजी, मिसराजी’ करती टेर लगाती रहती हैं और ये सूरमा गली के बाहर पसीना पोंछता खड़ा रह जाता है। पढ़ी-लिखी चाँद-सी बेटी जैसी छोरी और न जात अड़े, न धरम। भला बताओ, ये भी कोई बात हुई! मरद तो अभी तक सुहागरात करके आ जाता।’

और अवधलाल के हाथ से चाय का कप न छूटे, न पकड़ा रह सके। लाल-सुर्ख चेहरा और गोरे ललाट पर यहाँ से वहाँ तक पसीना ही पसीना।

विधायकजी ने सारी स्थिति भाँप ली। उठे और अवधलाल का सिर सहलाते हुए बोले, ‘अवध ! क्या नाम है उसका? जब बात इतनी आगे बढ़ गई है तो फिर कसर किस बात की है? बाधा क्या है? लड़की तुम्हारे मन की है न? चलो, पहले उसका नाम बताओ। उसकी माँ को यहाँ बुलाओ। अपने माता-पिता से कहो। कोई दिक्कत हो तो शादी के कार्डों पर अपनी तरफ से मेरा नाम छाप दो। यहाँ सामनेवाले मैदान में टेण्ट लगवा लो। बताओ! लड़की का नाम क्या है?’

“जी बाबूजी! नाम तो मुझे पता नहीं है, पर मैंने उसे पहले ही दिन नाम दे दिया था ‘मधुरिमा’। अब तो उसकी माँ भी उसे इसी नाम से पुकारती है। वैसे वे लोग तिवारी हैं। हमसे जब-तब वह बस ‘मधुरिमा’ ही मँगाती थी।”

‘तो मिसरा! यह है तुम्हारा मन्दिर। ये है तुम्हारी पूजा! यह है हमारे अखबार के परिशिष्ट का सदुपयोग! आज पता चला कि हमारा परिशिष्ट कहाँ जाता है। चलो, बधाई!’ चन्दू सेठ बोले। 

‘अब चल यहाँ से, लम्बा हो! निकलवा मुहूर्त, छपवा कार्ड। बुला अपने बाप-माँ को। वरना इतने दूँगी झाड़ू कि....’ यह झाड़ूवाली बाई का स्वर था।

शायद अगले बुधवार को वैसा नहीं होगा।

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‘बिजूका बाबू’ की दसवी कहानी ‘ओऽम् शान्ति’ यहाँ पढ़िए

‘बिजूका बाबू’ की बारहवी कहानी ‘अन्तराल’ यहाँ पढ़िए 


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली

 

  

      

    

  

 


   


 

 

 


 

 


   

   


 


     

 



 


माताओं-पिताओं से



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की बीसवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


माताओं-पिताओं से

बीमार बीज को भी देखो
कुछ उस पर भी सन्धान करो।
कोंपल को अपराधी कह कर
मत कोंपल का अपमान करो।

धरती कैसी, पानी कैसा?
उसको कैसा आकाश मिला?
(फिर) माली की नीयत क्या थी?
कितना मादक मधुमास मिला?

क्या करते थे तितली-भँवरे?
पंछी ने क्या व्यापार किया?
क्या चाल-चलन था मौसम का?
किसने कैसा व्यवहार किया?

इल्जाम लगाने से पहिले
कुछ अपनी भी पहचान करो।
कोंपल को अपराधी कहकर
मत कोंपल का अपमान करो।

हर एक बिषमता से लड़ कर
वह लाली लेकर आई है।
न्यौछावर जिस पर सौ सावन
हरियाली लेकर आई है।

इस लाली का, हरियाली का
इसके उजले संघर्षों का।
मूल्यांकन थोड़ा ठीक करो
इसके अभिनव उत्कर्षों का।

मत परखो गलत कसौटी पर
कुछ गुण का भी गुणगान करो।
कोंपल को अपराधी कहकर
मत कोंपल का अपमान करो।

यह वंश-बेल है, गौरव है
है पुनर्जन्म यह खुद अपना।
झाँको तो इसकी आँखों में
शायद हो अपना ही सपना।

संस्कार तुम्हारा खुद का है
यह चरम सत्य स्वीकार करो।
मत देखो इसको नफरत से
आजीवन इसको प्यार करो।

पावन प्रभुता है प्रभु की
इस प्रभुता का सम्मान करो।
कोंपल को अपराधी कहकर
मत कोंपल का अपमान करो।

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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल



 





















लताड़



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की बीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


लताड़

इतने बरसों की हो गई आजादी
ऐ भाई बुद्धिवादी!
अब तो तुम मूर्खतापूर्ण तटस्थता छोड़ दो।
यह तटस्थता-मात्र तटस्थता नहीं,
जड़ता हो गई है
इस जड़ता को तोड़ दो।

‘कोउ नृप होउ हमें का हानि’,
इस आधी चौपाई में
तुमने एक चौथाई शताब्दी नष्ट कर दी।

बुरा मत मानो यार !
इस बेवकूफी में तुमने
एक पूरी पीढ़ी भ्रष्ट कर दी।
छूटा हुआ तीर
बीता हुआ समय
और बोला हुआ बोल वापिस नहीं आता।

अभी भी समय है
समय क्या, ठीक-ठीक समय है
इससे ज्यादा अँधेरा
घर-आँगन में कभी नहीं था।
पतझर के खूँटे
इतने मजबूत कब गड़े थे?
घुटन इतनी है कि
मुर्दे तक छटपटाने लगे हैं
हर आँख बेचैन है
हर मनुष्य यदि वह मनुष्य है तो
निरीह है, कातर है, 
आकाश में तारे कम, नारे ज्यादा भर गये हैं।

धरती बँटना चाहती है,
पर बँट नहीं पाती,
गरीबी हटना चाहती है,
पर हट नहीं पाती,
कुछ ऐसा लगता है कि
तुम बोलो तो कुछ बने।

विप्लव प्रतीक्षा में है
क्रान्ति ठिठक कर खड़ी है,
और तुम्हारे मुँह पर
जड़ता की कुण्डी चढ़ी है।
तुम्हें नष्ट ही होना है न
तो मेरा कहा मानो
बिजली की तरह कौंधो
और नष्ट हो जाओ
ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ो
और मौत की तरह स्पष्ट हो जाओ।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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प्रातः - सन्ध्या



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की उन्नीसवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


प्रातः - सन्ध्या

एक सूरज और निकला
दूर दक्षिण के समुद्री छोर से
अर्ध्य इसको दें
पढ़ें गायत्रियाँ
और प्रभु से-
यदि कहीं वह सुन सके तो
प्राथना पावन करें-
हे नियन्ता!
सूर्य यह, सविता प्रखर
स्वर्ण-किरणों से नया आलोक दे
हर क्षितिज पर छाप छोड़े पूर्व की
वह्लि इसकी हो अपूर्वा।

और पश्चिम
सामने इसके कभी आए नहीं
मुक्त पंछी, घाम इसका सह सकें
‘अस्त’ जैसा शब्द
इसकी कुण्डली में
स्थान क्या
उपस्थान तक पाए नहीं ।
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संग्रह के ब्यौरे

रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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गांधारी व्रत



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ 
की नब्बेवी कविता


यह कविता संग्रह
पाठकों को समर्पित किया गया है।


गांधारी-व्रत

वे जो ‘वे’ हैं ना?
जो प्रतिपल खीजते हैं
अपनी चिल्ल पों पर
झल्ला कर भी रीझते हैं
कोसते हैं किरनों को
गालियाँ देते हैं सूरज को
दीपक का जलना जिन्हें
नहीं सुहाता
सिवाय अमावस के
जिन्हें कुछ नजर नहीं आता
वर्तमान सहज लगता है
जिन्हें काजल का पहाड़
देना उपदेश
वो भी गलाफाड़
यही सब हो जिनका
‘गांधारी-व्रत’
क्रान्तिदर्शी काम
उनको उन्हीं के
अन्तर्यामी का ‘राम-राम’
सुनना, सोचना और समझना
हो गया हो
जिनके दायरे से बाहर
उन हाँफते सूरमाओं को
कह रहा है उषा की
पगतलियों का अरुणिम महावर
कि जब तक
आँखों पर से खोलेंगे नहीं
पट्टी अतीत की
तब तक पढ़ नहीं पाओगे
स्वर लिपि
भविष्य के गीत की।
आसमान भर उजाले से
खुद को जोड़ो 
तोड़ो
अपना गांधारी-व्रत तोड़ो।
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जैसा कि दादा श्री बालकवि बैरागी ने ‘आत्म-कथ्य’ में कहा है, इस संग्रह ‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की कई रचनाएँ अन्य संग्रहों में पूर्व प्रकाशित हैं। इसलिए यहाँ, उन सब कविताओं को एक बार फिर से देने के बजाय उनकी लिंक यहाँ दी जा रही हैं। सम्बन्धित कविता की लिंक क्लिक करने पर कविता पढ़ी जा सकती है।

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अट्ठाईसवी कविता ‘हम हैं सिपहिया भारत के’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनतीसवी कविता ‘आह्वान’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तीसवी कविता ‘दो-दो बातें’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकतीसवी कविता ‘गोरा-बादल’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बत्तीसवी कविता ‘मेरे देश के लाल हठीले’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तैंतीसवी कविता ‘हम बच्चों का है कश्मीर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौंतीसवी कविता ‘नई चुनौती जिन्दाबाद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पैंतीसवी कविता ‘नये पसीने की नदियों को’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छत्तीसवी कविता ‘अन्तर का विश्वास’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सैंतीसवी कविता ‘मधुवन के माली से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़तीसवी कविता ‘देख ज़माने आँख खोल कर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनचालीसवी कविता ‘छोटी सी चिनगारी ही तो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चालीसवी कविता ‘ऐसा मेरा मन कहता है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकतालीसवी कविता ‘काफिला बना रहे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बयालीसवी कविता ‘माँ ने तुम्हें बुलाया है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तरालीसवी कविता ‘रूपम् से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चव्वालीसवी कविता ‘उमड़ घुमड़ कर आओ रे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पैंतालीसवी कविता ‘मेघ मल्हारें बन्द करो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियालीसवी कविता ‘एक गीत ज्वाला का’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सैंतालीसवी कविता ‘जो ये आग पियेगा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़तालीसवी कविता ‘फिर चुपचाप अँधेरा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनपचासवी कविता ‘तरुणाई के तीरथ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचासवी कविता ‘अधूरी पूजा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इक्यावनवी कविता ‘अंगारों से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बावनवी कविता ‘एक बार फिर करो प्रतिज्ञा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तरेपनवी कविता ‘अग्नि-वंश का गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौपनवी कविता ‘चिन्तन की लाचारी’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचपनवी कविता ‘कोई इन अंगारों से प्यार तो करे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छप्पनवी कविता ‘इस वक्त’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सत्तावनवी कविता ‘उनका पोस्टर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अट्ठावनवी कविता ‘घर से बाहर आओ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनसाठवी कविता ‘मरण बेला आ गई त्यौहार है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की साठवी कविता ‘चलो चलें सीमा पर मरने’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इसठवी कविता ‘आई नई हिलोर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बासठवी कविता ‘हौसला हमारा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिरसठवी कविता ‘युवा गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौंसठवी कविता ‘हिन्दी अपने घर की रानी’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियासठवी कविता ‘ज्ञापन: अतिरिक्त योद्धा को’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सड़सठवी कविता ‘बन्द करो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़सठवी कविता ‘क्रान्ति का मृत्यु-गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनसत्तरवी कविता ‘ठहरो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सत्तरवी कविता ‘आस्था का आह्वान’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकहत्तरवी कविता ‘समाजवाद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बहत्तरवी कविता ‘रात से प्रभात तक’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिहत्तरवी कविता ‘सीधी सी बात’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौहत्तरवी कविता ‘आत्म-निर्धारण’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचहत्तरवी कविता ‘आलोक का अट्टहास’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियोत्तरवी कविता ‘माँ ने कहा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अठहत्तरवी कविता ‘महाभोज की भूमिका’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उन्यासीवी कविता ‘चिन्तक’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अस्सीवी कविता ‘गन्ने! मेरे भाई!’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इक्यासीवी कविता ‘जीवन की उत्तर-पुस्तिका’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बयासीवी कविता ‘पर्यावरण प्रार्थना’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिरयासीवी कविता ‘एक दिन’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौरियासीवी कविता ‘एक और जन्मगाँठ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पिच्यासीवी कविता ‘जन्मदिन पर-माँ की याद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियासीवी कविता ‘पेड़ की प्रार्थना’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सित्यासीवी कविता ‘रामबाण की पीड़ा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इट्ठ्यासीवी कविता ‘पर जो होता है सिद्ध-संकल्प’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उन्नब्बेवी कविता ‘उठो मेरे चैतन्य’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इठ्यानबेवी कविता ‘वंशज का वक्तव्य: दिनकर के प्रति’ यहाँ पढ़िए




संग्रह के ब्यौरे -

मैं उपस्थित हूँ यहाँ: छन्द-स्वच्छन्द-मुक्तछन्द-लय-अलय-गीत-अगीत
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
एक्स-30, ओखला इण्डस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली-110020
वर्ष - 2005
मूल्य - रुपये 95/-
सर्वाधिकार - लेखकाधीन
टाइप सेटिंग - आर. एस. प्रिण्ट्स, नई दिल्ली
मुद्रक - आदर्श प्रिण्टर्स, शाहदरा



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
 



























ओऽम् शान्ति (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की दसवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की दसवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



ओऽम् शान्ति

आदमीयत और जिन्दादिली का जहाँ तक सवाल है, अपने पीरू अंकल का कोई जवाब नहीं। अपने कस्बे में जिधर से भी वे निकल जाते हैं, ‘पीरू अंकल! पीरू अंकल!’ की आवाजें लगने लगती हैं। जंगली धावड़े के कसाव, गठन और रंग-रूपवाली काया और सिर पर सफेद झक बालों के साथ जब वे अपनी लोचदार लचकीली-लहराती चाल से चलते हुए घर से निकलते हैं तो उनका एक नियम होता है कि वे देहरी लाँघते ही अपने दरवाजे के बाहर बीच रास्ते में खड़े होकर, जोर से आवाज लगाते हुए अपनी पत्नी से खादी भण्डारवाला अपना, कन्धे पर लटकानेवाला झोला माँगते हैं। झाड़-झटककर, झोला कन्धे पर लटकाकर वे, अपनी अनुपस्थिति में क्या-क्या काम करना और क्या-क्या नहीं करना, इन सबका खुलासा घरवाली के सामने करने के बाद जिधर को मुँह होता है उधर ही चल पड़ते हैं। यह पीरू अंकल का रोजमर्रा का चलन है। 

जहाँ तक विशेषताओं तथा विशेषज्ञताओं का सिलसिला है, अंकल की शख्सियत में इसकी एक लम्बी सूची है। पर अंकल खुद अपनी इस सूची पर कभी एक सरसरी नजर भी नहीं डाल पाते। कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब यह सूची खुद में एक-न-एक नई विशेषता जुड़ती हुई नहीं पाती हो। खाने-कमाने का जहाँ तक मुद्दा है, पीरू अंकल के लिए इतना भर लिखना पर्याप्त है कि वे एक उच्च श्रेणी के शिक्षक के तौर पर अभी दो बरस पहले ही रिटायर होकर अपना शेष आयुकाल पूरी जिन्दादिली के साथ बिता रहे हैं। 

अब, जब एक आदमी के पास विशेषताओं की लम्बी सूची है तो फिर सवाल यह भी उठता है कि इस-सूची में सबसे पहली नम्बर एकवाली विशेषता कौन सी है? बस, यही एक बात, बहुत मातबर और मतलब की है। पीरू अंकल की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है शवयात्राओं में जाना और मरघट में सम्पन्न होनेवाली शोकसभाओं में अपनी ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करना। इस कार्य में वे इतनी महारत हासिल कर चुके हैं कि लोग उन्हें ‘श्मशान की रौनक’ तक कहने लगे हैं। गाँव में उस शवयात्रा को शवयात्रा नहीं माना जाता, जिसमें पीरू अंकल शामिल नहीं हों। मरघट में सम्पन्न हुई उस शोकसभा को तो कोई शोकसभा मानेगा ही नहीं, जिसमें पीरू अंकल का भाषण नहीं हुआ हो। अमूमन मरघटी शोकसभाओं में अन्त में ही पीरू अंकल से बोलने को कहा जाता है। 

अंकल जब अपना सवेरेवाला नगर भ्रमण शुरु करते हैं तब सबसे पहले उन घरों में जाते हैं, जिनमें किसी सदस्य की तबीयत खराब होने का समाचार उनको मिल चुका होता है। वैसे टोह वे खुद भी लेते रहते हैं। पर गाँव के मनचले लड़के-बच्चे अंकल की इस फेरी का मतलब समझते हैं। इसलिए अपनी ओर से अंकल को सभी सूचित कर देते हैं कि अंकल, फलाँ के घर में फलाँ आदमी बीमार है और वहाँ आपकी याद हो रही है।

अंकल अपनी दिमागी डायरी में उस घर को नोट करते रहते हैं, फिर अपनी फेरी इस हिसाब से शुरु करते हैं कि घण्टे-दो घण्टे में वे सारे घर उनकी उपस्थिति से गुलजार हो जाएँ, जहाँ कोई बीमार चल रहा है। बीमार से सेहत की पूछताछ करेंगे, दवा-दारू की जानकारी लेंगे, डॉक्टर-वैद्य का नाम पूछेंगे, पथ्य-परहेज और आराम-उपचार की सलाह देंगे। ‘पहला सुख निरोगी काया’ से शुरु करते हुए चरक संहिता, आयुर्वेद, डॉक्टरी, एलोपैथी, होम्योपैथी ओझा-झाड़-फूँक, तन्तर-मन्तर, टोना-टोटका, गण्डा-तावीज पर तफसील से अपनी रोचक शैली में बीमार और उसके घरवालों से न जाने क्या-क्या कहते रहेंगे। समय इतना लेंगे कि अंकल के लिए चाय-पानी आ ही जाए। बीच में दो-एक बार बात को तोड़ते हुए उठने का उपक्रम करेंगे, तब तक दूसरे तीमारदार और स्वयं मरीज ही उनसे प्रार्थना करने लग जाएगा कि ‘नहीं अंकल! जरा देर और बैठो। सभी का मन लग रहा है। मरीज को बड़ा आराम मिल रहा है।’ और अंकल इस प्रार्थना को हलके से रोध-प्रतिरोध के बाद स्वीकार करते हुए भी कहेंगे, ‘मरीज के पास ज्यादा देर बैठना नहीं चाहिए। अगर बैठ भी गए तो उसका भेजा नहीं खाना चाहिए। बीमार का पहला उपचार है उसका मनोबल और दूसरा उपचार है उसके आस-पास बनी हुई शान्ति। दवा-दारू और डॉक्टरों का नम्बर इसके बाद आता है।’

इस निश्छल डाँट-फटकार के बाद भी वे इत्मीनान से बैठे गपियाते रहेंगे। बेशक अपनी कलाई घड़ी को जरा-जरा सी देर में देखते रहेंगे, पर कहेंगे नहीं कि मुझे दूसरे बीमार का हाल पूछने भी जाना है। हालाँकि सारा हाजिर मजमा जानता रहता है कि अंकल इसके बाद किसके यहाँ जाएँगे। खैर, अंकल अपनी फेरी में यही टोह लेते रहते हैं कि कौन बीमार अच्छा हो जाएगा और कौन लटक रहा है। कौन कितने दिन का मेहमान है और किसकी क्या हालत है।

शोकसभाओं में तालियाँ बजवा देना और दो-चार ठहाके लगवा देना पीरू अंकल के बाएँ हाथ का खेल है। हँसी की लहरें तो उनकी उपस्थिति मात्र से ही शुरु हो जाती है, पर तब भी लोग मन-ही-मन भी सोचते रहते हैं और कानाफूसी तथा खुसुर-पुसर में एक-दूसरे से कहते रहते हैं कि अंकल आज मरनेवाले तक की तबीयत खुश कर देंगे। और तो और, मरनेवाले के आत्मीय-से-आत्मीय परिजन और शोक-सन्तप्त करीबी-से-करीबी नाते-रिश्तेदार तक पल-दो पल को अपना रोना भूलकर होंठों पर आई मुसकान को चबाने लग जाते हैं। अंकल को इसके लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। कई बार तो वे खुद कह पड़ते हैं कि ‘राम जाने यह सब कैसे हो जाता है! मैं खुद नहीं चाहता कि ऐसा हो, पर नटते-नटते भी वैसा हो ही जाता है। अब भगवानजी न जाने कौन से नरक में मुझे डालेंगे।’ इतना मलाल पाल लेने के बाद अंकल अपने-आप ही कह पड़ते, ‘चलो, कोई बात नहीं। जिस नरक में भी मैं रखा जाऊँगा, वहाँ वे दस-पाँच लोग तो मिल ही जाएँगे जिनको मैंने अपनी शोक-श्रद्धांजलि अर्पित की है।’ और सारा उपस्थित समुदाय हो-हों करके हँसने लग जाता।

पीरू अंकल की इस विशेषता पर तुर्रा उस दिन लगा, जब गाँव के उमराव चौधरी बीमार पड़े और उनकी बीमारी गम्भीर हो चली। अपने नित्य नियम के अनुसार पीरू अंकल चौधरी साहब का हाल पूछने उनके घर गए। अंकल को लगा कि पंछी उड़ने वाला है उन्होंने सान्त्वना देने की कोशिश की। ज्यों ही चौधरी जरा सहज हुए, उन्होंने अपने बच्चों से कहा, ‘मुझे लगता है कि अब मेरी काया की हवेली उजड़ने वाली है। जो कुछ तुम्हें करना हो, वह करते रहना; पर मेरी शवयात्रा में अगर मरघट में कोई शोकसभा हो तो उसमें पीरूलालजी को जरूर शामिल रखना।’ चौधरी परिवार के सदस्य सिर लटकाए हामी भरते रहे । पर अंकल यहाँ भी एक कदम आगे बढ़ गए। बच्चों की हिमायत करते हुए उमरावजी से बोले, ‘जो काम मुझे करना है, उसकी भारवण इनको क्यों देते हो? मैं जो यहाँ मौजूद बैठा हूँ! मैं बराबर हाजिर हो जाऊँगा। पर पहले अपना प्रोग्राम तो पक्का करके तारीख-तिथि बता दो। मुझे भी पचास काम हैं। आपका इरादा पक्का हो गया हो तो मैं उस दिन फिर गाँव में ही ठहरूँ। कहीं इधर-उधर नहीं भटकूँ।’ यह सब पीरू अंकल ने कुछ ऐसी सादगी से कहा कि सारे वातावरण में कहकहे बिखर गए। डूबते सूरज के चेहरे पर नई लाली छा गई। बच्चों को लगा कि चौधरी साहब अब अच्छे हो जाएँगे। अपनी हाजिरी दाखिल करवाकर पीरू अंकल चलते बने।

अंकल के किस्से रोज बनते ही चले जा रहे थे। खुद पीरू अंकल उस दिन अंसारी सर के पिताजी के इन्तकाल पर अपने कहे की चर्चा आज तक करते रहते हैं। अंकल को पता चल गया था कि अंसारी सर के वालिद मियाँ बीमार चल रहे हैं। वे इस दुनिया जहान से कभी भी सफर कबूल कर सकते हैं। अंकल उनकी मिजाजपुर्सी के लिए जाते, तब तक वे वाकई अल्ला मियाँ को सलाम करने जन्नत में दाखिल हो गए। अंकल ने अपने आपको अंसारी सर के दौलतखाने पर दाखिल किया। अंसारी सर समझ गए कि अंकल कुछ-न-कुछ ऐसा-वैसा जरूर कह देंगे। वैसे भी, अंसारी सर के मन में अंकल के प्रति कोई खास भावना थी भी नहीं। वे अंकल की सोशल छेड़छाड़ को फूहड़ता मानते थे। यदा-कदा अपने आस-पासवालों से कहते भी थे कि कभी-न-कभी यह लंँगड़ा बुरी तरह बेइज्जत होकर रहेगा। पर आज मसला बिलकुल जाती था। अंकल उनके दरवाजे पर मरहूम वालिद मियाँ को अपना सलाम पेश करने आए थे। मामला शिष्टाचार का था। सवाल रस्म और रिवाज का भी था। अंकल ने बैठक में दाखिल होते ही अपना सलाम पेश किया और जरा सा ऊँचा बोले, ‘ओऽम्  शान्ति।’ अंसारी सर ने बैठने का इशारा किया। दोनों पकी-पकाई उम्र के थे। यों कहो कि हमजोली। बराबरी के पढ़े-लिखे। कई साल एक ही साथ, एक ही मदरसे में गुजारकर आगे-पीछे रिटायर हुए। दोनों एक-दूजे की नस-नस से वाकिफ। छेड़छाड़ में करीब-करीब यक साँ।

अंकल ने कन्धे पर से अपना गाँधी झोला उतारा। बिछात पर बैठे और बैठते ही सान्त्वना देने की मुद्रा में शुरु हो गए, ‘खालिद मियाँ का मुझपर बड़ा लाड़-प्यार था। आप बेशक उनके जायन्दा जाँनशीन हैं, पर मैं भी अपने आपको उनका धरम बेटा मानता हूँ। मेरा दुःख आपसे कम नहीं है। पर अंसारी भाई! अब इस मौत का क्या करो? हरामजादी न जाने कहाँ से, न जाने कब आदमी के जिस्म में घुस जाती है। अब्बा जान को खुदा ने अपने पास बुला, लिया। दुनिया के इस राग-रंग को आप खूब समझते हो। यहाँ किसी का बस नहीं चलता। अब आपक़ो उनकी गैर मौजूदगी में जीने की कोशिश करनी होगी। वे तो मर ही चुके हैं।’ 

अंसारी सर के लिए बहुत हो चुका था। उन्होंने पीरू अंकल को बीच में ही थाम लिया, ‘पीरू भैया! मेरे वालिद मरे नहीं हैं। उनका इन्तकाल नहीं हुआ है। उन्होंने बस, हमसे परदा कर लिया है।’

इतना सुनते ही पीरू अंकल का मन उस मोड़ पर पहुँच गया, जहाँ उनको रास्ता मिलता है। वे बोले, ‘अंसारी भाई! आपके वालिद ने आपसे परदा कर लिया है! खैर, आपमें परदा प्रथा वैसे भी जरा ज्यादा सख्त डिसिप्लीनवाली है। पर परदा तो औरतें करती हैं। आपके घर में यह मर्दों ने परदा करना कब से शुरु.....।’

इतना सुनने भर की देर थी कि अंसारी सर की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। करीब-करीब चीखते हुए वे बोले, ‘लँगड़े! अब तू यहाँ से लम्बा हो जा। स्साला, बड़ा आया है मातमपुर्सी करने! जब देखो तब.....’ पर अंकल अविचलित बैठे रहे। अंसारी सर के चेहरे को पढ़ते रहे। अपने अन्तर की सारी अबोधता को आँखों में लाकर करीब-करीब सिसकते हुए बोले, “मुझे क्या पता था कि मेरा भाई ‘गीता’ पढ़ रहा है। चल बोल, ‘ओऽम् शान्ति’। चेहल्लुम की तारीख बता और रो अपने बाप को। पढ़ता है पाक कुरान शरीफ, बोलता है पवित्र गीता और जलता रहा है गुस्से की आग में। तेरी जहन्नुम पक्की है बड़े भाई!”

अंसारी सर का गुस्सा जरा कम हुआ। हाथ जोड़कर बोले, ‘पीर्या! अब तू अपना रास्ता ले। मेरे मरहूम वालिद को और मुझे अपने हाल पर छोड़ दे। इस घर पर रहम खा। उठते-उठते भी अंकल बोले, ‘हमारे यहाँ तो यह सारा लफड़ा तेरह दिनों का होता है। पर भाई मेरे! तुझे तो पूरे चालीस दिन यही सब करना है। आज जाता हूँ। वक्त-बेवक्त फिर हाजिर हो जाऊँगा। चाय तब ही पियूँगा। ओऽम् शान्ति।’ और पीरू अंकल बाहर आ गए।

शहर में कई दिनों तक इस मातमपुर्सी की चर्चा तरह-तरह से होती रही। पर उस दिन तो गजब ही हो गया, जब पीरू अंकल खाना खा ही रहे थे कि कन्धों पर गमछा और टॉवेल डाले बनियान-पाजामे में चार-पाँच नौजवान उनके दरवाजे पर आ धमके। पड़ोसवालों को आश्चर्य हुआ कि लग तो रहा है कि ये लोग किसी शवयात्रा में श्मशान के लिए निकले हैं, पर उधर नहीं जाकर इस अच्छे-भले चहकते-महकते घर के सामने कैसे आ गए? उन्होंने अंकल को आवाज लगाई।

अंकल ने गस्सा चबाते-चबाते ही पूछा, ‘क्या बात है, भाई?’

बाहर से वे लोग बोले, ‘चलिए, आप जल्दी करिए। वो सन्तू पहलवान मर गया है। शवयात्रा शुरु हो गई होगी। सीधे मरघट चलना है। वहाँ सब कुछ आप ही को करना होगा। आप नहीं रहे तो वहाँ मजा नहीं आएगा।’

अंकल खाना खाते-खाते ही बोले, ‘जरा ठहरो, मैं खाना पूरा कर लूँ, फिर चलता हूँ।’ मुहल्लेवालों ने कुछ इशारों से-पूछने की कोशिश की, पर बात खुली नहीं। खाना पूरा खाने के बाद दागिए का बानक धारण करके पीरू अंकल बाहर निकले। यथा नियम उन्होंने अपनी घरवाली को आवाज दी। बाहर से ही कहा, ‘मेरे झोले में पाँचेक सौ रुपए रख देना।’ और उन युवकों से बोले, ‘मेरा नियम है, जब भी मरघट में किसी शव-संस्कार के लिए जाता हूँ तो अपनी अण्टी में चार-पाँच सौ रुपए दबाकर बैठता हूँ। मेरा मन भीतर-ही-भीतर करता रहता है कि एक जीव दुनिया से चला गया है। इसकी पंच लकड़ी में दो सौ, चार सौ रुपए अपने भी शामिल हो जाएँ तो अपना क्या बिगड़ता है! जानेवाले की परलोक यात्रा के लिए अपनी ओर से यही टी. ए. या मान लो कि अनुदान है।’ अंकल का मूड यहीं से बन गया था। चारों-पाँचों चल पड़े। रास्ते भर इस ‘टी. ए. और अनुदान’ पर चर्चा होती रही।

मरघट में सन्तू पहलवान का शव चिता पर चढ़ाया जा रहा था। अंकल ने जी भरकर उस शव का दर्शन किया, आँखों से अविरल आँसू बहाए। नाम बेशक सन्तू पहलवान था, पर काया उसकी मरियल थी। यही बीस-बाईस बरस का जवान रहा होगा। सारा चेहरा जला हुआ था। अस्पताल की चीर-फाड़ नजर आ रही थी। पता चला कि आग में झुलस जाने से सन्तू पहलवान मर गया है। किसी ने कहा, ‘शहीद हो गया है।’ कोई बोला, ‘शान था शहर की।’ कुँआरा ही था, सो बड़े भाई ने उसे मुखाग्नि दी। दागिए अपने-अपने टोले बनाकर बैठ गए। पीरू अंकल हमेशा की तरह आज भी मरघट में, घने बबूल के तने से पीठ टिकाकर बैठ गए। जब शोकसभा शुरु होगी तब पीरू अंकल को बुला लिया जाएगा। साल भर में दस-पन्द्रह मौके कुल आते हैं, जब यहाँ मेला लगता है। सभी जानते थे कि अंकल की भूमिका कब शुरु होती है। उधर, अंकल मन-ही-मन  सोचते रहे, आखिर यह सन्तू पहलवान था कौन? अंकल ने न कभी इसका नाम सुना था, न इसके कामों से उनकी वाकफियत थी। आस-पास के कई गाँव-कस्बों पर उन्होंने अपनी याददाश्त को टिकाया, पर यह नाम कहीं से भी उन्हें याद नहीं पड़ा। समय की लाचारी यह कि शव की कपाल-क्रिया होते-होते पंच लकड़ी देने का समय आ जाएगा और उसके कुछ ही समय पहले शोक- श्रद्धांजलि का सिलसिला चल पड़ेगा। दागियों की संख्या भी कोई विशेष है नहीं। इने-गिने कुछ लोग बोलेंगे और फिर जिम्मेदारी आ जाएगी अंकल की। क्या तो बोलना और क्या कहना है, इसपर वे बड़ी देर तक सोचते बैठे रहे। जलती चिता को अंकल ने एक नजर फिर से देखा। मरनेवाले की उम्र का अन्दाज उन्होंने लगा लिया था। उसका अधजला शरीर और गले के नीचे तक का सारा हिस्सा जिस बुरी तरह जलकर विकृत हुआ था, वह उनकी चेतना में कौंधा।

वे कुछ सोच ही रहे थे कि एक दागिए ने आकर कहा, “अंकल! चलो, आपको सन्तू पहलवान की आत्मा की शान्ति के लिए ‘ओऽम् शान्ति’ बोलना है।”

अंकल उठे और दागियों के समूह में पोजीशन लेकर खड़े हो गए।

उन्होंने बोलना शुरु किया। पहले ही वाक्य पर लगा कि उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया है। इस अघट घटना पर वे अन्तर तक व्यथित हैं। अपने मोटे गाँधी झोले से उन्होंने अपनी आँखें पोंछीं। अंकल शुरु हुए। जिस ‘ओऽम् शान्ति’ को लोग अन्त में बोलते हैं, उससे उन्होंने शुरू किया, ‘भाइयों! अपना सन्तू चला गया। क्या तो उसकी उम्र थी और क्या उसकी बहादुरी थी! पट्ठा जान पर खेलकर जलती ज्वाला में कूद पड़ा। उसने उस निरीह अबला को आग की भीषण लपटों के बीच से निकाल ही लिया। अब कौन तो हमारे मुहल्ले की बहू-बेटियों के शील की रक्षा के लिए लड़ेगा और कौन ऐसी मर्दानगी दिखाएगा! हमारे इस महान् शहीद का नाम क्या है?’ चार-पाँच लड़के बोले, ‘सन्तू।’ ‘हम अपने बच्चों के नाम अब क्या रखेंगे?’ आवाज आई, ‘सन्तू।’ ‘इस बस्ती की शान कौन?’ नारा लगा, ‘सन्तू।’ ‘माँ का दूध उजलानेवाला कौन?’ लड़के बोले, ‘सन्तू।’ ‘अपने बाप के नाम को रोशन करनेवाला कौन?’ लोग बोले, ‘सन्तू।’ ‘हमको मझधार में कौन छोड़ गया?’ उत्तर आया ‘सन्तू।’ ‘हमको कौन रुला गया?’ जवाब था, ‘सन्तू।’ ‘हजार पहलवानों पर भारी कौन?’ लड़के बोले, ‘सन्तू।’ और अंकल अपनी मस्ती में धाराप्रवाह हो गए। सन्तू के परिवारवाले भी चकित थे कि सन्तू ने कैसे-कैसे महान् कार्य अपनी इस छोटी सी उम्र में कर लिये। 

अंकल ने अपनी श्रद्धा का शिखर प्रकट किया, ’भाइयों! मैं उस दिन को कभी नहीं भूल पाऊँगा जिस दिन सन्तू अपनी अद्भुत बाल-सम्पदा के साथ मेरे सामने खड़ा हो गया। मैंने देखा कि अपनी कोहनियों से कलाइयों तक दोनों हाथों पर यही कोई चालीस-पचास डण्डे उठाए सन्तू कहीं चला जा रहा है। मैंने पूछा, ‘सन्तू, यह क्या?’ वह उल्लास से उछलते हुए बोला, ‘अंकल! मेरी दोनों जेबें टटोल लो तो समझ जाओगे।’ ‘मैंने जब उसकी पतलून की दोनों जेबें सँभालीं तो मैं दंग रह गया। वाह रे सन्तू! वाह रे मेरे शेर! उसकी जेबों में चालीस-पैंतालीस गिल्लियाँ ठँसी हुई थीं। चहकता हुआ बोला, ‘अंकल ! सारे मुहल्ले के बच्चों को ,आज अपनी ओर से गिल्ली-डण्डा दूँगा। वे खेलेंगे, मैं देखूँगा। आज अंकल! गाँव की गलियों में गिल्ली-गंगा बह जाएगी। देखना तो सही आप!’ अब कहाँ वह डण्डेवाला? कहाँ वह गिल्लीवाला?’ और अंकल करीब-करीब हिचकियों तक आ गए। अपनी जेब से उन्होंने सौ-सौ रुपए के पाँच नोट निकाले। उन्हें मुट्ठी में भींचा। फिर मुट्ठी ढीली करते हुए बोले, ‘जिस भी जगह हमारा सन्तू पहलवानी करता था, उस जगह उसके अखाड़े पर सन्तू की एक शानदार प्रस्तर प्रतिमा स्थापित करना आज का हमारा संकल्प है।’ लोगों ने अपनी आदत और सभाओं की परम्परा के मुताबिक इस घोषणा का स्वागत तुमुल करतल ध्वनि से किया। देर तक तालियाँ बजती रहीं। अंकल बोले, ‘मेरी ओर से पाँच सौ रुपए प्यारे सन्तू की मूर्ति के लिए आप लोग स्वीकार करिए। मूर्ति शानदार हो। हो सके तो वही गिल्ली-डण्डेवाली मुद्रा में अपना सन्तू साक्षात् खड़ा हो। ओऽम् शान्ति।’ श्मशान में ही ‘सन्तू जिन्दाबाद’, ‘सन्तू अमर रहे’, ‘हमारा शहीद सन्तू पहलवान’ जैसे नारे लगने लगे। और पंच लकड़ी का समय हो गया। लोग चिता की परिक्रमा करने लगे। अपना-अपना प्रणाम अर्पित कर दागिए श्मशान से बाहर निकलने लगे।

जब शव संस्कार के बादवाला स्नान हो रहा था तब किसी ने अंकल को बताया, ‘अंकल, आपने तो सन्तू को अमर शहीद बना दिया। कमाल कर दिया।’

अंकल बोले, ‘आखिर अपना बच्चा था। उसने काम ही ऐसा किया है। भगवान उसकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे।’

बात धीरे-धीरे खुली। सन्तू पहलवान का मुख्य शगल था जुलूसों के आगे अपने हाथ में लोहे के एक तार पर कपड़े की गेंद गूँथकर उसे जलाना। फिर अपने मुँह में केरोसिन का कुल्ला भरकर, हवा में केरोसिन की फुहार छोडकर जलती हुई गेंद से उस फुहार को लपट में बदल देना। ढोल-ताशे-बैंड बजते रहते थे। जुलूस चलता रहता था और गाँव के बच्चे सन्तू को अपने घेरे में घेरते हुए आगे-पीछे चलते रहते थे। वे आवाज लगाते थे, ‘वाह पहलवान!’ सन्तू के ठीक साथ में एक लड़का केरोसिन का पीपा लेकर चलता रहता था। 

गई रात हुआ ऐसा कि सन्तू ने दस-पाँच बार लपट को-खूब अच्छी तरह उठा दिया। पर शायद उसके सिर पर मौत मँडरा रही थीं। एक कुल्ला उसने कुछ ऐसा किया और उसे जलती हुई गेंद कुछ इस तरह छुआ दी कि लपट उलटकर वापस सन्तू के मुँह की तरफ आ गई। जिसके हाथ में केरोसिन का पीपा था, उसने घबराकर आव देखा न ताव, पानी के भरोसे सन्तू पहलवान पर वह पीपा और उलट दिया। हाहाकार मच गया। न किसी को होश रहा, न सम्पट बँधी। सन्तू सड़क पर छटपटाता रहा। जुलूस की ऐसी-तैसी हो गई। पुलिस और कानून के डर से, जिधर जिसका मुँह था, वह उधर ही भाग खड़ा हुआ। 

बड़ी देर बाद लोगों ने सन्तू को समेटा। अस्पताल-पुलिस सब बाद में हुआ। सन्तू मर गया। न उसने जीवन में कोई कसरत-पहलवानी की, न कोई अखाड़ा-वखाड़ा देखा। कुश्ती लड़ने का तो सवाल ही नहीं था।

पीरू अंकल की प्रेरणा से इन दिनों सन्तू की मूर्ति के लिए चन्दा किया जा रहा हे। पुलिस उस लड़के की तलाश में है जिसके हाथ में केरोसिन का पीपा था। कोई किसी को पहचान नहीं रहा है।  उस जुलूस में शामिल होने से सभी ने इनकार कर दिया है। ढोल और बैंडवाले तक मना कर रहे हैं। दूसरी तरफ रोज एक नया रसीद कट्टा किसी-न-किसी के हाथ में नजर आ रहा है। रसीदें कट रही हैं, प्रतिमा समिति बन रही है। 

पीरू अंकल किसी दूसरी ‘ओऽम् शान्ति’ के लिए तैयार बैठे हैं। 

ओऽम् शान्ति।

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‘बिजूका बाबू’ की नौवी कहानी ‘आम की व्यथा’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की ग्यारहवी कहानी ‘सदुपयोग’ यहाँ पढ़िए।



कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली

 


 

 

 

 



 

 

   


 

 

 

 



 

  

  

    


 


 


 



 

 


 

 


चिन्तन की लाचारी (पुरवा को पछुवा मार गई।)



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘कोई तो समझे’ 
की उन्नीसवी कविता 

यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को 
समर्पित किया गया है।


चिन्तन की लाचारी

गन्तव्य वही, मन्तव्य वही, आदेश वही अधिकार वही
रीति वही और नीति वही, प्रतिशोध वही प्रतिकार वही
जो क्रान्ति बताता है इसको, उस चिन्तन की बलिहारी है
परिवर्तन को क्रान्ति बताना, सम्भवतः लाचारी है।

जब चिन्तन पर काई जम जाये
विप्लव की भाँवर थम जाये
तो समझो पीढ़ी हार गई
पुरवा को पछुवा मार गई।

ये हिंसक और अहिंसक क्या, ये भाषा क्या परिभाषा क्या
ये भाषण क्या, प्रतिभाषण क्या, ये अभिनय और तमाशा क्या
(बस) क्रान्ति, क्रान्ति ही होती है, पहिले तुम इतना मानो तो
खुद को दर्पण में देखो तो, इस पीढ़ी को पहिचानो तो।
जब घाव वही, अलगाव वही
बात वही, बिखराब वही
तो आहुति क्या बेकार गई?
पुरवा को पछुआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये......

जब अग्नि-बीन का गायक ही, खो जाये मेघ मल्हारों में
(तो) जी करता है आग लगा दूँ, अग्नि-बीन के तारों में
तुम आग जगा कर कहते हो, हे! ज्वाला माँ अब सो जाओ
जब तक हम गाएँ दरबारी, तब तक तुम पानी हो जाओ।
जब दीन वही, ईमान वही
जब मुर्दे और मसान वही
तो झंझा किसे झंझार गई?
पुरवा को पछुआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये.....

वे चाट गये उस सावन को, शायद ये फागुन पी जायें
दोनों ने कसमें खाई हैं, ये बगिया कैसे जी जाये
लगता है राहू बैठ गया, इस माली के और डाली के
लग्न बराबर मिले नहीं, इस लाली और हरियाली के।
(जब) भँवरों का वक्तव्य वही
(जब) तितली का भवितव्य वही
(तो) मधुऋतु किसे सँवार गई?
पुरवा को पछुआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये.....

मैं कल भी भैरव गाता था, मैं अब भी भैरव गाता हूँ
मैं कल भी तुम्हें जगाता था, मैं अब भी तुम्हें जगाता हूँ
वो अँधियारे की साजिश थी, ये साजिश का उजियारा है
इस पीढ़ी को हर सूरज ने, मावस से मिलकर मारा है।
जब घात वही प्रतिघात वही
काजल कुंकुम की जात वही
तो ऊषा किसे निखार गई?
पुरवा को पछुआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये.....

कल आग-आग जो करते थे, वे सिर पर सावन ढोते हैं
कल जिनके सिर पर सावन था, वे आज आग को रोते हैं
ये सब मौसम के तस्कर हैं, सब मिली-जुली चतुराई है
सब सपनों के सौदागर हैं, ये सब मौसेरे भाई हैं।
अम्बर में नारे वो के वो
और अन्धे तारे वो के वो
घूँघट में डायन मार गई?
पुरवा को पछआ मार गई?
चिन्तन पर काई जम जाये......
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संग्रह के ब्यौरे

कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल


 




















गायत्री-गर्भ



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’ 
की अठारहवीं कविता 

यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को 
समर्पित किया गया है।


गायत्री-गर्भ

पाण्डुरोग का रोगी
तुम्हारा यह सूरज
न तो फसलें पकाता है
न बादल बनाता है।
इसके कारण ऋतुएँ
नहीं होतीं ऋतुमती
उजाला तो खैर इसके पास
कभी था ही नहीं।
वह गर्भ, गर्भ ही नहीं था
जिसमें इसका भ्रूण बना,
वह कोख, कोख ही नहीं थी
जिसने इसे जना।
ढाक के सूखे पत्ते सा
टाँक तो दिया है इसे तुमने आकाश में
पर अब यह रोक नहीं पा रहा है रात को।
लोग गालियाँ दे रहे हैं सूरज की जात को।
ब्राह्मण कैसे करें त्रिकाल सन्ध्या?
क्षत्रिय कैसे कहें खुद को सूर्यवंशी?
वैश्य कैसे करें सूर्याेपासना?
और शूद्र कैसे लें शकुन?
धरती पर कोलाहल
और आकाश में सन्नाटा
चुम्बन के नाम पर तुम्हारा यह चाँटा
भूल नहीं पायेंगे तुम्हारे ही बन्दीजन
बेसुरी प्रभातियाँ गानेवाले
इस रोग-काल में
टटपुँजिये तारे सड़ियल सूरज को
जितना भुनाना चाहें भुना लें।
दूर कहीं शुरु हो गई है गायत्री
तुम परेशान मत होओ इस हलचल पर
शायद सही सूर्य का रथ लेकर
अरुण पहुँच ही रहा है उदयाचल पर।।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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दीया मैं ही बन जाऊँ



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ 
की सित्‍योत्‍तरवी कविता


यह कविता संग्रह
पाठकों को समर्पित किया गया है।


दीया मैं ही बनाऊँ

दीया
मैं ही बनाऊँ
मैं ही जलाऊँ
और मैं ही उसे
आपकी देहरी पर पधराऊँं।

और आप?
न उसमें तेल पूरें
न बाती उकसाएँ
और न अन्धी हवाओं से
उसे बचाएँ।

बस,
उसकी लौ से उधार लेकर
अछूती आग
छोडें अपने फुलझड़ी-पटाखे
और अपनी अधमरी आग की
हैसियत आँकें।

मन जाए जब आपकी दीवाली
भर जाए जब आपके
अहं का पेट
तब आप,
पूजते हैं अपनी देहरी
फेंक देते हैं मेरे निर्माण
और भूल जाते हैं उस निर्माण की
विराट् सर्जना को।
जीने लगते हैं
फिर से अपनी सहज वर्जना को।
करने लगते हैं आलोचना
देने लगते हैं गालियाँ
उतर आते हैं विरोध पर
और विरोध से भी
हजार कदम आगे
पालने लगते हैं दुश्मनी।

तब मैं?
तब मैं सान्त्वना नहीं देता
अपने निर्माण, उसके उजास
और अपने प्रयास को।

बल्कि
धन्यवाद देता हूँ आपको
बलिहारी जाता हूँ आपकी
कृतघ्नता पर
आभार मानता हूँ
आपकी माँ, अमावस का
जिसने आपको पाला-पोसा
तम से संस्कारित करके
बड़ा किया
और अपनी अधमरी आग सहित
मेरे उदार दीये की
अग्निधर्मा अछूती
लौ के सामने
कभी नहीं लौटाए जानेवाले
उधार के उजास
और लपलपाती आग के लिए
एक ऋण-मुद्रा
में खड़ा किया। 
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‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पैंसठवी कविता ‘कितना और सहे माँ हिन्दी?’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की नब्बेवी कविता ‘गांधारी व्रत’ यहाँ पढ़िए


जैसा कि दादा श्री बालकवि बैरागी ने ‘आत्म-कथ्य’ में कहा है, इस संग्रह ‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की कई रचनाएँ अन्य संग्रहों में पूर्व प्रकाशित हैं। इसलिए यहाँ, उन सब कविताओं को एक बार फिर से देने के बजाय उनकी लिंक यहाँ दी जा रही हैं। सम्बन्धित कविता की लिंक क्लिक करने पर कविता पढ़ी जा सकती है।

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अट्ठाईसवी कविता ‘हम हैं सिपहिया भारत के’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनतीसवी कविता ‘आह्वान’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तीसवी कविता ‘दो-दो बातें’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकतीसवी कविता ‘गोरा-बादल’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बत्तीसवी कविता ‘मेरे देश के लाल हठीले’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तैंतीसवी कविता ‘हम बच्चों का है कश्मीर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौंतीसवी कविता ‘नई चुनौती जिन्दाबाद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पैंतीसवी कविता ‘नये पसीने की नदियों को’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छत्तीसवी कविता ‘अन्तर का विश्वास’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सैंतीसवी कविता ‘मधुवन के माली से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़तीसवी कविता ‘देख ज़माने आँख खोल कर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनचालीसवी कविता ‘छोटी सी चिनगारी ही तो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चालीसवी कविता ‘ऐसा मेरा मन कहता है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकतालीसवी कविता ‘काफिला बना रहे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बयालीसवी कविता ‘माँ ने तुम्हें बुलाया है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तरालीसवी कविता ‘रूपम् से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चव्वालीसवी कविता ‘उमड़ घुमड़ कर आओ रे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पैंतालीसवी कविता ‘मेघ मल्हारें बन्द करो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियालीसवी कविता ‘एक गीत ज्वाला का’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सैंतालीसवी कविता ‘जो ये आग पियेगा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़तालीसवी कविता ‘फिर चुपचाप अँधेरा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनपचासवी कविता ‘तरुणाई के तीरथ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचासवी कविता ‘अधूरी पूजा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इक्यावनवी कविता ‘अंगारों से’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बावनवी कविता ‘एक बार फिर करो प्रतिज्ञा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तरेपनवी कविता ‘अग्नि-वंश का गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौपनवी कविता ‘चिन्तन की लाचारी’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचपनवी कविता ‘कोई इन अंगारों से प्यार तो करे’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छप्पनवी कविता ‘इस वक्त’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सत्तावनवी कविता ‘उनका पोस्टर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अट्ठावनवी कविता ‘घर से बाहर आओ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनसाठवी कविता ‘मरण बेला आ गई त्यौहार है’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की साठवी कविता ‘चलो चलें सीमा पर मरने’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इसठवी कविता ‘आई नई हिलोर’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बासठवी कविता ‘हौसला हमारा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिरसठवी कविता ‘युवा गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौंसठवी कविता ‘हिन्दी अपने घर की रानी’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियासठवी कविता ‘ज्ञापन: अतिरिक्त योद्धा को’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सड़सठवी कविता ‘बन्द करो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अड़सठवी कविता ‘क्रान्ति का मृत्यु-गीत’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उनसत्तरवी कविता ‘ठहरो’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सत्तरवी कविता ‘आस्था का आह्वान’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इकहत्तरवी कविता ‘समाजवाद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बहत्तरवी कविता ‘रात से प्रभात तक’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिहत्तरवी कविता ‘सीधी सी बात’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौहत्तरवी कविता ‘आत्म-निर्धारण’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पचहत्तरवी कविता ‘आलोक का अट्टहास’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियोत्तरवी कविता ‘माँ ने कहा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अठहत्तरवी कविता ‘महाभोज की भूमिका’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उन्यासीवी कविता ‘चिन्तक’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की अस्सीवी कविता ‘गन्ने! मेरे भाई!’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इक्यासीवी कविता ‘जीवन की उत्तर-पुस्तिका’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की बयासीवी कविता ‘पर्यावरण प्रार्थना’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की तिरयासीवी कविता ‘एक दिन’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की चौरियासीवी कविता ‘एक और जन्मगाँठ’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की पिच्यासीवी कविता ‘जन्मदिन पर-माँ की याद’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की छियासीवी कविता ‘पेड़ की प्रार्थना’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की सित्यासीवी कविता ‘रामबाण की पीड़ा’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इट्ठ्यासीवी कविता ‘पर जो होता है सिद्ध-संकल्प’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की उन्नब्बेवी कविता ‘उठो मेरे चैतन्य’ यहाँ पढ़िए

‘मैं उपस्थित हूँ यहाँ’ की इठ्यानबेवी कविता ‘वंशज का वक्तव्य: दिनकर के प्रति’ यहाँ पढ़िए



संग्रह के ब्यौरे -
मैं उपस्थित हूँ यहाँ: छन्द-स्वच्छन्द-मुक्तछन्द-लय-अलय-गीत-अगीत
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
एक्स-30, ओखला इण्डस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली-110020
वर्ष - 2005
मूल्य - रुपये 95/-
सर्वाधिकार - लेखकाधीन
टाइप सेटिंग - आर. एस. प्रिण्ट्स, नई दिल्ली
मुद्रक - आदर्श प्रिण्टर्स, शाहदरा


रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।