उठो मेरे चैतन्य

 





श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की सैंतीसवीं/अन्तिम कविता 




उठो मेरे चैतन्य

पता नहीं कौन
पकड़ लेता है हाथ
ठिठका देता है प्रवाह
रोक देता है स्याही का
सारा उफान
सुन्न हो जाता है
कलम का सारा तूफान।
भीतर से बोलते-बोलते
हो जाता है कोई गूँगा
ये लिखूँगा-वो कहूँगा
जैसे सारे संवेग
सोए से लगने लगते हैं
संवेदना के सारे सिंगार
खोए से लगने लगते हैं।
न कहीं ऊर्जा की कमी
न कोई थकान
फिर भी एक
अजनबी सा अनमनापन
कहाँ से आ गया
मेरे मन!
अँधेरे का घनत्व
और उजाले का महत्व
कल से ज्यादा है
मुखरता गुणित प्रखरता
धन शतगुणा शब्द
मारकता
ये गणित सीधा-सादा है।
रुक जाए कलम
सूख जाए स्याही
सो जाए चेतना
ठिठक जाए प्रवाह
इससे बड़ा
और क्या होगा गुनाह ?
उठो मेरे चैतन्य
संस्कार की
सान पर चढ़ो
हो जाओ बेलिहाज
और पूरे पैनेपन के साथ
आज के अँधेरे से लड़ा।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
 
 
 

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