दादी का कर्ज

यह लम्बी कविता एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुई थी। इसकी प्रति कहीं उपलब्ध नहीं हो सकी है। ख्यात कवि श्री राधेश्याम प्रगल्भ ने अपने ‘संकल्प प्रेस’ से छाप कर इसे प्रकाशित किया था। दादा श्री बालकवि बैरागी के निधन के बाद, उन्हें याद करते हुए, प्रगल्भजी के बेटे और हिन्दी के ख्यात कवि श्री अशोक चक्रधर ने हुए अपने आत्मीय संस्मरण में इसके छपने का रोचक का ब्यौरा दिया है। यह संस्मरण यहाँ पढा जा सकता है। 



पोते का पृष्ठ

मैंने अपनी दादी को कभी नहीं देखा।

मेरी दादी ने भी मुझे कभी नहीं देखा।

मेरे जन्म से पहले ही मेरी दादी मर चुकी थी।

मेरी माँ मुझे गा-गा कर नित कहानियाँ सुनाया करती थीं।

कहानी वह अब भी सुनाती है, पर गा कर नहीं।

मेरी माँ की इन कहानियों ने ही मुझे कविता और संगीत का संस्कार दिया।

यह कहानी या कि कविता, पहली कहानी है जिसे मैं अपनी ओर से अपनी माँ को भेंट कर रहा हूँ ताकि वह इसे अपने पोतों को सुनाकर इस कहानी का शीर्षक सार्थक कर सके।
इस पुस्तक में जो कविता आप पढ़ेंगे वह शायद कविता या कहानी न होकर एक बात भर कही जा सके। पर आखिर कुछ है तो सही।

आप ही बताइये हमारे देश को इस कहानी की जरूरत आज नहीं है क्या?

निरर्थक हो तो इस किताब को फाड़ फेंकिए। सार्थक हो तो किताब को आगे बढ़ाइए।

 - बालकवि बैरागी

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दादी का कर्ज

उत्तर से दक्षिण 
दो हजार मील लम्बा 
पूरब से पश्चिम एक हजार मील चौड़ा।

कही ठण्डा, कहीं गरम, 
कहीं कठोर, कहीं नरम, 
जिसमें बड़ी-बड़ी नदियाँ
ऊँचे-ऊँचे पर्वत, 
छोटे-छोटे टीले, 
फलों के झाड़, फूलों के बगीचे, 
न जाने कितने रतन धरती में बिछे।

वन इतने कीमती
कि कुबेर को खरीदें,
और रहनेवालोें के मन इतने बली
कि मैं क्या बखान करूँ?
और करने ही लगा तो क्यों डरूँ?
कि, सातों समन्दरों में घोल दी स्याही,
आसमान का कागज बनाया
और ब्रह्मा को लिखने बैठाया।
सरस्वती महिमा बोलने लगी,
कुछ देर तो बोली और आखिर थकी।

महिमा अपार थी, कौन बोले?
आखिर शेष ने
अपने एक हजार मुँह खोले।
पर स्याही समाप्त हो गई, 
कलम घिस गई,
ब्रह्मा बूढ़ा हो गया 
और अंगुलियाँ घिस गईं।
आसमान का कागज
कुकरमुत्ते जैसा छोटा पड़ गया,
बोलते-बोलते शेष का 
नशा झड़ गया।

ऐसी जिसकी महिमा, 
ऐसी जिसकी गरिमा,
ऐसा जिसका वैभव,
ऐसा जिसका वेश,
बहुत बरस पहले 
ऐसा था एक देश।
जिसमें, 
हीरों के सिंहासन पर बैठकर,
सोने का मुकुट लगाए
एक राजा राज करता था।

आप कहेंगे,
यह कविता है या बच्चों की बात?
लेकिन ओ! रसिकों के नाथ!
न यह कविता है
न बच्चों की बात है,
मैं आपसे कुछ कहूँ
मेरी क्या बिसात है!
यह एक कहानी है
जो मेरी दादी ने 
मुझे सुनाई थी।
क्या पता सच है
या, उसने अपने मन से बनाई थी।

जब वह मरने लगी तो
उसने मुझे छाती से लगाया,
मेरे गालों को चूमा,
मेरे बालों को सहलाया।
बोली - ‘बेटा! अब मैं जा रही हूँ।
ऐसी जगह, जहाँ से
वापस कोई नहीं आया है।’
और मैं कुछ कहूँ,
उससे पहले ही
वह बोली - ‘क्या करूँ बेटा!
तेरे दादा ने मुझे बुलाया है। 
सब जाते हैं, 
मुझ भी जाना होगा, 
भगवान नहीं करे मेरे लाल! 
पर एक दिन 
तुझे भी वहाँ आना होगा। 
पर देख! सुन! आँसू पोंछ, 
यूँ क्या मन कच्चा करता है? 
यह दुनिया है बेटा! 
यहाँ हर आदमी मरता है। 
ले मेरे लाल! 
तुझे एक कहानी कहानी कह दूँ।
मैं निर्धन, अभागन 
तुझे इस घड़ी में क्या दूँ? 
ले मुस्करा, ले हँस, 
अरे रो नहीं, बस....बस।
ये कहानी नहीं, 
मेरी सकल कमाई है, 
जो मैंने आज तक 
इस दुनिया से छिपाई है। 
तेरे लिये रखी थी, 
तुझे दिए देती हूँ, 
मगर, मेरे राजा बेटे! 
एक बात कहे देती हूँ 
कि मैंने तो इसे
छिपाकर गलती की थी, 
तू इस गलती को दुहराना मत। 
रोज सौ लोगों को यह कहानी
सुनाए बिना 
तू खाना, खाना मत। 
यह मेरी अन्तिम इच्छा है, 
या कि मेरा तुझ पर एक कर्ज है। 
या यह समझ ले कि 
आज से यह तेरा फर्ज है।’

बस श्रीमान्! 
मेरी दादी ने फिर कहानी सुनाई, 
बोल नहीं पा रही थी, फिर भी निबाही।
मैं सुनता रहा, सुनता रहा, 
कुछ उधेड़ता रहा,
कुछ बुनता रहा। 
फिर उसने माँगा,
तुलसी और गंगा-जल  
दो आँसू उसके भी आये निकल।
उसने बाँहें पसारी, 
मेरी ओर निहारा, 
मुझे कलेजे से लगाया, 
मेरा नाम पुकारा। 
एक हिचकी आई, 
दादी मर गई। 
करोड़ों मील का फासला 
एक हिचकी में तय कर गई।

अब इजाजत हो तो 
वह कहानी आपको सुना दूँ। 
अपनी स्वर्गीया दादी का
थोड़ा कर्जा चुका दूँ। 
आप गम क्यों कर रहे हैं? 
इस मौत के किस्से को जाने दीजिए,
अपने गमगीन चेहरे पर 
जरा मुस्कराहट आने दीजिये। 
यह तो मौत है, 
आती है, जाती है,
जो भी इसे भाता है,
उसे खाती है, पचाती है। 
ओह! समझा! आपको 
अपनी मौत याद आ गई! 
कमाल है भाई?
आपने जब मुझे बलाया है
तोे मैं अपने आपको 
खामोश रख पाऊँगा कैसे?
अगर आप नहीं सुनेंगे तो
मैं खाना खाऊँगा कैसे? 
दादी ने क्या कहा था? 
आप अपने आप से सवाल कीजिए,
अपना तो रोज ही करते हैं,
आज मेरे पेट का खयाल कीजिए।

हाँ, तो, उस देश में
हीरों के सिंहासन पर बैठ कर,
सोने का मुकुट लगाए,
एक राजा राज करता था।
देश कितना भरा-पूरा था,
आपने सुन ही लिया है।
लोग कितने बली थे,
आपने गुन ही लिया है।

राजा, अकल में
पूरा पाव रत्ती, बावन तोला था।
पर अफसोस!
मन का बड़ा भोला था।
मन का समन्दर था,
ममता का मारा था।
जनता का जीवन था,
जन प्रिय था, दुलारा था।
प्रजा पर जान देता था,
महान् था। 
उम्र भी कोई ज्यादा नहीं थी,
जवान था।
पर, दादी कहती थी - ‘बेटा! 
बड़ों के लाड़, 
छोटों को बिगाड़ देते हैं।
जैसे, बाढ़ के चुम्बन,
किनारे के पौधों को
उखाड़ देते हैं।’
राजा चूमता रहा,
लोग बिगड़ते रहे।
अधिकार आगे आ गए,
कर्तव्य पिछड़ते रहे।
लोग माँगने ही माँगने लगे
देना भूल गए।
मुँहफट आलोचक बन गए,
इतरा गए, फूल गए।
अध्यात्म औंधे मुँह था,
भौतिकता भभक रही थी।
विलास के वैशाख में,
स्वार्थ की आग
धधक रही थी।
व्यापारी लालची हो गए,
अन्धे, मशालची हो गए।
अनुशासन की अर्थियाँ उठ रही थीं।
ईमान की साँसें घुट रही थीं।
विद्यार्थी बागी थे,
मजदूर मगरूर थे।
मतलब यह कि
सबके दिल
वतन से कोसों दूर थे।

राजा परेशान था, 
मन्त्री उदास था, 
इधर उद्दण्डता थी, 
उधर सर्वनाश था। 
सूरज की तरह जलने वाला देश 
सो गया था। 
हीरा अपनी ही चमक में 
खो गया था। 

ऐसे में एक पड़ौसी राजा 
देश पर चढ़ आया। 
उससे कुछ पूछा, कुछ समझाया 
तब तक 
सीमा में बढ़ आया।
बात आज की नहीं 
हजारों साल पुरानी है। 
हाँ, हाँ वही! 
मेरी दादी वाली कहानी है।

अब राजा क्या करे? 
जिए कि मरे? 
सेनापति, अधिकारी, अहलकार 
सब खामोश थे।
नेता, विजेता, अभिनेता 
सब बेहोश थे।
कोई दवा नहीं थी, 
मर्ज लाईलाज था। 
बाज बटेर बन गया था 
और बटेर बाज था।

राजा रंज में था, 
और प्रजा? 
आलोचना करती थी, 
दुतकारती थी, फटकारती थी।
परिवर्तन चाह रही थी। 
कहती थी, ‘राजा निकम्मा है। 
देश के हर नफे-नुकसान के लिए
राज का जिम्मा है।’ 
बात भी ठीक थी। 
सारा देश निराश था, 
कोई राह नहीं थी। 
सिर्फ मौत नजर आती थी, 
जिन्दगी पर निगाह नहीं थी।

ऐसे मे एक दिन दरबार में 
किरण बन कर 
एक नौजवान आया, 
राजा को माथा झुकाया, 
और बोला-‘नरेन्द्र! महेन्द्र! जनेन्द्र! 
मैं आपसे कुछ निवेदन करने आया हूँ।
आप राजा हैं, राज चलाते हैं, 
आपकी जय हो। 
इस बुरे समय में आपकी, 
मेरी और मेरे देश की विजय हो।
डर की क्या बात है धीरेन्द्र!
चिन्ता व्यर्थ है,
चिन्ता काल में
यूँ घबराना
पाप है, अनर्थ है।
आपके पूर्वजों ने
इस सिंहासन के नीचे
थोड़ी ही गहराई पर
एक ऐसा अमोघ शस्त्र
गाड़ रखा है,
जिसने धरती को
धरती बनाए रखा है 
और बाकी सब लोकों को
उजाड़ रखा है।
उसे निकालने के लिए
देश के एक-एक बच्चे को
हाथ उठाना होगा।
समय, शक्ति और
साहस जुटाना होगा।
गाँव से गाँव की सीमा तक,
चप्पा-चप्पा जमीन
खोदनी होगी।
राह की हर कुदरती बाधा
पैरों तले रौंदनी होगी।
यों, जब सारे देश के लोग
धरती फाड़ते हुए
सिंहासन तक आएँगे,
तब आप भी कुदाली उठाएँगे
और वह शस्त्र पा जाएँगे।
नब्बे दिनों में यह काम 
हो जाना चाहिए,
नहीं तो हर आदमी को
अपने-आप
कब्र में सो जाना चाहिए।

यह कह कर
वह नौजवान चला गया।
डूबते को तिनके का सहारा।
हुकुम हुआ, फरमान निकले,
ढिंढोरे पिटे।
आज्ञा में कठोरता थी,
कौन नटे?
बूढ़े जवान हो गए,
जवा कराल हो गए।
औरतें चण्डी हो गईं,
बच्चे बवाल हो गए।
पहाड़ उखाड़ दिए गए,
नदियाँ मरोड़ दी गईं।
नाले नंगे कर दिए गए,
झीलो की पेंदी
फोड़ दी गई।
हर शरीर में बिजली थी,
धरती का रोम-रोम फाड़ डाला,
दादी कहती थी-‘बेटा!
उन दिनों लोगों ने
नाखूनों से 
पहाड़ उखाड़ डाला।

‘देश में चेतना आई, उमंग आई,
जिन्दगी नजर आ रही थी।
यह सब देखकर-सुनकर
सीमा पर खड़े दुश्मन की
नानी मरी जा रही थी।
अन्तिम दिन आया।
कुदाल, हल, बक्खर,
छैनी, सब्बल, कील,
चाकू, छुरी, लकड़ी,
ताँबा, पीतल,
हर हाथ में कुछ हथियार था
हर अदमी लैस था।
मतवाला सारा देश था।
‘राजा ने कुदाल उठाया,
जनता जय-जयकार कर उठी।
सिंहासन पर चोट पड़े
उससे पहिले 
वही नौजवान बोला-“बस, महाराज! 
सिंहासन को मत उखाड़िये। 
अनुशासन के प्रतीक की प्रतिष्ठा 
स्वयं मत बिगाड़िये। ‘श्रम’ और ‘साहस’, ‘अनुशासन’ और ‘निष्ठा’
आज साथ में है। 
जिस शस्त्र से 
दुश्मन जीता जा सकता है, 
वह आपके हाथ में है। 
धौंसे पर चोट पड़ने दो, 
नक्कारे बजने दो। 
पसीना पी हुई धरती को, 
खून से भी भींजने दो। 
वतन की जय! कौम की जय! 
पसीने की जय! खून की जय! 
जवानी की जय! रवानी की जय! 
मौत की जय! जुनून की जय! 
अब जय हमारी है, 
हर दुश्मन हारेगा। 
इस ‘श्रम’ और ‘साहस’ को 
कौन सूरमा 
टेढ़ी आँख निहारेगा।”

और दादी ने कहा-“बेटा! 
खून का प्यासा, साम्राज्य का भूखा, 
वह दुश्मन उल्टे पैरों भाग गया। 
पौ को मजबूरन फटना पड़ा, 
क्योंकि सोने वाला जाग गया। 
सारे देश में
बेमौसम दीवाली आ गई। 
वीरानियों में खुशहाली छा गई। 
आषाढ़ के मेघा छाए, 
घरती के घाव मुस्कुराए। 
धरती कमी-कमाई तैयार थी, 
पसीने की ताकत बेशुमार थी।” 

दादी कहती थी-“बेटा! 
उस साल क्या फसल आई! 
क्या फसल आई!! 
न देखी, न सुनी, 
न कभी आई, न आएगी, 
और आ भी गई तो 
इस सेर की हँडिया में 
कैसे समाएगी?”

मुझे याद नहीं आ रहा है 
कि दादी ने और क्या-क्या कहा।
और उसने जो कुछ कहा,
उसमें बाकी क्या रहा? 

मैं सोचता हूँ,
उस देश की कहानी 
आज भी कितनी नई है?
लगता है, मेरा देश 
उस देश की गीली कहानी पर 
लगाया गया ब्लॉटिंग पेपर है।
समस्याओं के वे ही तेवर हैं। 
वहाँ एक राजा था, 
यहाँ हर आदमी राजा है।
वहाँ जो चुभन थी, 
उसका यहाँ भी तकाजा है। 
बस एक बात से 
मेरा मुँह शर्म से लाल है।
वहाँ नब्बे ही दिन थे
और यहाँ पाँच साल हैं।

हाँ, याद आया,
आखिर में दादी से मैंने
एक सवाल किया था
और, उसके जवाब ने मुझे
पल भर को निहाल किया था।
वह सवाल 
आपके मन में भी मँडरा रहा है।
वह है भी कीमती।

सवाल था-‘दादी! आखिर
वह नौजवान कौन था?’
दादी मौत की मुस्कुराहट मुस्कुराई
और पल भर रही मौन।
बड़ी मुश्किल से होठ हिले,
वह बोली-‘वह भूत, भविष्य, वर्तमान
तीनों को जानता था।
कर्तव्य और अधिकार
दोनों को पहचानता था।
वह जानता था कि
राजा में होश रहना चाहिए।
वह जानता था कि
प्रजा में जोश रहना चाहिए।
वह जानता था कि
तोष और रोष समधी हैं, ब्याही हैं।
वह जानता था कि
श्रम और साहस सगे भाई हैं।
वह जानता था कि 
विश्वास और निष्ठा का जोड़ा है।
वह जानता था कि
अनुशासनहीनता शासन का फोड़ा है।

‘बेटा! वह त्रिकालदर्शी था,
मर्मस्पर्शी था।
कुदरत का कन्हैया था,
विचारक था, महर्षि था।
इंसान था, नौजवान था,
अनुभवी था।
अब नहीं बोला जाता मेरे लाल!
वह, उस देश का,
सबसे छोटा, तेरे जैसा ही 
एक कवि था।

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दादा के लिखे की तलाश करते हुए, दादा की पोती प्रिय रूना (याने रौनक बैरागी) को यह कविता, किसी शोधार्थी के शोध ग्रन्थ से मिली। रुना, राजस्थान राज्य प्रशासकीय सेवाओं की सदस्य है और इस कविता के प्रकाशन के दिन, उदयपुर में आबकारी उपायुक्त के पद पर कार्यरत है।  

6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-09-2021) को चर्चा मंच      "भौंहें वक्र-कमान न कर"     (चर्चा अंक-4181)  पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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    1. बहुत-बहुत धन्‍यवाद। 'चर्चा मंच' पर अवश्‍य पहुँचूँगा।

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  2. बहुत बहुत आभार इस इच्छुक रचना को पढ़ने का अवसर प्रदान करने के लिए ।

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    1. मेरा हौसला बढाने के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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  3. पढाने के विए धन्यवाद!

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    1. टिप्‍पणी के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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