जीत गया भई जीत गया (‘मनुहार भाभी’ की इक्कीसवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की इक्कीसवीं कहानी




जीत गया भई जीत गया  

काना बा जब तक जिए, कुछ न कुछ वैसा करते रहे जिसका कोई अन्दाज भी नहीं लगा सकता था। हमेशा वे ऊलजलूल रहे। लोग आज भी कहते हैं कि उनकी आत्मा आज जहाँ भी है, वहाँ भी काना बा वैसा ही कुछ ऊटपटाँग कर रहे होंगे। उनके हमजोली आपस में मिलते ही ‘जय रामजी की’ बाद में करते हैं ‘जय काना बा की’ पहले करते हैं। गाँव में एक तरह से उनके क्रिया-कलाप, किंवदन्ती बनते जा हैं। यह अलग बात है कि उनके नाम पर लोग और भी न जाने क्या-क्या लिख-लिखा रहे हैं। पर काना बा थे एक मजेदार और जिन्दादिल आदमी। अपनी

धुन में मगन। गाँव का कोई परिन्दा तक ऐसा नहीं बचा, जिसको काना बा ने कभी न कभी छेड़ा नहीं हो। छोटा हो या बड़ा, बहिन हो या बेटी, सास या बहू, वहाँ का हो या बाहर का, काना बा की फेंट में कम से कम एक बार तो सभी को आना पड़ा ही होगा। वे गाँव के लिए जरूरी थे। उनके बिना न तो गाँव का सवेरा होता था, न गाँव की शाम पड़ती थी। लोग कहते थे कि इतना संजीवन आदमी पूरे सौ बरस जिएगा। पर शायद भगवान को भी काना बा की जरूरत अपने यहाँ ज्यादा थी, उसने काना बा को शास्त्र में लिखी उम्र से तीस बरस पहले ही उठा लिया।

इस जमाने में सत्तर बरस की उम्र भी भला कोई उम्र होती है? साठ-पैंसठ तक तो इन दिनों माथा भी नहीं दुखता। काना बा तो आखिर एक ठहाकेबाज आदमी थे। पता नहीं वे कैसे इतनी जल्दी मर गए?

बहुत सादा लिबास था काना बा का। घुटनों तक धोती, बदन पर आधी आस्तीन वाली लट्ठे की बण्डी और सिर पर सफेद उलझी-उलझी आँटेदार पगड़ी। कन्धे पर एक अँगोछा, पाँवों में अपनी गली के कारीगर का बनाया ठेठ लोकल जूता। दस-बीस दिनों में काना बा एक दिन शंकर काका से हजामत बनवा लेते। न छोटी न बड़ी, पर मूँछें रखते जरूर। मरद का मूँछ से रिश्ता वे न जाने किन-किन दोहा-चौपाइयों से जोड़ते और आज के सफाचट छोरों को छेड़ते। आल-औलाद कुछ थी नहीं। छोटी-मोटी खेती कर-करा लेते और दोनों डोकरे-डोकरी चैैन से जिन्दगी काटते। सारे गाँव से हँसते-बोलते जन-जीवन को सहज बनाए रखते थे। काना बा के जाने के बाद गाँव में एक कमी जरूर पैदा है। डोकरी अकेली रह गई और सुखदेव की होटल हमेशा के लिए सूनी हो गई। दस-बीस मिनट लेट चाहे हो जाएँ, पर काना बा के चाहने वाले कहते थे-‘काना बा एक्सप्रेस आएगी जरूर’ और आस-पास वालों को छेड़ते-छटकाते काना बा आ ही जाते। भाई लोग काना बा को चाय पिलाते तो कभी जिद करके उनसे पी लेते। लोग जब उनसे पीते तो कहते, ‘अपने बाप का माल उड़ा रहे हैं।’ और जब उनको पिलाते तो कहते, ‘आखिर बूढ़ा बाप है। सेवा तो करनी ही होगी। बेचारे के है ही कौन जो चाय की भी पूछे?’

काना बा मजाक में शामिल होते, न वे किसी का बुरा मानते न कोई उनकी बात का बुरा मानता। बस एक छगन चौधरी ही इस गाँव में ऐसा था, जिसका काना बा से अबोला हो गया। लोगों का कहना है कि उसमें भी काना बा का कोई कसूर नहीं है। छगन चौधरी ने काना बा को जो काम सौंपा था, वह उन्होंने पूरी निष्ठा से किया। फिर भी अगर छगन चौधरी टेढ़ा होता है और मुँह फुलाता है तो यह छगन चौधरी की गलती है। काना बा को मरते दम तक इस बात का मलाल था कि छगन चौधरी ने काना बा को गलत समझा। काना बा के शब्दों में ‘यह छगन मुझसे बिना किसी बात के लिए के फिरंट है। भगवान जानता है, कि मैंने कोई बेईमानी नहीं की। भला मुझे क्या तो छगन से लेना और क्या किशन का देना! न कोई मेरा दबैल, न मैं किसी की रखैल। मेरे लिए सभी बराबर हैं। अगर छगन मुझे वैसा नहीं कहता तो मैं वैसा करता भी नहीं। भगवान सब जानता है। न्याय वही करेगा।’ गाँव के लोगों ने भी हजार बार छगन को समझाया पर छगन है कि काना बा को गालियाँ दिए ही जा रहा है। काना बा मरते-मर गए पर छगन को समझा नहीं सके। एक यही मलाल काना बा को अपने मन में पाल कर मरना पड़ा।

काना बा के शब्दों में बात कोई बहुत बड़ी भी नहीं थी। गाँव ने इस घटना का तरह-तरह से चटखारा लिया।  किशन भाई तो इस घटना के बाद काना बा का भगत हो गया। रोज काना बा से किशन भाई का यही आग्रह रहता था कि काना बा अपना एक फोटो उसे दे दें, ताकि वह अपने घर में लगाकर काना बी की उपासना करता रहे।

मामला बहुत छोटा-सा था। ग्राम पंचायत का चुनाव था और काना बा के वार्ड से छगन चौधरी और किशन भाई पंच पद के लिए खड़े हो गए। कुल मिलाकर दो ही उम्मीदवार थे। साफ-सुथरा वार्ड था और वोटों का गणित भी खुल्ला खेल फर्रूखाबादीे था। हार-जीत एक या दो वोट से ही होने वाली थी। अपनी-अपनी जगह दोनों के वोट पक्के थे। काना बा के पास दो वोट थे। एक अपना खुद का और दूसरा डोकरी माँ का। छगन चौधरी ने डोकरी माँ से अपने सिर पर हाथ रखवा गंगाजली उठवा ली थी कि उनका वोट हर हालत में छगन चौधरी के हाथी पर मुहर लगा कर उसी को मिलेगा। सारा दारोमदार काना बा के वोट पर था। छगन चौधरी काना बा की तलाश में खेत, काँकड़ और आसपास के खलिहान तक देख आया था। उसे डर था कि कहीं ऐसा न हो कि किशन भाई काना बा के पाँव पड़ ले और नाव तैरा ले जाए। अगर काना बा ने किशन की नाव पर छाप लगा दी तो यह बात पक्की थी कि छगन चौधरी का हाथी बैठ जाएगा। सारा कबाड़ा हो जाएगा। और संजोग देखिए कि सुखदेव की होटल पर काना बा को एक ही साथ दोनों ने घेर लिया। काना बा ने दोनों की बात सुनी और अपना फैसला सुनाया, ‘देखो भैया! तुम्हें तो पंचायत की कुर्सी का चस्का लगा हुआ है पर मेरे लिए तो यह चनाव घर-गिरस्ती की टूटन और जुड़न का मुद्दा बन गया है। डोकरी से मेरी बात हो गई है। अपना वोट....’ और काना बा अपनी बात पूरी करें, तब तक छगन चौधरी ने काना बा के पाँव पड़ते हुए निवेदन कर ही दिया कि ‘काना बा, आप हाथी पर छाप लगाकर वोट मुझे दे देना।’

किशन भाई के लिए अब करने को कुछ बचा नहीं था। वह समझ गया कि काना बा और डोकरी का पैक्ट हो गया है। काना बा के दोनों वोट उसके खिलाफ जाएँगे। छाप हाथी पर ही लगेगी।

काना बा ने छगन चौधरी को उठाया और कहा-‘देख छगन! हम डोकरे-डोकरी ने साथ जीने और साथ मरने की कसम खा रखी है। इस वोट के लिए हम अपना एका नहीं तोड़ेंगें। सुन भाई किशन! तू अपना दूसरा कोई बन्दोबस्त कर ले। काना बा के भरोसे तेरी नाव तरेगी नहीं। काना अपनी छाप हाथी पर लाएँगे और वोट छगन को ही देंगे। इसमें खोटा मानने की बात नहीं है। काना बा लल्तो-चप्पो वाला आदमी नहीं है। जो कुछ कहना है, वह खुल्लमखुल्ला। क्यों भाई! ठीक है कि नहीं?’ काना बा ने होटल में बैठे सभी लोगों से पूछा। काना बा के केरेक्टर को सभी जानते थे। बूढ़े ने जो कह दिया वह जरूर कर देगा। सभी ने मजाक किया, ‘जीत गया भई जीत गया। हाथी वाला जीत गया!’ काना बा ने रोका, ‘ठहरो! पहले वोट पड़ जाने दो। चल किशन! आज की चाय तेरी तरफ से हो जाए। ऐसा खरा आदमी भी तुझे नहीं मिलेगा, जो मुँह पर कह रहा है कि तेरी नाव में मैं नहीं बैठूँगा।’ 

छगन चौधरी आश्वस्त हो गया और किशन भाई ने सभी को चाय पिला कर सुखदेव की डायरी में उधारी चढ़वा ली। काना बा चल दिए। लोग भी इस तरह बिखर गए, मानो मुख्य अतिथि किसी समारोह से चल दे और सारा सरंजाम अबेरने वाले भी नहीं मिलें। सुखदेव अपने पंखे को चलाने लग गया।

ऐन चुनाव के दिन छगन चौधरी ने काना बा को प्रणाम करने का एक चांस और लिया। काना बा के पास जाकर उसने अपना नकली मत-पत्र थमाया और खूब समझा दिया कि हाथी ऊपर है, और नाव नीचे। आप हाथी पर छाप लगाकर वोट मुझे दे दें। भगवान आपका भला करेगा और मैं गाँव की सेवा ईमानदारी से करूँगा।’ काना बा ने नकली मत-पत्र को उलट-पलट कर देखा।

छगन चौधरी ने काना बा को फिर समझाया, ‘भीतर आपको मत-पत्र मिलेगा, वह हूबहू ऐसा ही होगा।’ उम्मीदवार कुल दो हैं, इसलिए ज्यादह लफड़ा भी नहीं है। आपका आशीर्वाद मिल जाएगा तो इस पंचायत का सरपंच मैं ही बनाया जाऊँगा।

सारी गोटियाँ फिट बैठ चुकी हैं।’ और छगन चौधरी दूसरे मतदाताओं से सम्पर्क करने चला गया।

बेईमानी का कोई सवाल ही नहीं था। काना बा ने पहले डोकरी को भेजा, डोकरी माँ ने अपना वोट डाला। फिर काना बा भीतर गए। चुनाव अधिकारीजी से मत-पत्र लिया, सील ली। बूथ के भीतर गए। छाप लगाकर बाहर आए और जैसा सभी ने डाला वैसा अपना वोट पेटी में डालकर बाहर आ गए। उन्होंने छगन चौधरी को ढूँढ़ा पर पता चला कि वह दूसरे वोटरों को लेने पास के खेतों और कुओं पर गया है।

दोपहर वाली बस से काना बा और डोकरी दोनों तीन-चार दिनों के लिए शिप्रा-स्नान के लिए रवाना हो गए।

शाम को मत-पेटी खुली। वोटों की गिनती हुई । हाथी और नाव दोनों को बराबर-बराबर वोट मिले। न एक कम न एक ज्यादा। यह भी इसलिए हुआ कि छगन का एक वोट रद्द हो गया। इस बात पर बहुत हो-हल्ला हुआ, पर बात कानूनी थी, और जो मत-पत्र रद्द हुआ वह रद्द होने वाला ही था। छगन चौधरी जीती-जिताई बाजी हारने की आशंका में उदास था। किशन की आँखों में नई चमक थी। चुनाव अधिकारी ने नियमानुसार लॉटरी डालकर फैसला करने की घोषणा की। दोनों के नाम की पुर्जियाँ बनाई गईं और पाँच बरस के अबोध बच्चे से उठवाई गईं। नियम था कि जिसके नाम पर पर्ची बच्चा उठा ले, वह हारा हुआ माना जाएगा। जो पर्ची नीचे रह जाएगी जीता हुआ घोषित होगा। दोनों के कलेजे धक-धक कर रहे थे - ‘हे भगवान! बच्चा कहीं मेरी पर्ची न उठा ले!’ पर आखिर जीतना तो किसी एक को ही था।

बच्चे ने जो पर्ची उठाई वह छगन चौधरी के नाम की थी। छगन चौधरी हार गया। चुनाव अधिकारी ने नियमानुसार किशन भाई को विजयी पंच घोषित कर दिया। पंचायत चुनाव का पहला दौर निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। उस वार्ड में हाथी हार गया और नाव जीत गई। छगन चौधरी के घर में स्यापा छा गया। मातम में सारा परिवार डूब गया। गाँव में कहावत बन गई कि डूबती नाव इस तरह तैर जाती हैं। हारा हुआ आदमी गोटी में जीत गया। इसको कहते हैं राजयोग और भाग्य की बात। भाग्य बली तो गोटी खुली।

पाँचवें दिन हनुमानजी के मन्दिर के पास ही बस-स्टैंड पर काना बा डोकरी के साथ उतरे। डोकरी को उन्होंने घर भेजा और चुनाव का समाचार लेने तथा अपनी हाजिरी गाँव में लिखाने के लिए वे सीधे सुखदेव होटल पर खड़े हो गए। चलना ही कितना था? मुश्किल से पचास कदम का फासला था। गाँव में हल्ला मच गया,  ‘काना बा आ गए, काना बा आ गए’ काना बा ने बेंच पर अपना आसन ग्रहण किया, तब ही भागा-भागा, लपका-लपका किशन भाई वहाँ पहुँचा और काना बा के पाँवों में गिर पड़ा- ‘काना बा, आपकी जय हो, आपका आशीर्वाद मुझे मिल गया।’ मेरे लायक सेवा बताइए ।

बात यहाँ तक पहुँच चुकी थी कि पंचों के चुनाव के बाद तीसरे ही दिन सरकार ने सभी पंचों की बैठक बुलाकर ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव भी करवा दिया था और किशन भाई उसमें सरपंच चुन लिए गए थे। यह भी पता चला कि कल ही किशन भाई को तहसीलदार साहब सरपंच का चार्ज दिलवाने के लिए आने वाले हैं।

गाँव के मनचले लोग घर से किसी तरह खींच-खाँच कर छगन चौधरी को भी होटल पर ले आए, ‘कब तक घर में बैठे रहोगे चौधरी साहब! यह चुनाव है। परजातन्तर में हार-जीत होती रहती है। चलो बाहर निकलो। काना बा याद कर रहे हैं।’ काना बा का याद करना सुनकर छगन चौधरी ने पाँव माँडे। बाहर आया और जैसे-तैसे सिर नीचा करके होटल पहुँचा। काना बा के दोनों वोट डंके की चोट पर उसे जो मिले थे।

आते ही छगन चौधरी ने कहा, ‘काना बा एक वोट से अपना कबाड़ा हो गया। अगर एक वोट खारिज नहीं होता तो आज किशन भाई सरपंच नहीं होता। आपका यह सपूत इस पद पर आपको मिलता। लगता है आपके आशीर्वाद में कोई कमी रह गई। लेकिन आप भी क्या करते? आपने तो दोनों वोट हाथी को दिए ही हैं!’

काना बा ने ढाढस बँधाते हुए कहा, ‘मन छोटा करने की बात नहीं है। तुम हारे नहीं हो। एक ही वोट का मामला है तो लो आपका एक वोट। हाथी पर छाप लगा-लगाया बिल्कुल मेरा वोट।’ और काना बा ने अपनी पगड़ी की उलझी आँटों में सँभालकर रखा गया अपना असली मत-पत्र फैलाकर पंचों के सामने रख दिया।

छगन चौधरी के दीदे फटे के फटे रह गए। वह चीख पड़ा, ‘काना बा! ये क्या किया आपने? इस वोट को पेटी में क्यों नहीं डाला?’

बहुत ही सहज भाव से काना बा बोले, ‘आपने ही तो कहा था, कि हाथी पर छाप लगाना और वोट मुझे दे देना। यदि आप ऐसा नहीं फरमाते तो काना बा ने कोई भाँग खा रखी थी, जो इस वोट को इतना सँभालकर रखता और शिप्रा तीरथ करा कर वापस सँभालकर लाता? तीरथ से सीधा आया हूँ, भगवान और मेरा राम अपने बीच में है। भरी जाजम पर आपका वोट आपको दे रहा हूँ। कल तहसीलदार साहब पधारें तो यह वोट उनको दे देना और आपके वोटों में शामिल करवा कर गिनवा देना। मरूँ-मरूँ क्यों करते हो? अब तो जीत गए आप?’ और किशन भाई की तरफ मुँह करके बोले, ‘किशन्या, कल तू चारज मत लेना। मेरा वोट असली है। अगर उसी दिन छगन मुझे मिल जाता तो मैं यह वोट इसको देकर शिप्रा के लिए निकलता। पर यह मिला नहीं, मैंने अपनी पगड़ी में वोट को सँभालकर रख लिया। वोट आखिर परजातन्तर है। इसको जेब में तो रखना चाहिए नहीं। नेहरूजी ने कहा था कि वोट बहुत पवित्र चीज है। मैंने पूरे पाँच दिनों तक इसे माथे पर चढ़ा कर पगड़ी में सँभाला है।” लोग ठहाके लगा रहे थे, छगन दाँत पीस रहा था। किशन किलकारियाँ भर रहा था। सुखदेव की भट्टी का पंखा थम गया था।

सुखेदव ने पूछा, ‘काना बा, आप इस वोट को बाहर लाए कैसे? पेटी में आपने क्या डाला? यह चकमा दिया कैसे?’

‘लो तुम लोग इसे चकमा कहते हो? अरे मैंने कितना बड़ा खेल खेला, अपने वचन को निभाने के लिए! वो जो मत-पत्र छगन मुझे समझाने के लिए दे गया था, उस पर इसका हाथी तो था पर किशन की नाव नहीं थी। पेटी में तो मैंने वही पुर्जा डाल दिया था। इन सरकार के लोगों की आँखों में धूल झोंकने में लगता क्या है! मैं दस बार वैसा कर सकता हूँ। कागज के जैसा कागज था। मैंने वह डाल दिया। अगर छगन यूँ नहीं कहता कि हाथी पर छाप लगाकर वोट मुझे देना तो मैं इतनी चतुराई करता ही क्यों? आखिर डोकरी ने हाथी पर छाप लगा कर वोट पेटी में डाला कि नहीं? तुम सभी लोगों ने अपने-अपने वोट डाले कि नहीं? क्या मुझे नहीं पता था कि वोट कहाँ डाला जाता है? आज तक वोट डालता आया ही हूँ! कोई नया काम तो नहीं है! आज तक इतनी ऊमर ली है।’ काना बा का भाषण जारी था। सभी झूम रहे थे। वे चालू रहे, ‘बोलो भाई! उस दिन आप सभी यहाँ थे। आखिर छगन ने मुझी से क्यों कहा कि छाप लगा कर वोट मुझे देना? तुम सभी से वैसा क्यों नहीं कहा? इस छगन के मन में चोर था। मुझ पर भरोसा नहीं था।’

छगन का मन हुआ कि सामने से एक पत्थर उठा लाए और खुद अपना करम ठोक ले। वह जीता हुआ हार गया था। उसने काना बा के हाथ से वोट लिया। लिया क्या, करीब-करीब छीना और सुखदेव की भट्टी पर रख कर पंखा चला दिया। मत-पत्र जलकर राख हो गया। काना बा ने पूछा, ‘अरे! अरे! छगन्या! ये क्या करता है? क्या ये तेरे काम का नहीं है?’

दाँत पीसता हुआ, जबड़े भींचता हुआ, छगन चौधरी बोला- ‘मेरे बाप बराबर हो इसलिए आपको जेल जाने से बचाने के लिए ऐसा कर रहा हूँ। कल अगर तहसीलदार ने यह मत-पत्र देख लिया तो सीधे छः महीने के लिए ताड़ियों में बन्द कर दिए जाओगे। कोई जमानत देनेवाला नहीं मिलेगा। बड़े आए वोट देने वाले!’ इसी बीच सुखदेव का सुर उछला, ‘हाँ काना बा! आज चाय पियोगे कि पिलाओगे? बोलो क्या इच्छा है?’ ‘आज की चाय छगन के नाम पर होगी। छगन ही पिलाएगा।’

छगन का मन हल्का हो गया, सरेआम प्रमाणित हो गया था कि वह सचमुच में हारा नहीं था। काना बा अगर उसे शब्दशः नहीं लेते तो वह जीता-जिताया था। सभी ने देखा कि किशन भाई चुप से हो गए हैं। जो चमक उनके चेहरे पर थोड़ी देर पहले थी, वह कम होती जा रही है। उन्होंने काना बा से कहा-‘काना बा आज की चाय मेरी तरफ से हो जाए, मेरे खाते में लिख लेगा सुखदेव।’

‘नही! नही!’ काना बा बोले, ‘आज काना बा तीर्थ से आए हैं, अपन आज हाथी पर ही बैठेंगे। क्यों छगन, ठीक है ना? लगाओ रे लगाओ, अब तो छगन चौधरी के जीतने का नारा लगाओ’, काना बा जोर से बोले-‘जीत गया भई जीत गया’ नारे को पूरा किया किशन भाई ने, वह बोला, ‘हाथी वाला जीत गया’। गाँव में सहजता वापस लौट आई। 

काना बा जब तक जिए ऐसे ही ऊटपटांग काम करते रहे। गाँव को आज उनकी सख्त जरूरत है। आप किसी से भी पूछ देखें। कहता तो छगन भी यही है।

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मनुहार भाभी - कहानियाँ

लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।

 


1 comment:

  1. apki es post ko padhkar muje bhot accha lga aap aise he post karte rhena kyoki ap ek accha writer ho mi ka baap kaun hai

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