बुड्ढी पुलिया (‘मनुहार भाभी’ की दसवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की दसवीं कहानी




बुड्ढी पुलिया  

पता नहीं वो कौन था, जिसने इस पुलिया का नाम ही रख दिया-बुड्ढी पुलिया। पुलिया का नाम रखा वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन आज तक पता नहीं चल पाया कि किसने इस चौराहे का नाम रखा-‘थका चौराहा’। 

वैसे हर गाँव में, हर शहर में और हर कस्बे में एक-न-एक मुकाम ऐसा होता ही है, जहाँ उस बस्ती के थके-पके और अपने कामकाज-कारोबार से चुके हुए लोग बैठते-उठते रहते हैं। आखिर आदमी कब तक अपने घर में घुसा बैठ रहेगा? घड़ी-आध-घड़ी के लिए वह बाहर निकलेगा ही। अपने मन-मेल के लोगों से मिलेगा-जुलेगा। अपनी कहेगा, पराई सुनेगा। दुनियादारी इसी का तो नाम है। घर-गृहस्थी और किसे कहते हैं?

इस कालोनी की इस पुलिया का यही चक्कर है। जिस जमाने में यह पुलिया बनी होगी, उस जमाने में यहाँ एक छोटा-सा नाला था। साल में पाँच-सात महीने यह नाला बहता था। राज अंग्रेज का था और सारा का सारा इलाका सन्नाटों से भरपूर था। न विशेष बस्ती थी, न कोई आवक-जावक। सरकार के पोथी-पत्रे और जूने-पुराने लोग कहते हैं कि इस पुलिया की उम्र अस्सी-पिच्यासी बरस से कम नहीं रही होगी।

इस उम्र में आदमी तो मर-मरा जाता है, पर यह पुलिया है कि आज भी तन्नाट खड़ी है। पास में एक नहीं चार-चार कालोनियाँ बस गईं। पुराना नाला पट गया। बहता पानी गायब हो गया। दोनों पुलियाओं के पीछे सूखी जमीन निकल आई। लोगों ने उन जमीनों पर छोटी-बड़ी गुमटियाँ लगा लीं। आसपास की जमीन निकल आने से पुलिया बीच सड़क पर आ गई और नतीजे में सड़क सँकरी लगने लगी। साइकिलों और मोटर साइकिलों वाले पुलियाओं के पीछे से कट मार कर निकलने लगे।

पुलिया बुड्ढी होते हुए भी कई जवान रपटों-पुलियाओं से अधिक मजबूत और पक्की है। गए पचास सालों में इस पुलिया के आसपास छोटे-मोटे कई निर्माण सरकार और नगरपालिका ने करवाए। बुड्ढी पुलिया के दोनों हिस्सों ने इनमें से कई निर्माणों की जवान मौतें अपने सामने देखीं। कुछ तो अगली ही बरसात में दम तोड़ते हुए अपने ठेकेदारों और बनाने वालों को राष्ट्रीय चरित्र का प्रमाण-पत्र दे गए। लेकिन बुड्ढी पुलिया के दोनों बाजू आज भी बरकरार हैं और आज के आई. टी. आई. पास लड़के, नए इंजीनियर और डिप्लोमाधारी जब-तब पुलिया के दोनों बाजुओं को ठोक बजाकर सनद करते हैं कि अगर कोई दुर्घटना नहीं होती है तो यह पुलिया आने वाले पच्चीस-तीस बरस तक जिन्दा रहेगी। इतनी लम्बी उम्र के बाद भी इसका एक भी पत्थर इधर से उधर नहीं हुआ है।

शाम ढलते-ढलते आसपास की कालोनियों से दस-पाँच थके-माँदे पेंशनर चुपचाप आकर दोनों ओर पुलियाओं पर बैठ जाते हैं। कोई अट्ठावन पूरे करके रिटायर हुआ तो कोई साठ पूरे करने पर सादर विदा किया गया। इधर से व्यास जी तो उधर से चतुर्वेदी जी। सामने से डॉक्टर पठान, तो अगली वाली लेन से निगम बाबू। सबके अपने-अपने अनुभव, अपने-अपने संस्मरण। कोई अपने सीनियर से परेशान रहा तो कोई अपने जूनियर पर गुस्सा। बात करने का सभी का अलग-अलग लहजा, अलग-अलग चटखारा। आज के सरकारी बाबुओं के तौर-तरीकों पर सभी के शोक प्रस्ताव। अपने जमाने की सरकारों पर तरह-तरह के फतवे। आज की सरकार पर बेलाग थू-थू। सुबह पढ़े अखबारों का पोस्ट मार्टम। पे कमीशन पर दस-पाँच मिनट की बहस। दोपहर की फिल्म पर अच्छी खासी टिप्पणियाँ....।

पास लगी सड़क पर अगर स्कूटर या सन्नी पर कोई लड़की फर्राटे से निकल जाए तो दो-एक के मुँह से अपने आप निकल पड़े, ‘क्या जमाना आ गया है? इस देश का क्या होगा?’ और फिर बातें आकर टिक जातीं अपनी-अपनी बहुओं के क्रियाकलापों पर। किसकी बहू कैसी है? नाती-पोतों की आदतों और अपने बेटों की लापरवाहियों के किस्से। टी.वी. की तबाहियों पर सभी का गुस्सा। पढ़ाई के स्टैण्डर्ड पर एक से एक आला दर्जे के शोक प्रस्ताव। हर बात पर एक लम्बी बहस के बाद, लम्बी साँस भरा पूर्णविराम। हर बात का पॉँचवाँ अध्याय इसी वाक्य के साथ समाप्त कि दुनिया का सर्वनाश सुनिश्चित है। अब साक्षात् भगवान भी हमारा उद्धार नहीं कर सकता।  संसार डूब रहा है और महाप्रलय बिल्कुल सामने है। बचना है तो बचो।

और इस तरह से इन थके-पके लोगों की नजरें ठीक सामनेवाले जीवन बीमा निगम के शानदार भवन पर एकटक टिक जातीं। बातों-बातों में इन लोगों की एक चिन्ता विशेष यह भी सामने आती थी कि आजकल के सरकारी कर्मचारी कितने अधकचरे हैं। वे रिश्वत भी सलीके से खाना नहीं जानते। कुछ हैं कि खाने से पहले ही उगलने लग जाते हैं। पचाना कोई नहीं जानता। सालों को बदहजमी हो जाती है। जो पचा लेते हैं वे कब्ज के शिकार होकर यहाँ-वहाँ चूरन-चटनी ढूँढतेे फिरते हैं। न इनका कोई हाजमा, न इनकी कोई हैसियत। हिम्मत तो है हीे नहीं। होती तो क्या रोज-रोज इतने और इस तरह पकड़े जाते? निगम बाबू कहते थे कि ‘हमसे मिलो! ऊपर की आमदनी कितनी होती थी, इसका पता घर वाली तक को नहीं हो पाता था। अखबार वाले कहाँ लगते हैं?’ बातों का लब्बोलुबाब यही होता था कि अपनी कलम से किसने किसका काम कितनी सफाई से अटकाया और किसने कितने अफसर अपने सामने आते-जाते देखे। हाकिम आए और चले गए लेकिन हम वहाँ के वहाँ ही रहे।

पुलिया के दोनों हिस्सों पर अगर सरका कर भी बैठाए जाएँ तो पाँच-पाँच आदमियों से ज्यादा के बैठने की गुंजाइश नहीं थी। कभी-कभी होता यह था कि जो पहले आता, वह पहले बैठ जाता। बाद में आने वाला जहाँ जगह मिलती, वहाँ बैठ जाता। सड़क पर लगे बिजली के खम्भों पर जब बत्तियाँ जलने लगतीं तो अपनी-अपनी हथेलियाँ मसल कर रिटायर्ड लोग एक-दूसरे से प्रणाम-नमस्कार करते। तब तक घरों से निकल-निकल कर किसी की बहू तो किसी की बेटी तो किसी की पत्नी आकर अपने छोटे बाल-बच्चों को वहाँ छोड़ जाती। सड़क के उस पार चाट-पकौड़ी और आइसक्रीम के ठेले वाले आ जाते। बच्चों का मचलना शुरु हुआ नहीं कि बच्चों को बहलाने वाली कहानियाँ शुरु हो जातीं। कोई खीजता तो कोई खुद बच्चा बनकर खेलने की कोशिश करता।

उधर उस पुलिया से यही कोई सौ-पचास गज दूर लगे कालोनी के मार्केट में कालरा स्टोर्स पर बैठा-बैठा मुकेश सब कुछ देखता रहता। उसकी अपनी उम्र के पॉच-सात नौजवान शाम ढलते-ढलते अपने चाय-पानी के लिए अड्डा जमा लेते। कभी-कभार मुकेश एकाध चुहल करता। अपने पास वाली चाय की दुकान से बुड्ढी पुलिया पर बैठे आलाकमान के लिए वह अपनी ओर से बढ़िया चाय बनवाकर भेज देता। चाय वाला लड़का जब सामने खड़ा होता तो वे सभी एक-दूसरे की तरफ देखकर तलाश करते कि चाय की पेमेण्ट कौन करेगा? लड़का मुकेश की तरफ इशारा करता और मुकेश अपनी कुर्सी पर ही बैठा-बैठा पहले हाथ हिलाता और फिर दोनों हाथ जोड़कर इस तरह मनुहार करता कि अपनी-अपनी चाय पीने लग जाते। यह सारा काम इशारों-इशारों में होता।

हफ्ते में दो-तीन दिन मुकेश की चाय बुड्ढी पुलिया पर पहुँच ही जाती। कालरा स्टोर्स पर बैठे जवानों में अन्दाज और होड़ यही लगी रहती कि पुलिया पर बैठे इन थके-हारेे लोगों ने आज क्या-क्या बातें की होंगी? किसने किसे कोसा होगा? कौन खीजा होगा? कौन झल्लाया होगा? किसने किसकी कैसी आलोचना की होगी और आज की बैठक की एजेण्डा क्या रहा होगा।
गड़बड़ तब होती जब सामने चाट-पकौड़ी और आइसक्रीम के ठेलों पर से ठेलेवालों का एक छोटा-मोटा शिष्टमण्डल आता और इन लोगों से आग्रह करता कि ये लोग अपनी बैठक जल्दी खत्म करें और अपने-अपने घरों को पधारें। उनकी दुकानदारी मारी जा रही है। इन बूढ़ों के लिहाज से जवान लड़के-लड़कियाँ और दूर-पास के नए-पुराने जोड़े ठेलों के आसपास मँडरा कर चले जाते हैं। हाथ में दोना लेकर दहीबड़े खाने में उन्हें संकोच होता है। पुलिया से पुरुषोत्तम उठते जरूर थे, लेकिन एक ठसके के साथ। करीब-करीब झुँझलाते हुए। वही फिकरा कसते हुए, क्या जमाना आ गया है?

तकलीफ किसी को नहीं थी, लेकिन आसपास की सारी कालोनियों में घर-घर इस पुलिया की आड़ में तरह-तरह की बातें फैलतीं और मनोवैज्ञानिक असर यह पड़ता मानो ये सारी कालोनियाँ बूढ़ों और थके लोगों की ही कालोनियाँ हैं। लोग महसूस करते थे कि अगर वे अपनी कार या मोटर साइकिल पर भी इधर से निकल रहे हैं तो अपने आप  उनकी बातों का विषय थके और बूढ़े लोगों पर मुड़ जाता था। जिस्म एक थकान से भर जाता और साँसें लम्बी चलने लग जातीं। अच्छा भला मजबूत कद-काठी का आदमी भी मौत की बातें करने लगता। निराशा और थकान का दौरा अनायास चपेट में लेने लगता।

मुकेश के एक प्रयोग ने शहर में सनसनी फैला दी। आए दिन वह इस प्रयोग से तरह-तरह की शर्तें जीतने लगा। हफ्ते की दस-पाँच चाय पिला-पिला कर वह सौ-पचास रुपए अपने दोस्तों से कूटने लगा। उसने कहा, ‘शाम को चार से छह बजे के बीच में अगर इस पुलिया पर किसी पंछी को भी बैठा दोगे तो वो धककर निढाल हो जाएगा। बोलना-चहचहाना छोड़ देगा। किसी गाय को बाँध दोगे तो वह रंभाना छोड़ देगी। किसी कुत्ते को ले आओगे तो वह भौंकना बन्द कर देगा। इस पुलिया पर बुढ़ापे और थकान की इतनी लस्त-पस्त बातें ही चुकी हैं कि वहाँ आने वाले बच्चे भी बूढ़ों की तरह ही चलने-बोलने लगे हैं।’

लोगों ने मुकेश की बात को माना नहीं। आखिर शर्त हुई। कालोनी की लाण्ड्री वाले पूनमचन्द परदेसी के तोते का पिंजरा शाम को पाँच बजे पुलिया पर रखकर लोग दूर चले गए। दो-तीन मिनट के भीतर ही टें-टें करके हल्ला मचाने वाले तोते ने बोलना बन्द कर दिया। घबड़ा कर परदेसी की पत्नी ने इधर-उधर देखा। उसका तोता एकाएक चुप क्यों हो गया। अपने बेटे बण्टी को डाँटते हुए उसने कहा, ‘किसने कहा था मिट्ठू को वहाँ ले जाने को? उस बुड्ढी पुलिया पर अच्छे खासे की बोलचाल में बाल पड़ जाता है। उठा ला अपना पिंजरा।’
एक दिन कुछ ऐसी ही हालत हुई व्यासजी की गाय की। अपने बछड़े को चाटती-रंभाती गैया को मुकेश ने पुलिया के पास ही पड़े पत्थर से बँधवा दिया। देखते-देखते गौ माता ने खुद को बदल लिया। डॉ. पठान का कुत्ता तो पुलिया को सूँघता हुआ मरा-मरा-सा वहीं ढेर होकर बैठ गया।

पुलिया के पत्थर तक बूढ़े हो गए। बातें दूर-दूर तक फैलीं। ‘बुड्ढी पुलिया’ और ‘थका चौराहा’ शहर की चर्चा के विषय हो गए। सामने वाले मैदान में लगी गन्ने के रस वाली मधुशालाओं के मालिकों ने चौराहा बदलने की तैयारी कर ली। कालोनियों में किस्से यहाँ तक चले कि किसी ने इस पुलिया पर टोना कर रखा है तो कोई टोटके का मामला बताता। तन्त्र-मन्त्र तक के चर्चे हो गए। किसी को ढीला चलता देखकर लोग फब्ती कसते, ‘बुड्ढी पुलिया से चला आ रहा है क्या?’ लेकिन नियमित बैठने वालों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। वे जगह अदल-बदल कर बैठते रहे।

ऐसे में नगरपालिका के चुनाव आ गए। पुलिया का बुढ़ापा दूर करना इस वार्ड का मुख्य मुद्दा बन गया। मुकेश-मण्डली के साथी बाबू सलीम ने इस मुद्दे को भुनाकर चुनाव जीता। वो पार्षद बने। नगरपालिका में मामला उठा। तय हुआ कि पुलिया तोड़ दी जाए और उस चौराहे का नया प्लान बनाया जाए। अपने रसूकात से बीमा कम्पनी के ऊँचे अफसरों को साधा गया। बीमा निगम ने इस चौराहे के लिए एक फव्वारा और दस बेंचें अपने खर्चे से देने की मंजूरी दे दी। कल या परसों तक नगरपालिका का बुलडोजर आकर पुलिया को गिराने वाला है। लोगों में तरह-तरह की बातें नए सिरे से फैल रही हैं, “पुलिया ‘बुड्ढी’ जरूर थी, लेकिन मनहूस तो कतई नहीं थी। मजबूती तो बहुत ही ज्यादा थी।”

आखिर ये किस्से चले कैसे? बातें जब मुकेश तक जाती हैं तो मुकेश अपनी कुर्सी पर बैठा-बैठा मुसकाता रहता है। ज्यादा छेड़ो तो कहता है, ‘अपना-अपना दिमाग है। अब चौराहे का रूप निकल आएगा। रहा सवाल पेंशनरों के बैठने का तो अभी दोनों बाजुओं पर अधिक-से-अधिक दस आदमी बैठ सकते थे। अब दस बेंचें लगेंगी। एक-एक पर तीन-तीन बैठो। सारी कालोनी के जितने भी पेंशनर हैं वे अपने कुनबे के साथ आएँ। कौन मना करता है?’

‘शाम को रौनक रहेगी। जवान लोग आएँगे। मिलेंगे। बैठेंगे। बुझी-बुझी बातों से हटकर कुछ ताजा-तरीन बातें होंगी। जलसा जमेगा। रोज-रोज की शोकसभाएँ यह पुलिया कब तक बर्दाश्त करती? अंग्रेजों की गुलामी की निशानी थी। किसी बहाने से मिटनी जरूर थी। बाबू भाई ने अपना वादा पूरा किया है। बधाई!’

आज लोकल अखबारों में नगरपालिका का विज्ञापन आया है - ‘इस चौराहे
का कोई बढ़िया-सा नाम सुझाएँ और अच्छा-सा इनाम पाइए।’

शहर में नई चहल-पहल है।
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‘मनुहार भाभी’ की नौवीं कहानी ‘मनुहार भाभी’ यहाँ पढ़िए।

‘मनुहार भाभी’ की ग्यारहवीं कहानी ‘आभारी’ यहाँ पढ़िए।



कहानी संग्रह के ब्यौरे

मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032




रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।

 

 

  

  


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